वैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि मानवता से भरी हुई ख़ुशी से ही मानव का विकास होता है। यही बात वैदिक संस्कृति में व विभिन्न धर्मों में शुरू से लेकर कही जा रही है। उन्होंने तीन प्रकार के लोगों के समूहों के जीनोम का अध्ययन किया। उन्होंने साधारण समूह के साधारण जीनोम को मापा। वह जीनोम साधारण था। फिर उन्होंने उसमें से दो समूह बनाए। एक समूह को मानवता से भरी हुई ख़ुशी (Eudaimonic) अपनाने को कहा तो दूसरे समूह को स्वार्थ से भरी हुई ख़ुशी अपनाने को। जब उनके जीनोम को मापा गया, तो उन्होंने पाया कि मानवता वाले समूह का जीनोम तेज गति से अभिव्यक्त/विकसित हो रहा था, जबकि स्वार्थ से भरी हुई ख़ुशी (Hedonic) वाले समूह का जीनोम वैसा ही था।
तो क्या कुण्डलिनी से भी जीनोम विकसित होता है?
मानवता की भावना से भी जीनोम विकसित होता है, यद्यपि मानवता से भरे हुए कर्मों की अपेक्षा कम गति से। वास्तव में आदमी भावनामय ही है। कर्म से भी भावना ही निर्मित होती है। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि मानवता से भरी हुई भावना प्रबल हो, तो उससे जीनोम का विकास मानवता से भरे हुए कर्मों से भी आधिक हो सकता है। कुण्डलिनी (मानव रूप/गुरु/देवता/प्रेमी की स्पष्ट व स्थिर मानसिक छवि) भी तो मानवता से भरी हुई प्रबल भावना ही है। इसके विपरीत, यदि मानवता से भरे हुए कर्मों से मानवता से भरी भावना का निर्माण न हो रहा हो, तो उस कर्म से जीनोम के लिए विशेष लाभ प्रतीत नहीं होता।
वैदिक संस्कृति में मानवता से भरी भावना पर जोर
इन्हीं उपरोक्त कारणों से संस्कृत मन्त्रों को भावनामय बनाया गया। वे एकदम से प्रबल मानवता की भावना को विकसित करते हैं। कई बार उनके सामने मानवता से भरे हुए कर्म भी बौने पड़ जाते हैं।
कुण्डलिनी व मानवता से भरी हुई भावना के बीच में सम्बन्ध
कुण्डलिनी परम प्रेम का प्रतीक है। प्रेम ही मानवता का सबसे प्रमुख मापदंड है। इसका अर्थ है कि कुण्डलिनी योग से भी जीनोम विकसित होता है। यह वैज्ञानिक रूप से भी प्रमाणित है। मानवता से भरी हुई ख़ुशी से भी जीनोम धीरे-धीरे विकसित होता हुआ एक ऐसी आवस्था पर पहुँच जाता है, जो कुण्डलिनी को सक्रिय कर देता है। कुण्डलिनी जागरण से तो जीनोम के विकास को एकदम से पंख लग जाते हैं।
वैदिक संस्कृति में मानवता की भावना के कुछ महत्त्वपूर्ण उदाहरण
यत्पिंडे तत्ब्रम्हांडे
इसका अर्थ है कि जो कुछ ब्रम्हांड में है, वह सभी कुछ हमारे अपने शरीर में भी है।
पुरुषसूक्त
इसमें ब्रम्हांडरूपी मानव शरीर का वर्णन किया गया है।
सर्वदेवमया धेनुः
इसका अर्थ है कि गाय के शरीर में सभी देवता विद्यमान हैं। इसलिए गाय आदि जीवों की सेवा करने से सभी देवताओं की अर्थात पूरी सृष्टि की सेवा हो जाती है। इससे परम मानवता से भरी भावना विकसित होती है।
शक्तिपीठ
