दोस्तों, लिखने को बहुत है, शब्द थोड़े हैं। बहुत अजीब हैं अध्यात्म की पहेलियां, बिन बूझे जो लिख दी गई हैं, कोई माने तो कैसे माने, सबको तो यकीन होता नहीँ। ये जो कहा गया है कि बाहर मत दौड़ो, अपने अंदर महसूस करो, यह एक दोगली तलवार की तरह है। अगर कोई बिल्कुल आंख बंद करके बैठ गया, वह तो मरा, पर यदि कोई आंख खोलकर भी बंद रखने का नाटक कर गया, वह तरा। अब मैं तो प्रेमयोगी वज्र ठहरा। मेरे पास अपने बारे में छुपाने के लिए कुछ नहीं है। मैंने हर किस्म के अनगिनत खूबसूरत नजारे देखे हैं। पर मैंने उन नजारों से दूरी बनाए रखी। यहाँ तक कि कइयों से एक लफज़ बात भी नहीँ की, पर मन की आँखों से उन्हें पी ही लिया। यह मेरे पारिवारिक आध्यात्मिक परिवेश से भी हुआ, और अन्य भी कई अनुकूल परिस्थितियाँ रही होंगी पिछले जन्मों के प्रभाव से। पर सिद्धांत तो सिद्धांत ही होता है, यह जानबूझकर भी उतना ही लागू होता है जितना अनजाने में। हुआ क्या कि खूबसूरत नजारों की तरफ आसक्तिपूर्वक न भागने से सिद्धांत को यह लगा कि मैं सभी नजारे अपने अंदर, अपने मन के अंदर, अपने शरीर के अंदर या अपनी आत्मा के अंदर महसूस कर रहा हूँ। सच्चाई भी यही होती है। बाहर के नजारे तो अपने अंदर के नज़ारे को प्रकट करने का जरियाभर होते हैं। जैसा कि मैं शरीर के आनंदमय कोष की जड़ तक जाने की पिछली कई पोस्टों से कोशिश कर रहा हूँ। पता नहीं क्यों लगता है कि कुछ अधूरा है। शास्त्रीय वचनों को वैज्ञानिक व्याख्या की जरूरत है। योग वैज्ञानिक है ऐसा कहा जाता है। पर सिर्फ कहने से नहीं होता। आज इसको सिद्ध करने की जरूरत है। दुनियावी रंगीनियों व नजारों में यौनप्रेम शीर्ष पर है। अगर कोई यौनप्रेम के साथ भी उससे तठस्थ रह सके, तो उससे बड़ी अनासक्ति क्या हो सकती है। उससे तो आत्मा को चमत्कारिक बल मिलेगा और वह सबसे तेजी से जागृत हो जाएगी, सिर्फ एकदो साल के अंदर ही। भगवान शिव भी तो ऐसे ही थे। देवी पार्वती उनके ऊपर जान छिड़कती थीं, पर वे अपने ध्यान में डूबे अनासक्त रहते थे। देवी पार्वती से प्यार तो वे भी अतीव करते थे, पर तटस्थ रहने का अभिनय करते थे। इससे उपरोक्त मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार उनका सारा प्रेम उनकी आत्मा को खुद ही लग जाता था। फिर भला उनकी आत्मा क्यों हमेशा जागृत न रहती। इससे जाहिर होता है कि एक योगी विशेषकर तंत्रयोगी से बड़ा अभिनयकर्ता नहीँ हो सकता कोई। देव शिव से उल्टा अगर कोई कट्टर या आदर्शवादी या शास्त्रवादी वगैरह या नासमझ ही होता तो देवी पार्वती जैसी प्रेमिका को ठुकरा कर चला जाता या उस पर फूल पे भौरे की तरह आसक्त हो गया होता। आप समझ ही सकते हैं कि फिर क्या होता। मतलब साफ है कि शिव या बुद्धिस्ट वाला मध्यमार्ग ही श्रेष्ठ है। वैसे कहना आसान है, करना मुश्किल। शास्त्रों में अनासक्ति को ठुकराना इसलिए कहा है, क्योंकि वह अपनाने की बजाय ठुकराने के ज्यादा करीब होती है। शास्त्र भावप्रधान हैं। लोग उनके