कुंडलिनी योग का निरूपण करती हुई श्रीमद्भागवत गीता

श्रीकृष्णेन गीता

मित्रों, एक मित्र ने मुझे कुछ दिनों पहले व्हाट्सएप पर ऑनलाइन गीता भेजना शुरु किया। एक श्लोक सुबह और एक शाम को प्रतिदिन भेजता है। उसमें मुझे बहुत सी सामग्री मिली जो कुंडलिनी और अद्वैत से सम्बंधित थी। कुछ ऐसे बिंदु भी मिले जिनके बारे में समाज में भ्रम की स्थिति भी प्रतीत होती है। वैसे तो गीता के संस्कार मुझे बचपन से ही मिले हैं। मेरे दादाजी का नाम गीता से शुरु होता था, और वे गीता के बहुत दीवाने थे। मैंने भी गीता के ऊपर विस्तृत टीका पढ़ी थी। पर पढ़ने और कढ़ने में बहुत अंतर होता है।

गीता के चौथे अध्याय के 29वें श्लोक में तांत्रिक कुंडलिनी योग का वर्णन

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥४-२९॥

इस श्लोक की पहली पंक्ति का शाब्दिक अर्थ है कि कुछ योगी अपान वायु में प्राणवायु का हवन करते हैं। प्राण वायु शरीर में छाती से ऊपर व्याप्त होता है। अपान वायु स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र के क्षेत्रों में व्याप्त होता है। जब आज्ञा चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र पर एकसाथ ध्यान किया जाता है, तब स्वाधिष्ठान चक्र पर प्राण और अपान इकट्ठे हो जाते हैं। इससे स्वाधिष्ठान चक्र पर कुंडलिनी चमकने लगती है। योग में स्वाधिष्ठान की जगह पर मणिपुर चक्र को भी रखते हैं। फिर प्राण और अपान का हवन समान वायु में होता है। फिर भी इसे अपान में प्राण का हवन ही कहते हैं, क्योंकि अपान वहाँ से प्राण की अपेक्षा ज्यादा नजदीक होता है। कई बार एक ही चक्र का, सहस्रार का या आज्ञा चक्र का ध्यान किया जाता है। फिर हल्का सा ध्यान स्वाधिष्ठान चक्र का या मूलाधार चक्र का किया जाता है। इससे ऊपर का प्राण नीचे आ जाता है, और वह अपान बन जाता है। एक प्रकार से अपान प्राण को खा जाता है, वैसे ही जैसे अग्नि समिधा या हविष्य को खा जाती है। इसीलिए यहाँ अपान में प्राण का हवन लिखा है। राजयोगी प्रकार के लोग सांसारिक आधार को अच्छी तरह से प्राप्त करने के लिए इस भेंट को अधिक चढ़ाते हैं, क्योंकि उनके वैचारिक स्वभाव के कारण उनके शीर्ष चक्रों में बहुत ऊर्जा होती है।
इस श्लोक की दूसरी पंक्ति का शाब्दिक अर्थ है कि कुछ दूसरे लोग प्राण में अपान का हवन करते हैं। जब आज्ञा चक्र, अनाहत चक्र और मूलाधार या स्वाधिष्ठान चक्र का एकसाथ ध्यान किया जाता है, तब अनाहत चक्र पर प्राण और अपान इकट्ठे हो जाते हैं। क्योंकि आज्ञा चक्र के साथ अनाहत चक्र पर भी प्राण ही है, इसीलिए कहा जा रहा है कि अपान का हवन प्राण अग्नि में करते हैं। इसमें भी कई बार दो ही चक्रों का ध्यान किया जाता है। पहले मूलाधार या स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान किया जाता है। फिर हल्का सा ध्यान सहस्रार या आज्ञा चक्र की तरफ मोड़ा जाता है। इससे नीचे का अपान एकदम से ऊपर चढ़ कर प्राण में मिल जाता है। इसे ही अपान का प्राण में हवन लिखा है। ध्यान रहे कि कुंडलिनी ही प्राण या अपान के रूप में महसूस होती है। तांत्रिक प्रकार के लोग इस प्रकार की भेंट अधिक चढ़ाते हैं, क्योंकि उनके नीचे के चक्रों में बहुत ऊर्जा होती है। इससे उन्हें कुंडलिनी सक्रियण और जागरण के लिए आवश्यक मानसिक ऊर्जा प्राप्त होती है।
तीसरी और चौथी पंक्ति का शब्द है कि प्राणायाम करने वाले लोग प्राण और अपान की गति को रोककर, मतलब प्रश्वास और निश्वास को रोककर ऐसा करते हैं। योग में यह सबसे महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में यही असली और मुख्य योग है। अन्य क्रियाकलाप तो केवल इसके सहायक ही हैं। प्रश्वास अर्थात अंदर साँस भरते समय प्राण मेरुदंड से होकर ऊपर चढ़ता है। उसके साथ कुंडलिनी भी। निःश्वास अर्थात साँस बाहर छोड़ते समय प्राण आगे की नाड़ी से नीचे उतरता है, मतलब वह अपान को पुष्ट करता है। इसके साथ कुंडलिनी भी नीचे आ जाती है। फिर प्रश्वास के साथ दुबारा पीछे की नाड़ी से ऊपर चढ़ता है। यह चक्र चलता रहता है। इससे कुंडलिनी एक जगह स्थिर नहीं रह पाती, जिससे उसका सही ढंग से ध्यान नहीं हो पाता। प्राण को तो हम रोक नहीं सकते, क्योंकि यह नाड़ियों में बहने वाली सूक्ष्म शक्ति है। हाँ, हम प्राणवायु या साँस को रोक सकते हैं, जिससे प्राण जुड़ा होता है। इस तरह साँस प्राण के लिए एक हैन्डल का काम करता है। जब साँस रोकने से प्राण स्थिर हो जाता है, तब हम उसे या कुंडलिनी को ध्यान से नियंत्रित गति दे सकते हैं। साँस लेते समय हम उसे ध्यान से ज्यादा नियंत्रित नहीं कर सकते, क्योंकि साँसे उसे इधर-उधर नचाती रहती हैं। अंदर जाती हुई साँस के साथ प्राण और कुँडलिनी पीठ की नाड़ी से ऊपर चढ़ते हैं, और बाहर जाती हुई साँस के साथ आगे की नाड़ी से नीचे उतरते हैं। साँस को रोककर प्राण और कुंडलिनी दोनों रुक जाते हैं। कुंडलिनी के रुकने से मन भी स्थिर हो जाता है, क्योंकि कुंडलिनी मन का ही एक प्रायोगिक अंश जो है। पूरे मन को तो हम एकसाथ काबू नहीं कर सकते, इसीलिए कुंडलिनी के रूप में उसका एक एक्सपेरिमेंटल टुकड़ा या सैम्पल टुकड़ा लिया जाता है। इसी वजह से तो कुंडलिनी योग के बाद मन की स्थिरता व शांति के साथ आनन्द महसूस होता है। प्राण एक ही है। केवल समझाने के लिए ही जगह विशेष के कारण उसे झूठमूठ में विभक्त किया गया है, जिसे प्राण, अपान आदि। प्राण और अपान को किसी चक्र पर, कल्पना करो मणिपुर चक्र पर आपस में भिड़ाने के लिए साँस को रोककर मुख्य ध्यान मणिपुर चक्र पर रखा जाता है, और साथ में तिरछा ध्यान आज्ञा चक्र और मूलाधार पर भी रखा जाता है। इससे ऊपर का प्राण नीचे और नीचे का अपान ऊपर आकर मणिपुर चक्र पर आपस में भिड़ जाते हैं। इससे वहाँ कुंडलिनी उजागर हो जाती है। हरेक चक्र पर इन दोनों को एक बार बाहर साँस छोड़कर व वहीँ रोककर भिड़ाया जाता है, और एक बार साँस भरकर व वहीं रोककर भिड़ाया जाता है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि साँस को अपनी सामर्थ्य से अधिक देर तक नहीं रोकना चाहिए। अपनी बर्दाश्त की सीमा को लांघने से मस्तिष्क को हानि पहुंच सकती है।

