एक जीव मरने के बाद कहाँ गया कुछ पता नहीं चलता। इसी तरह एक गलेक्सी ब्लेक होल से निकलकर कौन से ब्रह्माण्ड में गई पता नहीं चलता। जैसे एक ही अनंत अंतरिक्ष में अनगिनत जीवों के रूप में अनगिनत सूक्ष्म ब्रह्माण्ड हैं, उसी तरह एक ही अनंत अंतरिक्ष में अनगिनत स्थूल ब्रह्माण्ड भी तो हो सकते हैं। अनंत अंतरिक्ष की जितनी मर्जी कॉपीयां निकाल लो। हरेक कॉपी मूल की तरह सम्पूर्ण होती है, डुप्लीकेट नहीं, क्योंकि एक से ज्यादा अनंत अंतरिक्ष संभव ही नहीं। इसी तरह एकमात्र अनुभवरूप अनंत अंतरिक्ष के इलावा किसी की स्वतंत्र सत्ता या अस्तित्व ही नहीं है। लहर, कण आदि जो कुछ भी अनंत आकाश में आभासी रूप में महसूस होता है, वह अपने आधार अनंत-आकाश के साथ ही सत्तावान महसूस होता है, स्वतंत्र रूप से नहीं। या ऐसा कह लो कि अनंत अंतरिक्ष को वह अपनी आभासी लहरों के रूप में अपने में ही महसूस होता है। अगर उन आभासी कलाकृतियों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता, तब तो हरेक जड़ वस्तु जैसे कि कुर्सी, पत्थर, चित्र, मूर्ति आदि जीवित होती, जैसा कि कई एनिमेशन फिल्मों में दिखाया जाता है। जगत, विचार आदि तो उस आकाश-आत्मा में आभासी तरंगें हैं, जो दरअसल हैं ही नहीं। इसलिए एक ही चारा बचता है कि एक ही अनंत अंतरिक्ष को ही सभी जीवों और ब्रह्माण्डों के रूप में दिखाया जाए। यह शास्त्रों में एक श्लोक के द्वारा समझाया गया है, “ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदम पूर्णात पूर्णमुदुच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते”। इसका मतलब है कि ‘वह’ मतलब ॐ नाम वाला परम तत्त्व पूर्ण है, मतलब अनंत अंतरिक्षरूप है, ‘यह’ मतलब जीव भी अनंत अंतरिक्ष है, ‘उस’ अनंत अंतरिक्ष से ‘इस’ अनंत अंतरिक्ष के निकल जाने के बाद भी ‘वह’ अनंत अंतरिक्ष ही बचा रहता है, उसमें कोई कमी नहीं आती। शून्यरूप अनंत अंतरिक्ष से कोई कुछ निकाल ही कैसे सकता है। क्योंकि सभी अनंत अंतरिक्ष एक ही हैं, इसलिए सभी जीव भी एक ही हैं। जैसे भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थित जीवों के मानसिक ब्रह्माण्ड ‘एक अंतरिक्ष रूप‘ ही हैं, उसी तरह भिन्नभिन्न स्थानों पर स्थित स्थूल ब्रह्माण्ड एक ही अंतरिक्ष में दिखते हुए भी, अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता रखते हुए भी, अलग-अलग स्थानीय रूप रखते हुए भी, अलग-अलग अनंत अंतरिक्ष की सत्ता साथ में समेटे हुए हैं। इससे मल्टीवर्स की बात खुद ही सिद्ध हो जाती है। जैसे जीवों के रूप में सूक्ष्म ब्रह्माण्ड अनगिनत हैं, वैसे ही स्थूल ब्रह्माण्ड भी अनगिनत हैं। हालांकि सबके साथ अपना अनंत अंतरिक्ष है, इसलिए सब एक अनंत अंतरिक्ष रूप ही हैं, और कभी उसमें जाके मिल जाएंगे। वैसे तो हमेशा मिले हुए ही हैं पर वर्चुअली मिलते दिखेंगे। इस तरह से जैसे जीव के रूप में सूक्ष्म ब्रह्माण्ड की मुक्ति होती है, उसी तरह स्थूल ब्रह्माण्ड के रूप में भी जरूर होती होगी। यह अलग बात है कि स्थूल ब्रह्माण्ड का अभिमानी आत्मा अर्थात ब्रह्मा पहले से ही अनासक्त, अद्वैतपूर्ण और जीवनमुक्त है, जैसा शास्त्रों में कहा गया है। शास्त्र खुद मल्टीवर्स को मानते हैं। वे कहते हैं कि अनगिनत जीवों की तरह ब्रह्मा भी अनगिनत हैं। सम्भवतः उनका कहना है कि हरेक जीव विकास के उत्तरोत्तर क्रम को लाँघते हुए जीवनयात्रा के अंतिम पड़ाव के निकट ब्रह्मा भी जरूर बनता है। इसी संदर्भ में गीता में आता है कि आत्मा न तो कभी पैदा होती है, और न नष्ट होती है। मतलब कि आदमी कभी नहीं मरता। यही तो उपरोक्त वैज्ञानिक तथ्यों से भी सिद्ध हो रहा है कि अनंत व शून्य आकाश को न तो बनाया जा सकता है, और न ही नष्ट किया जा सकता है। हाँ यह जरूर है कि जीव-आत्मा रूपी भ्रमित अनंताकाश कुण्डलिनी योग से अपने अज्ञानरूपी आभासी भ्रम को दूर करके ओरिजनल अनंताकाश अर्थात परमात्मा के साथ एकाकार हो सकता है। एकाकार पहले से ही है, बस आभासी भ्रम का बादल हटाना है।
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कुण्डलिनी योग ड्यूल नेचर ऑफ़ मैटर से कण प्रकृति को कुंठित करके तरंग प्रकृति को बढ़ाता है
दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि ब्लैक होल ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म शरीर होता है। गेलेक्सी को आप उसका स्थूल शरीर मान लो, और उसके केंद्र में स्थित ब्लैक होल उसका सूक्ष्म शरीर है। हरेक जीव एक आसमान है, और उसमें एक अलग ब्रह्माण्ड है। सब स्वतंत्र हैं और एकदूसरे को नष्ट नहीं कर सकते। हो सकता है कि इसी तरह एक ही आसमान में अनगिनत स्वतंत्र ब्रह्माण्ड भी हों।
आदमी कभी नहीं मरता
ये मैं ही नहीं कह रहा हूँ बल्कि वैज्ञानिक भी इस बात की आशंका जता रहे हैं कि आदमी दरअसल मरता नहीं है, पर मरने के बाद ब्लैक होल में चला जाता है और वहाँ से होकर किसी दूसरे ब्रह्माण्ड में पहुंच जाता है। यह वही बात है जो शास्त्र कहते हैं कि आदमी मरने के बाद सूक्ष्म शरीर बन जाता है और नया जन्म ले लेता है। नया जन्म नया ब्रह्माण्ड ही है, क्योंकि जितने जीव उतने ब्रह्माण्ड। हरेक जीव एक अनंत अंतरिक्ष है, और उसमें विचारों व अनुभवों का समूह ही भरापूरा ब्रह्माण्ड है। रोचक बात यह है कि स्थूल ब्रह्माण्ड की तरह सूक्ष्म मानसिक ब्रह्माण्ड भी अनंत अंतरिक्ष में ही बनता है, जीव के शरीर या मस्तिष्क में नहीं, जैसा कि अक्सर माना जाता है। मस्तिष्क तो केवल अंतरिक्ष में उन आभासी तरंगों को पैदा करने वाली मशीन भर है, जिन्हें वह अंतरिक्ष अपने अंदर महसूस कर सकता है। योगवासिष्ठ जैसे शास्त्रों में इसे ऐसे समझाया गया है कि आसमान में लटकते घड़े के अंदर कैद आसमान ही जीव है। वह भ्रम से ही अलग प्रतीत होता है, असलियत में वह एक ही अनंत आसमान से अभिन्न है। घड़े के अंदर के आसमान में आभासी तरंगें बनती रहती हैं, जिनसे जीव मोहित हुआ रहता है। मैं पिछली पोस्ट के संदर्भ में बता दूँ कि अनंत आकाश के छोटे से हिस्से में आसक्ति के साथ तरंगों को आत्म-आकाश से अलग अनुभव करने से पूरे चमकीले आत्म-आकाश को अपने में अंधेरा महसूस होता है। दरअसल यह भ्रम होता है। इससे मृत्यु के बाद भी उन तरंगों से बनी क्वांटम फ्लकचूएशन्स पर आसक्ति बनी रहती है, जिससे वह भ्रमजनित अंधेरा बना रहता है, जैसा सम्भवतः मैंने सूक्ष्मशरीर में अनुभव किया था। यह ऐसे ही है, जैसे क्वांटम फिसिक्स में मूल तत्त्वों को कण रूप में देखने पर वे अपने तरंग जैसे अनंत रूप को त्याग कर सीमित कणों के रूप में व्यवहार करते हैं। मतलब अनंत ऊर्जा एक कण के रूप में सीमित हो जाती है। इसको ऐसे समझ लो कि अनंत अंतरिक्ष की लाइट ऑफ़ हो जाती है, और केवल कणों के रूप में ही सीमित प्रकाश बचा रहता है। अँधेरे आसमान में चमकते हुए कण। जब हम उन्हें अपने असली ‘अनंत आसमान की तरंग‘ के रूप में देखते हैं, तब वे वैसे ही अंतरिक्ष की तरंग के रूप में व्यवहार करते हैं। मतलब वो तरंग इसीलिए प्रकाशमान है, क्योंकि वह जिस अंतरिक्ष में बनी है, वो खुद प्रकाशमान है। मतलब तरंग के साथ पूरे अनंत अंतरिक्ष की लाइट ऑन रहती है। जल में बनी तरंग तभी रंगीन हो सकती है, अगर वह जल भी रंगीन हो। अगर जल काला हो, तो उससे बनने वाली तरंग रंगीन हो ही नहीं सकती। जबकि तरंग को कण के रूप में मतलब जल से अलग स्वतंत्र रूप में तभी महसूस कर सकते हैं, अगर आधारभूत जल का रंग खत्म कर दिया जाए, पर तरंग का रंग रहने दिया जाए। पर ऐसा संभव नहीं है। इसलिए आधाररूपी तरंग-माध्यम का रंग आभासी रूप में अर्थात झूठमूठ में अर्थात भ्रम पैदा करके गायब करना पड़ता है, जादूगर की भ्रम पैदा करने वाली ट्रिक की तरह। इसलिए पदार्थ का असली रूप तरंग होते हुए भी वे आसक्ति और द्वैत से उत्पन्न भ्रम से कणरूप जान पड़ते हैं। सिंपल सी बात है। मतलब कि आध्यात्मिक अज्ञान क्वांटम फिसिक्स के अज्ञान पर आधारित प्रतीत होता है।
कुण्डलिनी योग विज्ञान ब्लैक होल में भी झाँक सकता है
शिव की तरह शक्ति भी शाश्वत है
दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि शक्ति कहाँ से आती है। शाक्त कहते हैं कि शिव की तरह शक्ति भी शाश्वत है। यह मानना ही पड़ेगा, क्योंकि अगर शक्ति नाशवान है, तब वह सृष्टि के प्रारम्भिक शून्य आकाश में कहाँ से आती है। अगर शिव को ही एकमात्र अविनाशी और मूल तत्त्व माना जाए तो एक नया स्पष्टीकरण है। सूक्ष्मशरीर रूपी क्वांटम फ्लकचूएशनस आत्मा में रिकॉर्ड हो जाती हैं। उन क्वांटम फ्लकचूएशनस के अनुसार ही आत्मा में अंधेरा होता है। मतलब क्वांटम फ्लकचूएशनस की किस्म और मात्रा के अनुसार ही आत्मा का अंधेरा भिन्नता रखता है। यह नियम व्यष्टि और समष्टि, दोनों ही मामलों में लागू होता है। इसे ही कारण शरीर कहते हैं। आत्मा का वही अंधेरा फिर सृष्टि के प्रारम्भ में अपने अनुसार पुनः क्वांटम फ्लकचूएशन पैदा करता है। मतलब कारण शरीर या कारण ब्रह्माण्ड सूक्ष्मशरीर या सूक्ष्म ब्रह्माण्ड के रूप में आ जाता है। उससे फिर स्थूल शरीर या स्थूल ब्रह्माण्ड बन ही जाता है। पर प्रश्न फिर भी बचा ही रहता है। फौरी तौर पर तो यही उत्तर बनता है कि अँधेरे अंतरिक्ष के रूप में शक्ति अर्थात कारण शरीर तो रहता है, पर अनुभव के रूप में उसका अपना अस्तित्व नहीं होता, अनुभव के रूप में वह परमात्मा शिवरूप ही होता है। या कह लो कि शक्ति शून्य शिव से एकाकार हो जाती है।
सृष्टि के प्रारम्भ में शक्ति शिव से अलग होकर सृष्टि की रचना प्रारम्भ करती है
जैसे सरोवर का जल हमेशा हिलता रहता है वैसे ही अंतरिक्ष में हमेशा सूक्ष्म तरंगें उठती रहती हैं। दोनों में कभी हवा आदि से लहरें ज्यादा बढ़ जाती हैं। यही एनर्जी से कण का उदय है। अंतरिक्ष में ये तरंगें आकाशीय पिंडों के आपस में टकराने से बनती हैं। यह तो वैज्ञानिक भी बोलते हैं कि जब अंतरिक्ष में ज्यादा उथलपुथल मचती है, तो नए ग्रहों व सितारों आदि का ज्यादा निर्माण होता है। पर शुरुआत के शून्य अंतरिक्ष में यह उथलपुथल कैसे मचती है, यह खोज का विषय है।
ब्लैक होल में ब्रह्माण्ड के जन्म और मृत्यु का राज छिपा हो सकता है
तारा जब मरता है तो वह सिंगुलेरिटी तक कंम्प्रेस होकर ब्लैक होल बन जाता है। वह सिंगुलेरिटी अव्यक्त आकाश में विलीन हो जाती है, क्योंकि किसी चीज के छोटा होने की अंतिम सीमा शून्य आकाश में जाकर ही खत्म होती है। मतलब वह पहले स्बसे छोटा मूलकण बनता है। उसकी ग्रेविटी बहुत ज्यादा होती है। मतलब वह क्वांटम ग्रेविटी है। इसमें एक मूलकण से सृष्टि बनने का राज अर्थात बिग बैंग का राज छिपा हुआ है। जब एक मूलकण के अंदर पूरा तारा समा सकता है तो उससे पूरे तारे का उदय भी तो हो सकता है। वह पुनः-रचना व्हाइट होल के माध्यम से हो सकती है। तभी कहते हैं कि ब्लेक होल सृष्टि रचना की फैक्ट्री हो सकता है। हो सकता है कि सृष्टि के अंत में ग्रेविटी हावी होकर पूरे ब्रह्माण्ड या पूरी सृष्टि को ही ब्लैक होल बना कर खत्म कर दे। फिर पूरा अंतरिक्ष ही ब्लैक होल अर्थात अव्यक्त आकाश अर्थात अंधकारपूर्ण आकाश अर्थात मूल प्रकृति बन जाएगा। हालांकि उसमें पूरी सृष्टि उच्च दबाव में समाई होगी। अब ये नहीं पता कि वह किस रूप में उसमें होगी। जब उस परम ब्लैक होल का अंधकाररूप दबाव एक निश्चित मात्रा या समय सीमा को लांघेगा, तब प्रलय का अंत हो जाएगा और उसमें दबे अव्यक्त पदार्थ प्रकाशमान तरंगों के रूप में बाहर अर्थात परम व्यक्त अर्थात परम पुरुष की ओर प्रस्फुटित होने लगेंगे। इसे ही प्रकृति और पुरुष अर्थात यिन और यांग के बीच आकर्षण और सम्भोग कहा जाता है। इससे शिशु रूप में नई सृष्टि का पुनर्जन्म और विकास होगा। सम्भवतः इसीलिए शास्त्रों में अनेक स्थानों पर मन के विचारों मुख्यतः कुण्डलिनी छवि को भी पुत्र कह कर सम्बोधित किया जाता है। उदाहरण के लिए देव कार्तिकेय, सगर-पुत्र आदि। स्वाभाविक है कि सृष्टि पहले की तरह ही बनेगी क्योंकि पिछली सृष्टि के दबे पदार्थ ही उसे बना रहे हैं। नई सृष्टि बनने की प्रक्रिया और क्रम भी पुरानी की तरह ही होगा क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि जिस क्रम में कोई चीज टूट कर नष्ट होती है, वह लगभग उसी क्रम और प्रक्रिया में आगे से आगे जुड़ते हुए पुनः निर्मित होती है। यह भी हो सकता है कि बिग क्रन्च होने की बजाय बिग बैंग ही चलता रहे, जिससे अंत में सभी मूलकण भी एकदूसरे से दूर छिटक कर आकाश में विलीन हो जाएं। पर बनेगा तो तब भी ब्लैक होल जैसा ही। उसमें भी सब कुछ यहाँ तक कि प्रकाश भी टूट कर मूल अंतरिक्ष के अँधेरे में गायब हो जाएगा।
आदमी का सूक्ष्म शरीर भी एक ब्लैक होल ही है
आदमी भी तो ऐसे ही मरता है। सारे जीवन भर मानसिक ब्रह्माण्ड का निर्माण करता है। अंत में सब कुछ अँधेरनुमा ब्लैकहोल जैसे अव्यक्त में समा जाता है। आदमी के नए जन्म पर उसके नए मानसिक ब्रह्माण्ड का निर्माण इसी मानसिक या सूक्ष्म ब्लैकहोल से होता है। मतलब जैसी सूचना उस अँधेरे में दर्ज होती है, नया ब्रह्माण्ड भी वैसा ही बनता है। तभी तो कहते हैं कि आदमी का नया जन्म उसके पुराने जन्मों के अनुसार ही होता है।
ब्लैक होल में प्रकाश तो अनगिनत सितारों जितना समाया हो सकता है, पर वह दबा हुआ या अव्यक्त होता है। यह मृत्यु के बाद जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर अर्थात प्रेतात्मा की तरह है। उसमें अनेक जन्मों के जगत का प्रकाश समाहित होता है, पर वह दबा हुआ सा अर्थात अनभिव्यक्त सा होता है। ऐसा लगता है कि वह प्रकाश बाहर उमड़ने को बेताब है।
हरेक जीव एक ब्रह्माण्ड और ब्लैक होल के रूप में जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता रहता है
ब्लैक होल का अनुभवात्मक विवरण
मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि जीवात्मा का पुनर्जन्म एक मां के गर्भ में होता है। यह अनेक सम्भावनाओं में से एक है। जीवात्मा सूर्य-आदि मार्गों से भी जा सकती है, चंद्रादि मार्ग से भी, स्वर्ग भी जा सकती है और नर्क भी, किसी भी ग्रह या लोक-परलोक को जा सकती है, मुक्त भी हो सकती है, और बद्ध भी रह सकती है। इसका असली अनुभव तो ज्ञानी ऋषियों ने ही किया था, जिसका वर्णन उन्होंने वेद-शास्त्रों में किया है। हम तो उन्हींके अनुभवों की वैज्ञानिक विवेचना करने की कोशिश करते हैं। मेरा अनुभव तो यही है कि मैंने एकबार अपने मृत परिचित की जीवात्मा को अनुभव किया था। वह ब्लैक होल की तरह थी, मतलब उसमें उस आदमी का पूरा व्यक्तित्व समाया हुआ था, जो उसकी जीवित अवस्था से भी ज्यादा अनुभव हो रहा था, उसके पिछले सभी जन्मों के प्रभाव के साथ, पर फिर भी सबकुछ अंधेरनुमा ही था, हालांकि अंतहीन खुले आसमान की तरह। वैसे ही, जैसे ब्लैक होल में पूरा विश्व समाया होता है। ऐसा लग रहा था जैसे उनका जीवित अवस्था का प्रकाशमान जगत अर्थात उनका जीवनयात्रा की शुरुआत से लेकर अब तक का पूरा पिछला व्यक्तित्व किसी दबाव से दबा था, इससे वह अवस्था कज्जली या चमकीली काली थी, मतलब चेतना व सेल्फ अवेयरनेस अर्थात आत्मजागरूकता से भरा अंधेरा था वह, जड़ता या मूढ़ता से भरा नहीं, और शान्तियुक्त आनंद भी था उसमें, हालांकि प्रकाश की कमी से आनंद अधूरा था। ऐसा ही जैसे किसी को सुखचैन तो दो पर अँधेरी कोठरी में बंद रखो। शायद यह एक जानवर जैसा बंधन है जो एक अंधेरे कमरे में बंधा हुआ है, लेकिन अच्छी तरह से खिलाया और पानी पिलाया जाता है, इसलिए भगवान को पशुपति नाथ या जानवरों का स्वामी कहा जाता है। ऐसा लग रहा था कि वह दबा हुआ बैकग्राउंड प्रकाश पूरे जोर व विस्फोट से बाहर को फैलना चाहता हो अभिव्यक्ति के रूप में। सम्भवतः ब्लैक होल भी ऐसा ही होता है। इवेंट होरीजन के साथ देखने पर तो वह वैसा ही लगता है। इवेंट होरीज़ोन को आप आदमी के स्थूल शरीर जैसा या अभिव्यक्त रूप जैसा कह लो, और ब्लैक होल को इसके सूक्ष्म शरीर या दबे रूप जैसा। इवेंट होरीज़ोन में पूरा दृश्य जगत प्रकाशमान और स्थूल होता है, जबकि ब्लैक होल के अंदर वह सूक्ष्मता और अँधेरे में चला जाता है, रहता वहाँ भी पूरा ही है। विचित्र अवस्था होती है सूक्ष्म शरीर की। फिर वो जीवात्मा कई दिन बाद दिव्य जैसी अवस्था में टहलते हुए महसूस हुई। सम्भवतः वह स्वर्ग या मुक्ति की तरफ जा रही थी। मैंने इसका सविस्तार वर्णन एक पुरानी पोस्ट में किया है। मैं इस अनुभव के दौरान तांत्रिक कुण्डलिनी योग का गहन अभ्यास कर रहा था। सम्भवतः इसी ने मुझे उस दिव्य अनुभव के योग्य बनाया था। वह शुभचिंतक प्रेतात्मा थी। इसी तरह एकबार मुझे योगाभ्यास के बीच में ही कुछ अशुभ प्रेतात्माओं के सूक्ष्म शरीरों का अनुभव भी हुआ था। वे हिंसक व गुस्सैल व रक्तपिपासु जैसे लग रहे थे। दरअसल सूक्ष्म शरीर अपनी आत्मा के अंदर या आत्मा के रूप में महसूस होते हैं। वह एक अहसास होता है, जिसके लिए विचारों का घोड़ा दौड़ाने की जरूरत नहीं होती। आपको चीनी की मिठास क्या विचार बताते हैं। नहीं, वह एक अपना अंदरूनी अहसास होता है। उसके साथ पीछे से अच्छे विचार आए, वह अलग बात है। उसी तरह उन दुष्ट प्रेतों के अहसास के साथ कुछ हड्डीनुमा, लाल आँखों वाले व बड़े नुकीले दांतों व गुस्से वाले चित्र तो मन में बने, पर वे तो अहसास का पीछा करने वाले विचार होते हैं, अहसास नहीं। सूक्ष्म शरीर तो एक अहसास ही होता है, बिना किसी भौतिक रूपरंग का। मस्तिष्क एक थिएटर मेन की तरह होता है, जो अहसास या मूड के अनुसार चित्र बना लेता है। मैंने गुरु स्मरण से उस घटिया अहसास को शांत किया। वह अहसास 10-20 सेकंड जितना ही रहा होगा। उसके एक-दो दिन बाद एक बुरी घटना टलने की खुशखबरी मिली। इसी तरह मैंने बताया था कि किस तरह जीव का जन्म होता है। यह भी मैं शास्त्रों में लिखी बातों को वैज्ञानिक अमलीजामा पहना रहा था, कुछ अपना हल्का अनुभव भी है, हालांकि वह गहरा या निर्णायक अनुभव नहीं है। एक उपनिषद में तो एक जगह यहाँ तक कहा गया है कि जीवात्मा बादलों तक पहुंच कर बारिश के जल में घुलकर जमीन पर आ जाती है, फिर जड़ों से होकर अन्न के पौधे में घुस जाती है। जब कोई आदमी उस अन्न के दाने को खाता है, तो उसके शरीर से होकर उसके वीर्य में पहुंच जाती है। उससे उसकी पत्नि के गर्भ में प्रविष्ट होकर जन्म ले लेती है।
जो भौतिक विज्ञान की पहुंच से परे हो, वहाँ आध्यात्मिक योग-विज्ञान से ही पहुंचा जा सकता है
भौतिक वैज्ञानिक ब्लैक होल के अँधेरे में झाँकने में अस्मर्थ हैं। पर योग विज्ञान इशारा कर रहा है कि उसमें सभी पदार्थ अदृष्य आत्मा अर्थात अदृष्य आसमान के रूप में विद्यमान रहते हैं, जिन्हें आसमान रूप आत्मा के द्वारा सीधा अनुभव तो किया जा सकता है पर भौतिक इन्द्रियों के द्वारा नहीं। जीव का सूक्ष्म शरीर भी वैसा ही होता है।
ब्लैक होल ब्रह्माण्ड-शरीर अर्थात ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर है
एलियन हरेक भौतिक पदार्थ के रूप में उपस्थित रहकर हमारे सबसे निकट होते हुए भी सबसे दूर हैं
उपरोक्त तथ्यों से तो यही सिद्ध होता है। देहरहित सूक्ष्मशरीर व कारण शरीर के बीच मुझे कोई ज्यादा अंतर नहीं लगता। दोनों में ही क्वांटम फ्लकचूएशनस आत्मा में रिकॉर्ड हो जाती हैं। यही मामुली सा अंतर है कि सूक्ष्मशरीर थोड़े समय के लिए रहता है, क्योंकि उसको स्थूल रूप में प्रकट करने के लिए भौतिक सृष्टि का वजूद होता है, जबकि कारण शरीर लम्बे समय तक बना रहता है, क्योंकि उस समय सृष्टि की प्रलयावस्था होती है, और कहीं कुछ भी भौतिक रूप में नहीं होता। इसके अलावा, कारण शरीर पूरी तरह से शांत दिखाई देता है क्योंकि इसमें किसी भी क्वांटम लहर की उतार-चढ़ाव को आकर्षक भूतिया अभिव्यक्ति के रूप में लंबे समय तक अनुभव नहीं किया जाता है, जैसा कि कभी-कभी सूक्ष्म शरीर के मामले में होता है। इसका मतलब है कि आम जीव की तरह ब्रह्मा नाम के जीव का अस्तित्व भी है, जैसा शास्त्रों में कहा गया है। ब्रह्माण्ड ही उसका शरीर है। यह अलग बात है कि वह इससे बद्ध नहीं होता। प्रलय के समय ब्रह्मा की आत्मा में ब्रह्माण्ड रिकॉर्ड हो जाता है। सृष्टि के समय वह फिर अपने पुराने स्थूल रूप में प्रकट हो जाता है। पर शास्त्र कहते हैं कि ब्रह्मा प्रलय के समय अपनी मृत्यु के साथ मुक्त हो जाता है। फिर नई सृष्टि के लिए वो रेकॉर्डिंग कहाँ रहती है। मतलब साफ है कि वह जीवनमुक्त हो जाता है, विदेहमुक्त नहीं। मतलब उसका शरीर और जन्म-मृत्यु का चक्र बना रहता है, पर मुक्ति के अहसास के साथ। पर जीवनमुक्त तो वह पहले भी था। ऐसा शायद यह दर्शाने के लिए लिखा गया है कि जीव और ब्रह्मा की गति एक जैसी है। ब्रह्मा और जीव में कोई अंतर नहीं। जीवनमुक्त के बारे में जो कुछ भी सोच लो, वह सही ही होता है, क्योंकि वह किसी से प्रभावित ही नहीं होता। यह ऐसे ही है जैसे कुछ अंतरिक्ष वैज्ञानिक अंदेशा जता रहे हैं कि हमें एलियन इसलिए नहीं दिखते क्योंकि वे भौतिक पदार्थों के रूप में ढल गए हैं, और ऐसे बन गए हैं कि वे हर जगह हैं भी और नहीं भी। पूरा ब्रह्माण्ड भी ऐसा ही एक विशालकाय एलियन हो सकता है। सम्भवतः इस बात को जानकर ही सभी चीजों को देवता मानने की और उनको विभिन्न रूपों में पूजने की परम्परा शुरु हुई थी। ऐसे जीवनमुक्त लोग ही तो होते हैं। फिर शास्त्र कहते हैं कि कोई भी जीव तरक्की करते हुए ब्रह्मा बन सकता है। इसका मतलब मुझे यही लगता है कि ब्रह्मा की तरह पूर्ण जीवनमुक्त बन सकता है, न कि असली ब्रह्मा।
शिव अगर सरोवर है तो शक्ति उसमें हलचल पैदा करने वाला हवा का झोँका है
मान लेते हैं कि सरोवर में जल की हलचल की तरह अंतरिक्ष में क्वांटम फ्लकचूएशनस हमेशा विद्यमान रहती हैं, जिसे हम अव्यक्त कहते हैं। यह भी मान लेते हैं कि महाप्रलय के समय अंतरिक्ष एक पूर्ण शांत जल-सरोवर की तरह हो जाता है, जिसमें बिल्कुल भी हलचल नहीं रहती, मतलब क्वांटम फ्लकचूएशनस भी थम जाती हैं। इसे परम अव्यक्त भी कह सकते हैं और परम व्यक्त या परमात्मा भी। जैसे हवा के झोंके से जल की सतह पर बार-बार उसी किस्म की तरंगों के पैटर्न उसी क्रम में बनते रहते हैं, उसी तरह अंतरिक्ष में भी उसी किस्म की सृष्टि उसी निश्चित क्रम में बारबार बनती रहती है। पर फिर भी अंत में प्रश्न यही बचता है कि प्रलय के अंत में जब सब कुछ शून्य होता है, तब वह ऊर्जा या शक्ति कहाँ से आती है, जो उस हलचल को बढ़ा देती है। शून्य में वो हवा का झोंका कहाँ से आता है, जो शुरुआती हलचल को पैदा करता है। बाद में तो यह भी मान सकते हैं कि हलचल से हलचल खुद ही आगे से आगे बढ़ती रहती है। अंतरिक्ष में चलने वाला वह हवा का झोंका ही वह शक्ति है, जिसे शाक्त सम्प्रदाय वाले लोग शिव की तरह शाश्वत और अविनाशी मानते हैं। शिव अगर निश्चल अंतरिक्ष है, तो शक्ति उसमें हलचल पैदा करने वाला हवा का झोंका है।
कुण्डलिनी योग से ही ब्रह्माण्ड एक देवता या विशालकाय एलियन बनता है
शून्य में विद्युत्चुंबकीय तरंग
दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि विद्युत्चुंबकीय क्षेत्र या तरंग से मानसिक दुनिया बनती है। तो फिर यह क्यों न मान लिया जाए कि बाहर का भौतिक संसार भी इन्हीं तरंगों से बनता है। यही अंतर है कि मानसिक संसार में ये तरंगें अस्थिर होती हैं, और आँखों आदि इन्द्रियों के माध्यम से बाहर से लाई जा रही सूचनाओं के अनुसार लगातार बदलती रहती हैं, पर बाहर के स्थूल जगत में ये किसी बल से स्थिरता पाकर स्थायी मूलकणों की तरह व्यवहार करने लगती हैं, जिनसे दुनिया आगे से आगे बढ़ती जाती है। दिमाग़ में तो विद्युत्चुंबकीय तरंग मूलाधार से आ रही ऊर्जा से बनती है, पर बाहर शून्य अंतरिक्ष में यह ऊर्जा कहाँ से आती है, यह खोज का विषय है।
फील्ड से कण और कण से फील्ड का उदय
क्वांटम फील्ड थ्योरी सबसे आधुनिक और स्वीकृत है। इसके अनुसार हरेक कण और बल की एक सर्वव्यापी फील्ड मौजूद होती है। फील्ड मतलब प्रभाव क्षेत्र, कण की फील्ड मतलब कण का प्रभाव क्षेत्र। अंतरिक्ष शून्य नहीं बल्कि इन फील्डों से भरा होता है। फील्ड मतलब पोटेंशल, तरंग व कण बनाने की योग्यता। यह फील्ड एक सबसे हल्के स्तर की लहर होती है। मुझे लगता है यह ऐसे है कि जब एक कंकड़ एक जल-सरोवर में गिराया जाता है तो एक मुख्य लहर के साथ छोटी लहरों के झुंड के रूप में विक्षोभ पैदा होता है। मुख्य बड़ी तरंग कण के समान है और छोटी तरंगें उसके क्षेत्र या फील्ड के समान हैं। जिस क्षेत्र तक इन सूक्ष्म तरंगों का अनुभव होता है, वह कण के रूप में स्थित उस मुख्य तरंग का फील्ड का दायरा होता है। जब इलेक्ट्रोन की फील्ड में किसी पॉइंट को एनर्जी मिलती है तो वहां फील्डरूपी छोटी लहर का एम्प्लीचूड या आयाम बढ़ जाता है, और वहाँ एक कण का उदगम होता है। वह इलेक्ट्रोन है। ये आधारभूत फील्ड सबसे छोटे कण क्वार्क से भी सूक्ष्म होती हैं। इसी तरह इलेक्ट्रोन के चारों तरफ भी एक फील्ड बनती है। मतलब इलेक्ट्रोन रूपी बड़ी लहर के चारों तरफ भी एक सूक्ष्म लहरों का क्षेत्र बन जाता है। वह प्रोटोन से भी इसी इलेक्ट्रोमेग्नेटीक फील्ड से ही दूर से आकर्षित होकर उससे जुड़ जाता है। इस आकर्षण की फील्ड तरंगों से भी विशेष सूक्ष्म कण सम्भवतः फोटोन पैदा होता है, जो इस आकर्षण को क़ायम करता है। इस तरह फील्ड से कण और कण से फील्ड पैदा होकर बाहर की स्थूल संसार रचना को आगे से आगे बढ़ाते रहते हैं।
अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त का उदय
मन भी तो क्वांटम फील्ड की तरह होता है। इसमें हरेक किस्म का संकल्प अदृष्य रूप अर्थात अदृष्य लहर के रूप में रहता है। इसे सांख्य दर्शन के अनुसार अव्यक्त कहते हैं। जब इसे मूलाधार से एनर्जी मिलती है, तब इस मानसिक क्वांटम फील्ड की लहरें बड़ी होने लगती हैं, जो स्थूलकण रूपी चित्रविचित्र संसार पैदा करती हैं। उससे और फील्ड पैदा होती है, जिससे और विचार पैदा होते हैं। इस तरह यह सिलसिला चलता रहता है और आदमी के विचार रुकने में ही नहीं आते। अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त पैदा होकर भीतरी मानसिक संसार रचना को आगे से आगे बढ़ाते रहते हैं।
क्वांटम भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक मनोविज्ञान के बीच समानता
प्रकृति या अव्यक्त ही वह हल्के स्तर की आधारभूत लहर है। अव्यक्त व्यक्त से ही बना है, अव्यक्त मतलब हल्के स्तर का व्यक्त। हालांकि उसके मूल में भी निश्चेष्ट या अवर्णनीय पुरुष ही है। अंत के पैराग्राफ में बताऊंगा कि निश्चेष्ट या गतिहीन पुरुष क्यों कुछ काम नहीं कर पाता। क्यों उसे मूक दर्शक की तरह माना जाता है, जो अपनी उपस्थिति मात्र से प्रकृति की मदद तो करता है, पर खुद कुछ नहीं करता। सारा काम प्रकृति ही करती है। पुरुष अर्थात शुद्ध आत्मा एक चुंबक की तरह है जिसकी तरफ खिंच कर ही प्रकृति से सब काम अनायास ही खुद ही होते रहते हैं। इसीलिए कहते हैं कि जो भगवान के सहारे है, उसका जीवन खुद ही अच्छे से कट जाता है। पर भगवान असली और अच्छी तरह से समझा हुआ होना चाहिए, जो कुण्डलिनी योग से ही संभव है। जैसे हमारा हरेक कर्म और विचार संस्कार रूप से पहले से ही सूक्ष्म रूप में हमारी अव्यक्त प्रकृति के रूप में मौजूद होता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं, उसी तरह हरेक क्वांटम कण भी अपनी क्वांटम फील्ड के रूप में पहले से ही मौजूद होता है। व्यष्टि मूलाधार मतलब शारीरिक मूलाधार से मिल रही शक्ति से व्यष्टि अव्यक्त मतलब शरीरबद्ध अव्यक्त या व्यष्टि फील्ड में क्षोभ पैदा होता है, जिससे विभिन्न लहरों के रूप में विचारों मतलब व्यष्टि मूलकणों का उदय होता है। इसी तरह समष्टि मूलाधार अर्थात ब्रह्माण्डव्याप्त मूलाधार अर्थात मूल प्रकृति से उत्पन्न शक्ति से समष्टि क्वांटम फील्ड में क्षोभ पैदा होता है, जिससे समष्टि मूलकण पैदा होते हैं। पर समष्टि जगत में ये शक्ति कहाँ से आती है? दार्शनिक तौर पर तो मूल प्रकृति को समष्टि मूलाधार मान सकते हैं, क्योंकि दोनों में मूल शब्द जुड़ा है, और दोनों ही सब सांसारिक रचनाओं के मूल आधार या नींव के पहले पत्थर हैं हैं, पर इसे वैज्ञानिक रूप से कैसे सिद्ध करेंगे? व्यष्टि के मूलाधार की तरह समष्टि मूलाधार में भी कोई सम्भोग क्रिया और उससे उत्पन्न सम्भोग-शक्ति होनी चाहिए। तो उसे पुरुष और प्रकृति के बीच सम्भोग क्यों न माना जाए, जिसका इशारा शास्त्रों में किया गया है।
संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया तांत्रिक कुण्डलिनी योग का भौतिक मार्ग ही है
दरअसल जीवों का जो अव्यक्तरूप सूक्ष्म शरीर है, वह मरने के बाद और भी सूक्ष्म हो जाता है, क्योंकि उस समय उसे स्थूल शरीर से बिल्कुल भी ऊर्जा नहीं मिल रही होती है। वह एक घने अँधेरे आत्माकाश की तरह हो जाता है, जिसका अंधेरा उसमें छिपे हुए अव्यक्त जगत के अनुसार होता है। वह अव्यक्त जगत भी व्यक्त जगत के अनुसार ही होता है। इसीलिए सब जीवों के सूक्ष्म शरीर उनके स्थूल स्वभाव के अनुसार अलग-अलग होते हैं। इस तरह से बहुत से जीवों के अव्यक्त आत्माकाश जब समष्टि अव्यक्ताकाश मतलब मूल प्रकृति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर एक निश्चित सीमा से ज्यादा अव्यक्त भाव अर्थात अंधकारमय आकाश बना देते हैं, तब वहाँ से एक शक्ति की लहर पुरुष की तरफ छलांग लगाती है। इसी से क्वांटम फील्ड में लहरों का एम्प्लीच्युड आदि बढ़ने से मूलकणों का उदय और सृष्टि का विस्तार शुरु होता है। यह ऐसे ही है जैसे कभी कोई आदमी अपनी सहन-सीमा से ज्यादा ही गम या अवसाद के अँधेरे में डूबने लग जाए, तो वह सम्भोग की सहायता से अपने मूलाधार के अँधेरे में डूबे अपने अव्यक्त मानसिक जगत को ऊपर चढ़ती हुई शक्ति के साथ सहस्रार की तरफ भेजने की कोशिश करता है, ताकि उसके विचारों का मानसिक संसार पुनः प्रकाशित होने लगे। शक्ति तो खुद एक वाहक या बल है, जो अव्यक्त जगत को व्यक्त बनाने में मदद करती है। शास्त्रों में भी यही कहा है कि जब जीवों के कर्म, फल देने को उन्मुख हो जाते हैं, अर्थात जब जीव अंधकार से ऊबने जैसे लगते हैं, तब वे प्रलय के बाद पुनः सृष्टि को प्रारम्भ करने की प्रेरणा देते हैं। यह सामूहिक अर्थात समष्टि सृष्टि और प्रलय है। व्यक्तिगत सृष्टि और प्रलय तो हरेक जीव के जन्म और मरण के साथ चली ही रहती है। सहज व प्राकृतिक मृत्यु के बाद कुछ समय तो जीव चैन की बंसी बजाता हुआ अव्यक्त में आराम करता है, फिर जल्दी ही उससे ऊब जाता है। इसलिए उस अव्यक्तरूप जीव को व्यक्त करने के लिए शक्ति पुरुष की तरफ बढ़ने की कोशिश करना चाहती है। देखा जाए तो शक्ति जाती कहीं नहीं है, क्योंकि पुरुष, प्रकृति और शक्ति तीनों व्यष्टि मूल प्रकृति में साथ-साथ ही रहते हैं। ऐसे ही जैसे अव्यक्त, व्यक्त और उनको बनाने वाली शक्ति मस्तिष्क में ही रहते हैं, पर अव्यक्त जगत मूलाधार से ऊपर चढ़ता हुआ महसूस होता है, क्योंकि पुरुष या मस्तिष्क की शक्ति को प्रेरित करने वाला विशेष सेकसुअल बल मूलाधार से ऊपर चढ़ता है। उसके लिए सम्भोग के माध्यम से एक आदमी और एक औरत का आपसी मिलन जरूरी होता है। संयोगवश उस मृत जीव की जीवात्मा किसी सम्भोगरत आदमी और औरत के जोड़े के मिश्रित मूलाधार में स्थित अव्यक्त जगत से मेल खाती है। दोनों का मिश्रित अव्यक्त जगत संभोग-शक्ति के माध्यम से ऊपर उठते हुए दोनों के हरेक चक्रोँ में दबी हुई भावनाओं व छिपे हुए विचारों को अपने साथ ले जाकर सहस्रार में आनंद के साथ व्यक्त हो जाता है, और एकदूसरे के सहस्रार चक्रोँ में आपस में मिश्रित ही बना रहता है। आदमी के सहस्रार से वह मिश्रित जगत आगे के चैनल से शक्ति के साथ नीचे उतरकर वीर्य में रूपांतरित होकर औरत के गर्भ में प्रविष्ट होकर एक बालक का निर्माण करता है। इसीलिए बालक में माता और पिता दोनों के गुण मिश्रित होते हैं। इसीलिए मांबाप के व्यवहार का बच्चों पर गहरा असर पड़ता है, क्योंकि तीनों की एनर्जी आपस में जुड़ी होती है। इसीलिए व्यवहार में देखा जाता है कि सम्भोग सुख के साथ प्रेम से रमण करने के आदी दम्पत्ति की संतानेँ बहुत तरक्की करती हैं, भौतिक रूप से भी और आध्यात्मिक रूप से भी। इसके विपरीत आपस में अजनबी जैसे रहने वाले दंपत्तियों के बच्चे अक्सर कुंठित से रहते हैं। यह अलग बात है कि कई अच्छी किस्मत वाले लोग इधरउधर से गुजारा कर लेते हैं। हाहा। अनुभवी तंत्रयोगी सम्भोग की, जगत को व्यक्त करने वाली कुण्डलिनी शक्ति को अपने सहस्रार में केवल एक ही ध्यानचित्र पर फोकस करते हैं, और उसे वीर्य रूपी बीज में नीचे न उतारकर लम्बे समय तक वहीं रोककर रखते हैं, जिससे वह मानसिक चित्र जागृत हो जाता है। इसे ही तांत्रिक कुण्डलिनी जागरण कहते हैं।
पूरा ब्रह्माण्ड ही एक एलियन
इन उपरोक्त तथ्यों का मतलब है कि ब्रह्माण्ड भी एक विशालकाय जीव या मनुष्य की तरह व्यवहार करता है। इससे वैदिक उक्ति, “यत्पिंडे तत् ब्रह्मान्डे” यहाँ भी वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो जाती है। इसका मतलब है कि जो कुछ भी छोटी चीज जैसे शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में भी है, अन्य कुछ नहीं। पिंड यहाँ शरीर को ही कहा है, अन्य किसी चीज को नहीं, क्योंकि किसीकी मृत्यु के बाद जब उसे श्राद्ध आदि के द्वारा खाने-पीने की चीजें दी जाती हैं, उसे पिंडदान कहते हैं। क्योंकि अगर हरेक छोटी चीज के बारे में कहना होता तो अंडे, खंडे आदि दूसरे शब्द ज्यादा बेहतर होते, पिंडे नहीं। दूसरा, पंजाबी भाषा में वह स्थान जहाँ लोग सामूहिक रूप से एकसाथ रहते हैं, जिसे गाँव कहते हैं, वह पिंड कहलाता है। मूल प्रकृति ब्रह्माण्ड का मूलाधार है, और चेतन पुरुष या परमात्मा इसका सहस्रार या उसमें कुण्डलिनी जागरण है। चित्रविचित्र संसारों की रचना के रूप में ही इसका जीवनयापन या कर्मयोग या इसका कुण्डलिनी जागरण की तरफ बढ़ना है। ऐसा यह अद्वैत के साथ करता है। शास्त्रों में ऐसा ही लिखा है कि ब्रह्मा खुद कहते हैं कि वे अद्वैतभाव के साथ सृष्टि की रचना करते हैं, जिससे वे जन्ममरण के बंधन में नहीं पड़ते। इसलिए यही इसका कुण्डलिनी योग है। अद्वैत और कुण्डलिनी योग आपस में जुड़े हुए हैं। सृष्टि का संपूर्ण निर्माण ही इसका कुण्डलिनी जागरण है। जैसे कुण्डलिनी जागरण के बाद आदमी को लगता है कि उसने सबकुछ कर लिया, इसी तरह सबकुछ कर लेने के बाद ब्रह्मा को कुण्डलिनी जागरण होता है, यह इसका मतलब है। इसके बाद सृष्टि निर्माण से उपरत होकर इसका संन्यास लेना ही सृष्टि विस्तार का धीमा पड़ना और रुक जाना है। देहांत के बाद इसका परम तत्त्व में मिल जाना ही प्रलय है। शास्त्रों में इसीलिए देव ब्रह्मा की कल्पना की गई है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही जिसका शरीर है। आजकल विज्ञान भी इस अवधारणा पर विश्वास करने लग गया है। इसीलिए एक वैज्ञानिक थ्योरी यह भी सामने आ रही है कि हो सकता है कि पूरा ब्रह्माण्ड ही एक विशालकाय एलियन हो।
जिसे हम अंधेरनुमा शून्य या अव्यक्त कहते हैं, वह भी खाली नहीं बल्कि सीमित उतार-चढ़ाव वाली जगतरूपी तरंगों से भरा होता है
अगर चैतन्यमय आत्माकाश या परमात्मा में कोई बहुत ज्यादा स्थित हो जाए या लगातार आत्माकाश में ही स्थित रहने लगे तो वह कुछ काम भी नहीं कर सकता। वह पराश्रित व नादान सा रहता है संन्यासी की तरह। इसका मतलब है कि उस समय उसमें व्यक्त दुनिया अव्यक्त आकाश के रूप में नहीं रहती। मतलब वह शुद्ध आत्माकाश बन जाता है। मतलब उसके आत्माकाश में क्वांटम फील्ड नाम की बिल्कुल भी वाइब्रेशनस नहीं रहतीं। वह पूर्ण चिदाकाश बन जाता है। इसी वजह से स्थूल ब्रह्माण्ड में भी उस जगह आकाश खाली होता है, जहाँ वाइब्रेशन नहीं होतीं। अन्य स्थान ग्रहों-सितारों से भरे होते हैं। वर्चुअल पार्टिकल तो बनते रहते हैं थोड़ी-बहुत वाइब्रेशन से। मतलब थोड़ा-बहुत काम-वाम तो वे संन्यासी भी कर लेते हैं, पर कोई निर्णायक कार्य-अभियान या व्यापार-धंधा नहीं चला पाते। हाँ, एक बीच वाला हरफनमौला तरीका भी है कि तांत्रिक योग से आत्माकाश में लगातार कंपन बनाते भी रहो और मिटाते भी रहो, और सबकुछ करते हुए भी उससे अछूते बने रहो।
कुण्डलिनी योग से ही सृष्टि के मूलकण, मूल तरंग व प्लेन्क लेंथ जैसे क्वांटम तत्त्व बनते हैं
मन के अंदर और बाहर दोनों एकदूसरे के सापेक्ष और मिथ्या हैं
मन के बाहर किसी भी चीज या जगत का अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता
दोस्तों मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे जगत सत्य नहीं, बल्कि आत्माकाश के अंदर एक आभासी तरंग है। इसी तरह, स्थूल जगत का भी कोई अस्तित्व नहीं है, इसकी रचना भी मन ने की है। यह कोई आज की खोज नहीं है, जैसा कि कई जगह दिखावा हो रहा है। यह ऋषिमुनियों और अन्य अनेकों जागृत व्यक्तियों ने हजारों साल पहले अनुभव कर लिया था, जो उन्होंने आगे आने वाली हमारी जैसी पीढ़ियों के फायदे के लिए अध्यात्म शास्त्रों में लिखकर छोड़ा। विशेषकर योगवासिष्ठ ग्रंथ में इन तथ्यों का बड़ा सुंदर और वैज्ञानिक जैसा वर्णन है। कभी उसका इतना आकर्षण होता था कि उसको शांति से पढ़ने के लिए या उसे पढ़कर कई लोग घरबार छोड़कर ज्ञानप्राप्ति के लिए निर्जन आश्रम में चले जाते थे। यह पाठक को क्वांटम या पारलौकिक जैसे आयाम में स्थापित कर देता है। इसमें पूनरुक्तियां बहुत ज्यादा हैं, इसलिए बारबार एक ही चीज को विभिन्न आकर्षक तरीकों से दोहराकर यह माइंडवाश जैसा कर देता है। कट्टर भौतिकवादी कह सकते हैं कि जागृति से अनुभव हुए आत्माकाश के अंदर मानसिक सूक्ष्म जगत के बारे में तो यह बात सही है, पर बाहर के स्थूल भौतिक जगत के बारे में यह कैसे मान लें। पर वे उसी पल यह बात भूल जाते हैं कि मन के इलावा स्थूल जगत जैसी चीज का कोई अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि मन के इलावा आदमी कुछ नहीं जान सकता। सिर्फ उस जगत की एक कल्पना कर सकते हैं, पर वह काल्पनिक जगत भी तो सूक्ष्म ही है। फिर कुछ तर्क जिज्ञासु लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि चेतन आकाश को ही मूल क्यों समझा जाए, जड़ आकाश को क्यों नहीं, क्योंकि दुःख अभाव आदि जड़ आकाश के टुकड़े हैं।
अचेतन आकाश भी चेतन आत्माकाश में जगत की तरह आभासी व मिथ्या है
इसका जवाब जागृत लोग इस तरह से देते हैं कि चिदाकाश-लहर की तरह ही अचेतन आकाश का अस्तित्व भी नहीं है। वह भ्रम से अपनी आत्मा के रूप में महसूस होता है। वह भ्रम जगत के प्रति आसक्ति से बढ़ता है, और अनासक्ति से घटता है। जैसे चेतन आकाश में जगत आभासी है, उसी तरह अचेतन आकाश भी। इसीलिए सांख्य दर्शन अचेतन आकाश को भी चेतन आकाश की तरह शाश्वत मानता है। हालांकि सर्वोच्च स्कूल ऑफ़ थॉट वेदांत दर्शन स्पष्ट करता है कि अचेतन आकाश चेतन आत्माकाश में वास्तविक नहीं आभासी है।
पूर्णता की अनुभूति भाव रूपी चेतन आकाश के अनुभव से ही होती है, अभाव रूपी अचेतन आकाश के अनुभव से नहीं
जरा गहराई से सोचें तो यह अनुभवसिद्ध भी है। किसीको अचेतन आत्माकाश के अनुभव से यह महसूस नहीं होता कि उसे सबकुछ महसूस हो गया या वह पूर्ण हो गया, उसे कुछ जानने, करने और भोगने के लिए कुछ शेष बचा ही नहीं। पर ऐसा चेतन आत्माकाश के अनुभव से महसूस होता है। इससे मतलब स्पष्ट हो जाता है कि असल में चेतनाकाश ही सत्य और अनंत है, आम अनुभव में आने वाला भौतिक जगत तो उसमें मामुली सी, व मिथ्या अर्थात आभासी तरंग की तरह है।
सृष्टि ब्रह्म की तरह अनिर्वचनीय व अनुभवरूप है
जगत कल्पनिक है, मतलब स्थूल भौतिक जगत काल्पनिक है, क्योंकि उस तक हमारी पहुंच ही नहीं है। मानसिक सूक्ष्म जगत काल्पनिक नहीं क्योंकि यह तो अनुभव होता है। हालांकि सूक्ष्म भी स्थूल के सापेक्ष ही है। जब स्थूल ही नहीं तो सूक्ष्म कैसे हो सकता है। मतलब कि स्थूल-सूक्ष्म आदि सभी विरोधी व द्वैतपूर्ण भाव काल्पनिक हैं। इसलिए जगत सिर्फ अनुभव रूप है, अनिर्वचनीय है। इसे ही गूंगे का गुड़ कहते हैं। हर कोई ब्रह्म में ही स्थित है, केवल स्तर का फर्क है। जागृत व्यक्ति ज्यादा स्तर पर, अन्य विभिन्न प्रकार के निचले स्तरों पर। पूर्ण कोई नहीं।
एक दार्शनिक थोट एक्सीपेरिमेंट
विज्ञान जो अपने को कट्टर प्रयोगात्मक, वास्तविक व वस्तुपरक मानता है, वह भी आजकल बहुत से दार्शनिक विचार-प्रयोग प्रस्तुत कर रहा है, जिन्हें भौतिक प्रयोगों से बिल्कुल भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। फिर हम थोट एक्सपेरिमेंट करने से क्यों हिचकिचाएं, क्योंकि कुण्डलिनी का क्षेत्र भौतिक विज्ञान से ज्यादा दार्शनिक व अनुभवात्मक है। वह विचार-प्रयोग है, सृष्टि के सूक्ष्मतम मूलकण को कुण्डलिनी योग का अभ्यास मानना। वैसे शास्त्रों से यह बात प्रमाण-सिद्ध है। वेद-शास्त्रों को भी भौतिक प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है, कई मामलों में तो भौतिक से भी ज्यादा, जैसे ईश्वर व जागृति के मामलों में।
इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ ही सूक्ष्मतम तरंग के क्रेस्ट या शिखा और ट्रफ या गर्त हैं
मूलकणरूपी स्टैंडिंग वेव वह हो सकती है, जब स्वाधिष्ठान चक्र और आज्ञा चक्र के जोड़े को या मूलाधार और सहस्रार बिंदु के जोड़े को एकसाथ अंगुली से दबाकर उनके बीच कभी इड़ा से शक्ति की तरंग दौड़ती है, कभी पिंगला से, और बीचबीच में सुषुम्ना से। मूलाधार यिन या पाताल या प्रकृति है,और आज्ञा या सहस्रार यांग या स्वर्ग या पुरुष है। बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी ही मूल कण या दुनिया का असली रूप है, क्योंकि उससे ही कुण्डलिनी अर्थात मन अर्थात दुनिया का प्रदुर्भाव होता है।
अस्थायी मूलकण अल्प योगाभ्यास के रूप में है जबकि स्थायी मूलकण सम्पूर्ण योगाभ्यास के रूप में
जैसे आदमी में मूलाधार और सहस्रार के बीच में शक्ति का प्रवाह लगातार जारी रहता है, उसी तरह मूलकण में प्रकृति और पुरुष के बीच। इसीलिए तो तरंग लगातार चलती रहती है, कभी स्थिर नहीं होती। यह स्थिर या असली कण के जैसा है। आभासी कण उस प्रारम्भिक योगाभ्यास की तरह है, जिसमें इड़ा और पिंगला में शक्ति का प्रवाह थोड़ी-थोड़ी देर के लिए होता है, और कम प्रभावशाली होता है। इसीलिए ये अस्थायी कण थोड़े ही समय के लिए प्रकट होते रहते हैं, और आकाश में लीन होते रहते हैं।
पार्टिकल मूलाधार से सहस्रार की ओर चल रही तरंग के रूप में है, जबकि एंटीपार्टिकल सहस्रार से मूलाधार को वापिस लौट रही तरंग के रूप में है
सृष्टि के अंत में सभी कणों के एंटीपार्टिकल पैदा हो जाएंगे जो एकदूसरे को नष्ट करके प्रलय ले आएंगे
मूलाधार यहाँ प्रकृति का प्रतीक है, और सहस्रार पुरुष का। उपरोक्त अस्थायी आभासी कण प्लस और माइनस रूप के दो विपरीत कणों के रूप में पैदा होते रहते हैं। इसका मतलब है कि कभी न कभी स्थायी मूलकणरूपी तरंग भी खत्म होगी ही, बेशक सृष्टि के अंत में। फिर विपरीत मूलकण रूपी तरंग सहस्रार से मूलाधार मतलब पुरुष से प्रकृति की तरफ उल्टी दिशा में चलेगी। ऐसे में हरेक प्लस मूलकण के ठीक उलट माइनस मूलकण बनेंगे। इससे मूलकण और प्रतिमूलकण एकदूसरे से जुड़कर एकदूसरे को निगल जाएंगे, और सृष्टि का अंत हो जाएगा। इसीको प्रलय कहते हैं। फिर लम्बे समय तक कोई तरंग नहीं उठेगी। इसे ही नारायण का योगनिद्रा में जाना कहा गया है। मतलब निद्रा में तो है, पर भी अपने पूर्ण आत्मजागृत स्वरूप में स्थित है। विज्ञान कहता है कि पार्टिकल के बनते ही एंटीपार्टिकल भी बन जाता है, पर वह कहीं गायब हो जाता है। हो सकता है कि सृष्टि के अंत में वे एंटीपार्टिकल दुबारा वापस आ जाते हों।
इस समय एंटीपार्टिकल गुरुत्वाकर्षण के रूप में हैं
मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कई वैज्ञानिक किस्म के लोग भी ऐसा ही कह रहे हैं। ग्रेविटी अंतरिक्ष में गड्ढे की तरह है। तरंग का आधा भाग भी गड्ढे की तरह होता है। दोनों किसी बल के कारण मिल नहीं पाते। इसलिए कण से निर्मित ग्रेविटी कण को अपनी तरफ खिंचती तो है, पर पूरी तरह उससे मिल नहीं पाती। जब तरंग का ऊपर का आधा भाग ही दिखता है, तो वह कण की तरह ही दिखता है। जब ग्रेविटी का गड्ढा भी उसके साथ देखा जाता है, तो वह कण तरंग रूप में आ जाता है। इसका मतलब है कि प्रलय के समय गुरुत्वाकर्षण ही सारी सृष्टि को निगल जाएगा।
क्वांटम ग्रेविटी का अस्तित्व है
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि इलेक्ट्रोन, क्वार्क आदि मूलकणों की भी ग्रेविटी है। यह सूक्ष्म कण द्वारा निर्मित अंतरिक्ष के आभासी सूक्ष्म गड्ढे के जैसे एंटीपार्टिकल के रूप में है। इसे विज्ञान ढूंढ नहीं पा रहा है, पर क्वांटम ग्रेविटी के अस्तित्व को नकार भी नहीं पा रहा है।
मूल तरंग का पहला नोड प्रकृति है, और दूसरा नोड पुरुष है
ये चित्रोक्त बिंदू स्टैंडिंग वेव के दो नोड हैं। एक कोने पर ब्लू डॉट नेगेटिव या नॉर्थ पोल नोड है और दूसरे कोने पर रेड डॉट पॉजिटिव या साउथ पोल नोड है। दोनों तरफ को झूलती तरंग ही सृष्टि बनाने के लिए इच्छा या सोचविचार है। केंद्रीय रेखा ही ध्यान रूपी या भाव रूप सुषुम्ना है, जो सृष्टि बनाने का पक्का निश्चय है। इसीलिए कहते हैं कि ब्रह्मा ने ध्यान रूपी तप से सृष्टि को रचा। मतलब प्रकृति एक नोड है और पुरुष दूसरा नोड। वैसे भी सृष्टि की उत्पत्ति प्रकृति-पुरुष संयोग से मानी गई है। प्रकृति अंधेरा आसमान है, और पुरुष स्वयंप्रकाश आकाश है। दोनों शाश्वत हैं। प्रकृति नेगेटिव नोड है, और पुरुष पॉजिटिव नोड है। इन दोनों के बीच बनने वाली स्थिर तरंग ही सबसे छोटा मूलकण है। इस तरह के कण आकाश में पॉप आउट होते रहते हैं और उसीमें मर्ज होते रहते हैं। इनको किसी चीज से जब स्थिरता मिलती है तो ये आगे से आगे जुड़कर अनगिनत कण बनाते हैं। इससे सृष्टि का विस्तार होता है। इसका मतलब कि सृष्टि का प्रत्येक कण योग कर रहा है। पूरी सृष्टि योगमयी है।
मूलकण एक कुण्डलिनी योगी है, जो कुण्डलिनी ध्यान कर रहा है
सूक्ष्मतम तरंग की नोड से नोड के बीच की न्यूनतम दूरी प्लेँक लेंथ बनती है
