दोस्तो, मैं पिछली पोस्ट में जिन्न और कुंडलिनी की समतुल्यता के बारे में बात कर रहा था कि जब जिन्न मेरे साहसरार चक्र में जीवंत जैसा होकर मेरे से एकरूप हो गया, मतलब जब देखने वाला मैं और दिखने वाला जिन्न, दोनों अभेद हो गए, तब वही कुंडलिनी जागरण कहलाया। शास्त्रों में भी समाधि या कुंडलिनी जागरण की यही परिभाषा है।क्यों न हम जिन्न की बजाय फरिश्ता कहें, क्योंकि यह मुझे ज्यादा उपयुक्त लग रहा है। क्योंकि वह असली जिन्न न होकर उसका दर्पण-प्रतिबिम्ब था। मतलब उसमें अपनी स्वतंत्र इच्छा नहीं थी, वह ईश्वर की इच्छानुसार अच्छाई की तरफ ही चलता था। फरिश्ता भी ऐसा ही होता है। जिन्न का क्योंकि अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है, इसलिए वह किसी भी दिशा में ले जा सकता है। इसे यूँ समझ सकते हैं कि जिन्न किसी संसारचक्र में भटकते हुए जीव या मनुष्य का मानसिक चित्र है, जैसे किसी आदमी की याद मन में बसी होती है। वह आदमी वर्तमान में कहीं जीवित अवस्था में भी हो सकता है, और मृत्यु के बाद की पारलौकिक प्रेत अवस्था में या किसी अन्य योनि में भी। इसका मतलब है कि वह जो इच्छा या कर्म करेगा, वह टेलीपेथी आदि के माध्यम से उसके चित्र तक प्रसारित हो जाएंगे, जो उसको मन में धारण करने वाले साधक को जरूर परेशान करेंगे। साथ में, उसकी याद के साथ उसके आसक्ति आदि दुर्गुण भी तो मन में बसे ही होंगे। साधक को अपनी दृढ इच्छाशक्ति से उन्हें दबाना पड़ता है। इसीलिए कहते हैं कि जिन्न को सही रास्ते पर लगाए रखने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। पर इसके विपरीत फरिश्ता किसी ऐसे व्यक्ति का मानसिक चित्र होता है, जो यदि जीवित है, तो जीवन्मुक्त की तरह इच्छारहित होता है, और यदि मृत है, तो भी या तो मुक्त होता है, या किसी दिव्यलोक में होता है, किसी जीव-योनि में नहीं जन्मा होता है। साथ में, उसकी याद के साथ उसके अनासक्ति आदि दिव्य गुण भी मन में खुद ही बसे होते हैं। इसलिए फरिश्ता हमेशा तटस्थ और अछूता रहता है। इसलिए वह साधक की साधना में व्यवधान न डालकर साधना में एकप्रकार से मदद ही करता है। इसीलिए कहते हैं कि गुरु या आध्यात्मिक प्रबुद्ध या मुक्त व्यक्ति या देवता का ध्यान करना चाहिए। फिर कहते हैं कि फरिश्ता प्रकाश से बना होता है, जिन्न की तरह आग से नहीं। वैसे भी प्रकाश आग से ज्यादा दिव्य, शांत, सूक्ष्म, सतोगुण युक्त और तेजस्वी होता है। आसक्ति और अद्वैत जैसे आध्यात्मिक गुणों से भरा व्यक्ति पहले से ही सूक्ष्म होता है, इसलिए स्वाभाविक है कि उसका मानसिक चित्र तो और भी ज्यादा सूक्ष्म होगा। इसीलिए फ़रिश्ते को प्रकाश कहा है। दूसरी ओर, जिन्न ज्यादातर भड़कीले और सेक्सी लोगों के चित्र होते हैं। इसलिए वे ज्यादा स्थूल होते हैं, आग की तरह। इसीलिए दुनिया में सेक्सी लोगों का ज्यादा बोलबाला रहता है। दुनिया में फँसे लोगों को फ़रिश्ते बनने वाले साधु लोग कहाँ पसंद आने वाले। मुझे साधु और स्वादू एकसाथ प्राप्त हुए थे, इसलिए मैं साधु से ऊबा नहीं। स्वादू मतलब सेक्सी लोगों ने साधु के प्रति आकर्षण बना के रखा, क्योंकि सम्भवतः साधु और स्वादू के बीच अच्छी आपसी ट्यूनिंग थी। यह ऐसे ही था जैसे चीनी के साथ कड़वी दवा भी मीठी लगने लगती है।