दोस्तों, कई पौराणिक कथाओं को पूरी तरह से डिकोड नहीं किया जा सकता। इसलिए वहां अंदाजा लगाना पड़ता है। समथिंग इज बैटर देन नथिंग। हल्की शुरुआत से ये कथाएं भी बाद में डिकोड हो जाती हैं। ऐसी ही रहस्यमयी कथा गणेश देव को लेकर है। मुझे लगता है कि गणेश पार्वती देवी का कुंडलिनी पुरुष है। शिव के कुंडलिनी पुरुष के सहारे रहते हुए देवी पार्वती ऊब जैसी गई थीं। वे अपने को शिव के ऊपर निर्भर सा और परतन्त्र सा समझने लग गई थीं। खासकर उन्हें उनकी सहेलियों ने भी भड़काया था। इसीलिए देवी पार्वती कहती हैं कि वे शिवगणों की सुरक्षा के अंतर्गत रहते हुए एक पराधीन की तरह रह रही थीं। उन्होंने निश्चय किया कि अब वे अपने लिए एक समर्पित गण पैदा करेंगी। एकबार वे निर्वस्त्र होकर स्नान कर रही थीं, पर भगवान शिव द्वारपाल नन्दी को डांटकर अंदर घुस गए, जिससे वे शर्मिंदा हो गईं। इसलिए उन्होंने अपने शरीर की मैल से सर्वांगसुन्दर और निर्दोष गणेश को पैदा किया। मैल को भी रज कहते हैं, और वीर्य के समकक्ष योनिद्रव को भी। सम्भवतः देव गणेश देवी पार्वती की यौन ऊर्जा के रूपांतरण से निर्मित मानसिक पुरुष हैं, जैसे भगवान कार्तिकेय भगवान शिव की यौन ऊर्जा से निर्मित मानसिक कुंडलिनी पुरुष हैं। पुत्र इसलिए क्योंकि बना तो योनि द्रव से ही सामान्य पुत्र की तरह, बेशक गर्भ में न बनकर मस्तिष्क या मन में बना। इसी वजह से तो यौनतन्त्र के अभ्यास से स्त्री में मासिक धर्म के द्रव का स्राव या रज का स्राव बहुत कम या शून्य भी हो जाता है। इससे स्त्री का कमजोरी से भी बचाव हो जाता है। इसी रज या शरीर के मैल से ही उसकी कुंडलिनी विकसित होती है। यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि हमारे लिए देवी पार्वती पूजनीया हैं, सम्माननीया हैं। हम उनके बारे में सीधे तौर पर कुछ नहीं कह सकते। हम तो केवल देवी पार्वती के जैसे स्वभाव वाले मनुष्यों के बारे में बात कर रहे हैं। क्योंकि हर जगह तो ऐसा नहीं लिखा जा सकता, “देवी पार्वती के जैसे स्वभाव वाला मनुष्य”, क्योंकि इससे बिना जरूरत के लेखन का विस्तार बढ़ जाएगा, और साथ में लोग भ्रमित होकर समझ नहीं पाएंगे। इसलिए मजबूरी में संक्षेप के लिए देवी पार्वती या सिर्फ पार्वती लिखना पड़ता है। एक प्रकार से हम व्यक्तित्व या स्वभाव का वर्णन करते हैं, किसी देव विशेष या व्यक्ति विशेष का नहीं। इसी तरह भगवान शिव आदि सभी देवी-देवताओं के बारे में भी समझना चाहिए। आशा और विश्वास है कि आम जनमानस और देवी-देवता इसे अन्यथा नहीं लेंगे। पार्वती ने गणेश को एक लाठी देकर निर्देश दिया कि कोई भी उसकी आज्ञा के बिना उसके घर के अंदर प्रविष्ट न होने पाए। पार्वती दरअसल जीवात्मा है। सहस्रार उसका घर है। गणेश को घर के बाहर खड़े करने का मतलब है, हरसमय कुंडलिनी के ध्यान में मग्न रहना। इससे कोई और चीज ध्यान में आ ही नहीं सकती, मतलब अपनी मर्जी से घर के अंदर प्रविष्ट नहीं हो सकती। जब जीवात्मा चाहेगा और कुंडलिनी से अपना ध्यान हटाएगा, तभी दूसरी चीज ध्यान रूपी घर में आ पाएगी। इससे पहले उसके मन में कुंडलिनी नहीं थी। इसलिए उसे न चाहते हुए भी शिव को और उसकी दुनियादारी को ध्यान-गृह में आने देना पड़ता था। नहाते समय वह नग्न थी, अर्थात आत्मा की गहराई के अंतरंग विचारों में खोई हुई थी। यह उनके लिए अच्छा जवाब है, जो यह गलत धारणा रखते हैं कि तन्त्र में स्त्री को पुरुष से निम्नतर समझा जाता है। दरअसल तन्त्र में पुरुष और स्त्री बराबर हैं, और दोनों के लिए समान प्रकार की साधनाएं बताई गई हैं। एकबार नन्दी को गणेश ने द्वार