कुंडलिनी खोने से उत्पन्न पार्वती का कोप और रशियन सत्ताधीश का कोप~ एक तुलनात्मक मनोवैज्ञानिक अध्ययन

दोस्तों, कई पौराणिक कथाओं को पूरी तरह से डिकोड नहीं किया जा सकता। इसलिए वहां अंदाजा लगाना पड़ता है। समथिंग इज बैटर देन नथिंग। हल्की शुरुआत से ये कथाएं भी बाद में डिकोड हो जाती हैं। ऐसी ही रहस्यमयी कथा गणेश देव को लेकर है। मुझे लगता है कि गणेश पार्वती देवी का कुंडलिनी पुरुष है। शिव के कुंडलिनी पुरुष के सहारे रहते हुए देवी पार्वती ऊब जैसी गई थीं। वे अपने को शिव के ऊपर निर्भर सा और परतन्त्र सा समझने लग गई थीं। खासकर उन्हें उनकी सहेलियों ने भी भड़काया था। इसीलिए देवी पार्वती कहती हैं कि वे शिवगणों की सुरक्षा के अंतर्गत रहते हुए एक पराधीन की तरह रह रही थीं। उन्होंने निश्चय किया कि अब वे अपने लिए एक समर्पित गण पैदा करेंगी। एकबार वे निर्वस्त्र होकर स्नान कर रही थीं, पर भगवान शिव द्वारपाल नन्दी को डांटकर अंदर घुस गए, जिससे वे शर्मिंदा हो गईं। इसलिए उन्होंने अपने शरीर की मैल से सर्वांगसुन्दर और निर्दोष गणेश को पैदा किया। मैल को भी रज कहते हैं, और वीर्य के समकक्ष योनिद्रव को भी। सम्भवतः देव गणेश देवी पार्वती की यौन ऊर्जा के रूपांतरण से निर्मित मानसिक पुरुष हैं, जैसे भगवान कार्तिकेय भगवान शिव की यौन ऊर्जा से निर्मित मानसिक कुंडलिनी पुरुष हैं। पुत्र इसलिए क्योंकि बना तो योनि द्रव से ही सामान्य पुत्र की तरह, बेशक गर्भ में न बनकर मस्तिष्क या मन में बना। इसी वजह से तो यौनतन्त्र के अभ्यास से स्त्री में मासिक धर्म के द्रव का स्राव या रज का स्राव बहुत कम या शून्य भी हो जाता है। इससे स्त्री का कमजोरी से भी बचाव हो जाता है। इसी रज या शरीर के मैल से ही उसकी कुंडलिनी विकसित होती है। यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि हमारे लिए देवी पार्वती पूजनीया हैं, सम्माननीया हैं। हम उनके बारे में सीधे तौर पर कुछ नहीं कह सकते। हम तो केवल देवी पार्वती के जैसे स्वभाव वाले मनुष्यों के बारे में बात कर रहे हैं। क्योंकि हर जगह तो ऐसा नहीं लिखा जा सकता, “देवी पार्वती के जैसे स्वभाव वाला मनुष्य”, क्योंकि इससे बिना जरूरत के लेखन का विस्तार बढ़ जाएगा, और साथ में लोग भ्रमित होकर समझ नहीं पाएंगे। इसलिए मजबूरी में संक्षेप के लिए देवी पार्वती या सिर्फ पार्वती लिखना पड़ता है। एक प्रकार से हम व्यक्तित्व या स्वभाव का वर्णन करते हैं, किसी देव विशेष या व्यक्ति विशेष का नहीं। इसी तरह भगवान शिव आदि सभी देवी-देवताओं के बारे में भी समझना चाहिए। आशा और विश्वास है कि आम जनमानस और देवी-देवता इसे अन्यथा नहीं लेंगे। पार्वती ने गणेश को एक लाठी देकर निर्देश दिया कि कोई भी उसकी आज्ञा के बिना उसके घर के अंदर प्रविष्ट न होने पाए। पार्वती दरअसल जीवात्मा है। सहस्रार उसका घर है। गणेश को घर के बाहर खड़े करने का मतलब है, हरसमय कुंडलिनी के ध्यान में मग्न रहना। इससे कोई और चीज ध्यान में आ ही नहीं सकती, मतलब अपनी मर्जी से घर के अंदर प्रविष्ट नहीं हो सकती। जब जीवात्मा चाहेगा और कुंडलिनी से अपना ध्यान हटाएगा, तभी दूसरी चीज ध्यान रूपी घर में आ पाएगी। इससे पहले उसके मन में कुंडलिनी नहीं थी। इसलिए उसे न चाहते हुए भी शिव को और उसकी दुनियादारी को ध्यान-गृह में आने देना पड़ता था। नहाते समय वह नग्न थी, अर्थात आत्मा की गहराई के अंतरंग विचारों में खोई हुई थी। यह उनके लिए अच्छा जवाब है, जो यह गलत धारणा रखते हैं कि तन्त्र में स्त्री को पुरुष से निम्नतर समझा जाता है। दरअसल तन्त्र में पुरुष और स्त्री बराबर हैं, और दोनों के लिए समान प्रकार की साधनाएं बताई गई हैं। एकबार नन्दी को गणेश ने द्वार पर रोक दिया। इससे हैरान होकर शिव ने अपने नन्दी आदि गणों को बारी-2 से पार्वती के घर में प्रवेश करने को कहा, पर गणेश बालक ने अपनी लाठी से सबकी पिटाई कर दी। मतलब कि कुंडलिनी बालक की तरह कोमल होती है, जिसके पास जीवात्मा की रक्षा करने के लिए विशेष हथियार नहीं होते, पर लाठी को दर्शाता हुआ एक स्नेहभरा भय होता है। नंदी आदि गण यहाँ शिव के विचार हैं, जो शिव की आत्मा को पार्वती की आत्मा से मिलाने से पहले उससे अपना परिचय करवाना चाहते हैं। दुनिया में अक्सर ऐसा ही होता है। विचारों के माध्यम से ही लोगों का एकदूसरे से हार्दिक मिलन सम्भव हो पाता है। गणेश द्वारा लाठी से गणों को डराने या पीटने का मतलब है कि पार्वती अर्थात जीवात्मा बाहर से आ रहे विचारों की तरफ ध्यान न देकर कुंडलिनी पर ही ध्यान जमा कर रखती है। न तो विचारों का स्वागत करना है, और न ही उन्हें भगाना है। यही प्यार से भरा हुआ भय बना कर रखना है। यही विचारों या दुनियादारी के प्रति साक्षीभाव बना कर रखना है। यही विपासना है, विपश्यना है। गणेश द्वारा बारी-बारी से आए सभी देवताओं व गणों को हराना इसी बात को दर्शाता है कि पार्वती की कुंडलिनी शिवजी द्वारा प्रेषित किए गए सभी विचारों व भावनाओं से अप्रभावित रहती है। फिर सभी देवता इसको शिव के अपमान और उससे उत्पन्न जगहँसाई के रूप में लेते हैं। इसलिए वे सभी एक युद्धनीति बनाकर मिलकर लड़ते हैं, और धोखे से गणेश का वध कर देते हैं। मतलब कि शिव पार्वती को दुनियादारी में इतना उलझा देते हैं कि वह कुंडलिनी को भूल जाती है। इससे पार्वती अपार क्रोध से भरकर काली बन जाती है, और सृष्टि को नष्ट करने के लिए तैयार हो जाती है। मतलब कि मन के अखण्ड कुंडलिनी चित्र के नष्ट होने से पार्वती क्रोध से भर जाती