वैज्ञानिकों को क्वार्क से छोटा कोई कण नहीं मिला है। यह भी हो सकता है कि क्वार्क से छोटी तरंगें भी हैं, जैसा कि स्ट्रिंग थ्योरी कहती है, पर वे क्वार्क के स्तर तक बढ़ कर ही अपने को कण रूप में दिखा पाती हैं। केवल कण के स्तर पर ही तरंगें पकड़ में आती हैं। हो सकता है कि सबसे छोटी तरंग प्लेंक लेंथ के बराबर है, जो सबसे छोटी लम्बाई संभव है। उस प्लेँक तरंग का एक नोड प्रकृति है, और दूसरा पुरुष। वैसे प्रकृति और पुरुष एक ही हैं, केवल आभासी अंतर है। इस तरह प्लेँक लेंथ भी वास्तविक नहीं आभासिक है। आकाश में तरंग भी तो आभासी ही हो सकती है, असली नहीं। प्रकृति मतलब मूलाधार से एक शक्ति की तरंग पुरुष मतलब सहस्रार की तरफ उठती है, मतलब देव ब्रह्मा योगरूपी तप के लिए ध्यान लगाते हैं। वह तरंग इड़ा और पिंगला के रूप में बाईं और दाईं तरफ बारी-बारी से झूलने लगती है, मतलब ब्रह्मा ध्यान में डूबने की कोशिश करते हैं। ध्यान थोड़ा स्थिर होने पर शक्ति की तरंग बीच वाली आभासी जैसी सुषुम्ना नाड़ी में बहने लगती है। इसीलिए कण भी आभासी या एज्यूम्ड ही है, असली तो तरंग ही है। इससे कुण्डलिनी चित्र मन में स्थिर हो जाता है, मतलब पहला और सबसे छोटा मूलकण बनता है। फिर तो आगे से आगे सृष्टि बढ़ती ही जाती है। आज भी तो सारी सृष्टि बाहर के खुले व खाली अंतरिक्ष की तरफ भाग रही है, मतलब वही मूल स्वभाव बरकरार है कि प्रकृति से पुरुष की तरफ जाने की होड़ लगी है। सृष्टि की हरेक वस्तु और जीव का एक ही मूल स्वभाव है, अचेतनता से चेतनता की ओर भागना।

कुंडलिनी साधना के लिए सन्ध्या या संगम का महत्त्व

रति दक्ष की पुत्री और ब्रह्मा की पौत्री है
मित्रों, पिछली पोस्ट कुछ छोटी थी, इस बार लॉन्गरीड आर्टिकल पढ़ने के लिए तैयार हो जाइए। पिछली पोस्ट में मैंने रति को ब्रह्मा की पुत्री कहा था। वास्तव में वह दक्ष की पुत्री है। बात एक ही है, क्योंकि दक्ष ब्रह्मा का मानस पुत्र है। दक्ष का मतलब होता है निपुण। जब आदमी अपने मन में दुनियादारी में निपुणता अर्थात कर्मयोग का संकल्प लेकर उसे अपनाता है, तो उसके मन में एक कुंडलिनी पैदा हो जाती है। यही दक्ष के पसीने से अर्थात कर्मयोग से रति अर्थात कुंडलिनी का जन्म है। यही मैंने पिछली पोस्ट में भी लिखा है कि कुंडलिनी को पहले कर्मयोग से पैदा करके विकसित करना पड़ता है, तब जाकर ही इसका समर्पित तंत्रयोग के साथ सफलतापूर्वक गठजोड़ बनाया जा सकता है।
धर्म विवेक बुद्धि का प्रतीक है
कथा के अनुसार धर्म ने ब्रह्मा को संध्या के प्रति कामवासना से रोकना चाहा, पर वे नहीं रुके। तब धर्म ने शिव से ब्रह्मा को रोकने के लिए गुहार लगाई। धर्म या विवेक या बुद्धि भी ब्रह्मा का मानस पुत्र ही है। है तो यह भी विचार रूप ही, बेशक बुद्धि को मन से बड़ा कहा जाता हो। यह वास्तव में अच्छे और बुरे का ज्ञान है। पर कामवासनाओं से पीड़ित आदमी अक्सर इसकी बात नहीं सुनता। जब धर्म यह देखता है कि उससे बात नहीं बन रही, तब वह कुंडलिनी रूप शिव को याद करता है। वह उसी समय प्रकट होकर आदमी को गलत काम करने से रोकता है। तभी तो कहते हैं कि ईश्वर या कुंडलिनी बुद्धि से भी परे है। जहाँ बुद्धि या दिमाग भी हार जाता है, वहाँ कुंडलिनी को याद करके लाभ मिलता है। यदि प्रतिदिन के योगाभ्यास से हमेशा ही कुंडलिनी को याद रखा जाए, तब तो कहने ही क्या।
संध्या काल अद्वैत का प्रतीक है
संध्या स्त्री संध्या काल (डस्क और डान) का ही रूपक है, इसकी ओर इशारा वहीँ एक श्लोक से किया गया है, जिसमें लिखा गया है कि कामदेव रति के साथ ऐसे सुशोभित हो रहा था, जैसे संध्या काल में बादल के साथ चमकती बिजली। संध्या शब्द संस्कृत के संधि शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है, जोड़। संध्या में सभी विपरीत भाव जुड़े होते हैं। इस तरह से संध्या ईश्वर या अद्वैत के समतुल्य है। संध्या के समय दिन-रात के संतुलित होने से आदमी भी संतुलित हो जाता है। दरअसल संध्याकाल में दिन और रात के अंश बराबर होते हैं। संध्याकाल में आदमी का बायाँ व दायाँ मस्तिष्क समान चलने लगते हैं। उसके यिन और यांग बराबर हो जाते हैं। उसके दोनों नथुनों से बराबर साँस चलने लगती है। पिछली पोस्ट में जो मैंने प्राण और अपान को जोड़ने की योग तकनीक का वर्णन किया था, वह भी संध्या के तुल्य ही है। दरअसल जहाँ भी दो परस्पर विपरीत भाव आपस में जुड़ते हैं, वहाँ संध्या बन जाता है। उस शांत स्थिति में सभी काम विशेषकर आध्यात्मिक काम ज्यादा सफल होते हैं। संध्याकाल पूजापाठ से इतना ज्यादा जुड़ा है कि पूजा करने को संध्या करना ही कहा जाता है। इसी तरह ग्रहण काल भी एक संध्या काल है। उसमें किए काम कई गुना फल देते हैं। इसलिए कहते हैं कि ग्रहण काल में अच्छे व आध्यात्मिक काम ही करने चाहिए। पुराने समय में राजा लोग एकदम से राज्य छोड़कर तप के लिए वन चले जाया करते थे। वनवास का कुछ दिनों का शुरुआती समय भी उनके लिए महान संध्या काल की तरह होता था। उस समय वे कुंडलिनी साधना करके शीघ्रता से अपनी कुंडलिनी को जगा दिया करते थे। इसी तरह योगसाधना से बने प्रकाशमान चित्त में जो तांत्रिकों के द्वारा पंचमकारों से उत्पन्न अंधकार प्रविष्ट कराया जाता है, उससे भी उत्तम कोटि का बनावटी संध्या काल बनता है। उसमें वे बहुत सी सिद्धियां प्राप्त करते हैं, कुंडलिनी जागरण भी जिनमें एक है। इलाहाबाद के संगम में गंगा और यमुना नदियां मिलती हैं। ये दोनों नदियां परस्पर विपरीत गुणों वाली हैं। इससे बहुत अच्छा संध्या स्थान बनता है। इसिलए संगम को बहुत पवित्र माना जाता है। योगी लोग योग साधना के लिए गहन पहाड़ों व वनों में इसीलिए जाते हैं क्योंकि वहाँ उन्हें संगम का आभास होता है। कई धर्मों में कन्या को इसीलिए पूजा जाता है क्योंकि कन्या में स्त्री और पुरुष दोनों का संगम होता है।
सांयकालीन संध्या के समय भ्रमण से आनन्द तो मिलता है, पर कुंडलिनी विकास केवल योगी का ही होता है
आदमी के सौंदर्य में वृद्धि हो जाने के कारण वह संध्या काल में आसानी से काम का शिकार बन सकता है। इसकी मुख्य वजह यह है कि यौन प्रेमी के मन में अपने यौन साथी के रूप की कुंडलिनी बसी होती है। संध्या के समय वह प्रबल रूप में चमकने लगती है। उस समय यदि ऐसा व्यक्ति आचारहीन लोगों की संगति में हो, तो वह यौन कुंडलिनी से प्रेरित कामवासना के प्रभाव में आकर गलत कदम उठा सकता है। उससे उसके मन की कुंडलिनी को भी भारी क्षति पहुंच सकती है। परंतु यदि वह सदाचारी मित्रों व लोगों की संगति में हो, तो उनके प्रभाव में रहते हुए वह गलत कदम उठा ही नहीं पाता। वह कुंडलिनी को वश में कर लेता है, कुंडलिनी के वश में नहीं होता। इससे उसकी कुंडलिनी उत्तरोत्तर वृद्धि करती हुई उसे कुंडलिनी जागरण या सीधे ही आत्मज्ञान तक ले जाती है। इसीलिए संध्या के समय में आध्यात्मिक माहौल में रहने के लिए कहा जाता है। वैसे भी लोग संध्या के समय मॉल पर टहलने निकलते हैं। इधर-उधर के फालतू विचार उमड़ने से आनन्द तो मिलता है, पर उससे सांसारिक द्वैत रूप भ्रम में ही वृद्धि होती है। योगी लोग ऐसे समय में आसानी से पहचाने जा सकते हैं। उनके चेहरे पर कुंडलिनी के प्रभाव से विशेष चमक और शान्ति झलकती है। संध्या के समय मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों के बराबर व दक्षता से चलने से मानसिक शक्ति चरम पर होती है।
संध्या कालीन काम से यदि आम आदमी भ्रम में पड़ता है, तो तंत्रयोगी कुंडलिनी को मजबूत करता है
वास्तव में ब्रह्मा एक आम आदमी ही है। हरेक चीज की उत्पत्ति आदमी के मन में ही होती है। बाहर कुछ नहीं है। ये पर्वत,महासागर, चाँद, सितारे, सब मन की ही उपज हैं। इसी तरह संध्या का समय भी मन में ही बना। संध्या के समय कामभावना जागृत होने का मतलब है, संध्या के ऊपर आसक्त होना। संध्या ने बाद में लज्जा महसूस करते हुए तप करते हुए देहत्याग का विचार किया। इसका मतलब है कि वह अपने असली पवित्र काल के रूप को खोने जा रही थी। फिर ब्रह्मा, शिव आदि देवताओं ने उसकी शादी आध्यात्मिक ऋषि वसिष्ठ से करवा दी। मतलब कि संध्या काल फिर से आध्यात्मिक काम के लिए निर्धारित हो गया। तांत्रिक क्रियाएं इसमें अपवाद हैं। बेशक वे बाहर से भौतिक व सकाम लगें, पर अंदर से वे आध्यात्मिक ही होती हैं। इसीलिए तांत्रिक क्रियाएं भी ज्यादातर संध्या काल में ही की जाती हैं। कामदेव को ब्रह्मा ने भस्म होकर नष्ट हो जाने का श्राप दिया, क्योंकि उसने संध्या काल में ऋषियों और देवताओं को परेशान किया था। तो यह आम आदमी के लिए डर वाली बात है, क्योंकि वे काम के सहारे ही तो जीते हैं। वैसे भी, पूरे दिनभर के कामकाज से आदमी सन्ध्या के समय थका हुआ सा रहता है। इसी तरह सुबह उठकर नींद से पैदा हुई सुस्ती जैसी रहती है। यही संध्या को मिला शिव का वरदान है कि उसे काम परेशान नहीं करेगा। मतलब कि उस समय उनकी भौतिक कामनाएं व यौन कामनाएं नष्ट जैसी हो जाती हैं। एकप्रकार से काम थका हुआ सा होता है, पूरा नष्ट नहीं हुआ होता है। काम का पूर्ण नाश तो तंत्रयोगी ही कर पाते हैं। इसलिए तंत्रयोगियों के लिए यह काल वरदान है, क्योंकि वे अन्ततः काम को नष्ट करके ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। वे अपनी तन्त्र विद्या से पहले काम को पैदा करते हैं, फिर उससे मजबूत बनी कुंडलिनी से उसी काम को नष्ट कर देते हैं। वे काम की शक्ति अपनी कुंडलिनी को देते हैं। आम आदमी काम से उत्पन्न शक्ति को कुंडलिनी में रूपांतरित करने की तकनीक नहीं जानते, इसलिए वह शक्ति रंग-बिरंगे विचारों से भ्रम पैदा करती है। दूसरा अर्थ इससे यह निकलता है कि शिव वरदान के रूप में अपने आप को ही दे देते हैं। शिव मस्त मलंग और शून्य रूप हैं, उनके पास अपने सिवाय देने को है ही क्या। पर जब शिव मिल जाते हैं, तो सबकुछ खुद ही मिल जाता है। शिव कुंडलिनी रूप रति के रूप में हैं। इसलिए कुंडलिनी योग से काम खुद ही नष्ट हो जाता है।
कुंडलिनी काम से शक्ति लेकर अंत में काम को ही नष्ट कर देती है, फिर काम को पुनर्जीवित भी कर देती है
अब काम को ही देख लो। वह रति के प्रति इतना मोहित हो गया कि उसे अपने प्रति ब्रह्मा द्वारा दिए गए श्राप की सुध भी नहीं रही, और वह देवताओं के उकसावे में आकर रति से विवाह करने को राजी हो गया। यह उसके भस्म होने की शुरुआत थी, क्योंकि अंततः रति रूपी कुंडलिनी ने काम को नष्ट तो करना ही है। अब कुंडलिनी को ही शिव नाम दिया गया हो, तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि शिव और शक्ति तत्त्वतः एक ही हैं। शिव ने काम को भस्म किया, मतलब कुंडलिनी ने काम को भस्म किया। अब यदि कोई कहे कि यह कैसे हो सकता है कि रति भी कुंडलिनी है और शिव भी कुंडलिनी है। तो इसका स्पष्टीकरण यह है कि रति दरअसल मन का भाव है, पर शिव वास्तविकता है। वैसे तो दोनों ही मन के भाव हो सकते हैं, पर मैं इन दोनों की आपसी सापेक्षता के हिसाब से बात कर रहा हूँ। मतलब कि सापेक्ष रूप से शिव रति की अपेक्षा ज्यादा वास्तविक है। इसी तरह रति शिव की अपेक्षा ज्यादा भावप्रधान है। यदि शिव मंदिर में रखी मूर्ति के रूप में हैं, तो रति मन में लग रहे उनके ध्यान के रूप में। रति मतलब लगाव। अब शिवपुराण में शिव से ही लगाव होगा, किसी अन्य देवता से नहीं। शिवपुराण में हर जगह शिव का ही ध्यान करने की सलाह दी गई है। इसी तरह जब शिव-शक्ति का विवाह मतलब कुंडलिनी जागरण होता है, तब काम को पुनः जीवित हो जाने का वरदान मिला है। इसका मतलब है कि जागृति के बाद फिर से आदमी दुनिया में रम जाता है, हालाँकि ज्ञान व अनासक्ति के साथ। जागरण के बाद आदमी को कुछ पाने की चिंता तो होती नहीं, इसलिए वह खुलकर जीना शुरु करता है।
कामदेव के पुष्पबाण आदमी को प्यार-प्यार में ही घायल कर देते हैं
