दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कि कैसे सम्भोग योग पूरी तरह से शिवपुराण में उल्लिखित कार्तिकेय जन्म की प्रसिद्ध कथा पर आधारित है। कबूतर बने अग्निदेव ने कैसे शिवतेज को सप्तऋषि-पत्नियों के रूप में निरूपित चक्रोँ को देकर अपनी जलन को कम किया। वे ऋषिपत्नियां कड़ाके की ठंड के महीने में सुबह के ब्रह्म मुहूर्त में ठंडे पानी से नहाती थीं। दरअसल वे ठंड से काम्पती हुई ऋषिपत्नियां अग्निदेव के पास तपिश लेने गईं। अग्नि की चिंगारी के साथ शिवतेज उनके अंदर प्रविष्ट हो गया। होता क्या है कि ठंडे पानी से नहाते समय चक्रोँ की मांसपेशियों में ठंड से सिकुड़न पैदा हो जाती है जिससे पेट में ऊपर की तरफ खिंचाव लगता है। इससे स्वाधिष्ठान चक्र के निकट यौनाँग पर स्थित वीर्यतेज ऊपर की तरफ चढ़कर सभी सातों चक्रोँ में फैल जाता है। इससे प्रॉस्टेट का दबाव भी कम हो जाता है, या यूँ भी कह सकते हैं कि ऊर्जा की कमी से पेशाब को रोक कर रखने वाली मांसपेशियां ढीली पड़ जाती हैं, इसीलिए ठंडे पानी से नहाते समय बारबार और खुलकर पेशाब आता है। डर के समय भी लगभग यही प्रक्रिया होती है, इसीसे यह कहावत बनी है कि वह इतना डर गया कि उसकी पेंट गीली हो गई। दरअसल डर से मस्तिष्क में अंधेरा या शून्य सा छा जाता है, जो ऊर्जा को नीचे से ऊपर की ओर चूसता है। उस तेज की शक्ति से चक्रोँ पर मांसपेशियों की सिकुड़न और ज्यादा बढ़ने से उन पर गर्मी पैदा हो जाती है। यही ऋषिपत्नियों के द्वारा आग की तपिश लेना और उसके माध्यम से शिवतेज को प्राप्त करना है। इससे चक्रोँ पर रक्तसंचार बढ़ जाता है, जिससे वहाँ कुंडलिनी चित्र चमकने लगता है, क्योंकि जहाँ पर रक्त या वीर्य या प्राण है, वहीं पर कुंडलिनी है। दरअसल रक्त की अपेक्षा वीर्य तेज कुंडलिनी को बहुत अधिक शक्ति देता है। इसीलिए कहते हैं कि रक्त की हजारों बूंदों से वीर्य की एक बूंद बनती है। चक्र की सिकुड़न के साथ यदि स्वाधिष्ठान व मूलाधार चक्र की वीर्य जलन का ध्यान न किया जाए, तो उस चक्र पर कुंडलिनी चित्र नहीं बनता, सिर्फ सिकुड़न ही रहती है। इसीलिए कहते हैं कि कुंडलिनी मूलाधार में निवास करती है। इसी कुंडलिनी चित्र को ऋषिपत्नियों का गर्भस्थित बालक कहा गया है, क्योंकि जैसे वीर्य से गर्भ बनता है, उसी तरह कुंडलिनी चित्र भी बनता है। इसीलिए भगवान शिव देवी पार्वती द्वारा शापित कबूतर बने अग्निदेव को आश्वासन देते हुए कहते हैं कि वह उनके वीर्य तेज को सप्तऋषि पत्नियों को दे, जिससे उसकी जलन शांत हो जाएगी। आश्चर्य होता है शिवपुराण की इस नायाब और वैज्ञानिक तरीके से कही गई कथा पर। जैसे सम्भोग योग से वीर्यतेज ऊपर चढ़ता है, वैसे ही ठंडे जल से स्नान से भी। इसीलिए सम्भोग योग और शीतजल स्नान दोनों क्रियाओं को एक जैसा दिखाया गया है। यानी सामाजिक रूप से शर्मनाक कारणों से ठंडे पानी के स्नान के रूप में यौन योग से ओतप्रोत कहानी को अच्छी तरह से बताया गया है। यह एक अच्छा विकल्प है। यह एक बुद्धिमान युक्ति है। हो सकता है कि जो भगवान शिव को बर्फीली पर्वत चोटियों में निवास करते