है, और घुप्प अंधेरे में डूब जाती है। यह ऐसे ही है जैसे किसी की अतिप्रिय वस्तु गुम हो जाए, या उसे उसके खो जाने का डर सता जाए, और वह उसके बिना अंधा जैसा हो जाए। यह बच्चे के खिलौने के गम होने के जैसा ही है। ऐसे में आदमी कुछ भी गलत काम कर सकता है, यदि उसे सांत्वना देकर संभाला न जाए। रशियन सत्ताशीर्ष को क्या कहीं ऐसा ही सदमा तो नहीं लगा है। ऐसे में आदमी दुनिया को भी नष्ट कर सकता है, और खुद को भी। क्योंकि शरीर में समस्त ब्रह्मांड बसा है, इसीलिए सम्भवतः पार्वती के द्वारा आत्महत्या के प्रयास को ही सृष्टि के विनाश का प्रयास कहा गया हो। काली नाम का मतलब ही काला या अंधेरा होता है। फिर वह काली बनी पार्वती कहती है कि यदि गणेश को पुनर्जीवित कर दोगे, तो वह प्रसन्न हो जाएगी। बात स्पष्ट है कि खोई हुई प्रिय वस्तु या कुंडलिनी को प्राप्त करके ही आदमी अपनी पूर्व की प्रसन्न अवस्था को प्राप्त करता है। यह तो अब रशियन सत्ताधीश से पूछना चाहिए कि उनकी क्या प्रिय वस्तु खो गई है, जिसके लिए वे परमाणु बटन की तरफ हाथ बढ़ा कर पूरी धरती को दांव पर लगा रहे हैं, और जिसे पाकर वे प्रसन्न हो जाएंगे। मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा था कि आज के उन्नत युग की कुंडलिनी आज्ञा चक्र में अटकी हुई है। कुंडलिनी का स्वभाव ही गति करना होता है। वह एक स्थान पर ज्यादा समय नहीं रह सकती। उसका अगला और उन्नत पड़ाव सहस्रार चक्र है। पर वहाँ तक कुंडलिनी को उठाने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता है, जो यौनतन्त्र से ही मिल सकती है। इसीलिए ईश्वरीय प्रेरणा से मैं तन्त्र के बारे में लिखता हूँ। साथ में, भौतिक दुनियादारी को कम करने की भी जरूरत है, ताकि उससे बचाई गई ऊर्जा कुंडलिनी को ऊपर चढ़ाने के काम आ सके। यह युद्ध का विनाश दुनियादारी को कम करने का ही एक अवचेतनात्मक प्रयास है, ताकि कुंडलिनी की ऊर्जा की जरूरत पूरी हो सके। युद्ध के अन्य कारण गिनाए जाना तो बस बहाने मात्र हैं। एक परमाणु हथियार सम्पन्न और क्षेत्रफल के लिहाज से सबसे बड़े देश को भला किससे भय हो सकता है। युद्ध का असली और एकमात्र कारण तो उस बेशकीमती ऊर्जा की कमी है, जिससे आदमी मानवता और आध्यात्मिकता के पथ पर आगे बढ़ता है। समझदार को समझाने के लिए युद्ध का भय दिखाना ही काफी है, नासमझ युद्ध से भी नहीं समझेगा, सिर्फ नुकसान ही होगा। ज्यादा से ज्यादा हल्की सी युद्ध शक्ति दिखा देते, ताकि शत्रु को संभलने और सुधरने का मौका मिलता। फिर दुनिया भी यौद्धा की कूटनीति और युद्धनीति की तारीफ करती। यह क्या कि पूरे ही राष्ट्र को नरक बनाने पर तुले हुए हो। एक तरफ गरीबों को सिर ढकने के लिए छत नहीं मिलती, वे रात भर खुले में ठिठुरते हैं, दूसरी तरफ आप आलीशान भवनों को जमींदोज करते जा रहे हो। सोचो, कितना खून पसीना लगा होगा उन्हें बनाने में। उस प्राण ऊर्जा की कितनी बर्बादी हुई होगी उन्हें बनाने में, जिससे कुंडलिनी जागृत हो सकती थी। कुंडलिनी की ऊर्जा की जरुरत पूरी करने का यह अवचेतनात्मक प्रयास अनियंत्रित औऱ अमानवीय है, अनियंत्रित परमाणु ऊर्जा की तरह। इससे क्या है कि कुंडलिनी ऊपर चढ़ने की बजाय नीचे उतर रही है, अपने सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त किए बिना ही। इसलिए दुनियादारी या जीने के तरीकों में बदलाव धीरे-धीरे व मानवीय होना चाहिए, एकदम से व अमानवीय नहीं। मैं यहाँ किसी एक राष्ट्र पर आक्षेप नहीं लगा रहा हूँ। सभी राष्ट्र युद्धपिपासु की तरह व्यवहार करते हैं। दुनिया में सभी देशों के द्वारा ऐसी परिस्थितियां क्यों बनाई जाती हैं, जो किसी देश को मजबूरन युद्ध की तरफ धकेल दे। अधिकांश देश हथियारों का जखीरा इकट्ठा करने में लगे रहते हैं। हथियारों के व्यापार से पैसा कमाना चाहते हैं। साम्राज्यवाद का सपना पाल कर रखते हैं। इसकी सबसे अच्छी दवाई कुंडलिनी ही है। कुण्डलिनी की सहायता से संपूर्ण सृष्टि अपने अंदर दिखाई देने लगती है। आदमी अपने में ही संतुष्ट रहने लगता है, चाहे वह कैसा भी हो, और कैसी भी परिस्थिति में क्यों न हो। जब किसी राष्ट्राध्यक्ष को अपने अंदर ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड महसूस होगा, तब वह भला क्यों दूसरों की जमीन लूटना चाहेगा। वह अपनी समस्या का हल अपने अंदर ही खोजेगा। फिर उसे अधिकांश मामलों में हथियारों की जरूरत भी नहीं पड़ेगी, और युद्ध की भी नहीं। मैं दुनिया में सिर्फ एक ही देश को जानता हूँ, जिसने भरपूर उकसाओं के बाद भी कभी युद्ध की शुरुआत नहीं की, और न ही किसी के ऊपर आक्रमण किया। वह देश भारत है। सम्भवतः यह भारत में कुण्डलिनी योग और उसपर आधारित धर्म से ही सम्भव हुआ हो। इसलिए समस्त विश्व को भारत से शिक्षा लेनी चाहिए, यदि शांतिपूर्ण विश्व की स्थापना करनी है। मैं किसी की झूठी बड़ाई नहीं कर रहा हूँ। न ही मैं युद्ध के इलावा अन्य पक्षों को देख रहा हूँ। सत्य सत्य है, जिसे कोई झुठला नहीं सकता। खैर, शिव ने अपने गणों को सुबह के समय पूर्व दिशा में भेजा, और कहा कि जो भी जीव सबसे पहले मिले, उसका सिर काट के ले आएं, और गणेश के धड़ से जोड़ दें। मतलब कि कुछ भी सट्टा-बट्टा करना पड़े, पर पार्वती की खोई कुंडलिनी किसी तरह वापिस मिल जाए। गणों को सबसे पहले एक हाथी का बच्चा मिला। उन्होंने शिव की सहायता से उसका सिर गणेश के धड़ से जोड़कर गणेश को पुनर्जीवित कर दिया। उससे देवी पार्वती संतुष्ट हो गई, जिससे उनके कोप से पूरी दुनिया बाल-बाल बच गई।

