कुण्डलिनी योग से ही सृष्टि के मूलकण, मूल तरंग व प्लेन्क लेंथ जैसे क्वांटम तत्त्व बनते हैं

मन के अंदर और बाहर दोनों एकदूसरे के सापेक्ष और मिथ्या हैं

मन के बाहर किसी भी चीज या जगत का अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता

दोस्तों मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे जगत सत्य नहीं, बल्कि आत्माकाश के अंदर एक आभासी तरंग है। इसी तरह, स्थूल जगत का भी कोई अस्तित्व नहीं है, इसकी रचना भी मन ने की है। यह कोई आज की खोज नहीं है, जैसा कि कई जगह दिखावा हो रहा है। यह ऋषिमुनियों और अन्य अनेकों जागृत व्यक्तियों ने हजारों साल पहले अनुभव कर लिया था, जो उन्होंने आगे आने वाली हमारी जैसी पीढ़ियों के फायदे के लिए अध्यात्म शास्त्रों में लिखकर छोड़ा। विशेषकर योगवासिष्ठ ग्रंथ में इन तथ्यों का बड़ा सुंदर और वैज्ञानिक जैसा वर्णन है। कभी उसका इतना आकर्षण होता था कि उसको शांति से पढ़ने के लिए या उसे पढ़कर कई लोग घरबार छोड़कर ज्ञानप्राप्ति के लिए निर्जन आश्रम में चले जाते थे। यह पाठक को क्वांटम या पारलौकिक जैसे आयाम में स्थापित कर देता है। इसमें पूनरुक्तियां बहुत ज्यादा हैं, इसलिए बारबार एक ही चीज को विभिन्न आकर्षक तरीकों से दोहराकर यह माइंडवाश जैसा कर देता है। कट्टर भौतिकवादी कह सकते हैं कि जागृति से अनुभव हुए आत्माकाश के अंदर मानसिक सूक्ष्म जगत के बारे में तो यह बात सही है, पर बाहर के स्थूल भौतिक जगत के बारे में यह कैसे मान लें। पर वे उसी पल यह बात भूल जाते हैं कि मन के इलावा स्थूल जगत जैसी चीज का कोई अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि मन के इलावा आदमी कुछ नहीं जान सकता। सिर्फ उस जगत की एक कल्पना कर सकते हैं, पर वह काल्पनिक जगत भी तो सूक्ष्म ही है। फिर कुछ तर्क जिज्ञासु लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि चेतन आकाश को ही मूल क्यों समझा जाए, जड़ आकाश को क्यों नहीं, क्योंकि दुःख अभाव आदि जड़ आकाश के टुकड़े हैं।

अचेतन आकाश भी चेतन आत्माकाश में जगत की तरह आभासी व मिथ्या है

इसका जवाब जागृत लोग इस तरह से देते हैं कि चिदाकाश-लहर की तरह ही अचेतन आकाश का अस्तित्व भी नहीं है। वह भ्रम से अपनी आत्मा के रूप में महसूस होता है। वह भ्रम जगत के प्रति आसक्ति से बढ़ता है, और अनासक्ति से घटता है। जैसे चेतन आकाश में जगत आभासी है, उसी तरह अचेतन आकाश भी। इसीलिए सांख्य दर्शन अचेतन आकाश को भी चेतन आकाश की तरह शाश्वत मानता है। हालांकि सर्वोच्च स्कूल ऑफ़ थॉट वेदांत दर्शन स्पष्ट करता है कि अचेतन आकाश चेतन आत्माकाश में वास्तविक नहीं आभासी है।

पूर्णता की अनुभूति भाव रूपी चेतन आकाश के अनुभव से ही होती है, अभाव रूपी अचेतन आकाश के अनुभव से नहीं

