दोस्तों, हिंदुओं के पवित्र तीर्थस्थल वैष्णो देवी के मूल में एक कथा आती है कि तांत्रिक भैरव नाथ कन्या वैष्णो के पीछे भागा था। वह उसके माध्यम से अपनी मुक्ति प्राप्त करना चाहता था (सम्भवतः तांत्रिक यौन-योग के माध्यम से)। ऐसा वह अपनी कुंडलिनी को जागृत करके करना चाहता था। कन्या वैष्णो उसकी अच्छी मंशा को नहीं समझ सकी और क्रोध में आकर काली बन गई और उसका वध करने लगी। तब भैरव को उसकी दिव्यता का पता चला और वह उससे क्षमा मांगने लगा। वैष्णो को भी उसकी अच्छी मंशा का पता चल गया। सम्भवतः उसे पछतावा भी हुआ कि उसने अनजाने में एक महाज्ञानी तांत्रिक को मारने का प्रयास किया। इसीलिए तो उसने उसे मुक्ति का वर दिया और यह भी कहा कि भैरव के दर्शन के बिना मेरे दर्शन का कोई फल नहीं मिलेगा। यह प्रसंग सांकेतिक या मैटाफोरिक भी प्रतीत होता है। माता वैष्णो ने भैरव को असलियत में नहीं मारा था। वास्तव में मोक्ष प्राप्त करने के लिए शून्य बनना पड़ता है। अपना सब कुछ खोना पड़ता है। भैरव को भी मुक्ति के लिए ज़ीरो बनना पड़ा। इसी ज़ीरो को ही असम्प्रज्ञात समाधि भी कहते हैं, जिससे आत्मज्ञान होता है। इसी को भैरव का मरना कहा गया है। चूँकि भैरव के मन में वैष्णो के रूप की समाधि के लगने से ही वह आध्यात्मिक रूप से विकसित होकर असम्प्रज्ञात समाधि और आत्मज्ञान के स्तर को पार करता हुआ अपनी मुक्ति के उच्चतम स्तर तक पहुंचा, इसीलिए कथा-प्रसंग में कहा गया कि वैष्णो ने भैरव को मारा।
दूसरे प्रकार से ऐसा भी हो सकता है कि देवी माता की लघु संगति से उसे तांत्रिक प्रेरणा प्राप्त हुई हो। उससे उसने अपनी असली तांत्रिक प्रेमिका की सहायता से कुंडलिनी जागरण की प्राप्ति की हो, जिससे उसका अकस्मात रूपांतरण हो गया हो। इसीको उसका देवी माता के द्वारा मारा जाना कहा गया हो।
तीसरे प्रकार से देवी माता के द्वारा भैरव बाबा का मारा जाना इस सिद्धांत का मैटाफोर भी हो सकता है कि भौतिक समृद्धि के लिए यौन तंत्र का इस्तेमाल करने से भौतिक तरक्की तो प्राप्त होती है, पर मुक्ति नहीं मिलती, अर्थात मरना पड़ता है।
फिर भी अच्छी मंशा के बावजूद भी बाबा भैरव ने तंत्र के नियमों के विरुद्ध तो काम किया ही था। तंत्र में कभी हमलावर रुख नहीं अपनाया जाता। एक नम्र व विरक्त साधु-संन्यासी या भोले-भाले बच्चे की तरह व्यवहार करना पड़ता है। स्वेच्छा से बने तांत्रिक साथी को देवी-देवता की तरह सम्मान देना पड़ता है, और यहाँ तक कि पूजना भी पड़ता है। दोनों को एक-दूसरे को बराबर मानना पड़ता है। तांत्रिक गुरु की मध्यस्थता भी जरूरी होती है।
विवाहपूर्व प्रेम संबंध वैष्णो-भैरव वाली उपरोक्त कथा का विकृत रूप प्रतीत होता है
विकृत रूप हमने इसलिए कहा क्योंकि अधिकांश मामलों में लड़के-लड़की के बीच का प्रेम संबंध कुंडलिनी जागरण के लिए नहीं होता। अर्थात वह प्रेमसंबंध तांत्रिक प्रकार का नहीं होता। वैसे तो तंत्र में किसी की बेटी या पत्नी से शारीरिक संबंध बनाना वर्जित है। इसलिए विवाहपूर्व या विवाहेतर प्रेमसंबंध को तांत्रिक बनाए रखने के लिए शारीरिक संबंध से परहेज रखना जरूरी है। इससे यह लाभ भी होता है कि आदमी को अपने असली तांत्रिक प्रेमी अथवा पति/पत्नी से ही पूरी तरह संतुष्ट होकर गहन तांत्रिक साधना करने की प्रेरणा मिलती है। वैसे तो तांत्रिक प्रेम का मुख्य कार्य शारीरिक आकर्षण को पैदा करना है, ताकि प्रेमी का अविचल चित्र निरंतर मन में कुंडलिनी के रूप में बना रह सके। यह आकर्षण साधारण बोलचाल, रहन-सहन, हाव-भाव, हँसी-मजाक व सैर-सपाटे आदि से भी पैदा हो सकता है। वास्तव में इनसे पैदा होने वाला शारीरिक आकर्षण प्रत्यक्ष शारीरिक संबंध से पैदा होने वाले शारीरिक आकर्षण से भी कहीं ज्यादा मजबूत और टिकाऊ होता है। साथ में, एक से अधिक साथी के साथ शारीरिक संबंध रखना सामुदायिक स्वास्थ्य व सामुदायिक संबंधों के लिए भी अच्छा नहीं है। इसलिए जहाँ तक संभव हो, इसे केवल एकल साथी तक ही सीमित रखा जाना चाहिए।
वैष्णो कन्या अपने पति परमेश्वर के लिए तपस्या कर रही थीं
वैष्णो में सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती, इन तीनों देवियों की शक्ति का सम्मिलन था। वह परमेश्वर को पति रूप में पाना चाहती थीं। वास्तव में सभी मनुष्य ईश्वर से आए हैं, और उसी को पाना चाहते हैं। इसका मैटाफोरिक अर्थ यह निकलता है कि तंत्रसम्पन्न स्त्री उत्तम पति (ईश्वर-सदृश) की तलाश में रहती है। यदि उसे ऐसा पति न मिल पाए तो वह अपने साधारण पति को भी ईश्वर बना देती है।
विवाहपूर्व प्रेमसंबंध जानलेवा भी हो सकता है, जबकि साऊलमेट सबसे सुरक्षित होता है
मशहूर सिने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के साथ सम्भवतः ऐसा ही हुआ। सम्भवतः वे अपने प्रेमसंबंध में बहुत आसक्त व परवश हो गए थे। ऐसी हालत में यदि प्रेमिका सही मार्गदर्शन न करे, तो यह प्रेमी के लिए घातक भी सिद्ध हो सकता है। साऊलमेट (आत्मीय मित्र) इस स्थिति से बचाते हैं। साऊलमेट एक ऐसा प्रेमी/प्रेमिका है, जिसके प्रति बहुत ज्यादा आकर्षण मौजूद होता है, यद्यपि उससे कभी भी मिलन नहीं हो पाता। इसका अर्थ है कि उस आकर्षण में अटैचमेंट नहीं होती। एक व्यक्ति को अपने साऊलमेट में अपना रूप या अपना प्रतिबिंब दिखता रहता है। साऊलमेटस एक दूसरे को एनलाईटनमेंट की तरफ ले जाते हैं।