कहते हैं कि बच्चे भगवान् का रूप होते हैं। इसके पीछे बहुत से कारण हैं। परन्तु सबसे प्रमुख व मूल कारण कुण्डलिनी से सम्बंधित है। कुण्डलिनी बच्चों का मूल स्वभाव है। वास्तव में, कुण्डलिनी की खोज बच्चों ने ही की है। बड़ों ने तो उस खोज को केवल कागज़ पर उकेरा ही है। बड़ों ने बच्चों के इस मूल स्वभाव की नक़ल करके बहुत सी मैडिटेशन तकनीकों को ईजाद किया है। बड़ों ने बच्चों के इस मूल स्वभाव की नक़ल करके बहुत सी योग-सिद्धियाँ प्राप्त की हैं। परन्तु हैरानी की बात यह है कि बच्चों के इस मूल स्वभाव को बहुत कम श्रेय दिया जाता है। अहंकार के आश्रित अधिकाँश लोग सारा श्रेय स्वयं बटोरना चाहते हैं। आज हम इस ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से बच्चों को उनका असली हक़ दिलाने की कोशिश करेंगे।
बच्चे स्वभाव से ही अद्वैतवादी होते हैं
बच्चे केवल अनुभव करना जानते हैं। वे अनुभव का पूरा मजा लेते हैं। वे गहराई में नहीं जाते। वे जजमेंट नहीं करते। इसलिए उन्हें सभी कुछ एक जैसा ही प्रतीत होता है। उनकी नजर में लोहा, पत्थर व सोना एकसमान हैं। विपासना साधना के ये मूलभूत गुण हैं। इससे सिद्ध होता है कि बच्चों में स्वयं ही विपासना होती रहती है। विपासना उनका स्वभाव है।
बच्चे स्वभाव से ही कुण्डलिनी प्रेमी होते हैं
यह हम पहले भी विविध प्रमाणों से अनेक बार सिद्ध कर चुके हैं कि विपासना (साक्षी भाव)/अद्वैत व कुण्डलिनी साथ-२ रहते हैं। क्योंकि बच्चे स्वभाव से ही अद्वैतवादी होते हैं, अतः यह स्वयं ही सिद्ध हो जाता है कि बच्चे स्वभाव से ही कुण्डलिनी योगी होते हैं। इसी वजह से ही तो बच्चे किसी एक चीज के दीवाने हो जाते हैं। यदि वे किसी ख़ास खिलौने को पसंद करते हैं, तो रात-दिन उसी के पीछे लग जाते हैं। इसी तरह, यदि बच्चे किसी एक आदमी के दीवाने हो जाते हैं, तो उसी पर अपना सब कुछ लुटाने को तैयार हो जाते हैं। हालांकि इससे वे कई बार बड़ों के धोखे का शिकार भी बन जाते हैं। योग-ऋषि पतंजलि भी तो यही कहते हैं कि “यथाभिमतध्यानात् वा”; अर्थात अपनी किसी भी मनपसंद चीज के निरंतर ध्यान से योग सिद्ध होता है।
सर्वप्रिय वस्तु के रूप में कुण्डलिनी
यही सबसे पसंदीदा चीज ही तो कुण्डलिनी है, जो निरंतर मन में बसी रहती है। एक बात और है। जब बच्चा कोई नयी चीज पसंद करने लगता है, तब वह अपनी पुरानी पसंदीदा चीज को छोड़ देता है। फिर वह उसी एक नयी चीज का दीवाना बन जाता है। वह एक से अधिक चीजों या लोगों से एकसाथ प्यार नहीं कर पाता। कुण्डलिनी योगी का भी यही प्रमुख लक्षण है। योगी भी लम्बे समय तक, यहाँ तक कि जीवनभर भी एक ही चीज का ध्यान करते रहते हैं, जो उनकी कुण्डलिनी बन जाती है।
प्रेम कुण्डलिनी की खुराक के रूप में
प्रेम से कुण्डलिनी को बल मिलता रहता है। तभी तो देखने में आता है कि बच्चे प्रेम की ओर सर्वाधिक आकृष्ट होते हैं।
बच्चों का मोबाईल फोन-प्रेम भी कुण्डलिनी-प्रेम ही है
आजकल बच्चे हर समय मोबाईल फोन से चिपके रहते हैं। यह बच्चों का दोष नहीं है। यह उनका कुण्डलिनी-स्वभाव है, जो उन्हें एक चीज से चिपकाता है। उन्हें अच्छे-बुरे का भी अधिक ज्ञान नहीं होता। इसलिए बच्चों की भलाई के लिए समाज को ऐसी चीजें बनानी चाहिए, जो पूरी तरह से दुष्प्रभाव से मुक्त हों। एक उपाय यह भी है कि बच्चों को प्रेम से ऐसी चीजों के दुष्प्रभाव के बारे में बाताया जाए। उन्हें प्यार से समझाना चाहिए या अपने साथ दूसरे कामों/खेलों/घूमने-फिरने में मित्र की तरह व्यस्त रखना चाहिए। यदि बच्चों के सामने नफरत से भरा हुआ द्वैतभाव प्रकट किया जाएगा, तब तो उनका कुण्डलिनी-गुण नष्ट ही हो जाएगा, और साथ में उनका बचपन भी।
बच्चे मन के भावों को पढ़ लेते हैं