इसीलिए तो मेरे मन में एक जिन्न, और एक फरिश्ता, दोनों एकसाथ स्थायी तौर पर बस गए, जैसा कि मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था। यह एक अच्छी टेक्टिक साबित हो सकती है। जिन्न ज्यादातर प्रणय प्रेम वाली आग से बने होते हैं। जब असफल प्रेम संबंध आदि के कारण सैक्स की आग मन में लम्बे समय तक दबी रहती है, तब वह जिन्न बन जाती है , इसीलिए तो जिन्न सम्भोग के भूखे होते हैं। मुझे तो लगता है कि बिना धुएं की आग वज्र की यौन संवेदना को ही कहा गया है, क्योंकि वह आग की तरह प्रकाश और गर्मी से भरी होती है, और उसमें धुआँ भी नहीं होता। जिंग यौन-संवेदना की ऊर्जा को कहते हैं। हो सकता है कि जिंग से ही जिन्न शब्द बना हो। ये दोनों शब्द एक ही बिरादरी के हैं। एकसाथ कई मतलब भी हो सकते हैं इसके। जिन्न को अच्छा बनाना पड़ता है, पर फरिश्ता स्वभाव से ही अच्छा होता है। फरिश्ता जिन्न के बुरे स्वभाव पर लगाम लगा कर रखता है। अच्छे जिन्न और फरिश्ते के स्वभाव में ज्यादा अंतर नहीं होता है। अच्छा जिन्न साधना या संस्कार की कमी से बिगड़ भी सकता है, पर फरिश्ता नहीं बिगड़ता। सम्भोग से फरिश्ते भी शक्ति प्राप्त करते हैं, पर वे उस शक्ति से आदमी को कुंडलिनी जागरण की तरफ ले जाते हैं, जबकि जिन्न अधिकांशतः दुनियादारी की तरफ ले जाते हैं। साथ में मैं बता रहा था कि कैसे कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी का रुझान लेखन की तरफ बढ़ता है। दरअसल लेखन भी एक कुंडलिनी योग ही है, एक साक्षीभाव योग या विपासना योग। लिखने से पुरानी बातें मानसपटल पर अनासक्ति के साथ उभर कर विलीन होने लगती हैं, जिससे अन्तःकरण स्वच्छ होता जाता है। कुंडलिनी योग में भी ऐसा ही होता है। कुंडलिनीजागरण या कुंडलिनी ध्यान की शक्ति से चित्रविचित्र नए-पुराने विचार मन में साक्षीभाव या अनासक्तिभाव से उभरते हुए इसी तरह विलीन होते रहते हैं। जब तक पुरानी घटनाओं को मन में पुनः न उभारा जाए, तब तक वे वैसी ही मन में दबी रहती हैं, और आदमी को आगे बढ़ने से रोकती हैं। मैं यह भी बता रहा था कि जिन्न आदि सूक्ष्म या आकाशीय प्राणी केवल मन में होते हैं, बाहर कहीं नहीं। इसका मतलब है कि दरअसल वे होते तो किसी भौतिक पुरुष या स्त्री के चित्ररूप ही हैं, पर उनसे पूरी तरह अलग होते हैं। आप अपना चेहरा दर्पण में देख लो। आप खुद कहोगे कि मैं यह नहीं हूँ। आदमी का असली रूप उसका मन होता है, चेहरा नहीं। आदमी अपने मस्तिष्क में बने उस मानसिक चित्र के साथ अपनी भावनाएं जोड़ देता है, अपना मन जोड़ देता है, अपनी मान्यताएं जोड़ देता है, अपनी धारणाएं जोड़ देता है। इसीलिए कहते हैं कि दुनिया हमें वैसी ही दिखती है, जैसी इसे हम देखना चाहते हैं, या जैसा हमारा अपना स्वभाव है, दुनिया का अपना कोई रूप नहीं। आप अपने