मित्रों, पिछले ब्लॉग लेखों में जो लिखा गया है कि ठंडे मौसम में ठंडे जल से नहाने वाली ऋषिपत्नियों अर्थात छः चक्रों ने वीर्यशक्ति को ग्रहण किया, यह मुझे ईसाइयों के बैप्टिसम संस्कार की तरह ही लगता है। बैप्टिसम में भी नंगे शरीर पर ठंडा पानी गिराया जाता है। इससे चक्र खुल जाते हैं, और शक्ति का संचार सुधर जाता है। साथ में, नंगा शरीर होने से मन में एक बालक के जैसा अनासक्ति भाव औऱ अद्वैत छा जाता है। इससे भी शक्ति के संचरण और कुंडलिनी की अभिव्यक्ति में मदद मिलती है। मुझे तो प्रतिदिन नहाते हुए अपने बैप्टिसम के जैसा अनुभव होता है। इससे सिद्ध होता है कि योग और बैप्टिसम के पीछे एक ही सिद्धांत काम करता है। साथ में, छः ऋषिपत्नियों अर्थात छः चक्रों के द्वारा कबूतर बने अग्निदेव से वीर्यतेज ग्रहण करने के बारे में लिखा गया है, वे स्वाधिष्ठान चक्र को छोड़कर शेष छः चक्र भी हो सकते हैं। वह इसलिए क्योंकि खुद स्वाधिष्ठान चक्र तो उस कबूतर बने अग्निदेव का हिस्सा है। सहस्रार में कुंडलिनी से अद्वैत भाव पैदा होता है। चन्द्रमा अद्वैत का प्रतीक है, क्योंकि इसमें प्रकाश और अंधकार दोनों समान रूप में विद्यमान होते हैं। इसीलिए सूर्य को अस्त होते हुए और चन्द्रमा को उदय होते दिखाया गया है। उसी अद्वैत अवस्था के दौरान कुंडलिनी आज्ञा चक्र और फिर हृदय चक्र को उतर जाती है। हृदय चक्र को ही कई योगी असली चक्र मानते हैं। उनका अनुभव है कि आत्मज्ञान व मुक्ति की ओर रास्ता हृदय से जाता है, मस्तिष्क से नहीं। मुझे भी ऐसा कई बार लगता है। प्रेम से जो मुक्ति कही गई है, वह हृदय से ही तो है, क्योंकि प्रेम हृदय में ही बसता है। किसी भी भावनात्मक मनःस्थिति में कुंडलिनी हृदय में विराजमान होती है। विपरीत परिस्थितियों में वह भावनात्मक सदमे और उसके परिणामस्वरूप हृदयाघात से भी बचाती है। इसीलिए तो पशुओं से प्रेम करने को कहा जाता है। पशु का नियंत्रक हृदय है, मस्तिष्क नहीं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि वे बोल नहीं सकते। इसलिए उनकी मानसिक विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम भावनाप्रधान हृदय ही है। आप भी किसी दिन मौनव्रत धारण करके देख लें। पूरे दिनभर आपकी कुंडलिनी हृदय में रहेगी। मौनव्रत की अपार महिमा है। गाय में हृदय का प्रभाव सभी पशुओं से श्रेष्ठ है, इसीलिए हिंदु धर्म में गाय को बड़ा महत्त्व दिया जाता है। इसीलिए आजकल कॉमिउनिकेशन के नाम से गाय के साथ रहने का चलन बढ़ा है। इससे बढ़ा हुआ रक्तचाप सामान्य हो जाता है, और तनाव से राहत मिलती है। दरअसल ऐसा कुंडलिनी शक्ति के द्वारा अनाहत चक्र पर डेरा लगा लेने से होता है। इसलिए कुंडलिनी योग हमेशा करते रहना चाहिए। बुरे वक्त में कुंडलिनी ही सभी शारीरिक व मानसिक हानियों से बचाती है। कुंडलिनी जागरण की झलक के एकदम बाद बहुत से लोगों को नीचे उतरती हुई कुंडलिनी का ऐसा ही अनुभव होता है। इस तरह कुंडलिनी सभी चक्रों में फैल जाती है। इसीको इस तरह से लिखा गया है कि चन्द्रमा ने शिव को बताया कि कृत्तिकाएँ कार्तिकेय को अपने साथ ले गईं। जो शाख अर्थात इड़ा नाड़ी और वैशाख