कुंडलिनी योग ही हमें या एलियंस को लंबी दूरी की इंटरस्टेलर यात्रा की तकनीक दिखा रहा है

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि अन्नमय कोष को खोलने के लिए शरीर का ध्यान बहुत जरूरी है। ध्यान से पहले ज्ञान का होना जरूरी है। इसीलिए शास्त्रों में शरीर के ब्रह्माण्ड के रूप में वर्णन की बहुतायत है। साथ में, ब्रह्माण्ड का अध्यात्मिक रूप में वर्णन ज्यादा है, शरीर का कम। क्योंकि सम्भवतः उस समय शरीर की सूक्ष्मता को जाँचने वाली कोई व्यावहारिक वैज्ञानिक तकनीक नहीं थी, इसलिए यही तरीका बचता था। शरीरविज्ञान दर्शन में आधुनिक विज्ञान और पुरातन अध्यात्म ज्ञान को मिश्रित किया गया है, जिससे इससे शरीर का उत्कृष्ट तरीके से ज्ञान हो जाता है। सम्भवतः इसीलिए पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन प्रशंसा की पात्र बनी है। इसे विज्ञान से अध्यात्म में प्रवेशद्वार कह सकते हैं। पिछली कुछ पोस्टों का ज्यादा झुकाव क्वांटम भौतिकी और अंतरिक्ष विज्ञान की ओर था। हालांकि वे भी कुण्डलिनी योग विज्ञान से जुड़ी हुई थीं। ऐसा इसलिए क्योंकि आजकल अधिकांश लोग भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान मानते हैं, अध्यात्म विज्ञान को नहीं। अध्यात्म विज्ञान से ही टेलीपोर्टेशन संभव हो सकता है। हो सकता है कि अध्यात्म विज्ञान इतना उन्नत हो जाए कि इस धरती का आदमी सूक्ष्मशरीर बन कर पूरे ब्रह्माण्ड की सैर पर निकल जाए, और कहीं किसी ग्रह पर किसी जीव के शरीर में कुछ दिन निवास करके वापिस धरती पर आ जाए। यह भी हो सकता है कि अपने बराबर उन्नत प्राणी के साथ मिलकर आपस में सूक्ष्मशरीरों को कुछ समय के लिए एक्सचेंज करें और एकदूसरे के ग्रहों पर कुछ जीवन बिता कर अपने-अपने ग्रह वापिस लौट जाएं। सूक्ष्मशरीर के माध्यम से ही अनंत ब्रह्माण्ड को लंघा जा सकता है, स्थूल शरीर से नहीं। पुराने समय में योगी लोग ऐसी यात्राएं करते भी थे। कुल मिलाकर आत्मज्ञान होने पर आदमी हर समय हर जगह स्थित हो जाता है, जो सर्वोच्च स्तर की अंतरिक्ष यात्रा ही तो है। यही टाइम ट्रेवल और स्पेस ट्रेवल का सबसे आसान और सही तरीका लगता है मुझे, बेशक जो चाहे वह भौतिक शरीर के साथ भी प्रयास कर सकता है। हो सकता है कि एलियन्स को उनसे ही धरती का पता चला है, जिसके बाद वे यूएफओ से भी यहाँ आने लग गए हों। क्रायोस्लीप, लाइट सेल, वर्महोल और वार्प ड्राइव संभावित समाधान प्रदान करते हैं। दुर्भाग्य से, ये केवल दिवास्वप्न हो सकते हैं, जिसका अर्थ होगा कि लंबी दूरी की इंटरस्टेलर यात्रा संभव नहीं है। यह मैं नहीं, बहुत से वैज्ञानिक कह रहे हैं। मतलब तांत्रिक कुण्डलिनी योग व कर्मसिद्धांत ही धरती से अन्य ग्रह पर पहुंचा सकते हैं। मनोरंजन और उत्साहवर्धन के लिए प्रत्यक्ष व सीधे तौर पर शरीर के टेलीपोर्टेशन की कल्पना भी की जा सकती है। ऐसी ही नाटकीय कल्पना “लॉस्ट इन स्पेस” नामक वेबसेरीस में की गई है। मैंने हाल ही में यह देखी। मुझे अच्छी और बाँधने वाली लगी। मैं किसीका प्रचार नहीं कर रहा, बल्कि दिल की बात बता रहा हूँ। सच्ची बात कह देनी चाहिए, उसमें अगर किसी का प्रचार होता हो तो होता रहे, हमें क्या।

कुछ बिमारियां आदमी का महामानव बनने का प्रयास लगती हैं

वैज्ञानिक तो यह दावा भी कर रहे हैं कि आदमी में जो आनुवंशिक बिमारियां हो रही हैं, वे एलियन के डीएनए की वजह से हो रही है। कभी एलियन यहाँ की औरतों को उठाकर ले गए थे और उन्हें गर्भवती करके वापिस भेज दिया था या वहाँ उनसे संतान पैदा की थी। फिर वो डीएनए सबमें फैल गया। यह आदमी को महामानव बनाने के लिए हुआ। मुझे अपना एंकोलाईसिंग स्पोंडीलोआर्थराईटिस वैसी ही फॉरेन बिमारी लगती है। यह बिमारी मुझे योग करने के लिए मजबूर करती है। इससे वैज्ञानिकों का दावा कुछ सिद्ध भी हो जाता है। मुझे तो लगता है कि प्रॉस्टेट और बवासीर भी ऐसी ही आनुवंशिक बीमारियां हैं। ये भी आदमी को योगी जैसा बनाती हैं। पुराने लोगों ने इसे ऐसे समझा होगा कि कष्ट झेलने से योग सफल होता है, इसीसे तप शब्द का प्रचलन बढ़ा होगा। आजकल कैंसर भी बढ़ रहा है। यह भी आनुवंशीकी से जुड़ा रोग होता है। हो सकता है कि यह प्रकृति के मानव को महामानव बनाने के प्रयास के दौरान पैदा हुआ डिफेक्ट हो। वैसे भी बहुत से महान योगियों को कैंसर विशेषकर गले का कैंसर हुआ है। क्वांटम और स्पेस के बारे में लिखने का दूसरा उद्देश्य था कि वैज्ञानिकों की कुछ मदद हो जाए, क्योंकि वे इन क्षेत्रों में कुछ पजल्ड और फ़्रस्टेटिड दिखाई देते हैं। अब पुनः अध्यात्म विज्ञान की तरफ लौटते हैं, क्योंकि जो मजा इसमें है, वह और कहीं नहीं है। भौतिकता से प्यास बढ़ती है, तो अध्यात्म से प्यास बुझती है। दोनों का अपना महत्त्व है। गीता में भी श्रीकृष्ण स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि “अध्यात्मविद्या विद्यानाम्“। मतलब विद्याओं में मैं अध्यात्मविद्या हूँ। मतलब उन्होंने अध्यात्मविद्या को सभी विद्याओं में श्रेष्ठ माना है। फिर भी जैसे-जैसे भौतिक विज्ञान की पहेलियाँ सुलझती रहेंगी, हम बीचबीच में उनका भी उल्लेख करते रहा करेंगे।

कुंडलिनी योग डीएनए को सूक्ष्म शरीर और डार्क एनर्जी या डार्क मैटर के रूप में दिखाता है

सूक्ष्म शरीर पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेंद्रियों, पांच प्राण, एक मन और एक बुद्धि के योग से बना है। 

यह सूक्ष्मशरीर ही परलोकगमन करता है, हाड़मांस से बना स्थूलशरीर नहीं। कोई बोल सकता है कि जब स्थूल शरीर नष्ट हो गया, तब ये इन्द्रियां, प्राण आदि कैसे रह सकते हैं, क्योंकि ये सभी स्थूलशरीर के आश्रित ही तो हैं। यही तो ट्रिक है। इसे आप लेखन की वर्णन करने की कला भी कह सकते हैं। लेखक अगर चाहता तो सीधा लिख सकता था कि शरीर और उसके सारे क्रियाकलाप उसके सूक्ष्मशरीर में दर्ज हो जाते हैं। पर यह वर्णन आकर्षक और समझने में सरल न होता। क्योंकि शरीर और उसके सभी क्रियाकलाप उसके मन, बुद्धि, कर्मेंद्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, और पांचोँ प्राणों के आश्रित रहते हैं, इसलिए कहा गया कि सूक्ष्मशरीर इन पांचोँ किस्म की चीजों से मिलकर बना है। मुझे तो ऐसा अनुभव नहीं हुआ था। मुझे तो ये चीजें सूक्ष्मशरीर में अलगअलग महसूस नहीँ हुई, बल्कि एक ही अविभाजित अंधेरा महसूस हुआ, जिसमें इन सभी चीजों की छाप महसूस हो रही थी। मतलब साफ है कि सूक्ष्मशरीर अनुभवरूप अपनी आत्मा के माध्यम से ही चिंतन करता है, आत्मा से ही निश्चय करता है, आत्मा से ही काम करता है, आत्मा के माध्यम से ही सभी इन्द्रियों के अनुभव लेता है, और आत्मा से ही दैनिक जीवन के सभी शारीरिक क्रियाकलाप करता है। मतलब सूक्ष्मशरीर में जीव के पिछले सभी जीवन पूरी तरह से दर्ज रहते हैं, जिनको वह लगातार आत्मरूप से अपने में अनुभव करता रहता है। ये अनुभव स्थूल शरीर की तरंगों की तरह बदलते नहीं। एक प्रकार से ये पिछले सभी जन्मों का मिलाजुला औसत रूप होता है। कई लोग सोचते होंगे कि सूक्ष्मशरीर एक बिना शरीर का मन होता होगा, जिसमें खाली अंतरिक्ष में विचारों की तरंगें उठती रहती होंगी, पर फिर स्थूल और सूक्ष्म शरीर में क्या अंतर रहा। वैसे भी बिना स्थूल शरीर के आधार के स्थूल मन का अस्तित्व संभव नहीं है। उदाहरण के लिए आप अपनी अंगूठी में जड़े हुए हीरे को सूक्ष्मशरीर मान लो। इसमें इसके जन्म से लेकर सभी सूचनाएं दर्ज हैं। कभी यह शुद्ध ऊर्जा था। सृष्टि निर्माण के साथ यह धरती पर वृक्ष बन गया। फिर भूकंप आदि से वृक्ष धरती के अंदर सैंकड़ो किलोमीटर नीचे दब कर कोयला बना। फिर पत्थर का कोयला बना। लाखों वर्षो तक यह भारी तापमान और दबाव झेलता रहा। इसमें अनगिनत परिवर्तन हुए। इसने अनगिनत क्रियाएं कीं। इसने अनगिनत वर्ष बिताए। फिर वह खोद कर निकाला गया। फिर तराशा गया। फिर आपने इसे खरीदा और अपनी अंगूठी में लगाया। ये सभी सूचनाएं इस हीरे में दर्ज हैं। हालांकि हीरे को देखकर हमें इन सूचनाओं का स्थूलरूप में पता नहीं चलता, पर वे सूचनाएं सूक्ष्मरूप में हमें जरूर अनुभव होती हैं, तभी हमें हीरा बहुत सुंदर, आकर्षक और कीमती लगता है। ऐसे ही किसीके सूक्ष्म शरीर के अनुभव से उसका पूरा पिछला ब्यौरा स्थूल रूप में मालूम नहीं होता, पर सूक्ष्मरूप में अनुभव होता है, उसके औसत स्वभाव को अनुभव करके। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे अर्जुन के पिछले सभी जन्मों को जानते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें अपने मन में दूरदर्शन की तरह सभी दृष्य महसूस हो रहे थे, बल्कि यह मतलब है कि उन सबका निचोड़ सूक्ष्मशरीर के रूप में महसूस हो रहा था। शास्त्रों की शैली ही ऐसी है कि वे अक्सर तथ्यों का पूर्ण विश्लेषण न करके उन्हें चमत्कारिक रूप में रहने देते हैं, ताकि पाठक हतप्रभ हो जाए।
ये अनुभव स्थूलशरीर से लिए अनुभवों से सूक्ष्म होते हैं, हालांकि हमें ऐसा लगता है, सूक्ष्मशरीर के लिए तो वह स्थूल अनुभव की तरह ही शक्तिशाली लगते होंगे, क्योंकि उस अवस्था में जीवित अवस्था के उन विचारों के शोर का व्यवधान नहीं होता, जो अनुभवों को कुंठित करते हैं। साथ में, पिछले सारे जन्मों का अनुभव भी आत्मा में हर समय सूक्ष्म रूप में बना रहता है, जबकि स्थूलशरीर में स्थूल विचारों के शोर में दबा रहता है। हाँ, वह नए अनुभव नहीँ ले सकता, क्योंकि उसके लिए स्थूलशरीर जरूरी होता है। इसलिए उसका आगे का विकास भी नहीँ होता। आगे के विकास के लिए ही उसे स्थूलशरीर के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। मुझे तो सूक्ष्मशरीर डीएनए की तरह जीव की सारी सूचनाएं दर्ज करने वाला लगता है। इसी तरह मुझे डार्क एनर्जी या डार्क मैटर भी स्थूल ब्रह्माण्ड का शाश्वत डीएनए लगता है।

