कुंडलिनी योग ही हमें या एलियंस को लंबी दूरी की इंटरस्टेलर यात्रा की तकनीक दिखा रहा है

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि अन्नमय कोष को खोलने के लिए शरीर का ध्यान बहुत जरूरी है। ध्यान से पहले ज्ञान का होना जरूरी है। इसीलिए शास्त्रों में शरीर के ब्रह्माण्ड के रूप में वर्णन की बहुतायत है। साथ में, ब्रह्माण्ड का अध्यात्मिक रूप में वर्णन ज्यादा है, शरीर का कम। क्योंकि सम्भवतः उस समय शरीर की सूक्ष्मता को जाँचने वाली कोई व्यावहारिक वैज्ञानिक तकनीक नहीं थी, इसलिए यही तरीका बचता था। शरीरविज्ञान दर्शन में आधुनिक विज्ञान और पुरातन अध्यात्म ज्ञान को मिश्रित किया गया है, जिससे इससे शरीर का उत्कृष्ट तरीके से ज्ञान हो जाता है। सम्भवतः इसीलिए पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन प्रशंसा की पात्र बनी है। इसे विज्ञान से अध्यात्म में प्रवेशद्वार कह सकते हैं। पिछली कुछ पोस्टों का ज्यादा झुकाव क्वांटम भौतिकी और अंतरिक्ष विज्ञान की ओर था। हालांकि वे भी कुण्डलिनी योग विज्ञान से जुड़ी हुई थीं। ऐसा इसलिए क्योंकि आजकल अधिकांश लोग भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान मानते हैं, अध्यात्म विज्ञान को नहीं। अध्यात्म विज्ञान से ही टेलीपोर्टेशन संभव हो सकता है। हो सकता है कि अध्यात्म विज्ञान इतना उन्नत हो जाए कि इस धरती का आदमी सूक्ष्मशरीर बन कर पूरे ब्रह्माण्ड की सैर पर निकल जाए, और कहीं किसी ग्रह पर किसी जीव के शरीर में कुछ दिन निवास करके वापिस धरती पर आ जाए। यह भी हो सकता है कि अपने बराबर उन्नत प्राणी के साथ मिलकर आपस में सूक्ष्मशरीरों को कुछ समय के लिए एक्सचेंज करें और एकदूसरे के ग्रहों पर कुछ जीवन बिता कर अपने-अपने ग्रह वापिस लौट जाएं। सूक्ष्मशरीर के माध्यम से ही अनंत ब्रह्माण्ड को लंघा जा सकता है, स्थूल शरीर से नहीं। पुराने समय में योगी लोग ऐसी यात्राएं करते भी थे। कुल मिलाकर आत्मज्ञान होने पर आदमी हर समय हर जगह स्थित हो जाता है, जो सर्वोच्च स्तर की अंतरिक्ष यात्रा ही तो है। यही टाइम ट्रेवल और स्पेस ट्रेवल का सबसे आसान और सही तरीका लगता है मुझे, बेशक जो चाहे वह भौतिक शरीर के साथ भी प्रयास कर सकता है। हो सकता है कि एलियन्स को उनसे ही धरती का पता चला है, जिसके बाद वे यूएफओ से भी यहाँ आने लग गए हों। क्रायोस्लीप, लाइट सेल, वर्महोल और वार्प ड्राइव संभावित समाधान प्रदान करते हैं। दुर्भाग्य से, ये केवल दिवास्वप्न हो सकते हैं, जिसका अर्थ होगा कि लंबी दूरी की इंटरस्टेलर यात्रा संभव नहीं है। यह मैं नहीं, बहुत से वैज्ञानिक कह रहे हैं। मतलब तांत्रिक कुण्डलिनी योग व कर्मसिद्धांत ही धरती से अन्य ग्रह पर पहुंचा सकते हैं। मनोरंजन और उत्साहवर्धन के लिए प्रत्यक्ष व सीधे तौर पर शरीर के टेलीपोर्टेशन की कल्पना भी की जा सकती है। ऐसी ही नाटकीय कल्पना “लॉस्ट इन स्पेस” नामक वेबसेरीस में की गई है। मैंने हाल ही में यह देखी। मुझे अच्छी और बाँधने वाली लगी। मैं किसीका प्रचार नहीं कर रहा, बल्कि दिल की बात बता रहा हूँ। सच्ची बात कह देनी चाहिए, उसमें अगर किसी का प्रचार होता हो तो होता रहे, हमें क्या।

कुछ बिमारियां आदमी का महामानव बनने का प्रयास लगती हैं

वैज्ञानिक तो यह दावा भी कर रहे हैं कि आदमी में जो आनुवंशिक बिमारियां हो रही हैं, वे एलियन के डीएनए की वजह से हो रही है। कभी एलियन यहाँ की औरतों को उठाकर ले गए थे और उन्हें गर्भवती करके वापिस भेज दिया था या वहाँ उनसे संतान पैदा की थी। फिर वो डीएनए सबमें फैल गया। यह आदमी को महामानव बनाने के लिए हुआ। मुझे अपना एंकोलाईसिंग स्पोंडीलोआर्थराईटिस वैसी ही फॉरेन बिमारी लगती है। यह बिमारी मुझे योग करने के लिए मजबूर करती है। इससे वैज्ञानिकों का दावा कुछ सिद्ध भी हो जाता है। मुझे तो लगता है कि प्रॉस्टेट और बवासीर भी ऐसी ही आनुवंशिक बीमारियां हैं। ये भी आदमी को योगी जैसा बनाती हैं। पुराने लोगों ने इसे ऐसे समझा होगा कि कष्ट झेलने से योग सफल होता है, इसीसे तप शब्द का प्रचलन बढ़ा होगा। आजकल कैंसर भी बढ़ रहा है। यह भी आनुवंशीकी से जुड़ा रोग होता है। हो सकता है कि यह प्रकृति के मानव को महामानव बनाने के प्रयास के दौरान पैदा हुआ डिफेक्ट हो। वैसे भी बहुत से महान योगियों को कैंसर विशेषकर गले का कैंसर हुआ है। क्वांटम और स्पेस के बारे में लिखने का दूसरा उद्देश्य था कि वैज्ञानिकों की कुछ मदद हो जाए, क्योंकि वे इन क्षेत्रों में कुछ पजल्ड और फ़्रस्टेटिड दिखाई देते हैं। अब पुनः अध्यात्म विज्ञान की तरफ लौटते हैं, क्योंकि जो मजा इसमें है, वह और कहीं नहीं है। भौतिकता से प्यास बढ़ती है, तो अध्यात्म से प्यास बुझती है। दोनों का अपना महत्त्व है। गीता में भी श्रीकृष्ण स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि “अध्यात्मविद्या विद्यानाम्“। मतलब विद्याओं में मैं अध्यात्मविद्या हूँ। मतलब उन्होंने अध्यात्मविद्या को सभी विद्याओं में श्रेष्ठ माना है। फिर भी जैसे-जैसे भौतिक विज्ञान की पहेलियाँ सुलझती रहेंगी, हम बीचबीच में उनका भी उल्लेख करते रहा करेंगे।

कुंडलिनी के लिए संस्कार या सत्संग का महत्त्व

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में संस्कारों के बारे में बात कर रहा था। जितने लोगों तक किसी आदमी की अच्छी प्रतिज्ञा या अच्छे काम या अच्छे आचरण का सन्देश जाता है, मन पर उसका संस्कार उतना ही मजबूत बनता है। इसी संस्कार के लिए ही तो लोग ब्लॉग लिखते हैं, लेख लिखते हैं, प्रचार करते हैं, सशुल्क या निःशुल्क शिविर लगाते हैं, छोटे-बड़े समारोहों का आयोजन करते हैं, आदि। जिसको जितनी ज्यादा भीड़ मिलती है, वह उतना ज्यादा सफल माना जाता है। इन क्रियाकलापों के लिए कई बार काफी खर्चा करना पड़ता है, कई बार सस्ते में हो जाता है। कई बार बड़ों और गुरु लोगों की कृपा से मुफ्त में भी हो जाता। मैं इसी मामले में जागृति से जुड़ी अपने साथ घटी घटना बताता हूँ। कॉलेज टाइम में गुरुजनों की कृपा से मुझे एक पत्रिका में लेख लिखने का मौका मिला था। मैंने दो-तीन लेख लिख के दे दिए, जो सौभाग्यवश एक पेज पर छप गए। वे लेख सामान्य शरीरविज्ञान दर्शन, मानवता धर्म, प्रेम, देशप्रेम, कर्मयोग, तन्त्र और काव्य से संबंधित थे। मुझे उससे एक नई पहचान मिली। उससे मेरे मन पर इतना गहरा संस्कार पड़ गया कि मैं खूब क्रियाशील हो गया और दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा। मुझे तो लगता है कि कई वर्षों के भौतिक विकास के बाद जब मेरे मन में वह संस्कार-रूपी बीज भरापूरा वृक्ष बन गया, तभी मुझे जागृति की दूसरी झलक मिली, जिससे मेरे से शरीरविज्ञान दर्शन की रचना पुस्तक के रूप में पूर्ण हुई, अन्य भी बहुत सी पुस्तकों की रचना हुई, और कुंडलिनी ब्लॉग लिखने में भी काफी हद तक सफलता मिली। मतलब कि मैं पहले पुस्तकों को व्यवहारिक जीवन में खूब जिया हूँ, बाद में मैंने उस जीवन को पुस्तकों और ब्लॉग के रूप में उतारा है। ऐसा नहीं है कि मैं पैदा हुआ, और लिखने बैठ गया। वह तो नकल होती है। असली लेखन वह है जिसमें अपना जीवन कागज पर उतरता हुआ दिखे। उस समय मेरे यौन हॉर्मोन्स का स्तर काफी उच्च था, जैसा कि उस उम्र में सबका होता ही है। पर मुझे लगता है कि जागृति की प्रथम झलक और कुंडलिनी के कारण मेरा कुछ ज्यादा ही और आध्यात्मिक रूप से विशिष्ट था। सम्भवतः इसी वजह से वह शुभ संस्कार इतनी दृढ़ता से जम गया हो, जो ताउम्र मेरे से जुड़ा रहने के लिए बेताब लगता था। मुझे यह भी लगता है कि जागृति की पहली झलक के बाद मेरा पुराना संघर्षमय जैसा बालजीवन एकदम से मेरे मन में ध्वस्त जैसा हो गया था। उससे मेरा मन एक बच्चे की तरह साफ हो गया था, बिना लिखे नए ब्लैकबोर्ड की तरह। बच्चे की तरह मेरा रूपांतरण चल रहा था, जिससे मेरा मन-मस्तिष्क उसी की तरह बहुत ज्यादा ग्रहणशील हो गया था। इसीसे उस शुभ संस्कार ने मेरे मन में इतनी सकारात्मक और चिरस्थायी क्रियाशीलता पैदा कर दी कि उसने कालांतर में मुझे जागृति की दूसरी झलक भी दिखला दी। इसीलिए कहा जाता है कि बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बच्चों में अच्छे संस्कार डालने वाले सुसंस्कृत शिक्षक का समाज में इतना ज्यादा महत्त्व क्यों बताया गया है। सर्वप्रथम शिक्षिका माँ होती है। उसके द्वारा दिए संस्कारों का प्रभाव मनुष्य पर सबसे ज्यादा होता है। इसीलिए कहा गया है कि रमन्ते तत्र देवताः, नार्यस्यत्र पूज्यंते। शिवाजी महाराज को माँ जीजाबाई से जन्म से ही (यूँ कहो कि गर्भ से ही) संस्कार मिलने शुरु हो गए थे, इसी वजह से वे आक्रमणकारी मुगलों से सनातन धर्म की रक्षा कर सके। संस्कारों का प्रभाव कई जन्मों तक मन पर पड़ा रहता है। मैंने बहुत पहले एक बात सुनी-पढ़ी थी। रूस की एक 80 वर्ष की बुजुर्ग महिला ने स्कूल की पढ़ाई शुरु की। जब उससे पूछा गया कि वह पढ़ाई उसके किस काम आएगी, तो उसने जवाब दिया कि वह उसके अगले जन्म में काम आएगी। मतलब वह अगले जन्म के लिए पढ़ रही थी। उसने यह पढ़ी-पढ़ाई बात नहीं की होगी पर अपने अनुभव और अनुमान आदि के आधार पर कही होगी, क्योंकि पुनर्जन्म का बोलबाला हिन्दू धर्म में ही लगता है मुझको। स्वस्थ समाज का निर्माण स्वस्थ मन से होता है। स्वस्थ मन का निर्माण स्वस्थ संस्कारों से होता है। स्वस्थ संस्कारों का निर्माण स्वस्थ शिक्षा प्रणाली से होता है। हिंदी में एक कहावत है, काँटे का मुँह शुरु से ही पैना होता है। इसका मतलब है कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता उसके बचपन में ही चल जाता है। इसलिए यह कहावत भी संस्कारों का महत्त्व प्रदर्शित करती है।

