दोस्तों, पिछली पोस्ट को जारी रखते हुए, वह बलिरूपी अहंकार वामन को मजबूरन आने देता है, और उसे अंदेशा भी हो जाता है कि वह कुंडलिनी जागरण के बाद बच नहीं सकता। वैसे महिमा ऐसे गाई गई है कि राजा बलि सबसे बड़ा दानवीर था, जिसने अपना भावी नाश जानते हुए भी वामन को तीन पग जमीन दान में दी। हरेक जीव राजा बलि की तरह परम दानवीर होता है। वह यह जानकर कि कुंडलिनी योग से उसका अहंकार नष्ट हो जाएगा, उसका असीमित भौतिक संसार नष्ट हो जाएगा, फिर भी वह कभी न कभी जरूर कुंडलिनी साधना करता है। जब आदमी राजा बलि की तरह अच्छे कर्मों में लगा होता है, तब कभी न कभी भगवान विष्णु उसका भला करने एक ध्यानचित्र के रूप में उसके पास आते हैं। वे मित्र, प्रेमी, गुरु या देवता किसी भी रूप में हो सकते हैं। गुरु को भी तो भगवान का ही रूप समझा जाता है। वैसे भी हर किसी के लिए अपना प्रेमी भगवान ही होता है। उदाहरण के लिए मान लो कि किसी पुरुष की जिंदगी में एक स्त्री का प्रवेश होता है। पुरुष के बीसों कारोबार होते हैं, और सैंकड़ों रिश्ते। उनके कारण उसके मन में अनगिनत विचारचित्र बने होते हैं। इसलिए वह उस स्त्री को हल्के में ले लेता है, और सोचता है कि उसके विस्तृत भौतिक संसार के सामने एक स्त्री कुछ भी नहीं है। वह उसे अपने मन में जगह बनाने देता है, मतलब वह उससे जुड़े भाव या सत्त्वगुणरूपी पहले कदम, गति या रजोगुणरूपी दूसरे कदम, और अंधकार या तमोगुणरूपी तीसरे कदम को अपने मनरूपी साम्राज्य में पड़ने देता है। पर धीरेधीरे उसका उसके प्रति प्यार बढ़ता रहता है, और समय के साथ वह उसके मन में ज्यादा से ज्यादा जगह घेरती रहती है। आखिर में वह उसके पूरे साम्राज्य में फैल जाती है, और फिर जागृत होकर आदमी के राजाबलिरूपी अहंकार को खत्म ही कर देती है। कुंडलिनी योग में भी ऐसा ही होता है। इसका मतलब है कि योग और प्रेम के बीच में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है। राजा बलि भी बहुत बड़ा यज्ञ मतलब अच्छा काम ही कर रहा था। आदमी को पता चल जाता है कि वह ध्यानचित्र के चक्कर में पड़कर बावला प्रेमी या योगी या प्रेमयोगी या प्रेमरोगी बन जाएगा, फिर भी वह उसे अपनाता है, और आगे बढ़ाता है। उसने कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से एक कदम से मतलब सत्वगुण से सारा स्वर्ग कब्जे में कर लिया। स्वर्ग सतोगुण प्रधान होता है। क्योंकि कुंडलिनी जागरण के समय तीनों गुण अनंत हो जाते हैं, इसीलिए कहा गया है कि कुंडलिनी या वामन से तीनों लोक पूरी तरह से व्याप्त हो गए मतलब भर गए। दूसरे कदम मतलब रजोगुण से कुण्डलिनी चित्र पूरी धरती में फैल गया, क्योंकि धरती रजोगुणप्रधान है। तमोगुणरूपी तीसरे कदम से अहंकार व उससे जुड़े कर्मविचार मूलाधार के अँधेरे अवचेतन अर्थात पाताल में चले जाते हैं। क्योंकि तमोगुण किसी को मारकर या नष्ट करके ही बनता है, इसलिए वह अहंकार और उससे पोषित मानसिक सृष्टि को नष्ट करने से बनता है। पाताल लोक के द्वारपाल के रूप में भगवान विष्णु के स्थित हो जाने का मतलब है कि ध्यानचित्र कुंडलिनीयोग के माध्यम से उन राक्षसों को अर्थात अवचेतन में दबे विचारों को ऊपर अर्थात मस्तिष्क या स्वर्ग की तरफ जाने देकर शुद्ध करता रहता है, ताकि सब देवता ही बन जाएं। साथ में, विष्णुस्वरूप ध्यानचित्र को कुंडलिनी योग से स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रों पर केंद्रित किया जाता रहता है, जिससे उनमें दबी हुई राक्षसरूपी भावनाएं उजागर होकर उसके संपर्क में आने से शुद्ध बनी रहती हैं, जिससे वे योगी को बंधन में नहीं डाल पातीं, मतलब राक्षस देवताओं को परेशान नहीं कर पाते, क्योंकि शरीर में ही सभी देवता बसे हुए हैं। वैसे भी स्वाधिष्ठान चक्र को इमोशनल बैगेज मतलब भावनाओं की गठरी कहते हैं।
