कुंडलिनी जागरण से आत्मा की पारलौकिक परमावस्था का पता नहीं चलता 

मित्रो, मैं कुछ दिन पहले रिलेक्स होने के लिए इस कड़ी गर्मी में दिन की धूप में छतरी लेकर बाहर निकला। चारों तरफ गलियों की सड़कों का जाल था, पर छायादार पेड़ कम थे। जहाँ थे, वहाँ उनके नीचे चबूतरे नहीं बने थे बैठने के लिए। पूरी कॉलोनी में तीन-चार जगह  चबूतरे वाले पेड़ थे। मैं बारी-बारी से हर चबूतरे पर बैठता रहा, और आसपास से आ रही कोयल की संगीतमयी आवाज का आनंद लेता रहा। गाय और बैल मेरे पास आ-जा रहे थे, क्योंकि उनको पता था कि मैं उनके लिए आटे की पिन्नियां लाया था। अच्छा है, अगर सैरसपाटे के साथ कुछ गौसेवा भी होती रहे। एक छोटे चबूतरे पर पेड़ से सटा हुआ एक पत्थर था। मैं उसपे बैठा तो मेरा खुद ही एक ऐसा आसन लग गया, जिसमें मेरा स्वाधिष्ठान चक्र पेड़ को मजबूती से छू रहा था, और पीठ पेड़ के साथ सीधी और छाती के पीछे पीठ की हड्डी पेड़ से सटी हुई थी। इससे मेरे मन में वर्षों पुरानी रंगबिरंगी भावनाएं उमड़ने लगीं। बेशक पुरानी घटनाओं के दृश्य मेरे सामने नहीं थे, पर उनसे जुड़ी भावनाएँ बिल्कुल जीवंत और ताज़ा थीं। ऐसा लग रहा था जैसे कि वे भावनाएं सत्य हों और उस अनुभव के समय वर्तमान में ही बनी हों। यहाँ तक कि अपने असली घटनाकाल में भी वे भावनाएँ उतनी सूक्ष्म और प्रत्यक्ष रूप में अनुभव नहीं हुई थीं, जितनी उस स्मरणकाल में अनुभव हो रही थीं। भावनाओं के साथ आनंद तो रहता ही है। असल में भावनाएँ ही घटनाओं का सार या चेतन आत्मा होती है। भावना के बिना तो घटना निष्प्राण और निर्जीव होती है। सम्भवतः स्वाधिष्ठान चक्र को इसीलिए इमोशनल बेगेज या भावनाओं का थैला भी कहते हैं। वैसे तो सभी चक्रोँ के साथ विचारात्मक भावनाएँ जुड़ी होती हैं। स्वाधिष्ठान चक्र से इसलिए ज्यादा जुड़ी होती हैं, क्योंकि सम्भोग सबसे बड़ा अनुभव है, और उसी अनुभव के लिए आदमी अन्य सभी अनुभव हासिल करता है। मतलब कि सम्भोग का अनुभव हरेक अनुभव पर हावी होता है। विज्ञान भी इस बात को मानता है कि सम्भोग ही जीवन के हरेक पहलू के विकास के लिए मूल प्रेरक शक्ति है। क्योंकि स्वाधिष्ठान चक्र सम्भोग का केंद्र है, इसलिए स्वाभाविक है कि उससे सभी भावनाएं जुड़ी होंगी। 

किसी भी चीज में रहस्य इसलिए लगता है, क्योंकि हम उसे समझ नहीं पाते, नहीं तो कुछ भी रहस्य नहीं है। जो कुछ समझ आ जाता है, वह विज्ञान ही लगता है। पूरी सृष्टि हाथ पे रखे आंवले की तरह सरल और प्रत्यक्ष है, यदि लोग योग विज्ञान के नजरिए से इसे समझें, अन्यथा इसके झमेलों का कोई अंत नहीं है।

मूलाधार को ग्राउंडिंग चक्र इसलिए कहते हैं क्योंकि वह मस्तिष्क को ऐसे ही अपने से जोड़ता है, जैसे पेड़ की जड़ पेड़ को अपने से जोड़कर रखती है। मूल का शाब्दिक अर्थ ही जड़ होता है। जैसे जड़ मिट्टी के सहयोग से अपनी ऊर्जा पैदा करके पेड़ को पोषण भी देती है और खुद भी पेड़ के पत्तों से अतिरिक्त ऊर्जा को अपनी ओर नीचे खींचकर खुद भी मजबूत बनती है, उसी तरह मूलाधार भी सम्भोग से अपनी ऊर्जा पैदा करके मस्तिष्क को ऊर्जा की आपूर्ति भी करता है, और मस्तिष्क में निर्मित फालतू विचारों की ऊर्जा को अपनी तरफ नीचे खींचकर खुद भी ताकतवर बनता है।

