संगीत के लाभदायक प्रभाव सभी जानते हैं। भौतिक रूप से तो संगीत लाभदायक है ही, आध्यात्मिक रूप से भी इसका प्रमुख योगदान है। कुण्डलिनी और संगीत का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है।
संगीत से साक्षीभाव का विकास
संगीत से हमारे मन में चित्र-विचित्र व नए-पुराने विचार चित्रों के रूप में मन में उभरने लगते हैं। इसमें विशेष बात यह है कि उन चित्रों के साथ साक्षीभाव या अनासक्ति का भाव विद्यमान रहता है। वे कुछ-२ स्पष्ट व सुखपूर्ण स्वप्न के चित्रों की तरह प्रतीत होते हैं। इससे मन की निर्मलता में इजाफा होता है, और साथ में आनंद भी प्राप्त होता है। संगीत से आनंद मिलने की मुख्य वजह यही है। वास्तव में, संगीत प्रत्यक्ष रूप से आनंद नहीं देता, अपितु उन चित्रों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से ही देता है। एक बात और है। जो संगीत हमें अधिक रोचक लगता है, वह हमें अधिक आनंद प्रदान करता है। वास्तव में, वह संगीत अधिक मात्रा में स्पष्ट मानसिक चित्र उत्पन्न करता है, और उनमें अधिक मात्रा में साक्षीभाव भी पैदा करता है। तभी तो किसी एक को उबाऊ लगने वाला संगीत किसी दूसरे को बहुत रोचक लगता है। यदि आनंद संगीत में होता, तब तो कोई भी संगीत हर किसी को रोचक लगा करता। ऐसा भी होता है कि कभी कोई संगीत रोचक लगता है, तो कभी कोई दूसरा। मन की भावावस्था के अनुसार ही संगीत के प्रति पसंद भी बदलती रहती है। इसका यही अर्थ है कि संगीत में अपना आनंद नहीं होता, अपितु यह मन के भावों से ही आनंद उपलब्ध करवाता है। यह सभी को पता है कि अनासक्ति या साक्षीभाव के साथ ही मन के भावों से आनंद पैदा होता है।
संगीत से कुण्डलिनी का विकास
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि संगीत से साक्षीभाव पैदा होता है। साक्षीभाव अद्वैत का ही दूसरा नाम है। यह भी अक्सर अनुभव में आता ही रहता है कि अद्वैत व कुण्डलिनी साथ-२ रहने का प्रयास करते हैं। अद्वैतभाव से कुण्डलिनी मानसपटल पर उभर आती है, तथा कुण्डलिनी के विचार से अद्वैत उत्पन्न हो जाता है। इससे स्वयं ही सिद्ध हो जाता है कि संगीत से कुण्डलिनी का विकास होता है। जब संगीत से कुण्डलिनी बारम्बार मानसपटल पर आती रहेगी, तब उससे उसका निरंतर विकास तो होगा ही।
कुण्डलिनी के बारे में प्रेमयोगी वज्र का अपना अनुभव
उसके घर में रेडियो, कैसेट प्लेयर आदि का संगीत अक्सर बजता ही रहता था। आते-जाते, बस के अन्दर भी गाने सुनने को मिलते रहते थे। उन गानों से उसके मन में चमकती हुई स्पष्ट कुण्डलिनी प्रकट हो जाया करती थी। रोमांटिक गानों से उसके मन में तांत्रिक प्रेमिका के रूप की कुण्डलिनी उमड़ा करती थी, जबकि गंभीर व आध्यात्मिक गानों से गुरु के रूप की। ज्यादातर समय प्रेमिका की कुण्डलिनी ही बलवान रहती थी, क्योंकि उसमें यौनाकर्षण विद्यमान होता था, और वह स्वयं भरी जवानी में भी था। इसकी दूसरी वजह यह थी कि उस समय उसके मन में गुरु के रूप की कुण्डलिनी जागृत नहीं हुई थी।
कई वर्षों के बाद, जब उसके मन में गुरु के रूप की कुण्डलिनी जागृत हुई, तब वह ज्यादा प्रभावशाली बनने लगी। फिर उसके सामने प्रेमिका के रूप की कुण्डलिनी गौण पड़ने लगी। उससे हर प्रकार के संगीत के समय उसके मन में गुरु की ही कुण्डलिनी प्रकट होती थी। देवीरानी के रूप की कुण्डलिनी भी कभी-कभार प्रकट हो जाती थी, यद्यपि बहुत हलके रूप में। यह सिलसिला यूं ही चलता रहा, और गुरु के रूप की कुण्डलिनी उत्तरोत्तर बलवान होती गई। इसका कारण यह भी है कि वह प्रतिदिन की सुबह-शाम की एक-२ घंटे की कुण्डलिनीयोग साधना में गुरु के रूप की कुण्डलिनी का ध्यान करता था। इससे उत्साहित होकर वह दिन-रात ब्लूटुथ पोर्टेबल स्पीकर पर इंटरनेट के माध्यम से रंग-बिरंगे गाने सुनता रहता था। इससे उसे और भी बहुत से लाभ मिलते थे। ध्यान रहे कि लगातार लम्बे समय तक ऊंची आवाज में संगीत सुनना कानों के लिए नुकसानदायक है।
संगीत के विभिन्न स्वरों से विभिन्न चक्र जागृत होते हैं
ऐसा योग चर्चा में अक्सर कहा जाता है, और यह स्वाभाविक भी है। प्रत्येक स्वर एक भाव को पैदा करता है। किसी स्वर से उत्पन्न भाव मूलाधार चक्र के भाव से मेल खाते हैं, तो किसी से उत्पन्न भाव स्वाधिष्ठान से या ह्रदय चक्र से आदि। बच्चों के गानों से सबसे अधिक प्रभाव हृदय पर पड़ता है, तो रोमांटिक गानों का सर्वाधिक प्रभाव यौनचक्रों पर पड़ता है। वास्तव में, कुण्डलिनी तो मन में ही बन रही होती है, चाहे कोई भी चक्र क्रियाशील हो रहा हो। इसीलिए तो कहते हैं कि हर प्रकार का संगीत लाभदायक ही होता है। इसी तरह, सृष्टि की प्रत्येक ध्वनी में संगीत है, क्योंकि सभी प्रकार की ध्वनियाँ कुण्डलिनी को उत्तेजित करती हैं।
प्रत्येक संवेदना विचारों के प्रति साक्षीभाव के साथ अपने ऊपर कुंडलिनी को व्यक्त करने में मदद करती है। श्रवण सबसे शुद्ध और शक्तिशाली संवेदनाओं में से एक है।
कुण्डलिनी योग के साथ संगीत सुनना एक अद्भुत अनुभव है। उदाहरण के लिए, ऊपर वाले भाग की अन्य संवेदनाओं के साथ श्रवण की संवेदना भी हृदय चक्र पर केन्द्रित हो जाती है। बंधों के माध्यम से नीचे वाली संवेदनाएं/प्राण भी ऊपर आती हुई, ह्रदय चक्र पर केन्द्रित हो जाती हैं। ऊपर व नीचे वाली संवेदनाएं आपस में टकरा कर सूक्ष्म विस्फोट पैदा करती हैं, जिससे हृदय चक्र पर कुण्डलिनी चमकने-दमकने लगती है, और आनंद पैदा करते हुए बहुत स्पष्ट हो जाती है। इसी तरह, सहस्रार चक्र के लिए, नीचे से ऊपर जाती हुई संवेदनाएं/प्राण श्रवण संवेदना को भी ऊपर ले जाती हैं, तथा सहस्रार पर कुण्डलिनी को चमकाती हैं। इसी तरह अन्य चक्रों के मामले में भी समझना चाहिए।
वास्तव में हमने संगीत को कभी समझा ही नहीं, भंवरे की गुंजन भी एक प्रकार से संगीत ही हैं जिसे रोज सुना जाये तो आदमी धीरे धीरे विचार शून्य हो जाता हैं ।
संगीत से हो सकता है कुंडलिनी जागरण
जिस प्रकार आतशी कांच द्वारा एक-दो इंच जगह की सूर्य किरणें एकत्र कर देने से अग्नि उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार आहत नाद पर ध्यान एकाग्र होने से मन की बिखरी शक्तियां एकाग्र होकर साधक को सिद्धावस्था में ले जाती हैं ।
यौगिक चक्र एवं संगीत- डॉ. मृत्युंजय शर्मा तथा भूपेश ठाकुर
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