डार्क एनर्जी और सूक्ष्मशरीर की समतुल्यता तभी सिद्ध हो सकती है, अगर उसे हम विभागों में न बांटकर एकमात्र अंधेरभरे आसमान की तरह मानें जिसमें इनके स्थूल रूप की सभी सूचनाएं सूक्ष्म अर्थात आत्म-अनुभवरूप में दर्ज होती हैं। कृपया इसे पूर्ण आत्मानुभव अर्थात आत्मज्ञान न समझ लिया जाए। यह आत्म-अनुभव की सर्वोच्च अवस्था है, जो एक ही किस्म का होता है, और जिसमें कोई सूचना दर्ज नहीँ होती मतलब शुद्ध आत्म-रूप होता है, जबकि सूक्ष्मशरीर वाला आत्म-अनुभव बहुत हल्के दर्जे का होता है, और उसमें दर्ज गुप्त सूचनाओं के अनुसार असंख्य प्रकार का होता है। यह “यत्पिंडे तत् ब्रह्मान्डे” के अनुसार ही होगा।

कुंडलिनी जागरण ब्लैक होल विज़ुअलाइज़ेशन से अलग है

दोस्तों, पिछली पोस्ट लंबी हो रही थी इसलिए विषय को वहीं रोकना पड़ा था। अब इस पोस्ट में उसे जारी रखते हैं। जब सभी लोगों के अनुभव एक ही अनंत अंतरिक्ष के अंदर हो रहे हैं, तब कोई भी आदमी किसी भी दूसरे आदमी के अनुभव से जुड़ सकता है। मेरे बोलने का मतलब है कि मैं भी हरेक जीव की तरह अनंत अंतरिक्ष रूप हूँ। मैं प्रेमयोगी वज्र नाम के आदमी के मस्तिष्क में बने सूक्ष्म शरीर से जुड़ा हुआ हूँ। फिर मैं अपने दोस्तों, रामू और श्यामू के मस्तिष्क में बने सूक्ष्म शरीर के साथ क्यों नहीँ जुड़ सकता। जैसा मेरा अपना असली रूप अनंत अंतरिक्ष है, उसी तरह रामू और शामू का असली रूप भी वही अनंत अंतरिक्ष है। एक ही अनंत अंतरिक्ष तीन अलग-अलग सूक्ष्म शरीरों के साथ जुड़ा है। उससे मेरा अनंत अंतरिक्ष रूप अलग अनुभव वाला हो गया, उनका अलग अनुभव वाला हो गया। मतलब एक ही अनंत अंतरिक्ष हम तीनों लोगों के रूप में अलग-अलग प्रतीत होने लगा, हालांकि है एक ही। सम्भवतः मैं अपने पूर्वोक्त परिचित के सूक्ष्मशरीर से कुछ क्षणों के लिए जुड़ गया था। यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। एक बद्ध आदमी जिस समय जैसा अनुभव कर रहा होता है, उस समय वह वैसा ही बना होता है। इसलिए उस सूक्ष्म शरीर को अनुभव करते समय मैं वही सूक्ष्मशरीर बन गया था। इसके विपरीत कुण्डलिनी जागरण के अनुभव के दौरान आदमी पूर्ण मुक्त अवस्था में होता है। उस समय वह अपने असली अनंत चेतन-अंतरिक्ष में स्थित होता है। उस समय उसके सभी अनुभव, चाहे वे स्थूल शरीर से संबंधित हो या सूक्ष्मशरीर से, अपने में तरंग रूप में अर्थात मिथ्या होते हैं। वे उसे महसूस होते हुए भी महसूस नहीँ होते। जागृति का कुछ क्षणों का अनुभव खत्म होते ही जैसे उस चिन्मय अनंत आकाश की चेतना की रौशनी बुझ जाती है, और वह फिर से पहले की तरह अंधेर अनंत आकाश ही महसूस होता है। उस अँधेरे के रूप में उस आदमी का सूक्ष्म शरीर दर्ज होता है। तो यह क्यों न समझा जाए  कि सूक्ष्म शरीर किसी भी क्वांटम हलचल के रूप में नहीँ अपितु आत्म-आकाश की रौशनी को ढकने वाले अँधेरे के रूप में रहता है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जिस परिचित के सूक्ष्म शरीर को मैंने अनुभव किया, उनकी मृत्यु हो चुकी थी इसलिए उनके पास अपना शरीर नहीं था। जीवात्मा शरीर के बाहर किसी भी हलचल से जुड़कर उसे महसूस नहीँ कर सकती। अगर ऐसा होता तब तो शरीर के बाहर अनगिनत तरंगों के रूप में अनगिनत हलचलें होती रहती हैं। फिर तो हरेक विद्युत्चुंबकीय तरंग जिन्दा होती। यहाँ तक कि मिट्टी, पत्थर, कुर्सी आदि सभी कुछ जिन्दा और जीवात्मा से युक्त होता, पर ऐसा नहीँ है। इसका मतलब है कि जीवनयात्रा की शुरुवात से लेकर आदमी के जीवन का अनेक जन्मों का पूरा ब्यौरा उसके अनंत आत्म-आकाश में अनुभव होने वाले अँधेरे की विशेष किस्म व मात्रा के रूप में दर्ज रहता है। उसे ही सूक्ष्मशरीर कहते हैं। अब इसको ब्लैक होल पर लेते हैं। ऐसा समझ लो कि आदमी की मृत्यु की तरह तारा पूरी तरह से नष्ट हो जाता है। मतलब वह भौतिक रूप में कुछ भी नहीं बचा रहता। यह मैं ही नहीँ बोल रहा हूँ। आइंस्टीन ने भी जटिल गणितीय गणना से सिद्ध करके बताया है कि ब्लैकहोल सिंगुलेरिटी तक कंम्प्रेस हो जाता है। यह अलग बात है कि ज्यादातर वैज्ञानिक सबसे छोटे अकेले कण को सिंगुलेरिटी समझ रहे हैं, पर मैं एक कदम नीचे शून्य आकाश तक जा रहा हूँ। बेशक वह सबसे बड़ा लगता है, पर सबसे छोटा भी वही है। मतलब कि ब्लैकहोल सूक्ष्म शरीर की तरह एक अँधेरे से भरा आसमान बन जाता है। बेशक उसे अनुभव करने वाला कोई नहीँ होता, क्योंकि जब तारे की जिन्दा अवस्था में उसमें जीवात्मा की तरह कोई विशेष आत्मा नहीँ बंधी थी, तब उसकी मृत्यु के बाद उससे कैसे बंध सकती है। आत्मा के बंधन की मशीन केवल हाड़मान्स का बना शरीर ही है। जब कोई अनुभव करने वाला ही नहीँ, तब अँधेरे आसमान का क्या औचित्य है। हम ऐसा भी नहीँ कह सकते। अगर ऐसा है तब मिट्टी, पत्थर जैसी वस्तुओं के रूप में अनगिनत तरंगों का भी क्या औचित्य है, जब वे स्वयं अनुभवरूप नहीँ हैं, मतलब स्वयं को अनुभव नहीँ कर सकतीं। जिस तरह चिदाकाश अपने में स्थित इन वस्तुओं को अनुभव नहीँ कर सकता, उसी तरह इनके नष्ट होने से बने अपने आभासी अँधेरे को भी अनुभव नहीँ कर सकता। वह आभासी अंधेरा ही डार्क मैटर और डार्क ऐनर्जी है। आदमी के मरने के बाद बहुत से लोग दुःख के कारण उसकी तरफ खिंचे चले जाते हैं। सम्भवतः शुरु की प्रेतात्मा डार्क मैटर ही होती है। ब्लैक होल भी शुरु में डार्क मैटर ही होता है, इसीलिए अपने मजबूत गुरुत्वाकर्षण से सभी को अपनी तरफ खींचता है। कुछ समय बाद प्रेतात्मा को सभी भूल जाते हैं, और उससे नफ़रत सी करते हुए सभी अपने-अपने कामों में पहले की तरह लग जाते हैं। मतलब प्रेतात्मा सभी को अपने से दूर धकेलती है। सम्भवतः उस समय प्रेतात्मा डार्क एनर्जी बनी होती है, क्योंकि उसमें भी दूर सबको धकेलने का बल होता है। सम्भवतः इसी तरह समय के साथ ब्लैक होल का डार्क मैटर भी अनंत आकाश में समाकर डार्क एनर्जी बन जाता है। यह तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि ब्लैकहोल भी लगातार सूक्ष्म रेडिएशन छोड़ते रहते हैं जिसे हाव्किंस रेडिएशन कहते हैं, और इस तरह से बहुत लम्बे समय बाद खत्म हो जाते हैं। डार्क एनर्जी के रूप में फिर यह अन्य पिंडों को खींचने का नहीँ बल्कि धकेलने का काम करता है। दिवंगत आदमी के अँधेरे अनंत अंतरिक्ष रूपी सूक्ष्मशरीर में दर्ज सूचना क्या पता कौन से ब्रह्माण्ड में जन्मे आदमी के अंदर अभिव्यक्त होए, कोई कह नहीँ सकता। अनंत अंतरिक्ष के किसी भी कोने में उस आदमी का पुनर्जन्म हो सकता है। इसी तरह नष्ट हुए तारे के अँधेरे अनंत अंतरिक्ष रूपी ब्लैकहोल नामक सूक्ष्मशरीर में दर्ज सूचना क्या पता किस ब्रह्माण्ड में जाकर नए तारे के जन्म के रूप में अभिव्यक्त हो जाए, कुछ कह नहीं सकते। इसी सिद्धांत के अंदर व्हाइट होल और टेलीपोर्टेशन छुपा हुआ है। इससे विज्ञान का वह सिद्धांत भी क़ायम रहता है कि क्वांटम इनफार्मेशन कभी नष्ट नहीँ होती। तारे से इनफार्मेशन डार्क मैटर में चली गई, डार्क मैटर से डार्क एनर्जी में चली गई, और डार्क एनर्जी से फिर तारे में आ गई। इस तरह यह चक्र आदमी के जन्ममरण की तरह चलता रहता है। कई लोग कहेंगे कि प्रेतात्मा ब्लैक होल की तरह घेरा बना कर तो नहीँ रहती। हाहा। भाई यह अध्यात्म विज्ञान है। इसमें भौतिक विज्ञान की तरह एक जमा एक दो नहीँ कर सकते। समानता दिखा सकते हैं। आदमी के मरने के बाद कुछ समय उसकी आत्मा ब्लैक होल की तरह लोकेलाइज रहती है। उसे भटकी हुई आत्मा कहते हैं। कई लोगों को इसका अहसास होता है। फिर वह डार्क एनर्जी की तरह अनंत अंतरिक्ष में समा जाती है। विभिन्न धर्मों में विभिन्न आध्यात्मिक कृत्य इसीलिए किए जाते हैं, ताकि जल्दी से जल्दी उसकी गति लग सके और वह अनंत अंतरिक्ष में समा कर नया जन्म ले सके।

उपरोक्त वैज्ञानिक विवरण से यह बात स्पष्ट होती है कि पुराने लोगों को वर्महोल, व्हाइट होल और टेलीपोर्टेशन आदि का पता था, हालांकि अपने तरीके से। उन्हें पता था कि स्थूल शरीर के साथ यह संभव नहीं है, पर सूक्ष्मशरीर के साथ संभव है। इसलिए वे अच्छे कर्मों से अपने सूक्ष्मशरीर को ज्यादा से ज्यादा अच्छा बनाते थे, ताकि वह उन्हें अच्छे ग्रह, सितारे या ब्रह्माण्ड में ले जा सके, क्योंकि उन्हें यह भी पता था कि क्वांटम इनफार्मेशन कभी नष्ट नहीं होती।