गुरु का ध्यान वर्षो तक करो, उससे कुंडलिनी जागरण भी प्राप्त कर लो, फिर अगर उनसे अचानक मिलो, तो वे आपको पहचान भी नहीं पाएंगे। आपने गुरु के बाहरी रूप का ध्यान किया, उनके मन का नहीं। किसीके मन का ध्यान कोई नहीं कर सकता, क्योंकि वह दिखता नहीं। मेरे कॉलेज टाइम का एक नवयुवक एक लड़की को बहुत चाहता था। जब वह कई वर्षों बाद उससे मिला, तो उसने उसे पहचानने से भी इंकार कर दिया। वह इस गम को बर्दाश्त न कर सका, और उसने नजदीक बने पुल से नदी में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। वैसे तो वह पहले भी आत्महत्या का प्रयास कर चुका था, अवसादग्रस्त की तरह था, और कुछ हद तक शराब की लत के अधीन भी था। दरअसल वह यौनप्रेम के वशीभूत होकर लड़की के बाहरी रूपरंग का ही ध्यान करता था, उसके मन अर्थात उसके असली स्वरूप का तो नहीं। अपने मन में बने उसके चित्र को उसने अपना स्वरूप दिया हुआ था। एकप्रकार से वह अपने से ही प्यार करता था। वस्तुतः हर कोई अपने से ही प्यार करता है, पर वह उसे किसी बाहरी व्यक्ति पर झूठमूठ ही आरोपित करता है, और फँसता है। कई चालाक लोग मीठी-मीठी बातें बनाकर इस झूठ को मनवा भी देते हैं, जिससे कई बार प्रेमिका उनके जाल में फँस भी जाती है। इसीलिए पतंजलि योग में उस चीज के चित्र को ध्यान का आलम्बन कहा है, जिसका मन में ध्यान किया जाता है। दरअसल ध्यान अपना ही होता है, इसीलिए मानसिक चित्र को ध्यान के लिए सहारा कहा है, असली ध्यान की वस्तु नहीं। इसीलिए ध्यान को आत्मानुसन्धान भी कहा जाता है, कुंडलिनी अनुसन्धान या जगत अनुसन्धान नहीं। दरअसल कुंडलिनी ध्यान या कुंडलिनी जागरण आत्मानुसन्धान का एक जरिया है, असली आत्मानुसन्धान नहीं। आपने फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस में भी देखा होगा कि मुन्नाभाई को मन में दिखने वाला गाँधी उसे वही बात बताता था जो बात उसको खुद को पता होती थी। जो उसे खुद पता नहीं होता था, उसे उसका गाँधी भी नहीं बता पाता था। दरअसल गाँधी के बारे में किताब पढ़ कर उसका मन गाँधी जैसा बन गया था, पर उसके मन ने उसे इस भ्रम में डाल दिया कि गाँधी खुद उसके अंदर बस गए हैं। ये बनावटी तरीका बढ़िया है कि सुबह-शाम एक विशिष्ट मानसिक चित्र का ध्यान कर लो, और जिंदगी मजे से जीते रहो। इससे सब कुछ किया या भोगा हुआ उस चित्र के द्वारा किया और भोगा हुआ माना जाएगा। आदमी खुद सब चीजों से अछूता रहेगा, अनासक्त रहेगा, जल में पड़े कमलपत्र की तरह। ऐसे ही जैसे मुन्नाभाई के लिए सबकुछ गाँधी कर रहा था, जबकि दरअसल वह खुद ही सबकुछ कर रहा था। यही दैनिक कुंडलिनी योग है। यही दैनिक पूजा-अराधना है। यही दैनिक संध्या-वंदन है। यह एक आश्चर्यजनक आध्यात्मिक मनोविज्ञान है, जो मुक्ति की ओर ले जाता है।
