मित्रो, मुझे भगवान कार्तिकेय की कथा काफी रोचक लग रही है। इसमें बहुत से कुंडलिनी रहस्य भी छिपे हुए लगते हैं। इसलिए हम इसे पूरा खंगालेंगे। शिवपुराण के अनुसार ही, फिर सरकंडे पर जन्मे उस बालक को ऋषि विश्वामित्र ने देखा। बालक ने उन्हें अपना वेदोक्त संस्कार कराने के लिए कहा। जब विश्वामित्र ने कहा कि वे क्षत्रिय हैं, ब्राह्मण नहीं, तब कार्तिकेय ने उनसे कहा कि वे उसके वरदान से ब्राह्मण हो गए। फिर उन्होंने उसका संस्कार किया। तभी वहाँ छः कृत्तिकाएँ आईं। जब वे उस बालक को लेकर लड़ने लगीं, तो वह छः मुंह बनाकर छहों का एकसाथ स्तनपान करने लगा। अग्निदेव ने भी उसे अपना पुत्र कहकर उसे शक्तियां दीं। उन शक्तियों को लेकर वह करौंच पर्वत पर चढ़ा और उसके शिखर को तोड़ दिया। तब इंद्र ने नाराज होकर उस पर वज्र से कई प्रहार किए, जिनसे शाख, वैशाख और नैगम तीन पुरुष पैदा हुए और वे चारों इंद्र को मारने के लिए दौड़ पड़े। कृत्तिकाओं ने अपना दूध पिलाकर कार्तिकेय को पाला पोसा, और जगत की सभी सुख सुविधाएं उसे दीं। उसे उन्होंने दुनिया की नजरों से छिपाकर रखा कि कहीं उस प्यारे नन्हें बालक को कोई उनसे छीन न लेता।
पार्वती ने शंकित होकर शिव से पूछा कि उनका अमोघ वीर्य कहाँ गया। उसे किसने चुराया। वह निष्फल नहीं हो सकता। भगवान शिव जब पार्वती के साथ व अन्य देवताओं के साथ अपनी सभा में बैठे थे, तो उन्होंने सभी देवताओं से इस बारे पूछा। उन्होंने कहा कि जिसने भी उनके अमोघ वीर्य को चुराया है, वह दण्ड का भागी होगा, क्योंकि जो राजा दण्डनीय को दण्ड नहीं देता, वह लोकनिंदित होता है। सभी देवताओं ने बारी-बारी से सफाई दी, और वीर्यचोर को भिन्न-भिन्न श्राप दिए। तभी अग्निदेव ने कहा कि उन्होंने वह वीर्य शिव की आज्ञा से सप्तऋषियों की पत्नियों को दिया। उन्होंने कहा कि उन्होंने वह हिमालय को दे दिया। हिमालय ने बताया कि वह उसे सहन नहीं कर पाया और उसे गंगा को दे दिया। गंगा ने कहा कि उस असह्य वीर्य को उसने सरकंडे की घास में उड़ेल दिया। वायुदेव बोले कि उसी समय वह वीर्य एक बालक बन गया। सूर्य बोले कि रोते हुए उस बालक को देख न सकने के कारण वह अस्ताचल को चला गया। चन्द्रमा बोला कि कृत्तिकाएँ उसे अपने घर ले गईं। जल बोला कि उस बालक को कृत्तिकाओं ने स्तनपान कराके बड़ा किया है। संध्या बोली कि कृत्तिकाओं ने प्रेम से उसका पालन पोषण करके कार्तिक नाम रखा है। रात्रि बोली कि वे कृत्तिकाएँ उसे अपनी आँखों से कभी दूर नहीं होने देतीं। दिन बोला कि वे कृत्तिकाएँ उसे श्रेष्ठ आभूषण पहनाती हैं, और स्वादिष्ट भोजन कराती हैं। इससे शिवपार्वती, दोनों बड़े खुश हुए, और समस्त जनता भी। तब शिव के गण दिव्य विमान लेकर कृतिकाओं के पास गए। जब कृतिकाओं ने उसे देने से मना किया तो गणों ने उन्हें शिवपार्वती का भय दिखाया। कृत्तिकाएँ डर गईं तो कार्तिकेय ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि उसके होते हुए उन्हें डरने की आवश्यकता नहीं। उन्होंने रोते हुए कार्तिकेय को हृदय से लगाकर उसीसे पूछा कि वह कैसे उन अपनी दूध पिलाने वाली माताओं से अलग हो पाएगा, जो एकपल के लिए भी उसे अपनी नजरों से ओझल नहीं होने देतीं। कार्तिकेय ने कहा कि वह उनसे मिलने आया करेगा। दिव्य विमान पर आरूढ़ होकर कार्तिकेय शिवपार्वती के पास कैलाश पर आ गया। हर्षोल्लास का पर्व मनाया गया। शिवपार्वती ने उसे गले से लगा लिया। कार्तिकेय के दिव्य तेज से प्रभावित होकर बहुत से लोग उसके भक्त बन कर उसकी स्तुति करने लगे। वे उसे शिव की प्राप्ति कराने वाला और जन्ममरण से मुक्ति देने वाला कहते। वे उसे अपना सबसे प्रिय इष्टदेव कहते। एक आदमी का यज्ञ के लिए बंधा बकरा कहीं भाग गया था। सबने उसे ब्रह्मांड में हर जगह ढूंढा, पर वह नहीं मिला। फिर वह आदमी भगवान कार्तिकेय के पास आकर उनसे प्रार्थना करने लगा कि वे ही उस बकरे को ला सकते हैं, नहीं तो उसका अजमेध यज्ञ नष्ट हो जाएगा। कार्तिकेय ने वीरबाहु नामक गण को पैदा करके उसे वह काम सौंपा। वह उसे ब्रह्मांड के किसी कोने से बांध कर ले आया और कार्तिकेय के समक्ष उस आदमी को सौंप दिया। कार्तिकेय ने उसपर पानी छिड़कते हुए उससे कहा कि वह बकरा बलिवध के योग्य नहीं, और उसे उस आदमी को दे दिया। वह कार्तिकेय को धन्यवाद देकर चला गया।
उपर्युक्त कुंडलिनी रूपक का रहस्योद्घाटन
विश्वामित्र ने कुंडलिनी का अनुभव किया था। वे क्षत्रिय थे पर कुंडलिनी के अनुभव से उनमें ब्रह्मतेज आ गया था। उसी कुंडलिनी पुरुष अर्थात कार्तिकेय के अनुभव से ही वे ब्रह्मऋषि बने। कुंडलिनी से ब्रह्मऋषित्व है, जाति या धर्म से ही नहीं। कार्तिकेय का संस्कार करने का मतलब है कि उन्होंने कुंडलिनी पुरुष को अपनी योगसाधना से प्रतिष्ठित किया। छः कृत्तिकाएँ छः चक्र हैं। कुंडलिनी पुरुष अर्थात कुंडलिनी चित्र कभी किसी एक चक्र पर तो कभी किसी अन्य चक्र पर जाता हुआ सभी चक्रों पर भ्रमण करता है। इसीको उनका आपस में लड़ना कहा गया है। फिर योगी ने तीव्र योगसाधना से उसे सभी चक्रों पर इतनी तेजी से घुमाया कि वह सारे चक्रों पर एकसाथ स्थित दिखाई दिया। यह ऐसे ही है कि यदि कोई जलती मशाल को तेजी से चारों ओर घुमाए, तो वह पूरे घेरे में एकसाथ जलती हुई दिखती है। इसीको कार्तिकेय का छः मुख बनाना और एकसाथ छहों कृत्तिकाओं का दूध पीना कहा गया है। चक्रों पर कुंडलिनी पुरुष के ध्यान से उसे बल मिलता है। इसे ही कार्तिकेय का दूध पीना कहा गया है। रोमांस से सम्बंधित विषयों को ‘हॉट’ भी कहा जाता है। इसलिए उन विषयों पर अग्निदेव का आधिपत्य रहता है। क्योंकि कुंडलिनी पुरुष की उत्पत्ति इन्हीं विषयों से हुई, इसीलिए वह अग्निदेव का पुत्र हुआ। उत्पत्ति होने के बाद भी कुंडलिनी पुरुष को तांत्रिक योग से बल मिलता रहा, जिसमें