अर्थात पिंगला नाड़ी से कार्तिकेय अर्थात कुंडलिनी पुरुष का शक्तिमान होना कहा गया है, वह मेरे अपने अनुभव के अनुसार भी है। मुझे तो सुषुम्ना की तरह ही इड़ा और पिंगला से भी अपनी कुंडलिनी सुदृढ़ होती हुई महसूस होती है, बशर्ते कि दोनों नाड़ियाँ साथसाथ या एकदूसरे के निकट रहें। जब ये दोनों संतुलित नहीं होती, तब इनसे कुंडलिनी सहस्रार को नहीं जाती, और अन्य चक्रों पर भी कम ही रहती है, हालांकि शरीर के अंदर या बाहर कहीं भी महसूस होती है। इसलिए वह माइक्रोकोस्मिक ऑर्बिट लूप में कम ही घूम पाती है। हालाँकि उसकी शक्ति तो बढ़ती ही है, पर वह सुस्त व अव्यवस्थित सी रहती है, जिससे आदमी भी वैसा ही रहता है। सम्भवतः इसीलिए कहा जाता है कि कुंडलिनी योग साधना की तकनीक सही होनी चाहिए, बिना तकनीक के हर कहीं ध्यान नहीं लगाना चाहिए। कुंडलिनी माइक्रोकोस्मिक ऑर्बिट लूप में घूमती रहनी चाहिए। आध्यात्मिक समाज में यह बात भी फैली हुई है कि कुंडलिनी इड़ा और पिंगला में नहीं जानी चाहिए। सम्भवतः यह बात अनुभवी व एक्सपर्ट कुंडलिनी योगी के लिए कही गई है। दरअसल आम दुनियादारी में इनके बिना कुण्डलिनी का सुषुम्ना में सीधे प्रवेश करना बहुत कठिन है। इसका मतलब है कुण्डलिनी का ध्यान कहीं पर भी लग जाए, लगा लेना चाहिए। इड़ा और पिंगला में भटकने के बाद वह देरसवेर सुषुम्ना में चली ही जाती है। इसीलिए लौकिक मंदिरों व आध्यात्मिक क्रियाकलापों में कहीं भी ध्यान की पद्धति नहीं दर्शाई होती है। बस मूर्तियों आदि के माध्यम से ध्यान को ही महत्त्व दिया गया होता है। क्रौंच पर्वत की उपमा हमने आज्ञाचक्र को दी। उत्तराखंड में वास्तविक क्रौंच पर्वत भी है। वहाँ भगवान कार्तिकेय का मंदिर है। कहते हैं कि वहाँ से हिमालय के लगभग 80% शिखर साफ नजर आते हैं। वहाँ घना जंगल है, और चारों ओर प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा हुआ है। दरअसल पिंड और ब्रह्मांड में कोई अंतर नहीं है। जो भौतिक रचनाएं इस शरीर में हैं, बाहर भी वे ही हैं अन्य कुछ नहीं। यह अलग बात है कि शरीर में उनका आकार छोटा है, जबकि विस्तृत जगत में बड़ा है। हालांकि आकार सापेक्ष होता है, एब्सोल्यूट या असली नहीँ। यह सिद्धांत पुस्तक ‘शरीरविज्ञान दर्शन’ में विज्ञान की कसौटी पर परख कर साबित किया गया है। मुझे लगता है कि पहले पुराणों की रचना हुई, फिर उनमें दर्शाए गए रूपकात्मक और मिथकीय स्थानों को बाहर के स्थूल जगत में दिखाया गया। इसका एक उद्देश्य धार्मिकता व अध्यात्मिकता को बढ़ावा देना हो सकता है, तो दूसरा उद्देश्य व्यावसायिक व धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देना भी हो सकता है। ऐसे नामों के अनगिनत उदाहरण हैं। पुराणों में गंगा सुषुम्ना नाड़ी को कहा गया है, पर लोक में इसे उत्तराखंड से निकलने वाली एक नदी के रूप में दिखाया जाता है। जैसे सुषुम्ना शरीर के बीचोंबीच सफर करती है, उसी तरह गंगा नदी भी भारतीय भूभाग के बीचोंबीच बहती है। जैसे सुषुम्ना पूरे शरीर को मस्तिष्क से जोड़ती है, वैसे ही गंगा नदी पूरे भारतीय भूभाग को हिमालय से जोड़ती है।