हुए दिखाया गया हो और शिवलिंगम को लगातार बूँदबूँद गिर रहे पानी से नहाया जाता हो, और बरसात के मौसम के वर्तमान के जुलाई-अगस्त अर्थात श्रावण के महीने को भी इसी कारण से शिव-विशिष्ट महीना माना गया हो। स्वर्ग से नीचे गिरती हुई गंगा नदी शिव को स्नान कराते हुए ही धरा के ऊपर प्रविष्ट होती है। मैं यहाँ कुछ दार्शनिक जुगाली भी करना चाहूंगा। सम्भोग का प्राथमिक उद्देश्य कुंडलिनी जागरण लगता है, संतानोत्पत्ति तो द्वितीयक या सहचर उद्देश्य है सम्भवतः। संतान इस इनाम के तौर पर है कि फलां आदमी ने कुंडलिनी जागरण प्राप्त करके अपना जीवन सफल कर लिया है, अब वह अपने जैसी संतान को पैदा करके उसका जीवन सफल करने में भी मदद करे। इसका प्रमाण है, गृहस्थ आश्रम से पहले ब्रह्मचर्य आश्रम का होना। इसमें आदमी द्विज मतलब जागृत बन जाता था। ब्रह्मचर्य का मतलब ही वीर्य शक्ति को बर्बाद न करके ऊपर चढ़ाना है। यह अलग बात है कि यदि इस आश्रम अवस्था में कोई कमजोर आदमी कुंडलिनी जागरण को प्राप्त न कर पाए, तो गृहस्थ आश्रम में भी कुछ वर्षों तक सम्भोग योग की मदद ले सकता है। यह ऐसे ही है जैसे कोई कमजोर बच्चा अगली कक्षा में जाने के बाद भी पिछली कक्षा की कमी को पूरा करने के लिए अतिरिक्त समर्पित कोचिंग या प्रशिक्षण लेता है। इसे सुपर ब्रह्मचर्य या आपातकालीन ब्रह्मचर्य या एकस्ट्राआर्डिनरी ब्रह्मचर्य कह सकते हैं। जब से संतानोत्पत्ति सम्भोग का प्राथमिक उद्देश्य बना, तब से ही लोग कुंडलिनी जागरण को भी भूलने लगे और विश्व की जनसंख्या भी बेतरतीब बढ़ने लगी। मैं फेसबुक में पढ़ रहा था कि फलां आदमी ने तीस हजार लोगों को उनके पिछले जन्मों की याद दिला दी, और फलां आदमी ने दस हजार लोगों को। क्या किसी ने किसी को कुंडलिनी जागरण भी करवाया, इसकी कोई चर्चा नहीं। मुख्य काम पीछे, गौण काम आगे। इधर ये वर्तमान जीवन ही भुलाए नहीं भूलता, और उधर कुछ लोग गत जन्मों के जीवनों को भी याद कराने में लगे हैं। अजीब और हास्यास्पद विडंबना लगती है यह। मुझे तो यह भी लगता है कि आगे वाले चैनल को अर्धनारीश्वर के बाएं अर्थात स्त्री भाग और मेरुदण्ड वाले चैनल को दाएं अर्थात पुरुष भाग के रूप में दिखाया गया है। यब-युम आसन भी तो ऐसा ही होता है। सम्भवतः यब-युम आसन के प्रति लज्जा संकोच के कारण ही ऐसा दिखाया गया हो। वैसे भी फोटो वगैरह टू डिमेंशनल बैकग्राउंड पर थ्री डिमेंशनल यब-युम को दिखा भी नहीं सकते। पर मूर्ति में तो दिखा सकते थे। इसलिए लज्जा संकोच ही मुख्य वजह लगती है। ये दोनों चैनल जुड़कर एक होने की कोशिश करते हैं। इससे मूलाधार की शक्तिशाली कुंडलिनी ऊर्जा एक तरंग के रूप में ऊपर चढ़ती हुई और सभी चक्रोँ को भेदती हुई सहस्रार में प्रविष्ट हो जाती है, और मुड़कर वापिस नीचे नहीं आती, क्योंकि आगे वाला कुंडलिनी चैनल पीछे वाले चैनल में मर्ज हो जाता है। मतलब दोनों चैनलों के जुड़ने से सुषुम्ना नाम का एक केंद्रीय चैनल खुल जाता है। सम्भवतः रीढ़ की हड्डी से थोड़ा आगे स्थित बायाँ अर्थात इड़ा चैनल है, और रीढ़ की हड्डी के थोड़ा पीछे मतलब पीठ की चमड़ी को छूता हुआ चैनल दायां अर्थात पिंगला है। रीढ़ की हड्डी के केंद्र में स्थित स्पाइनल कॉर्ड सुषुम्ना चैनल है। सम्भवतः यही यिन-यांग अर्थात स्त्री-पुरुष आकर्षण का मूलभूत वैज्ञानिक सिद्धांत है। वैसे बहूक्त बायाँ और दायां चैनल भी यथावत अस्तित्व में है। मैं तो बाएं चैनल को मेरुदण्ड के आगे खिसकाकर और दाएं चैनल को मेरुदण्ड के पीछे को खिसकाकर उन्हें अतिरिक्त आयाम प्रदान कर रहा हूँ।