यज्ञ में बलि के पुरोहित बने हुए राक्षसगुरु शुक्र आचार्य पहले बलि को बहुत समझाते हैं कि वह वामन पर भरोसा न करे क्योंकि वह तीन कदमों में ही उसका सबकुछ छीन लेंगे। पर जब बलि नहीं मानता तो शुक्राचार्य संकल्पजल गिरा रहे शंख के सुराख़ में घुस जाते हैं, पर वामन उसमें कुशा डालकर उसकी आंख फोड़ देते हैं? एक बात और, क्योंकि शंख भी जीव की पीठ पर होता है, और रीढ़ की हड्डी की तरह ही उसे सुरक्षा देता है, इससे भी पक्का हो जाता है कि सुषुम्ना नाड़ी को ही शंख कहा गया है। साथ में, शंख का आकार भी एक फन उठाए नाग या ड्रेगन के जैसा ही होता है, जिसकी समानता मेरुदंड व उसमें स्थित सुषुम्ना के साथ की जाती है। एक अनुभवी कुलपुरोहित कभी भी अपने यजमान को अध्यात्म के बीहड़ में नहीं खोने देना चाहता, बेशक उससे यजमान का फायदा ही क्यों न हो। उसे पता होता है कि अगर यजमान को सत्य का पता चल गया तो उसे ठगकर उससे यज्ञ आदि कर्मकांड के नाम पर पैसा ऐंठना आसान नहीं रहेगा। हालांकि अपनी जगह पर कर्मकाण्ड सही है और जागरण के लिए महत्त्वपूर्ण सीढ़ी है, पर मंजिल मिलने पर कौन सीढ़ी की परवाह करता है। वैसे भी वह भौतिकवादी गुरु है। शुक्राचार्य अर्थात भौतिक विज्ञानवादी व्यक्ति या गुरु द्वारा शुक्र अर्थात वीर्य को बाहर बहा कर सुषुम्ना के शक्ति प्रवाह को ब्लॉक करना ही शंख में घुसना है। वामन का उसको कुशा डंडी द्वारा खोलना ही योगी द्वारा कुण्डलिनी ध्यानचित्र के माध्यम से मूलाधार से शक्ति को ऊपर चढ़ाना है। यह मूलाधार से लेकर सहस्रार तक फैली हुई संवेदना की रेखा जैसी होती है जो रीढ़ की हड्डी में होती है। यह झाड़ू या कुशा की सींक जैसी पतली फील होती है। यही सुषुम्ना जागरण है। अगर संभोग से पहले पीठ की विशेषकर मेरुदंड की ढंग से मालिश करवा ली जाए, तो यह संवेदना रेखा आसानी से और आनंद के साथ महसूस होती है। फिर वीर्य शक्ति आसानी से ऊपर चढ़ती है, जिससे संभोग बहुत आनंदमय और आध्यात्मिक बन जाता है। यौनांगों का दबाव भी एकदम से खत्म हो जाता है। आदमी अक्सर ऐसा कुंडलिनीजनित आनंद के लालच से प्रेरित होकर करता है, इसीलिए मिथक कथा में कहा गया है कि वामन ने ऐसा किया। इससे शुक्राचार्य की आंख फूटना मतलब कुण्डलिनी के प्रभाव से वीर्यशक्ति की द्वैत दृष्टि अर्थात दोगली नजर नष्ट होना है। जब वीर्यशक्ति द्वैत से भरे संसार की तरफ न बहकर अद्वैत से भरी आत्मा की तरफ बहेगी, तो स्वाभाविक है कि वीर्यशक्ति की दोगली नजर नष्ट होगी ही। बलि या अहंकार पाताल को चला जाता है, मतलब कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी व्यक्त अर्थात प्रकाशमान जगत का अहंकार नहीं कर सकता क्योंकि उसने सबसे अधिक प्रकाशमान कुंडलिनी जागरण का अनुभव कर लिया है। इसलिए वह स्थूल जगत से उपरत सा होकर अपने सूक्ष्म शरीर के रूप में अव्यक्त अन्धकार सा बन जाता है। यही उसका पातालगमन है। हालांकि सूक्ष्म शरीर के धीरे-धीरे स्वच्छ होने से स्वच्छ होता रहता है। इसे ही ऐसे कहा गया है कि भगवान विष्णु उसके द्वारपाल के रूप में पहरा देते हैं।
