पोस्ट के जो केटेगरी व टैग होते हैं, वे गूगल सर्च में उपयोगी नहीं होते। वे तो केवल वर्डप्रेस डॉट कोम में ही पोस्ट को सर्च करवाते हैं। केटेगरी व टेग, दोनों मिलाकर पंद्रह से अधिक नहीं होने चाहिए। उनकी पंद्रह से अधिक संख्या वाली पोस्टों को वर्डप्रेस फ़िल्टर करके स्पाम में डाल देता है। केटेगरी में मुख्य कीवर्ड होता है, जबकि टेग में उस मुख्य कीवर्ड का सब कीवर्ड होता है। उदाहरण के लिए, कुण्डलिनी जागरण से सम्बंधित पोस्ट के लिए “कुण्डलिनी” कीवर्ड केटेगरी के लिए फिट है, जबकि “कुण्डलिनी जागरण” टेग के लिए।
ऐसा भी चल सकता है कि किसी पोस्ट के लिए केवल केटेगरी के ही कीवर्ड दिए गए हों, टेग के नहीं। वर्डप्रेस डॉट कोम दोनों को एकसमान समझता है। यहाँ तक कि यदि कोई भी केटेगरी या टेग न दिया गया हो, तब भी वह पोस्ट के मुख्य कंटेंट में से कीवर्ड को ढूंढ लेता है।
अब जो वेबसाईट के रीडर के अंतर्गत टेग बटन है, उसका अर्थ यह नहीं है कि उसमें लिखे जाने वाले कीवर्ड से केवल उसी कीवर्ड के टेग वाली पोस्टें ही ढूंढी जाए। वास्तव में उस बटन का नाम “टेग” के स्थान पर “कीवर्ड” ज्यादा उपयुक्त लगता है।
अब मुफ्त की व खरीदी गई वेबसाईट के बीच में अंतर के बारे में बात करते हैं। निःशुल्क वेबसाईट के डोमेन नेम में वेबसाईट के नाम के साथ वर्डप्रेस डॉट लगा होता है। पेमेंट वाली वेबसाईट में यह नहीं लगा होता। यही अंतर है, और कुछ नहीं। उदाहरण के लिए, इस वेबसाईट के निःशुल्क वर्जन का डोमेन नेम यह होगा, demystifyingkundalini.wordpress.com; जबकि इसके सशुल्क वर्जन का डोमेन नेम यह है, demystifyingkundalini.com
दोनों में ही मेरी वैबसाईट का डोमेन नेम (demystifyingkundalini) सुरक्षित है, और इसे कोई दूसरा नहीं ले सकता। सशुल्क वर्जन में एक लाभ यह भी है कि उसमें कस्टमर केयर की ईमेल व चेट सुपोर्ट मिलती है। साथ में, निःशुल्क वेबसाईट के डाटा की सुरक्षा का जिम्मा कंपनी नहीं लेती। इसलिए नियमित रूप से उसे बेकअप करते रहना पड़ता है।
वेबसाईट विकास से सम्बंधित पोस्ट की इस सिरीज (नंबर 1 से लेकर 12 तक) में जो जानकारी मुझे कस्टमर केयर सुपोर्ट से मिली है, उनमें से भी कुछ ख़ास-२ डाली गई है। इसलिए यह निःशुल्क वेबसाईट को बनाने वाले के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।
अब बात आती है बहुभाषी वेबसाईट की। पहला तरीका यह है कि एक ही वेबसाईट में दोनों भाषाओं के पेज व पोस्ट डालें। इसके लिए मीनू आईटम्स व विजेट्स के नाम हिंदी व अन्ग्रेजी, दोनों में रखने पड़ेंगे। एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने के लिए पेजस व पोस्ट्स पर लिंक डालने होंगे। अब ऐसी वेबसाईट में दो प्रकार से ब्लॉग पोस्ट लिखी जा सकती है। पहले तरीके में, पहले मूल भाषा में लिखा जाता है, फिर उसके नीचे उसी पोस्ट में अनुवादित भाषा में लिखा जाता है। पोस्ट के टॉप पर एक पेजजंप लिंक दिया जाता है, ताकि उस पर क्लिक करने से अनुवादित भाषा में जाया जा सके।
दूसरे तरीके में, मूल हिंदी के लिए अलग से पोस्ट बनाई जाती है, और अंग्रेजी के लिए अलग से। दोनों पोस्टों में एक-दूसरे पर जाने के लिए लिंक डाला जाता है। यह तरीका सर्च इंजन रेंकिंग के लिए कुछ ज्यादा अच्छा प्रतीत होता है। मैं तो द्विभाषी वैबसाईट के लिए इसी तरीके को अपनाता हूँ। यद्यपि इसमें एक भाषा के फोलोवर दूसरी भाषा की पोस्ट भी प्राप्त करते रहते हैं। इससे बचने का तरीका यह है कि अनुवादित भाषा के लिए अलग से वेबसाईट बना लो। मुफ्त वाली वेबसाईट भी बना सकते हैं। एक वेबसाईट से दूसरी पर जाने के लिए जगह-२ पर लिंक डाले जाते हैं। संभवतः उसमें एक वेबसाईट मीनू से दूसरी वेबसाईट भी खुल जाती है, क्योंकि दूसरी वेबसाईट पहली वाली वेबसाईट की सेटिंग पर ही बनी होती है। उदाहरण के लिए, यदि मुख्य वेबसाईट demystifyingkundalini.com है, तो दूसरी वेबसाईट demystifyingkundalinieng.wordpress.com बना सकते हैं। डोमेन नाम में कुछ न कुछ परिवर्तन तो करना ही पड़ता है। साथ में, वह डोमेन नाम उपलब्ध भी होना चाहिए। फिर भी, खासकर भारतीय वातावरण में एक ही वैबसाईट में हिंदी व अंग्रेजी भाषाएँ एक दूसरे की सहयोगी हैं, इसलिए यह मिश्रित तरीका सर्वोत्तम है।
ट्रांसलेशन के मामले में गूगल कुछ सख्त है। अंगरेजी की गुणवत्ता से वह आसानी से संतुष्ट नहीं होता। इसलिए कहा जाता है कि मशीन-ट्रांसलेशन या गूगल-ट्रांसलेशन को वह स्वीकार नहीं करता। पर मेरा मानना है कि यदि गूगल से बेसिक ट्रांसलेशन कराने के बाद उसे हाथ से सुधारा जाए, तो वह ट्रांसलेशन स्वीकृत हो जाता है।
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