ईसाई धर्म में ये मान्यता है कि गिरे हुए फ़रिश्ते ने औरतों के साथ सम्भोग करके मानव जाति को आगे बढ़ाया। ऐसे बहुत से पुराने चित्र या शिलालेख हैं जिनमें राक्षस को औरत के साथ सम्भोगरत दिखाया गया है। इसीलिए पुराने समय में औरतों को ज्यादा सजधज कर खुले में बाहर घूमने की ज्यादा छूट नहीं होती थी। गिरा हुआ फरिश्ता दरअसल गिरा हुआ मन या गिरी हुई कुंडलिनी है, क्योंकि कुंडलिनी चित्र मन का प्रतिनिधि है। वही कुंडलिनी चित्र फरिश्ता है। कुंडलिनी कभी सहसरार में होती थी। आदमी की बदनीयती और बदमिजाज से वह नीचे गिरती रही, और सभी चक्रोँ को बेधते हुए मूलाधार चक्र रूपी अंधकूप में गिर गई। वहाँ से फिर ऊपर उठने के लिए वह सम्भोग का सहारा लेती है। फरिश्ते, शाश्वत फरिश्ते या आरकेंजल, और पवित्र आत्मा के बीच आपसी संबंध के बारे में भी लोगों के बीच भ्रम सा बना रहता है। दरअसल तीनों एक ही चीज है तत्त्वतः। एक ही शक्ति तत्त्व को समझाने के लिए तीन तत्वों में विभाजित किया गया है। पवित्र आत्मा को परमात्मा का अनादि सहचर और उससे अभिन्न माना गया है, जैसे सूर्यरश्मि सूर्य से अभिन्न है। शिव की शक्ति भी बिल्कुल ऐसी ही है। इसका मतलब कि अनादि शक्ति ही पवित्र आत्मा या हॉली स्पिरिट है। साधारण फरिश्ते को अस्थायी और नश्वर कहा गया है। लोगों के व्यक्तिगत आध्यात्मिक गुरु भी ऐसे ही होते हैं, जैसा मैंने अपने फरिश्ते बने गुरु के बारे में भी बताया है। वे सबके अलग-अलग हो सकते हैं, और अपने शिष्य तक ही सीमित रहते हैं। शाश्वत फ़रिश्ते या आरकेंजल हमारे शाश्वत वैदिक देवता हैं, जैसे गणेश, दुर्गा, शिव आदि। इनके ध्यानरूप मानसिक चित्र हर युग में लोगों को मुक्ति की तरफ ले जाते रहते हैं। मुझे लगता है कि बहुत से लोग इनमें मनमाना अंतर ढूंढ कर आपस में झगड़ा करते रहते हैं, और असली चीज से वँचित रह जाते हैं।
पिछली पोस्ट में मैं यह भी बता रहा था कि बहुईश्वरवादियों और एकेश्वरवादियों के बीच किस तरह वैरविरोध चलता रहता है। धर्म से इन विचारधाराओं का कोई लेनादेना नहीं है, क्योंकि ये किसी भी धर्म में हो सकती हैं। दरअसल ये व्यक्ति के मानसिक या आध्यात्मिक स्तर पर निर्भर करता है कि वह किस विचारधारा को मानता है। कोई व्यक्ति बहुईश्वरवादी धर्म से ताल्लुक रखता हुआ भी एकेश्वरवादी हो सकता है। इसी तरह कोई शख्स एकेश्वरवादी धर्म से ताल्लुक रखने पर भी बहुईश्वरवाद अर्थात द्वैतवाद से ग्रस्त हो सकता है। असली व अध्यात्म वैज्ञानिक विचारधारा तो एकेश्वरवादी ही है। कुंडलिनी योग भी एकेश्वरवादी ही है। कुंडलिनी योग एकाग्रता से प्राप्त होता है। एकाग्रता मतलब एकाग्र ध्यान का शाब्दिक अर्थ है, एक अग्र अर्थात एक चीज आगे, बाकि सब पीछे। वही सबसे आगे रहने वाली चीज ही कुंडलिनी है। दरअसल कोई भी धर्म बहुईश्वरवादी नहीं है, केवल भ्रम से ऐसा लगता है। कोई धार्मिक संप्रदाय यदि गणपति की आराधना करता है, तो केवल गणपति की ही करता है, किसी दूसरे देवता की नहीं। इसी तरह कोई शाक्त संप्रदाय यदि केवल दुर्गा की पूजा करता है, तो वह बहुईश्वरवाद कैसे हुआ। मतलब कि साम्प्रदायिक स्तर पर कोई भी धर्म बहुईश्वरवादी नहीं है। यह भी मैंने पिछली पोस्ट में बताया था कि कैसे देवमूर्ति आदि की पूजा से यिनयांग गठबंधन के बनने से मन की एकमात्र कुंडलिनी क्रियाशील