दोस्तों, बहुत से लोग कुंडलिनी को धर्म के नाम से, विशेषकर हिंदु धर्म से जोड़ते हैं। पहले मैं भी लगभग यही समझता था। इसका कारण है, कुंडलिनी k बारे में गहराई से समझ न होना। इसी कमी को पूरा करना इस ब्लॉग का उद्देश्य प्रतीत होता है। आज हम इस पोस्ट में कुंडलिनी की सर्वाधिक धर्मनिरपेक्षता को सिद्ध करने का प्रयास करेंगे।
प्रत्येक धर्म या सम्प्रदाय में अपने अलग-अलग आराध्य हैं
उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों में अनेक प्रकार के देवी-देवता हैं। शैव संप्रदाय भगवान शिव की अराधना की संस्तुति करता है। वैष्णव सम्प्रदाय में भगवान विष्णु के अवतारों की पूजा करने को कहा गया है। शाक्त लोग देवी माता की अराधना करते हैं। ब्रह्मवादी हिन्दू निराकार ॐ की अराधना करते हैं। इसी तरह सिख धर्म में गुरुओं का ध्यान और उनकी बताई गई शिक्षा को अमल में लाना प्रमुख है। जैन मत में भगवान महावीर व उनके उपदेशों का वर्णन है। बुद्धिस्ट लोग भगवान बुद्ध को अपना सबसे बड़ा ईश्वर मानते हैं। इस्लाम में अल्लाह के प्रति समर्पित होने को कहा गया है। इसाई धर्म में भगवान यीशु की भक्ति पर जोर दिया गया है।
कुंडलिनी योग में कोई भी आराध्य नहीं है
इसका यह अर्थ नहीं है कि कुंडलिनी योगी किसी का भी ध्यान नहीं करते। इसका अर्थ है कि कुंडलिनी योग में अपना अराध्य अपनी मर्जी से चुनने की स्वतंत्रता है। वास्तव में ध्यान के आलंबन का ही नाम कुंडलिनी है, जैसा कि पतंजलि ने अपने योगसूत्रों में कहा है। “यथाभिमतध्यानात् वा” इस सूत्र में पतंजलि ने कहा है कि किसी भी मनचाही वस्तु के ध्यान से मन को स्थिर और योगयुक्त किया जा सकता है। यह अलग बात है कि तांत्रिक हठयोग की तकनीकों से इसके साथ संवेदनात्मक एनर्जी को मिश्रित करके, इसे और ज्यादा मजबूत किया जाता है। कुंडलिनी किसी भी वस्तु या भाव के रूप में हो सकती है। यह प्रेमिका के रूप में भी हो सकती है, प्रेमी के रूप में भी, और दुश्मन के रूप में भी। कृष्ण की कुंडलिनी देवी राधा के रूप में, और देवी राधा की कुंडलिनी अपने प्रेमी कृष्ण के रूप में थी। शिशुपाल कृष्ण को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता था, इसलिए उसका ध्यान हमेशा कृष्ण में लगा रहता था। इस तरह से शिशुपाल की कुंडलिनी भी भगवान कृष्ण के रूप में थी। कुंडलिनी गुरु के रूप में भी हो सकती है, और शिष्य के रूप में भी। यह प्रकाश के रूप में भी हो सकती है, और अंधकार के रूप में भी। यह बड़े के रूप में भी हो सकती है, और छोटे के रूप में भी। यह तंत्र के रूप में भी हो सकती है, और मंत्र के रूप में भी। यह भगवान के रूप में भी हो सकती है, और भूत के रूप में भी। यह देवता के रूप में भी हो सकती है, और राक्षस के रूप में भी। यह निर्जीव पदार्थ के रूप में भी हो सकती है, और सजीव के रूप में भी। यह मनुष्य के रूप में भी हो सकती है, और पशु के रूप में भी। और तो और, यह ॐ, अल्लाह आदि निराकार रूप में भी हो सकती है। सीधा सा मतलब है कि एक आदमी का जिस वस्तु की तरफ सबसे ज्यादा झुकाव हो, वह उसी वस्तु को अपनी कुंडलिनी बना सकता है। फिर वह योग के माध्यम से उसका नियमित ध्यान करके उसको जगा भी सकता है। यह अलग बात है कि अधिकांश लोग अच्छे व सुंदर व्यक्तित्वों जैसे कि गुरु, देवता आदि का ही ध्यान करते हैं, क्योंकि एक आदमी जैसा ध्यान करता है, वह वैसा ही बन जाता है।
कुंडलिनी भौतिकतावादी विज्ञान से भी ज्यादा धर्मनिरपेक्ष है
विज्ञान भी व्यावहारिक प्रयोगों से सिद्ध किए गए सिद्धांतों को ही मानने की वकालत करता है। यह उनके इलावा अन्य किसी विषय को नहीं मानता। कुंडलिनी तो इन बाध्यताओं की सीमा से भी परे है। कुंडलिनी को किसी सत्य वस्तु या भाव का भी रूप दिया जा सकता है, और असत्य का भी। विज्ञान देवताओं को नहीं मानता, पर बहुत से ऋषियों ने उन्हें कुंडलिनी के रूप में जगाया है। ऐसा ही मैंने पिछली पोस्टों में भी बताया था कि करोल पहाड़ का आकार वास्तव में शिवलिंग जैसा नहीं था, परंतु मेरे निवास से वह विशाल शिवलिंग प्रतीत होता था। उसी आभासिक आकृति पर कई शिवभक्त लोग ध्यान लगा लेते थे। उपरोक्त तथ्यों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि कुंडलिनी सबसे अधिक संवेदनात्मक, सहानुभूतिप्रद, स्वतंत्रताप्रद, प्रेमप्रद, मानवतावादी, लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक, और धर्मनिरपेक्ष है; यहाँ तक कि भौतिकतावादी विज्ञान से भी ज्यादा। कुंडलिनी विज्ञान को यह भलीभांति ज्ञात है कि सभी की व्यक्तिगत रुचि का सम्मान करना चाहिए।