जरा गहराई से सोचें तो यह अनुभवसिद्ध भी है। किसीको अचेतन आत्माकाश के अनुभव से यह महसूस नहीं होता कि उसे सबकुछ महसूस हो गया या वह पूर्ण हो गया, उसे कुछ जानने, करने और भोगने के लिए कुछ शेष बचा ही नहीं। पर ऐसा चेतन आत्माकाश के अनुभव से महसूस होता है। इससे मतलब स्पष्ट हो जाता है कि असल में चेतनाकाश ही सत्य और अनंत है, आम अनुभव में आने वाला भौतिक जगत तो उसमें मामुली सी, व मिथ्या अर्थात आभासी तरंग की तरह है।

सृष्टि ब्रह्म की तरह अनिर्वचनीय व अनुभवरूप है

जगत कल्पनिक है, मतलब स्थूल भौतिक जगत काल्पनिक है, क्योंकि उस तक हमारी पहुंच ही नहीं है। मानसिक सूक्ष्म जगत काल्पनिक नहीं क्योंकि यह तो अनुभव होता है। हालांकि सूक्ष्म भी स्थूल के सापेक्ष ही है। जब स्थूल ही नहीं तो सूक्ष्म कैसे हो सकता है। मतलब कि स्थूल-सूक्ष्म आदि सभी विरोधी व द्वैतपूर्ण भाव काल्पनिक हैं। इसलिए जगत सिर्फ अनुभव रूप है, अनिर्वचनीय है। इसे ही गूंगे का गुड़ कहते हैं। हर कोई ब्रह्म में ही स्थित है, केवल स्तर का फर्क है। जागृत व्यक्ति ज्यादा स्तर पर, अन्य विभिन्न प्रकार के निचले स्तरों पर। पूर्ण कोई नहीं।

एक दार्शनिक थोट एक्सीपेरिमेंट

विज्ञान जो अपने को कट्टर प्रयोगात्मक, वास्तविक व वस्तुपरक मानता है, वह भी आजकल बहुत से दार्शनिक विचार-प्रयोग प्रस्तुत कर रहा है, जिन्हें भौतिक प्रयोगों से बिल्कुल भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। फिर हम थोट एक्सपेरिमेंट करने से क्यों हिचकिचाएं, क्योंकि कुण्डलिनी का क्षेत्र भौतिक विज्ञान से ज्यादा दार्शनिक व अनुभवात्मक है। वह विचार-प्रयोग है, सृष्टि के सूक्ष्मतम मूलकण को कुण्डलिनी योग का अभ्यास मानना। वैसे शास्त्रों से यह बात प्रमाण-सिद्ध है। वेद-शास्त्रों को भी भौतिक प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है, कई मामलों में तो भौतिक से भी ज्यादा, जैसे ईश्वर व जागृति के मामलों में।

इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ ही सूक्ष्मतम तरंग के क्रेस्ट या शिखा और ट्रफ या गर्त हैं

मूलकणरूपी स्टैंडिंग वेव वह हो सकती है, जब स्वाधिष्ठान चक्र और आज्ञा चक्र के जोड़े को या मूलाधार और सहस्रार बिंदु के जोड़े को एकसाथ अंगुली से दबाकर उनके बीच कभी इड़ा से शक्ति की तरंग दौड़ती है, कभी पिंगला से, और बीचबीच में सुषुम्ना से। मूलाधार यिन या पाताल या प्रकृति है,और आज्ञा या सहस्रार यांग या स्वर्ग या पुरुष है। बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी ही मूल कण या दुनिया का असली रूप है, क्योंकि उससे ही कुण्डलिनी अर्थात मन अर्थात दुनिया का प्रदुर्भाव होता है।

अस्थायी मूलकण अल्प योगाभ्यास के रूप में है जबकि स्थायी मूलकण सम्पूर्ण योगाभ्यास के रूप में

जैसे आदमी में मूलाधार और सहस्रार के बीच में शक्ति का प्रवाह लगातार जारी रहता है, उसी तरह मूलकण में प्रकृति और पुरुष के बीच। इसीलिए तो तरंग लगातार चलती रहती है, कभी स्थिर नहीं होती। यह स्थिर या असली कण के जैसा है। आभासी कण उस प्रारम्भिक योगाभ्यास की तरह है, जिसमें इड़ा और पिंगला में शक्ति का प्रवाह थोड़ी-थोड़ी देर के लिए होता है, और कम प्रभावशाली होता है। इसीलिए ये अस्थायी कण थोड़े ही समय के लिए प्रकट होते रहते हैं, और आकाश में लीन होते रहते हैं।