कुण्डलिनी योग से एक ही अनंत अंतरिक्ष सभी ब्लैक होलों, ब्रह्माण्डों, और जीवों के रूप में दिखाई देता है

एक जीव मरने के बाद कहाँ गया कुछ पता नहीं चलता। इसी तरह एक गलेक्सी ब्लेक होल से निकलकर कौन से ब्रह्माण्ड में गई पता नहीं चलता। जैसे एक ही अनंत अंतरिक्ष में अनगिनत जीवों के रूप में अनगिनत सूक्ष्म ब्रह्माण्ड हैं, उसी तरह एक ही अनंत अंतरिक्ष में अनगिनत स्थूल ब्रह्माण्ड भी तो हो सकते हैं। अनंत अंतरिक्ष की जितनी मर्जी कॉपीयां निकाल लो। हरेक कॉपी मूल की तरह सम्पूर्ण होती है, डुप्लीकेट नहीं, क्योंकि एक से ज्यादा अनंत अंतरिक्ष संभव ही नहीं। इसी तरह एकमात्र अनुभवरूप अनंत अंतरिक्ष के इलावा किसी की स्वतंत्र सत्ता या अस्तित्व ही नहीं है। लहर, कण आदि जो कुछ भी अनंत आकाश में आभासी रूप में महसूस होता है, वह अपने आधार अनंत-आकाश के साथ ही सत्तावान महसूस होता है, स्वतंत्र रूप से नहीं। या ऐसा कह लो कि अनंत अंतरिक्ष को वह अपनी आभासी लहरों के रूप में अपने में ही महसूस होता है। अगर उन आभासी कलाकृतियों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता, तब तो हरेक जड़ वस्तु जैसे कि कुर्सी, पत्थर, चित्र, मूर्ति आदि जीवित होती, जैसा कि कई एनिमेशन फिल्मों में दिखाया जाता है। जगत, विचार आदि तो उस आकाश-आत्मा में आभासी तरंगें हैं, जो दरअसल हैं ही नहीं। इसलिए एक ही चारा बचता है कि एक ही अनंत अंतरिक्ष को ही सभी जीवों और ब्रह्माण्डों के रूप में दिखाया जाए। यह शास्त्रों में एक श्लोक के द्वारा समझाया गया है, “ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदम पूर्णात पूर्णमुदुच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते”। इसका मतलब है कि ‘वह’ मतलब ॐ नाम वाला परम तत्त्व पूर्ण है, मतलब अनंत अंतरिक्षरूप है, ‘यह’ मतलब जीव भी अनंत अंतरिक्ष है, ‘उस’ अनंत अंतरिक्ष से ‘इस’ अनंत अंतरिक्ष के निकल जाने के बाद भी ‘वह’ अनंत अंतरिक्ष ही बचा रहता है, उसमें कोई कमी नहीं आती। शून्यरूप अनंत अंतरिक्ष से कोई कुछ निकाल ही कैसे सकता है। क्योंकि सभी अनंत अंतरिक्ष एक ही हैं, इसलिए सभी जीव भी एक ही हैं। जैसे भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थित जीवों के मानसिक ब्रह्माण्ड ‘एक अंतरिक्ष रूप‘ ही हैं, उसी तरह भिन्नभिन्न स्थानों पर स्थित स्थूल ब्रह्माण्ड एक ही अंतरिक्ष में दिखते हुए भी, अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता रखते हुए भी, अलग-अलग स्थानीय रूप रखते हुए भी, अलग-अलग अनंत अंतरिक्ष की सत्ता साथ में समेटे हुए हैं। इससे मल्टीवर्स की बात खुद ही सिद्ध हो जाती है। जैसे जीवों के रूप में सूक्ष्म ब्रह्माण्ड अनगिनत हैं, वैसे ही स्थूल ब्रह्माण्ड भी अनगिनत हैं। हालांकि सबके साथ अपना अनंत अंतरिक्ष है, इसलिए सब एक अनंत अंतरिक्ष रूप ही हैं, और कभी उसमें जाके मिल जाएंगे। वैसे तो हमेशा मिले हुए ही हैं पर वर्चुअली मिलते दिखेंगे। इस तरह से जैसे जीव के रूप में सूक्ष्म ब्रह्माण्ड की मुक्ति होती है, उसी तरह स्थूल ब्रह्माण्ड के रूप में भी जरूर होती होगी। यह अलग बात है कि स्थूल ब्रह्माण्ड का अभिमानी आत्मा अर्थात ब्रह्मा पहले से ही अनासक्त, अद्वैतपूर्ण और जीवनमुक्त है, जैसा शास्त्रों में कहा गया है। शास्त्र खुद मल्टीवर्स को मानते हैं। वे कहते हैं कि अनगिनत जीवों की तरह ब्रह्मा भी अनगिनत हैं। सम्भवतः उनका कहना है कि हरेक जीव विकास के उत्तरोत्तर क्रम को लाँघते हुए जीवनयात्रा के अंतिम पड़ाव के निकट ब्रह्मा भी जरूर बनता है। इसी संदर्भ में गीता में आता है कि आत्मा न तो कभी पैदा होती है, और न नष्ट होती है। मतलब कि आदमी कभी नहीं मरता। यही तो उपरोक्त वैज्ञानिक तथ्यों से भी सिद्ध हो रहा है कि अनंत व शून्य आकाश को न तो बनाया जा सकता है, और न ही नष्ट किया जा सकता है। हाँ यह जरूर है कि जीव-आत्मा रूपी भ्रमित अनंताकाश कुण्डलिनी योग से अपने अज्ञानरूपी आभासी भ्रम को दूर करके ओरिजनल अनंताकाश अर्थात परमात्मा के साथ एकाकार हो सकता है। एकाकार पहले से ही है, बस आभासी भ्रम का बादल हटाना है।

कुण्डलिनी योग विज्ञान ब्लैक होल में भी झाँक सकता है

शिव की तरह शक्ति भी शाश्वत है

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि शक्ति कहाँ से आती है। शाक्त कहते हैं कि शिव की तरह शक्ति भी शाश्वत है। यह मानना ही पड़ेगा, क्योंकि अगर शक्ति नाशवान है, तब वह सृष्टि के प्रारम्भिक शून्य आकाश में कहाँ से आती है। अगर शिव को ही एकमात्र अविनाशी और मूल तत्त्व माना जाए तो एक नया स्पष्टीकरण है। सूक्ष्मशरीर रूपी क्वांटम फ्लकचूएशनस आत्मा में रिकॉर्ड हो जाती हैं। उन क्वांटम फ्लकचूएशनस के अनुसार ही आत्मा में अंधेरा होता है। मतलब क्वांटम फ्लकचूएशनस की किस्म और मात्रा के अनुसार ही आत्मा का अंधेरा भिन्नता रखता है। यह नियम व्यष्टि और समष्टि, दोनों ही मामलों में लागू होता है। इसे ही कारण शरीर कहते हैं। आत्मा का वही अंधेरा फिर सृष्टि के प्रारम्भ में अपने अनुसार पुनः  क्वांटम फ्लकचूएशन पैदा करता है। मतलब कारण शरीर या कारण ब्रह्माण्ड सूक्ष्मशरीर या सूक्ष्म ब्रह्माण्ड के रूप में आ जाता है। उससे फिर स्थूल शरीर या स्थूल ब्रह्माण्ड बन ही जाता है। पर प्रश्न फिर भी बचा ही रहता है। फौरी तौर पर तो यही उत्तर बनता है कि अँधेरे अंतरिक्ष के रूप में शक्ति अर्थात कारण शरीर तो रहता है, पर अनुभव के रूप में उसका अपना अस्तित्व नहीं होता, अनुभव के रूप में वह परमात्मा शिवरूप ही होता है। या कह लो कि शक्ति शून्य शिव से एकाकार हो जाती है।

सृष्टि के प्रारम्भ में शक्ति शिव से अलग होकर सृष्टि की रचना प्रारम्भ करती है

जैसे सरोवर का जल हमेशा हिलता रहता है वैसे ही अंतरिक्ष में हमेशा सूक्ष्म तरंगें उठती रहती हैं। दोनों में कभी हवा आदि से लहरें ज्यादा बढ़ जाती हैं। यही एनर्जी से कण का उदय है। अंतरिक्ष में ये तरंगें आकाशीय पिंडों के आपस में टकराने से बनती हैं। यह तो वैज्ञानिक भी बोलते हैं कि जब अंतरिक्ष में ज्यादा उथलपुथल मचती है, तो नए ग्रहों व सितारों आदि का ज्यादा निर्माण होता है। पर शुरुआत के शून्य अंतरिक्ष में यह उथलपुथल कैसे मचती है, यह खोज का विषय है।

ब्लैक होल में ब्रह्माण्ड के जन्म और मृत्यु का राज छिपा हो सकता है

तारा जब मरता है तो वह सिंगुलेरिटी तक कंम्प्रेस होकर ब्लैक होल बन जाता है। वह सिंगुलेरिटी अव्यक्त आकाश में विलीन हो जाती है, क्योंकि किसी चीज के छोटा होने की अंतिम सीमा शून्य आकाश में जाकर ही खत्म होती है। मतलब वह पहले स्बसे छोटा मूलकण बनता है। उसकी ग्रेविटी बहुत ज्यादा होती है। मतलब वह क्वांटम ग्रेविटी है। इसमें एक मूलकण से सृष्टि बनने का राज अर्थात बिग बैंग का राज छिपा हुआ है। जब एक मूलकण के अंदर पूरा तारा समा सकता है तो उससे पूरे तारे का उदय भी तो हो सकता है। वह पुनः-रचना व्हाइट होल के माध्यम से हो सकती है। तभी कहते हैं कि ब्लेक होल सृष्टि रचना की फैक्ट्री हो सकता है। हो सकता है कि सृष्टि के अंत में ग्रेविटी हावी होकर पूरे ब्रह्माण्ड या पूरी सृष्टि को ही ब्लैक होल बना कर खत्म कर दे। फिर पूरा अंतरिक्ष ही ब्लैक होल अर्थात अव्यक्त आकाश अर्थात अंधकारपूर्ण आकाश अर्थात मूल प्रकृति बन जाएगा। हालांकि उसमें पूरी सृष्टि उच्च दबाव में समाई होगी। अब ये नहीं पता कि वह किस रूप में उसमें होगी। जब उस परम ब्लैक होल का अंधकाररूप दबाव एक निश्चित मात्रा या समय सीमा को लांघेगा, तब प्रलय का अंत हो जाएगा और उसमें दबे अव्यक्त पदार्थ प्रकाशमान तरंगों के रूप में बाहर अर्थात परम व्यक्त अर्थात परम पुरुष की ओर प्रस्फुटित होने लगेंगे। इसे ही प्रकृति और पुरुष अर्थात यिन और यांग के बीच आकर्षण और सम्भोग कहा जाता है। इससे शिशु रूप में नई सृष्टि का पुनर्जन्म और विकास होगा। सम्भवतः इसीलिए शास्त्रों में अनेक स्थानों पर मन के विचारों मुख्यतः कुण्डलिनी छवि को भी पुत्र कह कर सम्बोधित किया जाता है। उदाहरण के लिए देव कार्तिकेय, सगर-पुत्र आदि। स्वाभाविक है कि सृष्टि पहले की तरह ही बनेगी क्योंकि पिछली सृष्टि के दबे पदार्थ ही उसे बना रहे हैं। नई सृष्टि बनने की प्रक्रिया और क्रम भी पुरानी की तरह ही होगा क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि जिस क्रम में कोई चीज टूट कर नष्ट होती है, वह लगभग उसी क्रम और प्रक्रिया में आगे से आगे जुड़ते हुए पुनः निर्मित होती है। यह भी हो सकता है कि बिग क्रन्च होने की बजाय बिग बैंग ही चलता रहे, जिससे अंत में सभी मूलकण भी एकदूसरे से दूर छिटक कर आकाश में विलीन हो जाएं। पर बनेगा तो तब भी ब्लैक होल जैसा ही। उसमें भी सब कुछ यहाँ तक कि प्रकाश भी टूट कर मूल अंतरिक्ष के अँधेरे में गायब हो जाएगा।