उपरोक्त उदाहरण से यह मतलब भी निकलता है कि यह जरूरी नहीं है कि संस्कारों के निर्माण के लिए बड़े-बड़े और महंगे समारोहों पर ही निर्भर रहा जाए। हालाँकि इनसे समाज में उत्तम प्रथा बनी रहती है। रोज जो प्रातः संस्कृत मन्त्र बोले जाते हैं, वे भी संस्कारों का निर्माण करते हैं। उन मन्त्रों की शक्ति यही है कि वे अवचेतन मन पर गहरा प्रभाव डालकर संस्कार बनाते हैं। संस्कृत मंत्रों से कुंडलिनी शक्ति इसलिए भी मिलती है, क्योंकि इनको गाते समय साँसें लम्बी, गहरी, धीमी और नियमित हो जाती हैं। सांसों के साथ इनका तालमेल होता है। मन्त्र का कुछ भाग अंदर जाती हुई लम्बी गहरी सांस के साथ गाया जाता है, तो कुछ भाग बाहर निकलती हुई लम्बी गहरी सांस के साथ। अधिकांश मामलों में तो सिर्फ बाहर जाती सांस के साथ ही गाया जाता है। अंदर जाती गहरी सांस पर तो सिर्फ ध्यान दिया जाता है। सांस पर ध्यान देने से और ज्यादा कुंडलिनी-अद्वैत का लाभ मिलता है। इससे संस्कार और अधिक मजबूत हो जाता है। सांसों और मंत्र-शब्दों पर अनासक्तिपूर्ण ध्यान जाने से अद्वैत व साक्षीभाव का उदय होता। चालीसा आदि बोलने से भी इसी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत से लाभ मिलता है। वैसे कुछ न कुछ लाभ तो हर किसी गाने को गाकर मिलता है। यह गायन का आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। मैं जब बचपन में नानी के घर जाया करता था, तो मेरे नानाजी मुझे और मेरे दोनों लगभग हमउम्र मामाओं को ऐसे बहुत से प्रातःकालीन मंत्र बार-बार बुला कर याद कराया करते थे, जो मुझे अभी तक याद हैं। एक सार्वभौमिक उदारता का निर्माण करने वाला वैदिक संस्कृत मन्त्र बताता हूँ। सह नाववतु सह नौ भुनक्तौ सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै। इसका अर्थ है, हमारी साथ-साथ रक्षा हो, मतलब हम सब एकदूसरे की रक्षा करें, हम सब साथ मिलकर खाएं मतलब कोई भूखा न रहे या सबको रोजगार मिले, हम सब साथ-साथ मिलकर बल का प्रयोग करें मतलब हम सब एकदूसरे की सहायता करें। हमारे द्वारा प्राप्त की गई विद्या तेज अर्थात व्यावहारिकता के प्रकाश से परिपूर्ण हो मतलब सिर्फ किताबी न हो, हम एकदूसरे से द्वेष अर्थात नफरत न करें। यह बहुत शक्तिशाली मंत्र है, और ज्यादा नहीं तो कम से कम इसे तो प्रतिदिन प्रातः जरूर बोलना चाहिए। गा कर बोलने पर तो यह और ज्यादा आकर्षक और प्रभावशाली लगता है। इसमें ‘मा’ शब्द विशेष प्रभावशाली है। इसका अर्थ वैसे तो ‘न’ होता है, पर यह मन पर माँ अर्थात माता के प्रभाव को भी पैदा करता है। इससे मन बच्चे की तरह भोला और ग्रहणशील बन जाता है। इसलिए गाते समय मा शब्द को दीर्घता और गुरुता प्रदान करनी चाहिए। प्रसिद्ध भारतीय नारा, ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ भी तो सरल शब्दों में यही मंत्र है। इसमें संदेह नहीं कि यह देश के लोगों में अच्छे संस्कार डालने का प्रयास है, जो कालांतर में जरूर फलीभूत होगा। गजब का मनोविज्ञान छिपा होता है संस्कृत मन्त्रों में। अगर इनका गहराई से अध्ययन किया जाए, तो बहुत सी रहस्यात्मक शक्तियाँ हाथ लग सकती हैं। वैदिक मंत्र होने के कारण इसकी संस्कृत का व्याकरण और अर्थ ज्यादा स्पष्ट नहीं है। वैदिक मंत्र ऐसे ही होते हैं। इनमें सस्पेंस जैसा होता है। यह इसलिए ताकि बेशक ये स्थूल रूप से समझ न आए, पर अपने विशेष उच्चारण और शब्द रचना के साथ मन पर गहरा सूक्ष्म संस्कार छोड़ते हैं, जो स्थूल समझ से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होता है। सस्पेंस में भी बहुत शक्ति होती है। इससे आदमी विचारों का घोड़ा तेजी से दौड़ाता है, और बहुत सी मंजिलें आसानी से पा लेता है। इसीलिए सस्पेंस से भरी फिल्में बहुत लोकप्रिय होती हैं। मेरे द्वारा लिखे बताए गए उपरोक्त लेख भी भरपूर सस्पेंस से भरे थे, इसीसे उनसे इतनी शक्ति मिली। मुझे तो मिली ही, पर मुझे लगता है कि अन्य अनेक लोगों को भी मिली, जिन्होंने ये पढ़े थे। उनसे दोहरे अर्थ निकलते थे, भौतिक भी और आध्यात्मिक भी, सभ्य भी और असभ्य भी, धार्मिक भी और अधार्मिक भी, व्यंग्यात्मक भी और गम्भीर भी, आलोचनात्मक भी और विश्लेषणात्मक भी। कभी उनमें अश्लीलता नजर आती थी तो कभी तांत्रिक मनोविज्ञान। उनके साथ शरीरविज्ञान दर्शन का ऐसा तड़का लगा था कि ये उपरोक्त परस्पर विरोधी भाव उनमें एकसाथ भी नजर आते थे, और कुछ भी नजर नहीं आता था। सबकुछ शून्य के जैसे सन्नाटे की तरह लगता था। इसी वजह से वे हरेक किस्म के लोगों को पसंद आए। साथ में, उनमें कुछ थ्रिल भी था। मुझे तो लगता है कि पुराणों की कथाएँ इसीलिए बहुत प्रभावशाली होती हैं, क्योंकि उनमें भरपूर सस्पेंस और थ्रिल होता है। बाहुबली फ़िल्म इतनी लोकप्रिय क्यों हुई। उसमें शुरु से लेकर सस्पेंस बनाया हुआ था, जो फिल्म के दूसरे भाग के अंत में जाकर खत्म हुआ। थ्रिल भी उसमें बहुत और एक आभासिक या पौराणिक प्रकार का था। इसी तरह, एक और मंत्र है, ‘कराग्रे वसते लक्ष्मी—-‘आदि। यह सुबह सो कर उठकर हथेली की ओर देखकर बोला जाता है। यह शरीरविज्ञान दर्शन सम्मत है, क्योंकि इससे हाथ में अर्थात शरीर में पूरे ब्रह्मांड का अनुभव होता है। पौराणिक मन्त्रों का व्याकरण स्पष्ट होता है और इनकी शब्दरचना भी स्पष्ट होती है, इसलिए इनमें वैदिक मन्त्रों जितनी अदृश्य शक्ति नहीं होती। कई लोग अपने असभ्य आचरण के लिए दूसरों को दोष देते हैं। पर वास्तव में दोष उनके अंदर अच्छे संस्कारों की कमी का है। यह अलग बात है कि अच्छे संस्कारों की कमी के लिए कुछ हद तक पूरा समाज जिम्मेदार होता है। अच्छे संस्कार न डालने के लिए कभी माँबाप पर दोषारोपण होता है, कभी गुरुजनों पर तो कभी परिवारजन, मित्र, रिश्तेदार आदि अन्य निकटवर्ती सुपरिचित लोगों पर। हालांकि अपने संस्कारों के लिए आदमी स्वयं भी जिम्मेवार होता है। आदमी के पिछले जन्मों के संस्कार ही यह निश्चय करते हैं कि वह किस प्रकार के संस्कार ग्रहण करेगा। तभी तो आपने देखा होगा कि कई बार बहुत बुरे परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति भी बहुत बड़ा महात्मा बनता है। दरअसल वह पिछले जन्म के अच्छे संस्कारों के कारण अपने वर्तमान जीवन में बुरे संस्कारों की तरफ आकृष्ट नहीं होता, बल्कि वह अच्छे संस्कारों की तरफ भागता है, बेशक वे परिवार के बाहर ही क्यों न हों। इसी तरह, कई बार सभ्य परिवार का कोई सदस्य भी कई बार दुरात्मा बन जाता है। इस छोटी सी कहावत के बहुत बड़े मायने हैं, ‘बोए बीज बबूल का, आम कहाँ से होए’।