पार्टिकल मूलाधार से सहस्रार की ओर चल रही तरंग के रूप में है, जबकि एंटीपार्टिकल सहस्रार से मूलाधार को वापिस लौट रही तरंग के रूप में है

सृष्टि के अंत में सभी कणों के एंटीपार्टिकल पैदा हो जाएंगे जो एकदूसरे को नष्ट करके प्रलय ले आएंगे

मूलाधार यहाँ प्रकृति का प्रतीक है, और सहस्रार पुरुष का। उपरोक्त अस्थायी आभासी कण प्लस और माइनस रूप के दो विपरीत कणों के रूप में पैदा होते रहते हैं। इसका मतलब है कि कभी न कभी स्थायी मूलकणरूपी तरंग भी खत्म होगी ही, बेशक सृष्टि के अंत में। फिर विपरीत मूलकण रूपी तरंग सहस्रार से मूलाधार मतलब पुरुष से प्रकृति की तरफ उल्टी दिशा में चलेगी। ऐसे में हरेक प्लस मूलकण के ठीक उलट माइनस मूलकण बनेंगे। इससे मूलकण और प्रतिमूलकण एकदूसरे से जुड़कर एकदूसरे को निगल जाएंगे, और सृष्टि का अंत हो जाएगा। इसीको प्रलय कहते हैं। फिर लम्बे समय तक कोई तरंग नहीं उठेगी। इसे ही नारायण का योगनिद्रा में जाना कहा गया है। मतलब निद्रा में तो है, पर भी अपने पूर्ण आत्मजागृत स्वरूप में स्थित है। विज्ञान कहता है कि पार्टिकल के बनते ही एंटीपार्टिकल भी बन जाता है, पर वह कहीं गायब हो जाता है। हो सकता है कि सृष्टि के अंत में वे एंटीपार्टिकल दुबारा वापस आ जाते हों।

इस समय एंटीपार्टिकल गुरुत्वाकर्षण के रूप में हैं

मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कई वैज्ञानिक किस्म के लोग भी ऐसा ही कह रहे हैं। ग्रेविटी अंतरिक्ष में गड्ढे की तरह है। तरंग का आधा भाग भी गड्ढे की तरह होता है। दोनों किसी बल के कारण मिल नहीं पाते। इसलिए कण से निर्मित ग्रेविटी कण को अपनी तरफ खिंचती तो है, पर पूरी तरह उससे मिल नहीं पाती। जब तरंग का ऊपर का आधा भाग ही दिखता है, तो वह कण की तरह ही दिखता है। जब ग्रेविटी का गड्ढा भी उसके साथ देखा जाता है, तो वह कण तरंग रूप में आ जाता है। इसका मतलब है कि प्रलय के समय गुरुत्वाकर्षण ही सारी सृष्टि को निगल जाएगा।

क्वांटम ग्रेविटी का अस्तित्व है

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि इलेक्ट्रोन, क्वार्क आदि मूलकणों की भी ग्रेविटी है। यह सूक्ष्म कण द्वारा निर्मित अंतरिक्ष के आभासी सूक्ष्म गड्ढे के जैसे एंटीपार्टिकल के रूप में है। इसे विज्ञान ढूंढ नहीं पा रहा है, पर क्वांटम ग्रेविटी के अस्तित्व को नकार भी नहीं पा रहा है।