पर रोक दिया। इससे हैरान होकर शिव ने अपने नन्दी आदि गणों को बारी-2 से पार्वती के घर में प्रवेश करने को कहा, पर गणेश बालक ने अपनी लाठी से सबकी पिटाई कर दी। मतलब कि कुंडलिनी बालक की तरह कोमल होती है, जिसके पास जीवात्मा की रक्षा करने के लिए विशेष हथियार नहीं होते, पर लाठी को दर्शाता हुआ एक स्नेहभरा भय होता है। नंदी आदि गण यहाँ शिव के विचार हैं, जो शिव की आत्मा को पार्वती की आत्मा से मिलाने से पहले उससे अपना परिचय करवाना चाहते हैं। दुनिया में अक्सर ऐसा ही होता है। विचारों के माध्यम से ही लोगों का एकदूसरे से हार्दिक मिलन सम्भव हो पाता है। गणेश द्वारा लाठी से गणों को डराने या पीटने का मतलब है कि पार्वती अर्थात जीवात्मा बाहर से आ रहे विचारों की तरफ ध्यान न देकर कुंडलिनी पर ही ध्यान जमा कर रखती है। न तो विचारों का स्वागत करना है, और न ही उन्हें भगाना है। यही प्यार से भरा हुआ भय बना कर रखना है। यही विचारों या दुनियादारी के प्रति साक्षीभाव बना कर रखना है। यही विपासना है, विपश्यना है। गणेश द्वारा बारी-बारी से आए सभी देवताओं व गणों को हराना इसी बात को दर्शाता है कि पार्वती की कुंडलिनी शिवजी द्वारा प्रेषित किए गए सभी विचारों व भावनाओं से अप्रभावित रहती है। फिर सभी देवता इसको शिव के अपमान और उससे उत्पन्न जगहँसाई के रूप में लेते हैं। इसलिए वे सभी एक युद्धनीति बनाकर मिलकर लड़ते हैं, और धोखे से गणेश का वध कर देते हैं। मतलब कि शिव पार्वती को दुनियादारी में इतना उलझा देते हैं कि वह कुंडलिनी को भूल जाती है। इससे पार्वती अपार क्रोध से भरकर काली बन जाती है, और सृष्टि को नष्ट करने के लिए तैयार हो जाती है। मतलब कि मन के अखण्ड कुंडलिनी चित्र के नष्ट होने से पार्वती क्रोध से भर जाती है, और घुप्प अंधेरे में डूब जाती है। यह ऐसे ही है जैसे किसी की अतिप्रिय वस्तु गुम हो जाए, या उसे उसके खो जाने का डर सता जाए, और वह उसके बिना अंधा जैसा हो जाए। यह बच्चे के खिलौने के गम होने के जैसा ही है। ऐसे में आदमी कुछ भी गलत काम कर सकता है, यदि उसे सांत्वना देकर संभाला न जाए। रशियन सत्ताशीर्ष को क्या कहीं ऐसा ही सदमा तो नहीं लगा है। ऐसे में आदमी दुनिया को भी नष्ट कर सकता है, और खुद को भी। क्योंकि शरीर में समस्त ब्रह्मांड बसा है, इसीलिए सम्भवतः पार्वती के द्वारा आत्महत्या के प्रयास को ही सृष्टि के विनाश का प्रयास कहा गया हो। काली नाम का मतलब ही काला या अंधेरा होता है। फिर वह काली बनी पार्वती कहती है कि यदि गणेश को पुनर्जीवित कर दोगे, तो वह प्रसन्न हो जाएगी। बात स्पष्ट है कि खोई हुई प्रिय वस्तु या कुंडलिनी को प्राप्त करके ही आदमी अपनी पूर्व की प्रसन्न अवस्था को प्राप्त करता है। यह तो अब रशियन सत्ताधीश से पूछना चाहिए कि उनकी क्या प्रिय वस्तु खो गई है, जिसके लिए वे परमाणु बटन की तरफ हाथ बढ़ा कर पूरी धरती को दांव पर लगा रहे हैं, और जिसे पाकर वे प्रसन्न हो जाएंगे। मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा था कि आज के उन्नत युग की कुंडलिनी आज्ञा चक्र में अटकी हुई है। कुंडलिनी का स्वभाव ही गति करना होता है। वह एक स्थान पर ज्यादा समय नहीं रह सकती। उसका अगला और उन्नत पड़ाव सहस्रार चक्र है। पर वहाँ तक कुंडलिनी को उठाने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता है, जो यौनतन्त्र से ही मिल सकती है। इसीलिए ईश्वरीय प्रेरणा से मैं तन्त्र के बारे में लिखता हूँ। साथ में, भौतिक दुनियादारी को कम करने की भी जरूरत है, ताकि उससे बचाई गई ऊर्जा कुंडलिनी को ऊपर चढ़ाने