कुंडलिनी के लिए संस्कारों का महत्त्व

भौतिक उपलब्धियां अल्प अवधि में भी प्राप्त की जा सकती हैं। पर कुंडलिनी की प्राप्ति के लिए बहुत लंबा समय लग जाता है। अधिकांश मामलों में तो एक पूरा जीवन भी थोड़ा पड़ने से कई जन्मों के प्रयास की आवश्यकता लगती है। अगले जन्म का क्या पता कि कहाँ मिले, कैसा मिले। इसलिए प्रयास होना चाहिए कि इसी एक मनुष्य-जीवन में कुंडलिनी की प्राप्ति हो जाए। ऐसा केवल संस्कारों से ही सम्भव हो सकता है। यदि जन्म से ही आदमी को कुंडलिनी के संस्कार देना शुरु कर दिया जाए, और यह सिलसिला उम्रभर जारी रखा जाए, तभी यह हो पाना सम्भव लगता है। प्राचीन भारतीय हिंदू परंपरा में ऐसा होता भी था। यह कोई झूठी शेखी बघारने वाली बात नहीं है। कदम-कदम पर देवमन्दिर होते थे। आध्यात्मिक उत्सव-पर्व होते रहते थे। हरेक क्रियाकलाप के साथ अध्यात्म जुड़ा होता था। ज्योतिष पर लोगों की आस्था होती थी। चारों ओर वैदिक कर्मकांड का बोलबाला था। वर्णाश्रम धर्म अपने श्रेष्ठ रूप में विद्यमान था। हरेक आदमी के सोलह संस्कार कराए जाते थे। यह सब कुंडलिनी के लिए ही तो था। यह सब कुंडलिनी विज्ञान है, आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। बड़े-बूढ़े लोग जब संस्कार प्रदान करते थे, तब उनके व्यक्तित्व की छाप बच्चों के मन पर गहरी पड़ जाती थी। इससे बच्चा बड़ा होकर एकसाथ दो जीवन जीता था, अपना भी और अपने पूर्वज का भी। उदाहरण के लिए मान लो एक व्यक्ति अपने पौत्र को कुंडलिनी संस्कार देता है। इससे पौत्र के मन में अपने दादा के प्रति अच्छे भाव पैदा हो जाते हैं। इससे अनजाने में ही दादा के जीवन-अनुभवों का लाभ पौत्र को मिलने लगता है। मतलब कि दादा बिना मरे ही पौत्र के रूप में दूसरा जीवन जी रहा है, अर्थात दादा की उम्र दुगुनी हो गई है, और पौत्र को अपनी आयु के साथ दादा की दुगुनी आयु भी प्राप्त होती है। इससे पौत्र की आयु तिगुनी मानी जाएगी, अर्थात 300 साल। अब यह समझ लो कि पौत्र ने लगातार 300 साल तक कुंडलिनी योग किया है। इतने समय की साधना से बहुत संभव है कि उसे कुंडलिनी जागरण हो जाए। पौत्र का अपना असली जीवन तो सौ साल का ही है, पर उसे संस्कारों के कारण तीन सौ सालों का लाभ मिल रहा है। यही कारण है कि हिंदू शास्त्रों में वर्णित कालगणना के मामले में भ्रम पैदा होता है। वहाँ किसी की आयु 300, किसी की 500 या किसी की हजारों साल की बताई गई है। इसी तरह कोई सैंकड़ों सालों तक तप-साधना करता है, तो कोई हजारों सालों तक। दरअसल यह वास्तविक उम्र या समय नहीं होता, बल्कि संस्कारों के कारण मिल रहा इतनी उम्र या समय का लाभ है। उपरोक्त उदाहरण में, इसी तरह दादा भी दो उम्रों को एकसाथ जीता है, एक अपनी और एक अपने पौत्र की। अगर बुढ़ापे से उनकी मृत्यु भी हो जाए, तब भी उन्हें अगले जन्म में पिछले जन्म की दोनों उम्रों का लाभ मिलता है, संस्कारों के कारण। एक-दूसरों से जीवन का साझाकरण संस्कारों से ही सम्भव है। हिंदु अध्यात्म में गुरु परम्परा भी संस्कार को बढ़ाने के लिए ही है। यदि किसी की गुरु परम्परा 10 गुरुओं से चली आ रही है, तो वर्तमान काल के गुरु की सांस्कारिक उम्र 1000 साल मानी जाएगी। मतलब उसे 1000 साल लम्बी चलने वाली कुंडलिनी योगसाधना का लाभ एकदम से अपने आप मिल जाएगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि हरेक गुरु अपने शिष्य अर्थात भावी गुरु को संस्कारों के रूप में अपना सारा जीवन देते आए हैं, जिससे संस्कार उत्तरोत्तर बढ़ते रहे। इसी तरह, यदि किसी का वंश 10 पीढ़ियों से चलता आ रहा है, तो उसकी वर्तमान पीढ़ी के व्यक्ति की सांस्कारिक उम्र 1000 साल मानी जाएगी। आपस में जितना अधिक भावनात्मक और प्रेमपूर्ण सम्बंध बना होगा, संस्कारों का उतना ही अधिक लाभ मिलेगा। यदि एक परिवार दस पीढ़ियों से लगातार आध्यात्मिक जीवन पद्धति को जीता आ रहा है, तो उसकी वर्तमान समय की दसवीं पीढ़ी के सदस्य को समझा जाएगा कि वह बिना मृत्यु को प्राप्त हुए, एक हजार वर्षों से लगातार आध्यात्मिक जीवन पद्धति को जीता आ रहा है। इसका मतलब है कि जो जीवन पद्धति या परंपरा जितनी अधिक पुरातन है, उसमें उतना ही ज्यादा संस्कारों का बल है। इस हिसाब से तो हिंदु या वैदिक परंपरा सबसे शक्तिशाली है, क्योंकि यह सबसे पुरातन है। अगर मैं आज शिवपुराण को रहस्योद्घाटित कर रहा हूँ, तो इसका यह मतलब भी हो सकता है कि मैं इसके लेखक ऋषि के संस्कार को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से प्राप्त कर रहा हूँ। परम्परा में संस्कार छिपे होते हैं, इसलिए हमें परम्परा को विलुप्त नहीं होने देना है। अगर उसे युग के अनुरूप भी ढालना है, तो उसके मूल रूप से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिये। प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस कहते हैं कि नयापन इस तरह लाओ कि पुरानापन भी जीवित रहे। परम्परा से कटा आदमी डोरी से कटी पतंग की तरह दिशाहीन हो जाता है। हालांकि आज हमें उपरोक्त वैदिक परंपरा या जीवन पद्धति की तरह अन्य पुरातन परम्पराएँ भी अजीब सी लगती हैं। यह ऐसा इसलिए है क्योंकि आज ये विकृत हो गई हैं, अपने असली स्वरूप में नहीं हैं। आज ये ढोंग या दिखावा बन कर रह गई हैं। आज इनमें शक्ति नहीं है। आज हम बहुत आदर्शवादी बन गए हैं, जिससे अपनी असली संस्कृति भूल सी गए हैं। यह ऐसे है, जैसे शिवपुराण में कथा आती है कि त्रिपुरासरोंको पथभ्रष्ट करने के लिए भगवान विष्णु ने सिर मुंडवाए हुए बौद्ध-जैन भिक्षु जैसे लोग पैदा किए। वे शिवलिंग, वेदों, यज्ञों व उनमें दी जाने वाली पशु बलि के विरोध में छद्म अहिंसा आदि का उपदेश देते हुए अपने मायामय धर्म का प्रचार करने लगे। इससे महिलाएं कुलटा हो गईं। जिससे सब शक्तिहीन हो गए। वे भिक्षु मुंह पर कपड़ा जैसा बाँध रखते थे, और बहुत धीरे चलते थे, ताकि पैर के नीचे दब कर किसी चींटी आदि सूक्ष्म जीव की हत्या न हो जाए। शिवलिंग पूजा छोड़ने से सब तन्त्र से विमुख हो गए। उन्हें शक्तिहीन जानकर देवताओं ने अच्छा मौका जानकर उन त्रिपुरासरों को शिव से मरवा दिया। फिर वे मुंडी लोग भगवान नारायण के पास जाकर कहने लगे कि आपका काम हो गया, अब आप बताएं हम कहाँ जाएं। नारायण ने उन्हें रेगिस्तान चले जाने का निर्देश दिया और कहा कि कलियुग में फिर दुनिया में फैल जाना। आज के कलियुग में यह बात सच होती हुई लग रही है। मैं इस कथा का रहस्योद्घाटन अगली पोस्ट में करूंगा।