इस कथानक में यह वृत्तान्त रोचक है कि ब्रह्मदेव के मन से उत्पन्न कामदेव के पास पाँच फूलों के बाण या अस्त्र थे। ब्रह्मा या ब्रह्मदेव यहाँ सभी लोगों या जीवों के सामूहिक रूप का पर्याय है, और कामदेव सभी जीवों की सामूहिक कामवासनाओं का पर्याय है। तभी काम और ब्रह्मा के साथ देव शब्द लगा है। यदि एक आदमी की कामवासना की बात होती, तो सिर्फ काम ही कहते। इस तरह से तत्त्वतः तो काम और कामदेव एक ही हैं। कामदेव के ये पाँच बाण हैं, हर्षन मतलब खुश करना, रोचन मतलब पसंद करवाना, मोहन मतलब मोहित करवाना या एक के ही चक्कर में पागल बनवाना, शोषण मतलब शक्ति को सोखना, और मारण मतलब मरवाना। अब यह हैरानी की बात है कि अंतिम तीनों जानलेवा हथियार भी फूलों के ही हैं। तभी तो इन हथियारों से घायल आदमी प्यार-प्यार में ही बहुत कुछ गवां देता है, और उसे इसका आभास तक नहीँ होता। इससे प्राचीन ऋषियों की व्यावहारिकता, दूरदर्शिता और सूक्ष्मदर्शिता का पता चलता है। इतने अच्छे रूपक बनाने वाले कोई वनवासी नहीँ हो सकते, जैसी कि आम भ्रांत धारणा है। वे दुनियादारी में सबसे ज्यादा कढ़े हुए और गढ़े हुए होते थे।
काम के साथ भावनाओं का अंबार भी चलता है, जिससे आदमी आनंदमयी मस्ती में डूबा रहता है
फिर लिखा है कि जैसे ही ब्रह्मा ने उत्तेजित होकर कामभाव से संध्या की तरफ देखा, वैसे ही उनके शरीर से उन्चास भाव पैदा हो गए। आम आदमी के साथ भी तो ऐसा ही होता है। कामोत्तेजित होने के बाद वह रंग-बिरंगे भाव दिखाने लगता है। वह यारों का यार, बापों का बाप, पुत्रों का पुत्र और पता नहीं क्या-क्या बनने लगता है। वह चारों ओर छा जाता है। ऐसे कौन से भाव हैं, जो उसके अंदर पैदा नहीं होते। मातृ भाव, भगिनी भाव, गुरु भाव, बुजुर्ग भाव, बाल भाव, नवयुवक भाव, पशु-पक्षी भाव, वृक्ष-लता भाव, पर्वत भाव आदि-आदि। ये भाव संध्या के समय ज्यादा उमड़ते हैं, क्योंकि उस समय मन में शांति छाई होती है। भावों में तो बुराई नहीं है, पर आसक्ति में बुराई है। जिस घर में संध्या योग होता है, वहाँ ये कामजनित भाव कुंडलिनी के साथ मिश्रित होकर आसक्ति और दुर्भावना को नष्ट कर देते हैं। केवल शुद्ध प्रेम बचा रहता है। कुंडलिनी और प्रेमभाव एकदूसरे को उत्तरोत्तर बढ़ाते रहते हैं। इसलिए प्रेम करने में बुराई नहीँ है, यदि उसे शुद्ध और आध्यात्मिक बनाया रखा जाए। बल्कि वह प्रेम तो सबसे बड़ा योग है। प्रेम में दीवाना होकर आदमी भावविभोर होकर आनन्दित हो जाता है। इसे आजकल हाईपर या हॉट या रंगीन होना कहते हैं। यही तो काम का आकर्षण है। इसको बहुत सुंदर शैली में व्यवहारिकता, आधुनिकता व वैज्ञानिकता के साथ समझाया गया है, पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन में। बहुत सुंदर रूपक कथाएँ हैं पुराणों में। मुझे लगता है कि कथा सुनाते समय मूल कथा के साथ उसमें दिए गए रूपक के रहस्य को भी डिकोड करके सुनाना चाहिए। इससे श्रोताओं को अधिक लाभ मिलेगा।
संध्या के द्वारा शिव से मांगे गए वरदान काम भाव से बचाव के लिए थे, शुद्ध प्रेमभाव से बचाव के लिए नहीं
ये मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कई लोग काम के डर से संध्या के समय आपस में बातें भी नहीँ करते। सन्ध्या के द्वारा लज्जित होकर तप करने का अर्थ है, लंबे समय तक आध्यात्मिक लोगों द्वारा संध्या के समय आध्यात्मिक साधनाएं करना। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि उन लोगों ने काम को अपनाया था, शुद्ध प्रेम को नहीं। शुद्ध प्रेम तो अपने आप में तप ही है। संध्या के द्वारा तीन वरदान मांगे गए, जो शिव के द्वारा पूरे किए गए। पहले वरदान, पैदा होते ही किसी जीव में कामवासना पैदा न होने का अर्थ है कि जिस घर मे संध्या वंदन होता है, उस घर मे पैदा हुए बच्चों में उच्च कोटि के आध्यात्मिक संस्कार होते हैं। उनमें जन्म से ही अपने आप ही कुंडलिनी बनी होती है। वह कुंडलिनी उन्हें कामवासना से बचा कर रखती है। या यूँ कहो कि उनकी कुंडलिनी कामभाव को प्रेमभाव में रूपांतरित करती रहती है। दरअसल संध्या के पैदा होते ही कामदेव के प्रभाव से उसपर ब्रह्मा और उनके पुत्र आसक्त हो गए थे। संध्या का समय बहुत छोटा होता है। इसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। यह दो प्रकार के विपरीत समयों के संयोग से बनता है। इसलिए इसके बड़े और जवान होने का प्रश्न ही नहीं होता, क्योंकि यह पैदा होते ही विलीन होने लगता है। दूसरा वरदान कि मेरे कुल में कोई भी कामासक्त न होए, इसका भी यही अर्थ है कि बेशक संध्या वंदन करने वाले लोगों के घरों के सदस्य किसी कारणवश कामभाव का प्रदर्शन करें, पर वे कामासक्त नहीँ होते, मतलब कामदेव के प्रभाव में आकर किसीके ऊपर लट्टू नहीँ हो जाते। तीसरा वरदान कि मेरे कुल की सभी स्त्रियां पतिव्रता होएं, इसका अर्थ है कि जो लोग संध्यावंदन करते हैं, उनकी कुंडलिनी बहुत विकसित और मजबूत होती है। इसी कुंडलिनी के कारण ही वे अपनी पत्नियों को पूर्ण संतुष्ट रख पाते हैं। यह तो वैज्ञानिक व तांत्रिक रूप से सत्य है कि यौन संतुष्टि और यौन क्रीड़ाओं पर पूरा नियंत्रण कुंडलिनी से ही प्राप्त होता है। एक वरदान शिव ने संध्या को यह भी दिया कि जो उसकी ओर काम भाव से देखेगा, वह नपुंसक हो जाएगा और उसकी शक्ति नष्ट हो जाएगी। इसका भी यही तात्पर्य है कि जो सन्ध्या के समय भोगों को आसक्ति से या उन्हें कुंडलिनी के बिना भोगेगा, वह मोहमाया के भ्रम में पड़कर अपनी आत्मा के अंधकार को बढ़ाएगा। कुंडलिनी के प्रति रति ही कामभाव या आसक्ति भाव को नियंत्रण में रखती है। सन्ध्या शब्द यहाँ ऐसे सभी समयों के लिए इंगित किया हुआ प्रतीत होता है, जिस समय आदमी सन्तुलित होता है, उसकी इड़ा और पिंगला नाड़ी बराबर चलती है, मन की कुंडलिनी मजबूत होती है, और मन में गहरी शांति छाई होती है।
प्रेम और काम एकदूसरे को बढ़ाते रहते हैं
हर जगह प्रेम करते रहने से काम भाव में वृद्धि होती है। वह काम भाव जीवनसाथी के साथ मिलकर परिपक्व होकर प्रेम को और अधिक बढ़ाता है। तंत्रयोगी उस कामजनित प्रेम को कुंडलिनी प्रेम में रूपांतरित करते रहते हैं। तंत्रयोगी का केवल एक ही जीवनसाथी या यौनसाथी इसलिए होता है, ताकि कामजनित प्रेम उसकी कुंडलिनी को आसानी से हासिल होता रहे। अय्याश किस्म के आदमी का कामजनित प्रेम बहुत से यौनसाथियों में विभक्त हो जाता है, जिससे वह कुंडलिनी को नहीँ मिल पाता। इसीलिए कहते हैं कि एकपत्नीव्रत सबसे बड़ा व्रत है।इसके अलावा, यह यौन ऊर्जा है जिसकी कुंडलिनी के लिए जरूरत पड़ती है, न कि शारीरिक आकर्षण। बल्कि अतिरिक्त शारीरिक आकर्षण तो व्यक्ति को ऊर्जा के वास्तविक स्रोत से विचलित कर सकता है।
कुंडलिनी ही आदमी की असली सेवियर या रक्षक है
शिव के द्वारा संध्या के ऊपर कामासक्त ब्रह्मा को रोकने का अर्थ है कि आदमी को उस समय कुंडलिनी बचा लेती है। शिव यहाँ कुंडलिनी का प्रतीक है। वैसे भी कुंडलिनी आदमी को बुरे काम करने से रोकती ही है। यदि अनजाने या बहुत मजबूरी में कभी गलत काम हो भी जाए, तो कुंडलिनी उसका प्रायश्चित या पश्चाताप भी करवाती है। शिवपुराण में सभी के लिए शिव का ध्यान करना जरूरी बताया गया है। तो स्वाभाविक है कि ब्रह्मा भी शिव का ध्यान करते थे। इससे शिव उनकी कुंडलिनी बन गए, और कुंडलिनी रूप में वे ही ब्रह्मा को गलत काम से रोकने के लिए प्रकट हुए।
शिवपुराण एक तन्त्र पुराण ही है
शिवपुराण में सभी बातें और कथाएँ तन्त्र से सम्बंधित ही हैं। यह अलग बात है कि अधिकांश लोग उन्हें समझ नहीं पाते, क्योंकि वे रूपकों के रूप में हैं। ऐसा तन्त्र के दुरुपयोग को रोकने के लिए किया गया था। पुराण वेदों से निकलते हैं। इसका मतलब है कि तन्त्र का प्राचीनतम मूल स्रोत वेद ही हैं। यद्यपि प्रत्यक्ष नियमावली के साथ व्यावहारिक तन्त्र बौद्धों में ही दिखाई देता है। ऐसा नहीं है कि हिंदुओं में तन्त्र की व्यावहारिक प्रथा लुप्त हो गई हो। अभी भी हिन्दुओं में यह प्रचलित है, पर इसे बहुत गुप्त रखा जाता है, जिससे आम लोगों को इसका पता ही नहीं चलता। बौद्धों में भी इसे छिपा कर रखा जाता था। पर आज के इस मरते ग्रह को देखकर कोई पुनर्जीवन देने वाली विद्या छिपाना मानवता के साथ धोखा होगा, ये बात उन्होंने समझ ली है।
उपरोक्त काम व प्रेम से सम्बंधित सिद्धांतों का अनुभवात्मक साक्ष्य
दोस्तों, मैं बहुत से लोगों से गहरा प्रेम करता था। कई। पर अपना जीवन मैंने संयमपूर्वक ही जिया। अब अपनी बड़ाई में ज्यादा भी क्या कहना, पर यदि इससे किसी को लाभ मिलता हो तो इसमें बुरा भी कुछ नहीं है। जैसा भी मैंने इस पोस्ट में बताया है, वह सब मेरे साथ घटित हुआ। यह सब मेरा अपना अनुभवात्मक वर्णन है, कोई पढ़ा-पढ़ाया नहीं। इन्हीं अनुभवों के बीच में मेरा वह क्षणिक आत्मज्ञान व कुंडलिनी जागरण भी शामिल था, जिसका वर्णन होमपेज पर है। बेशक ये कुछ क्षणों के अनुभव थे, पर कुछ न होने से कुछ तो होना बेहतर है। और वैसे भी आत्म जागृति के अनुभव से ज्यादा महत्त्व तो आत्मजागृति से भरी जीवन दिनचर्या का है।
कुंडलिनी ही रति है और कुंडलिनी के द्वारा कामवासना को शांत किया जाना ही रति-कामदेव का विवाह है

दोस्तों, मुझे प्रतिदिन रहस्यात्मक साहित्य पढ़ने की आदत है। इससे मेरा दायाँ मस्तिष्क क्रियाशील रहता है, क्योंकि रहस्यात्मक कथाओं में लॉजिक लगाना कठिन होता है। हमारा दायाँ मस्तिष्क भी एक सिरफिरे आदमी की तरह मस्त मलंग स्वभाव वाला होता है। हिन्दू पुराणों के कथा-कथानक भी एक पहेली की तरह होते हैं। यदि उन्हें बूझ गए, तो उससे बायाँ मस्तिष्क क्रियाशील हो जाता है, और यदि नहीँ तो दायाँ मस्तिष्क। मतलब कि वे हर परिस्थिति में फायदा ही करते हैं।ऐसे ही एक कथानक के रहस्य को मैं इस हफ्ते पहचान सका हूँ। मैं प्रतिदिन शिवपुराण का केवल एक पृष्ठ पढ़ता हूँ, मूल संस्कृत में और हिंदी में। मूल संस्कृत का मजा ही कुछ और है। इस हफ्ते मुझे एक महत्त्वपूर्ण तांत्रिक रहस्य हाथ लगा है। इसे मैं यहाँ साझा कर रहा हूँ।
ब्रह्मा द्वारा कामदेव को श्राप देना व रति को उत्पन्न करके उसका विवाह कामदेव से करना
जब ब्रह्मा ने कामदेव की उत्पत्ति की, तब कामदेव को अपने ऊपर गर्व हो गया। वह अपनी शक्ति का परीक्षण ब्रह्मा पर ही करने लगा। इससे ब्रह्मा कामविह्वल होकर अपनी ही पुत्री के श्रृंगार का गुणगान करते हुए उस पर आसक्त हो गए। दरअसल ब्रह्मा द्वारा रचित यह सुंदर सृष्टि ही उसकी वह पुत्री है। कामदेव यहाँ भोगेच्छा का प्रतीक भी है। फिर शिव ने उन्हें रोका। जब उन्हें कामदेव की हरकत का बोध हुआ तो उसे यह कह कर श्राप दे दिया कि यदि उसे अपनी शक्ति का परीक्षण ही करना था तो उनकी पुत्री के सामने ही क्यों किया। वह श्राप था कामदेव का शिवजी के द्वारा भस्म किए जाने का। भगवान शिव तंत्रयोग के सर्वोच्च शिरोमणि हैं, उनके आगे काम भस्मीभूत ही है। फिर ब्रह्मा ने अपने शरीर के पसीने से अपनी रति नाम की एक अन्य पुत्री को उत्पन्न किया। वह सृष्टि में सबसे सुंदर थी। उसका विवाह ब्रह्मा ने कामदेव के साथ कर दिया। कामदेव तो उसके सौंदर्य को देखकर अपनी मोहिनी विद्या को जैसे भूल ही गया।
कामदेव मनुष्य के मन की वासना है और रति कुंडलिनी है
शास्त्रों में भी आता है कि यहाँ तक कि अपनी बेटी और बहन से भी नितांत अकेले में नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि यह काम बहुत प्रबल है। तो इसमें आश्चर्य नहीँ कि ब्रह्मा अपनी पुत्री पर आसक्त हो गए थे। उस काम को वश में करने के लिए उन्होंने कठिन योगाभ्यास किया। उनके पसीने की बूंदें इसी अथक कुंडलिनी-योगाभ्यास की प्रतीक हैं। उसी अथक कुंडलिनी योग से जो कुंडलिनी क्रियाशील या जागृत हुई, वही रति नाम से कही जा रही है। कुंडलिनी को रति नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि यह योग में निरंतर रत रहने से ही मिलती है। रत शब्द एक प्रमुख आध्यात्मिक शब्द है, जैसे ध्यान रत, भक्ति रत आदि। इसका अर्थ लीन भी है। कुंडलिनी किसी के प्यार में या ध्यान में लीन होकर ही मिलती है। रति क्रीड़ा नाम भी इसीसे बना है। क्योंकि कामक्रीड़ा से मन और उसका सबसे प्रिय अंश कुंडलिनी, दोनों प्रफुल्लित होते हैं, इसीलिए कुंडलिनी को रति नाम दिया गया है। यह रूपक के रूप में समझाया गया है, क्योंकि पुराने जमाने में रहस्यात्मक विद्याओं को सीधे तौर पर सार्वजनिक नहीँ किया जाता था। इसीलिए ऐसी कई विद्याओं को गुह्य विद्या भी कहते हैं। कामदेव-रति के कथानक से इस बात का भी पता चलता है कि सृष्टि रचयिता ईश्वर कुंडलिनी योगविद्या के बल से ही अपनी सुंदर रचना के मोहक आकर्षण से अछूता बना रहता है।
