दोस्तों, लम्बी पोस्ट लिखने की प्रतीक्षा में अपने छोटे अनुभवों को लिखने का मौका भी नहीं मिलता। इसलिए मैंने सोचा है कि कुंडलिनी से संबंधित इधर-उधर के छोटे-मोटे विचार ही लिखा करूंगा। इससे कुंडलिनी से लगातार जुड़ाव बना रहेगा, जो आध्यात्मिक उन्नति के लिए बहुत जरूरी है। वैसे भी व्यस्त जीवन में एकसाथ लंबी पोस्ट लिखना संभव भी नहीं है।
मस्तिष्क के दबाव को नीचे उतारने से कुंडलिनी भी नीचे उतर जाती है
जैसे ही अपनी वर्तमान स्थिति को देहपुरुष की तरह अद्वैतमयी समझा जाता है, वैसे ही मस्तिष्क में कुंडलिनी प्रकट हो जाती है। उससे मस्तिष्क में एक दबाव सा पैदा हो जाता है। उस दबाव को नीचे उतारने के लिए जीभ को तालु के साथ दबा कर रखा जाता है, और कुछ न बोलते हुए मुँह बंद रखा जाता है। साथ में कुंडलिनी ऊर्जा के नीचे उतरने का चिंतन किया जाता है। ऐसा चिंतन भी किया जाता है कि दिमाग का दबाव फ्रंट चैनल से नीचे उतर रहा है। उससे दिमाग हल्का हो जाता है, और दबाव के साथ कुंडलिनी भी नीचे उतर कर किसी उपयुक्त चक्र पर बैठ जाती है। वह फिर दिमाग से लगातार आ रहे दबाव से उत्तरोत्तर चमकती रहती है। उसी दबाव को प्राण भी कहते हैं। दिमाग के खाली या हल्का हो जाने पर मूलाधार चक्र से कुंडलिनी ऊर्जा बैक चैनल से दिमाग तक चढ़ जाती है। पहले की पोस्ट में कहे गए मानसिक आघात से भी ऐसा ही होता है। मानसिक आघात से दिमाग पूरा खाली जैसा हो जाता है, और कुंडलिनी शक्ति पूरे वेग से पीठ में ऊपर चढ़ जाती है, अर्थात सुषुम्ना खुल जाती है। तांत्रिक मदिरापान से भी कई बार ऐसा ही होता है। उससे भी दिमाग खाली जैसा हो जाता है। इस तरह से कुण्डलिनी लूप पूरा हो जाता है, और कुंडलिनी चक्रवत घूमती रहती है। इसे माइक्रोकोस्मिक ऑर्बिट भी कहते हैं। इससे यौन कामुकता का आवेग भी शांत हो जाता है, क्योंकि उसकी एनर्जी कुंडलिनी को लग जाती है। स्त्री में भी पूर्णतः ऐसा ही होता है। जैसा कि पुरानी पोस्ट में बताया गया है कि उनका वज्र तुलनात्मक रूप से लघु परिमाण वाला होता है, जो शरीर-कमल के कुछ अंदर समाहित होता है। यह तंत्र साधना की एक प्रमुख तकनीक है।
शेषनाग का बीच वाला फन सबसे लंबा है
पुरानी पोस्ट में भी मैंने बताया था कि शेषनाग को वज्र से लेकर रीढ़ की हड्डी से होते हुए मस्तिष्क तक लिटाने पर वज्र-संवेदना आसानी से सहस्रार तक पहुंच जाती है। उसका मुख्य लक्षण है, एकदम से वज्र का संकुचित हो जाना। उससे पीठ के केंद्र में संवेदना की सरसराहट सी महसूस होती है। पूरे नाग का एकसाथ ध्यान करना पड़ता है। वास्तव में, संवेदना में चाल का और स्थान बदलने का गुण होता है। शेषनाग के एक हजार फन हैं, जो पूरे मस्तिष्क को कवर करते हैं। उसका केंद्रीय फन सबसे मोटा और लम्बा दिखाया जाता है। वही केंद्रीय फन सर्वाधिक क्रियाशील प्रकार का है। इससे कुंडलिनी उसी में चलती है। वास्तव में संवेदना/कुंडलिनी की सेंटरिंग के लिए ऐसा किया गया है। इससे कुंडलिनी पूरी तरह से सेंट्रल लाइन में चलती है। वह केंद्रीय फन नीचे झुक कर भौंहों के बीच में स्थित आज्ञा चक्र को भी चूमता रहता है। इससे कुंडलिनी आज्ञा चक्र में पहुंच कर वहाँ दबाव के साथ आनन्द पैदा करती है। कई बार कुंडलिनी सीधी आज्ञा चक्र तक पहुंच जाती है। वैसे भी, हठयोग की एक मुख्य नाड़ी, वज्र नाड़ी को आज्ञा चक्र तक जाने वाली बताया गया है। आज्ञा चक्र से कुंडलिनी जीभ से होते हुए सबसे अच्छी तरह से नीचे उतरती है। सिर को और पीठ को इधर-उधर हिलाने से शेषनाग भी इधर-उधर हिलता-डुलता प्रतीत होना चाहिए। उससे और अधिक कुंडलिनी-लाभ मिलता है।
शेषनाग को क्षीर महासागर में दिखाया गया है, और उसके एक हजार फन भगवान विष्णु के सिर पर फैले हुए हैं
चित्र में ऐसा ही दिखाया गया है। वास्तव में हमारा शरीर भी एक सूक्ष्म क्षीर सागर ही है। इस शरीर में 70 % से अधिक पानी है, जो चारों ओर फैला हुआ है। वह पानी खीर के दूध की तरह ही पौष्टिक है। उसी शरीर के दुधिया पानी के बीच में उपरोक्त शेषनाग अपने फन उठाकर बैठा है। आदमी का सिर उसके एक हजार फनों के रूप में है।
कुंडलिनी के लिए सेंटरिंग क्यों जरूरी है
दोस्तों, हरेक वस्तु की एनर्जी उसके केंद्र में होती है। इसे सेंटर ऑफ मास या सेंटर ऑफ ग्रेविटी भी कहते हैं। इसी तरह शरीर की एनर्जी उसकी केंद्रीय रेखा पर सर्वाधिक होती है। इसीलिए कुंडलिनी को उस रेखा पर घुमाया जाता है, ताकि वह अधिक से अधिक शक्ति प्राप्त कर सके। मुझे पूरे सूर्य में कुंडलिनी का ध्यान करना मुश्किल लग रहा था। पर जब मैंने सूर्य की सतही केंद्रीय रेखा पर ध्यान लगाया, तो वह आसानी से व मजबूती से लग गया। इन सभी बातों से पता चलता है कि कुंडलिनी का मनोविज्ञान भी भौतिक विज्ञान की तरह ही प्रमाणित सिद्ध होता है।