उपरोक्त बातों से सिद्ध होता है कि संस्कारों के बिना कुंडलिनी दुर्लभ है। संस्कार के साथ शुभ लगाने की जरूरत नहीं, क्योंकि इसका मतलब ही शुभ संस्कार बनता है। विशेष संस्कार बताने के लिए विशेष शब्द जोड़ सकते हैं, जैसे भौतिक संस्कार, स्वच्छता के संस्कार आदि। क्योंकि कुंडलिनी आध्यात्मिक संस्कार से मिलती है, इसलिए इस कुंडलिनी विषयक वेबसाइट में संस्कार का मतलब आध्यात्मिक संस्कार ही समझा जाएगा, जो शुभ संस्कार का ही एक प्रकार है। बुरे संस्कार के साथ बुरा या अशुभ जोड़ना पड़ता है। यह समझा जा सकता है कि बच्चे से कुंडलिनी योग या अन्य आध्यात्मिक क्रियाकलाप आसानी से नहीं कराया जा सकता, पर संस्कार तो डाला जा सकता है। यही संस्कार रूपी बीज कालांतर में कब महान वृक्ष बनेगा, किसीको पता भी नहीं चलेगा। संस्कार संगति से बनता है। इसीलिए अच्छी संगति की अध्यात्म में बहुत बड़ी महिमा है। थोड़ी सी संगति से भी अनगिनत लोग, यहाँ तक कि अन्य जीव भी भवसागर से तर गए हैं। शास्त्र ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं। उदाहरण के लिए, एक कौवा मंदिर पर चढ़ाया हुआ प्रसाद खाता था। संगति या संस्कार के प्रभाव से वह अगले जन्म में साधु बना और मुक्त हो गया। कोई जीव या मनुष्य किसी साधु की कुटिया के सानिध्य में रहकर मुक्त हो गया, आदि। वृंदावन में तो भगवान कृष्ण की संगति से फूल-पौधे भी तर गए। यह सब संस्कार या संगति का ही चमत्कार है। बिना किए ही सबकुछ हो जाता है। संस्कार की तरह संगति का मतलब भी यहाँ शुभ या आध्यात्मिक संगति ही समझना चाहिए। तत्त्वतः संगति और संस्कार में कोई अंतर नहीं है।

कुंडलिनी शक्ति गाड़ी है, तो संस्कार उसको दिशानिर्देश देने वाला ड्राइवर~द कश्मीर फाइल्स फिल्म का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

दोस्तों, इस हफ्ते मैंने बड़े पर्दे पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म देखी। यह पहली फ़िल्म देखी जो कि सच्ची घटनाओं पर हूबहू आधारित है। ज्यादातर ऐसी ही फिल्में बननी चाहिए, ताकि मनोरंजन के साथसाथ सामाजिक उत्थान भी हो सके। यह फ़िल्म सभी को देखनी चाहिए। इस फ़िल्म में धार्मिक कट्टरवाद और जेहादी बर्बरता का जीवंत चित्रण किया गया है। साथ में, मैं मेडिटेशन के लिए एक झील के पास भी गया। वैसे मैं रोजमर्रा के तनाव व उससे उत्पन्न थकान को दूर करने के लिए गया था, मेडिटेशन तो खुद ही हो गई। मैं पथरीली घास पर विभिन्न शारीरिक पोस्चरों या बनावटों के साथ लम्बे समय तक बैठे और लेटे रहकर झील को निहारता रहा। आती-जाती साँसों पर, उससे उत्पन्न शरीर की, मुख्यतः छाती व पेट की गति पर ध्यान देता रहा। मन के विचार आ-जा रहे थे। विविध भावनाएं उमड़ रही थीं, और विलीन हो रही थीं। मैं उन्हें साक्षीभाव से निहार रहा था, क्योंकि मेरा ध्यान तो साँसों के ऊपर भी बंटा हुआ था, और आसपास के अद्भुत कुदरती नजारों पर भी। सफेद पक्षी झील के ऊपर उड़ रहे थे। बीच-बीच में वे पानी की सतह पर जरा सी डुबकी लगाते, और कुछ चोंच से उठाकर उड़ जाते। सम्भवतः वे छोटी मछलियां थीं। बड़ी मछली के साथ कई बार कोई पक्षी असंतुलित जैसा होकर कलाबाजी सी भी दिखाता। एकबार तो एक पक्षी की चोंच से मछली नीचे गिर गई। वह तेजी से उसका पीछा करते हुए दुबारा से उसे पानी में से पकड़कर ऊपर ले आया और दूर उड़ गया। विद्वानों ने सच ही कहा है कि जीवो जीवस्य भोजनम। एक छोटी सी काली चिड़िया नजदीक ही पेड़ पर बैठ कर मीठी जुबान में चहक रही थी, और इधर-उधर व मेरी तरफ देखते हुए फुदक रही थी, जैसे कि मेरे स्वागत में कुछ सुना रही हो। मुझे उसमें अपनी कुंडलिनी एक घनिष्ठ मित्र की तरह नजर आई। मुझे आश्चर्य हुआ कि इतने छोटे जीव भी किस तरह जीवन और प्रकृति के प्रति आशान्वित और सकारात्मक होते हैं। वे भी अपनी जीवनयात्रा पर बेधड़क होके चले होते हैं। झील के पानी की तट से टकराने की हल्की आवाज को मैं अपने अंदर, अपनी आत्मा के अंदर महसूस करने लगा। चलो कुछ तो आत्मा की झलक याद आई। आजकल ऐसे प्राकृतिक स्थानों की भरमार है, जहाँ लोगों की भीड़ उमड़ी होती है। पर ऐसे निर्जन हालांकि सुंदर प्राकृतिक स्थल कम ही मिलते हैं। कई दूरदराज के लोग जब ऐसी जगहों को पहली बार देखते हैं, तो भावविभोर हो जाते हैं। कई तो शांति का भरपूर लुत्फ उठाने के लिए वहाँ टैंट लगा कर दिन-रात लगातार कई दिनों तक रहना चाहते हैं। हालांकि मैं तो थोड़ी ही देर में शांत, तनावमुक्त और स्वस्थ हो गया, जिससे डॉक्टर से अपॉइंटमेंट लेने का विचार ही छोड़ दिया। खैर मैं फिल्म द कश्मीर फाइल्स के बारे में बात कर रहा था। इसका एक सीन जो मुझे सबसे ज्यादा भावनात्मक लगा, वह है पुष्कर बने अनुपम खेर का दिल्ली की गर्मी में कश्मीर की बर्फ की ठंड महसूस करना। वह अपने पोते को हकीकत बता रहा होता है कि कैसे आजादी के नारे लगाते हुए जेहादी भीड़ ने उन्हें मारा और भगाया था, इसलिए उसे ऐसे लोगों के नारों के बहकावे में नहीं आना चाहिए। वह बूढ़ा होने के कारण उसे समझाते हुए थक जाता है, जिससे वह कांपने लगता है। काँपते हुए वह चारों तरफ नजर घुमाते हुए कश्मीरी भाषा में बड़ी भावपूर्ण आवाज में कहता है कि लगता है कि बारामुला में बर्फ पड़ गई है, अनन्तनाग में बर्फ पड़ गई है, आदि कुछ और ऊंची पहाड़ियों का नाम लेता है। फिर उसका पोता उसे प्यार व सहानुभूति के साथ गले लगाकर उसे स्थिर करता है। गहरे मनोभावों को व्यक्त करने का यह तरीका मुझे बहुत अच्छा लगा। कश्मीरी भाषा वैसे भी बहुत सुंदर, प्यारी और भावपूर्ण भाषा है। इस फ़िल्म के बारे में समीक्षाएं, चर्चाएं और लेख तो हर जगह विस्तार से मिल जाएंगे, क्योंकि आजकल हर जगह इसीका बोलबाला है। मैं तो इससे जुड़े हुए आधारभूत मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पर प्रकाश डालूंगा। हम हर बार की तरह इस पोस्ट में भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि हम न तो किसी धर्म के विरोधी हैं, और न ही पक्षधर हैं। हम असली धर्मनिरपेक्ष हैं। हम सत्य व मानवता ढूंढते हैं, चाहे कहीं भी मिल जाए। सत्य पर चलने वाला बेशक शुरु में कुछ दिक्कत महसूस करे, पर अंत में जीत उसीकी होती है। हम तो धर्म के मूल में छिपे हुए कुंडलिनी रूपी मनोवैज्ञानिक तत्त्व का अन्वेषण करते हैं। इसीसे जुड़ा एक प्रमुख तत्त्व है, संस्कार।

