पिछली पोस्ट को जारी रखते हुए, केवल प्रह्लाद ही हिरण्यकशिपु को मनाने गया, क्योंकि वह किसी भी देवता के मनाने से नहीं मान रहा था। जागृति के बाद अक्सर ऐसा ही होता है। इसे ऐसे समझ लो कि अनंत चेतना से गिरा हुआ आदमी बहुत तेजतर्रार और क्रियाशील होता है। वह बाकि लोगों को भी रास्ते पर लाने की कोशिश करेगा क्योंकि कोई भी आदमी समाज के बिना आगे नहीं बढ़ सकता। वैसे ऐसा ज्यादातर तभी होता है, जब आदमी को जागृति उस समय मिलती है, जब वह स्वस्थ ऊर्जा से भरा होता है, जैसे किशोरावस्था और यौनावस्था। एक बीमार, कमजोर और बूढ़ा व्यक्ति समाज को कैसे बदल सकता है, वह तो अपने को भी बदल ले, तो भी काफी है। जब प्रह्लाद को जागृति मिली, उस समय वह ऊर्जावान बचपन की अवस्था में था। ऐसी अवस्था में उससे लोग ईर्ष्या करेंगे, उसपर क्रोध करेंगे, उसको सता भी सकते हैं, जैसा यीशु के साथ भी हुआ था। इससे समाज को पाप लग सकता है, जिससे उसमें रह रहे लोगों की दुर्गति हो सकती है। मतलब अपनी तरफ से तो लोग जागृति को शांत करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि लोगों के विभिन्न अंगों के रूप में देवता उनके शरीर में ही स्थित हैं। देवता कभी नहीं चाहते कि कोई भी साधु जैसा बन जाए, क्योंकि वे तो जगत को भड़काने और विस्तार देने का काम करते हैं। पर साधु जगत को शांत करता है। इसलिए लोग उसे कुंडलिनी योग करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह खुद भी होता है, जब लोग उसे बहिष्कृत सा कर देते हैं। फिर अकेलेपन के उबाऊ माहौल में जागृत व्यक्ति कुंडलिनी ध्यान नहीं करेगा, तो क्या करेगा। दूसरों को तो ध्यानचित्र दिखता नहीं है। वे तो अंदाजा लगाते हैं कि वह डरावना भूत है। जैसा देवताओं ने शेररूप नरसिंह कल्पित कर लिया। पर प्रह्लाद तो उसे जानता था कि वह तो परम प्रेमी व हितैषी है, कोई काल्पनिक भूत वगैरह नहीं। शायद लोग पागलपन या हैलूसिनेशन या भूतप्रेतबाधा या अवसाद या नशे आदि की अवस्थाओं से भी ध्यानसाधना की तुलना करते हैं, बेशक अनजाने में ही, अवचेतन मन में सदियों से पले हुए भ्रम के कारण। और हां, प्यार में धोखा खाया हुआ आदमी भी तो इसी तरह एक भ्रष्ट ध्यानयोगी की तरह अपने प्रेमी की याद में पगलाया जैसा रहता है। सम्भवतः इसीलिए जल्दी से कहीं उसकी शादी कराने पर जोर दिया जाता है, ताकि उसे तांत्रिक यौनबल से कुछ सहारा मिल सके। अधिकांश फिल्में इसी मामले पे तो बनी होती हैं। अजीब लोचा है भाई। कहीं एकबार मैने गलती से तंबाकू खा ली थी, एकबार भांग, और एकबार गुस्सा कम करने की दवाई। तीनों ही स्थितियों में मेरे मस्तिष्क में ध्यानचित्र छलांगें लगा रहा था। हैलुसिनेशन की हद तक असली आदमी की तरह स्पष्ट लग रहा था। पर यह डलनेस और मूर्खता के साथ था। आनंद भी कम था। कुछ अवसाद जैसा भी था। किसी से बात न करने अपनी ही पागल जैसी मस्ती में रहने को मन करता था। सिर में दबाव के साथ कुछ थकान व बेचैनी भी थी। योग में शारीरिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाए रखने पर भी इसीलिए जोर दिया जाता है। मुझे लगता है कि ध्यानचित्र के आनंद में मूलाधार की सम्भोगीय संवेदना का बहुत बड़ा योगदान है। यह ध्यानचित्र से जुड़े तथाकथित नकारात्मक और अवसादीय लक्षणों को खत्म करके आदमी को सामान्य से भी ज्यादा सही ढंग से सामान्य अर्थात स्वस्थ बना देती है। शायद यह यिनयांग से ही पैदा होती है, क्योंकि बिना जोड़े के संवेदना का कोई अर्थ जैसा नहीं रह जाता। यही संवेदना मस्तिष्क को कुंडलिनी जागरण का दबाव सहने में सक्षम बनाती है, क्योंकि दोनों का स्वभाव एकजैसा ही है। अर्थात आनंदरूप। जहां भ्रम रूप में चीजों के दिखने के पीछे मानसिक रोग या मानसिक थकान या मानसिक रसायनों की गड़बड़ी या अन्य मानसिक अनियमितता आदि मुख्य रूप में वजह होते हैं, वहीं ध्यान या कुंडलिनी जागरण की अवस्था में मन बिल्कुल स्वस्थ व तरोताजा होता है, यहां तक कि एक आम तंदुरुस्त आदमी से भी ज्यादा। जहां मानसिक रोग की हालत में आदमी काम करने में अक्षम जैसा होता है, वहीं दूसरी ओर ध्यान की अवस्था में पूरी तरह से सक्षम होता है, यहां तक कि एक आम इंसान से भी ज्यादा। जहां ध्यान की अवस्था में आदमी को दुनियावी कामों और संकल्पों के प्रति साक्षीभाव के कारण आनंद मिलता है, वहीं मानसिक रोगी को नहीं। इसीलिए वह उद्विग्न और मुरझाया सा दिखता है। साक्षीभाव तो वह तब करेगा न जब उसके लिए उसके मस्तिष्क में दुनियावी कामों के तंदुरुस्त संकल्प बनेंगे। पर अक्सर ऐसा होता नहीं है। सच्चाई यही है कि एक स्वस्थ आदमी ही स्वस्थ ध्यान कर सकता है। जब योगी कुंडलिनी ध्यान में आनन्दमग्न रहने लगता है, तब लोग उसके तथाकथित पागलपन से छुटकारा पाकर अपनेअपने कामधंधों में पूर्ववत आसक्ति और जोशखरोश से लग जाते हैं, जिससे देवता खुश हो जाते हैं। इसीको ऐसे कहा गया है कि प्रह्लाद ने नृसिंह भगवान को स्तुति से प्रसन्न किया। इससे क्रोध छोड़कर वे शांत हो गए, जिससे देवता और संसार नष्ट होने से बच गए।