बड़े लोग चाहे जितना मर्जी छुपाने की कोशिश कर लें, बच्चे उनके मन के भाव को पढ़ ही लेते हैं। यह शक्ति कुदरत ने उन्हें आत्मरक्षा के लिए दी है। इसी शक्ति से तो वे किसी आदमी को अच्छी तरह से पहचान कर उसके जी-जान से दीवाने हो जाते हैं, जिससे कुण्डलिनी विकास होता है। वैसे भी बच्चों में कुण्डलिनी आसानी से बन जाती है, क्योंकि उनका दिमाग खाली होता है। तभी तो देखा जाता है कि कई बार अच्छे-खासे घर के बच्चे बिगड़ जाते हैं। वास्तव में, उस घर के लोग बाहर से तो अच्छे होते हैं, पर उनके मन के भाव अच्छे नहीं होते। बच्चे उन मनोभावों से गलत आदतें सीख लेते हैं। इसके उलट, कई बार बुरे घर के बच्चे बहुत अच्छे बनते हैं। वास्तव में, उस घर के लोग बाहर से बुरे प्रतीत होते हैं, पर उनके मन के भाव अच्छे होते हैं। सबसे बेहतर यह है कि मन के अन्दर व बाहर, दोनों स्थानों पर अच्छे बन कर रहा जाए। यदि अपने काम में उन्हें भी भागीदार बनाया जाए, तो वे स्वयं ही सीख जाते हैं। कई बार वे सीखने-सिखाने के नाम से ही चिढ़ जाते हैं।
बच्चों में कुण्डलिनी सक्रिय होती है, पर वे उसे जागृत नहीं कर पाते
कुण्डलिनी को जागृत करने के लिए बच्चों को कम से कम किशोरावस्था का इन्तजार करना ही पड़ता है। उस आयु में शरीर को यौनशक्ति मिलनी शुरू हो जाती है। यदि उस यौनशक्ति का प्रबंधन सही ढंग से हो जाए, तो वह कुण्डलिनी को मिलने लग जाती है, जिससे कुण्डलिनी आसानी से जाग सकती है। कईयों को दिव्य व अनुकूल परिस्थितियाँ मिलने से यह काम स्वयं हो जाता है, जैसा कि प्रेमयोगी वज्र के साथ हुआ। कईयों को विशेष प्रयास करना पड़ता है।
प्रेमयोगी वज्र का कुण्डलिनी अनुभव
बचपन में वह कुण्डलिनी के प्रति तो आम बच्चों की तरह ही आकृष्ट होता था। यद्यपि किशोरावस्था में उसे दिव्य व अनुकूल परिस्थितियाँ मिलीं, जिनसे उसकी यौनशक्ति उसकी कुण्डलिनी को मिलती रही। वह यौनशक्ति इतनी अधिक मजबूत थी कि उसकी कुण्डलिनी ने जागृत हुए बिना ही उसे क्षणिक आत्मज्ञान करा दिया। उसके बाद तो वह पूरी तरह से एक बच्चे के जैसा बन गया। हर समय उसके मन में कुण्डलिनी वैसे ही बसी रहती थी, जैसे कि एक बच्चे के मन में कोई खिलौना या विशेष प्रेमी। अधिकाँश लोग उसका मजाक जैसा बनाया करते थे। कई तो कभी-२ दुर्व्यवहार पर भी उतर आते थे। वास्तव में, सभी लोग अपने झूठे अहंकार पर लगी चोट को बर्दाश्त नहीं कर पाते।
दूसरी बार उसने क्षणिक कुण्डलिनी जागरण को कृत्रिम योग तकनीक से प्राप्त किया, कुछ यौनयोग की सहायता लेकर। यह सारा वृत्तांत हिंदी में बनी पुस्तक “शरीरविज्ञान दर्शन” में, व अंग्रेजी में लिखी पुस्तक “love story of a Yogi” में वर्णित है, जो इस वैबसाईट के पेज “शॉप” पर उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त, यदि कोई कुण्डलिनी प्रेमी इस वैबसाईट की सभी कुण्डलिनी से सम्बंधित ब्लॉग पोस्टों को किनडल ईबुक के रूप में आसानी से व एकसाथ पढ़ना चाहे, तो सभी का संग्रह भी पुस्तक रूप में इसी वैबपेज पर उपलब्ध है। उसके हिंदी-रूप का नाम “कुण्डलिनी विज्ञान- एक आध्यात्मिक मनोविज्ञान” व अंग्रेजी-रूप का नाम “kundalini science- a spiritual psychology” है।
आदर्श बचपन तो केवल जीवन के साथ अपनाए जाने योग्य सही दृष्टिकोण के बारे में बताता है, न कि जीवन के वास्तविक अनुभवों को दर्शाता है। जीवन जीने का तरीका तो मानवीय रूप से सामाजिक जीवन को लम्बे समय तक जीने से प्राप्त व्यावहारिक अनुभवों के माध्यम से ही सीखने में आता है। इसलिए बड़े और बच्चे आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार से एक-दूसरे की मदद वैसे ही करते हैं, जैसे कि एक अँधा और एक लंगड़ा।
बच्चों में कोई बुराई नहीं होती है और वे बड़े होते हुए अपने आसपास से बुराई सीखते हैं।
रिसर्च में भी हुआ साबित, ‘भगवान का रूप’ होते हैं बच्चे
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