मूल तरंग का पहला नोड प्रकृति है, और दूसरा नोड पुरुष है

ये चित्रोक्त बिंदू स्टैंडिंग वेव के दो नोड हैं। एक कोने पर ब्लू डॉट नेगेटिव या नॉर्थ पोल नोड है और दूसरे कोने पर रेड डॉट पॉजिटिव या साउथ पोल नोड है। दोनों तरफ को झूलती तरंग ही सृष्टि बनाने के लिए इच्छा या सोचविचार है। केंद्रीय रेखा ही ध्यान रूपी या भाव रूप सुषुम्ना है, जो सृष्टि बनाने का पक्का निश्चय है। इसीलिए कहते हैं कि ब्रह्मा ने ध्यान रूपी तप से सृष्टि को रचा। मतलब प्रकृति एक नोड है और पुरुष दूसरा नोड। वैसे भी सृष्टि की उत्पत्ति प्रकृति-पुरुष संयोग से मानी गई है। प्रकृति अंधेरा आसमान है, और पुरुष स्वयंप्रकाश आकाश है। दोनों शाश्वत हैं। प्रकृति नेगेटिव नोड है, और पुरुष पॉजिटिव नोड है। इन दोनों के बीच बनने वाली स्थिर तरंग ही सबसे छोटा मूलकण है। इस तरह के कण आकाश में पॉप आउट होते रहते हैं और उसीमें मर्ज होते रहते हैं। इनको किसी चीज से जब स्थिरता मिलती है तो ये आगे से आगे जुड़कर अनगिनत कण बनाते हैं। इससे सृष्टि का विस्तार होता है। इसका मतलब कि सृष्टि का प्रत्येक कण योग कर रहा है। पूरी सृष्टि योगमयी है।

मूलकण एक कुण्डलिनी योगी है, जो कुण्डलिनी ध्यान कर रहा है

सूक्ष्मतम तरंग की नोड से नोड के बीच की न्यूनतम दूरी प्लेँक लेंथ बनती है

वैज्ञानिकों को क्वार्क से छोटा कोई कण नहीं मिला है। यह भी हो सकता है कि क्वार्क से छोटी तरंगें भी हैं, जैसा कि स्ट्रिंग थ्योरी कहती है, पर वे क्वार्क के स्तर तक बढ़ कर ही अपने को कण रूप में दिखा पाती हैं। केवल कण के स्तर पर ही तरंगें पकड़ में आती हैं। हो सकता है कि सबसे छोटी तरंग प्लेंक लेंथ के बराबर है, जो सबसे छोटी लम्बाई संभव है। उस प्लेँक तरंग का एक नोड प्रकृति है, और दूसरा पुरुष। वैसे प्रकृति और पुरुष एक ही हैं, केवल आभासी अंतर है। इस तरह प्लेँक लेंथ भी वास्तविक नहीं आभासिक है। आकाश में तरंग भी तो आभासी ही हो सकती है, असली नहीं। प्रकृति मतलब मूलाधार से एक शक्ति की तरंग पुरुष मतलब सहस्रार की तरफ उठती है, मतलब देव ब्रह्मा योगरूपी तप के लिए ध्यान लगाते हैं। वह तरंग इड़ा और पिंगला के रूप में बाईं और दाईं तरफ बारी-बारी से झूलने लगती है, मतलब ब्रह्मा ध्यान में डूबने की कोशिश करते हैं। ध्यान थोड़ा स्थिर होने पर शक्ति की तरंग बीच वाली आभासी जैसी सुषुम्ना नाड़ी में बहने लगती है। इसीलिए कण भी आभासी या एज्यूम्ड ही है, असली तो तरंग ही है। इससे कुण्डलिनी चित्र मन में स्थिर हो जाता है, मतलब पहला और सबसे छोटा मूलकण बनता है। फिर तो आगे से आगे सृष्टि बढ़ती ही जाती है। आज भी तो सारी सृष्टि बाहर के खुले व खाली अंतरिक्ष की तरफ भाग रही है, मतलब वही मूल स्वभाव बरकरार है कि प्रकृति से पुरुष की तरफ जाने की होड़ लगी है। सृष्टि की हरेक वस्तु और जीव का एक ही मूल स्वभाव है, अचेतनता से चेतनता की ओर भागना।

मूलकण

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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