बीच वाले चक्र पर हाथ रखकर ध्यान लगाने में मदद मिलती है। इसी तरह, सिद्धासन में बैठने पर एक पैर की एड़ी के दबाव से मूलाधार पर दबाव की संवेदना महसूस होती है, और दूसरे पैर से स्वाधिष्ठान चक्र पर। इस संवेदना से भी चक्र के ध्यान में मदद मिलती है। पर याद रखो कि पूर्ण सिद्धासन से कई बार घुटने में दर्द होती है, खासकर उस टांग के घुटने में जिसकी ऐड़ी स्वाधिष्ठान चक्र को स्पर्श करती है। इसलिए ऐसी हालत में अर्ध सिद्धासन लगाना चाहिए। इसमें केवल एक टांग की एड़ी ही मूलाधार चक्र को स्पर्श करती है। दूसरी टांग पहली टांग के ऊपर नहीं बल्कि जमीन पर नीचे आराम से टिकी होती है। घुटनों के दर्द की लंबी अनदेखी से उनके खराब होने की संभावना भी बढ़ जाती है।

गीता के चौथे अध्याय के 30वें श्लोक में राजयोग का निरूपण

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।सर्वेऽप्येते यज्ञविदोयज्ञक्षपितकल्मषाः॥४-३०॥

इस श्लोक का शाब्दिक अर्थ है कि नियमित आहार-विहार वाले लोग प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं॥30॥