हिंदु दर्शन के सोलह संस्कार

दोस्तों, हम हिंदु धर्म के बजाय हिंदु दर्शन बोलना पसन्द करेंगे, क्योंकि यह एक आध्यात्मिक मनोविज्ञान लगता है मुझे। दर्शन भी एक मनोविज्ञान या विज्ञान ही लगता है मुझे। इसके सोलह संस्कार आदमी के जन्म लेते ही शुरु हो जाते हैं, और मरते दम तक होते रहते हैं। मृत्यु भी एक संस्कार है, अंतिम संस्कार। हरेक संस्कार के समय कुछ आध्यात्मिक क्रियाएँ की जाती हैं। ये इस तरह से बनाई गई होती हैं कि ये अवचेतन मन पर अपना अधिक से अधिक प्रभाव छोड़े। इससे अवचेतन मन पर संस्कार का आरोपण हो जाता है, जैसे खेत में बीज का रोपण होता है। जैसे समय के साथ जमीन के नीचे से बीज अंकुरित होकर पौधा बन जाता है, उसी तरह कुंडलिनी रूपी अध्यात्म का संस्कार भी अवचेतन मन की गहराई से बाहर निकल कर कुंडलिनी क्रियाशीलता और कुंडलिनी जागरण के रूप में उभर कर सामने आता है। दरअसल संस्कार कुंडलिनी के रूप में ही बनता है। कुंडलिनी ही वह बीज है, जिसे संस्कार समारोह के माध्यम से अवचेतन मन में प्रविष्ट करा दिया जाता है। इस प्रकार, संस्कार समारोह की अच्छी मानवीय शिक्षाएँ भी कुंडलिनी के साथ अवचेतन मन में प्रविष्ट हो जाती हैं, क्योंकि ये इसके साथ जुड़ जाती हैं। इस प्रकार कुंडलिनी और मानव शिक्षाओं का मिश्रण वास्तव में संस्कार है। कुंडलिनी वाहक है, और मानव शिक्षाएं वाह्य हैं अर्थात उनको ले जाया जाता है। समय के साथ दोनों साथ-साथ बढ़ते हैं, और कुण्डलिनी जागरण और मानव समाज की मानवता को एक साथ संभव बनाते हैं। ये संस्कार समारोह मनुष्य की उस जीवन-अवस्था में किए जाते हैं, जिस समय वह बेहद संवेदनशील हो, और उसके अवचेतन मन में संस्कार-बीज आसानी से और पक्की तरह से बैठ जाएं। उदाहरण के लिए विवाह संस्कार। मुझे लगता है कि यह सबसे बड़ा संस्कार होता है, क्योंकि अपने विवाह के समय आदमी सर्वाधिक संवेदनशील होता है। इसी तरह जन्म-संस्कार भी बहुत प्रभावी होता है, क्योंकि अपने जन्म के समय आदमी अंधेरे की गहराइयों से पहली बार प्रकाश में आया होता है, इसलिए वह बेहद संवेदनशील होता है। उपनयन संस्कार आदमी की किशोरावस्था में उस समय किया जाता है, जिस समय उसके यौन हारमोनों के कारण उसका रूपांतरण हो रहा होता है। इसलिए आदमी की यह अवस्था भी बेहद संवेदनशील होती है। संस्कार समारोह अधिकांशतः आदमी की उस अवस्था में किए जाने का प्रावधान है, जब उसमें यौन ऊर्जा का माहौल ज्यादा हो, क्योंकि वही कुंडलिनी को शक्ति देती है। जन्म के संस्कार के समय माँ-बाप की यौन ऊर्जा का सहारा होता है। ‘जागृति की इच्छा’ रूप वाला छोटा सा संस्कार भी कालांतर में आदमी को कुंडलिनी जागरण दिला सकता है, क्योंकि बीज की तरह संस्कार समय के साथ बढ़ता रहता है। इसीको गीता में इस श्लोक से निरूपित किया गया है, “स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात”, अर्थात इस धर्म का थोड़ा सा अनुष्ठान भी महान भय से रक्षा करता है। कुंडलिनी योग के संस्कार को ही यहाँ ‘इस धर्म का थोड़ा सा अनुष्ठान’ कहा गया है।

कुंडलिनी संस्कारों के वाहक के रूप में काम करती है

संस्कार समारोह के समय विभिन्न आध्यात्मिक प्रक्रियाओं से अद्वैत का वातावरण पैदा किया जाता है। अद्वैत के बल से मन में कुंडलिनी मजबूत होने लगती है। उस कुंडलिनी की मूलाधार-वासिनी शक्ति से दिमाग बहुत संवेदनशील और ग्रहणशील अर्थात रिसेप्टिव बन जाता है। ऐसे में जो भी शिक्षा दी जाती है वह मन में अच्छी तरह से बैठ जाती है, और यहाँ तक कि अवचेतन मन तक दर्ज हो जाती है। कुंडलिनी से मन आनन्द से भी भर जाता है। इसलिए जब भी आदमी आनन्दित होता रहता है, तब -तब कुंडलिनी भी उसके मन में आती रहती है, और पुराने समय में उससे जुड़ी शिक्षाएं भी। इस तरह वे शिक्षाएं मजबूत होती रहती हैं। आनंद और कुंडलिनी साथसाथ रहते हैं। दोनों को ही मूलाधार से शक्ति मिलती है। आनन्द की तरफ भागना तो जीवमात्र का स्वभाव ही है। 

शक्ति के साथ अच्छे संस्कार भी जरूरी हैं

शक्ति रूपी गाड़ी को दिशा निर्देशन देने का काम संस्कार रूपी ड्राइवर करता है। हिन्दू धर्म में सहनशीलता, उदारता, अहिंसा आदि के गुण इसी वजह से हैं, क्योंकि इसमें इन्हीं गुणों को संस्कार के रूप में मन में बैठाया जाता है। जिस धर्म में लोगों को जन्म से ही यह सिखाया और प्रतिदिन पढ़ाया जाता है कि उनका धर्म ही एकमात्र धर्म है, उनका भगवान ही एकमात्र भगवान है, वे चाहे कितने ही बुरे काम कर लें, वे जन्नत ही जाएंगे, और अन्य धर्मों के लोग चाहे कितने ही अच्छे काम क्यों न कर लें, वे हमेशा नरक ही जाएंगे, और उनका धर्म स्वीकार न करने पर अन्य धर्म के लोगों को मौका मिलते ही बेरहमी से मार देना चाहिए, उनसे इसके इलावा और क्या अपेक्षा की जा सकती है। वे कुंडलिनी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं, क्योंकि उनके मन में जमे हुए अमानवीय संस्कार उस शक्ति की सहायता से उन्हें गलत रास्ते पर धकेलते रहते हैं। इससे अच्छा तो कोई संस्कार मन में डाले ही न जाएं, अर्थात किसी धर्म को न माना जाए मानव धर्म को छोड़कर। जब मानव बने हैं, तो जाहिर है कि मानवता खुद ही पनपेगी। फिर खुद ही मानवीय संस्कार मन में उगने लगेंगे। बुद्ध कहते हैं कि यदि कांटे बोना बंद करोगे, तो फूल खुद ही उग आएंगे। कुंडलिनी शक्ति हमेशा अच्छाई की ओर ले जाती है। पर यदि ज़बरदस्ती ही, और कुंडलिनी के लाख प्रतिरोध के बाद भी यदि बारम्बार बुराइयां अंदर ठूंसी जाए, तो वह भी भला कब तक साथ निभा पाएगी। दोस्तो, सुगन्ध फैलाने वाले गेंदे के फूल के चारों ओर विविध बूटियों से भरा हुआ रंगबिरंगा जंगल उग आता है, जबकि लैंटाना या लाल फूलनू या फूल-लकड़ी जैसी जहरीली बूटी चारों तरफ बढ़ते हुए हरेक पेड़-पौधे का सफाया कर देती है, और अंत में खुद भी नष्ट हो जाती है। मैं शिवपुराण में पढ़ रहा था कि जो शिव का भक्त है, उसका हरेक गुनाह माफ हो जाता है। इसका मतलब है कि ऐसे कट्टर धर्म शिवतंत्रसे ही निकले हैं। तन्त्र में और इनमें बहुत सी समानताएं हैं। इन्हें अतिवादी तन्त्र भी कह सकते हैं। इससे जुड़ी एक कॉलेज टाइम की घटना मुझे याद आती है। एक अकेला कश्मीरी मुसलमान पूरे होस्टल में। उसी से पूरा माहौल बिगड़ा जैसा लगता हुआ। जिसको मन में आया, पीट दिया। माँस-अंडों के लिए अंधा कुआँ। शराब-शबाब की रंगरलियां आम। कमरे में तलवारें छुपाई हुईं। पेट्रोल बम बनाने में एक्सपर्ट। एकबार सबके सामने उसने चुपके से अपनी अलमारी से निकालकर मेरे गर्दन पर तलवार रख दी। मैं उसकी तरफ देखकर हंसने लगा, क्योंकि मुझे लगा कि वो मजाक कर रहा था। वह भी मक्कारी की बनावटी हंसी हंसने लगा। फिर उसने तलवार हटा कर रख दी। मेरे एक प्रत्यक्षदर्शी दोस्त ने बाद में मुझसे कहा कि मुझे हंसना नहीं चाहिए था, क्योंकि वह एक सीरियस मेटर था। मुझे कभी इसका मतलब समझ नहीं आया। हाँ, मैं उस दौरान जागृति और कुंडलिनी के भरपूर प्रभाव में आनन्दमग्न रहता था। इससे जाहिर होता है कि इस तरह के मजहबी कट्टरपंथी वास्तविक आध्यात्मिकता के कितने बड़े दुश्मन होते हैं। जरा सोचो कि जब सैंकड़ों हिंदुओं के बीच में अकेला मुसलमान इतना गदर मचा सकता है, तो कश्मीर में बहुसंख्यक होकर उन्होंने अल्पसंख्यक कश्मीरी हिंदुओं पर क्या जुर्म नहीं किए होंगे। यह उसी के आसपास का समय था। यही संस्कारों का फर्क है। शक्ति एक ही है, पर संस्कार अलग-अलग हैं। इसलिए शक्ति के साथ अच्छे संस्कारों का होना भी बहुत जरूरी है। यही ‘द कश्मीर फाइल्स फ़िल्म’ में दिखाया गया है। यह फिल्म नित-नए कीर्तिमान स्थापित करती जा रही है।