हो जाती है। यदि कोई विविध प्रकार की देवमूर्तियों की पूजा भी करे, तो भी वह बहुईश्वरवादी नहीं है, क्योंकि सभी से यिन-यांग गठबंधन बनता है, जिससे एकमात्र कुंडलिनी को ही बल मिलता है, अन्य किसी को नहीं। इसके विपरीत, एकेश्वरवादी धर्म को मानने वाला व्यक्ति यदि कुंडलिनी और योग को न माने, तो वह बहुईश्वरवाद या द्वैत से भरा हुआ व्यक्ति है। जब उसके मन में कोई एकमात्र चीज अर्थात कुंडलिनी स्थायी तौर पर हमेशा स्थिर नहीं रहेगी, तो स्वाभाविक है कि उसका मन विविधता से भरे हुए द्वैतपूर्ण संसार में भटका रहेगा। फिर ऐसे द्वैतपूर्ण व्यक्ति को एकेश्वरवादी कैसे माना जा सकता है। दरअसल कुंडलिनी ही वह ईश्वर है, जिसकी हम ध्यान के रूप में पूजा कर सकते हैं। वह खुद पूर्ण परब्रह्म ईश्वर तक ले जाती है। सीधे तौर पर तो हम निराकार ब्रह्म को न तो देख सकते हैं और न ही अनुभव कर सकते हैं, फिर उसकी पूजा कैसे की जा सकती है। अगर पूजा करने की कोशिश की जाए, तो कमोबेश कुंडलिनी ही उस पूजा को स्वीकार करने के लिए मन में प्रकट होने लगती है, हालांकि उतनी नहीं जितनी सीधे कुंडलिनी ध्यान से प्रकट होती है। फिर क्यों न सीधे ही कुंडलिनी ध्यान अर्थात कुंडलिनी योग किया जाए। यदि निराकार ईश्वर की पूजा करने वाला एकेश्वरवादी मन में पैदा हो रही एकमात्र कुंडलिनी का बलपूर्वक विरोध करेगा, तब तो मानसिक ऊर्जा के पास विविधता से भरे संसार के रूप में उजागर होने के सिवाय कोई चारा नहीं बचेगा। मतलब कि ब्रह्म अर्थात एकेश्वर उपासक का मन द्वैत से भरे संसार से भर जाएगा। फिर वह एकेश्वरवादी कहाँ रहा। इसीलिए कहते हैं कि जैसा दावा किया जाता है या जैसा दिखता है, हमेशा वैसा नहीं होता, बल्कि कई बार बिल्कुल विपरीत होता है। सच्चाई को जानने के लिए मनोवैज्ञानिक खोजबीन करनी पड़ती है।
जो शक्ति शरीर के अंदर है, वही बाहर भी है। अंदर भी वह शिव से मिलना चाहती है इसलिए पीठ से होकर ऊपर चढ़ती है। वैसे तो वह अव्यक्त अर्थात निराकार है पर खुद को अभिव्यक्त करने के लिए मन के संसार का निर्माण करती है। कुंडलिनी चित्र उस मन का सबसे प्रभावशाली अंश होता है। शक्ति उसीके रूप में जागृत होकर शिव से एकाकार होती है। शक्ति या ऊर्जा का अपना कोई रूप नहीं होता। वह किसी संवेदना के रूप में ही अनुभव हो सकती है। संवेदनाओं में भी मानसिक चित्र में सबसे अधिक संवेदना छुपी होती है, उनमें भी व्यक्तिविशेष के चित्रों में, उनमें भी चिरपरिचित के चित्रों में, और उनमें भी गुरु या देव या पूर्वज के चित्र में सबसे अधिक संवेदना छिपी होती है। वैसे सैद्धांतिक रूप से देव -छाया में सबसे अधिक संवेदना छुपी होती है, अर्थात देवछाया के रूप में शक्ति सर्वाधिक अभिव्यक्त होकर सबसे आसानी से जागृत हो सकती है। देव मतलब अद्वैत, और देवछाया मतलब अद्वैत भाव की सहायता से मन में बनने वाला पवित्र व स्थायी चित्र। इससे जाहिर होता है कि जागृति के लिए सबसे जरूरी दो चीजें हैं, शक्ति और देवछाया। देवछाया को हम कुंडलिनी चित्र या संक्षेप में