हिमालय को इसीलिए देश का मस्तक कहा जाता है। कैलाश रूपी सहस्रार भी मस्तक में ही होता है। गंगा में स्नान से मुक्ति प्राप्त होने का अर्थ यही है कि सुषुम्ना नाड़ी में बह रही कुंडलिनी ऊर्जा जब सहस्रार में बसे जीवात्मा को प्राप्त होती है, तो उसके पाप धुल जाने से वह पवित्र हो जाता है, जिससे मुक्ति मिल जाती है। पर आम लोगों ने उसे साधारण भौतिक नदी समझ लिया। उसमें स्नान करने के लिए लोगों की लाइन लग गई। वैसे तो आध्यात्मिक प्रतीकों से कुछ अप्रत्यक्ष लाभ तो मिलता ही है, पर उससे सुषुम्ना नाड़ी में नहाने से मिले लाभ की तरह प्रत्यक्ष लाभ नहीं मिल सकता।
देवताओं के द्वारा शिव के समक्ष कार्तिकेय से संबंधित गवाही देना जीवात्मा के द्वारा शरीर की गतिविधियों को अनुभव करना है
ध्यान से अपने शरीर का अवलोकन करना ही शिव के द्वारा देवताओं की सभा बुलाना है। ऐसी सभा का वर्णन मैंने अनायास ही अपनी पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन में की है। मुझे लगता है कि सम्भवतः मैं पिछले जन्म में शिवपुराण का गहन जानकार होता था। इस जन्म में तो मैंने कभी शिव पुराण पढ़ा नहीं था, फिर कैसे मेरे से उससे हूबहू मिलती जुलती हालाँकि आधुनिक विज्ञानवादी पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन की रचना हो गई। या फिर भटकती हुई मानवसभ्यता पर दया करते हुए शिव की ही आज्ञा या प्रेरणा हो कि उनके द्वारा प्रदत्त लुप्तप्राय विद्या को पुनर्जीवित किया जाए। यह भी हो सकता है कि मेरे परिवार का संस्कार मेरे ऊपर बचपन से ही पड़ा हो, क्योंकि मुझे याद आता है कि मेरे दादाजी शिवपुराण को बहुत पसंद करते थे, और उसे विशेष रूप से पढ़ा करते थे। फिर जीवात्मा को कार्तिकेय जन्म की घटना की असलियत का पता चलना ही देवताओं द्वारा शिव को वस्तुस्थिति से अवगत कराना है। उस वीर्यतेज को कुंडलिनी पुरुष के रूप में जीवात्मा के अनुभव में न लाना ही उसकी चोरी है। क्योंकि वह शरीर के अंदर ही रहता है, इसलिए उसकी चोरी का शक देवताओं के ऊपर ही जाता है, जो पूरे शरीर का नियमन करते हुए शरीर में ही स्थित हैं। वीर्य की दाहकता ही वीर्यचोर को दिया गया श्राप है। रक्तसंचार के वेग से ही अँगों को प्राण मिलता है। उसी प्राण से उन अंगों के सम्बंधित चक्र क्रियाशील हो जाते हैं, जिससे वहाँ कुंडलिनी भी चमकने लगती है। उदाहरण के लिए यौनोत्तेजना के समय वज्रप्रसारण उसमें रक्त के भर जाने से होता है। मैं यहाँ बता दूं कि जो कुंडलिनी-नाग का ऊपर की ओर रेंगना बताया गया है, वह वज्र प्रसारण के बाद के वज्र संकुचन से होता है। इसके साथ सहस्रार से लेकर मूलाधार तक फैली नाग की आकृति की सुषुम्ना नाड़ी का ध्यान किया जाता है। वज्र उस नाग की पूंछ है, पैल्विक घेरा नाग का चौड़ है, पीठ के केंद्र से होकर वह ऊपर खड़ा है, मस्तिष्क में उसके अनगिनत फन फैले हैं, और उस नाग का अंत आज्ञा चक्र पर केंद्रीय फन के रूप में होता है। वज्र प्रसारण के बाद इस ध्यान से उत्पन्न वज्र संकुचन से ऐसा लगता है कि नाग ऊपर की तरफ रेंगते हुए सहस्रार में पहुंच गया और उसके साथ कुंडलिनी पुरुष भी सहस्रार में चमकने लगता है। यदि नाग की पूँछ का