
मित्रों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे मन की गतिशीलता पतंग की उड़ान की तरह है। ऐसा लगता है कि प्राणायाम पतंग की डोरी को नियंत्रित गति देने की तरह है, जिससे पतंगरूपी मन अच्छे से और आत्मविकासरूपी आनंद पैदा करते हुए उड़ सके। मुझे तो यहाँ तक लगता है कि जो आनंद यौनक्रीड़ा के दौरान आता है, उसमें भी अनाच्छादित अर्थात नग्न शरीर के सम्पूर्ण उद्घाटन का काफी योगदान है। उसमें तो अन्नमय शरीर और प्राणमय शरीर दोनों एकसाथ उच्चतम अभिव्यक्ति के करीब होते हैं। कई लोग बोलते हैं कि असली प्यार मन से होता है, शरीर से नहीं। ये क्या बात हुई। सीधे कोई कैसे बाहरी तहखानों को लांघे बिना ही सबसे अंदरूनी तहखाने में पहुंच सकता है। जब लड़की के शरीर से हल्की यौन छेड़छाड़ होती है, बेशक अप्रत्यक्ष या मानसिक रूप में ही, तब लड़की का अन्नमय कोष सक्रिय हो जाता है। होली पर इसका अच्छा मौका मिलता है, उसे गवाएं नहीँ। हाहा। उसे पहली बार अपने शरीर की सबसे गहरी पहचान महसूस होती है। वह शरीर से ज्यादा ही सक्रिय व क्रियाशील होने लगती है। उसके मुख पर लाली और मुस्कान छा जाती है। इससे उसका प्राणमय कोष भी सक्रिय हो जाता है। प्राणों से उपलब्ध शक्ति को पाकर उसका मन रंगीनियों में बहुत दौड़ता है। वह हसीन सपने देखती है। सपनों में विभिन्न लोकों और परलोकों का भ्रमण करती है। इससे उसका मनोमय शरीर भी सक्रिय हो जाता है। क्योंकि यौन आकर्षण के कारण उसका ध्यान हर समय अपने शरीर और प्राणों पर भी बना रहता है, इसलिए उसका विज्ञानमय कोष भी खुद ही सक्रिय बना रहता है। उससे स्वाभाविक है, आनंदमय शरीर भी सक्रिय ही रहेगा। यह सब चेन रिएक्शन की तरह ही है। यही तो प्रेमानन्द है। यह आनंदमय कोष लम्बे समय तक सक्रिय बना रहता है। उसके पूरा खुल जाने के बाद तो आत्मा ही बचता है पाने को। वह भी विवाह के बाद तांत्रिक कुण्डलिनीयोग आधारित सम्भोगयोग से मिल ही जाता है। ऐसा नहीं कि यह स्त्री के साथ ही होता है। पुरुष के साथ भी ऐसा ही होता है। मुझे तो लगता है कि स्त्री की लावण्यमयी भावभंगिमा को देखकर जो पुरुष का तन और मन उससे देहसंबंध बनाने को उछालें मारने लगता है, वही उसके प्राणों का क्रियाशील होना है। यह अलग बात है कि कोई उस प्राणशक्ति का सदुपयोग करता है, तो कोई दुरुपयोग। कोई उसे आध्यात्मिक विकास में लगाता है, कोई भौतिक विकास में, और कोई संतुलित रुप से दोनों में।
थोड़ा मन की पतंग को उड़ने दें, एकदम न उतारें। हल्की सी तिरछी सी यह भावना रखें कि यह जुड़ी है। फिर थोड़ी देर बाद पतंग खुद आराम से लैंड करेगी। कोई झटका नहीँ लगेगा। मजा भी आएगा। लैंड होके उसे वापस भी जाने दें इच्छानुसार। खुद वापिस आएगी। अगर पतंग तूफानी जोर से ऊपर जा रही हो, और आप उसे जबरदस्ती नीचे खींचोगे, तो या तो पतंग फट सकती है, या धागा टूट सकता है। दोनों कमजोर तो पड़ेंगे ही, और उन पर दबाव भी बनेगा। ऐसा ही मन के साथ भी जबरदस्ती कर के होता है।
जिस समय दिमाग में थकान, दबाव या सिरदर्द जैसी हो रही हो, उस समय कपालभाति जैसी साँस खुद चलती है। उससे बाहर निकलती साँस पर ध्यान जाता है, जिससे कुण्डलिनी नीचे उतरती है। मतलब बाहर निकलती साँस धागे को नीचे खींचने मतलब खींच की तरह है, जिससे उड़ती हुई मनरूपी पतंग नीचे आती है, और दिमागी थकान रूपी तेज तूफ़ान से फटने से बचती है ।
विचारों के प्रकाश में ही नहीं, उनके अभाव के अंधकार में भी अनुभव शरीर से ही जुड़ा होता है, क्योंकि कुछ न कुछ मस्तिष्क की हलचल उसमें भी रहती ही है। यहाँ तक कि मृत्यु के बाद भी आत्मा का जो विशेष रूप में अनुभव होता है, वह भी शरीर से ही जुड़ा होता है, क्योंकि वह शरीर से ही निर्मित हुआ है। इसका मतलब है कि शरीर कभी भी नहीँ मरता। कभी यह दिखता है, कभी नहीं दिखता, रहता हमेशा है, अनुभव के रूप में।