कुंडलिनी प्राण ऊर्जा का क्रीड़ा विलास ही है


दोस्तो, मैंने पिछले हफ्ते तीन फिल्में देखीं। उससे मेरा मस्तिष्क काफी क्रियाशील रहा। सम्भवतः इसीसे कई बार हल्का सा सिरदर्द भी रहा। हालाँकि मन में भरपूर शांति बनी रही, और भरपूर आनंद भी बना रहा। यह कुंडलिनी योग से बने हुए अद्वैत भाव से ही हुआ। फ़िर भी मैंने योग को कुछ कम किया, क्योंकि थोड़ी थकान व सुस्ती लग रही थी। इससे सिरदर्द भी थोड़ा कम हुआ और शरीर का कम्पन भी कम हुआ। वैसे ज्यादा अच्छा तब रहता है जब आसनों की संख्या कम न की जाए, पर उन पर लगने वाले समय को कम किया जाए। योग को काम की तरह नहीं लेना चाहिए। इसे थकान नहीं समझना चाहिए। इसे भरपूर आराम की तरह लेना चाहिए। शरीर व मन को ढीला छोड़ देना चाहिए। वास्तव में योग थकान को कम करता है, थकान को बढ़ाता नहीं। हरेक आसन एक विशेष प्रकार से प्राण ऊर्जा को ऊपर चढ़ाता है, और घुमाता है। वैसे भी कम नींद लेने से, रात को देर तक ज्यादा जागने से, खान-पान के समय में परिवर्तन से, पंखे या ऐसी की ज्यादा हवा लेने से तनाव व सिरदर्द पैदा हो जाता है। मेरे बाएं मस्तिष्क में क्रियाशीलता ज्यादा रही, जिसके लिए इड़ा नाड़ी से ऊर्जा ऊपर चढ़ रही थी। हालाँकि उसके साथ साथ आज्ञा चक्र और मूलाधार का ध्यान करने से ऊर्जा सुषुम्ना में स्थानांतरित हो जाती थी, जिससे दायाँ मस्तिष्क भी क्रियाशील हो जाता था, और सहस्रार में कुंडलिनी चित्र प्रकट हो जाता था। थोड़ी देर बाद वह ऊर्जा फिर से इड़ा नाड़ी में प्रविष्ट हो जाती थी। उसे फिर से इसी तरह सुषुम्ना में ले जाना पड़ता था। यह क्रम बार-2 चलता था। दरअसल दुनियादारी से बायाँ मस्तिष्क और अध्यात्म से दायाँ मस्तिष्क क्रियाशील होता है। दोनों मस्तिष्कों के संतुलन के लिए भौतिकता और आध्यात्मिकता का संतुलन जरूरी है। मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे देवलोक की स्त्रियां नंदा और अलकनन्दा का जल बारी-2 से पीकर रति क्रीड़ा की तरफ आकर्षित होती हैं और महान तृप्ति का अनुभव करती हैं। दरअसल वे दुनियादारी में डूबी हुई होती हैं। इसलिए उनमें ज्यादा एनेर्जी नहीं बची होती। वे सीधे तौर पर गंगा नदी तक नहीं पहुंच सकती हैं। इसलिए वे नन्दा और अलकनन्दा नदियों से ही काम चलाती हैं। मेरे साथ भी लगभग ऐसा ही हुआ। काम के ज्यादा बोझ के कारण मेरे अंदर इतनी एनेर्जी नहीं बची थी कि मैं कुंडलिनी को सीधे ही सहस्रार तक उठा पाता। ऐसा जबरदस्ती करने से मेरे सिर में हल्का दर्द हो रहा था। इसलिए मैंने कुंडलिनी ऊर्जा को उसकी अपनी मर्जी से पीठ से ऊपर चढ़ने दिया। फिर मैंने देखा कि वह इड़ा नाड़ी से होकर बाएँ मस्तिष्क को एक थ्रिल संवेदना के साथ जाने लगी, और लगातार जाती रही। मैं बस बीच में हल्का ध्यान फ्रंट आज्ञा चक्र और दांत के पीछे टिकाई हुई सीधी जीभ पर देता था। उनके साथ मूलाधार पर तो बहुत ही कम बार ध्यान दे पाता था, क्योंकि इससे ऊर्जा सीधे ही सहस्रार व सुषुम्ना में जाती है। उससे वह पिंगला या सुषुम्ना नाड़ी में जाने की कोशिश तो करती, पर जा नहीं पा रही थी। मतलब कि ऊर्जा की कमी थी। बड़ी देर बाद वह थोड़ी देर के लिए ही पिंगला और दाएँ मस्तिष्क में जाती थी, और फिर से इड़ा में आ जाती थी। कुंडलिनी ज्यादातर समय आज्ञा चक्र पर रहती, और उससे ऊपर न जाती। सुषुम्ना और सहस्रार में सिर्फ क्षण भर के लिए ठहरती थी। बात साफ है कि जितनी अपने अंदर ऊर्जा हो, उसीके हिसाब से कुंडलिनी को घुमाना चाहिए। जोर जबरदस्ती नहीँ करनी चाहिए।

ऊर्ध्वरेता पुरुष को ब्रह्मचारी माना जाए या तांत्रिक

मुझे इस सप्ताह शिवपुराण में एक नई जानकारी भी मिली। एक श्लोक में ऊर्ध्वरेता शब्द लिखा मिला। ऊर्ध्वरेता मनुष्य को महान ज्ञानी या आत्मज्ञानी या महान आध्यात्मिक साधक के समकक्ष रखा गया था। ऊर्ध्व का मतलब ‘ऊपर की ओर’ है, और रेता का मतलब ‘वीर्य’ है। इसलिए ऊर्ध्वरेता का मतलब हुआ कि वह व्यक्ति जो अपने वीर्य को ऊपर की ओर चढ़ाता है। यह तो वही सेक्सुअल सबलीमेशन है, जो तंत्रयोग की आधारभूत क्रिया है। तंत्र के नाम पर आजकल इसका ही बोलबाला है, हालाँकि यह वृहद परिपेक्ष्य वाले तंत्र का एक सर्वप्रमुख सहयोगी कारक ही है। अपने आप में यही सबकुछ नहीं है। इसका हिंदी में अनुवाद करते हुए इसे ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी लिखा गया है। जो ब्रह्मचारी है, वह ऊर्ध्वरेता कैसे बन पाएगा, क्योंकि ब्रह्मचारी में तो रेता का उत्पादन ही नहीं होता। रेता का उत्पादन तो सैक्सुअल स्टिमुलेशन से होता है, पर ब्रह्मचारी तो इससे सर्वथा दूर रहता है। यदि उसमें सामान्य शारीरिक क्रियाओं के तहत रेता का उत्पादन होता भी है, तो वह बहुत कम व अन-नोटिसड रहता है। जिस चीज को आदमी शरीर में नोटिस भी नहीं कर सकता, उसे वह ऊपर कैसे चढ़ाएगा। इससे एक और बात पता चलती है कि पुराणों में हर जगह तंत्र का उल्लेख है, और पौराणिक काल में तँत्रविज्ञान आम जनमानस में व्याप्त था। ब्रह्मचर्य भी तो एक तँत्रविज्ञान ही है। यदि ब्रह्मचारी योगसाधना की सहायता से वीर्य ऊर्जा को ऊपर न चढ़ाता रहे, तो वह उसे परेशान करेगी, और उसके मन व शरीर में विकार भी पैदा कर सकती है। यह अलग बात है कि वामपंथी तंत्र में इस ब्रह्मचर्य को अमर्यादित व प्रचण्ड रूप दिया जाता है। इससे हालाँकि आध्यात्मिक विकास बहुत तीव्रता से होता है, पर यदि यह सही ढंग से न किया जाए तो यह आध्यात्मिक पतन भी तीव्र गति से ही करता है। आजकल अधिकांशतः केवल इसी सैक्सुअल तंत्र को ही तंत्र माना जाता है।

महान लोगों के दोष भी आभूषणों की तरह शुभ होते हैं

इस दुनिया में कुछ भी सत्य नहीं है। सब कुछ एकदूसरे के सापेक्ष है। जो दोष आम लोगों में कुलक्षण कहे गए हैं, वही दोष भगवान शिव में सुलक्षण हैं। इसीलिए शिवपुराण में नारद मुनि पार्वती के माता-पिता को समझाते हुए कहते हैं कि ज्ञानियों और महान लोगों के दोष भी गुणों की तरह ही होते हैं। दरअसल नारद मुनि उन्हें बताते हैं कि उनकी पुत्री पार्वती का विवाह एक भूतिया, नंगे, जंगली और असामाजिक व्यक्ति से होगा। इससे वे चिंतित हो जाते हैं। फिर नारद उनकी चिंता को दूर करते हुए कहते हैं कि शिव भी ऐसे ही हैं, इसलिए पार्वती का विवाह शिव से करवाओ। पार्वती उनके मन की चंचलता को मिटा देगी। यह तंत्रयोग का ही तो वर्णन हो रहा है। फिर अधिकांश लोग कहते हैं कि तंत्र यहाँ से आया, वहाँ से आया; या तंत्र ऐसा है, तंत्र वैसा है। शिवपुराण एक पूर्ण समर्पित तंत्र-पुराण ही है। इसकी तंत्रविद्या आसानी से इसलिए पकड़ में नहीं आती, क्योंकि उसे उच्च कोटि की सामाजिकता व रूपकता के साथ लिखा गया है।