ऐसा ध्यान करो कि वह आगे से ऊपर चढ़कर आज्ञा चक्र को छू रही है, मतलब नाग की पूँछ उसके सिर को छूकर एक गोल छल्ला जैसा बना रही है, तब यह रेंगने की अनुभूति ज्यादा होती है। फिर वह आज्ञा चक्र से होते हुए आगे से नीचे उतरता है। इस तरह एक लूप सा बन जाता है, जिस पर गशिंग व ऑर्गैस्मिक ब्लिस फील के साथ एनर्जी लगातार घूमने लगती है। यह प्रक्रिया कुछ क्षणों तक ही रहती है। फिर मांसपेशियों की निरंतर व स्पासमोडिक किस्म की सिकुड़न से शरीर थक जाता है। यह सिकुड़न जैसा घटनाक्रम ज्यादातर लगभग एक ही लम्बी व अटूट सांस में होता है। सम्भवतः इसीलिए सांस को ज्यादा देर तक रोकने के लिए योगी को प्राणायाम का अभ्यास कराया जाता है। फिर कई घण्टों के उपयुक्त क्रियाकलापों से या आराम से ही इसे दुबारा से सही ढंग से करने की शक्ति हासिल होती है। वज्र में रक्त भर जाने से स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र पर कुंडलिनी की अभिव्यक्ति बढ़ जाती है। उसी रक्त को रूपक में दुग्ध कहा गया है, क्योंकि दुग्ध रक्त से ही बना है। दुग्ध अन्य कुछ नहीं बल्कि एक प्रकार से छना हुआ रक्त ही है। दुग्ध इसलिए भी कहा गया है क्योंकि तांत्रिक कुंडलिनी मूलाधार से हृदय चक्र तक ही सबसे ज्यादा जाती है। वह वक्षस्थल पर होता है, जहाँ पर दुग्ध के स्रोत स्तन भी होते हैं। मिस्र की अँखिन्ग तकनीक में भी कुंडलिनी यौनांग से पीछे के हृदय चक्र तक जाती है। उसे फिर अँखिन्ग लूप से पीछे से ऊपर ले जाकर सिर के ऊपर से घुमा कर वापिस आगे से नीचे ले जाकर आगे के हृदय चक्र तक उतारा जाता है। सम्भवतः इसी तकनीक से कृतिका डर गई हो। अँखिन्ग लूप में कुंडलिनी का बारबार घूमना ही कार्तिकेय का कृत्तिका को आश्वासन देना और उससे बारबार मिलने आना है। जैसे ही लंबी-गहरी-धीमी और ध्यान लगाई गई साँसों की सहायता से होने वाली संकुचन -प्रसारण जैसी तांत्रिक क्रिया से शक्ति को मूलाधार से ऊपर पीठ से होते हुए मस्तिष्क की ओर चढ़ाया जाता है, वैसे ही वज्र संकुचित हो जाता है, और उसके साथ कुंडलिनी भी ऊपर चली जाती है। फिर जिस चक्र पर वह प्राण शक्ति जाती है, रक्त या दुग्ध भी वहीं चला जाता है, जिसका पीछा करते हुए कुण्डलिनी पुरुष भी। हालांकि उन चक्रों पर हमें वज्र प्रसारण की तरह कोई तरलजनित प्रसारण अनुभव नहीं होता, क्योंकि वे क्षेत्र शरीर में गहरे और दृढ़तापूर्वक स्थित होते हैं। कई बार उल्टा भी होता है। किसी चक्र पर यदि कुंडलिनी पुरुष का ध्यान किया जाए, तो शक्ति खुद ही वहाँ के लिए दौड़ पड़ती है। इसीलिए कार्तिकेय को षण्मुखी कहा गया है क्योंकि यह छहों चक्रों पर प्राणों से अर्थात दुग्ध से पोषण प्राप्त करता है। रक्त क्योंकि जल देवता के आधिपत्य में आता है, इसीलिए कहा गया है कि जलदेवता ने बताया कि कृत्तिकाएँ उस नवजात बालक को स्तनपान कराती हैं। पौराणिक युग के पुराण रचनाकार गजब के अध्यात्म वैज्ञानिक होते थे। जो शिवगण कृत्तिकाओं से कार्तिकेय को लेने जाते हैं, वे तांत्रिक क्रियाएं ही हैं, जो चक्रों से कुण्डलिनी को सहस्रार की तरफ खींचती हैं। वे क्रियाएँ साधारण हठयोग वाली संकुचन-प्रसारण