कुंडलिनी-शिव विवाह ही साधारण लौकिक विवाह का उद्गम स्थान है

मित्रो, आप सभी को छठ पर्व की शुभकामनाएं। मैं हाल ही के एक लेख में बता रहा था कि हिंदू त्यौहारों वाली आध्यात्मिक संस्कृति प्रकृति की पुजारी है, और वातावरणीय प्रदूषण के विरुद्ध है। सूत्रों के अनुसार अभी जब 2-3 दिन पहले छठी देवी की पूजा करने के लिए कुछ महिलाएं दिल्ली की यमुना नदी के पानी के बीच में सूर्य को अर्घ्य देने के लिए खड़ी हुईं, तो दुनिया को यमुना के वास्तविक प्रदूषण का पता चला। यमुना का पानी काला था, और उस पर इतनी ज्यादा सफेद झाग तैर रही थी कि वह ध्रुवीय समुद्र के बीच में तैर रहे बर्फ के पहाड़ लग रहे थे। बताने की जरूरत नहीं है कि अब यमुना की सफाई के प्रयास जोरों से शुरु हो गए हैं। पर इसको करवाने के लिए अनजाने में ही व्हिसल ब्लोवर का काम उन हिन्दू परंपरावादी महिलाओं से हो गया जो अपनी जान को जोखिम में डालकर प्रकृति को सम्मान देने और उसकी पूजा करने के लिए ज़हरीली नदी में उतरीं। कुछ तथाकथित अत्याधुनिक लोग तो उन्हें रूढ़िवादी और अंधविश्वासी कह सकते हैं, पर उन्होंने वह काम कर दिखाया जिसे बड़े-बड़े आधुनिकतावादी और तर्कवादी भी न करे। यह एक छोटा सा उदाहरण है। प्रकृति प्रेमी हिंदूवाद की इसी तरह हर जगह बेकद्री होती हुई दिखती है, इसीलिए प्रकृति विनाश की तरफ जाती हुई प्रतीत होती है। मैं यहाँ किसी धर्मविशेष का पक्ष नहीं ले रहा हूँ, और न ही किसी विचारधारा का विरोध कर रहा हूँ, बल्कि जो सत्य घटना घटित हुई है, उसीका वर्णन और विश्लेषण कर रहा हूँ।