मान-अपमान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं

पिछले हफ्ते ही एक दुखद समाचार मिला कि अखाड़ा संघ के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी ने फंदे से झूलकर अपने प्राणों का अंत कर दिया। सूत्रों के अनुसार उन्होंने अपने आखिरी लिखित व वीडियो दस्तावेज में अपने इस काम के लिए अपने शिष्य आनन्द गिरि को जिम्मेदार ठहराया। आनन्द गिरि को उन्होंने बचपन से लेकर पालपोस कर बड़ा किया था, और उनका उसके प्रति विशेष लगाव होता था। सूत्रों के अनुसार वह उन्हें पहले भी समाज में अपमानित करवा चुका था, और अब भी झूठी विडियो वायरल करने जा रहा था, जिसमें उसके गुरु नरेंद्र गिरि किसी स्त्री के साथ आपत्तिजनक अवस्था में दिखाए जाते। इसी अपमान के डर से उन्होंने यह कदम उठाया। वैसे अभी भी इसकी जाँच चल रही है, और अंतिम निष्कर्ष सामने नहीं आया है। गीता में एक श्लोक आता है~जितात्मनः प्रशान्तस्यपरमात्मा समाहितः।शीतोष्णसुखदुःखेषुतथा मानापमानयोः॥६-७॥सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान में जिसने स्वयं को जीता हुआ है, ऐसा पुरुष परमात्मा में सम्यक् प्रकार से स्थित है॥7॥फिर अपमान से भयभीत होने को हम किस प्रकार का अध्यात्म कहेंगे। मैं यहाँ किसी का पक्ष नहीं ले रहा हूँ। मैं केवल घटना के एक पक्ष के बारे में वर्णन कर रहा हूँ, क्योंकि उसीसे सम्बंधित विचार मेरे मन में उठ रहे हैं। हरेक घटना के अनेक पक्ष होते हैं। पर हरेक पक्ष के बारे में विचार रखना एक अकेले आदमी के लिए संभव नहीं है। किसीका यह कहना कि इस घटना का केवल एक ही पक्ष क्यों लिया गया, बेमानी है। दूसरे पक्ष जानने के लिए दूसरे लोगों के विचार जानने चाहिए। एक जगह सभी कुछ नहीं मिल सकता। वैसे भी सम्पूर्ण जानकारी सभी पक्षों को जानकर ही मिलती है। लिटल नॉलेज इज ए डेंजरस थिंग। अगर दूसरे पक्ष की बात संक्षेप में कहूँ तो वह यही है कि गुरु, ज्ञानी और भक्त का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। कुंडलिनी आदमी को बेहद संवेदनशील बना देती है। इसलिए कुंडलिनी योगी को परेशान नहीं करना चाहिए। उनसे प्रेम से ही बर्ताव करना चाहिए। सम्भवतः महिलाएं इसी कुंडलिनी सिद्धांत के कारण ज्यादा संवेदनशील होती हैं। मैं अगली पोस्ट में थोड़ा विस्तार से बताऊंगा कि ऐसा क्यों होता है। पहली बात, अपने प्रति सम्मान पर इतना लट्टू क्यों हुआ जाए कि उसके बाद अपमान झेल ही न सकें। अगर किसीके द्वारा लट्टू हुए बिना न रहा जाए, तो अपना सम्मान करवाया ही क्यों जाए। कुंडलिनी ही ऐसी परिस्थितियों में आदमी की सहायता व रक्षा करती है। कुंडलिनी के अतिरिक्त सृष्टि की हरेक वस्तु में स्वार्थ भरा है। कोई भी आदमी बिना स्वार्थ के मित्रता नहीं दिखाता। वृक्ष भी स्वार्थ के लिए ही फल देता है। गाय से दूध लेने के लिए उसे भी घास खिलाना पड़ता है। यहाँ तक कि नदी व पहाड़ आदि निर्जीव वस्तु से लाभ प्राप्त करने के बदले में उन्हें साफ-सुथरा रखना पड़ता है। पर कुंडलिनी तो बदले में किसी चीज की अपेक्षा नहीं रखती। वह बुरे समय में भी साथ देती है, और सांत्वना व सहानुभूति प्रदान करती है। कुंडलिनी अखण्ड ऊर्जा का एक बुलबुला है। उसका अखण्ड ऊर्जा से अलग अस्तित्व नहीं है। आसमान की तरह शून्य होने से उसे भला किस चीज की जरूरत हो सकती है। जो उसे जितना अधिक याद करता है, उसे उसका उतना ही ज्यादा साथ मिलता है। कुंडलिनी के अतिरिक्त हरेक वस्तु अस्थायी और अपवित्र है। कुंडलिनी के अतिरिक्त हरेक वस्तु भौतिक बाध्यताओं व सीमाओं से बंधी होती हैं। कुंडलिनी एक शुद्ध मानसिक चित्र है, शून्य ऊर्जा-आकाश का एक बुलबुला है। उसे भौतिक आयाम छू भी नहीं सकता। इसलिए अच्छी तरह से पालपोस कर रखी गई कुंडलिनी बुरे वक्त में बहुत काम आती है। जब भौतिक कार्यों व सम्बन्धों से तनाव बढ़ जाता है, तब पूरे शरीर की कार्यप्रणाली गड़बड़ा जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मस्तिष्क में ऊर्जा की कमी हो जाती है। उस समय अद्वैत की भावना करने से मन में कुंडलिनी प्रकट होने लगती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अद्वैत से शरीर थोड़ा रिलेक्स हो जाता है, जिससे ऊर्जा की खपत घट जाती है। अतिरिक्त ऊर्जा से मन में कुंडलिनी प्रकट होने लगती है। उस कुंडलिनी को बनाए रखने के लिए मूलाधार से ऊर्जा ऊपर चढ़ने लगती है। उससे एकदम से शारीरिक कार्यप्रणाली दुरस्त हो जाती है, और उससे मन के क्रोध आदि दोष मिट जाते हैं। दरअसल ऐसा मस्तिष्क में ऊर्जा की भरपूर उपलब्धता पैदा होने से ही होता है। मैंने पिछली पोस्ट में भी शिवपुराण का हवाला देकर लिखा था कि सहस्रार चक्र पूरे मस्तिष्क को ऊर्जा की आपूर्ति करता है। इसलिए जब मस्तिष्क में कुंडलिनी प्रकट हो जाए तो उसके साथ आज्ञा चक्र और मूलाधार चक्र का एकसाथ ध्यान करके उसे सेंट्रलाइज करने को कहा जाता है, ताकि वह सहस्रार में आ जाए। सहस्रार चक्र में इसीलिए एक हजार पंखुड़ियों को दर्शाया जाता है क्योंकि वह मस्तिष्क सहित पूरे शरीर में अनगिनत या हजारों स्थानों में ऊर्जा की आपूर्ति करता है। 

श्वास पर ध्यान से लाभ कुंडलिनी के माध्यम से ही मिलता है

एक दिन मैं थका हुआ महसूस कर रहा था। मैं सो भी नहीं पा रहा था, क्योंकि दिन में खाना खा लेने के बाद सोने से मुझे गैस्ट्रिक एसिड रिफलक्स होता है। पेट से मुंह को खटास जैसी आती है, जिससे दांत भी घिसते हैं। खाली बैठ कर साँसों पर ध्यान देने लगा, खासकर हँस शब्द के साथ। इससे थकान भी दूर हो गई और कुंडलिनी आनन्द भी प्रकट हो गया। साँस भरते समय साँस की आवाज पतले संगीत वाली थी, और बाहर जाती साँस की आवाज मोटे संगीत की थी। आप कह सकते हैं कि अंदर जाती साँस की आवाज की ट्रेबल या फ्रेकवेंसी ज्यादा थी, पर बाहर जाती साँस का ट्रेबल कम और बास ज्यादा था। म की आवाज ज्यादा ट्रेबल की और स की आवाज कम ट्रेबल की है। इसीलिए हँस के रूप में साँस पर ध्यान दिया जाता है। इसलिए हँ का ध्यान अंदर जाती साँस के साथ, व स का ध्यान बाहर जाती साँस के साथ किया जाता है। इससे बहुत लाभ मिलता है।

वैदिक दर्शन एक व्यावहारिक दर्शन है

व्यवहारिक दर्शन इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह शून्यवादी दर्शन नहीं है। वैदिक कर्मकांड इसका जीता जागता उदाहरण है। इसमें योग और ध्यान को दुनियादारी से प्राप्त किया जाता है, पलायनवाद से नहीं। मैं खुद इसी माहौल में पला-बढ़ा हूँ। यह अलग बात है कि जागरण रूपी अंतिम छलांग के लिए मैंने कुछ समय के लिए तंत्रयोग का सहारा भी लिया। पर यह भी सत्य है कि तंत्रयोग भी तभी सहायता करता है, यदि वैदिक कर्मकांड के प्रेमभरे माहौल में आदमी ने प्रारम्भिक आध्यात्मिक मुकाम हासिल कर लिया हो।

आध्यात्मिक रूप से हरेक पुरुष शिव और हरेक स्त्री पार्वती है

सती तपस्या करके शिव को प्राप्त करती है। अगले जन्म में जब वह पार्वती बनती है, तब भी तपस्या से ही शिव को प्रसन्न करके उन्हें प्राप्त करती है। मुझे तो यह तँत्रसम्मत गृहस्थ जीवन का रूपक ही लगता है। पार्वती की तपस्या यहाँ पर गृहस्थ जीवन की शुरुआत में एक पत्नी का, त्याग और समर्पण से भरपूर जीवन ही है। इसीलिए देखने में आता है कि गृहस्थी की शुरूआती खटपट के बाद ही असली गृहस्थ जीवन शुरु होता है। किसीकी गृहस्थी कुछ महीनों में ही पटरी पर आ जाती है, किसी को कुछ साल लग जाते हैं। कईयों के बीच तो तब असली ट्यूनिंग बनती है, जब उनके बच्चे भी बड़े हो जाते हैं। यह पति-पत्नी, दोनों की उचित भागीदारी पर निर्भर करता है कि कितना समय लगेगा। कई स्त्री पर आसक्त रहने वाले पति पत्नी से बिल्कुल भी तप नहीं करवाते और न ही खुद करते हैं। वे हालाँकि शुरु में ही फुल्ली ट्यूनड लगते हैं, पर यह दिखावा ज्यादा होता है। इस जल्दबाजी में वे एकदूसरे को ढंग से व गहराई से नहीं जान पाते। इससे कुछ न कुछ तांत्रिक कमी तो बाद तक रह ही जाती है। शादी से पहले तो चाहता ही है कि उसकी होने वाली पत्नी गुणों में देवी पार्वती से कम न हो, पर शादी के बाद भी पुरुष चाहता है कि उसकी पत्नी उसकी तन-मन-धन से सेवा करती रही, उससे भरपूर प्रेम करे और पूरी तरह उसके प्रति समर्पित रहे। मतलब कि पति चाहता है कि उसकी पत्नी उसके लिए पहले घोर तप करे, तभी वह अपने आपको उसके हवाले करेगा। भगवान शिव भी तो सती से या पार्वती से यही चाहते हैं। इसीलिए पार्वती निरन्तर शिव का स्मरण करते हुए घोर तप करती है। उसीके बाद शिव उसे स्वीकार करते हैं। थोड़ा तप तो शिव भी करते हैं। वे लगातार पार्वती की याद में इधर-उधर भटकते रहते हैं। यही उनका तप है। दरअसल यह मानव जीवन का मनोविज्ञान ही है, जिसे पुराणों में देवी-देवताओं की कथाओं द्वारा समझाया गया है।