प्रणय प्रेम की मुख्य भूमिका होती है। इसीको अग्निदेव के द्वारा कार्तिकेय को बल देना कहा गया है। फिर कुंडलिनी उससे शक्ति लेकर आज्ञाचक्र के ऊपर आ गई। मूलाधार और आज्ञाचक्र आपस में सीधे जुड़े हुए दिखाए जाते हैं। इसको कार्तिकेय का क्रौंच पर्वत पर चढ़ना बताया गया है। क्रौं से मिलता जुलता सबसे नजदीकी शब्द क्रांति है। क्रांतिकारी चक्र आज्ञा चक्र को भी कह सकते हैं। आज्ञाचक्र एक बुद्धिप्रधान चक्र है। क्रांति बुद्धि से ही होती है, मूढ़ता से नहीं। क्रौंच पर्वत के शिखर को तोड़ता है, मतलब तेज, जजमेंटल और द्वैतपूर्ण बुद्धि को नष्ट करता है। अहंकार से भरा जीवात्मा कुंडलिनी को सहस्रार में जाने से रोकना चाहता है। उसी अहंकार को इंद्र कहा गया है। उसके द्वारा कुंडलिनी को रोकना ही उसके द्वारा कार्तिकेय पर वज्र प्रहार है। कुंडलिनी आज्ञाचक्र पर तीन नाड़ियों से आती है। ये नाड़ियां हैं, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इससे कुंडलिनी आज्ञा चक्र से नीचे आती रहती है, और तीनों नाड़ियो से फिर से ऊपर जाती रहती है। इससे वह बहुत शक्तिशाली हो जाती है। यही वज्र प्रहार से कार्तिकेय से तीन टुकड़ों का अलग होना है। शाख इड़ा है, वैशाख पिंगला है, नैगम सुषुम्ना है। शाखा से जुड़ा नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि ये दोनों नाड़ियां टहनियों की तरह हैं। मूल वृक्ष सुषुम्ना है, इसलिए उसे नैगम नाम दिया गया है। सभी निगमों अर्थात धर्मशास्त्रों का निचोड़ सुषुम्ना ही है, इसीलिए नैगम नाम दिया गया। कुंडलिनी पुरुष अर्थात कार्तिकेय के साथ ये तीनों पुरुष इंद्र को मारने दौड़ पड़े, मतलब कुंडलिनी सहस्रार की ओर अग्रसर थी, जिससे इंद्र रूपी अहंकार का नाश होना था। सभी लोग कार्तिक की ऐसे स्तुति कर रहे हैं, जैसे कुंडलिनी पुरुषरूप देवता की स्तुति की जाती है। कुंडलिनी तांत्रिक क्रियाओं से भी शक्ति प्राप्त कर सकती है। ऐसा तब ज्यादा होता है जब कुंडलिनी की तीव्र अभिव्यक्ति के साथसाथ शारिरिक श्रम भी खूब किया जाता है। इसका अर्थ है कि कुंडलिनी ही तांत्रिक यज्ञों को सफल बनाती है। कार्तिकेय के द्वारा पैदा किए गए वीरबाहु नामक गण के द्वारा बलि के बकरे को ढूंढ कर यज्ञ को पूर्ण करना इसी सिद्धांत को दर्शाता है। वीरबाहु का मतलब है, ऐसा व्यक्ति, जो अपनी भुजाओं की शक्ति के कारण ही वीर है। यह श्रमशीलता का परिचायक है। अधिकांशतः कुंडलिनी शक्ति के प्रतीकों से ही संतुष्ट हो जाती है, शक्ति के लिए हिंसा की जरूरत ही नहीं पड़ती। इससे यह तातपर्य भी निकलता है कि कम से कम हिंसा और अधिक से अधिक आध्यात्मिक लाभ। तंत्र के नाम पर नाजायज हिंसा का विरोध करने के लिए ही यह दिखाया गया है कि कार्तिकेय ने बकरे पर जल का छिड़काव करके उसे छोड़ देने के लिए कहा। यह हिंसा का प्रतीकात्मक स्वरूप ही है। शेष अगले हफ्ते।