राजा हिमाचल मस्तिष्क का और उसका राज्य शरीर का प्रतीक है

शिवपुराण में आता है कि राजा हिमाचल ने विवाह महोत्सव के लिए अपने सभी संबंधी पर्वतों और नदियों को निमंत्रण दिया। विभिन्न प्रकार के अन्नों का भंडारण करवाया। चारों तरफ साज-सज्जा की गई। अपने राज्य के सभी लोगों के लिए खूब सुख-सुविधाएं वितरित कीं। उससे उसके पूरे राज्य के लोग प्रसन्न हो गए। प्रमुख ऋषियों को शिव के पास विवाह का निमंत्रण लेकर कैलाश मिलने भेजा। दरअसल राजा हिमाचल और उसका महल मस्तिष्क ही है। कैलाश सहस्रार चक्र है। धरती ही राजा हिमाचल का राज्य है। वह पूरा शरीर है। वैसे भी पर्वत को भूभृत कहते हैं। इसका मतलब है, धरती को पालने वाला। मस्तिष्क ही शरीर को पालता है। राजा हिमाचल सभी नदियों को अपने महल बुलाता है, मतलब मस्तिष्क शरीर की सभी नाड़ियों की ऊर्जा को अपनी तरफ आकर्षित करता है। वह सभी पर्वतों को भी न्यौता देता है, मतलब मस्तिष्क का मुख्य केंद्र अन्य छोटे-छोटे केंद्रों से संवेदना-शक्ति को इकट्ठा करके कुंडलिनी जागरण की सर्वोच्च संवेदना को अभिव्यक्त करता है। यही शिव विवाह है, और इसीको ही विभिन्न पर्वतों का शिवविवाह में सम्मिलित होना कहा गया है। पर्वतराज हिमाचल विभिन्न खाद्यान्नों का भंडारण करता है, मतलब मस्तिष्क शरीर की सारी ऊर्जा अपनी तरफ खींचता है। भोजन ही ऊर्जा है, ऊर्जा ही भोजन है। प्राण ऊर्जा की प्राप्ति के लिए ही भोजन किया जाता है। तभी तो कहते हैं कि अन्न ही प्राण है। राजा हिमाचल के पूरे राज्य की जनता धन-धान्य से युक्त होकर हर्षोल्लास से भर जाती है, मतलब मस्तिष्क में जब ऊर्जा की भरमार होती है, तब उससे ऐसे रसायन निकलते हैं, जो पूरे शरीर को लाभ पहुंचाते हैं। शरीर और ब्रह्मांड के बीच में इस तरह की समकक्षता पुस्तक ‘शरीरविज्ञान दर्शन’ में सर्वोत्तम रूप में दर्शाई गई है। शिवविवाह के दिन राज्य के सभी लोग विभिन्न भोगों की धाम खाते हैं, और विभिन्न विलासों का भरपूर आनन्द उठाते हैं। इसका मतलब है कि कुंडलिनी जागरण वाले दिन पूरे शरीर में रक्तसंचार बढ़ जाता है। ऋषियों को आम आदमी के जैसे साधारण विवाह को इतने विस्तार से लिखने की क्या जरूरत थी, क्योंकि वे ज्यादातर खुद ब्रह्मचारी या अविवाहित होते थे, और कई तो गृहस्थी से दूर रहकर वनों में तप करते थे। कुंडलिनी के तो माता-पिता हैं, पर शिव के कोई नहीं। वह तो स्वयंभू परमात्मा हैं, इसीलिए शम्भु कहे जाते हैं। इससे जाहिर होता है कि यह साधारण विवाह नहीँ है। कुंडलिनी जागरण को ही शिवविवाह के रूप में वर्णित किया गया है, ताकि गृहस्थी में बंधे हुए आमजन भी उसे समझ सके और उसे आसानी से प्राप्त कर सके।

हिमाचल राज्य का सर्वोच्च महल सहस्रार है, जहाँ पर शिव-शक्ति का वैवाहिक जोड़ा ही स्थायी रूप से निवास कर सकता है

उपरोक्तानुसार सप्तऋषियों को विवाह के निमंत्रण पत्र के साथ शिव के पास कैलाश भेजा। कैलाश सहस्रार चक्र है। वहाँ पर ही अद्वैतभाव रूपी शिव का निवासस्थान है। दरअसल प्राणोत्थान के बाद शरीर की ऊर्जा-नदी का प्रवाह सहस्रार की तरफ ही होता है। उससे स्वाभाविक है कि उस ऊर्जा के बल से सहस्रार क्षेत्र में अद्वैतभाव व आनन्द के साथ सुंदर चित्र प्रकट होते रहते हैं। यह भी स्वाभाविक ही है कि अधिकांशतः वे चित्र भी उन्हीं लोगों या वस्तुओं के बनते हैं, जिनके साथ अद्वैत भाव या आध्यात्मिक भाव जुड़ा होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई व्यक्ति उसी क्षेत्र में जाना चाहता है, जो क्षेत्र उसके अनुकूल या उसके जैसा हो। ऋषि-मुनियों से अधिक अद्वैतरूप या आध्यात्मिक कौन हो सकता है। इसीलिए उन आध्यात्मिक वस्तुओं या व्यक्तियों को सप्तर्षिओं के रूप में दिखाया गया है। वैसे वह गुरु, मंदिर का पुजारी, मंदिर, गाय, गंगा आदि कोई भी आध्यात्मिक वस्तु हो सकती है। शिवजी के नजदीक तो ये चीजें जाती हैं, और उन्हें कुंडलिनी के साथ एकाकार होने के लिए प्रेरित भी करती हैं, पर खुद शिव से एकाकार नहीं हो पातीं। इसीको इनके द्वारा शिव को उन्हीं के विवाह के लिए निमंत्रण देने के रूप में दिखाया गया है। विवाह किससे, कुंडलिनी से। शिव के साथ एकाकार न हो पाने के कारण ही इन्हें निमंत्रण देकर वापिस आते हुए दिखाया गया है। कोई भी चित्र शिव से जुड़े बिना निरन्तर सहस्रार में नहीं बना रह सकता, उसे जल्दी ही मस्तिष्क के निम्नतर ऊर्जा स्तर वाले निचले साधारण क्षेत्रों में आना ही पड़ता है। कुंडलिनी ही शिव के साथ एकाकार होने या जागृत होने के फलस्वरूप शिव के साथ कैलाश में निरंतर बनी रह पाती है। मतलब कि कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी को अपनी आत्मा के साथ जुड़ी हुई कुंडलिनी का अनुभव सहस्रार चक्र में निरंतर होता रहता है। यही कुंडलिनी जागरण की सर्वप्रमुख खूबी है, और यही आदमी को मोक्ष की ओर ले जाती है।

