
मित्रों, मैंने पिछ्ली पोस्ट में ऑनलाइन गीता से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण पोस्ट डाली थी। उसमें कुंडलिनी योग का पूरा रहस्य किस तरह गीता के दो श्लोकों में छिपा हुआ है, यह बताया गया था। आज मैं इस पोस्ट में गीता में छिपा दूसरा योग रहस्य साझा कर रहा हूँ।
गीता के पांचवें अध्याय के 18वें व 19वें श्लोक में आध्यात्मिक मुक्ति का रहस्य छिपा हुआ है
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥५-१८॥
ऐसे ज्ञानी जन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में, गाय में, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल को समान देखते हैं॥18॥
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥५-१९॥
जिनका मन सम भाव में स्थित है, उनके द्वारा यहाँ संसार में ही लय(मुक्ति) को प्राप्त कर लिया गया है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिए वे ब्रह्म में ही स्थित हैं॥19॥
उपरोक्त दोनों श्लोकों से स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक मुक्ति के लिए न तो कुंडलिनी जागरण की आवश्यकता है और न ही आत्मज्ञान की। मुक्ति तो केवल समदर्शिता या अद्वैत से ही मिलती है। तो फिर लोग अद्वैत को छोड़कर आध्यात्मिक जागृति की तरफ ही क्यों भागते हैं। यह इसलिए क्योंकि जागृति के बाद अद्वैतभाव को बना कर रखना थोड़ा आसान हो जाता है। पर ऐसा थोड़े समय, लगभग 3-4 सालों तक ही होता है। उसके बाद आदमी अपने आध्यात्मिक जागरण को काफी भूलने लग जाता है। यदि विभिन्न आध्यात्मिक तरीकों से उच्च कोटि के अद्वैत को निरंतर बना कर रखा जाए, तो वह जागरण के तुल्य ही है। विभिन्न कुंडलिनी साधनाओं से यदि कुंडलिनी को क्रियाशील रखा जाए तो अद्वैत भाव निरंतर बना रहता है, क्योंकि जहाँ कुंडलिनी होती है, वहाँ अद्वैत रहता ही है। कुंडलिनी जागरण के समय पूर्ण अद्वैत भाव व आनन्द की अनुभूति भी यही सिद्ध करती है कि जहाँ कुंडलिनी है, वहाँ अद्वैत या समदर्शिता और आनन्द भी है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि बेशक गीता में कुंडलिनी का नाम न लिया गया हो, पर गीता एक कुंडलिनीपरक शास्त्र ही है।
कुंडलिनी या कुंडलिनी जागरण में से किसको ज्यादा अहमियत देनी चाहिए
कुंडलिनी को ही ज्यादा अहमियत देनी चाहिए। क्योंकि यदि कुंडलिनी क्रियाशील बनी रहती है, तो कुंडलिनी जागरण की ज्यादा आवश्यकता नहीँ। यदि वह हो जाए तो भी अच्छा, और यदि न होए तो भी अच्छा। वैसे भी समय आने पर कुंडलिनी जागरण अपने आप हो ही जाता है, यदि कुंडलिनी साधना निरंतर बना कर रखी जाए। पर यदि आदमी कुंडलिनी साधना को छोड़कर दिग्भ्रमित हो जाए, और कुंडलिनी जागरण के चित्र-विचित्र क्रियाओं के पीछे भागने लगे, तो इसकी पूरी संभावना है कि उसे न तो कुंडलिनी मिलेगी और न ही कुंडलिनी जागरण। वैसे भी, कुंडलिनी जागरण के बाद भी कुंडलिनी साधना को निरंतर रूप से जारी रखना ही पड़ता है। तो फिर क्यों न जागरण से पहले भी उसे निरन्तर जारी रखा जाए। इससे जाहिर होता है कि असली शक्ति तो कुंडलिनी क्रियाशीलता में ही है। कुंडलिनी क्रियाशीलता मतलब कुंडलिनी भाव के साथ आदमी की जगत में पूर्ण व्यावहारिक व मानवीय क्रियाशीलता बनी रहना। जागरण तो केवल कुंडलिनी साधना के प्रति अटूट विश्वास पैदा करता है, और निरन्तर उसे बनाकर रखवाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कुंडलिनी जागरण कुंडलिनी की आध्यात्मिक शक्ति का साक्षात वैज्ञानिक प्रमाण है। कुंडलिनी जागरण की दूसरी कमी यह है कि उसे प्राप्त करने के लिए आदमी का स्वस्थ व जवान होना बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कुंडलिनी जागरण के लिए बहुत अधिक प्राणशक्ति की आवश्यकता पड़ती है। इसका मतलब है कि दुनियादारी में डूबे हुए, वृद्ध और बीमार लोगों को कुंडलिनी जागरण होने की संभावना बहुत कम होती है। पर वे कुंडलिनी साधना का लाभ उठा सकते हैं। एक तथ्य और है कि कुंडलिनी जागरण उस समय होता है, जिस समय आदमी को न तो उसे प्राप्त करने की इच्छा हो, औऱ न ही उसके प्राप्त होने की उम्मीद हो। इसलिए कुंडलिनी साधना से कुंडलिनी क्रियाशीलता बनाए रखना ही पर्याप्त है। उपरोक्त सभी तथ्यों व सिद्धांतों को शरीरविज्ञान दर्शन नामक पुस्तक में वैज्ञानिक, व्यावहारिक व अनुभवात्मक तौर पर समझाया गया है।