हमारे पर्यावरण का मौजूदा हाल
आजकल पर्यावरण तेजी से विनाश की तरफ जा रहा है। हर जगह पर्यावरण को प्रदूषित किया जा रहा है। हरेक व्यक्ति पर्यावरण को प्रदूषित करने में लगा हुआ है। आदमी की इच्छाओं पर लगाम ही नहीं लग रही है। भौतिक वस्तुओं का अंधाधुंध निर्माण हो रहा है, जिसके लिए पर्यावरण का व्यापक दोहन किया जा रहा है। हरेक वास्तु आज विषैली हो गई है। प्राकृतिक आपदाओं व प्रदूषण से लोग असमय मौत के शिकार हो रहे हैं।
प्राचीन जनजीवन में पर्यावरण-सुरक्षा
हमारा प्राचीन जनजीवन एक पर्यावरण-मित्र जनजीवन था। पर्यावरण को देवताओं की तरह पूजा जाता था। पर्वतों, नदियों, सागरों, वृक्षों, वनों समेत सभी वस्तुओं को देवता मानकर पूजा जाता था। कई तथाकथित आधुनिक लोग कहते हैं कि पुराने समय के लोगों में दिमाग की कमी होती थी, इसलिए वे तकनीक में पिछड़े हुए थे। परन्तु वास्तविकता यह है कि वे दिमाग के मामले में आज के लोगों से भी ज्यादा तेज होते थे। तभी तो वे स्वावलंबी होकर अपना जीवन जंगल में भी सुखपूर्वक बिता लेते थे। आज के अधिकाँश लोग तकनीक के बिना अपना जीवन जी ही नहीं सकते। प्राचीन लोग तकनीक का इस्तेमाल इसलिए नहीं करना चाहते थे, क्योंकि उससे पर्यावरण को नुक्सान पहुंचता था।
प्राचीन युग में पर्यावरण की सुरक्षा में कुण्डलिनी का योगदान
जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि पुराने जमाने के लोग सभी वस्तुओं को देवता मानते थे। उदाहरण के लिए, आर्यों को ही देख लें। वे प्रकृति के पुजारी थे। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु को उन्होंने सुन्दर देवता का रूप दिया हुआ था, जैसे कि वायु देव, जल देव, सूर्य देव, अग्नि देव आदि। आज भी वैदिक अनुष्ठानों में इन सभी देवताओं के पूजन की परम्परा है। इसी तरह की परम्परा प्राचीन मिस्र व सेल्टिक समाज में भी थी। लगभग सभी देशों में यह परम्परा किसी न किसी रूप में रही है। इससे पर्यावरण को लम्बे समय तक बचाने में काफी मदद मिली।
प्राकृतिक वस्तुओं की पूजा का अर्थ ही अद्वैत की पूजा है। क्योंकि तनिक चिंतन करने पर सभी वस्तुओं की आत्मा अद्वैत ही प्रतीत होती है। वे हैं भी, और नहीं भी हैं। वे काम करती भी हैं, और नहीं भी करती हैं। उन्हें फल मिलता भी है, और नहीं भी मिलता है। वे प्रकाश-रूप भी हैं, और अन्धकार-रूप भी, और दोनों से रहित भी हैं। इसका अर्थ है कि प्राचीन लोगों के मन में कुण्डलिनी का निवास हुआ करता था, क्योंकि अद्वैतभाव और कुण्डलिनी मन में साथ-२ रहते हैं। तभी तो प्राचीन युग में कुण्डलिनी का बहुत बोलबाला हुआ करता था, और विश्व के सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में इसका जिक्र जरूर मिलता है।
कुण्डलिनी पर्यावरण को कैसे बचाती है
अधिकाँश लोग अपने मन के वश में होते हैं। मन तो बन्दर की तरह होता है। वह अपने साथ उनको भी नचाता रहता है। वे मन के गुलाम होते हैं, और मन का साथ नहीं छोड़ सकते। उनकी सत्ता मन की सत्ता के साथ जुड़ी होती है। मन के नष्ट होने से वे भी अपने को नष्ट महसूस करते हैं। उनका मन भौतिक दुनिया के आश्रित होता है। यदि मन को भौतिक काम-धंधे न मिले, तो वह मरने लगता है। इसलिए वह बिना जरूरत के ही नए-२ काम-धंधे ढूँढता रहता है। वह पर्यावरण को हानि पहुंचाने से भी नहीं कतराता, क्योंकि द्वैतभाव के कारण उसे पर्यावरण में देवता/कुण्डलिनी नहीं दिखाई देती। उसे पर्यावरण में केवल अन्धकार दिखाई देता है। इस तरह से पर्यावरण को क्षति पहुँचती है।
इसके विपरीत, एक कुण्डलिनी योगी का मन कुण्डलिनी के आश्रित रहता है। वह कुण्डलिनी से जीवन-शक्ति लेता रहता है। उसे भौतिक काम-धंधों से जीवन-शक्ति लेने की कोई जरूरत नहीं होती। इसलिए वह अपनी जरूरत के कम से कम काम-धंधों में ही मस्त रहता है, और फालतु के काम-धंधों में नहीं उलझता। अपनी जरूरत के काम भी वह पर्यावरण को हानि पहुंचाए बिना निपटाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उसकी नजर में हर जगह कुण्डलिनी है। यह तो सिद्ध ही है कि सृष्टि में हर जगह अद्वैत तत्त्व विद्यमान है, और यह भी कि अद्वैत के साथ कुण्डलिनी भी रहती है।
प्रेमयोगी वज्र का अपना अनुभव
क्षणिक आत्मज्ञान के बाद वह अकर्मक जैसा बन गया था। हर समय वह कुण्डलिनी के ध्यान में मस्त रहता था। उसे कुण्डलिनी से भरपूर जीवन मिलता रहता था। उसे कोई काम करने की जरूरत ही महसूस नहीं होती थी। काम करने से तो उसकी कुण्डलिनी को नुक्सान भी पहुँचता था। बहुत जरूरी होने पर ही वह काम करता था। काम को वह अद्वैत के साथ करता था, ताकि उसकी कुण्डलिनी को कम से कम नुकसान पहुंचता। वह पर्यावरण के प्रति काफी सचेत व प्रकृति-प्रेमी बन गया था। अधिकाँश समय वह प्रकृति के बीच में बैठकर अकेले ही गुजारता था। औरों के, बिना जरूरत के काम उसे पागलपन की तरह लगते थे। यद्यपि कई ऐसे काम मजबूरी में उसे भी करने पड़ते थे, ताकि वह सभी के साथ चल सकता। इससे जाहिर है कि एक कुण्डलिनी योगी से समाज की व्यवस्था पर विशेष फर्क नहीं पड़ता। पर्यावरण संरक्षण के लिए यह जरूरी है कि अधिकाँश लोग कुण्डलिनी योगी बनें।
इसी सन्दर्भ में प्रकृति के प्रति लगाव, प्रकृति से प्रेम भी एक योग है। परोक्ष रूप में यह प्रकृति ही परमात्मा का स्वरूप है ।
योग एक प्रकृति प्रेम-(विश्व पर्यावरण दिवस पर संदर्भित)
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