नियमित आहार-विहार वाले योगी राजयोगी होते हैं। ये तांत्रिक पंचमकारों का आश्रय नहीं लेते। इसलिए इनके शरीर के निचले भागों में स्थित चक्र कमजोर होते हैं, वहाँ पर प्राणशक्ति या अपान की कमी से। ये मस्तिष्क से हृदय तक ही, शरीर के ऊपर के चक्रों में कुंडलिनी का ध्यान करते हैं। ये मुख्यतया ध्यान का त्रिभुज बनाते हैं। उस त्रिभुज का एक बिंदु सहस्रार चक्र होता है, दूसरा बिंदु आगे का आज्ञा चक्र होता है, और तीसरा बिंदु पीछे का आज्ञा चक्र होता है। इसमें एक बिंदु पर खासकर आगे के आज्ञा चक्र पर सीधा या मुख्य ध्यान लगा होता है, और बाकि दोनों चक्रों पर तिरछा या गौण ध्यान। बिंदुओं को आपस में बदल भी सकते हैं। इसी तरह त्रिभुज दूसरे चक्रों को लेकर भी बनाया जा सकता है। तीनों बिंदुओं का प्राण त्रिभुज के मुख्य ध्यान बिंदु पर इकट्ठा हो जाता है, और वहाँ कुंडलिनी चमकने लगती है। इन त्रिभुजों में टॉप का बिंदु अधिकांशतः सहस्रार चक्र ही होता है। दरअसल, त्रिभुज या खड़ी रेखा को चारों ओर से आस-पास के क्षेत्रों से प्राण को अपनी रेखाओं केंद्रित करने के लिए बनाया गया है। कोई एक साथ बड़े क्षेत्र का ध्यान नहीं कर सकता। त्रिभुज पर स्थित प्राण की अधिक सघनता के लिए इसके तीन शंक्वाकार बिन्दुओं का चयन किया जाता है। इन तीन बिन्दुओं में से एक बिंदु पर मुख्य ध्यान केन्द्रित करके प्राण को उस एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जाता है। अंत में, हमें कुंडलिनी के साथ-साथ उस एक बिंदु पर अत्यधिक एकाग्र या सघन प्राण मिलता है, जिससे वहाँ कुंडलिनी चमकने लगती है। इसी तरह, सीधी रेखा, कल्पना करो मूलाधार, मणिपुर और आज्ञा चक्र बिंदुओं को आपस में जोड़ने वाली रेखा के साथ भी ऐसा ही होता है। पहले रेखा के चारों ओर के शरीर का प्राण रेखा पर केंद्रित किया जाता है। फिर रेखा का प्राण इन तीनों चक्र बिंदुओं पर केंद्रित किया जाता है। फिर तीनों बिंदुओं का प्राण उस चक्र बिंदु पर इकट्ठा हो जाता है, जिस पर मुख्य ध्यान लगा होता है। अन्य दोनों बिंदुओं पर गौण या तिरछा ध्यान लगा होता है। यह एक अद्भुत आध्यात्मिक मनोविज्ञान है।

ईसाई धर्म में प्राण-अपान संघ

जीवित यीशु ने उत्तर दिया और कहा: “धन्य है वह मनुष्य जिसने इन बातों को जाना। वह स्वर्ग को नीचे ले आया, उसने पृथ्वी को उठा लिया और उसे स्वर्ग में भेज दिया, और वह बीच का बन गया, क्योंकि यह कुछ भी नहीं है। मुझे लगता है कि स्वर्ग प्राण है जिसे ऊपर वर्णित अनुसार नीचे लाया गया है। इसी तरह, पृथ्वी अपान है जो ऊपर उठाया गया है। मध्य दोनों का मिलन है। वहां उत्पादित “कुछ भी नहीं” कुंडलिनी ध्यान से उत्पन्न मन की स्थिरता ही है, जो अद्वैत के साथ आती है। अद्वैत के साथ मन की स्थिरता “कुछ भी नहीं” के बराबर ही है। प्राण को स्वर्ग इसलिए कहा गया है क्योंकि यह शरीर के ऊपरी चक्रों में व्याप्त रहता है, और ऊपरी चक्रों का स्वभाव स्वर्गिक लोकों के जैसा ही है, और ऐसा ही अनेक स्थानों पर निरूपित भी किया जाता है। इसी तरह अपान को पृथ्वी इसलिए कहा है क्योंकि यह शरीर के निचले चक्रों विशेषकर मूलाधार में व्याप्त रहता है। इन निचले चक्रों को घटिया या नारकीय लोकों की संज्ञा भी दी गई है। मूलाधार को पृथ्वी की उपमा दी गई है, क्योंकि इसके ध्यान से आदमी अच्छी तरह से जमीन या भौतिक आयाम से जुड़ जाता है, अर्थात यह आदमी को आधार प्रदान करता है। इसीलिए इसका नाम मूल और आधार शब्दों को जोड़कर बना है। धरती भी जीने के लिए और खड़े रहने के लिए सबसे बड़ा आधार प्रदान करती है। इस कोडेक्स के स्रोत तक निम्नलिखित लिंक पर पहुँचा जा सकता है-

The Gaian Mysteries Of Gnosis – The Bruce Codex

Published by

demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s