वाली या वीभत्स प्रकार की पँचमकारी भी हो सकती हैं, इसीलिए कृत्तिकाओं का उनसे डरना दिखाया गया है। स्वाभाविक है कि कुंडलिनी के साथ ही वहाँ से रक्तसंचार भी जाने लग पड़ता है, इसलिए वे मुरझा कर पीली सी पड़ने लगती हैं अर्थात डरने लगती हैं। कुंडलिनी योग से कुंडलिनी का बार-बार चक्रों की ओर लौटना ही कार्तिकेय का अपनी माता को पुनः वापिस लौटने का आश्वासन देना है। इससे वे नए रक्तसंचार से प्रफुल्लित होने लगती हैं, अर्थात उनका भय खत्म हो जाता है। कई लोग बोलते हैं कि उनकी कुंडलिनी किसी चक्र पर फंसी हुई है, और चलाने पर भी नहीं चलती। दरअसल जब कुंडलिनी है ही नहीं, तो चलेगी कैसी। कई बार कमजोर कुंडलिनी भी एक जगह अटक जाती है, कमजोर आदमी की तरह। ताकतवर कुंडलिनी को कोई चलने से नहीं रोक सकता। तांत्रिक पँचमकारों से कुण्डलिनी को अतिरिक्त शक्ति मिलती है। कुंडलिनी को अभिव्यक्त करने का सबसे आसान तरीका बताता हूँ। लम्बी-गहरी-धीमी साँसें लो और उस पर ध्यान देकर रखो। इधर-उधर के विचारों को भी अपने आप आते-जाते रहने दो। न उनका स्वागत करो, और न ही अनादर। एकदम से कुंडलिनी पुरुष किसी चक्र पर अनुभव होने लगेगा। फिर उसे अपनी इच्छानुसार चलाने लग जाओ। कुंडलिनी पुरुष को अभिव्यक्त कराने वाला दूसरा पर हल्के वाला तरीका बताता हूँ। अपने शरीर के किसी निर्वस्त्र स्थान जैसे कि हाथों पर शरीरविज्ञान दर्शन के ध्यान के साथ नजर डालो। कुंडलिनी अभिव्यक्त हो जाएगी। कुंडलिनी पुरुष और कुंडलिनी शक्ति साथसाथ रहते हैं। मानसिक ध्यान चित्र या कुंडलिनी चित्र ही कुंडलिनी पुरुष है। यही शिव भी है। यह शक्ति के साथ ही रहता है। शक्ति की बाढ़ से शिव पूर्ण रूप में अर्थात अपने असली रूप में अभिव्यक्त होता है। यही कुंडलिनी जागरण है। दरअसल अँगदर्शन वाले उपरोक्त तरीके से भी यौगिक साँसें चलने लगती है। उसीसे कुण्डलिनी चित्र अभिव्यक्त होता है। सारा कमाल साँसों का ही है। साँस ही योग है, योग ही साँस है। किसी विचार के प्रति आसक्ति के समय हमारी सांसें थम जैसी जाती हैं। जब हम फिर से स्वाभाविक साँसों को चलाना शुरु करते हैं, तो आसक्ति गायब होकर अनासक्ति में तब्दील हो जाती है। इससे परेशान करने वाला विचार भी आराम से शांत हो जाता है। इससे काम, क्रोध आदि सभी मानसिक दोष भी शांत हो जाते हैं, क्योंकि ये विकृत व आसक्तिपूर्ण विचारों की ही उपज होते हैं। अगर साँसों पर ध्यान दिया जाए, तो कुंडलिनी की शक्ति से अनासक्ति और ज्यादा बढ़ जाती है।
यब-युम तकनीक यौन तंत्र का महत्त्वपूर्ण आधारस्तंभ है
यब-युम की तकनीक भी इसी कार्तिकेय-कथा में रहस्यात्मक रूपक की तरह दर्शाई गई है। क्योंकि कथा में आता है कि कबूतर के रूप में बना गुप्तांग वीर्य को ग्रहण करके ऋषिपत्नियों के रूप में बने चक्रों को प्रदान करते हैं। उन में उससे गर्भ बन जाता है, जो कुंडलिनी पुरुष के रूप में विकसित होने लगता है। यब-युम में भी तो यही किया जाता है। यब-युम की युग्मावस्था में यह वीर्यतेज का स्थानांतरण बहुत तेजी से होता है। इसमें पुरुष-स्त्री का जोड़ा अपने सभी युग्मित चक्रों पर एकसाथ ध्यान लगाता है। उससे दो मूलाधरों