देवी के बहुत से शक्तिपीठ हैं। जिस भूमि-स्थान पर देवी के शरीर का कोई विशेष अंग गिरा है, वह एक विशेष शक्तिपीठ के रूप में प्रख्यात हुआ है। नैनादेवी नामक शक्तिपीठ में देवी के नयन गिरे हैं। इसी तरह ज्वालाजी में देवी की जिह्वा गिरी है। इसी तरह और भी हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि जब एक विशेष भूमि-स्थान देवी के एक अंग के रूप में है, तब वहां रहने वाले सभी प्राणी विशेषकर मनुष्य उस अंग के घटक/देहपुरुष (कोशिकाएं, जैव-रसायन आदि) हैं। इसलिए सभी सेव्य हैं। यह दर्शन पूरी तरह से शरीरविज्ञान दर्शन से मेल खता है।
शरीरविज्ञान दर्शन सम्मत मन्त्र
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः, सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
पूजा ते विषयोपभोग रचना, निद्रा समाधिः स्थितिः।।
संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः, स्तोत्राणि सर्वौ गिरौ।
यत्यत् कर्म करोमि तत्तदखिलं शंभो तवाराधनं।।
यह उपरोक्त मन्त्र भी शरीर को संपूर्ण सृष्टि के रूप में दिखा रहा है, तथा इसकी सेवाचर्या को ईश्वर की अराधना बता रहा है।
निष्कर्ष
उपरोक्तानुसार भावना करते रहने से अपने लिए स्वार्थपूर्ण ढंग से किए गए सभी काम भी पूरे ब्रम्हांड के लिए किए गए काम बन जाते हैं। प्रेमयोगी वज्र द्वारा रचित शरीरविज्ञान दर्शन में भी यह तथ्य वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया जा चुका है।
शरीरविज्ञान दर्शन से मानवता की भावना
इस दर्शन में वैज्ञानिक रूप से दिखाया गया है कि किस प्रकार हमारे अपने शरीर में सभी प्रकार के प्राणी, सभी प्रकार की संरचनाएं व सभी प्रकार के क्रियाकलाप मौजूद होते हैं। हमारे अपने शरीर में भी विविध प्रकार की विशाल पर्वतमालाएं, व जल-स्रोत हैं। बड़े-२ उद्योग हैं। व्यापक कृषिसंपन्न भूभाग हैं। घने जंगल हैं, जिनमें चित्र-विचित्र जंगली जानवर निवास करते हैं। लोगों की विकसित सभ्यता है। अनेक प्रकार के कार्यकारी विभाग हैं, जैसे कि जल-विभाग, संचार-विभाग आदि-२। इसमें हर समय देवासुर संग्राम चलता रहता है। अलौकिक प्रेम-प्रसंग भी देखने को मिलते रहते हैं। इस वैज्ञानिक दर्शन को भलीभांति समझ जाने पर आदमी सदा के लिए प्रसन्न व मानवतावादी बन जाता है। उसके द्वारा अपने शरीर की भलाई के लिए किए गए सारे क्रियाकलाप स्वयं ही पूरी सृष्टि की भलाई के लिए किए गए क्रियाकलाप बन जाते हैं। अगर तो शरीरविज्ञान दार्शनिक कर्म भी दूसरे जीवों की भलाई के लिए करने लगे, तब तो इस दर्शन से और भी अधिक लाभ मिलता है। इससे उसका जीनोम शीघ्र विकसित होकर उसकी कुण्डलिनी को सक्रिय कर देता है।
Interestingly, molecular analysis of hedonic and eudaimonic individuals revealed quite different gene expression patterns. Individuals with high hedonic happiness showed increased pro-inflammatory gene expression and decreased expression of genes associated with antibody synthesis ——
Different Molecular Profiles of Eudaimonic and Hedonic Happiness
One thought on “मानवता से भरी हुई ख़ुशी ही असली व कुण्डलिनी से जुड़ी हुई ख़ुशी है”