आदमी का सूक्ष्म शरीर भी एक ब्लैक होल ही है

आदमी भी तो ऐसे ही मरता है। सारे जीवन भर मानसिक ब्रह्माण्ड का निर्माण करता है। अंत में सब कुछ अँधेरनुमा ब्लैकहोल जैसे अव्यक्त में समा जाता है। आदमी के नए जन्म पर उसके नए मानसिक ब्रह्माण्ड का निर्माण इसी मानसिक या सूक्ष्म ब्लैकहोल से होता है। मतलब जैसी सूचना उस अँधेरे में दर्ज होती है, नया ब्रह्माण्ड भी वैसा ही बनता है। तभी तो कहते हैं कि आदमी का नया जन्म उसके पुराने जन्मों के अनुसार ही होता है।

ब्लैक होल में प्रकाश तो अनगिनत सितारों जितना समाया हो सकता है, पर वह दबा हुआ या अव्यक्त होता है। यह मृत्यु के बाद जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर अर्थात प्रेतात्मा की तरह है। उसमें अनेक जन्मों के जगत का प्रकाश समाहित होता है, पर वह दबा हुआ सा अर्थात अनभिव्यक्त सा होता है। ऐसा लगता है कि वह प्रकाश बाहर उमड़ने को बेताब है।

हरेक जीव एक ब्रह्माण्ड और ब्लैक होल के रूप में जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता रहता है

ब्लैक होल का अनुभवात्मक विवरण

मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि जीवात्मा का पुनर्जन्म एक मां के गर्भ में होता है। यह अनेक सम्भावनाओं में से एक है। जीवात्मा सूर्य-आदि मार्गों से भी जा सकती है, चंद्रादि मार्ग से भी, स्वर्ग भी जा सकती है और नर्क भी, किसी भी ग्रह या लोक-परलोक को जा सकती है, मुक्त भी हो सकती है, और बद्ध भी रह सकती है। इसका असली अनुभव तो ज्ञानी ऋषियों ने ही किया था, जिसका वर्णन उन्होंने वेद-शास्त्रों में किया है। हम तो उन्हींके अनुभवों की वैज्ञानिक विवेचना करने की कोशिश करते हैं। मेरा अनुभव तो यही है कि मैंने एकबार अपने मृत परिचित की जीवात्मा को अनुभव किया था। वह ब्लैक होल की तरह थी, मतलब उसमें उस आदमी का पूरा व्यक्तित्व समाया हुआ था, जो उसकी जीवित अवस्था से भी ज्यादा अनुभव हो रहा था, उसके पिछले सभी जन्मों के प्रभाव के साथ, पर फिर भी सबकुछ अंधेरनुमा ही था, हालांकि अंतहीन खुले आसमान की तरह। वैसे ही, जैसे ब्लैक होल में पूरा विश्व समाया होता है। ऐसा लग रहा था जैसे उनका जीवित अवस्था का प्रकाशमान जगत अर्थात उनका जीवनयात्रा की शुरुआत से लेकर अब तक का पूरा पिछला व्यक्तित्व किसी दबाव से दबा था, इससे वह अवस्था कज्जली या चमकीली काली थी, मतलब चेतना व सेल्फ अवेयरनेस अर्थात आत्मजागरूकता से भरा अंधेरा था वह, जड़ता या मूढ़ता से भरा नहीं, और शान्तियुक्त आनंद भी था उसमें, हालांकि प्रकाश की कमी से आनंद अधूरा था। ऐसा ही जैसे किसी को सुखचैन तो दो पर अँधेरी कोठरी में बंद रखो। शायद यह एक जानवर जैसा बंधन है जो एक अंधेरे कमरे में बंधा हुआ है, लेकिन अच्छी तरह से खिलाया और पानी पिलाया जाता है, इसलिए भगवान को पशुपति नाथ या जानवरों का स्वामी कहा जाता है। ऐसा लग रहा था कि वह दबा हुआ बैकग्राउंड प्रकाश पूरे जोर व विस्फोट से बाहर को फैलना चाहता हो अभिव्यक्ति के रूप में। सम्भवतः ब्लैक होल भी ऐसा ही होता है। इवेंट होरीजन के साथ देखने पर तो वह वैसा ही लगता है। इवेंट होरीज़ोन को आप आदमी के स्थूल शरीर जैसा या अभिव्यक्त रूप जैसा कह लो, और ब्लैक होल को इसके सूक्ष्म शरीर या दबे रूप जैसा। इवेंट होरीज़ोन में पूरा दृश्य जगत प्रकाशमान और स्थूल होता है, जबकि ब्लैक होल के अंदर वह सूक्ष्मता और अँधेरे में चला जाता है, रहता वहाँ भी पूरा ही है। विचित्र अवस्था होती है सूक्ष्म शरीर की। फिर वो जीवात्मा कई दिन बाद दिव्य जैसी अवस्था में टहलते हुए महसूस हुई। सम्भवतः वह स्वर्ग या मुक्ति की तरफ जा रही थी। मैंने इसका सविस्तार वर्णन एक पुरानी पोस्ट में किया है। मैं इस अनुभव के दौरान तांत्रिक कुण्डलिनी योग का गहन अभ्यास कर रहा था। सम्भवतः इसी ने मुझे उस दिव्य अनुभव के योग्य बनाया था। वह शुभचिंतक प्रेतात्मा थी। इसी तरह एकबार मुझे योगाभ्यास के बीच में ही कुछ अशुभ प्रेतात्माओं के सूक्ष्म शरीरों का अनुभव भी हुआ था। वे हिंसक व गुस्सैल व रक्तपिपासु जैसे लग रहे थे। दरअसल सूक्ष्म शरीर अपनी आत्मा के अंदर या आत्मा के रूप में महसूस होते हैं। वह एक अहसास होता है, जिसके लिए विचारों का घोड़ा दौड़ाने की जरूरत नहीं होती। आपको चीनी की मिठास क्या विचार बताते हैं। नहीं, वह एक अपना अंदरूनी अहसास होता है। उसके साथ पीछे से अच्छे विचार आए, वह अलग बात है। उसी तरह उन दुष्ट प्रेतों के अहसास के साथ कुछ हड्डीनुमा, लाल आँखों वाले व बड़े नुकीले दांतों व गुस्से वाले चित्र तो मन में बने, पर वे तो अहसास का पीछा करने वाले विचार होते हैं, अहसास नहीं। सूक्ष्म शरीर तो एक अहसास ही होता है, बिना किसी भौतिक रूपरंग का। मस्तिष्क एक थिएटर मेन की तरह होता है, जो अहसास या मूड के अनुसार चित्र बना लेता है। मैंने गुरु स्मरण से उस घटिया अहसास को शांत किया। वह अहसास 10-20 सेकंड जितना ही रहा होगा। उसके एक-दो दिन बाद एक बुरी घटना टलने की खुशखबरी मिली। इसी तरह मैंने बताया था कि किस तरह जीव का जन्म होता है। यह भी मैं शास्त्रों में लिखी बातों को वैज्ञानिक अमलीजामा पहना रहा था, कुछ अपना हल्का अनुभव भी है, हालांकि वह गहरा या निर्णायक अनुभव नहीं है। एक उपनिषद में तो एक जगह यहाँ तक कहा गया है कि जीवात्मा बादलों तक पहुंच कर बारिश के जल में घुलकर जमीन पर आ जाती है, फिर जड़ों से होकर अन्न के पौधे में घुस जाती है। जब कोई आदमी उस अन्न के दाने को खाता है, तो उसके शरीर से होकर उसके वीर्य में पहुंच जाती है। उससे उसकी पत्नि के गर्भ में प्रविष्ट होकर जन्म ले लेती है।

जो भौतिक विज्ञान की पहुंच से परे हो, वहाँ आध्यात्मिक योग-विज्ञान से ही पहुंचा जा सकता है

भौतिक वैज्ञानिक ब्लैक होल के अँधेरे में झाँकने में अस्मर्थ हैं। पर योग विज्ञान इशारा कर रहा है कि उसमें सभी पदार्थ अदृष्य आत्मा अर्थात अदृष्य आसमान के रूप में विद्यमान रहते हैं, जिन्हें आसमान रूप आत्मा के द्वारा सीधा अनुभव तो किया जा सकता है पर भौतिक इन्द्रियों के द्वारा नहीं। जीव का सूक्ष्म शरीर भी वैसा ही होता है।

ब्लैक होल ब्रह्माण्ड-शरीर अर्थात ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर है

एलियन हरेक भौतिक पदार्थ के रूप में उपस्थित रहकर हमारे सबसे निकट होते हुए भी सबसे दूर हैं

उपरोक्त तथ्यों से तो यही सिद्ध होता है। देहरहित सूक्ष्मशरीर व कारण शरीर के बीच मुझे कोई ज्यादा अंतर नहीं लगता। दोनों में ही क्वांटम फ्लकचूएशनस आत्मा में रिकॉर्ड हो जाती हैं। यही मामुली सा अंतर है कि सूक्ष्मशरीर थोड़े समय के लिए रहता है, क्योंकि उसको स्थूल रूप में प्रकट करने के लिए भौतिक सृष्टि का वजूद होता है, जबकि कारण शरीर लम्बे समय तक बना रहता है, क्योंकि उस समय सृष्टि की प्रलयावस्था होती है, और कहीं कुछ भी भौतिक रूप में नहीं होता। इसके अलावा, कारण शरीर पूरी तरह से शांत दिखाई देता है क्योंकि इसमें किसी भी क्वांटम लहर की उतार-चढ़ाव को आकर्षक भूतिया अभिव्यक्ति के रूप में लंबे समय तक अनुभव नहीं किया जाता है, जैसा कि कभी-कभी सूक्ष्म शरीर के मामले में होता है। इसका मतलब है कि आम जीव की तरह ब्रह्मा नाम के जीव का अस्तित्व भी है, जैसा शास्त्रों में कहा गया है। ब्रह्माण्ड ही उसका शरीर है। यह अलग बात है कि वह इससे बद्ध नहीं होता। प्रलय के समय ब्रह्मा की आत्मा में ब्रह्माण्ड रिकॉर्ड हो जाता है। सृष्टि के समय वह फिर अपने पुराने स्थूल रूप में प्रकट हो जाता है। पर शास्त्र कहते हैं कि ब्रह्मा प्रलय के समय अपनी मृत्यु के साथ मुक्त हो जाता है। फिर नई सृष्टि के लिए वो रेकॉर्डिंग कहाँ रहती है। मतलब साफ है कि वह जीवनमुक्त हो जाता है, विदेहमुक्त नहीं। मतलब उसका शरीर और जन्म-मृत्यु का चक्र बना रहता है, पर मुक्ति के अहसास के साथ। पर जीवनमुक्त तो वह पहले भी था। ऐसा शायद यह दर्शाने के लिए लिखा गया है कि जीव और ब्रह्मा की गति एक जैसी है। ब्रह्मा और जीव में कोई अंतर नहीं। जीवनमुक्त के बारे में जो कुछ भी सोच लो, वह सही ही होता है, क्योंकि वह किसी से प्रभावित ही नहीं होता। यह ऐसे ही है जैसे कुछ अंतरिक्ष वैज्ञानिक अंदेशा जता रहे हैं कि हमें एलियन इसलिए नहीं दिखते क्योंकि वे भौतिक पदार्थों के रूप में ढल गए हैं, और ऐसे बन गए हैं कि वे हर जगह हैं भी और नहीं भी। पूरा ब्रह्माण्ड भी ऐसा ही एक विशालकाय एलियन हो सकता है। सम्भवतः इस बात को जानकर ही सभी चीजों को देवता मानने की और उनको विभिन्न रूपों में पूजने की परम्परा शुरु हुई थी। ऐसे जीवनमुक्त लोग ही तो होते हैं। फिर शास्त्र कहते हैं कि कोई भी जीव तरक्की करते हुए ब्रह्मा बन सकता है। इसका मतलब मुझे यही लगता है कि ब्रह्मा की तरह पूर्ण जीवनमुक्त बन सकता है, न कि असली ब्रह्मा।