प्राण ही सहस्रार में शिव-शक्ति का विवाह रचाते हैं

फिर आता है कि शिव के विवाह समारोह के लिए विश्वकर्मा ने अद्भुत व दिव्य विवाह मंडप, भवन व प्रांगण आदि बनाए। जड़ मूर्तियां सजीव लग रही थीं, और सजीव वस्तुएं जड़ मूर्तियां लग रही थीं। जल में स्थल का और स्थल में जल का भान हो रहा था। दरअसल कुंडलिनी जागरण के आसपास प्राणों के सहस्रार में होने के कारण सब कुछ अद्भुत व दिव्य लगता है। अतीव आनन्द की स्थिति होती है। चारों ओर शांति महसूस होती है। अद्वैत भाव चरम के करीब होता है, और कुंडलिनी जागरण के दौरान तो चरम पर पहुंच जाता है। सभी कुछ एक जैसा लगता है। भेद दृष्टि खत्म सी हो जाती है। यह नशे के जैसी मूढ़ अवस्था नहीं होती, पर परम चेतनता और आनन्द से भरी होती है। इसी आध्यात्मिक भाव को यहाँ उपरोक्त रोचक कथानक के रूप में दर्शाया गया है। जल का थल लगना या थल का जल लगना, मतलब जल और थल के बीच में अभेद का अनुभव। जड़ का चेतन की तरह दिखना व चेतन का जड़ की तरह दिखना, मतलब जड़ और चेतन के बीच में समानता नजर आना। हर जगह झाड़-बुहार के पूरी तरह से साफ व निर्मल कर दी गई थी। इसका मतलब है कि सहस्रार में ही असली व पूर्ण निर्मलता का अनुभव होता है। बाहर से जितना मर्जी सफाई कर लो, यदि सहस्रार में प्राण नहीं हैं, तो सबकुछ मैला ही लगता है। इसी वजह से तो गाय के गोबर से पुते हुए आध्यात्मिक स्थान अति पवित्र महसूस होते हैं, क्योंकि आध्यात्मिकता के प्रभाव से सहस्रार चक्र प्राण से संपन्न होता है। जिन मूल्यवान भवनों में लड़ाई-झगड़ों का बोलबाला हो, वहां की चाकचौबंद सफाई भी रास नहीं आती, और वहाँ दम सा घुटता है। इसके विपरीत एक आध्यात्मिक साधु पुरुष की गोबर से लिपीपुती घासफूस की झौंपड़ी भी बड़ी आकर्षक व संजीदा लगती है।

कुंडलिनी रहस्य पुरुष व स्त्री के बीच के शाश्वत प्रेम संबंध के रूप में ही उजागर होता है

सभी मित्रों को आने वाले दीपावली पर्व की शुभकामनाएं

शिवपार्वती विवाह, दुनिया का महानतम रहस्य

मित्रो, एक अन्य अर्थ भी है शिव पार्वती विवाह का। पार्वती प्रकृति है, जो मन के विचारों के रूप में है। वह परब्रह्म शिव को बांध देती है। यही शिव पार्वती से कहते हैं कि पार्वती, मैं सदा स्वतंत्र हूँ, पर तुमने मुझे परतंत्र बना दिया है, क्योंकि सबकुछ करने वाली महामाया प्रकृति तुम ही हो। पार्वती ने घोर तपस्या की, मतलब प्रकृति ने करोड़ों वर्षों तक जीवविकास किया। तब वह इस काबिल हुई कि परमात्मा को जीवात्मा बना सकी। इससे जीव की उत्पत्ति हुई। पार्वती शिव से कहती है कि वह उसके पिता हिमालय से उसका हाथ मांगे। इसका मतलब है कि प्रकृति नहीं चाहती कि हर जगह जीवात्मा की उत्पत्ति होए। अगर ऐसा होता तो पत्थर, मिट्टी, पानी, कीटाणु आदि में भी जीवात्मा होती और उन्हें भी दुःख दर्द हुआ करता, इससे सृष्टि में अव्यवस्था फैलती। इसलिए प्रकृति चाहती है कि जब जीव का शरीर अच्छी तरह से विकसित हो जाए, तब उसीमें जीवात्मा की उत्पत्ति होए। इसी विकसित शरीर को ही पर्वतराज हिमालय कहा गया है। पार्वती पहले हिमालय का निर्माण करती है, फिर उसकी पुत्री के रूप में पैदा होकर उसी पर रहने लगती है। मतलब कि प्रकृति पहले शरीर का निर्माण करती है, फिर उसीसे पैदा जैसी होकर उसीके अंदर बस जाती है। यह ऐसे ही है, जैसे आदमी पहले अपने लिए घर बनाता है, फिर उसके अंदर खुद रहने लगता है। फिर शिव कहते हैं कि वे निर्विकार और निरीह होकर भी भक्तों के लिए शरीर धारण करते हैं। वास्तव में ये दृश्य जगत शिव का ही शरीर है। इसी के पीछे भागकर दरअसल आदमी शिव के पीछे ही भागता है, मतलब उसीकी भक्ति करता है। पर आदमी को ऐसा नहीं लगता। कुंडलिनी भी परब्रह्म शिव का स्थूल रूप ही है, जिसके ध्यान से शिव का ही ध्यान होता है। सीधे रूप में तो परब्रह्म शिव को कोई नहीं जान-पहचान सकता।

वामपंथी तंत्र के पुरोधा भगवान शिव

शिवपुराण में शिव को अभक्ष्यभक्षी और भूतबलिप्रेमी कहा है। मतलब साफ है। यह पँचमकारी वाममार्गियों की इस मान्यता की पुष्टि करता है कि शिव माँस, मदिरा, भांग आदि का सेवन करते हैं, और मंदिरों में देवताओं को दी जाने वाली पशुबलि से प्रसन्न होते हैं। खैर, सच्चाई तो वे ही जानें। मैं तो संभावना को ही अभिव्यक्त कर रहा हूँ। वास्तव में भगवान ही सबको बचाने वाले हैं, और वही मारने वाले भी हैं। पर मारने वाले हमें भ्रम से ही प्रतीत होते हैं। उनके द्वारा मारने में भी उनके द्वारा बचाना ही छिपा होता है। हम पूरी तरह से भगवान का गुणगान तो कर सकते हैं, पर पूरी तरह उनकी नकल नहीँ कर सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि भगवान कर्म और फल से प्रभावित नहीं होते, पर आदमी को बुरे कर्म का बुरा फल भोगना ही पड़ता है। हो सकता है कि इस्लाम की प्रारंभिक मान्यता भी यही हो, पर वह कालांतर में अतिवादी होकर अन्य धर्मों और संप्रदायों का दुश्मन बन गया हो। यहाँ तक कि एक मुस्लिम मौलवी कासिम ने भी भगवान शिव को इस्लाम के पहले दूत के रूप में संदर्भित किया है। इससे हाल की ही घटना याद आ रही है। सूत्रों के अनुसार, इस क्रिकेट विश्वकप में एक पाकिस्तानी खिलाड़ी बीच मैदान में सबके सामने नीचे बैठकर नमाज पढ़ने लग गया। पाकिस्तान को मैच जीतने से ज्यादा खुशी धर्मप्रचार से मिली।