कुंडलिनी ने रति के रूप में देवताओं व ऋषियों की काम वासना को अपने नियंत्रण में रखा
जब देवताओं व ऋषियों को इस रहस्य का पता चला कि कुंडलिनी से कामवासना को नियंत्रण में रखा जा सकता है, तब उन्होंने नियमित योगाभ्यास करना शुरु कर दिया। इसीलिए उन्होंने रति के रूप में कुंडलिनी को सबसे सुंदर माना है, क्योंकि कामदेव केवल सुंदर भौतिक वस्तुओं की ओर ही जीव को आकृष्ट करवाता है। रति के आगे कामदेव हार गया। इसका मतलब है कि रति या कुंडलिनी सबसे सुंदर है। वह इतनी सुंदर है कि उसके बहकावे में आकर कई लोग अच्छी खासी गृहस्थी व चमक-दमक वाली दुनिया छोड़कर संन्यासी बन जाते हैं। उसने कामदेव का धंधा ही बंद कर दिया। कामदेव का रति से विवाह करने का अर्थ है कि जैसे एक शादीशुदा आदमी एक स्त्री से बंध कर अन्य स्त्रियों पर नजरें नहीँ डालता, उसी तरह वह भी रति नामक कुंडलिनी के द्वारा बाँध दिया गया। इस रहस्य का थोड़ा स्पष्टीकरण भी एक श्लोक के माध्यम से वहीँ पर किया गया है, जिसमें लिखा गया है कि कामदेव अपनी प्रियतमा रति को अपने हृदय में ऐसे छुपा कर रखता था, जैसे एक योगी अपनी ब्रह्मविद्या को अपने हृदय में छिपा कर रखता है। अब वास्तविक ब्रह्मविद्या कुंडलिनी ही तो है, क्योंकि वही ब्रह्म तक ले जाती है। योगी को सभी लोग भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में देखते हैं, कभी ख़ुशी में, कभी गम में, कभी अवसाद में, तो कभी प्रफुल्लित अवस्था में। पर वे लोग उसके मन की उस कुँडलिनी को पहचान ही नहीं पाते, जो उसकी इन सभी अवस्थाओं में एक जैसी ही बनी रहती है। इसी तरह रति से विवाहित कामदेव के साथ हमेशा रति बनी रहती है। रति से काम के विवाह का यह मतलब भी है कि एकपत्नीव्रत के साथ सामाजिक पत्नी के साथ तांत्रिक योगाभ्यास करना। तन्त्रयोग साहित्य के अनुसार भी कई वर्षों तक केवल कर्मयोग व साधारण कुंडलिनी योग का अभ्यास करना पड़ता है। उस दौरान रति नामक कुंडलिनी का जन्म होता है, वह बढ़ती है, और यौनावस्था में पहुंच जाती है, मतलब बहुत मजबूत हो जाती है। फिर वह काम के साथ विवाह के योग्य हो जाती है। कुंडलिनी के काफी परिपक्व हो जाने पर ही साधारण कुंडलिनी योग को यौनयोग के साथ मिश्रित रूप में करने का विधान है। यही रति और काम का विवाह है। यदि जल्दबाजी में समयपूर्व ही काम के साथ रति का बालविवाह कर दिया जाए, तो लाभ की अपेक्षा हानि भी हो सकती है। ऐसा तंत्रशास्त्र में साफ तौर पर चेताया गया है। यदि काम-रति के दाम्पत्य युगल से युक्त व्यक्ति काम के आवेश में आ जाए, तो लोग उसे साधारण कामासक्त मान लेते हैं। वे काम के साथ खड़ी उस रति को नहीं देख पाते, जो हमेशा कल्याणकारी होती है। बहुत से तंत्रयोगी इसी कारणवश प्रताड़ित हो जाते हैं। वे भोलेपन में आकर काम-रति का प्रदर्शन करने लगते हैं, पर लोग केवल काम को ही देख पाते हैं, उसके साथ खड़ी रति नामक कुंडलिनी को नहीँ।
दरअसल काम के दायरे में सभी भोग लालसाएँ आ जाती हैं। इसलिए रति नामक कुंडलिनी सबसे विवाह करके उनसे जुड़ जाती है। काम के अर्थ में केवल यौन लालसा को इसलिए लिया जाता है, क्योंकि यह सभी भोग लालसाओं में सबसे प्रभावशाली और मुख्य है।
तंत्रयोगी रति को पैदा करने के लिए कामदेव की ही सहायता लेते हैं
इसे कहते हैं, दुश्मन को दुश्मन के ही तीर से मारना। कामदेव का तीर जगत्प्रसिद्ध है। तंत्रयोगी पंचमकारों की सहायता से अपनी कुंडलिनी को अतिरिक्त मजबूती प्रदान करते हैं। वे दरअसल कामशक्ति को कुंडलिनी शक्ति में रूपांतरित कर देते हैं।
काम-रति विवाह की वैज्ञानिक व्याख्या
काम के आवेश में मस्तिष्क की ओर रक्त संचार बढ़ जाता है। इसीलिए मन प्रफुल्लित हो जाता है। यदि कोई आदमी कुंडलिनी योगी है, तो जाहिर है कि उसके मस्तिष्क का अधिकांश हिस्सा कुंडलिनी ने अधिगृहीत किया हुआ है। ऐसे में यदि मस्तिष्क में रक्त संचार बढ़ेगा, तो इससे सबसे ज्यादा लाभ कुंडलिनी को ही मिलेगा। क्योंकि कुंडलिनी एक प्रकार से हाई डेफिनिशन रिसोल्यूशन का एक मानसिक चित्र ही है, इसलिए वह बहुत ज्यादा प्राण ऊर्जा का उपभोग कर लेता है। इससे काम का वेग अनायास और जल्दी ही आनन्द के साथ शांत हो जाता है।
कुंडलिनी जागरण के लिए ही सृष्टिरचना होती है; हिंदु पुराणों में शिशु विकास को ही ब्रह्माण्ड विकास के रूप में दिखाया गया है
मित्रो, पुराणों में सृष्टि रचना विशेष ढंग से बताई गई है। कहीं आकाश के जल में अंडे का फूटना, कहीं पर आधाररहित जलराशि में कमल का प्रकट होना और उस पर एक देवता का अकस्मात प्रकट होना आदि। कहीं आता है कि सीधे ही प्रकृति से महत्तत्व, उससे अहंकार, उससे तन्मात्रा, उससे इंद्रियां और उससे सारी स्थूल सृष्टि पैदा हुई। जब मैं छोटा था, तब अपने दादाजी (जो एक प्रसिद्ध हिंदू पुरोहित और एक घरेलू पुराण वक्ता थे) से पूछा करता था कि अचानक खुले आसमान में बिना आधारभूत संरचना के ये सारी चीजें कैसे प्रकट हो गईं। वे परंपरावादी और रहस्यवादी दार्शनिक के अंदाज में कहते थे, “ऐसे ही होता है। हो गया तो हो गया।” वे ज्यादा बारीकी में नहीं जाते थे। पर अब कुंडलिनी योग की मदद से मैं इस शास्त्रीय उक्ति को ही सभी रहस्यों का मूल समझ रहा हूँ, “यत्पिण्डे तत्ब्रम्हांडे”। इसका मतलब है कि जो कुछ इस शरीर में है, वही सब कुछ ब्रम्हांड में भी है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। इस उक्ति को पुस्तक”शरीरविज्ञान दर्शन” में वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया गया है। इसलिए प्राचीन दूरदर्शी ऋषियों ने शरीर का वर्णन करके ब्रम्हांड को समझाया है। वे गजब के शरीर वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक थे। दरअसल, एक आदमी कभी भी अपने मन या मस्तिष्क के अलावा कुछ नहीं जान सकता है, क्योंकि वह जो कुछ भी वर्णन करता है, वह उसके मस्तिष्क के अंदर है, बाहर नहीं।
सृष्टि रचना पुराणों में शरीर रचना से समझाई गई है
कई जगह आता है कि शेषशायी विष्णु की नाभि से कमल पैदा हुआ जिस पर ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उसी के मन ने सृष्टि को रचा। माँ को आप विष्णु मान सकते हो। उसका शरीर एक शेषनाग की तरह ही केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के रूप में है, जो मेरुदंड में स्थित है। वह नाग हमेशा ही सेरेब्रोस्पाइनल फ्लुइड रूपक समुद्र में डूबा रहता है। उस नाग में जो कुंडलिनी या माँ के मन की संवेदनाएं चलती हैं, वे ही भगवान विष्णु का स्वरूप है, क्योंकि शक्ति और शक्तिमान भगवान में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं। गर्भावस्था के दौरान जो नाभि क्षेत्र में माँ का पेट बाहर को उभरा होता है, वही भगवान विष्णु की नाभि से कमल का प्रकट होना है। विकसित गर्भाशय को भी माँ के शरीर की नसें-नाड़ियाँ माँ के नाभि क्षेत्र के आसपास से ही प्रविष्ट होती हैं। खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की तरह ही गर्भाशय में प्लेसेंटोमस और कोटीलीडनस उन नसों के रूप में स्थित कमल की डंडी से जुड़े होते हैं। वे संरचनाएं फिर इसी तरह शिशु की नाभि से कमल की डंडी जैसी नेवल कोर्ड से जुड़ी होती हैं। ये संरचनाएं शिशु को पोषण उपलब्ध कराती हैं। यह शिशु ही ब्रह्मा है, जो उस खिले कमल पर विकसित होता है। शिशु का साम्यगुण रूप ही वह मूल प्रकृति है, जिसमें गुणों का क्षोभ नहीं है। पहले मैं समझा करता था कि साम्यावस्था का मतलब है कि सभी गुण (प्रकृति का आधारभूत घटक) एक-दूसरे के बराबर हैं। आज भी बहुत से लोग ऐसा समझते हैं। पर ऐसा नहीं है।अगर ऐसा होता तो मूल रूप में सभी जीव एक जैसे होते, पर वे प्रलय या मृत्यु के बाद भी अपनी अलग पहचान बना कर रखते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आत्मा के प्रकाश को ढकने वाले तमोगुण की मात्रा सबमें अलग होती है। इससे अन्य गुणों की मात्रा भी खुद ही अलग होती है। यदि तमोगुण ज्यादा है, तो उसी अनुपात में सतोगुण कम हो जाता है, क्योंकि ये एक-दूसरे के विरोधी हैं। दरअसल उसमें सभी गुण साम्यावस्था में अर्थात समान अवस्था में होते हैं। सभी गुणों का समान अवस्था में होने का या उनमें क्षोभ या लहरों के न होने का मतलब है कि सत्त्वगुण (प्रकाश व ज्ञान का प्रतीक) भी घटने-बढ़ने के बजाय एकसमान रहता है, रजोगुण (गति, बदलाव व ऊर्जा का प्रतीक) भी एकसमान रहता है, और तमोगुण (अंधकार व अज्ञान का प्रतीक) भी। इससे वह किसी विशेष गुण की तरफ लालायित नहीं होता। इसीलिए शिशु सबकुछ अनुभव करते हुए भी उदासीन सा रहता है। वह निर्गुण नहीं होता। क्योंकि गुणों में क्षोभ तभी पैदा हो सकता है, यदि गुण पहले से विद्यमान हों। निर्गुण या गुणातीत तो केवल भगवान ही होता है। इसलिए उसमें कभी गुण-क्षोभ सम्भव नहीं हो सकता है। इसीलिए ईश्वर हमेशा ही परिवर्तनरहित हैं। ईश्वर निर्गुण इसीलिए होता है, क्योंकि उसमें आत्म-अज्ञान से उत्पन्न तमोगुण नहीं होता। सभी गुण तमोगुण के आश्रित होते हैं। इसी वजह से तो पंचमकारी या वामपंथी तांत्रिक दुनियादारी और अध्यात्म दोनों में अव्वल लगते हैं। फिर शिशु के थोड़ा बड़ा होने पर चित्त या मस्तिष्क में वृत्तियों या संवेदनाओं के बढ़ने से गुणों में, विशेषकर सतोगुण में क्षोभ पैदा होता है, और वह प्रकाश की ओर आकर्षित होने लगता है। इससे सतोगुण रूप महत्तत्व अर्थात बुद्धि उत्पन्न होती है। उसे लगने लगता है कि उसकी सत्ता के लिए उसका रोना और दूध पीना कितना जरूरी है। उससे शिशु को अपने विशेष और सबसे अलग होने का अहसास होता है, जिसे अहंकार कहते हैं। इसप्रकार अहंकार की उत्पत्ति हो जाती है। उससे तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। तन्मात्रा पंचमहाभूतों का सूक्ष्म रूप या अनुभव मात्र होती हैं, जिन्हें हम मस्तिष्क में अनुभव करते हैं। जैसे पृथ्वी की तन्मात्रा गंध, जल की रस, वायु की स्पर्श, अग्नि की रूप और आकाश की शब्द होती है। वह दूध के रस के स्वाद को पहचानने लगता है, खिलौने की गंध को पहचानता है, अपने किए मूत्र की गर्मी को स्पर्ष करता है, सुंदर-असुंदर रूप में अंतर समझने लगता है, घुंघरू या खिलौने की आवाज की ओर आकर्षित होता है। फिर शिशु बाहर की तरफ नजर दौड़ाता है कि ये अनुभूतियाँ कहाँ से आईं। उससे इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि वह चक्षु, कान, त्वचा, जीभ, नाक आदि इन्द्रियों की सहायता से ही बाहर को महसूस करता है। इसीके साथ मन रूप इन्द्रिय भी विकसित होती है, क्योंकि वह इसी से ऐसा सब सोचता है। इन्द्रियों से उपरोक्त पंचमहाभूतों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि वह इन्द्रियों से ही उनको खोजता है और उन्हें अनुभव करता है। उसे पता चलता है कि दूध, खिलौना, घुंघरू आदि भौतिक पदार्थ भी दुनिया में हैं, जिन्हें वह इन्द्रियों से महसूस करता है। फिर आगे-2 जैसा-2 बच्चा सीखता रहता है, वैसी-2 सृष्टिरचना की उत्पत्ति आगे बढ़ती रहती है। इस तरह से एक आदमी के अंदर ही पूरी सृष्टि का विस्तार हो जाता है।
कुण्डलिनी जागरण ही सृष्टि विकास की सीमा है
सृष्टि रचना का विस्तार आदमी कुंडलिनी जागरण के लिए ही करता है। यह तथ्य इस बात से सिद्ध होता है कि कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी सृष्टि विस्तार से उपरत सा हो जाता है। उसका झुकाव प्रवृत्ति (दुनियादारी) से हटकर निवृत्ति (रिटायरमेंट) की तरफ बढ़ने लगता है। उसकी प्रवृत्ति भी निवृत्ति ही बन जाती है, क्योंकि फिर उसमें आसक्ति से उत्पन्न क्रेविंग या छटपटाहट नहीँ रहती। पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि यह स्थिति मन की होती है, बाहर से वह पूरी तरह से दुनियादारी के कामों में उलझा हो सकता है। कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी को लगता है कि उसने पाने योग्य सब कुछ पा लिया है, और करने योग्य सबकुछ कर लिया है।
शिव पुराण के अनुसार सृष्टि रचना शिव के वीर्य से हुई
शिवपुराण में आता है कि प्रकृति रूपी योनि में शिव के वीर्यस्थापन से एक अंडे की उत्पत्ति हुई। वह अंडा 1000 सालों तक जल में पड़ा रहा। फिर वह बीच में से फटा। उसका ऊपर का भाग सृष्टि का कपोल बना। उससे ऊपर के श्रेष्ठ लोक बने। नीचे वाले भाग से निम्न लोक बने।
दरअसल शिव यहाँ पिता है, और प्रकृति या पार्वती माता है। दोनों के वीर्य और रज के मिलन से गर्भाशय में अंडा बना। वह गर्भाशय के पोषक जल में लंबे समय तक पड़ा रहा और विकसित होता रहा। फिर वह फटा, अर्थात मनुष्याकृति में उससे अंगों का विभाजन होने लगा। उसमें ऊपर वाला भाग सिर या कपोल की तरह स्पष्ट नजर आया। उसमें सहस्रार चक्र, आज्ञा चक्र और विशुद्धि चक्र के रूप में ऊपर वाले लोक बने। नीचे के भाग में अन्य चक्रों के रूप में नीचे वाले लोक बने।
कुंडलिनी योगसाधना की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ही शिवपुराण में शिव-केतकी की कथा के रूपक का वर्णन आता है
दोस्तों, आओ थोड़ा कुंडलिनी ध्यान कर लेते हैं। पिछली पोस्ट में मैंने जो शिव-केतकी की कथा कही थी, वह पुराणों में लिखित रूपकों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। पुराण ऐसे रूपकों से भरे हुए हैं। रूपकों की सहायता से प्रस्तुत विषय अच्छी तरह से समझ में आ जाता है, और अच्छी तरह से याद रहता है। अधिकांश आध्यात्मिक ज्ञान मन की सीमा से बाहर होता है, और प्रत्यक्ष अनुभव की वस्तु है। इसलिए उसे रूपकों में ढालकर मन के दायरे में लाया जाता है।
पूर्वोक्त प्रकाशमान स्तंभ के ओर-छोर की खोज करने के लिए ब्रह्मा ऊपर की ओर और भगवान विष्णु नीचे की ओर भागे थे
पूर्वोक्त कथा में हमने विष्णु को ऊपर की ओर तथा ब्रह्मा को नीचे की ओर जाते दिखाया था। पर वास्तविकता इसके विपरीत थी। वैसे इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। रूपकों को हम किसी भी तरफ को ढाल सकते हैं। सत्य का अनुभव तो वही रहता है। रूपक सत्य को नहीं बदल सकते। रूपकों का अपना कोई गणित नहीं होता। रूपक तो केवल सत्य को समझाने के लिए बनाए गए होते हैं। रूपक की इस विपरीत स्थिति में हम सत्य के अनुभव को निम्नलिखित तरीक़े से ढाल सकते हैं। ब्रह्मा प्रकार के लोग क्योंकि अंधाधुंध निर्माण कार्य करवाते हैं, इसलिए वे अपने सकाम कर्मों के फलस्वरूप विभिन्न उच्च लोकों को प्राप्त करते हैं। वे सहस्रार रूपी परम लोक को प्राप्त नहीं करते, क्योंकि वे जगत के प्रति आसक्त होते हैं। इसलिए वे कुंडलिनी योगसाधना नहीं कर पाते। यदि करते हैं, तो वह शीघ्र फलदायी नहीं होती। बाकि तो पूर्वोक्त रूपक में सब ठीक है। इसी तरह, विष्णु प्रकार के लोग नम्रता के, गहन अन्वेषण के, और ज्ञान चिंतन के प्रतीक होते हैं। वे नीचे के लोकों में रहने वाले दीन दुखी लोगों की सेवा में जुट जाते हैं। उनमें भी जगत के पालन और रक्षण का अहंकार आ जाता है। फिर भी वे अपनी झूठी शेखी नहीं बघारते, और न ही अपने प्रभाव का ज्यादा ढिंढोरा पीटते हैं। इसलिए उन्हें नीचे के लोकों या चक्रों में जाने वाला बताया गया है। इसी कारण से उनकी भी कुंडलिनी योग साधना आसानी से सफल नहीं होती। बाकि तो रूपक में सब ठीक ही है। असली तांत्रिक कुंडलिनी योगी तो भगवान शिव की तरह मस्तमौले होते हैं। उन्हें दुनियादारी का कोई फिक्र-फाका नहीं होता। वे अपनी कुंडलिनी के साथ मस्त और आनन्दमग्न होते हैं। वे तांत्रिक साधना से बढ़ाई गई अपनी एनर्जी को दुनियादारी में बर्बाद न करके उससे अपनी कुंडलिनी को जागृत करते हैं। वे ज्यादा पाने की चाहत में नहीं भागते। जो उन्हें मिल जाता है, उसी में संतुष्ट हो जाते हैं। भगवान शिव के पास भी एक बाघम्बर, एक मृगचर्म, एक त्रिशूल, एक सर्प, एक बैल और पार्वती माता के सिवाय कुछ नहीं होता। वे इन्हीं में खुश रहते हुए गहन व आनन्दमयी ध्यान साधना में डूबे रहते हैं।
केतकी का पुष्प ऐसे लोगों का प्रतीक है, जो भगवान के साथ रहकर भी उसे नहीं पहचानते
कथा में आता है कि केतकी का सफेद पुष्प भगवान शिव के मस्तक से नीचे गिरा था, पर वह भी उस ज्योति स्तंभ का आदि-अंत नहीं जानता था। केतकी की तरह साफ-सुथरी छवि वाले लोग भी उन पुजारियों की तरह हैं, जो लगातार मन्दिरों में रहकर भी भगवान को नहीं जानते। आम जनता उन पर विश्वास करती है, इसलिए ब्रह्मा प्रकार के लोग इस बात का नाजायज फायदा उठाते हैं। वे पैसे के दम पर उनसे अपना गुणगान करवाते हैं, और जतवाते हैं कि वे सबकुछ अर्थात भगवान को जानते हैं। बाकी तो रूपक में सब वैसा ही है।
कुंडलिनी ही हिंदू पुराणों की सर्वप्रमुख विषयवस्तु है: शिव व केतकी के फूल की कहानी
दोस्तों, पिछली पोस्ट में मैंने शिवपुराण की एक कथा के बारे में बताया था, जो कि तंत्रशास्त्र के रहस्य का आधारबिंदु है। उसे केतकी के फूल की कहानी कहते हैं। इस पोस्ट में मैं उस कहानी की गहराई से व्याख्या करूँगा।
क्या है केतकी के फूल की कहानी
शिवपुराण के अनुसार एक बार भगवान ब्रह्मा और भगवान विष्णु के बीच में झगड़ा हो गया था। भगवान ब्रह्मा कहने लगे कि उन्होंने सारे संसार का निर्माण किया है, इसलिए वे ही सबसे बड़े हैं। दूसरी ओर, भगवान विष्णु कहने लगे कि वे ही सारे संसार का पालन और रक्षण करते हैं, इसलिए वे ही सबसे बड़े हैं। जब उनके झगड़े से चारों ओर उथल-पुथल मच गयी, तब उन दोनों के बीच में एक ज्योतिर्मय स्तंभ प्रकट हुआ। आकाशवाणी से आवाज हुई कि जो सबसे पहले इसके ओर-छोर का पता लगाएगा, वही सबसे बड़ा है। भगवान विष्णु ऊपर की तरफ चल पड़े, और भगवान ब्रह्मा नीचे की ओर। परंतु दोनों ही उसके छोर का पता नहीं लगा पाए और खाली हाथ वापिस लौट आए। विष्णु ने अपनी असफलता की सच्ची कहानी ब्रह्मा को बयान कर दी, परंतु ब्रह्मा भगवान विष्णु से झूठ बोलने लगे। ब्रह्मा ने कहा कि वे उसके छोर को छूकर वापिस आए थे। ब्रह्मा ने केतकी के सफेद फूल को साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया। तभी इस झूठ से नाराज होकर भगवान शिव वहाँ प्रकट हो गए। उन्होंने कहा कि वे ही सबसे बड़े हैं तथा उनके सिवाय कोई दूसरा इसके आदि-अंत को नहीं जान सका है। केतकी के झूठ से नाराज होकर शिव ने उसको शाप दिया कि वह कभी उनकी पूजा में शामिल नहीं किया जाएगा। साथ में, ब्रह्मा को भी शाप दिया कि कहीं भी उनका मंदिर नहीं होगा, और न ही उनकी पूजा की जाएगी।
शिव-केतकी की कहानी का तांत्रिक रहस्य
ब्रह्मा और केतकी के फूल किसके प्रतीक हैं
वास्तव में उपरोक्त कथा मैटाफोरिक है, और कुंडलिनी योग की सर्वश्रेष्ठता की ओर इशारा कर रही है। ब्रह्मा उन लोगों का प्रतीक है, जो अंधाधुंध निर्माणकार्य से प्रकृति को नुकसान पहुंचा रहे हैं। अहंकार का सहारा लेने वाले बिजनेसमैन, नेता और नकली धर्मगुरु इसी प्रकार के लोग होते हैं। रजोगुणी यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठान करवाने वाले लोग भी इनमें शामिल हैं। उनके अंदर अहंकार पैदा हो जाता है, और वे अपने आप को सबसे बड़ा समझने लगते हैं। उनके पास धन की कोई कमी नहीं होती, इसलिए वे समाज के प्रतिष्ठित व साफ-सुथरी छवि वाले लोगों को और पत्रकारों को खरीद लेते हैं। केतकी का सफेद फूल ऐसे ही लोगों का परिचायक है। वे ऐसे लोगों से अपना भरपूर गुणगान करवाते हैं, और असली भगवान को अनदेखा करके खुद भगवान बन बैठते हैं। इसीलिए ऐसी साफ सुथरी व सफेद छवि वाले कपटी लोग भगवान शिव को प्रसन्न नहीं कर पाते। उन्हें प्रसन्न करने के लिए तो बच्चे की तरह भोले बनना पड़ता है। तभी तो शिव को भोलेनाथ या भोले बाबा भी कहते हैं। तांत्रिक भी भोले ही होते हैं। ब्रह्मा जैसी छवि वाले उपरोक्त लोग भी लोगों से सच्चा सम्मान नहीं प्राप्त कर पाते। उनके प्रभाव के डर से ही लोग उन्हें झूठा सम्मान देते हैं। जैसे भगवान ब्रह्मा स्तंभ का निचला छोर ढूंढते हैं, वैसे ही उनकी तरह के लोगों का झुकाव भी नीचे अर्थात तमोगुण की तरफ ज्यादा होता है। तमोगुण मदिरा, माँस आदि के अनियंत्रित उपभोग के रूप में हो सकता है। वे ब्रह्मा की तरह ही रजोगुणी होते हैं। रजोगुण का झुकाव तमोगुण की तरफ ज्यादा होता है। वे बहुत नीचे के लोकों या चक्रों तक पहुंच जाते हैं, पर सबसे नीचे के लोक अर्थात मूलाधार चक्र तक नहीं पहुंच पाते। इसका सीधा सा अर्थ है कि वे मूलाधार चक्र पर कुंडलिनी को जगा नहीं पाते। यदि मूलाधार चक्र पर भी कुंडलिनी जागृत हो जाए, तो वह सभी चक्रों या लोकों को भेदते हुए सीधी सहस्रार में चली जाती है, और वहाँ भी जागृत हो जाती है। पर ऐसा तांत्रिक लोग ही कर सकते हैं, साधारण लोग नहीं।
भगवान नारायण सेवादारों व दानवीरों के प्रतीक हैं
समाज के कुछ लोग जनता की सेवा से सीधे जुड़े होते हैं। उनमें सेवादार और दानवीर मुख्य होते हैं। सात्विक धर्म-कर्म आदि करने वाले लोग भी इनमें शामिल हैं। अनेक प्रकार की मानसिक साधनाएं करने वाले लोग भी ऐसे ही होते हैं। हालाँकि वे भोले होते हैं, पर फिर भी वे ज्योतिर्मय स्तंभ का छोर नहीं ढूंढ पाते। वे स्तंभ पर ऊपर की ओर जाते हैं, क्योंकि वे सत्त्वगुणी होते हैं। उनके अंदर मन के दोष नहीं होते। अहंकार भी उनमें कम होता है। वे काफी ऊपर के लोकों या चक्रों तक चले जाते हैं, पर सर्वोच्च लोक या सहस्रार तक नहीं पहुंच पाते। इसका अर्थ है कि वे भी कुंडलिनी को जागृत नहीं कर पाते। फिर शिव ने कहा कि वे ही इसे जानते हैं। साथ में कहा कि इसलिए वे ही सबसे बड़े हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि शिवभक्त तांत्रिक ही अपनी कुंडलिनी को जागृत कर पाते हैं।
ज्योतिर्मय स्तंभ सुषुम्ना नाड़ी का और विभिन्न लोक विभिन्न चक्रों के प्रतीक हैं
वास्तव में सारा संसार हमारे अपने मनुष्य शरीर में बसा हुआ है, “यतपिण्डे तत्ब्रह्मांडे” के अनुसार। ऐसा ही “शरीरविज्ञान दर्शन- एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र (एक योगी की प्रेमकथा)” पुस्तक में भी वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया गया है। जो कथा में विभिन्न ऊपरी और निचले लोक कहे गए हैं, वे हमारे शरीर की रीढ़ की हड्डी में स्थित चक्र ही हैं। जो प्रकाशमय स्तम्भ है, वह सुषुम्ना नाड़ी है। वह भी चमकदार संवेदना के रूप में होती है। वह मूलाधार चक्र से अर्थात सबसे निचले लोक से सहस्रार चक्र अर्थात सबसे ऊपर के लोक तक गुजरती है। बीच में अनेक प्रकार के लोक अर्थात चक्र आते हैं। उसका लघु रूप लिंग या वज्र है। वही उस स्तंभ का सबसे प्रमुख भाग होता है, क्योंकि वहीँ से प्रकाशमय संवेदना स्तंभ उत्पन्न होता है।