कुंडलिनी ध्यानसाधना और जागरूकता ध्यान एकदूसरे से भिन्न नहीं हैं

मित्राें, पिछली पोस्ट में सच्चे व समर्पित प्यार से उपजे चमत्कार को हमने देखा। अगर इसका उल्टा हो जाए, तो क्या होगा, आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं। लवजिहाद में यही उल्टा खेल चल रहा है। ऐसे ही भयानक संक्रामक रोगों के कारण सदियों से स्त्री और पुरुष के बीच अविश्वास की खाई बनी हुई है। यह आज से नहीं, बल्कि सदियों से न्यूनाधिक रूप से, इस नाम से या उस नाम से चल रहा है। आज तो यह ढंग से दुनिया के सामने आ रहा है। विश्वास बनाने में वर्षों लग जाते हैं, पर तोड़ने में कुछ ही पल। बल से शरीर को तो जीता जा सकता है, पर दिल को तो प्रेम और विश्वास से ही जीता जा सकता है। इसी पर बनी हुई लाजवाब फिल्म “केरला स्टोरी” आजकल अन्तर्राष्ट्रीय चर्चा व आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। पर यह इस ब्लॉग का विषय नहीं है, यह तो ऐसे ही पोस्ट के संबंध में बात चली थी, तो यह वर्तमानकालिक मुद्दा खुद ही जुड़ गया।

जब किसी मूर्ति आदि पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, तब भटकते विचारों की शक्ति वहाँ केंद्रित हो जाती है। विचारों की शक्ति को प्रकट होने का एक ही रास्ता बचता है, ध्यानचित्र के रूप में प्रकट होने का। योगी मूर्ति की बजाय अपने शरीर के चक्रोँ पर ध्यान केंद्रित करते है। उससे भी वैसा ही होता है। साथ में शरीर भी स्वस्थ रहता है। जो इनको नहीं मानते, वे आसमान पर या उसमें रहने वाले किसी अदृश्य भगवान पर ध्यान केंद्रित करते हैं। उससे भी वैसा ही होता है। मतलब साफ है कि कोई भी काफ़िर नहीं है।
साथ में, नदी, पर्वत, वृक्ष पर ध्यान लगाने से अर्थात उनकी पूजा करने से वे सभी भी शरीर के चक्रों की तरह स्वस्थ रहते हैं, क्योंकि फिर चक्रों की तरह ही आदमी की प्राणशक्ति उनको भी लगती है। पर्यावरण की सुरक्षा इसी मूलमंत्र में छुपी हुई है।
अवयरनेस मेडिटेशन अर्थात जागरूकता ध्यान पर भी यही सिद्धांत लागू होता है। कहते हैं कि एवयरनेस मेडिटेशन से बहुत लाभ मिलता है। मुझे हाल ही में एक नए मित्र से मिलने का मौका मिला। वे होम्योपैथिक मेडिसिन की अच्छी प्रेक्टिस भी करते हैं। वैसे भी होम्योपेथी भारतीय ऋषि परम्परा से बहुत मेल खाती है। इसी सिलसिले में वहाँ गया था तो थोड़ा परिचय हो गया। उनके साहित्य व अध्यात्म के शौक को जानकर मैं भी अध्यात्म की बातें करने लग गया। कहते हैं कि जौहरी को ही हीरा दिखाना चाहिए, आम आदमी तो उसे पत्थर समझकर नाले में फैक देगा। मैं उनकी इस बात से बहुत प्रभावित हुआ कि हर समय अवेयरनेस के साथ रहना चाहिए। ओशो महाराज भी बिल्कुल यही कहते हैं कि हरेक काम अवेयरनेस के साथ करो। वे खुद भी ओशो के अनुयायी लगे मुझे। सतसंग से लाभ तो मिलता ही है, जैसा मुझे मिला। मैं इसके मनोवैज्ञानिक सिद्धांत की तह तक पहुंच सका। मुझे लगता है कि जब हम वर्तमान के रियल टाइम में शरीर को महसूस हो रही किसी भी संवेदना पर ध्यान दे रहे होते हैं, तब मनोमय कोष, अन्नमय कोष और प्राणमय कोष आपस में मिश्रित हो रहे होते हैं, जैसा मैंने पिछली कुछ पोस्टों में विस्तृत रूप से वर्णन किया था। वर्तमान की संवेदना की तरफ ध्यान देने से शरीर और सांस पर भी खुद ही ध्यान चला जाता है, क्योंकि तीनों आपस में जुड़े हुए हैं। वैसे तो बीती हुई और आने वाली घटनाओं के ख्याल भी मानसिक संवेदना के ही अंतर्गत आते हैं, पर उनके साथ शरीर और सांस कम जुड़ते हैं, क्योंकि न भूतकाल में यह वर्तमान काल में स्थित भौतिक शरीर था, और न ही भविष्यकाल में होगा, यह तो केवल वर्तमान काल में ही स्थित है। इसीलिए कहते हैं कि वर्तमान में ही स्थित रहना चाहिए। मुझे लगता है कि जब किसी के द्वारा वर्तमान स्थिति के साथ जुड़ी भौतिक संवेदनाओं का ध्यान किया जाता है, तो इससे यह विश्वास पक्का होता रहता है कि वे उसके शरीर से ही जुड़ी हैं, क्योंकि वे शरीर और सांसों की बदलती स्थिति के साथ बदलती रहती हैं। इससे यह विश्वास भी खुद ही हो जाता है कि उसकी सभी मानसिक संवेदनाएं जैसे कि विभिन्न भावनाएं और विचार भी उसके शरीर के ही भाग हैं, क्योंकि संवेदना चाहे शारीरिक हो या मानसिक, वर्तमानकालिक हो या भूतकालिक या भविष्यकालिक, उन सभी का गुणस्वभाव व अनुभव बिल्कुल एकसमान ही होता है। इससे वे शांत हो जाती हैं, क्योंकि अपने आप से किसीको आसक्तिभाव, लगाव या प्रेम नहीं होता। क्योंकि स्वयं तो स्वयं से हमेशा के लिए जुड़ा हुआ है, उसे कोई अलग नहीं कर सकता, क्योंकि वह अपना ही रूप है। आसक्ति केवल दूसरे से या अलग व्यक्ति या पदार्थ से होती है मतलब तब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर जैसे मानसिक दोष शांत होकर जीवन को अपने लिए और औरों के लिए सुखमय बना देते हैं। इसी शान्त माहौल में ही आध्यात्मिक प्रगति भी होती है, भौतिक प्रगति तो होती ही है। इसका प्रमाण है ऐसी अवस्था में कुंडलिनी ध्यानचित्र का आदमी के मन में सुस्पष्ट अभिव्यक्त होना। साथ में, कुंडलिनी ध्यानसाधना से मस्तिष्क इतना ज्यादा चुस्त और संवेदनशील हो जाता है कि वह हरेक भौतिक संवेदना को गहराई से महसूस करने लगता है, जिससे खुद ही जागरूकता साधना की आदत पड़ जाती है। साथ में आदमी को ऐसा भी लगता है कि जब सभी संवेदनाएं एकजैसी ही हैं, तब वह किसी संवेदना पर ज्यादा तो किसी पर कम आसक्त क्यों है। उसे तो सबके प्रति बराबर रहना चाहिए। इसलिए वह निष्पक्ष व निरपेक्ष होकर शान्त हो जाता है। या ऐसा समझ लो कि आसक्ति वाली संवेदनाओं से सामान्य भौतिक संवेदनाओं की तरफ ध्यान डाईवर्ट हो जाता है।

कुण्डलिनीयोगानुसार क्वांटम एन्टेंगलड पार्टिकल्स डार्क मैटर से आपस में ऐसे ही जुड़े होते हैं जैसे दो प्रेमी सूक्ष्मशरीर से आपस में जुड़े होते हैं

दोस्तों, सूक्ष्मशरीर से सम्पर्क अक्सर होता रहता है। जिससे प्रेमपूर्ण संबंध हो, उसके सूक्ष्मशरीर से सम्पर्क जुड़ा होता है। इसी तरह जिसके सूक्ष्मशरीर से सम्पर्क जुड़ा होता है, उससे प्यार भी होता है। खाली स्थूलशरीर से प्यार नहीं हो सकता। सऊलमेट को ही देख लो। उनको ऐसा लगता है कि वे एकदूसरे की मिरर इमेज़ हैं। बेशक उनकी शक्ल आपस में न मिलती हो, पर उनके मन आपस में बहुत ज्यादा मेल खाते हैं। उनमें एक लड़का होता है, और एक लड़की। बेशक यौन आकर्षण भी उन्हें एकदूसरे के नजदीक लाते हैं, पर इससे एकदूसरे से नजदीकी से रूबरू ही हो सकते हैं, इससे प्यार पैदा नहीँ किया जा सकता। तभी तो आपने देखा होगा कि आदमी सेक्स से संतुष्ट ही नहीं होता। यदि सम्भोग में प्यार पैदा करने की शक्ति होती तो आदमी का कभी तलाक न हुआ करता, आदमी एक से ज्यादा शादियां न करता, और न ही एक से ज्यादा महिलाओं से यौनसंबंध बनाता। मुझे लगता है कि सेकसुअल सम्पर्क एक निरीक्षण अभियान है, जिससे आदमी नजदीक जाकर यह पता लगाता है कि उसे अमुक से प्यार है कि नहीँ। यह अलग बात है कि कई लोग इस सर्वे में इतना गहरा घुस जाते हैं कि बाहर ही नहीं निकल पाते और मजबूरी में वहीं रहकर समझौता कर लेते हैं। कइयों को लगता होगा कि मैं विरोधी बातें करता हूँ। मैं ओपन माइंड रहना पसंद करता हूँ, किसी भी विशेष सोच से चिपके रहना नहीं। कई जगह मैंने कहा है कि संभोग में प्यार को पैदा करने की शक्ति है। यह भी सही है, पर शर्त लागू होती है। इसके लिए काफी समय, प्रयास व संसाधनों की आवश्यकता होती है। जब बना बनाया खाना मिलने की उम्मीद हो, तो खुद क्यों बनाना भाई।

गहरे स्त्रीपुरुष प्यार में सूक्ष्मशरीर बेशक आपस में जुड़े हों, पर वे एकदूसरे से बदले नहीँ जा सकते। गहरे प्यार में एकदूसरे से टेलीपेथीक सम्पर्क बन जाता है, एकदूसरे की सोच और जीवन एकदूसरे को प्रभावित करने लगते हैं। अगर एक पार्टनर कुछ सोचे तो दूसरे के साथ वैसा ही होने लगता है, बेशक वह कितना ही दूर क्यों न हो। मतलब साफ है कि वे एकदूसरे के सूक्ष्मशरीर से प्रभावित होते हैं। पर पता नहीँ क्यों तीसरे सूक्ष्मशरीर के अखाड़े में प्रवेश करने से सभी परेशान होने लगते हैं। हाहा। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सूक्ष्मशरीर अनंत आकाश की तरह सर्वव्यापी है। एकबार मेरे विश्वविद्यालय के मित्र के पिता का देहावसान हुआ था। उनसे मैं कई बार प्रेमपूर्ण माहौल में मिला भी था। वह मुझसे सैंकड़ों किलोमीटर दूर थे। मुझे कुछ पता नहीँ था। उसी रात मुझे नींद में अपने पिता की मृत्यु की जीवंत तस्वीर दिखी थी। मैं उसकी वजह नहीँ समझ पा रहा था। अगले दिन जब मुझे खबर मिली तब बात समझ में आई। उस दौरान मैं गहन तांत्रिक कुण्डलिनी योग अभ्यास करता था, संभवतः उससे ही इतना जीवंत महसूस हुआ हो। लगता है कि क्वांटम एन्टेंगलमेंट भी यही है। दोनों एन्टेंगलड क्वांटम पार्टिकल्स आपस में सूक्ष्मशरीर जैसी चीज से जुड़े हो सकते हैं। यह तो जाहिर ही है कि दृश्य ब्रह्माण्ड के आधार में डार्क मैटर और डार्क एनर्जी से भरा अनंत अंतरिक्ष होता है। यह भी पता है कि वही दृश्य जगत के रूप में उभरता है, उसी के नियंत्रण में रहता है, और नष्ट होने पर वही बनकर उसी में समा जाता है। इसका मतलब है कि डार्क मेटर और दृश्य जगत केवल आपस में बारबार रूप बदलता रहता है, कभी न तो कुछ नया बनता है, और न ही बना हुआ नष्ट होता है। यह दुनिया पहले भी हनेशा थी, आज भी है, और आगे भी हमेशा रहेगी। इसमें रोल प्ले करने वाले नए-नए कलाकार आते रहेंगे, और मुक्तिरूपी परमानेंट नेपथ्य में जाते रहेंगे। एन्टेंगलड क्वांटम पार्टिकल्स का सूक्ष्मशरीर एक ही होता है। वह सूक्ष्म शरीर उन पार्टिकल्स का डार्क मेटर है, जिससे वे बने हैं। इसीलिए जब एक पार्टिकल से छेड़छाड़ होती है, तो वह दूसरे को भी उसी समय प्रभावित करती है, बेशक वे दोनों एकदूसरे से कितनी ही दूरी पर क्यों न हो, बेशक एक कण गेलेक्सी के एक छोर पर हो और दूसरा दूसरे छोर पर। इसका मतलब है कि हरेक फंडामेन्टल पार्टिकल का अपना अलग डार्क मेटर है, जो अनंत अंतरिक्ष में फैला होकर अनंत अंतरिक्षरूप ही है। इसी तरह जैसे हरेक जीव एक अलग अनंत अंतरिक्षरूप है, अपनी किस्म का। जैसे आदमी का हरेक क्रियाकलाप उसके सूक्ष्मशरीर में दर्ज हो जाता है, और उसीके अनुसार वह उसीके जैसा बारबार बनाता रहता है, उसी तरह हरेक मूलकण का हरेक क्रियाकलाप उसके डार्क मेटर में दर्ज होता रहता है। प्रलय के बाद जब पुनः सृष्टि प्रारम्भ होने का समय आता है, तब उस डार्क मेटर से पुनः वह मूलकण बन जाता है, और उसमें दर्ज सूचनाओं के अनुसार आगे से आगे सृष्टि निर्माण करने लगता है। इसी तरह से सभी मूलकणों के सहयोग से सृष्टि पुनः निर्मित हो जाती है। शास्त्रों में इसे ऐसे कहा है कि पहले ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई, उनसे प्रजापतियों की उत्पत्ति हुई आदि-आदि। मतलब शास्त्रों में भी मूलकणों को मनुष्यों का रूप दिया गया है, क्योंकि दोनों के स्वभाव एकजैसे हैं। लगता है कि भौतिक विज्ञान सूक्ष्मशरीर को अलग तरीके से समझ रहा है। इसके अनुसार एन्टेंगलड क्वांटम पार्टिकल्स की तरंग आपस में जुड़ी होती है। वह अनंत अंतरिक्ष की दूरी तक भी आपस में जुड़ी ही रहती है।