कुंडलिनी ही एक सच्चे जीवरक्षक के रूप में

यह कहा जाता है कि विभिन्न जीवों में कुंडलिनी विभिन्न चक्रों पर रहती है। विकसित जीवों में यह ऊपर वाले चक्रों में रहती है, जबकि अविकसित जीवों में नीचे वाले चक्रों पर। मैंने इसका वर्णन एक पुरानी पोस्ट में भी किया है। इसका यह मतलब नहीं है कि सभी जीव कुंडलिनी योगी होते हैं और कुंडलिनी ध्यान करते हैं। इसका मतलब यह है कि जब हमारी चेतना का स्तर नीचा होता है, तब यदि अद्वैत का अदृश्य अवचेतन मन से ही सही, हल्का सा ध्यान या ख्याल किया जाए, तब कुंडलिनी आनंदमय शांति पैदा करती हुई नीचे वाले चक्रों पर आ जाती है। अदृश्य ध्यान का हल्का ख्याल मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि चेतनता की न्यूनावस्था में मस्तिष्क में ध्यान करने लायक़ ऊर्जा ही कहाँ होती है। अचेतनता के अंधकार के समय इस अचिंत्य ध्यान भावना से कुंडलिनी ज्यादातर नाभि चक्र पर अनुभव में आती है, और यदि चेतना का स्तर इससे भी अधिक गिरा हुआ हो, तो स्वाधिष्ठान चक्र पर आ जाती है। हालांकि कुछ क्षणों में ही कुंडलिनी मस्तिष्क के चक्रों में आ जाती है, क्योंकि कुंडलिनी का स्वभाव ही ऊपर उठना है। ऐसा करते हुए वह मूलाधार से ऊर्जा भी ऊपर ले आती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि निम्न चेतनता की अवस्था में मस्तिष्क में पर्याप्त ऊर्जा का स्तर नहीं होता, जो कुंडलिनी को ऊपर वाले चक्रों में स्थापित कर सके। मालूम पड़ता है कि कुंडलिनी का निचले चक्रों पर आना मृत्यु के समय सहायक होता है। मृत्यु के समय चेतनता बहुत निम्न स्तर पर होती है। उससे मन में अंधेरा सा छाया रहता है। उस समय अद्वैत की सूक्ष्म भावना से कुंडलिनी निचले चक्रों पर आकर अच्छे मित्र की तरह साथ निभाते हुए आनंदमयी और शांत चेतना प्रदान करती है। वह मृत्यु जनित सभी दुखों और कष्टों को हरते हुए आदमी को मुक्ति प्रदान करती है।

कुंडलिनी शक्ति और शिव के मिलन से ही कार्तिकेय नामक ज्ञान पैदा हुआ, जिसने तारकासुर नामक अज्ञानान्धकार का संहार किया

सभी मित्रों को दशहरे की हार्दिक बधाई

मित्रो, शिव पुराण के अनुसार, भगवान शिव सती के विरह में व्याकुल होकर पर्वतराज हिमाचल (हिमालय का भाग) के उस शिखर पर तप करने बैठ गए, जहाँ गँगा नदी का अवतरण होता है। गंगा के कारण वह स्थान बहुत पवित्र होता है। वे अपने मन को सती से हटाकर योगसाधना से परमात्मा में लगाने लगे। जब पर्वतराज हिमाचल को अपने यहाँ उनके आने का पता चला तो वे अपने परिवार और गणों के साथ शिव से मिलने चले गए, और उनकी सेवा में उपस्थित हो गए। शिव ने उनसे कहा कि वे वहाँ एकांत में तपस्या करना चाहते हैं, इसलिए कोई उनसे मिलने न आए। पर्वतराज ने अपने राज्य में यह ऐलान कर दिया कि जो भी शिव से मिलने का प्रयास करेगा, उसे कठोर राजदण्ड दिया जाएगा। परंतु पार्वती उनकी सेवा करना चाहती थी, इसलिए वह अपने पिता हिमालय से शिव के पास जाने की जिद करने लगी। थकहार के हिमालय पार्वती को लेकर शिव के पास फिर पहुंच गए, और पार्वती की सेवा स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करने लगे। शिव ने कहा कि वे ध्यान योग में रमे रहते हैं, वैसे में स्त्री का क्या काम। स्त्री तो स्वभाव से ही चंचल होती है, और बड़े से बड़े योगियों का ध्यान भंग कर देती हैं। फिर उन्होंने कहा कि वे हमेशा प्रकृति से परे अपने परमानन्द व शून्य स्वरूप में स्थित रहते हैं। इस पर पार्वती ने उनसे कहा कि वे प्रकृति से परे रह ही नहीं सकते। प्रकृति के बिना तो वे बोल भी नहीं सकते, फिर क्यों बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। अगर वे प्रकृति से परे हैं और उन्हें सबकुछ पहले से ही प्राप्त है, तब क्यों इस हिमालय शिखर पर तपस्या कर रहे हैं। जो प्रकृति से परे है, उसका प्रकृति कुछ नहीं बिगाड़ सकती, फिर क्यों उससे भयभीत हो रहे हैं। शिव को यह तर्क अच्छा लगा, और उन्होंने पार्वती को सखियों के साथ प्रतिदिन अपनी सेवा करने की अनुमति दे दी। शिव पार्वती के हावभाव से अनासक्त रहते थे। उनके मन में कभी कामभाव पैदा नहीं हुआ। हालाँकि उन्हें अपने ध्यान में पार्वती ही नजर आती थी। उन्हें लगने लगा कि उनकी पूर्व पत्नी सती ही पार्वती के रूप में उपस्थित हुई है। देवताओं व ऋषियों ने यह अच्छा अवसर जानकर कामदेव को शिव के मन में कामभाव पैदा करने के लिए भेजा। वे ऊर्ध्वरेता (ऐसा व्यक्ति जिसका वीर्य ऊपर की तरफ बहता हो) शंकर को च्युतरेता (ऐसा व्यक्ति जिसका वीर्य नीचे की ओर गिर कर बर्बाद हो जाता हो) बनाना चाहते थे। देवता व ऋषि दैत्य तारकासुर से परेशान थे। उसका वध शिव पार्वती के पुत्र के हाथों से होना था। इसीलिए वे शिव व पार्वती का विवाह कराना चाहते थे। शिव पहले तो पार्वती पर कामासक्त हो गए, और कामुकता के साथ उसके रूप-श्रृंगार का वर्णन करने लगे। फिर जैसे ही वे पार्वती के वस्त्रों के अंदर हाथ डालने लगे, और स्त्रीस्वभाव के कारण पार्वती शर्माती हुई दूर हटकर मुस्कुराने लगी, वैसे ही उन्हें अपनी ईश्वररूपता का विचार आया, और वे अपनी करनी पर पछताते हुए पीछे हट गए। फिर उनकी नजर पास में खड़े कामदेव पर गई। शिव की तीसरी आंख के क्रोधपूर्ण तेज से कामदेव खुद ही भस्म हो गया। शिव चाहते थे कि जब पार्वती का गर्व या अहंकार समाप्त हो जाएगा, वे तभी उसके साथ प्रेमसंबंध बनाएंगे। वैसा ही हुआ। जैसे ही पार्वती का अहंकार नष्ट हुआ, वैसे ही शिव ने उन्हें अपना लिया और उनके आपसी प्रेमसंबंध से कार्तिकेय का जन्म हुआ, जिसने बड़े होकर राक्षस तारकासुर का वध किया। तारकासुर ने देवताओं को बंधक बनाया हुआ था। वह देवताओं से अपनी मर्जी से काम करवाता था। दरअसल उसने ब्रह्मा से यह वरदान मांगा हुआ था कि वह शिव के पुत्र के सिवाय और किसी के हाथों से न मरे। उसे पता था कि शिव तो प्रकृति से परे साक्षात परमात्मा हैं, वे भला किसलिए विवाह करेंगे।