की ऊर्जा एकसाथ बारी-बारी से सभी चक्रों पर पड़ती है। उससे वहाँ तेजी से कुंडलिनी पुरुष प्रकट हो जाता है, जो वीर्यतेज से और तेजी से बढ़ने लगता है। यह तन्त्र की बहुत कारगर तकनीक है। इस तकनीक के बाद ऐसा लगता है कि मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्रों और सम्बंधित अँगों का दबाव एकदम से कम हो गया। दरअसल वहां से वीर्यतेज चक्रों पर पहुंच कर वहाँ कुंडलिनी पुरुष बन जाता है। यही ऋषिपत्नियों के द्वारा गर्भ धारण करना है। ऐसे लम्बे अभ्यास के बाद सुषुम्ना नाड़ी पूरी खुल जाती है। फिर चक्रों पर स्थित वह तेज एकदम से सुषुम्ना से ऊपर चढ़कर सहस्रार में भर जाता है। यह कुंडलिनी जागरण या प्राणोत्थान है। यही ऋषिपत्नियों के द्वारा गर्भसहित वीर्यतेज को गंगा नदी को प्रदान करना है। गंगा के द्वारा किनारे में उगी सरकंडे की घास को प्रदान करना है, और उस पर एक शिशु का जन्म है। यह रूपक पिछले कुछ लेखों में विस्तार से वर्णित किया गया है। यहाँ ध्यान देने योग्य मुख्य बिंदु है कि शिवलिंग भी यब-युम का ही प्रतीक है। इसी वजह से शिवलिंगम की अराधना से भी यब-युम के जैसा लाभ प्राप्त होता है। और तो और, हठयोग के आसनों को भी इसी वीर्य ऊर्जा को पूरे शरीर में वितरित करने के लिए बनाया गया है, ऐसा लगता है। ऐसे प्रत्यक्ष अनुभव से ही पाश्चात्य देशों में यह धारणा बनी हुई है कि योगासन संभोग शक्ति को बढ़ाते हैं।
शिवपुराण में साफ लिखा है कि शिव के वीर्य से उत्पन्न कार्त्तिकेय अर्थात कुंडलिनी पुरुष ही तारकासुर अर्थात आध्यात्मिक अज्ञान को मारकर उससे मुक्ति दिला सकता है, अन्य कुछ नहीं। इससे यह क्यों न मान लिया जाए कि यौनयोग ही आत्मजागृति के लिए आधारभूत व मुख्य तकनीक है, अन्य बाकि तो सहयोगी क्रियाकलाप हैं। अगर गिने चुने लोगों को जागृति होती है, तो अनजाने में इसी यौन ऊर्जा के मस्तिष्क में प्रविष्ट होने से होती है। यह इतनी धीरे होता है कि उनको इसका पता ही नहीं चलता। इसलिए वे जागृति का श्रेय अपने रंगबिरंगे क्रियाकलापों और चित्रविचित्र मान्यताओं को देते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनकी जागृति के समय वे उन-उन प्रकार के क्रियाकलापों या मान्यताओं से जुड़े होते हैं। इससे आपसी विवाद भी पैदा होता है। अन्धों की तरह कोई हाथी की पूंछ पकड़कर उसे असली हाथी बताता है, तो कोई हाथी की सूंड को। असली हाथी का किसीको पता नहीं होता। ऐसा भी हो सकता है कि अपनी विशिष्ट मान्यताओं या क्रियाओं से मूलाधार की यौन शक्ति हासिल हो, पर आदमी शर्म के कारण उसके यौनता से जुड़े अंश को जगजाहिर न करता हो। हम अन्य तकनीकों का विरोध नहीं करते। पर हैरानी इसको लेकर है कि मुख्य तकनीक व सिद्धांत को सहायक या गौण बना दिया गया है, और सहायक तकनीकों को मुख्य। जब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा तब स्वाभाविक है कि बहुत से लोगों को स्पष्ट व वैज्ञानिक रूप से जागृति होगी, संयोगवश गिनेचुने लोगों को ही नहीं। अक्सर लोग बाहरी अलंकारों और रूपकों में डूबे होते हैं, असल चीज का पता ही नहीं होता। मुझे तो वे समझ भी नहीं आते, और उनका