युद्ध की देवी काली

युद्ध आदि के समय और अन्य विकट परिस्थितियों में भगवती माता या काली की पूजा करने का विधान है। दरअसल ऊर्जा का स्रोत स्त्री ही है। युद्ध आदि के समय बहुत अधिक प्राण ऊर्जा की आवश्यकता होती है, आम समय की अपेक्षा दुगुने से भी ज्यादा। शरीर को चलायमान रखने के लिए अलग से ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, और मन को स्थिर रखने के लिए अलग से। अगर मुक्ति की आकांक्षा हो, तब तो और भी ज्यादा ऊर्जा चाहिए, क्योंकि उसके लिए साथ में नाड़ियों और अन्य चक्रों के साथ सहस्रार को भी जागृत रखना पड़ता है। काली को वीभत्स रूप इसलिए दिया गया है क्योंकि उससे प्राप्त ऊर्जा का इस्तेमाल युद्धादि में उपजे रक्तपात के लिए भी होता है। दूसरा मतलब यह भी है कि शक्ति खून की प्यासी भी हो सकती है।

कुंडलिनी तंत्र को उजागर करती लोकप्रिय फिल्म बाहुबली

दोस्तो, मैं एक पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कुंडलिनी-पुरुष को अभिव्यक्त करने के लिए ही महामानव को कल्पित किया जाता है। हनुमानजी ने भी एकबार पुराने जमाने के रॉकेट मैन की तरह ही वीरता से भरा कलाकौशल दिखाया था। लंका में जब उनकी पूँछ में लपेटे गए तेल से चुपड़े कपड़े में आग लगाई जाती है, तो वे रॉकेट मैन की तरह उड़ने लगते हैं, और पूरी लंका को आग लगाकर भस्म कर देते हैं। जो यथार्थ आजके महामानव से जुड़ा है, वही पुराने समय के महामानव के साथ भी जुड़ा है। अंतर यही है कि पुराने जमाने के ऋषि जानबूझकर कुंडलिनी-पुरुष को भौतिक अभिव्यक्ति देते थे, पर आजकल के बुद्धिजीवियों से अनजाने में ही आंतरिक प्रेरणा से ऐसा हो रहा है। मैंने अपने कुंडलिनी जागरण के आसपास बड़े और अत्याधुनिक पर्दे पर बाहुबली फ़िल्म सपरिवार देखी थी। हो सकता है कि उसका भी मेरी जागृति में हाथ हो। उस तमिल मूल की हिन्दी में अनुवादित फिल्म में बाहुबली नामक काल्पनिक महामानव का ही बोलबाला था। बाहुबली का शाब्दिक अर्थ है, ‘ऐसा व्यक्ति जिसकी भुजाओं में बहुत बल हो’। वह अपने कन्धे पर सैकड़ों किलो वजन के पत्थर के शिवलिंग को लेके चलता, अकेले ही शत्रुओं की पूरी सेना को पलभर में ही परास्त करता, और नौका को दिव्य विमान की तरह उड़ाकर उस पर अपनी प्रेमिका राजकुमारी से रोमांस करता। उस फिल्म में भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों काल नजर आते थे। विचित्र सी भव्यता थी उसमें, जिसे बहुत पुरानी भी कह सकते हैं, और बहुत नई भी। उसमें एनिमेशन तकनीक, वास्तविक दृश्य और जीवंत अभिनय, तीनों का मिश्रण लाजवाब था। गीत-संगीत भी आत्मा की गहराई को छूता हुआ नजर आता था। एक रोमांटिक गाने की शुरुआत तब होती है जब बाहुबली पानी में खड़ा होकर अपनी दोनों बाजुओं का पुल बनाकर उसके ऊपर से देवसेना को गुजार कर एक बड़ी सी सुंदर किश्ती में बैठाता है। इस दृश्य में कुंडलिनी तंत्र का यह पहला उपदेश छिपा है कि तंत्र में पुरुष और स्त्री बराबर का स्थान रखते हैं, और स्त्री को देवी और गुरु के रूप में पूजनीय भी माना जाता है। बाहुबली और देवसेना का रोमांस एक उड़ती हुई नौका पर दिखाया गया है। दरअसल वह पालों वाली नौका थी जो पानी पर तैर रही थी। सुंदर तटीय पहाड़ियों के बीच से गुजरती हुई वह नौका गहरे समुद्र में पहुंच जाती है। इसका मतलब है कि दोनों का विवाहोपरांत रोमांस हल्के-फुल्के पर्यटन से शुरु होकर दुनियादारी की गहरी जिम्मेदारियों के बीच में पहुंच जाता है। वहाँ बड़े-2 तूफानों से उनकी नौका डगमगाने लगती है। इसका मतलब है कि सांसारिक उलझनों और समस्याओं से उनके प्यार का आधार उनका मनुष्य जीवन संकटग्रस्त होने लगता है। फिर देवसेना आकर्षक मुस्कान के साथ बाहुबली को कुछ गूढ़ इशारा करते हुए अपने हाथ से गुलाबी रंग छोड़ती है, जो पूरे पानी को गुलाबी कर देता है। इसमें गहरा अर्थ छिपा है। मैंने शिव-पार्वती की प्रेम-लीलाओं से सम्बंधित पिछली पोस्ट में भी बताया था कि जब तक आदमी संसारसागर में बुरी तरह से नहीं फंस जाता, तब तक वह उससे बाहर निकलने का प्रयास नहीं करता। गुलाबी रंग वास्तव में स्त्री-प्रेम का प्रतीक है। वह पानी में फैलता है, मतलब संसार से होकर ही स्त्री-प्रेम उसके पात्र तक पहुंच सकता है, संसार से भागकर नहीं। समुद्र और उसका जल यहाँ संसार का प्रतीक है। दूसरा तँत्रसम्मत अर्थ इससे यह निकलता है कि स्त्री ही तंत्र का प्रारंभ करने वाली तँत्रगुरु होती है। उससे प्रेरित बाहुबली भी जोश के साथ अपने हृदय व हाथों से नीला रंग छोड़ता है, जो चारों ओर फैल जाता है। नीला रंग पुरुष-प्रेम का प्रतीक है। ये दोनों रँग आपस में मिल जाते हैं। इसका मतलब कि दोनों का प्रेम (कुंडलिनी) एकदूसरे से और चारों ओर हर चीज से घुल मिल जाता है।  फिर उससे उमंग से भरा बाहुबली उस नौका के स्टीयरिंग को घुमाता हुआ फ्लाईंग गियर लगाता है, जिससे उसके पाल पंख बन जाते हैं, और नौका बादलों के बीच उड़ने लगती है। फ्लाईंग गियर का मतलब यहाँ तांत्रिक योग, और उससे कुंडलिनी का हृदय चक्र से ऊपर उठकर आज्ञा चक्र की तरफ जाना है। उस पर गाने-बजाने वाली और सेवा-शुश्रुषा करने वाली लोगों की पूरी महफिल भी साथ होती है। इसका मतलब है कि कुंडलिनी से आकर्षित होकर सभी लोग कुंडलिनी योगी के सहयोगी बन जाते हैं। इसका यह मतलब भी है कि सभी प्राण कुंडलिनी के साथ होते हैं। ये सभी सुविधाएं प्राणों की प्रतीक भी हैं। बादलों को घोड़ों के आकार में दौड़ते हुए व हिनहिनाते हुए दिखाया गया है। ये दरअसल इन्द्रियाँ हैं, जो तांत्रिक कुंडलिनी शक्ति से अपनी क्रियाशीलता के चरम पर होती हैं। सारस जैसे सफेद पंछियों के झुंड उड़ते व चहकते दिखाए जाते हैं। ये भी उमंग से भरे हुए मन के प्रतीक हैं। मन या जीवात्मा को पंछी की संज्ञा भी दी जाती है। वैसे भी शास्त्रों में इंद्रियों को घोड़ों के रूप में दर्शाया गया है। आसमान को तलाब की तरह दिखा कर उसमें उगे कमल पुष्पों के झुंड दिखाए गए हैं। साथ में चन्द्रमा भी एक सुंदर जमीनी वस्तु की तरह दिखता है, जिस पर भी फूल उगने लगते हैं। बादल उनकी नौका पर स्तंभों, सीढ़ियों आदि से सुंदर आकृतियों में लिपटने लगते हैं। इसका मतलब है कि कुंडलिनी या मन के सहस्रार चक्र में प्रविष्ट होने के बाद सभी जमीनी वस्तुएं औऱ जमीनी भाव दिव्य लगने लगते हैं। जमीन और आसमान एक हो जाते हैं। मूलाधार और सहस्रार एक हो जाते हैं। बादल भी इसका प्रतीक है, क्योंकि उसमें जमीन (पानी) और आसमान (हवा) दोनों के अंश होते हैं। इसीलिए बादल मनभावन लगते हैं। मन अद्वैत भाव से भर जाता है। सबकुछ एक जैसा और आनन्द से भरा हुआ लगता है।  यह तांत्रिक कुंडलिनी रोमांच ही है, जिसे इस तरह आसमानी बगीचे में उड़ती नौका के रूप में दिखाया गया है। नहीं तो मन के कुंडलिनी आनन्द को कोई कैसे दिखाए। बाहुबली और देवसेना साधारण रोमांस को कुंडलिनी रोमांस में बदल देते हैं, जिससे उनकी कुंडलिनी सहस्रार चक्र में पहुंच जाती है। इसे ही बादलों की ऊंचाई में उड़ना दिखाया गया है। पेड़ के इर्दगिर्द सिमटा रोमांस क्या रोमांस होता है? फिल्म निर्माता की दार्शनिक कल्पना शक्ति को दाद देनी पड़ेगी। इन उपरोक्त दृष्यों वाले मात्र एक गाने में ही पूरा तंत्र दर्शन सिमटा हुआ प्रतीत होता है। सम्भव है कि मेरे अवचेतन मन पर बाहुबली फिल्म की छाप पड़ी हो, और अनजाने में ही कुंडलिनी योग की तरफ मेरा आकर्षण बढ़ा हो। और ये तो अधिकांश विद्वान मानते ही हैं कि महामानव और कुछ नहीं, कुंडलिनी-मानव ही है। वैसे मैं यहाँ फ़िल्म की समीक्षा नहीं कर रहा हूँ, प्रकरणवश लिख रहा हूँ।