फिर कहते हैं कि दो मूलकणों को एन्टेगल किया जा सकता है, अगर उन्हें एकदूसरे के काफी नजदीक कर दिया जाए। सम्भवतः इससे उनके डार्क मेटर आपस में एकदूसरे तक पहुंच बना लेते हैं। यह ऐसे ही है, जैसे दो नजदीकी प्रेमियों के सूक्ष्मशरीर एकदूसरे तक पहुंच बना लेते हैं, जैसा ऊपर बताया गया है।

उपरोक्त विवरण से कुछ वैज्ञानिकों और शास्त्रों का यह दावा भी सिद्ध हो जाता है कि भूत, भविष्य और वर्तमान सब आपस में जुड़े हैं, मतलब समय का अस्तित्व नहीं है। जो आज हो रहा है, और जो आगे होगा, वैसा ही पहले भी हुआ था, कुछ अलग नहीँ। सबकुछ पूर्वनिर्धारित है। हालांकि आदमी के कर्म और प्रयास का महत्त्व भी है।

कुण्डलिनी योग से ही ब्रह्माण्ड एक देवता या विशालकाय एलियन बनता है

शून्य में विद्युत्चुंबकीय तरंग

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि विद्युत्चुंबकीय क्षेत्र या तरंग से मानसिक दुनिया बनती है। तो फिर यह क्यों न मान लिया जाए कि बाहर का भौतिक संसार भी इन्हीं तरंगों से बनता है। यही अंतर है कि मानसिक संसार में ये तरंगें अस्थिर होती हैं, और आँखों आदि इन्द्रियों के माध्यम से बाहर से लाई जा रही सूचनाओं के अनुसार लगातार बदलती रहती हैं, पर बाहर के स्थूल जगत में ये किसी बल से स्थिरता पाकर स्थायी मूलकणों की तरह व्यवहार करने लगती हैं, जिनसे दुनिया आगे से आगे बढ़ती जाती है। दिमाग़ में तो विद्युत्चुंबकीय तरंग मूलाधार से आ रही ऊर्जा से बनती है, पर बाहर शून्य अंतरिक्ष में यह ऊर्जा कहाँ से आती है, यह खोज का विषय है।

फील्ड से कण और कण से फील्ड का उदय

क्वांटम फील्ड थ्योरी सबसे आधुनिक और स्वीकृत है। इसके अनुसार हरेक कण और बल की एक सर्वव्यापी फील्ड मौजूद होती है। फील्ड मतलब प्रभाव क्षेत्र, कण की फील्ड मतलब कण का प्रभाव क्षेत्र। अंतरिक्ष शून्य नहीं बल्कि इन फील्डों से भरा होता है। फील्ड मतलब पोटेंशल, तरंग व कण बनाने की योग्यता। यह फील्ड एक सबसे हल्के स्तर की लहर होती है। मुझे लगता है यह ऐसे है कि जब एक कंकड़ एक जल-सरोवर में गिराया जाता है तो एक मुख्य लहर के साथ छोटी लहरों के झुंड के रूप में विक्षोभ पैदा होता है। मुख्य बड़ी तरंग कण के समान है और छोटी तरंगें उसके क्षेत्र या फील्ड के समान हैं। जिस क्षेत्र तक इन सूक्ष्म तरंगों का अनुभव होता है, वह कण के रूप में स्थित उस मुख्य तरंग का फील्ड का दायरा होता है। जब इलेक्ट्रोन की फील्ड में किसी पॉइंट को एनर्जी मिलती है तो वहां फील्डरूपी छोटी लहर का एम्प्लीचूड या आयाम बढ़ जाता है, और वहाँ एक कण का उदगम होता है। वह इलेक्ट्रोन है। ये आधारभूत फील्ड सबसे छोटे कण क्वार्क से भी सूक्ष्म होती हैं। इसी तरह इलेक्ट्रोन के चारों तरफ भी एक फील्ड बनती है। मतलब इलेक्ट्रोन रूपी बड़ी लहर के चारों तरफ भी एक सूक्ष्म लहरों का क्षेत्र बन जाता है। वह प्रोटोन से भी इसी इलेक्ट्रोमेग्नेटीक फील्ड से ही दूर से आकर्षित होकर उससे जुड़ जाता है। इस आकर्षण की फील्ड तरंगों से भी विशेष सूक्ष्म कण सम्भवतः फोटोन पैदा होता है, जो इस आकर्षण को क़ायम करता है। इस तरह फील्ड से कण और कण से फील्ड पैदा होकर बाहर की स्थूल संसार रचना को आगे से आगे बढ़ाते रहते हैं।

अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त का उदय

मन भी तो क्वांटम फील्ड की तरह होता है। इसमें हरेक किस्म का संकल्प अदृष्य रूप अर्थात अदृष्य लहर के रूप में रहता है। इसे सांख्य दर्शन के अनुसार अव्यक्त कहते हैं। जब इसे मूलाधार से एनर्जी मिलती है, तब इस मानसिक क्वांटम फील्ड की लहरें बड़ी होने लगती हैं, जो स्थूलकण रूपी चित्रविचित्र संसार पैदा करती हैं। उससे और फील्ड पैदा होती है, जिससे और विचार पैदा होते हैं। इस तरह यह सिलसिला चलता रहता है और आदमी के विचार रुकने में ही नहीं आते। अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त पैदा होकर भीतरी मानसिक संसार रचना को आगे से आगे बढ़ाते रहते हैं।

क्वांटम भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक मनोविज्ञान के बीच समानता

प्रकृति या अव्यक्त ही वह हल्के स्तर की आधारभूत लहर है। अव्यक्त व्यक्त से ही बना है, अव्यक्त मतलब हल्के स्तर का व्यक्त। हालांकि उसके मूल में भी निश्चेष्ट या अवर्णनीय पुरुष ही है। अंत के पैराग्राफ में बताऊंगा कि निश्चेष्ट या गतिहीन पुरुष क्यों कुछ काम नहीं कर पाता। क्यों उसे मूक दर्शक की तरह माना जाता है, जो अपनी उपस्थिति मात्र से प्रकृति की मदद तो करता है, पर खुद कुछ नहीं करता। सारा काम प्रकृति ही करती है। पुरुष अर्थात शुद्ध आत्मा एक चुंबक की तरह है जिसकी तरफ खिंच कर ही प्रकृति से सब काम अनायास ही खुद ही होते रहते हैं। इसीलिए कहते हैं कि जो भगवान के सहारे है, उसका जीवन खुद ही अच्छे से कट जाता है। पर भगवान असली और अच्छी तरह से समझा हुआ होना चाहिए, जो कुण्डलिनी योग से ही संभव है। जैसे हमारा हरेक कर्म और विचार संस्कार रूप से पहले से ही सूक्ष्म रूप में हमारी अव्यक्त प्रकृति के रूप में मौजूद होता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं, उसी तरह हरेक क्वांटम कण भी अपनी क्वांटम फील्ड के रूप में पहले से ही मौजूद होता है। व्यष्टि मूलाधार मतलब शारीरिक मूलाधार से मिल रही शक्ति से व्यष्टि अव्यक्त मतलब शरीरबद्ध अव्यक्त या व्यष्टि फील्ड में क्षोभ पैदा होता है, जिससे विभिन्न लहरों के रूप में विचारों मतलब व्यष्टि मूलकणों का उदय होता है। इसी तरह समष्टि मूलाधार अर्थात ब्रह्माण्डव्याप्त मूलाधार अर्थात मूल प्रकृति से उत्पन्न शक्ति से समष्टि क्वांटम फील्ड में क्षोभ पैदा होता है, जिससे समष्टि मूलकण पैदा होते हैं। पर समष्टि जगत में ये शक्ति कहाँ से आती है? दार्शनिक तौर पर तो मूल प्रकृति को समष्टि मूलाधार मान सकते हैं, क्योंकि दोनों में मूल शब्द जुड़ा है, और दोनों ही सब सांसारिक रचनाओं के मूल आधार या नींव के पहले पत्थर हैं हैं, पर इसे वैज्ञानिक रूप से कैसे सिद्ध करेंगे? व्यष्टि के मूलाधार की तरह समष्टि मूलाधार में भी कोई सम्भोग क्रिया और उससे उत्पन्न सम्भोग-शक्ति होनी चाहिए। तो उसे पुरुष और प्रकृति के बीच सम्भोग क्यों न माना जाए, जिसका इशारा शास्त्रों में किया गया है।

संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया तांत्रिक कुण्डलिनी योग का भौतिक मार्ग ही है

दरअसल जीवों का जो अव्यक्तरूप सूक्ष्म शरीर है, वह मरने के बाद और भी सूक्ष्म हो जाता है, क्योंकि उस समय उसे स्थूल शरीर से बिल्कुल भी ऊर्जा नहीं मिल रही होती है। वह एक घने अँधेरे आत्माकाश की तरह हो जाता है, जिसका अंधेरा उसमें छिपे हुए अव्यक्त जगत के अनुसार होता है। वह अव्यक्त जगत भी व्यक्त जगत के अनुसार ही होता है। इसीलिए सब जीवों के सूक्ष्म शरीर उनके स्थूल स्वभाव के अनुसार अलग-अलग होते हैं। इस तरह से बहुत से जीवों के अव्यक्त आत्माकाश जब समष्टि अव्यक्ताकाश मतलब मूल प्रकृति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर एक निश्चित सीमा से ज्यादा अव्यक्त भाव अर्थात अंधकारमय आकाश बना देते हैं, तब वहाँ से एक शक्ति की लहर पुरुष की तरफ छलांग लगाती है। इसी से क्वांटम फील्ड में लहरों का एम्प्लीच्युड आदि बढ़ने से मूलकणों का उदय और सृष्टि का विस्तार शुरु होता है। यह ऐसे ही है जैसे कभी कोई आदमी अपनी सहन-सीमा से ज्यादा ही गम या अवसाद के अँधेरे में डूबने लग जाए, तो वह सम्भोग की सहायता से अपने मूलाधार के अँधेरे में डूबे अपने अव्यक्त मानसिक जगत को ऊपर चढ़ती हुई शक्ति के साथ सहस्रार की तरफ भेजने की कोशिश करता है, ताकि उसके विचारों का मानसिक संसार पुनः प्रकाशित होने लगे। शक्ति तो खुद एक वाहक या बल है, जो अव्यक्त जगत को व्यक्त बनाने में मदद करती है। शास्त्रों में भी यही कहा है कि जब जीवों के कर्म, फल देने को उन्मुख हो जाते हैं, अर्थात जब जीव अंधकार से ऊबने जैसे लगते हैं, तब वे प्रलय के बाद पुनः सृष्टि को प्रारम्भ करने की प्रेरणा देते हैं। यह सामूहिक अर्थात समष्टि सृष्टि और प्रलय है। व्यक्तिगत सृष्टि और प्रलय तो हरेक जीव के जन्म और मरण के साथ चली ही रहती है। सहज व प्राकृतिक मृत्यु के बाद कुछ समय तो जीव चैन की बंसी बजाता हुआ अव्यक्त में आराम करता है, फिर जल्दी ही उससे ऊब जाता है। इसलिए उस अव्यक्तरूप जीव को व्यक्त करने के लिए शक्ति पुरुष की तरफ बढ़ने की कोशिश करना चाहती है। देखा जाए तो शक्ति जाती कहीं नहीं है, क्योंकि पुरुष, प्रकृति और शक्ति तीनों व्यष्टि मूल प्रकृति में साथ-साथ ही रहते हैं। ऐसे ही जैसे अव्यक्त, व्यक्त और उनको बनाने वाली शक्ति मस्तिष्क में ही रहते हैं, पर अव्यक्त जगत मूलाधार से ऊपर चढ़ता हुआ महसूस होता है, क्योंकि पुरुष या मस्तिष्क की शक्ति को प्रेरित करने वाला विशेष सेकसुअल बल मूलाधार से ऊपर चढ़ता है। उसके लिए सम्भोग के माध्यम से एक आदमी और एक औरत का आपसी मिलन जरूरी होता है। संयोगवश उस मृत जीव की जीवात्मा किसी सम्भोगरत आदमी और औरत के जोड़े के मिश्रित मूलाधार में स्थित अव्यक्त जगत से मेल खाती है। दोनों का मिश्रित अव्यक्त जगत संभोग-शक्ति के माध्यम से ऊपर उठते हुए दोनों के हरेक चक्रोँ में दबी हुई भावनाओं व छिपे हुए विचारों को अपने साथ ले जाकर सहस्रार में आनंद के साथ व्यक्त हो जाता है, और एकदूसरे के सहस्रार चक्रोँ में आपस में मिश्रित ही बना रहता है। आदमी के सहस्रार से वह मिश्रित जगत आगे के चैनल से शक्ति के साथ नीचे उतरकर वीर्य में रूपांतरित होकर औरत के गर्भ में प्रविष्ट होकर एक बालक का निर्माण करता है। इसीलिए बालक में माता और पिता दोनों के गुण मिश्रित होते हैं। इसीलिए मांबाप के व्यवहार का बच्चों पर गहरा असर पड़ता है, क्योंकि तीनों की एनर्जी आपस में जुड़ी होती है। इसीलिए व्यवहार में देखा जाता है कि सम्भोग सुख के साथ प्रेम से रमण करने के आदी दम्पत्ति की संतानेँ बहुत तरक्की करती हैं, भौतिक रूप से भी और आध्यात्मिक रूप से भी। इसके विपरीत आपस में अजनबी जैसे रहने वाले दंपत्तियों के बच्चे अक्सर कुंठित से रहते हैं। यह अलग बात है कि कई अच्छी किस्मत वाले लोग इधरउधर से गुजारा कर लेते हैं। हाहा। अनुभवी तंत्रयोगी सम्भोग की, जगत को व्यक्त करने वाली कुण्डलिनी शक्ति को अपने सहस्रार में केवल एक ही ध्यानचित्र पर फोकस करते हैं, और उसे वीर्य रूपी बीज में नीचे न उतारकर लम्बे समय तक वहीं रोककर रखते हैं, जिससे वह मानसिक चित्र जागृत हो जाता है। इसे ही तांत्रिक कुण्डलिनी जागरण कहते हैं।

पूरा ब्रह्माण्ड ही एक एलियन

इन उपरोक्त तथ्यों का मतलब है कि ब्रह्माण्ड भी एक विशालकाय जीव या मनुष्य की तरह व्यवहार करता है। इससे वैदिक उक्ति, “यत्पिंडे तत् ब्रह्मान्डे” यहाँ भी वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो जाती है। इसका मतलब है कि जो कुछ भी छोटी चीज जैसे शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में भी है, अन्य कुछ नहीं। पिंड यहाँ शरीर को ही कहा है, अन्य किसी चीज को नहीं, क्योंकि किसीकी मृत्यु के बाद जब उसे श्राद्ध आदि के द्वारा खाने-पीने की चीजें दी जाती हैं, उसे पिंडदान कहते हैं। क्योंकि अगर हरेक छोटी चीज के बारे में कहना होता तो अंडे, खंडे आदि दूसरे शब्द ज्यादा बेहतर होते, पिंडे नहीं। दूसरा, पंजाबी भाषा में वह स्थान जहाँ लोग सामूहिक रूप से एकसाथ रहते हैं, जिसे गाँव कहते हैं, वह पिंड कहलाता है। मूल प्रकृति ब्रह्माण्ड का मूलाधार है, और चेतन पुरुष या परमात्मा इसका सहस्रार या उसमें कुण्डलिनी जागरण है। चित्रविचित्र संसारों की रचना के रूप में ही इसका जीवनयापन या कर्मयोग या इसका कुण्डलिनी जागरण की तरफ बढ़ना है। ऐसा यह अद्वैत के साथ करता है। शास्त्रों में ऐसा ही लिखा है कि ब्रह्मा खुद कहते हैं कि वे अद्वैतभाव के साथ सृष्टि की रचना करते हैं, जिससे वे जन्ममरण के बंधन में नहीं पड़ते। इसलिए यही इसका कुण्डलिनी योग है। अद्वैत और कुण्डलिनी योग आपस में जुड़े हुए हैं। सृष्टि का संपूर्ण निर्माण ही इसका कुण्डलिनी जागरण है। जैसे कुण्डलिनी जागरण के बाद आदमी को लगता है कि उसने सबकुछ कर लिया, इसी तरह सबकुछ कर लेने के बाद ब्रह्मा को कुण्डलिनी जागरण होता है, यह इसका मतलब है। इसके बाद सृष्टि निर्माण से उपरत होकर इसका संन्यास लेना ही सृष्टि विस्तार का धीमा पड़ना और रुक जाना है। देहांत के बाद इसका परम तत्त्व में मिल जाना ही प्रलय है। शास्त्रों में इसीलिए देव ब्रह्मा की कल्पना की गई है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही जिसका शरीर है। आजकल विज्ञान भी इस अवधारणा पर विश्वास करने लग गया है। इसीलिए एक वैज्ञानिक थ्योरी यह भी सामने आ रही है कि हो सकता है कि पूरा ब्रह्माण्ड ही एक विशालकाय एलियन हो।

जिसे हम अंधेरनुमा शून्य या अव्यक्त कहते हैं, वह भी खाली नहीं बल्कि सीमित उतार-चढ़ाव वाली जगतरूपी तरंगों से भरा होता है

अगर चैतन्यमय आत्माकाश या परमात्मा में कोई बहुत ज्यादा स्थित हो जाए या लगातार आत्माकाश में ही स्थित रहने लगे तो वह कुछ काम भी नहीं कर सकता। वह पराश्रित व नादान सा रहता है संन्यासी की तरह। इसका मतलब है कि उस समय उसमें व्यक्त दुनिया अव्यक्त आकाश के रूप में नहीं रहती। मतलब वह शुद्ध आत्माकाश बन जाता है। मतलब उसके आत्माकाश में क्वांटम फील्ड नाम की बिल्कुल भी वाइब्रेशनस नहीं रहतीं। वह पूर्ण चिदाकाश बन जाता है। इसी वजह से स्थूल ब्रह्माण्ड में भी उस जगह आकाश खाली होता है, जहाँ वाइब्रेशन नहीं होतीं। अन्य स्थान ग्रहों-सितारों से भरे होते हैं। वर्चुअल पार्टिकल तो बनते रहते हैं थोड़ी-बहुत वाइब्रेशन से। मतलब थोड़ा-बहुत काम-वाम तो वे संन्यासी भी कर लेते हैं, पर कोई निर्णायक कार्य-अभियान या व्यापार-धंधा नहीं चला पाते। हाँ, एक बीच वाला हरफनमौला तरीका भी है कि तांत्रिक योग से आत्माकाश में लगातार कंपन बनाते भी रहो और मिटाते भी रहो, और सबकुछ करते हुए भी उससे अछूते बने रहो।

कुण्डलिनी योग से ही सृष्टि के मूलकण, मूल तरंग व प्लेन्क लेंथ जैसे क्वांटम तत्त्व बनते हैं

मन के अंदर और बाहर दोनों एकदूसरे के सापेक्ष और मिथ्या हैं

मन के बाहर किसी भी चीज या जगत का अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता

दोस्तों मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे जगत सत्य नहीं, बल्कि आत्माकाश के अंदर एक आभासी तरंग है। इसी तरह, स्थूल जगत का भी कोई अस्तित्व नहीं है, इसकी रचना भी मन ने की है। यह कोई आज की खोज नहीं है, जैसा कि कई जगह दिखावा हो रहा है। यह ऋषिमुनियों और अन्य अनेकों जागृत व्यक्तियों ने हजारों साल पहले अनुभव कर लिया था, जो उन्होंने आगे आने वाली हमारी जैसी पीढ़ियों के फायदे के लिए अध्यात्म शास्त्रों में लिखकर छोड़ा। विशेषकर योगवासिष्ठ ग्रंथ में इन तथ्यों का बड़ा सुंदर और वैज्ञानिक जैसा वर्णन है। कभी उसका इतना आकर्षण होता था कि उसको शांति से पढ़ने के लिए या उसे पढ़कर कई लोग घरबार छोड़कर ज्ञानप्राप्ति के लिए निर्जन आश्रम में चले जाते थे। यह पाठक को क्वांटम या पारलौकिक जैसे आयाम में स्थापित कर देता है। इसमें पूनरुक्तियां बहुत ज्यादा हैं, इसलिए बारबार एक ही चीज को विभिन्न आकर्षक तरीकों से दोहराकर यह माइंडवाश जैसा कर देता है। कट्टर भौतिकवादी कह सकते हैं कि जागृति से अनुभव हुए आत्माकाश के अंदर मानसिक सूक्ष्म जगत के बारे में तो यह बात सही है, पर बाहर के स्थूल भौतिक जगत के बारे में यह कैसे मान लें। पर वे उसी पल यह बात भूल जाते हैं कि मन के इलावा स्थूल जगत जैसी चीज का कोई अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि मन के इलावा आदमी कुछ नहीं जान सकता। सिर्फ उस जगत की एक कल्पना कर सकते हैं, पर वह काल्पनिक जगत भी तो सूक्ष्म ही है। फिर कुछ तर्क जिज्ञासु लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि चेतन आकाश को ही मूल क्यों समझा जाए, जड़ आकाश को क्यों नहीं, क्योंकि दुःख अभाव आदि जड़ आकाश के टुकड़े हैं।

अचेतन आकाश भी चेतन आत्माकाश में जगत की तरह आभासी व मिथ्या है

इसका जवाब जागृत लोग इस तरह से देते हैं कि चिदाकाश-लहर की तरह ही अचेतन आकाश का अस्तित्व भी नहीं है। वह भ्रम से अपनी आत्मा के रूप में महसूस होता है। वह भ्रम जगत के प्रति आसक्ति से बढ़ता है, और अनासक्ति से घटता है। जैसे चेतन आकाश में जगत आभासी है, उसी तरह अचेतन आकाश भी। इसीलिए सांख्य दर्शन अचेतन आकाश को भी चेतन आकाश की तरह शाश्वत मानता है। हालांकि सर्वोच्च स्कूल ऑफ़ थॉट वेदांत दर्शन स्पष्ट करता है कि अचेतन आकाश चेतन आत्माकाश में वास्तविक नहीं आभासी है।

पूर्णता की अनुभूति भाव रूपी चेतन आकाश के अनुभव से ही होती है, अभाव रूपी अचेतन आकाश के अनुभव से नहीं

जरा गहराई से सोचें तो यह अनुभवसिद्ध भी है। किसीको अचेतन आत्माकाश के अनुभव से यह महसूस नहीं होता कि उसे सबकुछ महसूस हो गया या वह पूर्ण हो गया, उसे कुछ जानने, करने और भोगने के लिए कुछ शेष बचा ही नहीं। पर ऐसा चेतन आत्माकाश के अनुभव से महसूस होता है। इससे मतलब स्पष्ट हो जाता है कि असल में चेतनाकाश ही सत्य और अनंत है, आम अनुभव में आने वाला भौतिक जगत तो उसमें मामुली सी, व मिथ्या अर्थात आभासी तरंग की तरह है।

सृष्टि ब्रह्म की तरह अनिर्वचनीय व अनुभवरूप है

जगत कल्पनिक है, मतलब स्थूल भौतिक जगत काल्पनिक है, क्योंकि उस तक हमारी पहुंच ही नहीं है। मानसिक सूक्ष्म जगत काल्पनिक नहीं क्योंकि यह तो अनुभव होता है। हालांकि सूक्ष्म भी स्थूल के सापेक्ष ही है। जब स्थूल ही नहीं तो सूक्ष्म कैसे हो सकता है। मतलब कि स्थूल-सूक्ष्म आदि सभी विरोधी व द्वैतपूर्ण भाव काल्पनिक हैं। इसलिए जगत सिर्फ अनुभव रूप है, अनिर्वचनीय है। इसे ही गूंगे का गुड़ कहते हैं। हर कोई ब्रह्म में ही स्थित है, केवल स्तर का फर्क है। जागृत व्यक्ति ज्यादा स्तर पर, अन्य विभिन्न प्रकार के निचले स्तरों पर। पूर्ण कोई नहीं।

एक दार्शनिक थोट एक्सीपेरिमेंट

विज्ञान जो अपने को कट्टर प्रयोगात्मक, वास्तविक व वस्तुपरक मानता है, वह भी आजकल बहुत से दार्शनिक विचार-प्रयोग प्रस्तुत कर रहा है, जिन्हें भौतिक प्रयोगों से बिल्कुल भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। फिर हम थोट एक्सपेरिमेंट करने से क्यों हिचकिचाएं, क्योंकि कुण्डलिनी का क्षेत्र भौतिक विज्ञान से ज्यादा दार्शनिक व अनुभवात्मक है। वह विचार-प्रयोग है, सृष्टि के सूक्ष्मतम मूलकण को कुण्डलिनी योग का अभ्यास मानना। वैसे शास्त्रों से यह बात प्रमाण-सिद्ध है। वेद-शास्त्रों को भी भौतिक प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है, कई मामलों में तो भौतिक से भी ज्यादा, जैसे ईश्वर व जागृति के मामलों में।

इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ ही सूक्ष्मतम तरंग के क्रेस्ट या शिखा और ट्रफ या गर्त हैं

मूलकणरूपी स्टैंडिंग वेव वह हो सकती है, जब स्वाधिष्ठान चक्र और आज्ञा चक्र के जोड़े को या मूलाधार और सहस्रार बिंदु के जोड़े को एकसाथ अंगुली से दबाकर उनके बीच कभी इड़ा से शक्ति की तरंग दौड़ती है, कभी पिंगला से, और बीचबीच में सुषुम्ना से। मूलाधार यिन या पाताल या प्रकृति है,और आज्ञा या सहस्रार यांग या स्वर्ग या पुरुष है। बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी ही मूल कण या दुनिया का असली रूप है, क्योंकि उससे ही कुण्डलिनी अर्थात मन अर्थात दुनिया का प्रदुर्भाव होता है।

अस्थायी मूलकण अल्प योगाभ्यास के रूप में है जबकि स्थायी मूलकण सम्पूर्ण योगाभ्यास के रूप में

जैसे आदमी में मूलाधार और सहस्रार के बीच में शक्ति का प्रवाह लगातार जारी रहता है, उसी तरह मूलकण में प्रकृति और पुरुष के बीच। इसीलिए तो तरंग लगातार चलती रहती है, कभी स्थिर नहीं होती। यह स्थिर या असली कण के जैसा है। आभासी कण उस प्रारम्भिक योगाभ्यास की तरह है, जिसमें इड़ा और पिंगला में शक्ति का प्रवाह थोड़ी-थोड़ी देर के लिए होता है, और कम प्रभावशाली होता है। इसीलिए ये अस्थायी कण थोड़े ही समय के लिए प्रकट होते रहते हैं, और आकाश में लीन होते रहते हैं।

पार्टिकल मूलाधार से सहस्रार की ओर चल रही तरंग के रूप में है, जबकि एंटीपार्टिकल सहस्रार से मूलाधार को वापिस लौट रही तरंग के रूप में है

सृष्टि के अंत में सभी कणों के एंटीपार्टिकल पैदा हो जाएंगे जो एकदूसरे को नष्ट करके प्रलय ले आएंगे

मूलाधार यहाँ प्रकृति का प्रतीक है, और सहस्रार पुरुष का। उपरोक्त अस्थायी आभासी कण प्लस और माइनस रूप के दो विपरीत कणों के रूप में पैदा होते रहते हैं। इसका मतलब है कि कभी न कभी स्थायी मूलकणरूपी तरंग भी खत्म होगी ही, बेशक सृष्टि के अंत में। फिर विपरीत मूलकण रूपी तरंग सहस्रार से मूलाधार मतलब पुरुष से प्रकृति की तरफ उल्टी दिशा में चलेगी। ऐसे में हरेक प्लस मूलकण के ठीक उलट माइनस मूलकण बनेंगे। इससे मूलकण और प्रतिमूलकण एकदूसरे से जुड़कर एकदूसरे को निगल जाएंगे, और सृष्टि का अंत हो जाएगा। इसीको प्रलय कहते हैं। फिर लम्बे समय तक कोई तरंग नहीं उठेगी। इसे ही नारायण का योगनिद्रा में जाना कहा गया है। मतलब निद्रा में तो है, पर भी अपने पूर्ण आत्मजागृत स्वरूप में स्थित है। विज्ञान कहता है कि पार्टिकल के बनते ही एंटीपार्टिकल भी बन जाता है, पर वह कहीं गायब हो जाता है। हो सकता है कि सृष्टि के अंत में वे एंटीपार्टिकल दुबारा वापस आ जाते हों।

इस समय एंटीपार्टिकल गुरुत्वाकर्षण के रूप में हैं

मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कई वैज्ञानिक किस्म के लोग भी ऐसा ही कह रहे हैं। ग्रेविटी अंतरिक्ष में गड्ढे की तरह है। तरंग का आधा भाग भी गड्ढे की तरह होता है। दोनों किसी बल के कारण मिल नहीं पाते। इसलिए कण से निर्मित ग्रेविटी कण को अपनी तरफ खिंचती तो है, पर पूरी तरह उससे मिल नहीं पाती। जब तरंग का ऊपर का आधा भाग ही दिखता है, तो वह कण की तरह ही दिखता है। जब ग्रेविटी का गड्ढा भी उसके साथ देखा जाता है, तो वह कण तरंग रूप में आ जाता है। इसका मतलब है कि प्रलय के समय गुरुत्वाकर्षण ही सारी सृष्टि को निगल जाएगा।

क्वांटम ग्रेविटी का अस्तित्व है

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि इलेक्ट्रोन, क्वार्क आदि मूलकणों की भी ग्रेविटी है। यह सूक्ष्म कण द्वारा निर्मित अंतरिक्ष के आभासी सूक्ष्म गड्ढे के जैसे एंटीपार्टिकल के रूप में है। इसे विज्ञान ढूंढ नहीं पा रहा है, पर क्वांटम ग्रेविटी के अस्तित्व को नकार भी नहीं पा रहा है।

मूल तरंग का पहला नोड प्रकृति है, और दूसरा नोड पुरुष है

ये चित्रोक्त बिंदू स्टैंडिंग वेव के दो नोड हैं। एक कोने पर ब्लू डॉट नेगेटिव या नॉर्थ पोल नोड है और दूसरे कोने पर रेड डॉट पॉजिटिव या साउथ पोल नोड है। दोनों तरफ को झूलती तरंग ही सृष्टि बनाने के लिए इच्छा या सोचविचार है। केंद्रीय रेखा ही ध्यान रूपी या भाव रूप सुषुम्ना है, जो सृष्टि बनाने का पक्का निश्चय है। इसीलिए कहते हैं कि ब्रह्मा ने ध्यान रूपी तप से सृष्टि को रचा। मतलब प्रकृति एक नोड है और पुरुष दूसरा नोड। वैसे भी सृष्टि की उत्पत्ति प्रकृति-पुरुष संयोग से मानी गई है। प्रकृति अंधेरा आसमान है, और पुरुष स्वयंप्रकाश आकाश है। दोनों शाश्वत हैं। प्रकृति नेगेटिव नोड है, और पुरुष पॉजिटिव नोड है। इन दोनों के बीच बनने वाली स्थिर तरंग ही सबसे छोटा मूलकण है। इस तरह के कण आकाश में पॉप आउट होते रहते हैं और उसीमें मर्ज होते रहते हैं। इनको किसी चीज से जब स्थिरता मिलती है तो ये आगे से आगे जुड़कर अनगिनत कण बनाते हैं। इससे सृष्टि का विस्तार होता है। इसका मतलब कि सृष्टि का प्रत्येक कण योग कर रहा है। पूरी सृष्टि योगमयी है।

मूलकण एक कुण्डलिनी योगी है, जो कुण्डलिनी ध्यान कर रहा है

सूक्ष्मतम तरंग की नोड से नोड के बीच की न्यूनतम दूरी प्लेँक लेंथ बनती है

वैज्ञानिकों को क्वार्क से छोटा कोई कण नहीं मिला है। यह भी हो सकता है कि क्वार्क से छोटी तरंगें भी हैं, जैसा कि स्ट्रिंग थ्योरी कहती है, पर वे क्वार्क के स्तर तक बढ़ कर ही अपने को कण रूप में दिखा पाती हैं। केवल कण के स्तर पर ही तरंगें पकड़ में आती हैं। हो सकता है कि सबसे छोटी तरंग प्लेंक लेंथ के बराबर है, जो सबसे छोटी लम्बाई संभव है। उस प्लेँक तरंग का एक नोड प्रकृति है, और दूसरा पुरुष। वैसे प्रकृति और पुरुष एक ही हैं, केवल आभासी अंतर है। इस तरह प्लेँक लेंथ भी वास्तविक नहीं आभासिक है। आकाश में तरंग भी तो आभासी ही हो सकती है, असली नहीं। प्रकृति मतलब मूलाधार से एक शक्ति की तरंग पुरुष मतलब सहस्रार की तरफ उठती है, मतलब देव ब्रह्मा योगरूपी तप के लिए ध्यान लगाते हैं। वह तरंग इड़ा और पिंगला के रूप में बाईं और दाईं तरफ बारी-बारी से झूलने लगती है, मतलब ब्रह्मा ध्यान में डूबने की कोशिश करते हैं। ध्यान थोड़ा स्थिर होने पर शक्ति की तरंग बीच वाली आभासी जैसी सुषुम्ना नाड़ी में बहने लगती है। इसीलिए कण भी आभासी या एज्यूम्ड ही है, असली तो तरंग ही है। इससे कुण्डलिनी चित्र मन में स्थिर हो जाता है, मतलब पहला और सबसे छोटा मूलकण बनता है। फिर तो आगे से आगे सृष्टि बढ़ती ही जाती है। आज भी तो सारी सृष्टि बाहर के खुले व खाली अंतरिक्ष की तरफ भाग रही है, मतलब वही मूल स्वभाव बरकरार है कि प्रकृति से पुरुष की तरफ जाने की होड़ लगी है। सृष्टि की हरेक वस्तु और जीव का एक ही मूल स्वभाव है, अचेतनता से चेतनता की ओर भागना।

मूलकण

कुण्डलिनी योग विज्ञान ही क्वांटम यांत्रिकी, अंतरिक्ष विज्ञान, खगोल-भौतिकी और ब्रह्माण्ड विज्ञान का शिखरबिंदु है

कुण्डलिनी जागरण ही सिद्ध करता है कि अभावात्मक शून्य का अस्तित्व ही नहीं है

दोस्तों, मैं हाल ही में अपने जागृति के अनुभवों को विज्ञानवादियों को प्रेषित करने बारे विचार कर रहा था, ताकि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्य को सुलझाया जा सके, जिस पर वे बुरी तरह से अटके हुए हैं। पर मुझे उनकी साइटों पर न तो कमेंट बॉक्स मिला और न ही उनकी तरफ से इस तरह की कोई अपील ही गूगल पर मिली। एक-दो का एड्रेस मिलने पर उनसे जीमेल पर कंटेक्ट किया भी पर कोई जवाब नहीं मिला। आपको ऐसा कोई मंच पता हो तो कृपया जरूर शेयर करना।

अध्यात्म विज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान आपस में जुड़े हुए हैं, और एकदूसरे के बिना अधूरे हैं। इसीलिए सनातन वैदिक दर्शन के साथ ज्योतिष विज्ञान भी सम्मिलित किया गया था, और इसे एक विशिष्ट सम्मानजनक स्थान प्राप्त था।

शून्यवाद ही सभी समस्याओं की जड़ है

शून्यवाद सबसे बड़ा द्वैतकारी अज्ञान है। विज्ञान अगर शून्यवाद का सहारा न लेता तो आज प्रकृति और मानवता का विनाश न हो रहा होता। इससे आज चारों तरफ युद्ध, प्राकृतिक आपदा आदि के रूप में हायतौबा न मच रही होती। फिर विज्ञान और अद्वैतरूपी अध्यात्म एकसाथ आगे बढ़ रहे होते और मानवमात्र का सम्पूर्ण व सर्वांगीण विकास सुनिश्चित हो रहा होता। प्राचीन भारत से बुद्ध धर्म इसी वजह से लगभग बाहर कर दिया गया था, क्योंकि उसने शून्यवाद का सहारा लिया। हालांकि बुद्धिस्ट बहुत तर्क देते हैं कि उनका उपास्य शून्य नहीं पर चेतन ब्रह्म है, यह सत्य भी है, पर बौद्ध धर्म के बाहरी आचारविचार से तो वह शून्य ही प्रतीत होता है। आम जनमानस तो ऊपर से ही देखते हैं, गहरी बात नहीं समझ पाते।

लगता है कि दुनिया की सबसे अधिक शून्य-विरोधी संस्कृति हिंदु सनातन संस्कृति ही है। इसमें मिट्टी-पत्थर आदि जड़ वस्तुओं के साथसाथ अंधेरा काला आसमान भी पूजा जाता है। उदाहरण के लिए शनि देव और काली माता

जागृति के अनुभव के आधार पर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और उसकी आधारभूत संरचना

जिसे हम शून्य या अंधकारनुमा या आनंदहीन आकाश समझते हैं, और अपनी आत्मा के रूप में महसूस भी करते हैं, वह जागृति के समय वैसा महसूस नहीं होता, अर्थात वह अशून्य या प्रकाश या आनंदमय जैसा आकाश महसूस होता है। अशून्य इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह भरे-पूरे भौतिक संसार के जैसा ही लगता है। प्रत्यक्ष भौतिक संसार व उससे बने मानसिक चित्र या विचार उसमें तरंगों की तरह महसूस होते हैं। वैसे ही जैसे सागर में तरंगें होती हैं। विभिन्न धर्मशास्त्रों में भी ऐसा ही वर्णन किया गया है। तो क्या विज्ञान इस बात को अनदेखा कर रहा है।

अपने मूल रूप में अंतरिक्ष ही आत्मा है

सारा संसार आभासी व अवास्तविक है

मूल मत ओरिजिनल माने वास्तविक अर्थात निर्विकार रूप में। आइंस्टिन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से यह काफी पहले ही जाहिर हो गया था, पर इस आध्यात्मिक रूप में किसी ने समझा नहीं था। आइंस्टिन बहुत महान व्यक्ति थे पर ऐसा लगता है कि उनका सामना किसी असली जागृत व्यक्ति से नहीं हुआ था। हाहा। आइंस्टिन ने सिद्ध किया कि स्पेसटाईम किसी त्रिआयामी चादर की तरह मुड़ सकता है, उसमें गड्ढे पड़ सकते हैं। वैसे जो पहले ही खाली गड्ढे की तरह है, उसमें एक और खाली गड्ढा कैसे बन सकता है। मतलब साफ है कि अंतरिक्ष वैसा शून्य नहीं है, जैसा आम आदमी समझते हैं। वह एकसाथ शून्य भी है और नहीं भी, वह भावरूप शून्य है, वह आत्मा है, वह परमात्मा है। यह ऐसे ही है, जैसे तलाब के पानी में किश्ती से गड्ढा बनता है। तरंग भी तो इसी तरह गड्ढा बनाते हुए चलती है। मतलब अंतरिक्ष में तरंग बन सकती है। फिर वह शून्य कैसे हुआ। कई लोग यह भी कह सकते हैं कि वह ऐसा शून्य है, जिसमें झूठमूठ वाली माने वर्चुअल तरंग बन सकती है। ऋषिमुनि भी आत्मा का ऐसा ही अनुभव बताते हैं। मतलब वह ऐसी तरंग नहीं होती जो आत्मा को असल में विकृत कर सके। यहाँ तक कि पानी भी तरंग से थोड़ी देर के लिए ही विकृत लगता है, तरंग गुजर जाने के बाद उसकी सतह भी बिल्कुल सीधी और पहले जैसी हो जाती है। हवा के साथ भी ऐसा ही होता है। फिर अंतरिक्ष या आकाश तो उनसे भी सूक्ष्म है, वह कैसे विकृत हो सकता है। वह तो थोड़ी देर के लिए भी विकृत नहीं हो सकता, क्योंकि विकृत होकर जाएगा कहाँ। क्योंकि हर जगह आकाश है। पानी और हवा तो खाली स्थान को खिसक जाते हैं, पर अंतरिक्ष कहाँ को खिसकेगा। इसका मतलब है कि अंतरिक्ष की तरंग पानी और हवा की तरंग से भी ज्यादा आभासी है। मतलब तरंग कहीं नहीं चलती, सिर्फ प्रतीत होती है। है न आश्चर्यजनक तथ्य। गजब का शून्य है भाई। सम्भवतः यही परमात्मा की वह जादूगरी या माया है जो न होते हुए भी सबकुछ दिखा देती है।

शास्त्रीय प्रमाण के रूप में, महाभारत जितने आकार वाले प्रसिद्ध योगवासिष्ठ उपनामित महारामायण ग्रंथ में बारम्बार और हर जगह भावपूर्ण शून्य आकाश या अंतरिक्ष को ही परमात्मा कहा गया है। उसमें हर जगह संसार को असत्य व आभासी कहा गया है।

शून्य में अगर सारी दुनिया विद्यमान है तो वह शून्य दुनिया के जैसे गुणों वाला होना चाहिए

अब हम उपरोक्त वैज्ञानिक विश्लेषण को थोड़ा तर्क की धार देते हैं। अंतरिक्ष रूपी शून्य में वह सभी क्रियाकलाप होते हैं, जो भौतिक संसार में होते हैं, जैसा कि हमने ऊपर कहा। इसका मतलब है कि शून्य का स्वभाव दुनिया के जैसा होना चाहिए। यह तभी संभव है अगर उस शून्य में सत्त्व गुण, रजो गुण और तमोगुण, प्रकृति के ये तीनों गुण एकसाथ विद्यमान हों, क्योंकि भौतिक संसार इन्हीं तीनों गुणों से बना है, जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है। इसीलिए उस शून्य आत्मा को त्रिगुणातीत मतलब तीनों गुणों से परे कहा गया है, क्योंकि तीनों गुण एकसमान मात्रा में होने से एकदूसरे के प्रभाव को कैंसल कर देते हैं, हालांकि रहते तीनों गुण हैं। इसीलिए अध्यात्म शास्त्रों में परमात्मा को अनिर्वचनीय भी कहते हैं, मतलब उसमें तीनों गुण हैं भी, नहीं भी हैं, ये दोनों बातें भी हैं और दोनों भी नहीं हैं। शून्य में ये गुण एक दूसरे से कम ज्यादा नहीं हो सकते, क्योंकि समय के साथ भौतिक वस्तु के परिवर्तन से गुण कम या ज्यादा होते रहते हैं। पर शून्य परिवर्तित नहीं हो सकता। इसका मतलब है कि शून्य आत्मा एक ही समय में सत्त्व रूपी प्रकाश, रज रूपी क्रियाशीलता (आभासी तरंग के रूप में, यद्यपि यह नहीं भी है) और तम रूपी अंधकार एकसाथ विद्यमान हैं। यह सब शास्त्रों के इस कथन को सिद्ध करता है कि वास्तविक व सर्वव्यापी अंतरिक्ष जो परम-आत्मा है, वह सभी सांसारिक जीवों की तुलना में कहीं बेहतर तरीके से चेतन है, और वह प्राप्त किया जा सकता है।

शून्य अंतरिक्ष भी भौतिक पदार्थों की तरह व्यवहार करता है

हालांकि सिर्फ यह अंतर है कि जिसे शून्य अंतरिक्ष आभासिक या वर्चुअल रूप में करता है, उसे भौतिक पदार्थ सत्य रूप में करता है। इसलिए शास्त्रों में कहा है कि परमात्मा सबसे बड़ा नटखट, नाटककार और जादूगर है। उदाहरण के लिए समुद्र के पानी से पानी छोटे-छोटे टुकड़ों में बाहर उछलकर वास्तविक बुँदे बनाता है। पर शून्य अंतरिक्ष रूपी सागर में पहली बात, शून्य टुकड़ा बन कर नहीं उछल सकता, दूसरा ऐसी किसी खाली जगह का अस्तित्व ही नहीं है, जो शून्य आकाश के रूप में न हो। इसलिए एक ही रास्ता बचता है कि झूठमूठ की अर्थात दिखावे की अर्थात वर्चुअल बुँदे बनाई जाए। उन्हें ही विज्ञान के अनुसार हम मूल कण अर्थात एलिमेंट्री पार्टिकल्स कहते हैं, जो लगातार शून्य अंतरिक्ष में पॉप होते रहते हैं अर्थात प्रकट होते रहते हैं और उसीमें विलीन भी होते रहते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे समुद्र से जल की बुँदे बाहर निकलती रहती हैं, और उसीमें विलीन होती रहती हैं। फिर आत्मजागृति का यह अनुभव विज्ञानसम्मत व सही क्यों न मान लिया जाए कि सारी सृष्टि आत्मा के अंदर आभासी तरंग है। दिक्क़त यही है कि उस अनुभव को किसी और को नहीं दिखाया जा सकता और कोई मशीन भी उसे वेरिफाई नहीं कर सकती। इसे खुद अनुभव करना पड़ता है।

विज्ञान-युग का योग-युग में रूपान्तरण

धर्मग्रंथों में यह प्रचुरता से लिखा गया है कि शून्य से जगत की उत्पत्ति नहीं हो सकती। बहुत पहले से ऋषियों को आत्मानुभव से ज्ञात था कि स्वयंप्रकाश आकाशरूप आत्मा से ही इस जगत की उत्पत्ति हुई है, किसी अँधेरेनुमा शून्य अंतरिक्ष से नहीं। इसके लिए बहुत से विज्ञाननुमा तर्क दिए जाते थे, जिससे भी यही सिद्ध होता था। आत्मजागृत अर्थात कुण्डलिनी-जागृत व्यक्ति भी ऐसा ही अनुभव बताते हैं। वह आत्मा भौतिक इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आ सकता, केवल अपने स्वयं के असली स्वरूप के रूप में अनुभव होता है। इसलिए एक बात तो साफ है कि विज्ञान से बेशक उसका अंदाजा लग जाए, पर दिखेगा वह केवल योग से ही। विज्ञान उसका अंदाजा लगाकर शांत हो जाएगा, और फिर उसको अनुभव करने के लिए योग की तरफ बढ़ेगा। सारे वैज्ञानिक योगी बन जाएंगे, और विज्ञान-युग योग-युग में रूपान्तरित हो जाएगा।

बाहर के और भीतर के ब्रह्माण्ड में कोई अंतर नहीं है

अगर मन का ब्रह्माण्ड आत्मा के अंदर अनुभव होता है, तो बाहर का भौतिक ब्रह्माण्ड भी, क्योंकि उसे हम मानसिक ब्रह्माण्ड से ही अंदाजन जान सकते हैं, सीधे व असली रूप में कभी नहीं। पर इतना तय है कि बाहरी ब्रह्माण्ड का असली रूप भी मनोरूप ब्रह्माण्ड की तरह ही है। बस इतना सा अंतर है कि बाहरी ब्रह्माण्ड को भीतरी ब्रह्माण्ड से ज्यादा स्थिरता मिली हुई है, इसीलिए हजारों सालों तक सभी को वह लगभग एक जैसा ही दिखता है, पर मानसिक ब्रह्माण्ड विचारों और अनुभवों के साथ प्रतिपल बदलता रहता है।

विज्ञान के कई गहन रहस्य कुण्डलिनी जागरण से सुलझ सकते हैं

उदाहरण के लिए ब्रह्माण्ड के सबसे गहरे मूल में क्या है, क्वांटम एन्टेन्गलमेंट का सिद्धांत क्या है, विद्युत्चुंबकीय तरंग क्या है व कैसे चलती है, वेक्यूम एनर्जी, क्वांटम फलकचुएशन, डार्क एनर्जी, महाविस्फोट, ब्रह्माण्ड का विस्तार, ब्लैक होल, मल्टीवर्स, पैरालेल यूनिवर्स, एंटी यूनिवर्स, फोर्थ डाईमेंशन, स्पेसटाईम ट्रेवल, टेलीपोर्टेशन, एलियन हंटिंग आदि, और अन्य भी बहुत कुछ। कालेब शार्फ, एक अंतरिक्ष विज्ञानी कहते हैं कि पूरा ब्रह्माण्ड ही एक देत्याकार एलियन हो सकता है। आइंस्टिन की नजर में समय एक भ्रम है। ऐसी सभी सोचें और थ्योरियाँ ज्ञानी ऋषियों और दार्शनिकों के चिंतन से मेल खाती हैं। इसलिए विज्ञानवादियों को एकांगी भौतिक सोच छोड़कर योग और अध्यात्म को भी अपने अध्ययन में सम्मिलित करना चाहिए, तभी दुनिया के सारे रहस्यों से पर्दा उठ सकता है। कई क्वांटम थ्योरियाँ योग विज्ञान से समझ में आ सकती हैं, जैसे कि वेव पार्टिकल ड्यूल नेचर ऑफ़ मैटर, स्टैंडिंग वेव, डबल स्लिट एकस्पेरीमेंट, डी ब्रॉगली सिद्धांत, केसीमिर इफेक्ट, आदि बहुत सी। जिस थ्योरी ऑफ़ एव्रीथिंग के लिए वैज्ञानिक लम्बे समय से प्रयास कर रहे हैं, वह लगता है कि योग विज्ञान से मिल सकती है। कुछ वैज्ञानिक सत्य की तरफ बढ़ भी रहे हैं, जैसे कि स्टीफेन हॉकिंग की स्ट्रिंग थ्योरी, रोबर्ट लैंजा की बायोसेंटरिज्म थ्योरी, हरेक वस्तु के रूप में एलियन के छुपे होने की थ्योरी, एडम फ्रैंक की धरती को एक जीवित प्राणी समझने वाली थ्योरी, धरती को अपराधियों के लिए जेल और चन्द्रमा को जेल निगरानी केंद्र मानने वाली थ्योरी आदि,और अन्य भी कई सारी। हालांकि यह सब वैज्ञानिक अंदाजे ही हैं, जैसे मैंने ऊपर कहा। इनको सिद्ध करने के लिए उन लोगों को साथ में लेने की जरूरत है, जिन्होंने योग से कुण्डलिनी जागरण को प्रत्यक्ष रूप में अनुभव किया है। आजकल ऐसी अबूझ किस्म की विज्ञान पहेलियों पर हर जगह चर्चा का माहौल गरमाया हुआ है। लोहा गर्म है, और वैज्ञानिकों को हथोड़ा चलाने में संकोच नहीं करना चाहिए। अगर आप भी इन पहेलियों को सुलझाने में योगदान देना चाहते हैं, तो कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें।

कुण्डलिनी ध्यान योग में विपासना अर्थात साक्षीभाव साधना का अत्यधिक महत्त्व है

विपासना साधना के लिए अति उपयोगी प्राणायाम कपालभाति

पिछली से पिछली पोस्ट में ही मैं विपासना के बारे में भी बता रहा था। मेरे अनुभव के अनुसार कपालभाति प्राणायाम भी विपासना में बहुत मदद करता है। सिर्फ सांस को बाहर ही धकेलना है। अंदर जैसी जाती हो, जाने दो। अपने को थकान न होने दो। तनावरहित बने रहो। जो रंगबिरंगे विचार उमड़ रहे हों, उन्हें उमड़ने दो। जो पुरानी यादें आ रही हों, उन्हें आने दो। वे खुद शून्य आत्मा में विलीन होती जाएंगी। दरअसल ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मस्तिष्क में बिना किसी भौतिक वस्तुओं की सहायता के उनके प्रकट होने से आदमी को यह पता चल जाता है कि वे असत्य व आकाश की तरह सूक्ष्म हैं, पर भौतिक संसार के सम्पर्क में आने से भ्रम से सत्य व स्थूल जान पड़ते हैं। विपासना का सिद्धांत भी यही है। इसीलिए शास्त्रों में बारबार यही कहा गया है कि संसार असत्य है। सम्भवतः यह विपासना के लिए लिखा गया है, क्योंकि जब विपासना से संसार असत्य जान पड़ता है, तब संसार को असत्य जान लेने से विपासना खुद ही हो जाएगी। कपालभाति प्राणायाम से इसलिए विपश्यना ज्यादा होती है, क्योंकि व्यस्त दैनिक व्यवहार में भी हम ऐसे ही तेजी से और झटकों से सांस लेते हैं। जैसे ही कोई विचार आता है, ऐसा लगता है कि सांस के लिए भूख बढ़ गई, और अंदर जाने वाली सांस भी गहरी, मीठी, स्वाद व तृप्त करने वाली लगती है। अगर विचार को बलपूर्वक न दबाओ, तो इससे आगे से आगे जुड़ने से विचारों की श्रृंखला बन जाती है, और लगभग सारा ही मन घड़े से बाहर आ जाता है, जिसे पिछली पोस्ट की कथा में कहा गया है कि एक घड़े से सैंकड़ो या हजारों पुत्रों ने जन्म लिया। जो विचार-चित्र पहले से ही हल्का जमा हो, वह कम उभरता है। मतलब साफ है कि आसक्ति भरे व्यवहार से ही मन में कचरा जमा होता है। उसको विपासना से बारबार बाहर निकालना मतलब कचरा साफ करना। जैसे कढ़ाई में पक्के जमे मैल को बारबार धोकर बाहर निकलना पड़ता है, वैसे ही आसक्ति वाले विचार को बारबार निकालना पड़ता है।

आदमी को घूमककड़ की तरह रहना चाहिए, क्योंकि विपश्यना साधना नए-नए स्थानों व व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से मजबूत होती है

पिछली पोस्ट में कहे रंगारंग कार्यक्रम को देखते हुए मेरे मन में नए-पुराने विचार साक्षीभाव व आनंद के साथ उमड़ रहे थे, और आत्मा में विलीन हो रहे थे। मतलब विपश्यना साधना खुद ही हो रही थी। दरअसल वह क्षेत्र मेरे लिए खुद ही विपश्यना क्षेत्र बना था। ऐसा होता है जब किसी स्थान के साथ एक पुराना व अज्ञात सा संबंध जुड़ता है, जो अपने गृहक्षेत्र से मिलता जुलता तो है, पर वहाँ के लोग नए आदमी को अजनबी व बाहरी सा समझ कर उसके प्रति तटस्थ से रहते हैं। विरोध तो नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें भी नए व्यक्ति से अपनापन सा लगता है। इससे आदमी की शक्ति खुद ही दुappearing व रिश्तों के फालतू झमेलों से बची रहकर विपश्यना में खर्च होती रहती है। हमारे गाँव के जो देवता हैं, वे हमारे पुराने राजा हुआ करते थे। वे एकप्रकार से हमारे पूर्वज भी थे। उनके साथ हमारे पूर्वज पुरानी रियासत से नई रियासत को आए थे। नई रियासत में उन्होंने अपना घर उस जगह पर बनवाया, जहाँ से उन्हें अपनी पुरानी रियासत वाली पहाड़ी सीधे और हर समय नजर आती थी। अपने घर के ज्यादातर द्वार और खिड़कियां भी उन्होंने उसी पहाड़ी की दिशा में बनवाए थे। उनकी मृत्यु के बाद जब वहाँ उनका मंदिर बनवाया गया, तब भी उसका द्वार उसी दिशा में रखा गया। इसी तरह मेरी दादी माँ बताया करती थीं कि एक वैरागी साधु बाबा उनके गाँव में रहते थे, जो उन्हें बेटी की तरह प्यार देते थे। दादी का गाँव एक ऊँचे पहाड़ के शिखर के पास ही था। वह पहाड़ बहुत ऊँचा था, और आसपास के पहाड़ उसके सामने कहीं नहीं ठहरते थे। उस पहाड़ के शिखर पर आने का उनका मुख्य मकसद था, नीचाई पर बसे उनके अपने पुराने गांव का लगातार नजर में बने रहना, ताकि अच्छे से साधना हो पाती, और पुराने घर की याद विपासना के साथ बनी रहती अर्थात वह याद उनकी साधना में विघ्न न डालकर लाभ ही पहुंचाती। वास्तव में, दुर्भाग्य से, धीरे-धीरे उनके परिवार के सभी सदस्य विभिन्न आपदाओं से कालकवलित हो गए थे। इस वजह से ढेर सारी दौलत भी मौत की भेंट चढ़ गई थी। इससे वे संसार के मोह से बिल्कुल विरक्त हो गए थे। व्यक्तिगत संबंध के मामले में भी यही आध्यात्मिक मनोविज्ञान काम करता है। किसी व्यक्ति के प्रति आकर्षण हो पर यदि वह बाहरी व विदेशी समझ कर प्यार करने वाले को ठुकरा दे तो विपश्यना खुद ही होती रहती है। मुझे बताते हुए कोई संकोच नहीं कि इस दूसरे किस्म की व्यक्तिगत संबंध की विपशयन से मेरी नींद में जागृति में बहुत बड़ा हाथ था।

हिंदु शास्त्रीय कथाएं एकसाथ दो अर्थ लिए होती हैं, भौतिक रूप में प्रकृति संरक्षक व आध्यात्मिक रूप में मनोवैज्ञानिक

हम इस पर भी बात रहे रहे थे कि इन कथाओं को पढ़ने का पूरा मजा तब आता है जब इनके पहेली जैसे रूप के साथ असली मनोवैज्ञानिक अर्थ भी समझ में आता है। कोई यह कह सकता है कि इन कथाओं से अंधविश्वास बढ़ता है। पर इनको मानने वालों ने इनके असली या भौतिक रूप पर ज्यादा अमल नहीं किया, इन पर अटूट श्रद्धा करके इनकी दिव्यता और पारलौकिकता को बनाए रखा। इनको पवित्र व पारलौकिक कथाओं की तरह समझा, लौकिक और भौतिक नहीं। वैसे ये कथाएं ज्यादा अमानवीय भी नहीं हैं। गंगा नदी को पूजने को ही कहा है, उसे गंदा करने को तो नहीं। इससे प्रकृति के प्रति प्रेम जागता है। वैसे भी नाड़ी विशेषकर सुषुम्ना नाड़ी नदी की तरह बहती है। नदी के ध्यान से संभव है कि नाड़ी की तरफ खुद ही ध्यान चला जाए। मतलब जो भी कथाएं हैं, दोनों प्रकार से फायदा ही करती हैं, भौतिक रूप से प्रकृति का संरक्षण करती हैं, और आध्यात्मिक रूपक के रूप में आध्यात्मिक उत्थान करती हैं। कुछ गिनेचुने मामले में मानवता के अहित में प्रतीत भी हो सकती हैं, जैसे कि मनु स्मृति के कुछ वाक्यों पर आरोप लगाया जाता है। पर आरोप के जवाब में ज्यादातर उनका आध्यात्मिक या पारलौकिक अर्थ ही लगाया जाता है, भौतिक नहीं। हमने तो अपने जीवन में उनके अनुसार चलते हुए कोई देखा नहीं, सिर्फ उन पर आरोप ही लगते देखे हैं। बहुत सम्भव है कि वे वाक्य मूल ग्रंथ में नहीं थे और बाद में उनको साजिश के तहत जोड़ दिया गया हो। इसके विपरीत कुछ अन्य धर्मों में मुझे अधिकांश लोग वैसी रहस्यात्मक कथाओं पर हूबहू चलते दिखाई देते हैं, उनके विकृत जैसे भौतिक रूप में। यहाँ तक कि वे उन कथाओं के आध्यात्मिक विश्लेषण व रहस्योद्घाटन की इजाजत भी नहीं देते, और जबरदस्ती ऐसा करने वालों को जरा भी नहीं बख्शते। जेहाद, काफीरों की अकारण हत्या, जबरन धर्मान्तरण जैसे उदाहरण आज सबके सामने हैं। हमने एक पोस्ट लिखी थी, जिसमें होली स्पिरिट व कुंडलिनी के बीच में समानता को प्रदर्शित किया गया था। दो-चार लोग किसी भी वैज्ञानिक तर्क को नकारते हुए उस पोस्ट को नकारने लगे। एक जेंटलमेन तो उसे शैतान व डेमन या शत्रु की कारगुजारी बताने लगे। वे इस बात को नहीं समझ रहे थे कि वह विभिन्न धर्मों के बीच मैत्री व समानता पैदा करने का प्रयास था। वे इस वैबसाईट में दर्शाए तंत्र को ओकल्ट या भूतिया प्रेक्टिस समझ रहे थे। हमें किसी भी विषय में पूर्वाग्रह न रखकर ओपन माइंडड होना चाहिए। हिंदु दर्शन में अन्य की अपेक्षा विज्ञानवादी सोच व तर्कशीलता को ज्यादा महत्त्व दिया गया है, और जबरदस्ती अंधविश्वास को बनाए रखने को कम, जहाँ तक मैं समझता हूँ। वैसे कुछ न कुछ कमियाँ तो हर जगह ही पाई जाती हैं। साथ में वे महोदय मुझे कहते हैं कि मैं किसी धर्म वगैरह से अपनी पहचान बना कर रखता हूँ। मैं जब हिंदु हूँ तो अपने हिंदु धर्म से पहचान बना कर क्यों नहीं रखूंगा। सभी धर्मों में अपनी विशिष्टताएं हैं। विभिन्न धर्मों से दुनिया विविध रंगों से भरी व सुंदर लगती है, हालांकि उनमें अवश्यँभावी रूप से अनुस्यूत मानव धर्म सबके लिए एकसमान ही है। पर फिर भी मैं अपने स्वतंत्र विचार रखता हूँ, और जो मुझे गलत या अंधविश्वास लगता है, उसे मैं नहीं भी मानता। मेरी लगभग हरेक पोस्ट में किसी न किसी हिंदु मान्यता का वैज्ञानिक व मानवीय स्पष्टीकरण होता है। मेरे धर्म की उदार और सर्वधर्मसमभाव वाली सोच का भला इससे बड़ा सीधा प्रमाण क्या होगा। एकबार हिंदी भाषा पढ़ाने वाले एक विद्वान व दार्शनिक अध्यापक से व्हट्सएप्प पर मेरी मुलाक़ात हुई थी। मैंने उन्हें बताया कि कैसे पाश्चात्य लोग योग में यहाँ के स्थानीय हिंदु लोगों से ज्यादा रुचि ले रहे हैं। तो उन्होंने लिखा कि उनमें संस्कार नहीं होते। संस्कार मतलब पीढ़ियों से चली आ रही सांस्कृतिक परम्परा। अब मुझे उनकी वह बात समझ आ रही है कि कैसे संस्कारों की कमी से आदमी एकदम से उस परम्परा के खिलाफ जा सकता है, जिसको वह जीजान से मान रहा हो। संस्कार आदमी को परम्परा से जोड़ कर रखते हैं।

कुंडलिनी जागरण को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करने वाले शारीरिक चिह्न या मार्कर की खोज से ही असली आध्यात्मिक सामाजिक युग की शुरुआत हो सकती है 

दोस्तो, मैं पिछले हफ्ते की पोस्ट में बता रहा था कि कैसे जनेऊ आदमी की कुंडलिनी को संतुलित और मजबूत करता है। विभिन्न कामों के बीच में इसके बाएं बाजू की तरफ खिसकते रहने से आदमी का ध्यान इस पर जाता रहता है, और कई बार वह इसे सीधा करने का प्रयास भी करता है। इससे उसका ध्यान खुद ही कुंडलिनी की तरफ जाता रहता है, क्योंकि जनेऊ कुंडलिनी और ब्रह्म का प्रतीक ही तो है। शौच के समय इसे दाएं कान पर इसलिए लटकाया जाता है, क्योंकि उस समय इड़ा नाड़ी का प्रभाव ज्यादा होता है। इसके शरीर के दाएं तरफ आने से मस्तिष्क के बाएं हिस्से अर्थात पिंगला नाड़ी को बल मिलता है। शौच की क्रिया को भी अक्सर स्त्रीप्रधान कहा जाता है, और इड़ा नाड़ी भी स्त्री प्रधान ही होती है। इसको संतुलित करने के लिए पुरुषप्रधान पिंगला नाड़ी को सक्रिय करना पड़ता है, जो मस्तिष्क के बाएं हिस्से में होती है। जनेऊ को दाएं कान पर टांगने से यह काम हो जाता है। शौच के दौरान साफसफाई में भी बाएं हाथ का प्रयोग ज्यादा होता है, जिससे भी दाएं मस्तिष्क में स्थित इड़ा नाड़ी को बल मिलता है। वैसे तो शरीर के दाएं अंग ज्यादा क्रियाशील होते हैँ, जैसे कि दायां हाथ, दायां पैर ज्यादा मजबूत होते हैं। ये मस्तिष्क के पिंगला प्रधान बाएं हिस्से से नियंत्रित होते हैं। मस्तिष्क का यह पिंगला प्रधान बायां हिस्सा इसके इड़ा प्रधान दाएं हिस्से से ज्यादा मजबूत होता है आमतौर पर। जनेऊ के शरीर के बाएं हिस्से की तरफ खिसकते रहने से यह अप्रत्यक्ष तौर पर मस्तिष्क के दाएं हिस्से को मजबूती देता है। सीधी सी बात के तौर पर इसे यूँ समझो जैसा कि पिछली पोस्ट में बताया गया था कि शौच के समय कुंडलिनी ऊर्जा का स्रोत मूलाधार सक्रिय रहता है। उसकी ऊर्जा कुंडलिनी को तभी मिल सकती है, यदि इड़ा और पिंगला नाड़ी समान रूप से बह रही हों। इसके लिए शरीर के बाएं भाग का बल जनेऊ धागे से खींच कर दाएं कान तक और अंततः दाएं मस्तिष्क तक पहुंचाया जाता है। इससे आमतौर पर शिथिल रहने वाला दायां मस्तिष्क मज़बूत हो जाता है। इससे मस्तिष्क के दोनों भाग संतुलित होने से आध्यात्मिक अद्वैत भाव बना रहता है। वैसे भी उपरोक्तानुसार कुंडलिनी या ब्रह्म का प्रतीक होने से जनेऊ लगातार कुंडलिनी का स्मरण बना कर रखता ही है। अगर किसी कारणवश जनेऊ को शौच के समय कान पर रखना भूल जाओ, तो बाएं हाथ के अंगूठे से दाहिने कान को स्पर्श करने को कहा गया है, मतलब एकबार दाहिने कान को पकड़ने को कहा गया है। इससे बाएं शरीर को भी शक्ति मिलती है और दाएं मस्तिष्क को भी, क्योंकि बाएं शरीर की इड़ा नाड़ी दाएं मस्तिष्क में प्रविष्ट होती है। वैसे भी दायाँ कान दाएं मस्तिष्क के निकट ही है। इससे दाएं मस्तिष्क को दो तरफ से शक्ति मिलती है, जिससे वह बाएं मस्तिष्क के बराबर हो जाता है। यह अद्भुत प्रयोगात्मक आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। मेरे यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर मुझे अपनी नजरों में एक बेहतरीन संतुलित व्यक्ति मानते थे, एक बार तो उन्होंने एक परीक्षा के दौरान ऐसा कहा भी था। सम्भवतः वे मेरे अंदर के प्रथम अर्थात स्वप्नकालिक क्षणिक जागरण के प्रभाव को भांप गए थे। सम्भवतः मेरे जनेऊ का भी मेरे संतुलित व्यक्तित्व में बहुत बड़ा हाथ हो। वैसे पढ़ाई पूरी करने के बाद एकबार मैंने इसके बाईं बाजू की तरफ खिसकने को काम में रुकावट डालने वाला समझ कर कुछ समय के लिए इसे पहनना छोड़ भी दिया था, पर अब समझ में आया कि वैसा काम में रुकावट डालने के लिए नहीं था, अपितु नाड़ियों को संतुलित करने के लिए था। कोई यदि इसे लम्बा रखकर पेंट के अंदर से टाइटली डाल के रखे, तब यह बाईं बाजू की तरफ न खिसकते हुए भी लाभ ही पहुंचाता है, क्योंकि बाएं कंधे पर टंगा होने के कारण फिर भी इसका झुकाव बाईं तरफ को ही होता है।

कुंडलिनी जागरण से परोक्ष रूप से लाभ मिलता है, प्रत्यक्ष रूप से नहीं

पिछली पोस्ट में बताए गए कुंडलिनी जागरण रूपी प्रकृति-पुरुष विवेक से मुझे कोई सीधा लाभ मिलता नहीं दिखता। इससे केवल यह अप्रत्यक्ष लाभ मिलता है कि पूर्ण व प्रकृतिमुक्त शुद्ध पुरुष के अनुभव से प्रकृति-पुरुष के मिश्रण रूपी जगत के प्रति इसी तरह आसक्ति नष्ट हो जाती है, जैसे सूर्य के सामने दीपक फीका पड़ जाता है। जैसे शुद्ध चीनी खा लेने के बाद कुछ देर तक चीनी-मिश्रित चाय में मिठास नहीं लगती, उसी तरह शुद्ध पुरुष के अनुभव के बाद कुछ वर्षो तक पुरुष-मिश्रित जगत से रुचि हट जाती है। इससे आदमी के व्यवहार में सुधार होता है, और वह प्रकृति से मुक्ति की तरफ कदम दर कदम आगे बढ़ने लगता है। मुक्ति तो उसे इस तरह की मुक्त जीवनपद्धति से लम्बा जीवन जीने के बाद ही मिलती है, एकदम नहीं। तो फिर कुंडलिनी जागरण का इंतजार ही क्यों किया जाए, क्यों न सीधे ही मुक्त लोगों की तरह जीवन जिया जाए। मुक्त जीवन जीने में वेद-पुराण या शरीरविज्ञान दर्शन पुस्तक बहुत मदद करते हैं।आदमी चाहे तो अपने ऐशोआराम का दायरा बढ़ा कर कुंडलिनी जागरण के बाद भी ऐसे मुक्त व्यवहार को नकार सकता है, क्योंकि आदमी को हमेशा स्वतंत्र इच्छा मिली हुई है, बाध्यता नहीं। यह ऐसे ही है जैसे वह चाय में ज्यादा चीनी घोलकर चीनी खाने के बाद भी चाय की मिठास हासिल कर सकता है। ऐसा करने से तो उसे भी आम जागृतिरहित आदमी की तरह कोई लाभ नहीं मिलेगा। कोई बुद्धिमान आदमी चाहे तो ऐशोआराम के बीच भी उसकी तरफ मन से अरुचि बनाए रखकर या बनावटी रुचि पैदा करके कुंडलिनी जागरण के बिना ही उससे मिलने वाले लाभ को प्राप्त कर सकता है। यह ऐसे ही है जैसे कोई व्यक्ति व्यायाम आदि से या चाय में कृत्रिम स्वीटनर डालकर नुकसानदायक चीनी से दूरी बना कर रख सकता है।

दूसरों के भीतर कुण्डलिनी प्रकाश दिखना चाहिए, उसका जनक नहीं

पिछली पोस्ट के अनुसार, लोग तांत्रिकों के आहार-विहार को देखते हैं, उनकी कुंडलिनी को नहीं। इससे वे गलतफहमी में उनका अपमान कर बैठते हैं, और दुख भोगते हैं। भगवान शिव का अपमान भी प्रजापति दक्ष ने इसी गलतफहमी में पड़कर किया था। इसी ब्लॉग की एक पोस्ट में मैंने दक्ष द्वारा शिव के अपमान और परिणामस्वरूप शिव के गणों द्वारा दक्ष यज्ञ के विध्वन्स की कथा रहस्योदघाटित की थी। कई लोगों को लग सकता है कि यह वैबसाईट हिन्दुप्रचारक है। पर दरअसल ऐसा नहीं है। यह वैबसाईट कुंडलिनी प्रचारक है। जिस किसी भी प्रसंग में कुंडलिनी दिखती है, चाहे वह किसी भी धर्म या संस्कृति से संबंधित क्यों न हो, यह वैबसाईट उसे उठा लेती है। अब क्योंकि सबसे ज्यादा कुंडलिनी-प्रसंग हिन्दु धर्म में ही हैं, इसीलिए यह वैबसाईट हिन्दु रंग से रंगी लगती है।

कुंडलिनी योगी चंचलता योगी की स्तरोन्नता से भी बनता है

इस हफ्ते मुझे एक और अंतरदृष्टि मिली। एक दिन एक आदमी मुझे परेशान जैसे कर रहा था। ऊँची-ऊँची बहस किए जा रहा था। अपनी दादागिरी जैसी दिखा रहा था। मुझे जरूरत से ज्यादा प्रभावित और मेनीपुलेट करने की कोशिश कर रहा था। स्वाभाविक था कि उसका वह व्यवहार व उसके जवाब में मेरा व्यवहार आसक्ति और द्वैत पैदा करने वाला था। हालांकि मैं शरीरविज्ञान दर्शन के स्मरण से आसक्ति और द्वैत को बढ़ने से रोक रहा था। वह दोपहर के भोजन का समय था। उससे वार्तालाप के कारण मेरा लंच का समय और दिनों की अपेक्षा आगे बढ़ रहा था, जिससे मुझे भूख भी लग रही थी। फिर वह चला गया, जिससे मुझे लंच करने का मौका मिल गया। शाम को मैं रोजमर्रा के योगाभ्यास की तरह कुंडलिनी योग करते समय अपने शरीर के चक्रोँ का नीचे की तरफ जाते हुए बारी-बारी से ध्यान कर रहा था। जब मैं मणिपुर चक्र में पहुंच कर वहाँ कुंडलिनी ध्यान करने लगा, तब दिन में बहस करने वाले उस आदमी से संबंधित घटनाएं मेरे मानस पटल पर आने लगीं। क्योंकि नाभि में स्थित मणिपुर चक्र भूख और भोजन से संबंधित होता है, इसीलिए उस आदमी से जुड़ी घटनाएं उसमें कैद हो गईं या कहो उसके साथ जुड़ गईं, क्योंकि उससे बहस करते समय मुझे भूख लगी थी। क्योंकि यह सिद्धांत है कि मन में पुरानी घटना के शुद्ध मानसिक रूप में स्पष्ट रूप में उभरने से उस घटना का बीज ही खत्म हो जाता है, और मन साफ हो जाता है, इसलिए उसके बाद मैंने मन का हल्कापन महसूस किया। प्रायश्चित और पश्चाताप को इसीलिए किसी भी पाप की सबसे बड़ी सजा कहा जाता है, क्योंकि इनसे पुरानी पाप की घटनाएं शुद्ध मानसिक रूप में उभर आती हैं, जिससे उन बुरे कर्मों का बीज ही नष्ट हो जाता है। जब कर्म का नामोनिशान ही नहीं रहेगा, तो उससे फल कैसे मिलेगा। जब पेड़ का बीज ही जल कर राख हो गया, तो कैसे उससे पेड़ उगेगा, और कैसे उस पर फल लगेगा। इसी तरह हरेक कर्म किसी न किसी चक्र से बंध जाता है। उस कर्म के समय आदमी में जिस चक्र का गुण ज्यादा प्रभावी हो, वह कर्म उसी चक्र में सबसे ज्यादा बंधता है। वैसे तो हमेशा ही आदमी में सभी चक्रोँ के गुण विद्यमान होते हैं, पर किसी एक विशेष चक्र का गुण सबसे ज्यादा प्रभावी होता है। भावनात्मक अवस्था में अनाहत चक्र ज्यादा प्रभावी होता है। यौन उत्तेजना या रोमांस में स्वाधिष्ठान चक्र ज्यादा प्रभावी होता है। मूढ़ता में मूलाधार, मधुर बोलचाल के समय विशुद्धि, बौद्धिक अवस्था में अज्ञाचक्र और ज्ञान या अद्वैत भाव की अवस्था में सहस्रार चक्र ज्यादा प्रभावी होता है। इसीलिए योग करते समय बारीबारी से सभी चक्रोँ पर कुंडलिनी ध्यान किया जाता है ताकि सबमें बंधे हुए विविध प्रकार के आसक्तिपूर्ण कर्मों के संस्कार मिट सकें। मेरा आजतक का अधिकांश जीवन रोमांस और यौन उत्तेजना के साथ बीता है, ऐसा मुझे लगता है, इसलिए मेरे अधिकांश कर्म स्वाधिष्ठान चक्र से बंधे हैं। सम्भवतः इसीलिए मुझे स्वाधिष्ठान चक्र पर कुंडलिनी ध्यान से सबसे ज्यादा राहत मिलती है। आसक्ति के कारण ही चक्र ब्लॉक हो जाते हैं, क्योंकि कुंडलिनी ऊर्जा उन पर एकत्रित होती रहती है, और ढंग से घूम नहीं पाती। तभी तो आपने देखा होगा कि जो लोग चुस्त और चंचल होते हैं, वे हरफनमौला जैसे होते हैं। हरफनमौला वे इसीलिए होते हैं क्योंकि वे किसी भी विषय से ज्यादा देर चिपके नहीं रहते, जिससे किसी भी विषय के प्रति उनमें आसक्ति पैदा नहीं होती। वे लगातार विषय बदलते रहते हैं, इसलिए वे चंचल लगते हैं। वैसे चंचलता को अध्यात्म की राह में रोड़ा माना जाता है, पर तंत्र में तो चंचलता का गुण मुझे सहायक लगता है। ऐसा लगता है कि तंत्र के प्रति कभी इतनी घृणा पैदा हुई होगी आम जनमानस में कि इससे जुड़े सभी विषयों को घृणित और अध्यात्मविरोधी माना गया। इसी चंचलता से उत्पन्न अनासक्ति से कुंडलिनी ऊर्जा के घूमते रहने से ही चंचल व्यक्ति ऊर्जावान लगता है। स्त्री स्वभाव होने के कारण चंचलता भी मुझे तंत्र के पंचमकारों का अंश ही लगती है। बौद्ध दर्शन का क्षणिकवाद भी तो चंचलता का प्रतीक ही है। मतलब कि सब कुछ क्षण भर में नष्ट हो जाता है, इसलिए किसी से मन न लगाओ। बात भी सही और वैज्ञानिक है, क्योंकि हरेक क्षण के बाद सब कुछ बदल जाता है, बेशक स्थूल नजर से वैसा न लगे। इसलिए किसी चीज से चिपके रहना मूर्खता ही लगती है। पर तार्किक लोग पूछेंगे कि फिर बुद्धिस्ट लोग ध्यान के बल से एक ही कुंडलिनी से क्यों चिपके रहते हैं उम्रभर। तो इसका जवाब है कि कुंडलिनी के इलावा अन्य सभी कुछ से अपनी चिपकाहट छुड़ाने के लिए ही वे कुंडलिनी से चिपके रहते हैं। गोंद सारा कुंडलिनी को चिपकाने में खर्च हो जाता है, बाकि दुनिया को चिपकाने के लिए बचता ही नहीं। पूर्णावस्था प्राप्त होने पर तो कुंडलिनी से भी चिपकाहट खुद ही छूट जाती है। इसीलिए मैं चंचलता को भी योग ही मानता हुँ, अनासक्ति योग। चंचलता योग भी कुंडलिनी योग की तरफ ले जाता है। जब आदमी कभी ऐसी अवस्था में पहुंचता है कि वह चंचलता योग को जारी नहीं रख पाता है, तब वह खुद ही कुंडलिनी योग की तरफ झुक जाता है। उसे अनासक्ति का चस्का लगा होता है, जो उसे चंचलता योग की बजाय कुंडलिनी योग से मिलने लगती है। चंचलता के साथ जब शरीरविज्ञान दर्शन जैसी अद्वैत भावना का तड़का लगता है, तब वह चंचलता योग बन जाती है। हैरानी नहीं होनी चाहिए यदि मैं कहूँ कि मैं चंचलता योगी से स्तरोन्नत होकर कुंडलिनी योगी बना। चंचलता योग को कर्मयोग का पर्यायवाची शब्द भी कह सकते हैं क्योंकि दोनों में कोई विशेष भेद नहीं है। कई बार कुंडलिनी योगी को डिमोट होकर फिर से चंचलता योगी भी बनना पड़ता है। यहाँ तक कि जागृत व्यक्ति की डिमोशन भी हो जाती है, बेशक दिखावे के लिए या दुनियादारी के पेचीदे धंधे चलाने के लिए ही सही। प्राचीन भारत में जागृत लोगों को अधिकांशतः संन्यासी बना दिया जाता था। सम्भवतः यह इसलिए किया जाता था ताकि हर कोई अपने को जागृत बताकर मुफ्त की सामाजिक सुरक्षाएं प्राप्त न करता। संन्यास के सारे सुखों को छोड़ने के भय से संभावित ठग अपनी जागृति का झूठा दावा पेश करने से पहले सौ बार सोचता। इसलिए मैं वैसी सुरक्षाओं को अपूर्ण मानता हुँ। क्या लाभ ऐसी सुरक्षाओं का जिसमें आदमी खुलकर सुख ही न भोग सके, यहाँ तक कि सम्भोग सुख भी। मैं तो ओशो महाराज वाले सम्पन्न संन्यास को बेहतरीन मानता हुँ, जिसमें वे सभी सुख सबसे बढ़कर भोगते थे, वह भी संन्यासी रहते हुए। सुना है कि उनके पास बेहतरीन कारों का जखीरा होता था स्वयं के ऐशोआराम के लिए। हालांकि मुझे उनकी अधिकांश प्रवचन शैली वैज्ञानिक या व्यावहारिक कम और दार्शनिक ज्यादा लगती है। वे छोटीछोटी बातों को भी जरूरत से ज्यादा गहराई और बोरियत की हद तक ले जाते थे। यह अलग बात है कि फिर भी उनके प्रवचन मनमोहक या सममोहक जैसे लगते थे कुछ देर के लिए। मैं खुद भी उनकी एक पुस्तक से उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रेरित हुआ हुँ। उस पुस्तक का नाम था, तंत्र, अ सुप्रीम अंडरस्टेंडिंग। हालांकि उसे पढ़ कर ऐसा लगा कि छोटी सी बात समझने के लिए बहुत समय लगा और बहुत विस्तृत या सजावटी लेख पढ़ना पड़ा। दरअसल उनकी शैली ही ऐसी है। उनकी रचनाएं इतनी ज्यादा व्यापक और विस्तृत हैं कि उनमें से अपने काम की चीज ढूंढना उतना ही मुश्किल है, जितना भूसे में सुई ढूंढना है। यह मेरी अपनी सीमित सोच है। हो सकता है कि यह गलत हो। आज के व्यस्त युग में इतना समय किसके पास है। फिर भी उनके विस्तार में जो जीवंतता, व्याव्हारिकता और सार्थकता है, वह अन्य विस्तारों में दृष्टिगोचर नहीं होती। मैं अगली पोस्ट में इस पर थोड़ा और प्रकाश डालूंगा। सभी जागृत लोगों को विज्ञान ही ऐसा सम्पन्न संन्यास उपलब्ध करा सकता है। शरीर या मस्तिष्क में जागृति को सिद्ध करने वाला चिन्ह या मार्कर जरूर होता होगा, जिसे विज्ञान से पकड़ा जा सके। फिर वैसे मार्कर वाले को जागृत पुरुष की उपाधि और उससे जुड़ी सर्वश्रेष्ठ सुविधाएं वैसे ही दी जाएंगी, जैसे आज डॉक्टरेट की परीक्षा पास करने वाले आदमी को दी जाती हैं। फिर सभी लोग जागृति की प्राप्ति के लिए प्रेरित होंगे जिससे सही में आध्यात्मिक समाज का उदय होगा।

मैदानी क्षेत्रों में तंत्रयोग निर्मित मुलाधार में कुंडलिनी शक्ति का दबाव पहाड़ों में सहस्रार की तरफ ऊपर चढ़कर कम हो जाता है 