कुंडलिनी या पवित्र भूत या जिन्न या फरिश्ता भी कह सकते हैं, जैसा कि पिछली पोस्ट में बताया गया है। बाहर भी वह शक्ति इसी तरह विविध स्थूल संसार का निर्माण करती है। उस संसार में कुछ विशेष क्षेत्र भी होते हैं, जैसे भारत देश, उसमें भी हरिद्वार या काशी, या अन्य विशेष व सुन्दर पर्यटन स्थल आदि। उन विशेष क्षेत्रों के रूप में शक्ति सबसे ज्यादा अभिव्यक्त होती है। तभी तो वैसे क्षेत्रों में जागृति की सम्भावना ज्यादा होती है। इसीलिए आदमी ऐसे सुन्दर क्षेत्रों के निर्माण में लगा रहता है, जहाँ उसका मन प्रफुल्लित होकर चरम रूप में अभिव्यक्त हो जाए। मन की या कुंडलिनी शक्ति की चरम अभिव्यक्ति को ही तो कुंडलिनी जागरण कहते हैं। वैसे तो प्रकृति या समष्टि शक्ति भी ऐसे सुन्दर क्षेत्रों के निर्माण में लगी रहती है, पर जीव विशेषकर मनुष्य के रूप में व्यष्टि शक्ति इसे तेजी प्रदान करने और उसमें चार चाँद लगाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पर आजकल आदमी प्रकृति के साथ जरूरत से ज्यादा छेड़छाड़ करके उसके कार्य में बाधा डाल रहा है, जो उसके अस्तित्व के लिए ठीक नहीं है।
व्यष्टि और समष्टि शक्ति में अभिन्नता का मतलब है कि शरीर के अंदर शक्ति साधना से आदमी कुछ हद तक बाहरी स्थूल शक्ति पर नियंत्रण हासिल कर सकता है। उदाहरण के लिए, कल्पना करो कि कोई आदमी बाहरी बुरी शक्ति के प्रभाव में आकर किसी दुर्घटना का शिकार होने वाला होता है। आदमी को इसका आभास हो जाता है और वह कुंडलिनी का ध्यान करते हुए अतिरिक्त सतर्क हो जाता है। कुंडलिनी के ध्यान से उसके मन का अंधेरा छंट जाता है, जिससे प्रभावित होकर बाहरी शक्ति का अंधेरा भी कुछ हद तक छंट जाता है, जिससे वह बाहर भी उसे बचाने के लिए विशेष प्रयास करती है, जैसे बचने के लिए सुरक्षित जगह या सामान मिल जाना। यह कुछ हद तक ही होता है, इसलिए केवल इसके सहारे भी नहीं रहा जा सकता, पर यह कुछ न कुछ मदद जरूर करती है। यह बहुत दूर से या प्रार्थना से भी हो सकता है, क्योंकि शक्ति सर्वव्यापी है। होता क्या है कि किसी विपत्ति में फंसे व्यक्ति को मारने आई बुरी या काली शक्ति उसके परिचित व्यक्ति को देशांतर में भी महसूस हो सकती है। वह यदि कुंडलिनी ध्यान से उसे शांत कर दे, तो वह उस विपत्ति में पड़े व्यक्ति के लिए शांत हो सकती है। सम्भवतः यही प्रार्थना का रहस्य है।
जिसको शरीर में अपनी इच्छानुसार शक्ति को घुमाना आ गया, लगता है उसे बहुत कुछ आ गया। अशिक्षित लोग उसके लिए यौन क्रीड़ा का इस्तेमाल करते थे। इससे संवेदना रूपी शक्ति के शरीर के निचले हिस्सों में महसूस होने से, उस शक्ति को बल देने के लिए मस्तिष्क की शक्ति आगे से होते हुए नीचे उतरती थी, जिससे मस्तिष्क भी हल्का हो जाता था, और नीचे के सारे चक्र भी शक्ति से तृप्त हो जाते थे, जिससे पूरा शरीर तृप्त हो जाता था। हालांकि उन्हें कम और अल्पकालिक लाभ मिलता था, क्योंकि वे केवल संवेदना से जुड़े द्वैत से भरे संसार को ही अनुभव करते थे, उससे जुड़ी कुंडलिनी को नहीं, क्योंकि उनके मन में कोई स्थाई कुंडलिनी चित्र नहीं होता था। इससे उन्हें संवेदना वाले मूलाधार से जुड़े अंगों पर तो संवेदना के रूप में शक्ति महसूस होती थी, पर बीच वाले चक्रोँ पर नहीं। जैसे कि अनाहत चक्र, मणिपुर चक्र आदि पर। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि अधिकांशतः इन बीच वाले चक्रोँ पर तो कुंडलिनी चित्र ही शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, इन पर संवेदना नहीं होती, और न ही द्वैतपूर्ण संसार। द्वैतपूर्ण संसार तो केवल मस्तिष्क में ही रहता है। कुंडलिनी चित्र ही चक्रोँ पर मांसपेशी की सिकुड़न पैदा करता है, जिससे हल्की सी संवेदना पैदा होती है। कुंडलिनी योगी ने इस प्रक्रिया को कृत्रिम, वैज्ञानिक और ज्यादा प्रभावशाली बनाया। उसने सिद्धासन या अर्धसिद्धासन के दौरान पैर की ऐड़ी से मुलाधार चक्र को दबा कर वहाँ बनावटी संवेदना पैदा की। साथ में उसने संवेदना के ऊपर कुंडलिनी चित्र को आरोपित किया, ताकि शक्ति को खींचने के लिए अधिक आकर्षण बने, और कम संवेदना पैदा होने पर भी कुंडलिनी चित्र के माध्यम से शक्ति को आकर्षित किया जा सके। बाकि कुंडलिनी से मिलने वाले मुक्तिलाभ को तो सब जानते ही हैं। इसीलिए कहते हैं कि योग से तन-मन भी स्वस्थ रहता है, और आत्मा भी।
शक्ति का कोई स्थायी आधार या आश्रय भी जरूर होना चाहिए। यह किसी कला, विद्या, रुचि या हॉबी आदि के रूप में हो सकता है। जैसे मेरी शक्ति का आधार लेखन और कविता रचना है। इससे मेरी व्यर्थ में नष्ट होने वाली शक्ति लेखन और कविता निर्माण में व्यय हो जाती है। एकबार किसी आदमी ने मेरा नुकसान कर दिया। उससे मेरे अंदर उससे लड़ने के लिए एक शक्ति से भरा जोश पैदा हो गया। फिर मैंने बुद्धि से निर्णय लिया कि लड़ाई से कोई लाभ नहीं, नुकसान ही है। मेरे अंदर जो शक्ति पैदा हुई थी, उसे मैंने कविता रचना की ओर मोड़ दिया, जिससे एक सुंदर सी कविता बन कर तैयार हो गई। मतलब कि मैंने शक्ति को रूपांतरित या दिग्दर्शित किया। शिवपुराण में भी एक कथा ऐसी ही आती है। इंद्र के द्वारा किए अपमान से जब शिव बहुत ज्यादा क्रोधित हो गए, तो वे उसे भस्म करने को आतुर हो गए। फिर ब्रह्मा आदि देवों ने शिव को बड़ी मुश्किल से मनाया। पर शिव का गुस्सा शांत ही नहीं हो रहा था। इसलिए देवताओं ने शिव के गुस्से को माथे से बाहर निकाला और उसे समुद्र में डलवा दिया, जिससे जलंधर नाम का दैत्य पैदा हुआ। जलंधर कथा को हम अगली पोस्ट में रहस्योदघाटित करेंगे। काश कि युक्रेन, रूस और नाटो की शक्ति को भी ऐसा ही दिग्दर्शन मिलता। मूलाधार चक्र शक्ति का सबसे बड़ा सिंक या अवशोषक या आकर्षणकर्ता होता है। कुंडलिनी योग में इसीलिए तो ऐड़ी को मूलाधार चक्र पर रखा जाता है। दरअसल ऐड़ी के दबाव से बनी संवेदना से मस्तिष्क की शक्ति नीचे उतरते हुए सभी चक्रोँ में बराबर बंट जाती है, पर खिंचाव तो मुलाधार ने ही पैदा किया न। यह ऐसे ही है कि जैसे छत की टंकी से सबसे निचली मंजिल पर पानी पहुंचाने से बीच वाली मंजिलों में भी पानी