शिव अगर सरोवर है तो शक्ति उसमें हलचल पैदा करने वाला हवा का झोँका है

मान लेते हैं कि सरोवर में जल की हलचल की तरह अंतरिक्ष में क्वांटम फ्लकचूएशनस हमेशा विद्यमान रहती हैं, जिसे हम अव्यक्त कहते हैं। यह भी मान लेते हैं कि महाप्रलय के समय अंतरिक्ष एक पूर्ण शांत जल-सरोवर की तरह हो जाता है, जिसमें बिल्कुल भी हलचल नहीं रहती, मतलब क्वांटम फ्लकचूएशनस भी थम जाती हैं। इसे परम अव्यक्त भी कह सकते हैं और परम व्यक्त या परमात्मा भी। जैसे हवा के झोंके से जल की सतह पर बार-बार उसी किस्म की तरंगों के पैटर्न  उसी क्रम में बनते रहते हैं, उसी तरह अंतरिक्ष में भी उसी किस्म की सृष्टि उसी निश्चित क्रम में बारबार बनती रहती है। पर फिर भी अंत में प्रश्न यही बचता है कि प्रलय के अंत में जब सब कुछ शून्य होता है, तब वह ऊर्जा या शक्ति कहाँ से आती है, जो उस हलचल को बढ़ा देती है। शून्य में वो हवा का झोंका कहाँ से आता है, जो शुरुआती हलचल को पैदा करता है। बाद में तो यह भी मान सकते हैं कि हलचल से हलचल खुद ही आगे से आगे बढ़ती रहती है। अंतरिक्ष में चलने वाला वह हवा का झोंका ही वह शक्ति है, जिसे शाक्त सम्प्रदाय वाले लोग शिव की तरह शाश्वत और अविनाशी मानते हैं। शिव अगर निश्चल अंतरिक्ष है, तो शक्ति उसमें हलचल पैदा करने वाला हवा का झोंका है।

कुण्डलिनी योग से ही ब्रह्माण्ड एक देवता या विशालकाय एलियन बनता है

शून्य में विद्युत्चुंबकीय तरंग

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि विद्युत्चुंबकीय क्षेत्र या तरंग से मानसिक दुनिया बनती है। तो फिर यह क्यों न मान लिया जाए कि बाहर का भौतिक संसार भी इन्हीं तरंगों से बनता है। यही अंतर है कि मानसिक संसार में ये तरंगें अस्थिर होती हैं, और आँखों आदि इन्द्रियों के माध्यम से बाहर से लाई जा रही सूचनाओं के अनुसार लगातार बदलती रहती हैं, पर बाहर के स्थूल जगत में ये किसी बल से स्थिरता पाकर स्थायी मूलकणों की तरह व्यवहार करने लगती हैं, जिनसे दुनिया आगे से आगे बढ़ती जाती है। दिमाग़ में तो विद्युत्चुंबकीय तरंग मूलाधार से आ रही ऊर्जा से बनती है, पर बाहर शून्य अंतरिक्ष में यह ऊर्जा कहाँ से आती है, यह खोज का विषय है।

फील्ड से कण और कण से फील्ड का उदय

क्वांटम फील्ड थ्योरी सबसे आधुनिक और स्वीकृत है। इसके अनुसार हरेक कण और बल की एक सर्वव्यापी फील्ड मौजूद होती है। फील्ड मतलब प्रभाव क्षेत्र, कण की फील्ड मतलब कण का प्रभाव क्षेत्र। अंतरिक्ष शून्य नहीं बल्कि इन फील्डों से भरा होता है। फील्ड मतलब पोटेंशल, तरंग व कण बनाने की योग्यता। यह फील्ड एक सबसे हल्के स्तर की लहर होती है। मुझे लगता है यह ऐसे है कि जब एक कंकड़ एक जल-सरोवर में गिराया जाता है तो एक मुख्य लहर के साथ छोटी लहरों के झुंड के रूप में विक्षोभ पैदा होता है। मुख्य बड़ी तरंग कण के समान है और छोटी तरंगें उसके क्षेत्र या फील्ड के समान हैं। जिस क्षेत्र तक इन सूक्ष्म तरंगों का अनुभव होता है, वह कण के रूप में स्थित उस मुख्य तरंग का फील्ड का दायरा होता है। जब इलेक्ट्रोन की फील्ड में किसी पॉइंट को एनर्जी मिलती है तो वहां फील्डरूपी छोटी लहर का एम्प्लीचूड या आयाम बढ़ जाता है, और वहाँ एक कण का उदगम होता है। वह इलेक्ट्रोन है। ये आधारभूत फील्ड सबसे छोटे कण क्वार्क से भी सूक्ष्म होती हैं। इसी तरह इलेक्ट्रोन के चारों तरफ भी एक फील्ड बनती है। मतलब इलेक्ट्रोन रूपी बड़ी लहर के चारों तरफ भी एक सूक्ष्म लहरों का क्षेत्र बन जाता है। वह प्रोटोन से भी इसी इलेक्ट्रोमेग्नेटीक फील्ड से ही दूर से आकर्षित होकर उससे जुड़ जाता है। इस आकर्षण की फील्ड तरंगों से भी विशेष सूक्ष्म कण सम्भवतः फोटोन पैदा होता है, जो इस आकर्षण को क़ायम करता है। इस तरह फील्ड से कण और कण से फील्ड पैदा होकर बाहर की स्थूल संसार रचना को आगे से आगे बढ़ाते रहते हैं।

अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त का उदय

मन भी तो क्वांटम फील्ड की तरह होता है। इसमें हरेक किस्म का संकल्प अदृष्य रूप अर्थात अदृष्य लहर के रूप में रहता है। इसे सांख्य दर्शन के अनुसार अव्यक्त कहते हैं। जब इसे मूलाधार से एनर्जी मिलती है, तब इस मानसिक क्वांटम फील्ड की लहरें बड़ी होने लगती हैं, जो स्थूलकण रूपी चित्रविचित्र संसार पैदा करती हैं। उससे और फील्ड पैदा होती है, जिससे और विचार पैदा होते हैं। इस तरह यह सिलसिला चलता रहता है और आदमी के विचार रुकने में ही नहीं आते। अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त पैदा होकर भीतरी मानसिक संसार रचना को आगे से आगे बढ़ाते रहते हैं।

क्वांटम भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक मनोविज्ञान के बीच समानता

प्रकृति या अव्यक्त ही वह हल्के स्तर की आधारभूत लहर है। अव्यक्त व्यक्त से ही बना है, अव्यक्त मतलब हल्के स्तर का व्यक्त। हालांकि उसके मूल में भी निश्चेष्ट या अवर्णनीय पुरुष ही है। अंत के पैराग्राफ में बताऊंगा कि निश्चेष्ट या गतिहीन पुरुष क्यों कुछ काम नहीं कर पाता। क्यों उसे मूक दर्शक की तरह माना जाता है, जो अपनी उपस्थिति मात्र से प्रकृति की मदद तो करता है, पर खुद कुछ नहीं करता। सारा काम प्रकृति ही करती है। पुरुष अर्थात शुद्ध आत्मा एक चुंबक की तरह है जिसकी तरफ खिंच कर ही प्रकृति से सब काम अनायास ही खुद ही होते रहते हैं। इसीलिए कहते हैं कि जो भगवान के सहारे है, उसका जीवन खुद ही अच्छे से कट जाता है। पर भगवान असली और अच्छी तरह से समझा हुआ होना चाहिए, जो कुण्डलिनी योग से ही संभव है। जैसे हमारा हरेक कर्म और विचार संस्कार रूप से पहले से ही सूक्ष्म रूप में हमारी अव्यक्त प्रकृति के रूप में मौजूद होता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं, उसी तरह हरेक क्वांटम कण भी अपनी क्वांटम फील्ड के रूप में पहले से ही मौजूद होता है। व्यष्टि मूलाधार मतलब शारीरिक मूलाधार से मिल रही शक्ति से व्यष्टि अव्यक्त मतलब शरीरबद्ध अव्यक्त या व्यष्टि फील्ड में क्षोभ पैदा होता है, जिससे विभिन्न लहरों के रूप में विचारों मतलब व्यष्टि मूलकणों का उदय होता है। इसी तरह समष्टि मूलाधार अर्थात ब्रह्माण्डव्याप्त मूलाधार अर्थात मूल प्रकृति से उत्पन्न शक्ति से समष्टि क्वांटम फील्ड में क्षोभ पैदा होता है, जिससे समष्टि मूलकण पैदा होते हैं। पर समष्टि जगत में ये शक्ति कहाँ से आती है? दार्शनिक तौर पर तो मूल प्रकृति को समष्टि मूलाधार मान सकते हैं, क्योंकि दोनों में मूल शब्द जुड़ा है, और दोनों ही सब सांसारिक रचनाओं के मूल आधार या नींव के पहले पत्थर हैं हैं, पर इसे वैज्ञानिक रूप से कैसे सिद्ध करेंगे? व्यष्टि के मूलाधार की तरह समष्टि मूलाधार में भी कोई सम्भोग क्रिया और उससे उत्पन्न सम्भोग-शक्ति होनी चाहिए। तो उसे पुरुष और प्रकृति के बीच सम्भोग क्यों न माना जाए, जिसका इशारा शास्त्रों में किया गया है।

संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया तांत्रिक कुण्डलिनी योग का भौतिक मार्ग ही है

दरअसल जीवों का जो अव्यक्तरूप सूक्ष्म शरीर है, वह मरने के बाद और भी सूक्ष्म हो जाता है, क्योंकि उस समय उसे स्थूल शरीर से बिल्कुल भी ऊर्जा नहीं मिल रही होती है। वह एक घने अँधेरे आत्माकाश की तरह हो जाता है, जिसका अंधेरा उसमें छिपे हुए अव्यक्त जगत के अनुसार होता है। वह अव्यक्त जगत भी व्यक्त जगत के अनुसार ही होता है। इसीलिए सब जीवों के सूक्ष्म शरीर उनके स्थूल स्वभाव के अनुसार अलग-अलग होते हैं। इस तरह से बहुत से जीवों के अव्यक्त आत्माकाश जब समष्टि अव्यक्ताकाश मतलब मूल प्रकृति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर एक निश्चित सीमा से ज्यादा अव्यक्त भाव अर्थात अंधकारमय आकाश बना देते हैं, तब वहाँ से एक शक्ति की लहर पुरुष की तरफ छलांग लगाती है। इसी से क्वांटम फील्ड में लहरों का एम्प्लीच्युड आदि बढ़ने से मूलकणों का उदय और सृष्टि का विस्तार शुरु होता है। यह ऐसे ही है जैसे कभी कोई आदमी अपनी सहन-सीमा से ज्यादा ही गम या अवसाद के अँधेरे में डूबने लग जाए, तो वह सम्भोग की सहायता से अपने मूलाधार के अँधेरे में डूबे अपने अव्यक्त मानसिक जगत को ऊपर चढ़ती हुई शक्ति के साथ सहस्रार की तरफ भेजने की कोशिश करता है, ताकि उसके विचारों का मानसिक संसार पुनः प्रकाशित होने लगे। शक्ति तो खुद एक वाहक या बल है, जो अव्यक्त जगत को व्यक्त बनाने में मदद करती है। शास्त्रों में भी यही कहा है कि जब जीवों के कर्म, फल देने को उन्मुख हो जाते हैं, अर्थात जब जीव अंधकार से ऊबने जैसे लगते हैं, तब वे प्रलय के बाद पुनः सृष्टि को प्रारम्भ करने की प्रेरणा देते हैं। यह सामूहिक अर्थात समष्टि सृष्टि और प्रलय है। व्यक्तिगत सृष्टि और प्रलय तो हरेक जीव के जन्म और मरण के साथ चली ही रहती है। सहज व प्राकृतिक मृत्यु के बाद कुछ समय तो जीव चैन की बंसी बजाता हुआ अव्यक्त में आराम करता है, फिर जल्दी ही उससे ऊब जाता है। इसलिए उस अव्यक्तरूप जीव को व्यक्त करने के लिए शक्ति पुरुष की तरफ बढ़ने की कोशिश करना चाहती है। देखा जाए तो शक्ति जाती कहीं नहीं है, क्योंकि पुरुष, प्रकृति और शक्ति तीनों व्यष्टि मूल प्रकृति में साथ-साथ ही रहते हैं। ऐसे ही जैसे अव्यक्त, व्यक्त और उनको बनाने वाली शक्ति मस्तिष्क में ही रहते हैं, पर अव्यक्त जगत मूलाधार से ऊपर चढ़ता हुआ महसूस होता है, क्योंकि पुरुष या मस्तिष्क की शक्ति को प्रेरित करने वाला विशेष सेकसुअल बल मूलाधार से ऊपर चढ़ता है। उसके लिए सम्भोग के माध्यम से एक आदमी और एक औरत का आपसी मिलन जरूरी होता है। संयोगवश उस मृत जीव की जीवात्मा किसी सम्भोगरत आदमी और औरत के जोड़े के मिश्रित मूलाधार में स्थित अव्यक्त जगत से मेल खाती है। दोनों का मिश्रित अव्यक्त जगत संभोग-शक्ति के माध्यम से ऊपर उठते हुए दोनों के हरेक चक्रोँ में दबी हुई भावनाओं व छिपे हुए विचारों को अपने साथ ले जाकर सहस्रार में आनंद के साथ व्यक्त हो जाता है, और एकदूसरे के सहस्रार चक्रोँ में आपस में मिश्रित ही बना रहता है। आदमी के सहस्रार से वह मिश्रित जगत आगे के चैनल से शक्ति के साथ नीचे उतरकर वीर्य में रूपांतरित होकर औरत के गर्भ में प्रविष्ट होकर एक बालक का निर्माण करता है। इसीलिए बालक में माता और पिता दोनों के गुण मिश्रित होते हैं। इसीलिए मांबाप के व्यवहार का बच्चों पर गहरा असर पड़ता है, क्योंकि तीनों की एनर्जी आपस में जुड़ी होती है। इसीलिए व्यवहार में देखा जाता है कि सम्भोग सुख के साथ प्रेम से रमण करने के आदी दम्पत्ति की संतानेँ बहुत तरक्की करती हैं, भौतिक रूप से भी और आध्यात्मिक रूप से भी। इसके विपरीत आपस में अजनबी जैसे रहने वाले दंपत्तियों के बच्चे अक्सर कुंठित से रहते हैं। यह अलग बात है कि कई अच्छी किस्मत वाले लोग इधरउधर से गुजारा कर लेते हैं। हाहा। अनुभवी तंत्रयोगी सम्भोग की, जगत को व्यक्त करने वाली कुण्डलिनी शक्ति को अपने सहस्रार में केवल एक ही ध्यानचित्र पर फोकस करते हैं, और उसे वीर्य रूपी बीज में नीचे न उतारकर लम्बे समय तक वहीं रोककर रखते हैं, जिससे वह मानसिक चित्र जागृत हो जाता है। इसे ही तांत्रिक कुण्डलिनी जागरण कहते हैं।

