शास्त्रों में ऐसा बहुत वर्णन है कि आनंद भीतर है अर्थात आत्मा में है, बाहर नहीँ। पर इसका वैज्ञानिक स्पष्टीकरण मुझे कहीं नहीँ मिला। सम्भवतः आत्मा का स्वरूप सत्तामयी शून्य या आकाश की तरह है। अविद्या या अंधकार में आत्मा का एक गुण होता है, शून्य या आकाश या सत्ता वाला। प्रकाश का गुण इसमें गायब होता है। इसलिए उसमें आनंद काफी कम हो जाता है, क्योंकि आत्मा के सभी गुण एकदूसरे से जुड़े होते हैं। किसी भी रूप में जगत की अनुभूति से जो प्रकाश की अनुभूति होती है, वह आत्मा के प्रकाश की कमी को पूरा करने का प्रयास करती है। होता क्या है कि जब वह अनुभूति बहुत तेज, बदलती हुई अर्थात गतिशील जैसी या भड़कीली या वास्तविक जैसी हो, तब यह आत्मा से मिश्रित नहीँ हो पाती, क्योंकि आत्मा है तरंगरहित या परिवर्तनरहित आसमान के जैसे स्वभाव वाली पर इसके विपरीत तेज अनुभूतियाँ ताबड़तोड़ उतार-चढ़ाव की लहरों अर्थात परिवर्तन के स्वभाव वाली होती हैं। इनसे क्षणिक सुख तो मिलता है, जब तक ये रहती हैं, पर इनके हटते ही आत्मा का अंधेरा और भी ज्यादा घना होता हुआ महसूस होता है। यह ऐसे ही होता है, जैसे रात को तेज रौशनी से बाहर निकलते ही आदमी थोड़ी देर के लिए अंधा जैसा हो जाता है। जब अनासक्ति या कुण्डलिनी आदि से वे प्रकाशमय अनुभूतियाँ मंद या कम गतिशील जैसी हो जाती हैं, तब वे शून्य आत्मा से मेल खाने लगती हैं। इससे वे आत्मा को अपना प्रकाश प्रदान करती हैं। इससे आत्मा की कमी पूरी होने से आनंद प्रकट होता है, क्योंकि उपरोक्त शास्त्रानुसार आत्मा में ही आनंद है, बाहर नहीं। इसे ही सतोगुणी अविद्या कहा गया है। सतोगुण प्रकाशप्रधान होता है। यह कोई आध्यात्मिक महत्त्व ही नहीँ बल्कि व्यावहारिक महत्त्व का विषय भी है। हर कोई ऐसे आदमी को पसंद करता है, जो शांत स्वभाव का हो, न कि भड़कीले स्वभाव वाले को। शांत स्वभाव वाले का मानसिक अंधेरा भी शांत होता है, जबकि भड़कीले स्वभाव वाले की मानसिक अँधेरे के रूप में रजोगुणी अविद्या भी भड़कीली, गहरी और दुखदाई होती है। सज्जन और दुष्ट में यह मुख्य अंतर होता है। साधु की अविद्या सत्त्वगुण से उत्पन्न होने के कारण सत्त्वगुण सम्पन्न होती है, जबकि दुष्ट की रजोगुण व तमोगुण से उत्पन्न होने के कारण वैसी ही होती है।
जब रजोगुण के कारण विचार या मानसिक चित्र जल्दी जल्दी बदल रहे हों, तब अपने प्राणमय और अन्नमय कोष के साथ उनके एकरूप होने की भावना नहीं की जा सकती। मतलब उन्हें अपने एक ही मिलेजुले शरीरसंघात के साथ एकरूप मानना कठिन होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि मन की तुलना में शरीरसंघात के अन्य सभी भाग बहुत धीमी गति वाले या स्थिर जैसे होते हैं। साथ में आम दुनियादारी या जीविका से संबंधित मानसिक चित्र भौतिक होते हैं, क्योंकि वे तथाकथित भौतिक दुनिया से जुड़े होते हैं, पर आत्मा अभौतिक है, इसलिए भी इनका मिलान नहीं होता। स्थिर या धीमे जैसे व अभौतिक समझे गए मानसिक चित्र को