दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि ब्लैक होल ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म शरीर होता है। गेलेक्सी को आप उसका स्थूल शरीर मान लो, और उसके केंद्र में स्थित ब्लैक होल उसका सूक्ष्म शरीर है। हरेक जीव एक आसमान है, और उसमें एक अलग ब्रह्माण्ड है। सब स्वतंत्र हैं और एकदूसरे को नष्ट नहीं कर सकते। हो सकता है कि इसी तरह एक ही आसमान में अनगिनत स्वतंत्र ब्रह्माण्ड भी हों।
आदमी कभी नहीं मरता
ये मैं ही नहीं कह रहा हूँ बल्कि वैज्ञानिक भी इस बात की आशंका जता रहे हैं कि आदमी दरअसल मरता नहीं है, पर मरने के बाद ब्लैक होल में चला जाता है और वहाँ से होकर किसी दूसरे ब्रह्माण्ड में पहुंच जाता है। यह वही बात है जो शास्त्र कहते हैं कि आदमी मरने के बाद सूक्ष्म शरीर बन जाता है और नया जन्म ले लेता है। नया जन्म नया ब्रह्माण्ड ही है, क्योंकि जितने जीव उतने ब्रह्माण्ड। हरेक जीव एक अनंत अंतरिक्ष है, और उसमें विचारों व अनुभवों का समूह ही भरापूरा ब्रह्माण्ड है। रोचक बात यह है कि स्थूल ब्रह्माण्ड की तरह सूक्ष्म मानसिक ब्रह्माण्ड भी अनंत अंतरिक्ष में ही बनता है, जीव के शरीर या मस्तिष्क में नहीं, जैसा कि अक्सर माना जाता है। मस्तिष्क तो केवल अंतरिक्ष में उन आभासी तरंगों को पैदा करने वाली मशीन भर है, जिन्हें वह अंतरिक्ष अपने अंदर महसूस कर सकता है। योगवासिष्ठ जैसे शास्त्रों में इसे ऐसे समझाया गया है कि आसमान में लटकते घड़े के अंदर कैद आसमान ही जीव है। वह भ्रम से ही अलग प्रतीत होता है, असलियत में वह एक ही अनंत आसमान से अभिन्न है। घड़े के अंदर के आसमान में आभासी तरंगें बनती रहती हैं, जिनसे जीव मोहित हुआ रहता है। मैं पिछली पोस्ट के संदर्भ में बता दूँ कि अनंत आकाश के छोटे से हिस्से में आसक्ति के साथ तरंगों को आत्म-आकाश से अलग अनुभव करने से पूरे चमकीले आत्म-आकाश को अपने में अंधेरा महसूस होता है। दरअसल यह भ्रम होता है। इससे मृत्यु के बाद भी उन तरंगों से बनी क्वांटम फ्लकचूएशन्स पर आसक्ति बनी रहती है, जिससे वह भ्रमजनित अंधेरा बना रहता है, जैसा सम्भवतः मैंने सूक्ष्मशरीर में अनुभव किया था। यह ऐसे ही है, जैसे क्वांटम फिसिक्स में मूल तत्त्वों को कण रूप में देखने पर वे अपने तरंग जैसे अनंत रूप को त्याग कर सीमित कणों के रूप में व्यवहार करते हैं। मतलब अनंत ऊर्जा एक कण के रूप में सीमित हो जाती है। इसको ऐसे समझ लो कि अनंत अंतरिक्ष की लाइट ऑफ़ हो जाती है, और केवल कणों के रूप में ही सीमित प्रकाश बचा रहता है। अँधेरे आसमान में चमकते हुए कण। जब हम उन्हें अपने असली ‘अनंत आसमान की तरंग‘ के रूप में देखते हैं, तब वे वैसे ही अंतरिक्ष की तरंग के रूप में व्यवहार करते हैं। मतलब वो तरंग इसीलिए प्रकाशमान है, क्योंकि वह जिस अंतरिक्ष में बनी है, वो खुद प्रकाशमान है। मतलब तरंग के साथ पूरे अनंत अंतरिक्ष की लाइट ऑन रहती है। जल में बनी तरंग तभी रंगीन हो सकती है, अगर वह जल भी रंगीन हो। अगर जल काला हो, तो उससे बनने वाली तरंग रंगीन हो ही नहीं सकती। जबकि तरंग को कण के रूप में मतलब जल से अलग स्वतंत्र रूप में तभी महसूस कर सकते हैं, अगर आधारभूत जल का रंग खत्म कर दिया जाए, पर तरंग का रंग रहने दिया जाए। पर ऐसा संभव नहीं है। इसलिए आधाररूपी तरंग-माध्यम का रंग आभासी रूप में अर्थात झूठमूठ में अर्थात भ्रम पैदा करके गायब करना पड़ता है, जादूगर की भ्रम पैदा करने वाली ट्रिक की तरह। इसलिए पदार्थ का असली रूप तरंग होते हुए भी वे आसक्ति और द्वैत से उत्पन्न भ्रम से कणरूप जान पड़ते हैं। सिंपल सी बात है। मतलब कि आध्यात्मिक अज्ञान क्वांटम फिसिक्स के अज्ञान पर आधारित प्रतीत होता है।