पूरा ब्रह्माण्ड ही एक एलियन

इन उपरोक्त तथ्यों का मतलब है कि ब्रह्माण्ड भी एक विशालकाय जीव या मनुष्य की तरह व्यवहार करता है। इससे वैदिक उक्ति, “यत्पिंडे तत् ब्रह्मान्डे” यहाँ भी वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो जाती है। इसका मतलब है कि जो कुछ भी छोटी चीज जैसे शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में भी है, अन्य कुछ नहीं। पिंड यहाँ शरीर को ही कहा है, अन्य किसी चीज को नहीं, क्योंकि किसीकी मृत्यु के बाद जब उसे श्राद्ध आदि के द्वारा खाने-पीने की चीजें दी जाती हैं, उसे पिंडदान कहते हैं। क्योंकि अगर हरेक छोटी चीज के बारे में कहना होता तो अंडे, खंडे आदि दूसरे शब्द ज्यादा बेहतर होते, पिंडे नहीं। दूसरा, पंजाबी भाषा में वह स्थान जहाँ लोग सामूहिक रूप से एकसाथ रहते हैं, जिसे गाँव कहते हैं, वह पिंड कहलाता है। मूल प्रकृति ब्रह्माण्ड का मूलाधार है, और चेतन पुरुष या परमात्मा इसका सहस्रार या उसमें कुण्डलिनी जागरण है। चित्रविचित्र संसारों की रचना के रूप में ही इसका जीवनयापन या कर्मयोग या इसका कुण्डलिनी जागरण की तरफ बढ़ना है। ऐसा यह अद्वैत के साथ करता है। शास्त्रों में ऐसा ही लिखा है कि ब्रह्मा खुद कहते हैं कि वे अद्वैतभाव के साथ सृष्टि की रचना करते हैं, जिससे वे जन्ममरण के बंधन में नहीं पड़ते। इसलिए यही इसका कुण्डलिनी योग है। अद्वैत और कुण्डलिनी योग आपस में जुड़े हुए हैं। सृष्टि का संपूर्ण निर्माण ही इसका कुण्डलिनी जागरण है। जैसे कुण्डलिनी जागरण के बाद आदमी को लगता है कि उसने सबकुछ कर लिया, इसी तरह सबकुछ कर लेने के बाद ब्रह्मा को कुण्डलिनी जागरण होता है, यह इसका मतलब है। इसके बाद सृष्टि निर्माण से उपरत होकर इसका संन्यास लेना ही सृष्टि विस्तार का धीमा पड़ना और रुक जाना है। देहांत के बाद इसका परम तत्त्व में मिल जाना ही प्रलय है। शास्त्रों में इसीलिए देव ब्रह्मा की कल्पना की गई है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही जिसका शरीर है। आजकल विज्ञान भी इस अवधारणा पर विश्वास करने लग गया है। इसीलिए एक वैज्ञानिक थ्योरी यह भी सामने आ रही है कि हो सकता है कि पूरा ब्रह्माण्ड ही एक विशालकाय एलियन हो।

जिसे हम अंधेरनुमा शून्य या अव्यक्त कहते हैं, वह भी खाली नहीं बल्कि सीमित उतार-चढ़ाव वाली जगतरूपी तरंगों से भरा होता है

अगर चैतन्यमय आत्माकाश या परमात्मा में कोई बहुत ज्यादा स्थित हो जाए या लगातार आत्माकाश में ही स्थित रहने लगे तो वह कुछ काम भी नहीं कर सकता। वह पराश्रित व नादान सा रहता है संन्यासी की तरह। इसका मतलब है कि उस समय उसमें व्यक्त दुनिया अव्यक्त आकाश के रूप में नहीं रहती। मतलब वह शुद्ध आत्माकाश बन जाता है। मतलब उसके आत्माकाश में क्वांटम फील्ड नाम की बिल्कुल भी वाइब्रेशनस नहीं रहतीं। वह पूर्ण चिदाकाश बन जाता है। इसी वजह से स्थूल ब्रह्माण्ड में भी उस जगह आकाश खाली होता है, जहाँ वाइब्रेशन नहीं होतीं। अन्य स्थान ग्रहों-सितारों से भरे होते हैं। वर्चुअल पार्टिकल तो बनते रहते हैं थोड़ी-बहुत वाइब्रेशन से। मतलब थोड़ा-बहुत काम-वाम तो वे संन्यासी भी कर लेते हैं, पर कोई निर्णायक कार्य-अभियान या व्यापार-धंधा नहीं चला पाते। हाँ, एक बीच वाला हरफनमौला तरीका भी है कि तांत्रिक योग से आत्माकाश में लगातार कंपन बनाते भी रहो और मिटाते भी रहो, और सबकुछ करते हुए भी उससे अछूते बने रहो।

अब तो पुष्प खिलने दो, अब तो सूरज उगने दो~कुंडलिनी रूपकात्मक आध्यात्मिक कविता

अब तो पुष्प खिलने दो

अब तो सूरज उगने दो।

भौँरा प्यासा घूम रहा

हाथी पगला झूम रहा।

पक्षी दाना चौँच में लेके

मुँह बच्चे का चूम रहा।

उठ अंगड़ाई भरभर के अब

नन्हें को भी जगने दो।

अब तो पुष्प--

युगों युगों तक घुटन में जीता

बंद कली बन रहता था।

अपना असली रूप न पाकर

पवनवेग सँग बहता था।

मिट्टी खाद भरे पानी सँग

अब तो शक्ति जगने दो।

अब तो पुष्प ---

लाखों बार उगा था पाकर

उपजाऊ मिट्टी काया।

कंटीले झाड़ों ने रोका या

पेड़ों ने बन छाया।

खिलते खिलते तोड़ ले गया

जिसके भी मन को भाया।

हाथी जैसे अभिमानी ने

बहुत दफा तोड़ा खाया।

अब तो इसको बेझिझकी से

अपनी मंजिल भजने दो।

अब तो पुष्प--

अबकी बार न खिल पाया तो

देर बहुत हो जाएगी।

मानव के हठधर्म से धरती

न जीवन दे पाएगी।

करो या मरो भाव से इसको

अपने काम में लगने दो।

अब तो पुष्प --

मौका मिला अगर फिर भी तो

युगों का होगा इंत-जार।

धीमी गति बहुत खिलने की

एक नहीं पंखुड़ी हजार।

प्रतिस्पर्धा भी बहुत है क्योंकि

पूरी सृष्टि खुला बजार।

बीज असीमित पुष्प असीमित

चढ़ते मंदिर और मजार।

पाखण्डों ढोंगों से इसको

सच की ओर भगने दो।

अब तो पुष्प खिलने दो

अब तो सूरज उगने दो।

कुंडलिनी जागरण ही सृष्टि विकास का चरम बिंदु है, फिर ब्रह्मांड के विकास का क्रम बंद हो जाता है, और स्थिरता की कुछ अवधि के बाद, प्रलय की प्रक्रिया शुरू हो जाती है

दोस्तों, मैंने पिछली पोस्ट में लिखा था कि सृष्टि का विकास केवल कुंडलिनी विकास के लिए है, और कुंडलिनी जागरण के साथ, सृष्टि का विकास पूरा हो जाता है, और उसके बाद रुक जाता है। आज हम चर्चा करेंगे कि उसके बाद क्या होता है। दरअसल, प्रलय की घटना हमारे शरीर के अंदर ही होती है, बाहर नहीं।

हिंदू पुराणों में प्रलय का वर्णन

हिंदू पुराणों के अनुसार, चार युग बीत जाने पर प्रलय होता है। पहला युग है सतयुग, दूसरा युग है द्वापर, तीसरा है त्रेता और अंतिम युग है कलियुग। इन युगों में मानव का क्रमिक पतन हो रहा है। सतयुग को सर्वश्रेष्ठ और कलियुग को सबसे बुरा बताया गया है। जिस क्रम से संसार का निर्माण होता है, उसी क्रम में प्रलय भी होता है। पंचतत्व इंद्रिय अंगों में विलीन हो जाते हैं। इंद्रियाँ तन्मात्राओं या सूक्ष्म अनुभवों में विलीन हो जाती हैं। पंचतन्मात्राएँ अहंकार में विलीन हो जाती हैं। अहंकार महात्त्व या बुद्धि में विलीन हो जाता है। अंत में, महातत्व प्रकृति में विलीन हो जाता है। आपदा के अंत में, प्रकृति भी भगवान में विलीन हो जाती है।

चार युग मानव जीवन के चार चरणों और चार आश्रमों के रूप में हैं

मनुष्य के बचपन को सतयुग कहा जा सकता है। इसमें मनुष्य सभी मानसिक और शारीरिक विकारों से मुक्त होता है। वह देवता के समान सत्यस्वरूप होता है। फिर किशोरावस्था आती है। इसे द्वापर नाम दिया जा सकता है। इसमें मन में कुछ विकार उत्पन्न होने लगता है। तीसरा चरण परिपक्वता आयु है, जिसमें एक व्यक्ति दुनियादारी की उलझनों से बहुत उदास हो जाता है। अंतिम चरण बुढ़ापे का है। यह कलियुग की तरह है, जिसमें मन और शरीर की विकृति के कारण अंधकार व्याप्त होता है। इसी प्रकार मानव जीवन के चार आश्रम या निवास भी चार युगों के रूप में हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम को सतयुग कहा जा सकता है, गृहस्थ का निवास द्वापरयुग है, वानप्रस्थ त्रेतायुग है और संन्यास आश्रम कलियुग है। वास्तव में होलोकॉस्ट या प्रलय को देखकर इन अवस्थाओं का बाहर से मिलान किया जा रहा है। वैसे तो शरीर की किसी भी अवस्था में, कोई भी व्यक्ति मन के किसी भी उच्च स्तर पर हो सकता है।

