मित्रों, इस बार मैं योग की साधारण सी तकनीक का वर्णन करूंगा। यह है, जीभ की निचली सतह को नरम तालु से टच करने की। वैसे इसके बारे में मैंने पहले भी लिखा था। परंतु इस बार मैं तकनीक का व्यवहारिक रूप दिखाऊँगा। अभी भी मैंने कुंडलिनी को जीभ के माध्यम से फ्रंट चैनेल से उतारा। योग के निरन्तर अभ्यास से मेरी इस तकनीक में लगातार निखार आ रहा है। इसके बारे में मैं नित नई बातें सीख रहा हूँ।
मस्तिष्क के विचारों और जीभ -तालु के स्पर्श का एकसाथ ध्यान करना चाहिए
ऐसा करने से विचारों की शक्ति खुद ही फ्रंट चैनेल से होते हुए नीचे उतर जाती है।
जीभ तालु पर जितना पीछे कांटेक्ट में रहे, उतना ही अच्छा है
तालु का पीछे वाला भाग नरम, मखमली, नम व फिसलन से भरा होता है। वहाँ पर स्पर्श की संवेदना भी ज्यादा मजबूत व आनन्द से भरी होती है। कुंडलिनी जितने अधिक ऊपर वाले चक्रों में होती है, जीभ-तालु के आपसी स्पर्श की अनुभूति भी उतनी ही जल्दी और तेज होती है। स्पर्श की अनुभूति यदि पलभर के लिए भी हो जाए, तो भी कुंडलिनी नीचे उतर जाती है। यह ऐसे ही होता है, जैसे दो तारों के क्षणभर के संपर्क से ही करेंट प्रवाहित हो जाता है। कई बार यह अनुभूति जीभ को तालु पर रब करके भी पैदा की जाती है।
साँसें भी जीभ-तालु के आपसी स्पर्श को बनाने और मिटाने का काम करती हैं
इसीलिए जीभ-तालु के कांटेक्ट पॉइंट को कुंडलिनी स्विच भी बोलते हैं। साँस भरते समय यह कांटेक्ट पॉइंट कुछ लूस पड़ जाता है। वास्तव में यहाँ पर अवेयरनेस घट जाती है। इसका मतलब है कि कुंडलिनी स्विच ऑफ़ हो जाता है, और चैनेल का लूप सर्किट ब्रेक हो जाता है। इससे कुंडलिनी एनर्जी मस्तिष्क में जमा हो जाती है। पेट से साँसें भरने से ऐसा ज्यादा अच्छी तरह से होता है। इसी तरह, बैक चैनेल का फन उठाए नाग के रूप में ध्यान करने से भी कुण्डलिनी को बैक चैनेल में ऊपर चढ़ने में मदद मिलती है। मस्तिष्क में कुण्डलिनी एनर्जी के जमा होने से जीभ-तालु के स्पर्श को अनुभव करना भी आसान हो जाता है, जैसा ऊपर बताया गया है। फिर साँस छोड़ते हुए यह और आसान हो जाता है, क्योंकि उस समय पूरे फ्रंट चैनेल पर नीचे की तरफ दबाव पड़ता है। इस तरह से एक स्वचालित यंत्र के पुर्जों की तरह ये सभी तकनीकी बिंदु एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं, और कुण्डलिनी चक्र लगातार चलने लगता है। इससे शरीर और मन दोनों रिफ्रेश हो जाते हैं। वैसे भी, कभी भी जीभ को तालु से स्पर्श कराने पर मस्तिष्क का अतिरिक्त बोझ नीचे उतर जाता है। मस्तिष्क के खाली हो जाने से उसमें एकदम से कुण्डलिनी स्वयं ही प्रकट हो जाती है। सिर्फ स्पर्श से कुछ नहीं होता, वहाँ पर अवेयरनेस भी पहुंचनी चाहिए। स्पर्श की संवेदना को गौर से अनुभव करने से वहाँ अवेयरनेस खुद ही पहुंच जाती है। उसके परिणामस्वरूप फ्रंट चैनेल में विशेषकर फ्रंट स्वाधिष्ठान चक्र में एक गहरी मांसपेशियों की सिकुड़न की अनुभूति होती है, और साथ में साँस की एक गहरी गैसप के साथ नियमित व गहरी सांसें चलने लगती हैं। यही कुण्डलिनी एनर्जी का चलना है।
जीभ के पिछले हिस्से के केन्द्र से फ्रंट चैनल गुजरती है, जो सभी फ्रंट चक्रों को बेधते हुए मूलाधार तक जाती है। उससे कुंडलिनी एनर्जी के गुजरते समय पूरे फ्रंट चैनल एरिया में सनसनी के साथ ऐंठन महसूस होती है।
कई बार कुंडलिनी एनेर्जी पतली और केंद्रीय लाइन पर महसूस होती है, कभी बिना रेखा के ही
जरूरी नहीं कि हमेशा ही जीभ को तालु पर बहुत पीछे ले जाना पड़े। कई बार तालु के अगले भाग में ही अच्छी अनुभूति मिल जाती है। सामान्य पोजिशन में सीधी जीभ की तालु के साथ स्पर्श-संवेदना को भी अनुभव किया जा सकता है। जैसा ठीक लगे, वैसा करना चाहिए। कई बार कुण्डलिनी पतली रेखा में चलती महसूस होती है। ऐसा तब होता है, जब ध्यान तेज होता है, और मन शांत होता है। कई बार कुंडलिनी शक्ति केवल एक चक्र से दूसरे चक्र को स्थान बदलते दिखती है, चक्रों को जोड़ने वाली चैनल लाइन नहीं दिखाई देती। अभ्यास के साथ खुद ही अनुभूतियाँ विकसित होती रहती हैं। इसलिए औरों की अनुभूतियों की नकल न करते हुए सही अभ्यास में लगे रहना चाहिए। इसी तरह, कई बार कुंडलिनी के चलने से संबंधित क्षेत्र की मांसपेशियों का संकुचन और ढीलापन ही महसूस होता है, बेशक कुंडलिनी का पता नहीं चलता। ऐसा सही तकनीक को लागू करने से होता है। यह कुण्डलिनी के प्रभाव को दिखाता है। कई बार ऐसा महसूस भी नहीं होता, खासकर जब मांसपेशियां थकी हों।