भाई विनोद शर्मा द्वारा रचित कालजयी, भावपूर्ण व दिल को छूने वाली कुछ कविताएँ- भाग 4

स्वयं की तू तलाश कर

क्षणिक सुखों की चाह में           
भटक रहा इधर-उधर
कस्तूरी की खुशबू के लिए
हिरण की तरह बेख़बर
वज़ूद क्या तू कौन है?
इतनी-सी पहचान कर
हृदय में अपने झांक ले
स्वयं की तू पहचान कर।

राह में बिखरे हुए
कांटे भी चुन लें कभी
रोते हुए इन्सान का
दर्द भी सुन ले कभी
क्या तू मुंह दिखाएगा
जाएगा जब उसके घर
हृदय में अपने झांक ले
स्वयं की तू तलाश कर।

मर गया है कौन ये
पास जा के देख ले
ज़ुल्म क्या इस पर हुआ
चिन्तन में चिता सेंक लें
आवाज़ उठा अर्श तक
किसका तुझे इतना डर
हृदय में अपने झांक ले
स्वयं की तू तलाश कर।

बस्ती में ख़ुदग़र्जों की
निराश होना छोड़ दें
कर दे बुलन्द हस्ती को
हवाओं का रुख मोड़ दे
गुज़रेगा जिन राहों से
लोग झुकाएंगे सर
हृदय में अपने झांक ले
स्वयं की तू तलाश कर।

शान्ति-ध्वज को छोड़ दें
शमशीर उठा तन के चल
मसीहा बन कमज़ोर का
पड़ने दें माथे पे बल
आग़ाज़ कर जीवन का तू
अन्जाम की फ़िक्र न कर
हृदय में अपने झांक ले
स्वयं की तू तलाश कर।

सांसें मिली संसार में
मक़सद कोई ज़रूर है
शाख़ पर पत्ता भी वरना
हिलता नहीं हुज़ूर है
लगा दे यहाँ हाज़िरी
दिन-रात अपना कर्म कर
हृदय में अपने झांक ले
स्वयं की तू तलाश कर।

तरकश में अभी कई बाण पड़े हैं

हंसा कौन ये दूर गगन में
क्या सुन पाए तुम भी यारो
मौन व्याप्त है चहुं दिशा में
अब तो सम्भलो अहम के मारो

अति का बुरा सर्वत्र सुना था
आज घटित हुए देख लिया है
फिसला जब जीवन मुट्ठी से
फिर तुमने उसे याद किया है।

जीवनदायी धरा पर तुमको
जीना रास नहीं आया है
जीवन सम्भव नहीं जहां था
वो मंगल-चाँद तुम्हें भाया है

प्रकृति विरुद्ध जो काम किए हैं
उसका दण्ड तो पाना होगा
तुमने सोचा शाश्वत हैं हम
अब समय से पूर्व जाना होगा।

भूमि,नभ,जल,वायु,अग्नि
पंच तत्वों को भी न छोड़ा
विधि निर्मित जो नियम बने थे
उन नियमों का पालन तोड़ा

विज्ञान नहीं भगवान से ऊपर
इतना अगर तुम जाने होते
आज नहीं अपने कन्धो पर
मानवता की लाशें ढोते।

प्रमाद भरा है कैसा तुम में
दानवता तुमसे हारी है
भक्ष लिया हर जीव जगत का
अब सोचो किसकी बारी है

शर्मसार है जगत नियन्ता
महसूस हुई लाचारी है
सख्त़ फैसला अब वो लेगा
सृष्टि की ज़िम्मेदारी है।

अभी तो ये आरम्भ हुआ है
क्यों इतने बेचैन हो रहे
समय है ये कर्मों के फल का
वर्षौं से जिसका बीज बो रहे

किसके मद में उन्मत थे तुम
अब शीश झुकाए मौन खड़े हैं
एक ही तीर चलाया उसने
तरकश में अभी कई बाण पड़े हैं।

मानव जीवन के विरोधाभास पर छोटी सी गजल

जब से कसम ली उसने शराफ़त से जीने की
 पैमाईश लगे अब करने बुज़दिल भी सीने की।
 
हिक़ारत से देखते थे जो मयख़ानों की तरफ़
 आदत उन्हें अब हो गई हर रोज़ पीने की।
 
फ़ितरत में जिनकी डूबना बचाए उन्हें कौन
 समन्दर में ज़रूरत नहीं उनको सफ़ीने की।
 
नहीं वास्ता मेहनत से जिनका दूर तलक यार
 करते नहीं इज्ज़त वो किसी के पसीने की।
 
इकट्ठा किए रहे जो कौड़ियों को अपने पास
 कीमत क्या जाने नासमझ उजले नगीने की।
 
भरे हैं जो बारूद से हर वक़्त बेशुमार
 देते हैं नसीहत वो सभी को सकीने की।

भाई विनोद शर्मा द्वारा रचित कालजयी, भावपूर्ण व दिल को छूने वाली कुछ कविताएँ- भाग 3

“भाव सुमन”, इस लघु पुस्तिका में हमारे दैनिक जीवन से जुड़े हुए भौतिक और आध्यात्मिक पहलुओं को सुन्दर, स्मरणीय, और कर्णप्रिय कविताओं के रूप में छुआ गया है। ये कवितायेँ बहुआयामी हैं। प्रत्येक कविता अनेक प्रकार के विषयों को एकसाथ छूती है। कविता हमारे अवचेतन मन तक आसानी से पहुँच बना लेती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि “जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि”। बहुत सी पुस्तकों को पढ़ने से भी जो बात मन-स्वभाव में न बैठे, वह मात्र एक कविता के पठन-चिंतन से आसानी से बैठ सकती है। बहुत न लिखते हुए इसी आशा के साथ विराम लगाता हूँ कि प्रस्तुत कविता-संग्रह कविता-प्रेमी पाठकों की आकांक्षाओं पर खरा उतरेगा।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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