मानव मृत्यु को ही प्रलय के रूप में दर्शाया गया है

जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में स्पष्ट किया था कि मनुष्य अपने मन के बाहर की दुनिया को कभी नहीं जान सकता। उसकी दुनिया उसके दिमाग तक सीमित है। इसका मतलब यह है कि तब सांसारिक निर्माण और प्रलय भी मन में हैं। इस मानसिक संसार का वर्णन पुराणों में मिलता है। हम धोखे में पड़ जाते हैं और इसे भौतिक दुनिया में व बाहर समझ लेते हैं। कुंडलिनी जागरण या मानसिक परिपक्वता के बाद मनुष्य का लगाव बाहरी दुनिया में नहीं होता है। वह अद्वैत भाव और वैराग्य के साथ रहता है। हम इसे ब्रह्मांड के पूर्ण विकास के बाद इसका स्थायित्व कह सकते हैं। फिर उसके जीवन के अंतिम दिनों में, प्रलय की प्रक्रिया शुरू होती है। कमजोरी के कारण, वह दुनियादारी का काम छोड़ देता है और अपने शरीर के रखरखाव में व्यस्त रहता है। एक तरह से हम कह सकते हैं कि पंचमहाभूत या पाँच तत्व इंद्रियों में विलीन हो जाते हैं। फिर समय के साथ उसकी इंद्रियाँ भी कमजोर होने लगती हैं। कमजोरी के कारण उसका ध्यान इंद्रियों से आंतरिक मन की ओर जाता है। वह अपने हाथ से पानी नहीं पी सकता। दूसरे उसे मुँह में पानी भरकर पिलाते हैं। वह पानी के रस को महसूस करता है। आसपास के परिचारक उसके मुंह में खाना डालकर उसे खाना खिलाते हैं। वह भोजन का स्वाद और गंध महसूस करता है। परिजन उसे अपने हाथों से नहलाते हैं। उसे पानी का स्पर्श महसूस होता है। अन्य लोग उसे विभिन्न चित्र आदि दिखाते हैं। दूसरे उसे कथा कीर्तन या ईश्वरीय कहानियाँ सुनाते हैं। वह उनकी मीठी और ज्ञान से भरी आवाज़ को महसूस करके आनन्दित होता है। एक तरह से, इंद्रियाँ पंचतन्मात्राओं या पाँच सूक्ष्म आंतरिक अनुभवों में विलीन हो जाती हैं। यहां तक कि बढ़ती कमजोरी के साथ, आदमी को पंचतन्मात्राओं का अनुभव करने में भी कठिनाई होती है। तब उसके प्यारे भाई उसे नाम से बुलाते हैं। इससे उसके अंदर थोड़ी ऊर्जा का प्रवाह होता है, और वह खुद का आनंद लेने लगता है। हम कह सकते हैं कि पंचतन्मात्राएँ अहंकार में विलीन हो गईं। कमजोरी के और बढ़ने के साथ ही उसके अंदर अहंकार का भाव भी कम होने लगता है। नाम से पुकारे जाने पर भी वह फुर्ती हासिल नहीं करता। अपनी बुद्धि के साथ, वह अंदर ही अंदर अपनी स्थिति के बारे में विश्लेषण करना शुरू कर देता है, क्या इसका कारण है, क्या उपाय और क्या भविष्य का परिणाम है। एक तरह से अहंकार महत्तत्त्व या बुद्धि में विलीन हो जाता है। उसके बाद बुद्धि में भी सोचने की ऊर्जा नहीं रहती है। मनुष्य निर्जीव की तरह हो जाता है। उस अवस्था में वह या तो कोमा में चला जाता है या मर जाता है। हम इसे महत्तत्त्व के प्रकृति में विलय के रूप में कहेंगे। जैसा कि पिछली पोस्ट में बताया गया है, उस स्तर पर सभी गुण संतुलन में आते हैं। न वे बढ़ते हैं, न घटते हैं। वे वही रहते हैं। वास्तव में, यह विचारशील मस्तिष्क है जो प्रकृति के गुणों को बढ़ाने और घटाने के लिए लहरें प्रदान करता है। यह एक साधारण बात है कि जब मस्तिष्क ही मृत हो गया है, तो गुणों को विचारों का झटका कौन देगा। अज्ञानी लोग मूल प्रकृति  जितना ही दूर जा पाते हैं। इस प्रकार के लोग बार-बार जन्म और मृत्यु के रूप में आगे-पीछे आते रहते हैं। शास्त्रों के अनुसार प्रबुद्ध एक कदम आगे बढ़ सकता है। उसके मामले में प्रकृति पुरुष में विलीन हो जाती है। पुरुष पूर्ण और प्रकाशस्वरूप है। उसमें गुण नहीं होते। वह निर्गुण है। वहाँ से पुनर्जन्म नहीं होता।

कुण्डलिनी ही माता पार्वती है, जीवात्मा ही भगवान शिव है, और कुण्डलिनी जागरण ही शिवविवाह है

दोस्तो, पिछली पोस्ट में इस सर्वविदित सिद्धांत की पुष्टि की गई थी कि दरअसल कुंडलिनी विकास को ही जीवविकास की संज्ञा दी गई है। कुंडलिनी मूलाधार में जन्म लेती है, विभिन्न स्थानों पर बढ़ती है, और अंत में सहस्रार में जागृत हो जाती है। इसे ही शिवविवाह कहते हैं। जैसे उच्च कोटि के गृह में विवाह के बाद प्रेमी युगल विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करता है, वैसे ही आत्मा-कुंडलिनी का जोड़ा सहस्रार में विवाहित होकर विभिन्न चक्रों पर भ्रमण करता रहता है। इसे ही शास्त्रों में ऋषियों का विभिन्न लोकों में भ्रमण बताया गया है। दरअसल वे लोक विभिन्न चक्रों के रूप में ही हैं। आज हम इस पर चर्चा करेंगे।

कुंडलिनी ही पार्वती है

अहंकार ही राजा दक्ष है। उसकी बेटी सती ही कुंडलिनी है। अहंकार से ही आदमी दुनियादारी में कामयाब होता है। उसी से एक स्थिर चित्र का निर्माण होता है, जो कुंडलिनी है। अहंकार रूपी दक्ष नहीं चाहता कि उसकी पुत्री कुंडलिनी भूतिया शिव के पीछे भागकर उसकी दुनियादारी को नुकसान पहुंचाए। अंत में वह हार जाता है और सती शिव को प्राप्त करने के लिए कुंडलिनी योग रूपी तप करती है। वह उसकी इच्छा के विरुद्ध जाकर शिव से विवाह कर लेती है मतलब कुंडलिनी जाग जाती है। अहंकार काफी कम हो जाता है पर मरता नहीं। वह कुंडलिनी को शिव से दूर करके अपने झमेले में फंसा लेता है। जब कुंडलिनी को यह भान होता है तब तक उसकी उमर पूरी हो चुकी होती है। गुस्से में शिव के द्वारा दक्ष का सिर काटकर बकरे का सिर लगाने का अर्थ है कि अहंकार शरीर के साथ भी नहीं मरता, अपितु कुछ क्षीण जरूर हो जाता है। अगले जन्म में कुंडलिनी रूपी सती पार्वती के रूप में पर्वत राज के घर पैदा होती है। वह शिव की प्राप्ति के लिए फिर तप करती है। कुंडलिनी अपना अभियान अगले जन्म में फिर से शुरु कर देती है। मैटाफोरिक कथा में इसका मतलब है कि उस कुंडलिनी को धारण करने वाला योगी अपने अगले जन्म में अपने अंतिम लक्ष्य की पूर्ति के लिए हिमालय में योगसाधना करने चला जाता है। वहाँ इंद्र अपनी गद्दी खो जाने के डर से कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने के लिए भेजता है। शिव उसे अपनी दृष्टि से जला देते हैं। यहाँ शिव, योगी की सुप्त अंतरात्मा हैं। कामदेव दुनिया की रंगरलियों का रूपक है। यदि योगी की कुंडलिनी उसकी आत्मा से मिलन को उत्सुक हो, तो दुनिया की रंगरलियां आत्मा का अहित नहीँ कर सकतीं, बल्कि खुद ही क्षीण हो जाती हैं। पार्वती के माता-पिता प्रारंभ में पार्वती को शिव से विवाह से रोकते हैं। दरअसल मन-बुद्धि ही पार्वती के माता पिता के प्रतीक हैं। कुंडलिनी की उत्पत्ति उन्हीं से होती है। वे कुंडलिनी से दुनियादारी की उपलब्धियों की ही अपेक्षा रखते हैं, उसे ईश्वर की प्राप्ति के लिए तप आदि प्रयास नहीं करने देना चाहते। शिव भी पार्वती को हतोत्साहित करने के लिए उसे घटिया भेष में मिलकर शिव की बुराइयां सुनाते हैं। दरअसल वह अज्ञान से ढकी प्रारंभिक योगी की आत्मा ही है जो भगवान के बारे में भ्रम पैदा करती रहती है। पर पार्वती तप में लगी रहती है। अंत में शिव प्रसन्न होकर उससे विवाह कर लेते हैं, मतलब कुंडलिनी जागरण हो जाता है। फिर पार्वती कैलाश को चली जाती है, मतलब कुंडलिनी सहस्रार में बस जाती है। उसके कार्तिकेय बेटा पैदा होता है। वह दिव्य सेना का अधिपति है। उसके बेटा गणेश भी जन्म लेता है, जो समस्याओं से बचाता है, और विघ्नों को हरता है। वास्तव में ये सभी काम जागृत कुंडलिनी के ही हैं। दिव्य सेना यहाँ शरीर की इन्द्रियों की प्रतीक है। शिवपुराण की मिथक कथा में शिव को भूत की तरह दिखाया गया है, जिसके प्रति पार्वती आकर्षित होती है। उसके माँ बाप उसे रोकते हैं। दरअसल अज्ञान से ढकी आत्मा ही शिव है, जो बाहर से अंधेरे भूत की तरह लगती है। पर असल में अंदर से वह प्रकाशरूप ही होती है। अहंकार और बुद्धि ही पार्वती रूपी कुण्डलिनी के माँ-बाप हैं। ये उसे शिव की ओर जाने से रोकते हैं।कालिदास के कुमारसम्भव के अनुसार पार्वती शिव को गुफा के वीराने से गृहस्थ जीवन की मुख्य धारा में लाना चाहती है। कुण्डलिनी भी इसी तरह से अज्ञाननिद्रा में डूबी आत्मा को जगाना चाहती है। साथ में लिखा है कि कामदेव के भस्म होने से सृष्टि व्यवस्था थम सी गई थी। फिर पार्वती ने शिव से विवाह किया और उनसे कामदेव को पुनर्जीवित करवाया। फिर सृष्टि की प्रक्रिया पुनः प्रारंभ हो गई। जब तक तीव्र कुंडलिनी योगसाधना चली होती है, तब तक योगी दुनियादारी से दूरी सी बना कर रखता है। कुण्डलिनी जागरण के बाद उसका मन पुनः दुनिया में रम जाने का करता है, यद्यपि ज्ञान के साथ। इसे ही कामदेव का पुनर्जन्म कहा गया है।देवीभागवत पुराण के अनुसार, पर्वत राज हिमालय और उसकी पत्नी मैना भगवती आदि पराशक्ति को प्रसन्न करती है। वही पार्वती के रूप में उनकी बेटी बन जाती है। वास्तव में अज्ञान से ढकी आत्मा ही पर्वत राज हिमालय है, और बुद्धि मैना है। जब दोनों अच्छे सांसारिक कर्मों से व मानवता से शक्ति को प्रसन्न करते हैं तो वह कुंडलिनी के रूप में उनके शरीर में स्थायी रूप से बस जाती है। 
पार्वती अपने लास्य नृत्य से शिव को शांत करती हैं, जब वे विनाशकारी तांडव नृत्य करते हैं। असल में अज्ञान से भरी हुई जीवात्मा अशांत व भटकी हुई होती है। वह बहुत से गलत काम करती है। कुंडलिनी ही उसे प्रकाश प्रदान करके सन्मार्ग दिखाती है।
शाक्त के अनुसार, शिव पार्वती के घर पर निवास करते हैं। यहाँ पार्वती को मुख्य और शिव को गौण माना गया है। उनके आपसी विवाद से शिव नाराज होकर घर छोड़कर जाने लगते हैं। तब पार्वती दशमहाविद्याओं को उतपन्न करके उनसे शिव के भागने का हरेक द्वार बंद करवाती है, और शिव को जाने से रोकती है। दरअसल सहस्रार के सिवाय विभिन्न चक्र विशेषकर मूलाधार कुंडलिनी का घर है। वहाँ उसका प्रभुत्व रहता है। वहाँ जीवात्मा ज्यादा सहज नहीं रहता। किसी कारणवश कुंडलिनी के शिथिल पड़ने से वह वहाँ से भागने लगता है। फिर कुण्डलिनी पंचमकारों और उनसे उत्पन्न पाँच वीभत्स भावों का आश्रय लेती है। इससे वह बहुत मजबूत होकर जीवात्मा को जाने से रोकती है। क्योंकि जहाँ कुंडलिनी है, वहाँ जीवात्मा है। उसके भागने के लिए कहे गए विभिन्न मार्ग कुंडलिनी चक्र ही हैं। कई स्थानों पर कुंडलिनी चक्रों की संख्या दस भी बताई गई है।एक मिथक के अनुसार, पार्वती नहा रही होती है। उसने अपने बेटे गणेश को दरवाजे पर पहरेदार के बतौर रखा होता है। गणेश शिव को भी अंदर नहीँ जाने देते। शिव नाराज होकर उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। इससे पार्वती शिव से बहुत नाराज होती है। फिर उसे प्रसन्न करने के लिए शिव गणेश को हाथी का सिर लगाते हैं। दरअसल, कुंडलिनी चाहती है कि शरीर में उसका सबसे अधिक प्रभुत्व रहे। गणेश इन्द्रियों का नायक है। वह दुनिया की फालतू चीजों को कुंडलिनी का प्रभुत्व नष्ट करने से रोकता है। वह बाहर से आए भगवानों को भी ऐसा करने से रोकता है। इससे बाहरी धार्मिक संगठन नाराज होकर उसे सजा देते हैं। पर उन्हें कुण्डलिनी की शक्ति के आगे झुककर उसे छोड़ना पड़ता है। यद्यपि वह दुनिया के द्वारा की गई उपेक्षा से काफी क्षीण हो जाता है। शाक्त पंथ में यह भी आता है कि शक्ति के बिना शिव एक शव है। यह सत्य ही है क्योंकि कुंडलिनी के संयोग के बिना जीवात्मा अचेतन और अंधकार से भरा हुआ होता है। जब सहस्रार में उसका कुंडलिनी से विवाह होता है, तभी वह शिव बनता है। उपरोक्त सभी तथ्यों से जाहिर है कि कुंडलिनी योग ही शिव व पार्वती से जुड़ी मिथक कथाओं के मूल में है।