इस संघात के साथ मिलाना आसान होता है। पंजाबी भाषा में और संस्कृत भाषा में धीमापन या घुमाव होता है, जिससे सतोगुण बढ़ता है। इसीलिए इन भाषाओं के प्रयोग से आनंद पैदा होता है। इनके माध्यम से दुनियादारी के दौरान जो अविद्या का अंधकार पैदा होता रहता है, वह सतोगुणी अविद्या रूप होता है। वह आनंदरूप होता है। इसी तरह साधु बाबा की तरह दाढ़ी रखने से भी आदमी का वर्ताव धीमा, चिंतनशील अर्थात सात्विक हो जाता है। इसी वजह से बाबा आनंद के नशे में मस्त रहते हैं।
जब कोई आदमी उच्च पद या वस्तु प्राप्त करता है, तो उसे घर के बड़े-बूढ़े लोग ज्यादा उछलने से रोककर शांत बनाए रखते हैं। हमें बचपन में हमारी माताजी किसी बड़ी उपलब्धि के बाद एकदम से आसमान से जमीन पर उतार दिया करती थीं। ज्यादातर मामले में तो हमें अहंकार के आसमान में उड़ने ही नहीँ देती थीं। वे अच्छे व वैदिक संस्कारों वाले परिवार के वंश से संबंध रखती थीं। किसी के दायरे में अगर बुजुर्गों और साधुओं का सम्पर्क न हो, तो वह उपलब्धियों से थोड़े समय तो उड़ता ही है। फिर उड़ान का नशा टूटने पर जब गिरकर पाताल के गर्त में डूबने लगता है, और दुनिया उसे क्रेजी या पागल जैसा समझने लगती है, तब उसे होश आता है। पर तब तक वह काफी आनंद को और आत्मा की उन्नति को गवां भी चुका होता है। इसलिए ऐसा नहीँ कि यह सत्त्वगुणी अविद्या वाला मनोवैज्ञानिक सिद्धांत अध्यात्म में ही लागू होता है। यह दुनियावी व्यवहार में भी उतना ही लागू होता है। शायद इसीलिए शास्त्रों में यह बहुतायत में आता है कि ज्ञानप्राप्ति के लिए कष्ट उठाना पड़ता है, या तप करना पड़ता है। तप के कष्टों से परेशान आदमी जरूर आत्मा में आनंद ढूंढेगा, ऐसा शास्त्रों का विश्वास है।
जब विचारों के साथ स्थूल शरीर की भी भावना की जाती है तब उनकी शक्ति शरीर को मिलती है और मस्तिष्क का बोझ कम होता है। मतलब जो शक्ति मस्तिष्क में दबाव पैदा कर रही थी, वह मांसपेशियों की सिकुड़न के रूप में तब्दील हो जाती है। विचार रहते हैं पर आनंद के साथ हल्के पड़ते हुए विभिन्न चक्रोँ पर आकर विलीन हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि चक्रोँ पर बदलते विचारों की बाढ़ नहीँ उमड़ती जैसी मस्तिष्क या मन में उमड़ती है। क्योंकि चक्र विचारों के लिए समर्पित अंग नहीं हैं मस्तिष्क की तरह। चक्रोँ पर तो एक ही चित्र मुख्यतः कुण्डलिनी चित्र लम्बे समय तक बना रहता है। यह सतोगुण का प्रतीक है। इससे जो अविद्या पैदा होती है, वह सतोगुणी अविद्या है। यही आनंदमय कोष है। यह ऐसे है जैसे घुप्प और शांत अँधेरे में एक अभौतिक, शांत और हल्का, हालांकि अनौखा दिया जल रहा है। लम्बे समय तक स्थिर बना रहने वाला कुण्डलिनी चित्र ही सर्वोत्तम विज्ञानमय कोष बनाता है। वह आत्मा के जैसा स्थिर सत्ता का ज्ञान है, पर फिर भी विशेष ज्ञान है। मतलब न तो यह आत्मज्ञान है, और न साधारण लौकिक ज्ञान है, पर विशेष ज्ञान या विज्ञान है जो बेशक आत्मज्ञान के करीब है।