कुंडलिनी योगी नृसिंह भगवान रूपी ध्यानचित्र की मदद से हिरण्यकशिपु रूपी अहंकार व तांत्रिक पापों को भस्म करके प्रह्लाद रूपी आत्मबुद्धि की रक्षा करता है

दोस्तों, पिछली पोस्ट में मोर कैसे योगी बना हुआ था। योगी का पिछ्ला एनर्जी चैनल नर मोर है, तो अगला चैनल मोरनी है। अवसाद से भरे माहौल में मूलाधार की शक्ति से उसके मस्तिष्क में बहुत से दोषपूर्ण विचार बनते हैं, क्योंकि शक्ति को व्यय होने का और रास्ता नहीं मिलता। उन्हीं विचारों अर्थात आंसुओं को वह खेचरी मुद्रा के रूप में उल्टी जीभ को मुंह के अंदर के नर्म तालु से छुआ कर पीता है। वही आंसू फ्रंट चैनल से नीचे उतरते हुए चक्रों पर विशेषकर नाभि चक्र पर कुण्डलिनी चित्र का रूप ले लेते हैं, मतलब मोरनी गर्भवती हो जाती है।

पुराणों की एक कथा के अनुसार हिरण्यकशिपु नामक एक राक्षस ने ब्रह्मा से वरदान मांगा कि न वह मनुष्य के द्वारा न पशु के द्वारा, न दिन में न रात में, न आकाश में और न धरातल पर, न घर के अंदर न बाहर, और न अस्त्र से और न ही शस्त्र से मारा जा सकेगा। हिरण्यकशिपु भगवान विष्णु को अपना कुलशत्रु मानता था। परंतु उसका बेटा प्रह्लाद विष्णुभक्त था। हिरण्यकशिपु ने उसे बहुत समझाया पर जब वह नहीं माना तो उसने उसे मारने के बहुत से प्रयास किए। एकबार उसने लोहे का खंबा लाल गर्म करवाया और प्रह्लाद को उससे चिपकने को कहा। प्रह्लाद ने एक चींटी को उस पर रेंगते हुए देखा तो बिना डरे उस खंबे को गले लगा लिया। तभी उससे एक विचित्र जीव निकला, जिसका मुंह शेर का था परंतु वह नीचे से आदमी था। उसका नाम नृसिंह था। उसने हिरण्यकशिपु को संध्या के समय, घर के दरवाजे पर ले जाकर, अपनी गोद में उठाकर अपने नखों से मार डाला।
हिरण्यकशिपु तांत्रिक पाप का प्रतीक भी है। तांत्रिक पंचमकार पापरूप ही तो हैं। पापरूपी शक्ति का रुझान भौतिक दुनिया की तरफ ज्यादा होता है। इसलिए वह आदमी को अध्यात्म की तरफ नहीं जाने देती। पर गुरुकृपा से आदमी का रुझान अध्यात्म की ओर हो जाता है। इसीको कथा में ऐसे कहा गया है कि पाठशाला के गुरु ने प्रह्लाद को अध्यात्म की तरफ मोड़ा। फिर हिरण्यकशिपु ने उस गुरु को हटा कर छलकपट से भरी भौतिक शिक्षा देने वाला नया गुरु रख लिया। पर प्रह्लाद का स्वभाव नहीं बदला। मतलब साफ है कि अंधी शक्ति सच्चे गुरु से भी दूर ले जाने की कोशिश करती है, पर अगर सच्चे गुरु से थोड़ा सा भी संपर्क स्थापित हो जाए, तो वह कामयाब नहीं हो पाती। परिणामस्वरूप अध्यात्म की तरफ झुके हुए इन तांत्रिक पापों से आदमी की सुषुम्ना क्रियाशील हो जाती है। यही हिरण्यकशिपु द्वारा लाल गर्म लोहे का खंबा बनाना है। योगी द्वारा ध्यानचित्र को इसके साथ जोड़ना ही उसका इससे आलिंगन करना है, क्योंकि आदमी का अपना रूप भी वही होता है, जिसका वह हरपल ध्यान कर रहा होता है। ध्यानचित्र के जागने मतलब नृसिंह भगवान के प्रकट होने से अन्य सभी पापों के साथ कुण्डलिनी साधना की सफलता के लिए किए गए वे तांत्रिक पाप भी नष्ट हो जाते हैं। यही नृसिंह के द्वारा हिरण्यकशिपु का वध है। संध्या के समय उस जलते खम्बे से नृसिंह का प्रकट होना मतलब अन्य समय की अपेक्षा उस समय सुषुम्ना ज्यादा क्रियाशील होकर सहस्रार में ध्यान चित्र को जागृत जैसा करती है। सक्रिय