कुंडलिनी ही यमुना में पौराणिक कालियनाग को मारने वाले भगवान श्रीकृष्ण के रूप में अभिव्यक्त होती है

मित्रों, योग एक वैज्ञानिक विधि है। आम लोग इसे आसानी से नहीं समझ सकते। अभ्यास तो इसका तब करेंगे न, जब इसे समझेंगे। इसीलिए आम जनमानस की सुविधा के लिए पुराण रचे गए हैं। पुराणों में योग को विभिन्न मिथक घटनाओं और कथाओं के रूप में समझाया गया है। हालांकि मिथक रूप होने पर भी ये कथाएं सैद्धांतिक रूप से सत्य होती हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि ये मिथक शास्त्रीय होते हैं, विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए होते हैं, और गैर-शास्त्रीय या साधारण मिथकों के विपरीत होते हैं। कुछ तथाकथित आधुनिकतावादियों की सोच के विपरीत, ये अंधविश्वास की श्रेणी में नहीं आते। सामाजिक, व्यक्तिगत और व्यावहारिक मर्यादाओं के उल्लंघन से बचने के लिए कई बातें सीधे तौर पर नहीँ कही जा सकती हैं, इसलिए उन्हें वैज्ञानिक मिथक के रूप में कहना पड़ता है। योग को एकदम से समझना मुश्किल हो सकता है। लम्बे समय तक यौगिक या अद्वैतमयी जीवनशैली को अपना कर रखना पड़ता है। इसीलिए पुराणों में योग से संबंधित बातों को मनोरंजक मिथक कथाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इससे ये कथाएं लंबे समय तक अपने प्रति आदमी की रुचि बना कर रखती हैं। इनसे आदमी अपनेआप ही अप्रत्यक्ष रूप से योगी बना रहता है, और अनुकूल परिस्थिति मिलने पर थोड़े से अतिरिक्त प्रयास से वह पूर्ण योगी भी बन सकता है। यदि सभी लोग एकसाथ पूर्णकालिक योगी बन गए, तब दुनियादारी के काम कैसे चलेंगे। इसीलिए योग को ऐसी वैज्ञानिक व सुहानी कथाओं के रूप में ढाला जाता है, जिन पर विश्वास बना रहे। इससे दुनियादारी के सारे दायित्वों को निभाते हुए भी आदमी हर समय यौगिक जीवनशैली में बंधा रहता है। ऐसी ही एक प्रसिद्ध कथा श्रीमद्भागवत महापुराण में आती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण व कालियनाग के बीच हुए युद्ध का वर्णन है। उस कथा के अनुसार भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के डर से रमणक द्वीप पर कालिय नाम का एक विशाल नाग रहता था, जिसके सैंकड़ों फन थे। उसे किसी संत ने श्राप दिया था कि कृष्ण भगवान उसको मारकर उसका उद्धार करेंगे। इसलिए वह वृन्दावन के समीप बह रही यमुना नदी में आ गया था। उसके जहर से यमुना का पानी जहरीला हो गया था, जिससे आसपास के लोगबाग और पशु-पक्षी मर रहे थे। कृष्ण भगवान अपने गोप मित्रों के साथ वहाँ गेंद खेल रहे थे। तभी उनकी गेंद यमुना के जल में चली गई। श्रीकृष्ण ने तुरंत यमुना में छलांग लगा दी। अगले ही पल वे कालियनाग से कुश्ती लड़ रहे थे। बहुत आपाधापी के बाद श्रीकृष्ण उसके बीच वाले और सबसे बड़े सिर पर चढ़ गए। वहाँ उन्होंने अपना वजन बढ़ा लिया और उसके फनों को मसल दिया। उन्होंने उसके सिर और पूँछ को एकसाथ पकड़कर उसे यहाँ-वहाँ पटका। अंत में उन्होंने कालियनाग को हार मानने पर मजबूर कर दिया। तभी कालियनाग की पत्नियां वहाँ आईं और भगवान कृष्ण से उसके प्राणों की भिक्षा माँगने लगीं। श्रीकृष्ण ने उसे इस शर्त पर छोड़ा कि वह सपरिवार यमुना को छोड़कर रमणक द्वीप पर वापिस चला जाएगा और दुबारा यमुना के अंदर कभी नहीं घुसेगा।

कालियनाग सुषुम्ना नाड़ी या मेरुदंड का प्रतीक है, और भगवान श्रीकृष्ण कुंडलिनी के प्रतीक हैँ

 वास्तव में आदमी की संरचना एक नाग से मिलती है। आदमी का सॉफ्टवेयर उसके केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र से बना होता है, जो आकृति में एक फन उठाए नाग की तरह दिखता है। उसमें मस्तिष्क और मेरुदंड आते हैं। आदमी का बाकी का शरीर तो इसी केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर बाहर-बाहर से मढ़ा गया है। इसी केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में सुषुम्ना नाड़ी प्रवाहित होती है। यहाँ यमुना नदी का पानी मेरुदंड के चारों ओर बहने वाले सेरेब्रोस्पाइनल फ्लूड का प्रतीक है। रमणक द्वीप में निवास करना दुनियादारी के भोग-विलास में उलझने का प्रतीक है। रमणक शब्द को रमणीक या रमणीय शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है मनोरंजक। गरूड़ का भय साधु संतों के भय का प्रतीक है। रमणीक जगह पर साधु संत नहीं जाते। यह देखा जाता है कि साधु संत लोगों को दुनियादारी के फालतू झमेलों से दूर रखते हैं। साधु का श्राप किसी सज्जन द्वारा ईश्वर का सही रास्ता दिखाना है। कालियनाग का श्रीकृष्ण के द्वारा मारे जाने के बारे में कहना उसको आसक्ति के बंधन से मुक्ति प्रदान करने का प्रतीक है। श्रीकृष्ण के द्वारा उसे वापिस रमणक द्वीप भेजने का अर्थ है कि वह दुनिया के भोले-भाले लोगों से दूर एकांत में चला जाए और वहाँ पर आसक्ति का विष फैलाता रहे। कालियनाग की पत्नियां दस इन्द्रियों की प्रतीक हैं। इनमें 5 कर्मेन्द्रियां और 5 ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। ये इन्द्रियाँ कालियनाग की पत्नियां इसलिए कही गई हैं, क्योंकि ये दुनियादारी में आसक्त आदमी के सान्निध्य में बहुत शक्तिशाली होकर उससे एकाकार हो जाती हैं। कालियनाग का विष आसक्तिपूर्ण जीवनशैली का प्रतीक है। यह दुनिया का सबसे शक्तिशाली विष है। इससे आदमी जन्म-मरण के चक्कर में पड़कर बार-बार मरता ही रहता है। कालियनाग के सैंकड़ों फनों से निकल रहे विष का अर्थ है कि मस्तिष्क में पैदा हो रही सैंकड़ों इच्छाओं व चिंताओं से यह आसक्ति बढ़ती ही रहती है।  भगवान कृष्ण यहाँ कुंडलिनी के प्रतीक हैं। उनका कालियनाग के बीच वाले मस्तक पर चढ़ने का अर्थ है, कुंडलिनी का सहस्रार चक्र में ध्यान करना। श्रीकृष्ण के द्वारा गेंद खेलने का अभिप्राय कुण्डलिनी योगसाधना से है। गेंद यहाँ प्राणायाम की प्राणवायु की प्रतीक है। कृष्ण के सखा ग्वाल-बाल विभिन्न प्रकार के प्राणायामों व योगसाधना के प्रतीक हैं। जैसे गेंद आगे-पीछे जाती रहती है, वैसे ही साँसें भी। गेंद का नदी में घुसने का अर्थ है, प्राणवायु का चक्रों में प्रविष्ट होना। श्रीकृष्ण का नदी में छलांग लगाने का अर्थ है कि कुंडलिनी भी प्राणवायु के साथ चक्रों में प्रविष्ट हो गई। यमुना पवित्र नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण छलांग लगाते हैं। इसका अर्थ है कि प्राणवायु से पवित्र हुए चक्रों में ही कुंडलिनी प्रविष्ट होती है। श्रीकृष्ण के द्वारा कालियनाग के फनों को मसले जाने का अर्थ है कि कुंडलिनी ने मस्तिष्क की फालतू इच्छाओं और चिंताओं पर रोक लगा दी है, तथा अवचेतन मन में दबे पड़े वैचारिक कचरे की सफाई कर दी है। श्रीकृष्ण के द्वारा कालियनाग के सिर और पूँछ को एकसाथ पकड़े जाने का अर्थ है कि कुंडलिनी मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र तक पूरी सुषुम्ना नाड़ी में फैल गई है। मूलाधार से शक्ति लेकर कुंडलिनी सहस्रार में चमक रही है। ऐसा तब होता है जब तालु-जिह्वा के जोड़ या सहस्रार और मूलाधार का ध्यान एकसाथ किया जाता है। ऐसा करने से कालियनाग के पटके जाने का अर्थ है कि उससे दिमाग का फालतू शोर खत्म हो रहा है, जिससे आदमी शाश्वत आनन्द की ओर बढ़ रहा है। कालियनाग को जान से मारने का प्रयास करने का अर्थ है कि शरीर के तंत्रिका तंत्र को नियंत्रित रूप में ही काम करने देना है। कालियनाग का दुबारा यमुना में न प्रविष्ट होने का अर्थ है कि कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी कभी आसक्तिपूर्ण व्यवहार नहीं करता।

To read this post in English please click here