रहस्य समझे बिना वे किसी दिव्य ग्रह की कथाएं लगती हैं। मैं फेसबुक पर देखता रहता हूँ। डाकिनी, काली आदि देवियों के कितने ही नाम इस मूल सिद्धांत से जोड़े गए हैं। सभी पन्थों और संप्रदायों ने अपनेअपने हिसाब से नाम दिए हैं। मूल चीज एक ही है। ऐसी बात भी नहीं है कि जागृति के मूल वैज्ञानिक सिद्धांत का पता न हो लोगों को। योग शास्त्रों में साफ लिखा है कि कुंडलिनी मूलाधार में ही रहती है, अन्यत्र कहीं नहीं। तो फिर इधर-उधर क्यों भागा जाए। मूलाधार में ही शक्ति को क्यों न ढूंढा जाए। दरअसल इसको व्यावहारिक रूप में नहीं, बल्कि अलंकार या रूपक की तरह माना गया। रूपक बनाने से यह नुकसान हुआ कि लोगों को पता ही नहीं चला कि क्या रूपक है और क्या असली। जिन्होंने इसे कुछ समझा, वे संभोग के सिवाय अन्य सभी टोटकों की सहायता लेने लगे मूलाधार की शक्ति को जागृत करने के लिए। सम्भवतः ऐसा सामाजिक संकोच व लज्जा के कारण हुआ। महिलाएं तो इस बारे में ज्यादा ही अनभिज्ञ और संकोची बनती हैं, जबकि पुराने जमाने में महिलाएं ही सफल तन्त्रगुरु हुआ करती थीं। एक तरफ तो मान रहे हैं कि कुंडलिनी मूलाधार में ही रहती है, और कहीं नहीं, और दूसरी तरफ उस संभोग को नकार रहे हैं, जो मूलाधार की शक्ति को जगाने के लिए सबसे प्रत्यक्ष और शक्तिशाली क्रिया है। विचित्र सा विरोधाभास रहा यह। सम्भवतः शक्ति की कमी भी इसमें कारण रही। समाज के जरूरत से ज्यादा ही आदर्शवादी और अहिंसक बनने से शरीर में शक्ति की कमी हो गई। शक्ति की कमी होने पर संभोग में रुचि कम हो जाती है। अंडे का सेवन एक उचित विकल्प हो सकता है। अंडा तो शाकाहारी भोजन ही माना जा सकता है, क्योंकि उसमें जीवहिंसा नहीं होती। वह तो दूध की तरह ही पशु का बाइप्रोडक्ट भर ही है। उसमें सभी पोषक तत्त्व संतुलित मात्रा में होते हैं। अंडा यौन उत्तेजना को भी बढ़ाता है, इसलिए तन्त्र के हिसाब से इसका सेवन सही होना चाहिए। आजकल के विकसित व वैज्ञानिक युग में तो यौनता के प्रति संकोच कम होना चाहिए था। विज्ञान की बदौलत आजकल अनचाहे गर्भ का भय भी नहीं है। बेशक तांत्रिक संभोग के साथ कंडोम का प्रयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि तांत्रिक क्रियाओं से वज्र लगातार संकुचित व प्रसारित होता रहता है, जिससे वह अंदर फंस सकता है। एड्स आदि यौन रोगों के संचरण का खतरा बढ़ सकता है इसके बिना। पर ऐसी नौबत ही नहीं आती क्योंकि यौनतन्त्र एक ही जीवनसाथी अर्थात पत्नी के साथ ही सिद्ध होता है। तन्त्र में वैसे भी दूसरों की बेटियों व पत्नियों को यौनतन्त्र साथी बनाना वर्जित है। कामभाव जागृत करने के लिए सभ्य तरीके से अप्रत्यक्ष सम्पर्क या हंसीमजाक तो चलता रहता है। फिर भी बहुत से गर्भनिरोधक उपाय हैं। हॉर्मोन की गोलियां हैं। हालांकि इनको लम्बे समय तक लगातार रोज लेना पड़ता है, जिससे दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं। यदि तांत्रिक अभ्यास के समय असुरक्षित चक्र-काल में गल्ती से योनि में स्खलन हो भी जाए, तो गर्भ रोकने के लिए अन्य हॉर्मोनल दवाइयां हैं, जैसे कि विकल्प-72, जिसे स्खलन के बाद के 72 घण्टे के