के काम आ सके। यह युद्ध का विनाश दुनियादारी को कम करने का ही एक अवचेतनात्मक प्रयास है, ताकि कुंडलिनी की ऊर्जा की जरूरत पूरी हो सके। युद्ध के अन्य कारण गिनाए जाना तो बस बहाने मात्र हैं। एक परमाणु हथियार सम्पन्न और क्षेत्रफल के लिहाज से सबसे बड़े देश को भला किससे भय हो सकता है। युद्ध का असली और एकमात्र कारण तो उस बेशकीमती ऊर्जा की कमी है, जिससे आदमी मानवता और आध्यात्मिकता के पथ पर आगे बढ़ता है। समझदार को समझाने के लिए युद्ध का भय दिखाना ही काफी है, नासमझ युद्ध से भी नहीं समझेगा, सिर्फ नुकसान ही होगा। ज्यादा से ज्यादा हल्की सी युद्ध शक्ति दिखा देते, ताकि शत्रु को संभलने और सुधरने का मौका मिलता। फिर दुनिया भी यौद्धा की कूटनीति और युद्धनीति की तारीफ करती। यह क्या कि पूरे ही राष्ट्र को नरक बनाने पर तुले हुए हो। एक तरफ गरीबों को सिर ढकने के लिए छत नहीं मिलती, वे रात भर खुले में ठिठुरते हैं, दूसरी तरफ आप आलीशान भवनों को जमींदोज करते जा रहे हो। सोचो, कितना खून पसीना लगा होगा उन्हें बनाने में। उस प्राण ऊर्जा की कितनी बर्बादी हुई होगी उन्हें बनाने में, जिससे कुंडलिनी जागृत हो सकती थी। कुंडलिनी की ऊर्जा की जरुरत पूरी करने का यह अवचेतनात्मक प्रयास अनियंत्रित औऱ अमानवीय है, अनियंत्रित परमाणु ऊर्जा की तरह। इससे क्या है कि कुंडलिनी ऊपर चढ़ने की बजाय नीचे उतर रही है, अपने सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त किए बिना ही। इसलिए दुनियादारी या जीने के तरीकों में बदलाव धीरे-धीरे व मानवीय होना चाहिए, एकदम से व अमानवीय नहीं। मैं यहाँ किसी एक राष्ट्र पर आक्षेप नहीं लगा रहा हूँ। सभी राष्ट्र युद्धपिपासु की तरह व्यवहार करते हैं। दुनिया में सभी देशों के द्वारा ऐसी परिस्थितियां क्यों बनाई जाती हैं, जो किसी देश को मजबूरन युद्ध की तरफ धकेल दे। अधिकांश देश हथियारों का जखीरा इकट्ठा करने में लगे रहते हैं। हथियारों के व्यापार से पैसा कमाना चाहते हैं। साम्राज्यवाद का सपना पाल कर रखते हैं। इसकी सबसे अच्छी दवाई कुंडलिनी ही है। कुण्डलिनी की सहायता से संपूर्ण सृष्टि अपने अंदर दिखाई देने लगती है। आदमी अपने में ही संतुष्ट रहने लगता है, चाहे वह कैसा भी हो, और कैसी भी परिस्थिति में क्यों न हो। जब किसी राष्ट्राध्यक्ष को अपने अंदर ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड महसूस होगा, तब वह भला क्यों दूसरों की जमीन लूटना चाहेगा। वह अपनी समस्या का हल अपने अंदर ही खोजेगा। फिर उसे अधिकांश मामलों में हथियारों की जरूरत भी नहीं पड़ेगी, और युद्ध की भी नहीं। मैं दुनिया में सिर्फ एक ही देश को जानता हूँ, जिसने भरपूर उकसाओं के बाद भी कभी युद्ध की शुरुआत नहीं की, और न ही किसी के ऊपर आक्रमण किया। वह देश भारत है। सम्भवतः यह भारत में कुण्डलिनी योग और उसपर आधारित धर्म से ही सम्भव हुआ हो। इसलिए समस्त विश्व को भारत से शिक्षा लेनी चाहिए, यदि शांतिपूर्ण विश्व की स्थापना करनी है। मैं किसी की झूठी बड़ाई नहीं कर रहा हूँ। न ही मैं युद्ध के इलावा अन्य पक्षों को देख रहा हूँ। सत्य सत्य है, जिसे कोई झुठला नहीं सकता। खैर, शिव ने अपने गणों को सुबह के समय पूर्व दिशा में भेजा, और कहा कि जो भी जीव सबसे पहले मिले, उसका सिर काट के ले आएं, और गणेश के धड़ से जोड़ दें। मतलब कि कुछ भी सट्टा-बट्टा करना पड़े, पर पार्वती की खोई कुंडलिनी किसी तरह वापिस मिल जाए। गणों को सबसे पहले एक हाथी का बच्चा मिला। उन्होंने शिव की सहायता से उसका सिर गणेश के धड़ से जोड़कर गणेश को पुनर्जीवित कर दिया। उससे देवी पार्वती संतुष्ट हो गई, जिससे उनके कोप से पूरी दुनिया बाल-बाल बच गई।