शिव-पार्वती विवाह की उपरोक्त रूपात्मक कहानी का रहस्योद्घाटन

ईश्वर भी जीव से मिलने के लिए बेताब रहता है। अकेले रहकर वह ऊब जैसा जाता है। यदि ऐसा न होता तो जीवविकास न होता। जीव से मिलने के लिए वह जीव के शरीर के सहस्रार में बैठकर तप करने लगता है। वह न कुछ खाता है, न कुछ पीता है। बस चुपचाप अपने स्वरूप में ध्यानमग्न रहता है। यही शिव का वहाँ तपस्या करना है। जीव का शरीर ही हिमालय पर्वत है, और जीव का मन अर्थात कुंडलिनी ही सती या पार्वती है। वे अपनी तपस्या व योगसाधना के प्रभाव से ही अपनी प्रेमिका सती के इतना नजदीक रहकर भी उसके लिए व्याकुल नहीं होते। सुषुम्ना यहाँ गंगा नदी है, जो सहस्रार को ऊर्जा की भारी मात्रा देकर उसे ऊर्जावान अर्थात पवित्र करती रहती है। जीवात्मा यहाँ पर्वतराज हिमालय या हिमाचल भी है। ऐसे तो जीवात्मा का मिलन परमात्मा से बीच-बीच में होता रहता है, पर पूरा मिलन नहीं होता। इसीको इस रूप में लिखा है कि शिव ने अपने वहाँ किसी के आकर मिलने को मना कर दिया। मिलने का अर्थ यहां पूर्ण मिलन ही है। दो के बीच पूर्ण मिलन तभी संभव हो सकता है, जब दोनों एक जैसे स्वभाव के हों। यदि शिव आम आदमी से पूर्णमिलन करेंगे, तो स्वाभाविक है कि उनकी तपस्या भंग हो जाएगी, क्योंकि आम आदमी तो तपस्या नहीं करते, और अनेकों दोषों से भरे होते हैं। इसीलिए जीवात्मा अपने मन और अपनी इन्द्रियों को बाहर ही बाहर दुनियादारी में ही उलझा कर रखता है, उसे शिव से मिलने सहस्रार की तरफ नहीं जाने देता। ये मन, इन्द्रियाँ और प्राण ही राजा हिमाचल के नगरनिवासी हैं। यदि ये कभी गलती से सहस्रार की तरफ चले भी जाएं, तो उन्हें अंधेरा ही हाथ लगता है। यह अंधेरा ही पर्वतराज हिमाचल द्वारा उन्हें दिया जाने वाला कठोर दंड है। पर मन में जो कुंडलिनी चित्र होता है, वह बारम्बार शिव से मिलने के लिए सहस्रार जाना चाहता है। यही पार्वती है। मन का सर्वाधिक शक्तिशाली चित्र कुंडलिनी चित्र ही होता है। वही सहस्रार तक आसानी से जाता रह सकता है। इसीको पार्वती की जिद और हिमालय के द्वारा उसको शिव के पास ले जाने के रूप में बताया गया है। इसीका यह मतलब भी निकलता है कि पार्वती शिव को कहती है कि यदि वह प्रकृति से परे है, तो वह सहस्रार में बैठ कर किसकी आस लगा कर तपस्या कर रहा है। मतलब कि प्रकृति ने ही शिव को इस शरीर के सहस्रार चक्र में बैठने के लिए मजबूर किया है, ताकि उसका मिलन पार्वती रूपी कुंडलिनी से हो सके। केवल कुंडलिनी चित्र को ही सहस्रार में भेजकर आनन्द आता है, अन्य चित्रों को भेजकर नहीं। इसको इस रूपात्मक कथा में यह कहकर बताया गया है कि शिव ने पार्वती के द्वारा की जाने वाले अपनी प्रतिदिन की सेवा को स्वीकार कर लिया। पार्वती प्रतिदिन सखियों के साथ शिव की सेवा करने उस पवित्र शिखर पर जाती और प्रतिदिन घर को लौट आती। इसका मतलब है कि प्रतिदिन के कुंडलिनी योगाभ्यास के दौरान कुंडलिनी थोड़ी देर के लिए ही सहस्रार में रुकती, शेष समय अन्य चक्रों पर रहती। मूलाधार चक्र ही कुंडलिनी शक्ति का अपना घर है। पीठ में ऊपर चढ़ने वाली मुख्य प्राण ऊर्जा और साँसों की गति जो हमेशा कुंडलिनी के साथ रहती हैं, वे पार्वती की सखियां कही गई हैं। हर क्रिया की बराबर की प्रतिक्रिया होती है। कुंडलिनी के सहस्रार में होने से अद्वैत का अनुभव हो रहा है, मतलब कुंडलिनी शिव का ध्यान कर रही है। उसके बदले में शिव भी कुंडलिनी का उतना ही ध्यान कर रहे हैं। शिव को पार्वती में अपनी अर्धांगिनी