दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में एक विचार-प्रयोग के माध्यम से बता रहा था कि सृष्टि के अंत में कैसे गुरुत्वाकर्षण सभी चीजों को निगल जाएगा। कई वैज्ञानिक भी ऐसा ही अंदाजा जता रहे हैं, जिसे बिग क्रन्च नाम दिया गया है।
साथ में मूलकण के तरंग स्वभाव के बारे में भी बात चली थी। हवा, पानी आदि भौतिक तरंगों के मामले में देखने में आता है कि क्रेस्ट और ट्रफ एकसाथ नहीं बन सकते। जब क्रेस्ट बनाने के लिए जल सतह से ऊपर की तरफ उठेगा, तो उसी समय उसी जगह पर वह ट्रफ के रूप में सतह के नीचे नहीं डूब सकता। पर आकाश की तरंग के मामले में ऐसा हो सकता है, क्योंकि यह आभासी है, और इसके लिए किसी भौतिक वस्तु या माध्यम की जरूरत नहीं है। इसीलिए एकसाथ त्रिआयामी क्रेस्ट और ट्रफ बनने से मूलतरंग मूलकण की तरह भी दिखती है, और उसके जैसा व्यवहार भी करती है, जैसा कि पिछली पोस्ट में चित्रोक्त किया गया है। मूलकण रूपी तरंग ऐसे ही क्रेस्ट और ट्रफ बनाते हुए आगे से आगे बढ़ती रहती है, क्योंकि प्रकृति और पुरुष हर जगह विद्यमान हैं, और प्रकृति से पुरुष की तरफ दौड़ हर जगह चली रहती है। इसीलिए मूलकण कई जगह एकसाथ दिखाई देते हैं। पिछले क्रेस्ट से अगला ट्रफ बनता है, और पिछले ट्रफ से अगला क्रेस्ट, क्योंकि प्रकृति को सीमेट्री प्यारी है। इस तरह अनगिनत तरंगों के रूप में अंतरिक्ष में अनगिनत सूक्ष्म लूप बन जाते हैं। मतलब पूरा आकाश लूपों में बंटा हुआ सा लगता है। क्वांटम लूप थ्योरी भी यही कहती है कि अंतरिक्ष सपाट न होकर सूक्ष्मतम टुकड़ों में बंटा है। उससे छोटे टुकड़े नहीं हो सकते। पर अगर सिद्धांत से देखा जाए तो हरेक चीज टूटते हुए सबसे छोटी जरूर बनेगी। वह विशेषता से रहित शून्य आसमान ही है। जिसे अंतरिक्ष का क्वांटम लूप कहा गया है, वह दरअसल शून्य अंतरिक्ष का अपना स्वाभाविक रूप नहीं है, बल्कि अंतरिक्ष में आभासी मूलकण है। इससे इन सभी बातों का उत्तर मिल जाता है कि तरंग कण के जैसे क्यों व्यवहार करती है, स्टैंडिंग वेव और प्रॉपेगेटिंग वेव कैसे बनती है आदि। कोई भी लहर वास्तव में ध्यानरूप ही है, जैसा पिछली पोस्ट में बताया गया है। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ लहर के रूप में ही चलती हैं। लहर में कोई चीज आगे नहीं बढ़ती, लहर बनाने वाली चीज केवल अपने स्थान पर आगे-पीछे या ऊपर-नीचे कांप कर अपनी पूर्ववत जगह पर आ जाती है। केवल लहर आगे बढ़ती है। वैसे भी शून्य जैसे अंतरिक्ष में कोई चीज है ही नहीं प्रकट होने को। इसलिए एकमात्र लहर का ही विकल्प बचता है। वहाँ तो अपनी जगह पर कांपने के लिए भी कोई चीज नहीं है। इसलिए झूठमूठ में ही कंपन दिखाया जाता है। यह नहीं पता कि कैसे। प्रकाश जिसको ईश्वररूप या दैवरूप माना जाता है, लहर के रूप में ही चलता है। इसी तरह अग्नि भी।
नाड़ी की गति भी लहर के रूप में ही होती है
नाड़ी में संवेदना लहर के रूप में आगे बढ़ती है। इसमें सोडियम-पोटाशियम पम्प काम करता है। सोडियम और पोटाशियम आयन अपनी ही जगह पर नाड़ी की दीवार से अंदर-बाहर आते-जाते रहते हैं, और संवेदना की लहर आगे बढ़ती रहती है।
लहर सूचना को आगे ले जाती है
तालाब में कहीं पर कंकड़ मारने से उसके पानी पर लहर पैदा होकर चारों तरफ फैल जाती है। उससे जलीय जंतु संभावित खतरे से सतर्क हो जाते हैं। जमीन पर चलने से उस पर एक लहर पैदा हो जाती है, जिसे सांप आदि जंतु पकड़कर सतर्क हो जाते हैं या भाग जाते हैं। वायु से आवाज के रूप में सूचना संप्रेषण के बारे में तो सभी जानते हैं। मूलाधार से संवेदना की लहर सहस्रार तक जाती है, जिससे सहस्रार सतर्क अर्थात क्रियाशील हो जाता है। सतर्क कालरूपी शत्रु से होता है, जो हर समय मौत के रूप में आदमी के सामने मुंह बाँए खड़ा रहता है। इसलिए सहस्रार अद्वैत के साथ सांसारिक अनुभूतियों के रूप में जागृति या आध्यात्मिक जीवनयापन के लिए प्रयास करता है। वैसे दुनियादारी में सफलता भी सहस्रार से ही मिलती है, क्योंकि वही अनुभूति का केंद्र है।
जीवात्मा विद्युतचुंबकीय तरंगों की सहायता से अपने अंदर आभासी संसार को महसूस करता है
नाड़ी में चार्जड पार्टिकलस की गति से आसपास के आकाश में विद्युत्चुंबकीय तरंग बनती है। उस तरंग से सहस्रार के आत्म-आकाश में आभासी तरंगें बनती महसूस होती हैं। इसीलिए कहते हैं कि आत्मा का स्थान सहस्रार है। यह आश्चर्य की बात है कि अनगिनत स्थानों पर विद्युत्चुंबकीय तरंगों से आकाश में अनगिनत आभासी कलाकृतियाँ बनती रहती हैं, पर वे केवल जीवों के मस्तिष्क के सहस्रार में ही आत्मा को महसूस होती हैं। अगर उसकी बनावट व उसकी कार्यप्रणाली की सही जानकारी मिल जाए तो हो सकता है कि कृत्रिम जीव व कृत्रिम मस्तिष्क का निर्माण भी विज्ञान कर पाए।