सबको पता है कि जैसे ही चक्र सिकुड़न के माध्यम से गर्मी प्राप्त करते हैं, वैसे ही उनको वीर्यतेज भी प्राप्त हो जाता है। ऋषिपत्नियों ने वह तेज हिमालय को मतलब रीढ़ की हड्डी को दिया। ज़ब शरीर पर ठंडा पानी गिरता है तो योग-श्वासों के साथ उड्डीयान बंध खुद ही लगता है। इसमें पेट अंदर और ऊपर की तरफ भिंचता है। इससे चक्रोँ की जलन मेरुदण्ड को चली जाती है। मेरुदण्ड उस तेज को गंगा नदी मतलब सुशुम्ना नाड़ी को दे देता है। सुषुम्ना उसे किनारों पर उगे सरकंडों मतलब सहस्रार चक्र को देती है, जहाँ कार्तिकेय का जन्म मतलब कुंडलिनी जागरण या कुंडलिनी क्रियाशीलन होता है। यदि सुषुम्ना नाड़ी पूरी खुल जाए तो कुंडलिनी जागरण अन्यथा कुंडलिनी क्रियाशीलन होता है। मतलब कुंडलिनी चित्र मस्तिष्क में सजीव या वास्तविक भौतिक चित्र के जैसा बन जाता है। यही ठंडे पानी से स्नान का महत्त्व है, जिसका वर्णन हर धर्म में है। ईसाई धर्म के बैपटिस्म में भी सम्भवतः ठंडे पानी से सम्भव इसी शारीरिक क्रिया से मस्तिष्क में कुंडलिनी चित्र जीवंत हो जाता है, जिसे इनीशिएशन कहते हैं, जिससे आदमी आध्यात्मिक मुक्ति के पथ पर आरूढ़ हो जाता है। इसीलिए बैपटिस्म चमत्कारी असर दिखाता है अक्सर। गंगा नदी में स्नान के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ इसीलिए लगी रहती है। गंगा नदी का पानी बर्फीला ठंडा होता है जिसमें नहाने से कुंडलिनी शक्ति आनंद पैदा करते हुए दौड़ती है। हिन्दुओं में एक ऋषि पंचमी का व्रत होता है, जिसमें महिला को ठंडे पानी के झरने या तलाब में लगातार लम्बे समय तक नहाना पड़ता है, और पवित्र दाँतुन भी करते रहना पड़ता है। सम्भवतः दाँतुन करने से मस्तिष्क की अतिरिक्त ऊर्जा आगे के चैनल से नीचे उतरती रहती है, जिससे कुंडलिनी को घूमने में आसानी होती है, जिससे ठंड भी नहीं लगती। दरअसल मांसपेशियों की सिकुड़न और नाड़ी का चालन शरीर में गर्मी पैदा करके ठंड से बचाने की शरीर की कुदरती चेष्ठा है, कुंडलिनी लाभ तो सहलाभ अर्थात सेकण्डरी है। तिब्बती बुद्धिस्ट बर्फ की शिलाओं को अपने ऊपर रख कर पिघलाते हैं। इस मुकाबले में जो जितनी ज्यादा शिलाएं पिघलाता है, वह उतना ही बड़ा योगी माना जाता है। सबसे ज्यादा बर्फ की शिलाएं पिघलाने वाला विजयी घोषित किया जाता है। यह ध्यान शक्ति को मापने का अच्छा तरीका है। चक्रोँ पर कुंडलिनी ध्यान से वहाँ पर मांसपेशी की सिकुड़न से गर्मी पैदा होती है, जो बर्फ को पिघलाती है। मैं पिछली पोस्ट में सोच रहा था कि काश किसी के कुंडलिनी जागरण के स्वघोषित दावे को जाँचने का तरीका होता। चाह के कुछ न कुछ मिल ही जाता है। बर्फ की शिलाओं को शरीर पर पिघलाने वाला वही यह तरीका है। यह साधारण, अप्रत्यक्ष, कारगर और व्यावहारिक तरीका है। इसमें खून का सैंपल लेकर उसमें संभावित कुंडलिनी मार्कर को खोजने की जरूरत नहीं है। बेशक कुंडलिनी जागरण का इससे प्रत्यक्ष तौर पर पता न चलता हो, पर कुंडलिनी ध्यान की शक्ति को मापकर अप्रत्यक्ष तौर पर तो पता चल ही जाता है, क्योंकि कुंडलिनी जागरण से कुंडलिनी ध्यान शक्ति में एकदम से इजाफा होता है। यह अलग बात है कि कुंडलिनी योग के लम्बे ध्यान से कुंडलिनी ध्यान शक्ति में बिना जागरण के ही इजाफा हो जाता है। मुख्य चीज यही कुंडलिनी ध्यान शक्ति है, कुंडलिनी जागरण नहीं, ऐसा लगता है मुझे। हालांकि कुंडलिनी जागरण का अपना अलग ही शैक्षणिक और आधिकारिक महत्त्व है। इस जाँच तकनीक से कुंडलिनी जागरण का अंदाजा ही लगाया जा सकता है, उसकी पुष्टि नहीं की जा सकती। इस तकनीक में एक कमी और लगती है। यदि किसी योगी में पर्याप्त कुंडलिनी ध्यान शक्ति है, पर वह कमजोर है, तो सम्भवतः वह ज्यादा देर तक चक्रोँ की सिकुड़न नहीं बनाए रख पाएगा, ऊर्जा की कमी से। यह मेरा अपना अनुमान है, हो सकता है कि ऐसा न हो। पर आम लोगों को बिना अभ्यास के ऐसा नहीं करना चाहिए। ठंड भी लग सकती है। पहाड़ों की तरह ठंडे स्थानों में रहने वाले लोग कुंडलिनी शक्ति के कारण ही ज्यादा चुस्त होते हैं, ऐसा लगता है।
नई चीज को पुरानी चीज से जोड़ने से उसके प्रति लोगों की सकारात्मक सोच कुप्रभावित हो सकती है
मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि जहाँ तक मुझे लगता है, ओशो महाराज ने सम्भोग योग से संबंधित अपने दर्शन को पुरानी मान्यताओं से ज्यादा नहीं जोड़ा। इससे उनकी दार्शनिक चतुराई और निपुणता भी झलकती है। होता क्या है कि हर कोई पुरानी चीज से उबा हुआ जैसा होता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। आप एकबार स्टेच्यु ऑफ़ यूनिटी घूम आओ, तो दुबारा वहाँ जाने से अच्छा किसी नई जगह को जाना लगता है। इसी तरह, लोगों का अक्सर पुरानी चीजों के प्रति लगाव नई और आधुनिक चीजों से कम होता है। हालांकि कुछ लोगों के साथ उल्टा भी होता है। वे बनी बनाई पुरानी मान्यताओं पर ज्यादा विश्वास करते हैं। उन्हें उनके रहस्योद्घाटन से विशेष लाभ मिल सकता है। कईयों का किसी विशेष धर्म या जीवनपद्धति से पहले ही विशेष पूर्वाग्रह या दुराग्रह बना होता है। अगर वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार खोजी गई तकनीक या दर्शन के लिए बारबार पुरानी या किसी विशेष पद्धति का हवाला दिया जाता रहेगा, तो उसकी नवीनता और रोचकता क्षीण होने लगेगी। इसलिए लगता है कि यह अच्छा रहेगा यदि ऐसा हवाला कम से कम और केवल संदर्भ मात्र के लिए दिया जाए। इससे नवीनता का लाभ भी मिलेगा, और नई पद्धति की प्रामाणिकता पर भी संदेह नहीं होगा। हाँ, पुरानी पद्धतियों का वैज्ञानिक व अनुभव आधारित रहस्योद्घाटन निःसंकोचतापूर्वक किया जा सकता है। सम्भवतः इसीलिए महान चाइनीज दार्शनिक कन्फुसियस कहते थे कि नई परम्पराएं पुरानी परम्पराओं से जुड़ी होनी चाहिए।