फिर एक दिन मैं फिर से उसी पुरानी झील के किनारे गया। एक पेड़ की छाँव में बैठ गया। मुझे अपनी सेहत भी ठीक नहीं लग रही थी, और मैं थका हुआ सा महसूस कर रहा था। लग रहा था कि जुकाम के वायरस का हमला हो रहा था मेरे ऊपर, क्योंकि एकदम से मौसम बदला था। अचानक भारी बारिश से भीषण गर्मी के बीच में एकदम से कड़ाके की ठंड पड़ी थी। उससे स्वाभाविक है कि मन भी कुछ बोझिल सा था। सोचा कि वहाँ शांति मिल जाए। गंगापुत्र भीष्म पितामह भी इसी तरह गंगा नदी के किनारे जाया करते थे शांति के लिए। मुझे तो लगता है कि यह एक रूपक कथा है। क्योंकि भीष्म पितामह आजीवन ब्रह्मचारी थे, इसलिए स्वाभाविक है कि उनकी यौन ऊर्जा बाहर की ओर बर्बाद न होकर पीठ की सुषुम्ना नाड़ी से ऊपर चढ़ती थी। इसे ही ही भीष्म पितामह का बारम्बार गंगा के पास जाना कहा गया है। गंगा नदी सुषुम्ना नाड़ी को कहा जाता है। क्योंकि सुषुम्ना नाड़ी अपनी ऊर्जा रूपी दुग्ध से बालक रूपी कुंडलिनी-मन का पोषण-विकास करती है, इसीलिए गंगारूपी सुषुम्ना को माँ कहा गया है। थोड़ी देर बाद मैं मीठी और ताज़ा हवा की लम्बी सांस लेते हुए उस पर ध्यान देने लगा। इससे पुराने भावनात्मक विचार मन में ऐसे उमड़ने लगे, जैसे तेज हवा चलने पर आसमान में धूल उमड़ आती है। अगर आदमी धूल को देखने लगे, तो उसका दम जैसा घुटता है, और मन उदास हो जाता है। यदि उस पर ध्यान न देकर केवल हवा को महसूस करे, तो वह प्रसन्नचित हो जाता है। मैंने भी उन विचारों की धूल पर ध्यान देना बंद कर दिया, और सांसों पर ध्यान देने लगा। विचार तो तब भी थे, पर तब परेशान नहीं कर रहे थे। सांस और विचार हमेशा साथ रहते हैं। आप उन्हें अलग नहीं कर सकते, ऐसे ही जैसे हवा और धूल साथ रहते हैं। हवा है, तो धूल भी है, और धूल है तो हवा भी है। अगर आप धूल हटाने के लिए दीवार आदि लगा दो, तो वहाँ हवा भी नहीं आएगी। इसी तरह यदि आप बलपूर्वक विचारों को दबाएंगे, तो सांस भी दब जाएगी। और ये आप जानते ही हैँ कि सांस ही जीवन है। इसलिए विचारों को दबाना नहीं है, उनसे ध्यान हटाकर सांसों पर केंद्रित करना है। विचारों को आतेजाते रहने दो। जैसे धूल के कण थोड़ी देर उड़ने के बाद एकदूसरे से जुड़कर या नमी आदि से भारी होकर नीचे बैठने लगते हैँ, उसी तरह विचार भी श्रृंखलाबद्ध होकर मन के धरातल में गायब हो जाते हैं। बस यह करना है कि उन विचारों की धूल को ध्यान रूपी छेड़ा नहीं देना है। बाहर के विविध दृश्य नजारे और आवाजें मन के धरातल को मजबूत करते हैँ, जिससे फालतू विचार उसपे लैंड करते रह सकें। इसीलिए लोग ऐसे कुदरती नजारों की तरफ भागते हैं। जैसे धूल का कुछ हिस्सा आसमान में दूर गायब हो जाता है और बाकि ज्यादातर हिस्सा फिर से उसी जमीं पर बैठता है, इसी तरह विचारों के उमड़ने से उनका थोड़ा हिस्सा ही गायब होता है, बाकि बड़ा हिस्सा पुनः उसी मन के धरातल पर बैठ जाता है। इसीलिए तो एक ही किस्म के विचार लम्बे समय तक बारबार उमड़ते रहते हैं, बहुत समय बाद ही पूरी तरह गायब हो पाते हैं। बारीक़ धूल जैसे हल्के विचार जल्दी गायब हो जाते हैं, पर मोटी धूल जैसे आसक्ति से भरे स्थूल विचार ज्यादा समय लेते हैं। इसीलिए यह नहीं समझना चाहिए कि एकबार के साक्षीभाव से विचार गायब होकर मन निर्मल हो जाएगा। लम्बे समय तक साधना करनी पड़ती है। आसान खेल नहीं है। इसलिए जिसे जल्दी हो और जो इंतजार न कर सके, उसे  साधना करने से पहले सोच लेना चाहिए। वैसे भी मुझे लगता है कि यह दुनिया से कुछ दूरी बनाने वाली साधना उन्हीं लोगों के लिए योग्य है, जो अपनी कुंडलिनी को जागृत कर चुके हैं, या जो दुनिया के लगभग सभी अनुभवों को हासिल कर चुके हैं। आम लोग तो इससे