भावों को न समझकर उनका अंधानुकरण करने लगते हैं। अगर कोई आम आदमी महादेव शिव को देखता तो बोलता कि उन्होंने देवी पार्वती को ठुकराया हुआ है। विवाह तो उनका बाद में मतलब कहलो कि ज्ञानप्राप्ति के बाद हुआ। पहले तो वे कहीं और ध्यानमग्न रहते थे, और उनको ढूंढते हुए देवी पार्वती कहीं ओर। बेशक शिव ने पार्वती के रूप की ध्यानमूर्ति अपने मन में बसा ली थी और हमेशा उसके ध्यान में आनंदमग्न रहते थे। लोगों को वह उनकी तपस्या लगती होगी। उन्हें क्या पता कि मामला कुछ और ही है। मन में जाके किसने देखा। दरअसल असली अनासक्त आदमी ने पूरी दुनिया को अपनी आत्मा के रूप में अपनाया होता है। उसे नहीं लगता कि उसने दुनिया को ठुकराया हुआ है। पर दुनिया वालों को ऐसा लगता है। इसलिए कम समझ वाले आम आदमी उनकी देखादेखी दुनिया को ठुकराने की बातें करने लग जाते हैं। यहाँ तक कि प्रेमी को भी कई बार यह लगता है कि उसका प्रेमी उसे ठुकरा रहा है या नजरन्दाज कर रहा है। इसीलिए तो ऐसा होने पर शिव पार्वती को दिलासा देने के लिए कुछ क्षणों के लिए पार्वती के सामने प्रकट हो जाया करते थे, और फिर अंतर्धान हो जाया करते थे। यह बता दूँ कि आत्मा को कुण्डलिनी अर्थात ध्यानचित्र के माध्यम से अभिव्यक्ति की शक्ति पहुंचती है। अगर आप बोलें कि अनासक्ति से मुझे ध्यान चित्र अभिव्यक्त होता महसूस होता है, कोई आत्मा वगैरह नहीं। शुद्ध आत्मा शून्य आकाश की तरह है, वह शरीर के रहते सीधी महसूस हो भी नहीं सकती, वह केवल ध्यानचित्र के रूप में ही महसूस हो सकती है। शिव ठहरे सबसे बड़े रासबिहारी। उनका कोई कैसे मुकाबला करे। आम आदमी को प्रेम से ज्ञान प्राप्त करने में अनेकों वर्ष लग जाते हैं। तब तक वह शिव की तरह प्रेमिका को दिलासा भी नहीं दें सकता। अगर देने लग जाए तो भावना में बह जाए और ज्ञान प्राप्ति से वँचित रह जाए। सांसारिक बंदिशें होती हैं सो अलग। सालों बाद सबकुछ बदल जाता है, प्रेमिका का मन भी। कई तो बेवफाई का आरोप लगाकर शुरु में ही किनारा कर लेती हैं। हाहा। वाह रे प्रभु शिव की किस्मत और लीला कि देवी पार्वती के प्रेम से पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति, फिर उनसे ही विवाह और उनसे ही विहार। प्रेम डगरिया में दूजा न कोई आए। ऐसा आम दुनियादारी में होने लग जाए तो स्वर्गों और अमृत की बौछार होती रहे। इसी तरह ईश्वर को बेवफा न समझकर उससे प्रेम करते रहना चाहिए। वे मनुष्य से बहुत प्रेम करते हैं, इसीलिए हवा, धूप, पानी आदि अनगिनत सुविधाएं आदमी पर लुटाते रहते हैं, बेशक पूरी तरह अनासक्त व दूर जैसे बने रहते हैं। कभी न कभी वे जरूर अपनाएंगे।

कुण्डलिनीयोग दुनिया ठुकराने की बात नहीं करता
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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन
I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है। View all posts by demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन