दोस्तो, मैं पिछली कुछ पोस्टों में ब्लैकहोल व सूक्ष्मशरीर जैसे अनुभव के बारे में बात कर रहा था। थोड़ा उसका और गहराई से अध्यात्मवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं। मुझे लगता है कि जो चीज अनंत व शून्य अंतरिक्षरूपी आत्मा से अलग भौतिक रूप में है, चाहे कितने ही छोटे कण के रूप में है, उसे हम आत्मरूप से अनुभव नहीं कर सकते। आत्मा से आत्मा ही जुड़ सकती है, अन्य कुछ नहीं। वैसे तो आत्मा की आभासी लहर भी जुड़ सकती है, कण तो बिल्कुल नहीं। वैसे तो लहर भी नहीँ जुड़ती, केवल जुड़ी हुई दिखती है। वह असली नहीँ बल्कि आभासी होती है, जैसे बंद आँखों को खोलते हुए पलकों के बालों से आसमान में बुलबुले जैसे दिखाई देते हैं। दरअसल आसमान में कोई बुलबुले नहीँ होते। यह उदाहरण मैंने योगवासिष्ठ ग्रंथ से लिया है। कण द्वैत का प्रतीक है। वह आत्म-आकाश से अलग है, आकाश-पुष्प या आकाश-उद्यान की तरह, जैसा शास्त्र कहते हैं। आकाश में बिना किसी आधार के यकायक फूल नहीँ खिल सकता। अगर हम योग समाधि से कुण्डलिनी छवि को आत्मरूप में महसूस करें तो वह अपनी आत्मा से अभिन्न उसमें तरंग रूप से अनुभव होगी, किसी पृथक भौतिक वस्तु या कण के रूप में नहीं। जो मुझे सूक्ष्म शरीर आत्मरूप में अनुभव हुआ वह तरंगरूप नहीं था। मतलब वह वैसा नहीं था जैसी सभी भौतिक चीजें मन के विचारों के रूप में लहरदार होती हैं। मतलब उनकी सत्ता या चमक घटती-बढ़ती रहती है। वह सूक्ष्मशरीर तो एकसमान कज्जली चमक वाला अंधेरा था। फिर उसके बारे में मुझे पूरा ब्यौरा कैसे महसूस हो रहा था, उससे भी ज्यादा जितना भौतिक रूपों से मिलता है। इसका मतलब है कि उसमें सूक्ष्म तरंगें थीं, जिनका अहसास नहीं हो रहा था, पर उनमें दर्ज सभी सूचनाओं का पूरा अहसास हो रहा था। ये तरंगें क्वांटम फ्लैकचूएशन या हलचल के रूप में हो सकती हैं, जिन्हें शरीर के बिना ऊर्जा नहीं मिल रही थीं, जिससे वे स्थूल तरंगों के रूप में व्यक्त नहीं हो पा रही थीं। वे सूक्ष्म तरंगें भी स्थूल तरंगों की तरह ही थीं। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे यदि पानी के तलाब में एक पत्थर फ़ेंकने की ऊर्जा से थोड़ी देर के लिए स्थूल तरंगें बनती हैं, तब पत्थर से मिली ऊर्जा खत्म होने के बाद भी बड़ी देर तक उसी पैटर्न की सूक्ष्म तरंगें बनती रहती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि तरंगें पेंडुलम की तरह व्यवहार करती हैं, मतलब अपनी ही अंतरंग ऊर्जा से उठती गिरती रहती हैं। फिर तो मरने के बाद आदमी के सूक्ष्मशरीर के कंपन लगातार घटते रहने चाहिए और अंततः वह कंपनरहित चिदाकाश अर्थात परमात्मा बन जाना चाहिए अर्थात आदमी खुद ही मुक्त हो जाना चाहिए। कई जगह शास्त्र भी इस ओर इशारा करते हैं कि ऐसा होता है, हालांकि ऐसा स्पष्ट नहीं कहा है, पर जिसको ज्ञान न हो या जिसने आसक्ति और द्वैत से भरा जीवन जिया हो, वह उस अँधेरे से घबराकर या उससे ऊब कर जल्दी ही अपने लिए नया शरीर चुन लेता है, और शरीर उसे अपने कंपन के अनुसार ही अच्छा या बुरा मिलता है। इसका यह मतलब भी है कि इसी तरह ब्लैकहोल की सूक्ष्म तरंगें भी समय के साथ शांत हो जाती हैं, और वह निश्चल समुद्र जैसे अनंत व शून्य अंतरिक्ष से पूरी तरह एक हो जाता है। हालांकि इसमें करोड़ों साल लग सकते हैं, क्योंकि वह पानी का नहीं बल्कि शून्य अंतरिक्ष का कंपन है। पर शास्त्र यह भी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मोक्ष अपनेआप नहीं मिलता। करोड़ों-अरबों वर्षों तक जारी रहने वाले प्रलयकाल में भी कारण शरीर से आत्मा का बंधन बना रहता है। मुझे तो लगता है कि दोनों ही बातें सही हैं, समय और परिस्थिति के अनुसार, हालांकि दूसरी बात ज्यादातर मामलों में फिट बैठती होगी।
कुण्डलिनी चित्र का हम बारबार ध्यान करते हैं, इससे वह समाधि अर्थात कुण्डलिनी जागरण के रूप में आत्मा से एकाकार हो जाता है। मतलब किसी भी चीज के बारे में ध्यान करके उसको जगा कर हम उसके बारे में पूरी तरह से सबकुछ जान जाते हैं, जैसा कि शास्त्र कहते हैं। योगवासिष्ठ में कहा गया है कि वायु से योगसमाधि से जुड़ने पर वायु की सभी शक्तियाँ मिलती हैं, जैसे आसमान में उड़ना, अदृष्य होना आदि। इसी तरह अन्य पदार्थों जैसे अग्नि, जल आदि से जुड़ने से उन-उन पदार्थोँ का संपूर्ण व प्रत्यक्ष ज्ञान होने से उनकी सभी शक्तियां मिलती हैं। सम्भवतः इन्हें पंचभूत समाधि भी कहते हैं। अब इनका वैज्ञानिक विश्लेषण तो मैं इस समय नहीँ कर सकता। पर किसी के या अपने ही सूक्ष्म शरीर को जगाने के लिए हम किसका ध्यान करेंगे। सूक्ष्मशरीर का ही करेंगे। यह नहीं पता कैसे। सम्भवतः ऐसे ही जैसे भूत का किया जाता है। गीता में कहा गया है कि देव को पूजने वाले देवता बनते हैं, और भूत को पूजने वाले भूत। तो स्वाभाविक है कि सूक्ष्म शरीर का ध्यान करने वाला सूक्ष्मशरीर ही बनेगा। क्योंकि सूक्ष्मशरीर में अँधेरे का राज है, इसलिए अंधेरा व शक्ति पैदा करने वाले मांसमदिरा व संभोग जैसे पंचमकारों के साथ तांत्रिक कुण्डलिनी योग से भूत या सूक्ष्मशरीर का आत्मरूप में अनुभव होता है, ऐसा मुझे लगता है। प्रेतात्माएं लोगों से सम्पर्क करके मदद लेना और देना चाहती हैं, पर इसके लिए आदमी में प्रेतात्मा की उच्च दबाव वाली ऊर्जा का आवेश झेलने की शक्ति होना जरूरी है, जो केवल समर्पित तांत्रिक कुण्डलिनी योग से ही संभव प्रतीत होता है। कुण्डलिनी चित्र यदि उस विशेष भूत या सूक्ष्मशरीर से संबंधित हो तो ध्यान ज्यादा जल्दी सफल और प्रभावशाली हो जाता है। पर ऐसा कैसे होता है, उसके लिए थोड़ा गहराई से विश्लेषण करना होगा।
मुझे एक नई अंतर्दृष्टि मिली है। उपरोक्त समाधि का अनुभव कुण्डलिनी जागरण की तरह नहीं था। मतलब उस अनुभव में मैं परमात्मा से एकाकार नहीं हुआ, बल्कि एक अन्य जीवात्मा से एकाकार हुआ। अगर मैं परमात्मा से एकाकार हुआ होता, तो कुण्डलिनी जागरण की तरह अनंत प्रकाश, आकाश व आनंद से कुछ क्षणों के लिए सम्पन्न हो जाता। साथ में मन-मस्तिष्क में सुहाने विचार, सागर में तरंगों की तरह उमड़ते, जैसा कि मैंने पिछली एक पोस्ट में लिखा है कि मस्तिष्क एक थिएटर मेन की तरफ काम करता है, जो मूड के अनुसार दृश्य प्रस्तुत कर देता है। हालांकि कुछ क्षणों के सूक्ष्मशरीर के अनुभव के बाद मस्तिष्क उससे संबंधित विचार बनाने लगा, जैसे उनकी मृत्यु से दुखी लोग आदि। हालांकि ये अनुभव सागर में तरंग की तरह महसूस नहीँ हो रहे थे, क्योंकि मुझे उस परमात्म-सागर का अनुभव नहीँ हो रहा था, जिसमें सभी कुछ तरंगों के रूप में है। विचारों के उठने के साथ ही शुद्ध अनुभव खत्म होने लगता है। विचार एक शोर जैसा या भ्रम जैसा पैदा करते हैं। योगी को ऐसे दिव्य अनुभव इसीलिए ज्यादा होते हैं, क्योंकि वे ज्यादा देर तक निर्विचार बने रह सकते हैं। होते सभी को हैं, पर वे विचारों के शोर के कारण इतने कम समय के लिए रहते हैं कि पहचान में ही नहीँ आते। जैसा ओशो महाराज कहते हैं कि सम्भोग के दौरान वीर्यपात के अनुभव के कुछ क्षणों के दौरान सभी को समाधि का अनुभव होता है, पर वह इतने कम समय के लिए रहता है कि उसका पता ही नहीं चलता। इसलिए वे ध्यानयोग के माध्यम से उस समय को बढ़ाने को कहते हैं। कहते हैं कि जानवरों को निकट भविष्य का अंदाजा लग जाता है, क्योंकि वे आदमी से ज्यादा निर्विचार होते हैं, हालांकि अलग अर्थात अज्ञान वाले तरीके से। मेरे इस उपरोक्त अनुभव को एकाकार भी नहीँ कह सकते, क्योंकि एकाकार तो परमात्मा के साथ ही हुआ जा सकता है। इसे ऐसे कह सकते हैं कि मैं कुछ क्षणों के लिए अपने आत्मरूप को छोड़कर सूक्ष्मशरीर बन गया। यह ऐसे था कि एक ही सूक्ष्मशरीर था, पर उसे एकसाथ अनुभव करने वाली दो आत्माएं थीं। असली या होस्ट आत्मा उन दिवंगत परिचित की थी। नकली या अतिथि या घुसपैठिया आत्मा मेरी थी। सूक्ष्मशरीर से ऐसे ही सम्पर्क किया जा सकता है। भला अँधेरे व शून्य आसमान को जानने का और क्या तरीका हो सकता है। उनकी समस्या या उनका प्रश्न जानने के लिए मैं उनके सूक्ष्मशरीर से जुड़ गया। उनकी बात कानों से नहीँ सुनाई दे रही थी, पर सीधी आत्मा में महसूस हो रही थी। न उनका शरीर, न मुख और न ही शब्द। फिर भी उनके बारे में सबकुछ जान पा रहा था और उनकी हरेक बात सुन पा रहा था। मैंने उनके सूक्ष्मशरीर में रहकर उन्हींको जवाब भी दिया, जिसे उन्होंने ध्यान से सुना, पर वैसे ही आत्म-भाषा में। फिर सम्भवतः जब मैं अपना जागृति से संबंधित अनुभव याद करने के लिए अपने सूक्ष्मशरीर में आने लगा, तब मेरे मस्तिष्क में विचारों का शोर बढ़ने लगा, जिससे सम्पर्क टूट गया। पर मुख्य बात मैंने बता दी थी। शायद मकानमालिक ने घुसपैठिये को किक मारके भगा दिया था। हाहाहा। हो सकता है बहुत से कारण रहे हो पर सबसे मुख्य वजह यह डर लगता है कि कहीं मैं उनके सूक्ष्मशरीर में हमेशा के लिए कैद न हो जाऊं, और मेरे सूक्ष्मशरीर को खाली जानकर उनकी आत्मा उसपर कब्जा न कर लें। भाई पहले अपना घर बचाना था, न कि किसी की मदद करनी थी। वैसे भी अधिकांश मामलों में कोई दूसरे के सूक्ष्मशरीर में ज्यादा देर नहीँ ठहर सकता, जैसे कोई अतिथि बनकर किसीके घर पर कब्जा नहीँ कर सकता। सम्भवतः परकायाप्रवेश सिद्धि इसीका उत्कृष्ट रूप हो, जिसमें सूक्ष्मशरीर के मालिक आत्मा को भगाकर अतिथि आत्मा स्थायी तौर पर बस जाती है। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य इसमें पारंगत थे। शास्त्रों में एक कथा आती है, जिसमें राजकुमार पुरु ने अपने वृद्ध पिता और राजा ययाति को अपनी जवानी दान दे दी थी। यह तभी हो सकता है, जब उन्होंने अपने सूक्ष्मशरीर एकदूसरे के साथ बदल दिए हों। मैंने बचपन में एक तथाकथित सत्य घटना का वर्णन पढ़ा-सुना था, जिसके अनुसार एक अंग्रेज अधिकारी कहता है कि उसने एक वृद्ध योगी बाबा को झाड़ियों के बीच में से एक नौजवान की लाश घसीटते देखा। कुछ देर के बाद वह नौजवान जिन्दा होकर किश्ती में सवार होकर नदी पार कर रहा था। मतलब साफ है कि योगी ने अपने शरीर सूक्ष्म को अपने बूढ़े शरीर से बाहर निकालकर नौजवान के मृत शरीर में प्रविष्ट करा दिया था ताकि वह लम्बे समय तक और योग कर पाता। अब पता नहीँ यह सच है कि ढोंग है कि जब किसी के शरीर में बाहरी प्रेतात्मा का कब्जा हो जाता है, जिससे उस आदमी का मन व शरीर उसके कब्जे में आ जाता है। इसे तंत्र-मंत्र आदि से ठीक करवा दिया जाता है। कुछ तो बात जरूर है, जिसे आध्यात्मिक विज्ञान ही ज्यादा अच्छे से समझ सकता है, भौतिक विज्ञान नहीं।