दोस्तो, मैं पिछली से पिछली पोस्ट में बात कर रहा था कि कैसे कुछ बिमारियां विशेषकर आनुवंशिक रोग आदमी को महामानव बनने की तरफ ले जाती हैं। मैंने खुद देखा है कि जो अपने जीवन के बाद के दौर में उन बिमारियों से प्रभावित होने होते हैं, वे जिंदगी के शुरुआती दौर में बहुत ज्यादा तेज दिमाग़ वाले होते हैं। मतलब कि वे जागृति के बहुत करीब होते हैं। कई तो जागृत भी हो जाते हैं। शायद उनकी जो शक्ति शरीर के किसी सिस्टम की नाकामी से बच कर अतिरिक्त रूप से जमा हो जाती है, वह बुद्धि को बढ़ाने और उससे जागृति पैदा करने में खर्च हो जाती है। वैसे लोग आम समाज से थोड़ा हट कर लगते हैं। वे सबके बीच में अलग ही चमकते हैं। उनका व्यवहार भी सबसे अलग व विशेष जैसा होता है, और काम भी। निसंदेह वे आकर्षक तो होते ही हैं। उनसे दोस्ती करने के लिए बहुत से लोग लालायित जैसे रहते हैं। दोस्ती करके उन्हें बहुत लाभ भी मिलता है, हालांकि यह उनके अजीब स्वभाव के कारण कई बार मुश्किल हो सकता है। इसी तरह पिछली पोस्ट में इस संभावना पर बात हो रही थी कि क्या कुण्डलिनी योग से मृत या मरता हुआ शरीर पुनः जीवित हो सकता है। मुझे लगता है कि अगर शक्ति को सही ढंग से घुमाते हुए शरीर के बीमार हिस्सों पर सही से केंद्रित किया जाता रहे, तो ऐसा हो भी सकता है। पर इसके लिए बहुत समय और सूक्ष्म योग तकनीकें चाहिए। यह बहुत सूक्ष्म विज्ञान है। मैंने ऑटोबियोग्राफी ऑफ ए योगी और अन्य कई जगह एक सत्य घटना पढ़ी थी कि ज्यादा खाना खाने वाली एक बहू अपनी सास के ताने से दुखी होकर एक सुनसान जगह पर बैठी थी जब एक योगी ने उसे कंठकूप पर प्राण शक्ति को केंद्रित करने वाला योग सिखाया, जिसके बाद उसे कभी खाना खाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। गले के गड्ढे में कोई भी शक्ति को केंद्रित कर सकता है, पर वह सूक्ष्म तकनीक किसी को पता नहीं जिससे वह प्रभाव पैदा हो। किसी का सिर भारी हो जाएगा, किसी को सिरदर्द होएगा आदि। सबसे बड़ी बात कि विश्वास कैसे होगा कि प्रभाव पैदा हो गया है। क्योंकि प्रभाव होने पर भी आदमी डर के मारे जबरदस्ती खाता ही रहेगा कि कहीं वह भूखा न मर जाए। ऐसा ही सभी विद्याओं के मामले में होता है, जब आदमी को विश्वास नहीं होता या उसे पता ही नहीं चलता कि उसे विद्या आ गई है। इसीलिए जानकीर गुरु की जरूरत पड़ती है। अब जैसे प्रेमी जोड़ा एकदूसरे के अंदर शक्ति का संचार करता है, वैसे ही कोई निपुण योगी मृत शरीर में भी शक्ति का संचार कर सकता है, सिद्धांत तो यही कहता है। शायद यही मृतसंजीवनी विद्या का आधार हो।
कई लोग छोटी-छोटी बातों की वजह से दोस्ती तोड़ने या ठुकराने पर आ जाते हैं, जिससे वे अपने लाभ से वँचित रह जाते हैं। उदाहरण के लिए, एकदिन मेरे एक फेसबुक मित्र ने एक पोस्ट शेयर की, जिसमें इस अवैज्ञानिक पर शास्त्रीय बात का मजाक बनाया हुआ था कि मोर के आँसू पीकर मोरनी गर्भवती हो जाती है। ऐसा प्रवचन करने वाली एक साध्वी की खिल्ली भी उड़ाई हुई थी। बिना तर्कवितर्क के दुष्प्रचार करने की उनकी आदत ही बन गई थी। मैंने उन्हें इसका अध्यात्मवैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिया। मैंने कहा कि भाई, ऐसी कथाओं के बहुत मनोरंजक और ज्ञानवर्धक आध्यात्मिक अर्थ होते हैं, इन्हें कृपया भौतिक दुनिया से न जोड़ें। मोर बादल को देखकर नाचता है। मतलब वह अवसाद के माहौल में भी खुश रहना जनता है। मोर एक योगी की तरह है। संभवतः इसीलिए योगीश्वर भगवान श्रीकृष्ण मोरमुकुट पहनते थे। मतलब मोर ने दुःख या अवसाद के आंसू को गिरने दिया। उसने उन्हें रोका नहीं। अवसाद की मनोस्थिति को अभिव्यक्त होने दिया। अवसाद के विचारों को तनिक उमड़ने दिया। मोरनी यहाँ बुद्धि और मोर आत्मा का प्रतीक है। मोर मतलब आत्मा अंधेरारूपी अवसाद को अनुभव कर रहा है। उस आँसू मतलब अभिव्यक्त कटु विचारों की शक्ति को बुद्धि ने ग्रहण कर लिया, और उससे सुंदर व शक्ति से भरे विचारों के रूप में पुत्र को पैदा किया। शास्त्रों में मन के सशक्त व सुंदर विचारों को पुत्र कहने का प्रचलन है। कुण्डलिनी चित्र सबसे सुंदर विचार है, इसलिए उसे सर्वश्रेष्ठ पुत्र या कार्तिकेय का रूप दिया है। सबसे अच्छे तरीके के अनुसार बुद्धि ने कुण्डलिनी योग करने का निर्णय लिया। इससे बुरे विचारों की शक्ति चमकीले कुण्डलिनी चित्र को लग गई, जिससे अवसाद का अंधेरा खत्म हो गया, और साथ में सम्भवतः कुण्डलिनी जागरण भी मिला। जो कुण्डलिनी योगी नहीं था, उसकी बुद्धि ने कलापूर्ण ढंग से आदमी से ऐसी क्रियाएं करवाईं, जिनसे सुन्दर विचार उमड़ते हैं, जैसे कि लेखन, चित्रकारी, संगीत-वादन, अभिनय आदि। इससे भी अवसाद के धूमिल विचारों की शक्ति इन सुंदर विचारों को लग गई। मतलब साफ है कि अवसाद के गुब्बारे को फूटने देना चाहिए, उसे अंदर बंद करके नहीं रखना चाहिए। मेरे साथ भी एकबार ऐसा ही हुआ था, जब मेरे सामने संसार के बहुत से रास्ते बंद हो गए थे। नया काम कुछ था नहीं, इसलिए पुराने विचार मोर के आँसू की तरह उमड़ रहे थे। फिर मैंने तांत्रिक कुण्डलिनी योग से उन विचारों की शक्ति कुण्डलिनी चित्र को दे दी। मित्र ने उक्त स्पष्टीकरण के बारे में कोई विचार-चर्चा नहीं की, बल्कि फ्रेंडलिस्ट से ही बाहर हो गया। इससे तो पूरी तरह से सिद्ध हो जाता है कि मेरा निरुत्तर करने वाला विश्लेषण सटीक था। दुष्प्रचार करने वाले इसी तरह जुबानी फायर करके गायब हो जाते हैं। आपकी क्या राय है?