अंदर लेने पर गर्भ नहीं ठहरता। यदि किसी कारणवश उसे न लिया जा सके, या बहुत विरले मामले में वह फेल हो जाए, तो एबॉर्शन पिल नाम से अन्य हॉर्मोनल दवाइयां मिलती हैं, जिन्हें माहवारी मिस होने के बाद जितना जल्दी लिया जाए, उतना अच्छा परिणाम मिलता है। ऐसे यूजर फ्रेंडली मिनीकिट उपलब्ध हैं, जिनसे माहवारी मिस होने के दिन से अगले 2-3 दिन में ही गर्भ ठहरने का पता चल जाता है। वैसे तो इन सबकी जरूरत ही नहीं पड़ती यदि यौनतन्त्र के प्रारम्भिक अभ्यास के समय सुरक्षित काल में ही संभोग किया जाए। यह समय माहवारी के पहले दिन समेत माहवारी चक्र के प्रथम सात दिन और अंतिम 7 दिन हैं। इन दिनों में स्खलन होने पर भी गर्भ नहीं बनता, क्योंकि इन दिनों में शुक्राणुओं को अण्डाणु उपलब्ध नहीं होता। यह समय सीमा उनके लिए है, जिनमें चक्र काल 28 दिनों का है, और हरबार इतना ही और अपरिवर्तित रहता है। यदि काल इससे कम-ज्यादा हो, तो उसी हिसाब से सुरक्षित काल कम-ज्यादा हो जाता है। यदि यह काल बराबर नहीं तब भी धोखा लग सकता है। हालाँकि कोई भी गर्भनिरोधक तरीका 100 प्रतिशत नहीं है, पर सभी तरीके मिलाकर तो लगभग 100 प्रतिशत सुरक्षा दे ही देते हैं। कई बार प्रीइजेक्युलेट में भी थोड़े से शुक्राणु होते हैं। पर वे अक्सर गर्भ के लिए नाकाफी होते हैं। वैसे हल्के तरीके ही काफी हैं। कॉपर टी, नलबंदी, नसबंदी जैसे जटिल तरीकों की तो जरूरत ही नहीं पड़ती अधिकांशतः। मैं एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट में पढ़ रहा था जिसमें एक तंत्राभ्यासी कह रहे थे कि आजकल जनसंख्या व बेरोजगारी अधिक है, इसलिए यौन तन्त्र से समस्या आ सकती है। इसलिए यौन तन्त्र का अभ्यास करें तो सावधानी से करें, और यह मान कर चलें कि यदि अनचाहा गर्भ ठहर जाए तो उसे खुशी-खुशी स्वीकार करने में ही भलाई है। पर आज के वर्तमान दौर में ये सब बातें पुरानी हो गई हैं। गर्भ भी उसी प्रकार की प्रचण्ड यौन ऊर्जा से बनता है, जिससे जागृति मिलती है। जिस सुस्त व आलसी संभोग से गर्भ नहीं बन सकता, उससे जागृति भी नहीं मिल सकती। इसीलिए तो देवी पार्वती को हैरानी हुई कि भगवान शिव के शक्तिशाली संभोग से उपजे शक्तिशाली वीर्य से गर्भ तो अवश्य बनना था, वह वीर्य असफल नहीं हो सकता था। पर वह गर्भ गया कहाँ। बाद में पता चला कि वह गर्भ सहस्रार में जागृति के रूप में प्रकट हुआ। इससे स्वाभाविक है कि पुराने जमाने में संभोग तन्त्र से लोगों को परहेज होना ही था, क्योंकि इससे गर्भ ठहरने की पूरी संभावना होती है, और भौतिक विज्ञान की कमी से उस समय भौतिक गर्भनिरोधक तकनीकों और ज्ञान का अभाव तो था ही। ऐसी जानकारियों वाली बातें लिखने और पढ़ने में ही अच्छी लगती हैं, इन्हें बोलने और सुनने में संकोच और लज्जा जैसी महसूस होती है। इसी वजह से तो आजकल के चैटिंग के युग में देखने में आता है कि कई बार एक देवी सदृश और पतिव्रता नारी भी, जिससे ऐसी बातें बोलने और सुनने की कल्पना भी नहीं की जा सकती, वह भी अपने मोबाइल फोन पर इतनी अश्लील चैटिंग कर लेती है कि लेखन के जादू पर उसको भी यकीन होने लगता है जो लेखन का धुर विरोधी रहा हो।