सुषुम्ना नाड़ी ही वह दहकता लाल लौह स्तंभ है। सुषुम्ना भी रीढ़ की हड्डी के अंदर रहती है, जो लोहे की तरह कठोर है। क्योंकि कुंडलिनी चित्र को कई लोग भूतिया जैसा डरावना मानते हैं, क्योंकि उसका भौतिक अस्तित्व नहीं होता, इसीलिए उसको डरावने नृसिंह का रूप दिया गया है। ध्यान चित्र न मनुष्य होता है और न ही पशु। इसको ऐसे समझ सकते हैं कि जब हनुमान, गणेश जैसे अर्धमानुष रूपों का ध्यान किया जाता है, तब ध्यानचित्र सबसे ज्यादा अभिव्यक्त होता है। वह न अंदर होता है और न ही बाहर। इसका मतलब है कि ध्यानचित्र कोई भौतिक वस्तु नहीं है, बल्कि केवल एक काल्पनिक चित्र है। वह न दिन में अच्छे से बनता है और न रात को, बल्कि संध्या के समय कुंडलिनी योग करते हुए बनता है। वह हिरणयकाशीपु को गोद में उठाकर उसके पेट को नख से फोड़ता है, मतलब मूलाधार स्वाधिष्ठान से अवचेतन और अचेतन मन के रूप में दबे अहंकार को ऊपर उठाकर उन्हें चक्रोँ पर प्रकट करके समाप्त करता है, मतलब यह विपासना साधना ही है। सहस्रार चक्र में यह अहंकार पूरा अभिव्यक्त जैसा बना रहता है, और मूलाधार में सोया हुआ सा रहता है, इसलिए दोनों ही स्थानों पर मरने को नहीं आता। यह बीच वाले चक्रों में ही अर्धजागृत या अर्धसुशुप्त सा रहता है, इसलिए बीच में ही मरने को आता है। विपासना साधना के साक्षीभाव का भी तो यही सिद्धांत है। यह शक्ति के द्वारा चक्रभेदन ही है। पहले अवचेतन मन रूपी धरातल से सुषुप्त विचारों और वासनाओं को प्राण शक्ति से जगा कर चक्रों पर अभिव्यक्त किया जाता है, फिर चक्रों पर प्राण के प्रवाह से उनका भेदन किया जाता है। दरअसल भेदन या नाश तो उन वासनाओं व संस्कारों का होता है, पर भेदन चक्रों का माना जाता है। क्योंकि पेट का नाभि चक्र सबसे प्रमुख होता है, इसलिए हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ने की बात कही गई है। क्योंकि ज्यादातर योगी चक्रस्थान पर अंगुली का नख वाला सिरा रख कर नख से चक्र की तीव्र चुभन वाली संवेदना से या कम से कम अंगुली रखकर ध्यान को मजबूत करते हैं, इसीलिए कहा गया है कि नरसिंह ने हिरण्यकशीपु को नख से फाड़ा। इसमें जो संतुलित या बीच वाली अवस्थाओं में हिरणकशिपु का वध है, वह यही बताता है कि संगम अर्थात यिनयाँग वाली अवस्था में ही सुषुम्ना क्रियाशील होती है। अहंकार को न कोई मनुष्य मार सकता है, और न कोई पशु। उसे किसी भी अस्त्र–शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। उसे न तो पूरी तरह बाहर अर्थात बाह्यमुखी होके मारा जा सकता है, और न ही पूरी तरह अंदर अर्थात अंतर्मुखी होकर, बल्कि दोनों के उपयुक्त मिश्रण से ही मारा जा सकता है। कुण्डलिनी योगी को जो पीठ में अर्थात सुषुम्ना में रेंगती जैसी हल्की संवेदना महसूस होती है, उससे उसे कुण्डलिनी जागने बारे विश्वास हो जाता है, जिससे वह योगाभ्यास में लगा रहता है, और सुषुम्ना को क्रियाशील करके कुण्डलिनी जागरण प्राप्त कर लेता है। इसीको ऐसे कहा गया है कि प्रह्लाद को उस जलते लोहस्तंभ पर एक कीड़ी रेंगते हुए दिखी, जिससे आश्वस्त होकर उसने उसे गले लगा लिया, जिससे नृसिंह भगवान प्रकट हुए।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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