दोस्तों, लिखना आसान है, पर लिखी हुई बात का पाठकों के दिलो-दिमाग पर राज करना आसान नहीं है। लिखी हुई बातें जरूरतमंद लोगों तक पहुंचनी चाहिए। यदि वे गैर जरूरतमंद लोगों के पास पहुँचती हैं, तो उनसे लाभ की बजाय नुक्सान ही है। वैसे लोग उनको पढ़ने के लिए केवल अपना समय ही बर्बाद करेंगे। कई बार तो वैसे लोग उलटी शिक्षा भी ले लेते हैं। इससे लेखक का भी नुक्सान होता है। एक लेखक की किस्मत पाठकों के हाथ में होती है। इसलिए हमेशा अच्छा ही लिखना चाहिए। वैसा लिखना चाहिए, जिससे सभी लोगों को लाभ मिले। यदि केवल एक आदमी भी लेखन से लाभ प्राप्त करे, तो वह भी लाखों केजुअल पाठकों से बेहतर है। इसलिए एक लेखक को ज्यादा पाठकों की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि जरूरतमंद और काबिल पाठकों की ख्वाहिश रखनी चाहिए। इसीलिए प्राचीन समय में कई गुरु केवल एक ही आदमी को अपना शिष्य बनाते थे, और उसे अपने समान पूर्ण कर देते थे। मैंने अपने कोलेज टाईम में चिकित्सा विज्ञान के ऊपर आध्यात्मिक शैली में एक लेख लिखा था। जाहिर है कि उसके सभी पाठक चिकित्सा विज्ञान से जुड़े हुए थे। उसे इवल 100-200 पाठकों ने पढ़ा। मुझे नहीं पता कि उससे उन्हें क्या लाभ मिला। पर इतना जरूर अंदाजा लगता हूँ कि वे जरूरतमंद व काबिल थे, इसलिए उन्हें उससे उन्हें जरूर लाभ मिला होगा। मैं भी उन पाठकों की तरह ही उस लेख के लिए जरूरतमंद और काबिल था, इसीलिए मुझे भी लाभ मिला। इसका मतलब है कि लेखक पहले अपने लिए लिखता है, अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए लिखता है। बाद में उससे पाठकों की जरूरत पूरी होती है। अगर अपनी ही जरूरत पूरी नहीं होगी, तो पाठकों की जरूरत कैसे पूरी होगी।ब्लाक। मुझे तो उसे लिखने से बहुत से लाभ मिले। उससे मेरे जीवन की दिशा और दशा बदल गई। मेरा जीवन सकारात्मक, जोशीला, मेहनती व लगन वाला बन गया। इससे लगता है कि उस लेख से पाठकों को बहुत फायदा हुआ होगा। वह इसलिए, क्योंकि लेखक पाठकों का दर्पण होता है। उसमें पाठकों की ख़ुशी भी झलकती है, और गम भी। इसलिए अच्छा और फायदेमंद ही लिखना चाहिए।
कुण्डलिनी से फालतू दिमागी शोर थमता है, जिससे लाभपूर्ण विचारों के लिए मस्तिष्क में नई जगह बनती है
कुण्डलिनी पर ध्यान केन्द्रित करने से मस्तिष्क की फालतू शक्ति कुण्डलिनी पर खर्च हो जाती है। इससे वह विभिन्न प्रकार के फालतू विचारों को बना कर नहीं रख पाती। यदि वैसे विचार बनते भी हैं, तो वे बहुत कमजोर होते हैं, जिन पर कुण्डलिनी हावी हो जाती है। फालतू विचारों के थमने से मस्तिष्क में नए, सुन्दर, व्यावहारिक, अनुभवपूर्ण व रचनात्मक विचारों के लिए जगह बनती है। उन विचारों को जब हम लिखते हैं, तो बहुत सुन्दर लेख बनता है।
कुण्डलिनी से लेखक की दिमागी थकान दूर होती है, जिससे नए विचारों के लिए दिमाग की स्फूर्ति पुनः जाग जाती है
लिखने के लिए लेखक को ताबड़तोड़ विचारों का सहारा लेना पड़ता है। वे विचार विभिन्न प्रकार के होते हैं। कुछ नए होते हैं, कुछ पुराने, कुछ बहुत पुराने। उन विचारों की बाढ़ से लेखक अशांत, बेचैन, तनावयुक्त व भ्रमित सा हो जाता है। उसकी भूख-प्यास घट जाती है। उसका रक्तचाप बढ़ जाता है। वह थका-२ सा रहता है। वह चिड़चिड़ा सा हो जाता है। वैसी हालत में कुण्डलिनी योग उसके लिए संजीवनी का काम करता है। कुण्डलिनी उसे एकदम से रिफ्रेश कर देती है, और वह नया लेख लिखने के लिए तैयार हो जाता है।
कुण्डलिनी से लेखक का अपना वह शरीर स्वस्थ रहता है, जो ज्यादातर समय गतिहीन सा रहने से रोगग्रस्त बन सकता है
लेखक को अधिकाँश समय बैठना पड़ता है, तभी वह लिख पाता है। यदि आदमी अपनी जीवनी-शक्ति/प्राण-शक्ति को गतिशील कामों में ज्यादा लगाएगा, तो वह लेखन के लिए कम पड़ जाएगी। वैसे तो लेखक अपना संतुलन बना कर रखते हैं, पर फिर भी कई बार बहुत बैठना पड़ता है। वैसे समय में तो कुण्डलिनी उसके लिए औषधि का काम करती है। वह शरीर के सभी हिस्सों पर रक्त संचार को कायम रखती है, क्योंकि जहाँ कुण्डलिनी है, वहां रक्त-संचार/प्राण-संचार है।
कुण्डलिनी लेखक के द्वारा अक्सर की जाने वाली पाठकों को खोजने वाली अंधी दौड़ पर लगाम लगाती है
कुण्डलिनी मन की इच्छाओं की छटपटाहट पर लगाम लगाती है। उन इच्छाओं में पाठकों को पाने की महत्त्वाकांक्षी इच्छा भी शामिल है। वैसी इच्छाओं से लेखक को बहुत सी परेशानियाँ घेर लेती हैं। कुण्डलिनी आदमी को अद्वैत का बोध करा कर यथाप्राप्त जीवन से संतुष्ट करवाती है। इससे लेखक अपने लेखन के व्यर्थ के प्रचार-प्रसार से भी बचा रहता है। इससे वह अपना पूरा ध्यान अपने लेखन पर लगा पाता है। जिस पाठक को जिस प्रकार के लेख की जरूरत होती है, वह उसे ढूंढ ही लेता है। उसे तो बस मामूली सा इशारा चाहिए होता है।
पाठकों का काम भी लेखक की तरह ही दिमागी होता है। इसलिए उन्हें भी कुण्डलिनी से ये सारे लाभ मिलते हैं। इसी तरह, अन्य दिमागी या शारीरिक काम करने वाले लोगों को भी कुण्डलिनी से ये सारे लाभ मिलते हैं, क्योंकि दिमाग/मन ही सबकुछ है।
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