जिन पंचमकारों की ऊर्जा से आदमी कुंडलिनी जागरण के करीब पहुंचता है, वे कुंडलिनी जागरण में बाधक भी हो सकते हैं तांत्रिक कुंडलिनी सम्भोग को छोड़कर। दरअसल कुंडलिनी जागरण सत्वगुण की चरमावस्था से ही मिलता है। कुंडलिनी सम्भोग ही सत्वगुण को बढ़ाता है, अन्य सभी मकार रजोगुण और तमोगुण को ज्यादा बढ़ाते हैं। सतोगुण से ही कुंडलिनी सहस्रार में रहती है, और वहीं पर जागरण होता है, अन्य चक्रोँ पर नहीं। दरअसल सतोगुण से आदमी का शरीर सुस्त व ढीला व थकाथका सा रहता है। हालांकि मन और शरीर में भरपूर जोश और तेज महसूस होता है। पर वह दिखावे का ज्यादा होता है। मन और शरीर पर काम का जरा सा बोझ डालने पर भी शरीर में कंपन जैसा महसूस होता है। आनंद बना रहता है, क्योंकि सहस्रार में कुंडलिनी क्रियाशीलता बनी रहती है। यदि तमोगुण या रजोगुण का आश्रय लेकर जबरदस्ती बोझ बढ़ाया जाए, तो कुंडलिनी सहस्रार से नीचे उतर जाती है, जिससे आदमी की दिव्यता भी कम हो जाती है। फिर दुबारा से कुंडलिनी को सहस्रार में क्रियाशील करने के लिए कुछ दिनों तक समर्पित तांत्रिक योगाभ्यास करना पड़ता है। यदि साधारण योगाभ्यास किया जाए तो बहुत दिन या महीने लग सकते हैं। गुणों के संतुलित प्रयोग से तो कुंडलिनी पुरे शरीर में समान रूप से घूमती है, पर सहस्रार में उसे क्रियाशील करने के लिए सतोगुण की अधिकता चाहिए। ऐसा समझ लो कि तीनों गुणों के संतुलन से आदमी नदी में तैरता रह पाता है, और सतोगुण की अधिकता में बीचबीच में पानी में डुबकी लगाता रहता है। डुबकी तभी लगा पाएगा जब तैर रहा होगा। शांत सतोगुण से जो ऊर्जा की बचत होती है, वह कुंडलिनी को सहस्रार में बनाए रखने के काम आती है। ऊर्जा की बचत के लिए लोग साधना के लिए एकांत निवास ढूंढते हैं। गाँव देहात या पहाड़ों में इतना ज्यादा शारीरिक श्रम करना पड़ता है कि वीर्य शक्ति को ऊपर चढ़ाने के लिए ऊर्जा ही नहीं बचती। इसीलिए वहाँ तांत्रिक सम्भोग का कम बोलबाला होता है। हालांकि पहाड़ और मैदान का मिश्रण तंत्र के लिए सर्वोत्तम है। पहाड़ की प्राकृतिक शक्ति प्राप्त करने से तरोताज़ा आदमी मैदान में अच्छे से तांत्रिक योगाभ्यास कर पाता है। बाद में उस मैदानी अभ्यास के पहाड़ में ही कुंडलिनी जागरण के रूप में फलीभुत होने की ज्यादा सम्भावना होती है, क्योंकि वहाँ के विविध मनमोहक प्राकृतिक नज़ारे कुंडलिनी जागरण के लिए चिंगारी का काम करते हैं। मैदानी क्षेत्रों में तंत्रयोग निर्मित मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रोँ से जुड़े अंगों में कुंडलिनी शक्ति का दबाव पहाड़ों में सहस्रार की तरफ ऊपर चढ़कर कम हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पहाड़ों की गगनचुम्बी पर्वतश्रृंखलाएं कुंडलिनी को ऊपर की ओर खींचती हैं। पहाड़ों में गुरुत्वाकर्षण कम होने से भी कुंडलिनी शक्ति मूलाधार से ऊपर उठती रहती है, जबकि मैदानों में गुरुत्व बल अधिक होने से वह मूलाधार के गड्ढे में गिरते रहने की चेष्टा करती है। दरअसल कुंडलिनी शक्ति सूक्ष्म रूप में उस खून में ही तो रहती है, जो नीचे की ओर बहता है। सम्भवतः जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने पहाड़ों के इसी दिव्यगुण के कारण इन्हें चार धाम यात्रा में प्रमुखता से शामिल किया था। इसी वजह से पहाड़ पर्यटकों से भरे रहते हैं। सम्पन्न लोग तो एक घर पहाड़ में और एक घर मैदान में बनाते हैं। सम्भवतः भारत को इसीलिए कुंडलिनी राष्ट्र कहा जाता है, क्योंकि यहाँ मैदानों और पहाड़ों का अच्छा और अनुकूल अनुपात है। सादे आहारविहार वाले तो इस वजह से शक्ति अवशोषक सम्भोग को ही घृणित मानने लगते हैं। इसी वजह से तंत्र का विकास पंजाब जैसे अनुकूल भौतिक परिवेशों में ज्यादा हुआ। इसी तरह बड़े शहरों में आराम तो मिलता है, पर शांति नहीं। इससे ऊर्जा की बर्बादी होती है। इसीलिए छोटे, अच्छी तरह से प्लानड और शांत, सुविधाजनक, मनोरम व अनुकूल पर्यावरण वाले स्थानों पर स्थित, विशेषकर झील आदि विशाल जलराशि युक्त स्थानों पर स्थित शहर तंत्रयोग के लिए सर्वोत्तम हैं। राजोगुण और तमोगुण से शरीर की क्रियाशीलता पर विराम ही नहीं लगता, जिससे ऊर्जा उस पर खर्च हो जाती है, और कुंडलिनी को सहस्रार में बनाए रखने के लिए कम पड़ जाती है। बेशक दूसरे चक्रोँ पर कुंडलिनी भरपूर चमकती है, पर वहाँ जागरण नहीं होता। सम्भवतः यह अलग बात है कि एक निपुण तांत्रिक सभी पंचमकारों के साथ भी सत्त्वगुण बनाए रख सकता है। जब कुंडलिनी सहस्रार में क्रियाशील होती है तो खुद ही सतोगुण वाली चीजों की तरफ रुझान बढ़ जाता है, और रजोगुण या तमोगुण वाली चीजों के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है। यह अलग बात है कि कुंडलिनी को सहस्रार के साथ सभी चक्रोँ में क्रियाशील करने के लिए तीनों गुणों की संतुलित अवस्था के साथ पर्याप्त ऊर्जा की उपलब्धता की महती भूमिका है। हालांकि कुंडलिनी जागरण सतोगुण की प्रचुरता वाली अवस्था में ही प्राप्त होता है।

 

अब तो पुष्प खिलने दो, अब तो सूरज उगने दो~कुंडलिनी रूपकात्मक आध्यात्मिक कविता

अब तो पुष्प खिलने दो

अब तो सूरज उगने दो।

भौँरा प्यासा घूम रहा

हाथी पगला झूम रहा।

पक्षी दाना चौँच में लेके

मुँह बच्चे का चूम रहा।

उठ अंगड़ाई भरभर के अब

नन्हें को भी जगने दो।

अब तो पुष्प--

युगों युगों तक घुटन में जीता

बंद कली बन रहता था।

अपना असली रूप न पाकर

पवनवेग सँग बहता था।

मिट्टी खाद भरे पानी सँग

अब तो शक्ति जगने दो।

अब तो पुष्प ---

लाखों बार उगा था पाकर

उपजाऊ मिट्टी काया।

कंटीले झाड़ों ने रोका या

पेड़ों ने बन छाया।

खिलते खिलते तोड़ ले गया

जिसके भी मन को भाया।

हाथी जैसे अभिमानी ने

बहुत दफा तोड़ा खाया।

अब तो इसको बेझिझकी से

अपनी मंजिल भजने दो।

अब तो पुष्प--

अबकी बार न खिल पाया तो

देर बहुत हो जाएगी।

मानव के हठधर्म से धरती

न जीवन दे पाएगी।

करो या मरो भाव से इसको

अपने काम में लगने दो।

अब तो पुष्प --

मौका मिला अगर फिर भी तो

युगों का होगा इंत-जार।

धीमी गति बहुत खिलने की

एक नहीं पंखुड़ी हजार।

प्रतिस्पर्धा भी बहुत है क्योंकि

पूरी सृष्टि खुला बजार।

बीज असीमित पुष्प असीमित

चढ़ते मंदिर और मजार।

पाखण्डों ढोंगों से इसको

सच की ओर भगने दो।

अब तो पुष्प खिलने दो

अब तो सूरज उगने दो।

ढाई आखर प्रेम का पढ़ ले जो कोई वो ही ज्ञानी

बोल नहीं सकता कुछ भी मैं
घुटन ये कब तुमने जानी।
चला है पदचिन्हों पर मेरे
मौनी हो या फिर ध्यानी।

मरने की खातिर जीता मैं
जीने को मरते हो तुम।
खोने का डर तुमको होगा
फक्कड़ का क्या होगा गुम।
हर पल एकनजर से रहता
लाभ हो चाहे या हानि।
बोल नहीं सकता ----

मेरे कंधों पर ही तुमने
किस्मत अपनी चमकाई।
मेरे ही दमखम पर तुमने
धनदौलत इतनी पाई।
निर्विरोध हर चीज स्वीकारी
फूटी-कौड़ी जो पाई।
खाया सब मिल-बाँट के अक्सर
बन इक-दूजे संग भाई।
कर्म-गुलामी की पूरी, ले
कुछ तिनके दाना-पानी।
बोल नहीं---

तेज दिमाग नहीं तो क्या गम
तेज शरीर जो पाया है।
सूंघे जो परलोक तलक वो
कितनी अद्भुत काया है।
मेरा इसमें कुछ नहीं यह
सब ईश्वर की माया है।
हर-इक जाएगा दुनिया से
जो दुनिया में आया है।
लगती तो यह छोटी सी पर
बात बड़ी और सैयानी।
बोल नहीं---

हूँ मैं पूर्वज तुम सबका पर
मेरा कहा कहाँ माना।
क़ुदरत छेड़ के क्या होता है
तुमने ये क्यों न जाना।
याद करोगे तुम मुझको जब
याद में आएगी नानी।
बोल--

मरा हमेशा खामोशी संग
तुम संग भीड़ बहुत भारी।
तोड़ा हर बंधन झटक कर
रिश्ता हो या फिर यारी।
मुक्ति के पीछे भागे तुम
यथा-स्थिति मुझे प्यारी।
वफा की रोटी खाई हरदम
तुमको भाए गद्दारी।
कर-कर इतना पाप है क्योंकर
जरा नहीं तुमको ग्लानि।
बोल नहीं---

लावारिस बन बीच सड़क पर
तन मेरा ठिठुरता है।
खुदगर्जी इन्सान की यारो
कैसी मन-निष्ठुरता है।
कपट भरे विवहार में देखो
न इसका कोई सानी।
बोल नहीं---

रोटी और मकान बहुत है
कपड़े की ख्वाइश नहीं।
शर्म बसी है खून में अपने
अंगों की नुमाइश नहीं।
बेहूदे पहनावे में तुम
बनते हो बड़े मानी।
बोल नहीं----

नशे का कारोबार करूँ न
खेल-मिलावट न खेलूँ।
सारे पुट्ठे काम करो तुम
मार-कूट पर मैं झेलूँ।
क्या जवाब दोगे तुम ऊपर
रे पापी रे अभिमानी।
बोल नहीं----

पूरा अपना जोर लगाता
जितना मेरे अंदर हो।
मेरा जलवा चहुँ-दिशा में
नभ हो या समंदर हो।
बरबादी तक ले जाने की
क्यों तुमने खुद को ठानी।
बोल नहीं सकता--

खून से सींचा रे तुझको फिर
भूल गया कैसे मुझको।
रब मन्दर मेरे अंदर फिर
भी न माने क्यों मुझको।
लीला मेरी तुझे लगे इक
हरकत उल्टी बचकानी।
बोल नहीं---

कुदरत ने हम दोनों को जब
अच्छा पाठ पढ़ाया था।
भाई बड़ा बना करके तब
आगे तुझे बढ़ाया था।
राह मेरी तू क्या सुलझाए
खुद की जिससे अनजानी।
बोल नहीं--

लक्ष्य नहीं बेशक तेरा पर
मुंहबोला वह है मेरा।
मकड़जाल बुन बैठा तू जो
उसने ही तुझको घेरा।
याद दिलाऊँ लक्ष्य तुम्हारा
बिन मस्तक अरु बिन बानी।
बोल नहीं---

प्यार की भाषा ही समझूँ मैं
प्यार की भाषा समझाऊँ।
प्यार ही जन्नत प्यार ही ईश्वर
प्यार पे बलिहारी जाऊँ।
ढाई आखर प्रेम का पढ़ ले
जो कोई वो ही ज्ञानी।
बोल नहीं--
@bhishmsharma95

हँस चुगे जब दाना-दुनका, कवूआ मोती खाता है~ समकालीन सामाजिक परिस्थितियों पर आधारित एक आलोचनात्मक, कटाक्षपूर्ण व व्यंग्यात्मक कविता-गीत

ज्ञानीजन कहते दुनिया में
ऐसा कलियुग आता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।

ज्ञानी-ध्यानी ओझल रहते
काल-सरित के संग न बहते।
शक्ति-हीनता के दोषों को
काल के ऊपर मढ़ते रहते।
मस्तक को अपने बलबूते
बाहुबली झुकाता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

खूब तरक्की है जो करता
नजरों में भी है वो खटकता।
होय पलायित बच जाता या
दूर सफर का टिकट है कटता।
अच्छा काम करे जो कोई
वो दुनिया से जाता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

अपनी डफली राग भी अपना
हर इक गाना गाता है।
कोई भूखा सोए कोई
धाम में अन्न बहाता है।
दूध उबाले जो भी कोई
वही मलाई खाता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

संघे शक्ति कली-युगे यह
नारा सबको भाता है।
बोल-बोल कर सौ-दफा हर
सच्ची बात छुपाता है।
भीड़ झुंड बन चले जो कोई
वही शिकार को पाता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

जितने ढाबे उतने बाबे
हर-इक बाबा बनता है।
लाठी जिसकी भैंस भी उसकी
मूरख बनती जनता है।
शून्य परीक्षा हर इक अपनी
पीठ को थप-थपाता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

करतब-बोध का ठेका देता
कोई भी तब पेन न लेता।
मेल-जोल से बात दूर की
अपना भी न रहता चेता।
हर इक अपना पल्ला झाड़े
लदे पे माल चढ़ाता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

शिष्टाचार किताबी होता
नौटँकी खिताबी होता।
भीतर वाला सोया होता
सर्व-धरम में खोया होता।
घर के भीतर सेंध लगाकर
घरवाले को भगाता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

मेहनत करे किसान बिपारी
खूब मुनाफा पाता है।
बैठ-बिठाय सिंहासन पर वो
पैसा खूब कमाता है।
देकर करज किसानों को वह
अपना नाच नचाता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

जात-धरम को ऊपर रख कर
हक अपना जतलाता है।
शिक्षा-दीक्षा नीचे रख कर
शोषित वह कहलाता है।
निर्धन निर्धनता को पाए
पैसे वाला छाता है।
हँस चुगे जब दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----
साभार~@bhishmsharma95🙏

गाने के लिए उपयुक्त वैकल्पिक रचना (मामूली परिवर्तन के साथ)~हँस चुगे है दाना-दुनका, कवूआ मोती खाता है

ज्ञानीजन कहते जगत में
ऐसा कलियुग आता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।

ज्ञानी-ध्यानी ओझल रहते
काल-सरित तट रहते हैं।
शक्ति-हीनता के दोषों को
काल के ऊपर मढ़ते हैं।
मस्तक को अपने बलबूते-2
बाहु-बली झुकाता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

खूब तरक्की करता है जो
आँखों में वो खटकता है।
होय पलायित बच जाता जां
दूर-टिकट तब कटता है।
अच्छा काम करे जो कोई-2
वो दुनिया से जाता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

अपनी डफली राग भी अपना
हर इक गाना गाता है।
कोई भूखा सोए कोई
धाम में अन्न बहाता है।
दूध उबाले है जो कोई-2
वो ही मलाई खाता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

संघे शकती कली-युगे यह
नारा सबको भाता है।
बोल-बोल के सौ-दफा हर
सच्ची बात छुपाता है।
भीड़-झुंड चलता जो कोई-2
वो ही शिकारी पाता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

जितने ढाबे उतने बाबे
हर-इक बाबा बनता है।
लाठी जिसकी भैंस भी उसकी
मूरख बनती जनता है।
शून्य परीक्षा हर इक अपनी-2
पीठ को थप-थपाता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

करतब का ठेका देता है
पेन न कोई लेता है।
मेल-जोल से बात दूर की
अपना भी न चेता है।
हर इक अपना पल्ला झाड़े-2
लदे पे माल चढ़ाता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

शिष्टाचार किताबी होता
नौटँकी व खिताबी है।
भीतर वाला सोया होता
सर्व-धरम में खोया है।
घर के भीतर सेंध लगाकर-2
घरवाले को भगाता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

मेहनत करे किसान बिपारी
पैसा खूब कमाता है।
बैठ-बिठाय सिंहासन पर वो
खूब मुनाफा पाता है।
देकर करज किसानों को वो-2
अपना नाच नचाता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----

जात-धरम को ऊपर रख कर
हक अपना जतलाता है।
शिक्षा-दीक्षा नीचे रख कर
शोषित वह कहलाता है।
निरधन निरधनता को पाए-2
पैसे वाला छाता है।
हँस चुगे है दाना-दुनका
कवूआ मोती खाता है।
ज्ञानीजन----
ए जी रे---
ए जी रे---

धुन प्रकार~रामचंद्र कह गए सिया से, ऐसा कलियुग आएगा---

साभार~@bhishmsharma95🙏