Category: भगवान गणेश
हे! पर्वतराज करोल [भक्तिगीत-कविता]

हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल।
सुबह-सवेरे जब भी उठता
तू ही सबसे पहले दिखता।
सुबह-सवेरे जब भी उठता
तू ही सबसे पहले दिखता।
सूरज का दीपक मस्तक पर
ले के जग को रौशन करता।
सूरज का दीपक मस्तक पर
ले के जग को रौशन करता।
सूरज को डाले जल से तू
सूरज को डाले जल से तू
सूरज संग नहाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल।
काम बोझ से जब भी थकता
सर ऊपर कर तुझको तकता।
काम बोझ से जब भी थकता
सर ऊपर कर तुझको तकता।
दर्शन अचल वदन होने से
काम से हरगिज़ न रुक सकता।
दर्शन अचल वदन होने से
काम से हरगिज़ न रुक सकता।
कर्मयोग का पावन झरना
कर्मयोग का पावन झरना
पल-पल तूने बहाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल।
बदल गए सब रिश्ते नाते
बदल गया संसार ये सारा।
बदल गए सब रिश्ते नाते
बदल गया संसार ये सारा।
मित्र-मंडली छान के रख दी
हर-इक आगे काल के हारा।
मित्र-मंडली छान के रख दी
हर-इक आगे काल के हारा।
खुशकिस्मत हूँ तेरे जैसा
खुशकिस्मत हूँ तेरे जैसा
मीत जो मन का पाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल।
सबसे ऊंचे पद पर रहता
कहलाए देवों का दे-वता।
सबसे ऊंचे पद पर रहता
कहलाए देवों का दे-वता।
उठकर मूल अधार से प्राणी
रोमांचित मस्तक पर होता।
उठकर मूल अधार से प्राणी
रोमांचित मस्तक पर होता।
सब देवों ने मिलकर तेरा
सब देवों ने मिलकर तेरा
प्यारा रूप बनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल।
जटा बूटियाँ तेरे अंदर
नाग मोरनी मानुष बंदर।
जटा बूटियाँ तेरे अंदर
नाग मोरनी मानुष बंदर।
गंगा नद नाले और झरने
नेत्र तीसरा भीषण कन्दर।
गंगा नद नाले और झरने
नेत्र तीसरा भीषण कन्दर।
चन्द्र मुकुट पर तोरे सोहे
बरबस ही मोरा मन मोहे।
चन्द्र मुकुट पर तोरे सोहे
बरबस ही मोरा मन मोहे।
उपपर्वत नीचे तक जो है
नंदी वृष पर बैठे सो है।
उपपर्वत नीचे तक जो है
नंदी वृष पर बैठे सो है।
बिजली सी गौरा विराजे
कड़कत चमकत डमरू बाजे।
बिजली सी गौरा विराजे
कड़कत चमकत डमरू बाजे।
आंधी से हिलते-डुलते वन
नटराजन के जैसे साजे।
आंधी से हिलते-डुलते वन
नटराजन के जैसे साजे।
बाघम्बर बदली का फूल
धुंध बनी है भस्म की धूल।
बाघम्बर बदली का फूल
धुंध बनी है भस्म की धूल।
गणपत जल बन बरसे ऊपर
ऋतु मिश्रण का है तिरशूल।
गणपत जल बन बरसे ऊपर
ऋतु मिश्रण का है तिरशूल।
मन-भावन इस रूप में तेरे
मन-भावन इस रूप में तेरे
शिव का रूप समाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
जब जग ने ठुकराया
तू-ने अपनाया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल
तेरा अद्भुत साया।
हे! पर्वतराज करोल।
-हृदयेश बाल🙏🙏bhishm
कुण्डलिनी ही माता पार्वती है, जीवात्मा ही भगवान शिव है, और कुण्डलिनी जागरण ही शिवविवाह है
दोस्तो, पिछली पोस्ट में इस सर्वविदित सिद्धांत की पुष्टि की गई थी कि दरअसल कुंडलिनी विकास को ही जीवविकास की संज्ञा दी गई है। कुंडलिनी मूलाधार में जन्म लेती है, विभिन्न स्थानों पर बढ़ती है, और अंत में सहस्रार में जागृत हो जाती है। इसे ही शिवविवाह कहते हैं। जैसे उच्च कोटि के गृह में विवाह के बाद प्रेमी युगल विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करता है, वैसे ही आत्मा-कुंडलिनी का जोड़ा सहस्रार में विवाहित होकर विभिन्न चक्रों पर भ्रमण करता रहता है। इसे ही शास्त्रों में ऋषियों का विभिन्न लोकों में भ्रमण बताया गया है। दरअसल वे लोक विभिन्न चक्रों के रूप में ही हैं। आज हम इस पर चर्चा करेंगे।