खुद ही पहुंच जाता है। यदि किसी बीच की मंजिल को ही पानी दिया जाए, तो उससे नीचे की मंजिलें बिना पानी के रह जाएंगी। यौन योग से तन-मन की अतिरिक्त शक्ति या तनावहीनता मूलाधार को मिल रहे वज्र के अतिरिक्त सहयोग से प्राप्त होती है। मूलाधार पर शक्ति सबसे ज्यादा अव्यक्त या अनभिव्यक्त रूप में रहती है, घुप्प अँधेरे की तरह। इसीलिए तो ऐसी अन्धकारपूर्ण मानसिक अवस्था में आदमी का मन सम्भोग की तरफ भागता है। सम्भोग का स्थान मूलाधार है। इसीलिए कहते हैं कि शक्ति का मूल निवासस्थान मूलाधार है। आदमी सबसे ज्यादा अनभिव्यक्त या शिथिल अवस्था में अपने घर पर होता है। काम धंधे के लिए बाहर निकलने पर उसकी अभिव्यक्ति बढ़ती जाती है। कुंडलिनी भी इसी तरह अभिव्यक्त होने के लिए अपने घर मूलाधार से बाहर निकलना चाहती है। जल्दी से जल्दी अधिकतम अभिव्यक्ति के लिए वह सम्भोग का सहारा लेती है। सम्भोग से वह सीधी आज्ञा चक्र और सहसरार चक्र में पहुंच जाती है। अन्यथा सामान्य लौकिक रीति से सभी चक्रोँ को क्रमवार भेदते हुए धीरेधीरे ऊपर चढ़ते हुए ज्यादा से ज्यादा अभिव्यक्त होती जाती है। बेशक चढ़ती तो वह पीठ से ही है, पर पीठ के हरेक चक्र की शक्ति आगे वाले संबंधित मुख्य चक्र तक भी रिसती रहती है। सहसरार पर वह सबसे ज्यादा अभिव्यक्त हो जाती है। वहाँ भी अभिव्यक्ति के चरम को छूने पर वह जागृत होकर शिव में मिल जाती है। मनुष्य ही शक्ति की इस चरम अभिव्यक्ति को प्राप्त कर सकता है। अन्य प्राणी अलग -अलग स्तर तक ही शक्ति को अभिव्यक्त कर सकते हैं, पूर्ण अभिव्यक्ति को छोड़कर। इस तरह से ऊर्जा या शक्ति के अनगिनत स्तर हैं। जो जीव या योनि इस विकास श्रृंखला में जितने ज्यादा निचले पायदान पर है, उसमें शक्ति की अभिव्यक्ति उतनी ही कम है। भूतप्रेत का भी अपना एक विशिष्ट ऊर्जा स्तर होता है, इसीलिए वह भी एक जीवयोनि है। इसी तरह कीड़ों मकोड़ों का ऊर्जा स्तर भी बहुत नीचे होता है। हालांकि इनमें उतनी ही शक्ति होती है, जितनी किसी मनुष्य, देवता या भगवान में होती है, बेशक वह अभिव्यक्त नहीं होती। मतलब कि वे भी अपनी अभिव्यक्ति बढ़ाते हुए कभी न कभी शिव तक जरूर पहुंचेंगे। इसीलिए तो कहते हैं कि सभी को समान समझते हुए सभी में अपनी आत्मा के दर्शन करने चाहिए। इस विचार क्षेत्र से जो आश्चर्यजनक बात निकलती है, वह यह है कि जिन निर्जीव चीजों को हम निर्जीव कहते हैं, वे भी जीवित हैं, उनमें शक्ति की अभिव्यक्ति सबसे कम है। इसीलिए हिंदू धर्म में हर चीज की पूजा की जाती है, यहां तक कि पत्थर, नदी, पहाड़ की भी। दुनिया की कुछ अन्य संस्कृतियों में भी जैसे कि विलुप्तप्राय प्राचीन सैल्टिक संस्कृति में ऐसी ही प्रकृति-पूजन की मान्यता है। भगवान शिव ने भी इसीलिए भूतों को अपने बराबर का दर्जा देकर उन्हें अपना गण बनाया है। ‘अहिंसा परमो धर्म:’, यह प्रसिद्ध उक्ति भी इसी सिद्धांत से बनी है। नाजायज जीवहिंसा का समर्थन दुनिया के किसी भी धर्म में नहीं किया गया है।
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