सती नजर आती है। दरअसल जीव या कुंडलिनी शिव से ही अलग हुई है। कभी वह शिव से एकरूप होकर रहती थी। ब्रह्मा आदि देवताओं के द्वारा कामदेव को शिव-पार्वती का मिलन कराने के लिए भेजने का अर्थ है, कुदरती तौर पर उच्च कोटि के योगसाधक का कामुकता या यौनतन्त्र की ओर आकर्षित होना। आप आए दिन देखते होंगे कि कैसे बड़े-बड़े आध्यात्मिक व्यक्तियों पर यौन शोषण के आरोप लगते रहते हैं। यहाँ तक विश्वामित्र जैसे प्रख्यात ब्रह्मऋषि भी इस यौनकामुकता से बच नहीं पाए थे, और भ्रष्ट हो गए थे। दरअसल यह कामुकता कुंडलिनी को इसी तरह से अंतिम मुक्तिगामी वेग (एस्केप विलोसिटी) को प्रदान करने के लिए पैदा होती है, जैसे एक अंतरिक्षयान को धरती के गुरुत्व बल से बाहर निकालने के लिए इसके रॉकेट इंजन से शक्ति पैदा होती है, ताकि वह भौतिकता से मुक्त होकर शिव से एकाकार हो सके। पर बहुत से योगी इस कामुकता को ढंग से संभाल नहीँ पाते, और लाभ की बजाय अपनी हानि कर बैठते हैं। उस यौनकामुकता का सहारा लेकर कुंडलिनी शिव के बहुत नजदीक तो चली गई, पर उनसे एकाकार नहीं हो सकी। इसका मतलब है कि कुंडलिनी जागरण नहीं हो सका। आज्ञा चक्र पर ध्यान से कुंडलिनी मानसपटल पर बनी रहती है, जिससे कामुकता वाला काम भी कामुकता से रहित और पवित्र हो जाता है। इसे ही शिव की तीसरी आंख से कामदेव का जल कर भस्म होना कहा गया है। तीसरी आंख आज्ञाचक्र पर ही स्थित होती है। मैं तो आज्ञा चक्र को ही तीसरी आंख मानता हूँ। तीसरी आँख या आज्ञा चक्र पर स्थित इसी कुंडलिनी शक्ति के प्रभाव से ही यौनयोग भौतिक कामुकता से अछूता रहता है, जबकि समान प्रकार की भौतिक गतिविधियों के बावजूद अश्लील पोर्न भड़काऊ कामुकता से भरा होता है। देवताओं की प्रार्थना पर शिव ने पार्वती से तभी विवाह किया जब पहले पार्वती ने अपना अहंकार नष्ट कर लिया। यह मैं पिछली पोस्ट में भी बता रहा था कि जब योगसाधना से उत्पन्न सत्त्वगुण पर भी अहंकार समाप्त हो जाता है, तभी कुंडलिनी जागरण की संभावना बनती है। कुंडलिनी मन या जीव का प्रतीक है। जीव का अहंकार खत्म हो गया, मतलब कुंडलिनी-रूपी पार्वती का अहंकार खत्म हो गया। जीव के शरीर में सभी देवता बसे हैं। जीवात्मा के रूप में वे भी शरीर में बंधे हुए हैं। उदाहरण के लिए ब्रह्मांड में उन्मुक्त विचरण करने वाले सूर्य देवता छोटी-2 दो आंखों में, सर्वव्यापी वायुदेव छोटी सी नाक में, अनन्त आकाश में फैला जल देवता सीमित रक्त आदि में। इसी तरह ऋषि भी जीव को ज्ञान का उपदेश करके बंधे हुए हैं। ये देवता और ऋषि भी तभी पूर्ण रूप से मुक्त माने जाएंगे, जब जीव मुक्त होगा, मतलब कुंडलिनी जागरण के रूप में शिव-पार्वती का विवाह होगा। जीवमुक्ति के लिए यही देवताओं व ऋषियों की प्रार्थना है, जिसे शिव अन्ततः स्वीकार कर लेते हैं। तारकासुर राक्षस यहाँ अज्ञान के लिए दिया गया नाम है। तारक का अर्थ आंख की पुतली होता है, जो अज्ञान की तरह ही अंधियारे रँग वाली होती है। यह जीव के मन सहित उसके पूरे शरीर को बंधन में डालता है। तारक का मतलब आंख या रौशनी या ज्ञान भी है। इसको नष्ट करने वाला राक्षस ही तारकासुर हुआ। अज्ञान रूपी तारकासुर आदमी को अंधा कर देता है। उपरोक्तानुसार जीव के बंधन में पड़ने से देवता और ऋषि खुद ही बंधन में पड़ जाते हैं। उसका संहार केवल कुंडलिनी जागरण से पैदा होने वाला ज्ञान ही कर पाता है, जिसे इस कथा में शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय के रूप में वर्णित किया गया है।