कुंडलिनी ही पार्वती है
अहंकार ही राजा दक्ष है। उसकी बेटी सती ही कुंडलिनी है। अहंकार से ही आदमी दुनियादारी में कामयाब होता है। उसी से एक स्थिर चित्र का निर्माण होता है, जो कुंडलिनी है। अहंकार रूपी दक्ष नहीं चाहता कि उसकी पुत्री कुंडलिनी भूतिया शिव के पीछे भागकर उसकी दुनियादारी को नुकसान पहुंचाए। अंत में वह हार जाता है और सती शिव को प्राप्त करने के लिए कुंडलिनी योग रूपी तप करती है। वह उसकी इच्छा के विरुद्ध जाकर शिव से विवाह कर लेती है मतलब कुंडलिनी जाग जाती है। अहंकार काफी कम हो जाता है पर मरता नहीं। वह कुंडलिनी को शिव से दूर करके अपने झमेले में फंसा लेता है। जब कुंडलिनी को यह भान होता है तब तक उसकी उमर पूरी हो चुकी होती है। गुस्से में शिव के द्वारा दक्ष का सिर काटकर बकरे का सिर लगाने का अर्थ है कि अहंकार शरीर के साथ भी नहीं मरता, अपितु कुछ क्षीण जरूर हो जाता है। अगले जन्म में कुंडलिनी रूपी सती पार्वती के रूप में पर्वत राज के घर पैदा होती है। वह शिव की प्राप्ति के लिए फिर तप करती है। कुंडलिनी अपना अभियान अगले जन्म में फिर से शुरु कर देती है। मैटाफोरिक कथा में इसका मतलब है कि उस कुंडलिनी को धारण करने वाला योगी अपने अगले जन्म में अपने अंतिम लक्ष्य की पूर्ति के लिए हिमालय में योगसाधना करने चला जाता है। वहाँ इंद्र अपनी गद्दी खो जाने के डर से कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने के लिए भेजता है। शिव उसे अपनी दृष्टि से जला देते हैं। यहाँ शिव, योगी की सुप्त अंतरात्मा हैं। कामदेव दुनिया की रंगरलियों का रूपक है। यदि योगी की कुंडलिनी उसकी आत्मा से मिलन को उत्सुक हो, तो दुनिया की रंगरलियां आत्मा का अहित नहीँ कर सकतीं, बल्कि खुद ही क्षीण हो जाती हैं। पार्वती के माता-पिता प्रारंभ में पार्वती को शिव से विवाह से रोकते हैं। दरअसल मन-बुद्धि ही पार्वती के माता पिता के प्रतीक हैं। कुंडलिनी की उत्पत्ति उन्हीं से होती है। वे कुंडलिनी से दुनियादारी की उपलब्धियों की ही अपेक्षा रखते हैं, उसे ईश्वर की प्राप्ति के लिए तप आदि प्रयास नहीं करने देना चाहते। शिव भी पार्वती को हतोत्साहित करने के लिए उसे घटिया भेष में मिलकर शिव की बुराइयां सुनाते हैं। दरअसल वह अज्ञान से ढकी प्रारंभिक योगी की आत्मा ही है जो भगवान के बारे में भ्रम पैदा करती रहती है। पर पार्वती तप में लगी रहती है। अंत में शिव प्रसन्न होकर उससे विवाह कर लेते हैं, मतलब कुंडलिनी जागरण हो जाता है। फिर पार्वती कैलाश को चली जाती है, मतलब कुंडलिनी सहस्रार में बस जाती है। उसके कार्तिकेय बेटा पैदा होता है। वह दिव्य सेना का अधिपति है। उसके बेटा गणेश भी जन्म लेता है, जो समस्याओं से बचाता है, और विघ्नों को हरता है। वास्तव में ये सभी काम जागृत कुंडलिनी के ही हैं। दिव्य सेना यहाँ शरीर की इन्द्रियों की प्रतीक है। शिवपुराण की मिथक कथा में शिव को भूत की तरह दिखाया गया है, जिसके प्रति पार्वती आकर्षित होती है। उसके माँ बाप उसे रोकते हैं। दरअसल अज्ञान से ढकी आत्मा ही शिव है, जो बाहर से अंधेरे भूत की तरह लगती है। पर असल में अंदर से वह प्रकाशरूप ही होती है। अहंकार और बुद्धि ही पार्वती रूपी कुण्डलिनी के माँ-बाप हैं। ये उसे शिव की ओर जाने से रोकते हैं।कालिदास के कुमारसम्भव के अनुसार पार्वती शिव को गुफा के वीराने से गृहस्थ जीवन की मुख्य धारा में लाना चाहती है। कुण्डलिनी भी इसी तरह से अज्ञाननिद्रा में डूबी आत्मा को जगाना चाहती है। साथ में लिखा है कि कामदेव के भस्म होने से सृष्टि व्यवस्था थम सी गई थी। फिर पार्वती ने शिव से विवाह किया और उनसे कामदेव को पुनर्जीवित करवाया। फिर सृष्टि की प्रक्रिया पुनः प्रारंभ हो गई। जब तक तीव्र कुंडलिनी योगसाधना चली होती है, तब तक योगी दुनियादारी से दूरी सी बना कर रखता है। कुण्डलिनी जागरण के बाद उसका मन पुनः दुनिया में रम जाने का करता है, यद्यपि ज्ञान के साथ। इसे ही कामदेव का पुनर्जन्म कहा गया है।देवीभागवत पुराण के अनुसार, पर्वत राज हिमालय और उसकी पत्नी मैना भगवती आदि पराशक्ति को प्रसन्न करती है। वही पार्वती के रूप में उनकी बेटी बन जाती है। वास्तव में अज्ञान से ढकी आत्मा ही पर्वत राज हिमालय है, और बुद्धि मैना है। जब दोनों अच्छे सांसारिक कर्मों से व मानवता से शक्ति को प्रसन्न करते हैं तो वह कुंडलिनी के रूप में उनके शरीर में स्थायी रूप से बस जाती है।
पार्वती अपने लास्य नृत्य से शिव को शांत करती हैं, जब वे विनाशकारी तांडव नृत्य करते हैं। असल में अज्ञान से भरी हुई जीवात्मा अशांत व भटकी हुई होती है। वह बहुत से गलत काम करती है। कुंडलिनी ही उसे प्रकाश प्रदान करके सन्मार्ग दिखाती है।
शाक्त के अनुसार, शिव पार्वती के घर पर निवास करते हैं। यहाँ पार्वती को मुख्य और शिव को गौण माना गया है। उनके आपसी विवाद से शिव नाराज होकर घर छोड़कर जाने लगते हैं। तब पार्वती दशमहाविद्याओं को उतपन्न करके उनसे शिव के भागने का हरेक द्वार बंद करवाती है, और शिव को जाने से रोकती है। दरअसल सहस्रार के सिवाय विभिन्न चक्र विशेषकर मूलाधार कुंडलिनी का घर है। वहाँ उसका प्रभुत्व रहता है। वहाँ जीवात्मा ज्यादा सहज नहीं रहता। किसी कारणवश कुंडलिनी के शिथिल पड़ने से वह वहाँ से भागने लगता है। फिर कुण्डलिनी पंचमकारों और उनसे उत्पन्न पाँच वीभत्स भावों का आश्रय लेती है। इससे वह बहुत मजबूत होकर जीवात्मा को जाने से रोकती है। क्योंकि जहाँ कुंडलिनी है, वहाँ जीवात्मा है। उसके भागने के लिए कहे गए विभिन्न मार्ग कुंडलिनी चक्र ही हैं। कई स्थानों पर कुंडलिनी चक्रों की संख्या दस भी बताई गई है।एक मिथक के अनुसार, पार्वती नहा रही होती है। उसने अपने बेटे गणेश को दरवाजे पर पहरेदार के बतौर रखा होता है। गणेश शिव को भी अंदर नहीँ जाने देते। शिव नाराज होकर उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। इससे पार्वती शिव से बहुत नाराज होती है। फिर उसे प्रसन्न करने के लिए शिव गणेश को हाथी का सिर लगाते हैं। दरअसल, कुंडलिनी चाहती है कि शरीर में उसका सबसे अधिक प्रभुत्व रहे। गणेश इन्द्रियों का नायक है। वह दुनिया की फालतू चीजों को कुंडलिनी का प्रभुत्व नष्ट करने से रोकता है। वह बाहर से आए भगवानों को भी ऐसा करने से रोकता है। इससे बाहरी धार्मिक संगठन नाराज होकर उसे सजा देते हैं। पर उन्हें कुण्डलिनी की शक्ति के आगे झुककर उसे छोड़ना पड़ता है। यद्यपि वह दुनिया के द्वारा की गई उपेक्षा से काफी क्षीण हो जाता है। शाक्त पंथ में यह भी आता है कि शक्ति के बिना शिव एक शव है। यह सत्य ही है क्योंकि कुंडलिनी के संयोग के बिना जीवात्मा अचेतन और अंधकार से भरा हुआ होता है। जब सहस्रार में उसका कुंडलिनी से विवाह होता है, तभी वह शिव बनता है। उपरोक्त सभी तथ्यों से जाहिर है कि कुंडलिनी योग ही शिव व पार्वती से जुड़ी मिथक कथाओं के मूल में है।
कुंडलिनी ही एक अधिकारी को सच्चा अधिकारी बनाती है
दोस्तों, अधिकारी मुझे बचपन से ही अच्छे लगते हैं। मुझे उनमें एक देवता का रूप नजर आता था। उनमें मुझे एक अपनेपन और सुरक्षा की भावना नजर आती थी। बदले में, अधिकारियों का भी मेरे प्रति एक विशेष प्रेम होता था। अधिकारी का जीवन जीते हुए अब मुझे यह समझ आ रहा है कि ऐसा क्यों होता था।
अधिकारी देवता की तरह अद्वैतशील होते हैं
एक अधिकारी काम करते हुए भी कुछ काम नहीं करता। तभी तो कहा जाता है कि अधिकारी कुछ काम नहीं करते। वास्तव में एक अधिकारी सभी काम अद्वैत के साथ करता है।अद्वैत के साथ किया गया काम काम नहीं रह जाता। वही औरों से काम करवा सकता है, जो खुद न तो काम करता है, औऱ न ही निकम्मा रहता है। यह ऐसे ही है जैसे कि पानी की मझदार में न फंसा हुआ व्यक्ति ही पानी में फंसे हुए दूसरे व्यक्ति को पानी से बाहर निकाल सकता है। औरों से काम करवाना भी एक काम ही है। अद्वैत के साथ रहने से एक अधिकारी के काम न तो काम बने रहते हैं, और न ही निकम्मापन। एक प्रकार से उसके सारे काम काम की परिभाषा से बाहर हो जाते हैं। यदि अधिकारी खाली बैठा रहे, तो वह निकम्मा कहलाएगा। निकम्मापन भी काम के ही दायरे में आता है, क्योंकि काम और निकम्मापन दोनों एक-दूसरे के सापेक्ष हैं, और एक-दूसरे से शक्ति प्राप्त करते हैं। इसलिए काम के दायरे से बाहर होने के लिए यह जरूरी है कि वह अद्वैत के साथ लगातार काम करता रहे। क्योंकि अद्वैत और कुंडलिनी हमेशा साथ रहते हैं, इसलिए प्रत्यक्ष तौर पर भी कुंडलिनी का सहारा लिया जा सकता है। तभी वह अपने अधीनस्थ लोगों से उत्तम श्रेणी का भरपूर काम ले सकता है।
देवताओं के सर्वोच्च अधिकारी भगवान गणपति भी अद्वैत की साक्षात मूर्ति हैं
भगवान गणेश जी को गणनायक, गणपति, गणनाथ, विघ्नेश आदि नामों से भी जाना जाता है। ये सभी नाम नेतृत्व के हैं। इसीलिए वे सभी देवताओं से पहले पूजे जाते हैं। शास्त्रों ने उन्हें विशेष रूप दिया है। उनका मुँह वाला भाग एक हाथी का है, और बाकी शरीर एक मनुष्य का है। यह रूप अद्वैत का परिचायक है। यह सुंदरता और कुरूपता के बीच के अद्वैत को इंगित करता है। यह उस शक्तिशाली अद्वैत को दर्शाने का एक प्रयास है, जो जानवर और मनुष्य के सहयोग से पैदा होता है। हाथी स्वयं भी अद्वैत भाव का परिचायक होता है। उसमें एक अद्वैतशील संत के जैसी मस्ती और बेफिक्री होती है। हाथी कामभाव व उससे संबंधित मूलाधार चक्र का भी परिचायक है, जो एक नायक या नेता के जैसे सबसे महत्त्वपूर्ण और सर्वप्रथम स्थान पर आता है।
एक सच्चे अधिकारी और कुंडलिनी योगी के बीच समानता
दोनों ही प्रकार के लोग अद्वैतशील होते हैं। दोनों में ही अनासक्ति होती है। दोनों ही हर समय आनन्दित और हंसमुख रहते हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि कुंडलिनी योग से अधिकारी में निपुणता की कमी पूरी हो सकती है। इसलिए एक अधिकारी को कुण्डलिनी योग जरूर करना चाहिए। प्रेम प्रसंग से भी कुंडलिनी/अद्वैत का विकास होता है। तभी आपने देखा होगा कि अधिकांश अधिकारी वर्ग के लोग इश्क-मोहब्बत के कुछ ज्यादा ही दीवाने होते हैं।
एक अधिकारी के लिए “शरीरविज्ञान दर्शन” जैसे अद्वैत दर्शन की अहमियत
हिन्दू शास्त्र और पुराण अद्वैत की भावना का विकास करते हैं। इसलिए एक अधिकारी को प्रतिदिन उन्हें पढ़ना चाहिए। इसी कड़ी में प्रेमयोगी वज्र ने “शरीरविज्ञान दर्शन” नामक पुस्तक की रचना की है। उसे लोग आधुनिक पुराण भी कहते हैं, क्योंकि वह पूरी तरह से वैज्ञानिक है। कम से कम उसे पढ़ने में तो संकोच नहीं होना चाहिए।
अद्वैत से ही काम करने की प्रेरणा मिलती है
यह आमतौर पर देखा जाता है कि अद्वैतशील आदमी के काम के आनंद और मस्ती को देखकर बाकी लोग भी काम करने लग जाते हैं। यदि कभी काम के लिए बोलना भी पड़ जाए तो वह इतनी मित्रता व प्यार से होता है कि वह आदेश प्रतीत नहीं होता। एक प्रकार से वह बोलना भी न बोलने के बराबर ही हो जाता है। असली अधिकारी का गुण भी यही है कि उसके संपर्क में आते ही लोग खुद ही अच्छे ढंग से काम करने लग जाते हैं। लोगों में अपनी अलग ही विकास की सोच पैदा हो जाती है। लोग अपने काम से आनन्दित और हँसमुख होने लगते हैं। यदि काम करवाने के लिए अधिकारी को बोलना पड़े या आदेश देना पड़े, तो इसका मतलब है कि अधिकारी के अद्वैतशील व्यवहार में कमी है। वास्तव में अधिकारी बोलते हुए भी नहीं बोलते, और आदेश देते हुए भी आदेश नहीं देते। सच्चे अधिकारी गजब के कलाकार होते हैं।
In honor of Ganesha parva/chaturthi (गणेश पर्व/चतुर्थी के सम्मान में)
Ganesh is not only an idol, but also a very good Kundalini carrier. Actually, mental Kundalini is worshipped indirectly through superimposing her over the physical structure of an idol. Otherwise how can a mental image be worshipped that is inseparable from the own self of the worshipper for one can worship the separately existing other thing only, not his own self. In this way, God Ganesha’s physical structure is simplest, semi real and non judgemental that’s why it doesn’t interfere with the process of focusing one’s mental image over it. On the other hand, too attractive/comparatively fully real idol-structures of other gods may interfere with this process little or more specially in case of an unaccustomed and novice kundalini meditator. Ganesha idol is an intermediary link between nonliving god-symbols (stone etc.) and fully personified god-statues/idols, thus having properties of both of these intermixed together. It is the Link between inanimate vedic deity symbols and full fledged personified gods of later history. His head of elephant is there only to replace that with the head of personified mental kundalini.
गणेश केवलमात्र एक मूर्ति नहीं है, अपितु एक सर्वोत्तम कुण्डलिनी वाहक भी है। वास्तव में कुण्डलिनी की पूजा अप्रत्यक्ष रूप से, उसे देव-मूर्ति के ऊपर आरोपित करके की जाती है। नहीं तो मानसिक कुण्डलिनी की पूजा कैसे की जा सकती है, क्योंकि किसी दूसरी व बाहरी वस्तु की ही पूजा की जा सकती है, अपने आप की (मानसिक कुण्डलिनी के रूप में अभिव्यक्त) नहीं। इस मामले में, भगवान गणेश की सर्वसाधारण, कम वास्तविक व निष्पक्ष मूर्ति सर्वोत्तम प्रतीत होती है, क्योंकि वह अपने ऊपर कुण्डलिनी का आरोपण करवाने की ध्यानात्मक प्रक्रिया में अधिक व्यवधान उत्पन्न नहीं करती। दूसरी ओर अन्य देवी-देवताओं की आकर्षक व अपेक्षाकृत रूप से अधिक वास्तविक मूर्तियां उस प्रक्रिया के दौरान अपने प्रति आकर्षण पैदा करके, उस प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न कर सकती हैं, विशेषकर के असहज व नए-नवेले कुण्डलिनी साधक के मामले में। गणेश की मूर्ति जड़ देव-प्रतिमाओं (पत्थर आदि) व पूर्णतः मनुष्याकृत देव-मूर्तियों के बीच की कड़ी है, अतः यह दोनों ही प्रकार की मूर्तियों के गुणों को अपने अंदर समाहित करती है। यह निर्जीव वैदिक देव प्रतिमाओं व अवांतर पूर्णमनुष्याकृत देव प्रतिमाओं के बीच की कड़ी है। इसको हाथी का शीश इसीलिए लगाया गया है, ताकि उसे मानसिक मनुष्याकृत कुण्डलिनी के शीश से मन से बदला जा सके।