गुमराह भी हो सकते हैं। आम लोगों के लिए तो व्यावहारिक कर्मयोग ही सर्वोत्तम है। हालांकि जो लोग एकसाथ विविध साधना मार्गों पर चलने की सामर्थ्य और योग्यता रखते हैं, उनके लिए ऐसी कोई पाबंदी नहीं। थोड़ी ही देर में मेरा शरीर खुद ही भिन्न-भिन्न सिटिंग पोज बनाने लगा, ताकि कुंडलिनी ऊर्जा को मूलाधार चक्र से ऊपर चढ़ने में आसानी हो। स्वतोभूत योगासनों को मैंने पहली बार ढंग से महसूस किया, हालांकि घर में बिस्तर पर रिलेक्स होते हुए मेरे आसन लगते ही रहते हैं, ख़ासकर शाम के 5-6 बजे के बीच। सम्भवतः ऐसा दिनभर की थकान को दूर करने के लिए होता है, संध्या का ऊर्जावर्धक प्रभाव भी होता है साथ में। तो लगभग सुबह के थकानरहित समय में झील के निकट मेरी कुंडलिनी ऊर्जा का उछालें मारने का मतलब था कि मेरी थकान काम के बोझ से नहीं हुई थी, बल्कि किसी आसन्न रोग की वजह से थी। वह उसका एडवांस में इलाज करने के लिए आई थी। कुंडलिनी ऊर्जा इंटेलिजेंट होती है, इसलिए सब समझती है। विचारों के प्रति साक्षीभाव के साथ कुछ देर तक लम्बी और गहरी साँसे लेने से कुंडलिनी ऊर्जा को ऊपर चढ़ाने वाला दबाव तैयार हो गया था। जूते के सोल की पिछली नोक की हल्की चुभन से मूलाधार चक्र आर्गेस्मिक आनंदमयी संवेदना के साथ बहुत उत्तेजित हुआ, जिससे कुंडलिनी ऊर्जा उफनती नदी की तरह ऊपर चढ़ने लगी। विभिन्न चक्रोँ के साथ इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना  नाड़ियों में आर्गेस्मिक आनंदमयी संवेदना महसूस होने लगी। ऐसा लग रहा था कि जैसे कुंडलिनी ऊर्जा से पूरा शरीर रिचार्ज हो रहा था। साँसें भी आर्गेस्मिक आनंद से भर गई थीं। कुंडलिनी के साथ आगे के आज्ञा चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और वज्र शिखा के संयुक्त ध्यान से ऊर्जा आगे से नीचे के हिस्से में उतरकर सभी चक्रोँ के साथ पूरे शरीर को शक्तियुक्त कर रही थी। दरअसल आमधारणा के विपरीत मूलाधार चक्र में अपनी ऊर्जा नहीं होती, बल्कि उसे संभोग से ऊर्जा मिलती है। मूलाधार को रिचार्ज किए बगैर ही अधिकांश लोग वहाँ से ऊर्जा उठाने का प्रयास उम्रभर करते रहते हैं, पर कम ही सफल हो पाते हैं। सूखे कुएँ में टुलु पम्प चलाने से क्या लाभ। मूलाधार के पूरी तरह डिस्चार्ज होने के बाद यौन अंगों, विशेषकर प्रॉस्टेट का दबाव बहुत कम या गायब हो जाता है। उससे फिर से मन सम्भोग की तरफ आकर्षित हो जाता है, जिससे मूलाधार फिर से रिचार्ज हो जाता है। वैसे तो योग आधारित साँसों से भी मूलाधार चक्र शक्ति से आवेशित हो जाता है, जो संन्यासियों के लिए एक वरदान की तरह ही है। चाय से प्रॉस्टेट समस्या बढ़ती है, ऐसा कहते हैं। दरअसल चाय से मस्तिष्क में रक्तसंचार का दबाव बढ़ जाता है, इसीलिए तो चाय पीने से सुहाने विचारों के साथ फील गुड महसूस होता है। इसका मतलब है कि फिर यौन अंगों से ऊर्जा को ऊपर चढ़ाने वाला चुसाव नहीं बनेगा। इससे कुंडलिनी ऊर्जा घूमेगी नहीं, जिससे यौन अंगों समेत पूरे शरीर के रोगी होने की सम्भावना बढ़ेगी। उच्च रक्तचाप से भी ऐसी ही सैद्धांतिक वजह से प्रॉस्टेट की समस्या बढ़ती है। ऐसा भी लगता है कि प्रॉस्टेट की इन्फेलेमेशन या उत्तेजना भी इसके बढ़ने की वजह हो सकती है। स्वास्थ्य वैज्ञानिक भी ऐसा ही अंदेशा जता रहे हैं। जरूरत से ज्यादा तांत्रिक सम्भोग से प्रॉस्टेट उत्तेजित हो सकती है। तांत्रिक वीर्यरोधन से एक चुसाव भी पैदा हो सकता है जिससे संक्रमित योनि का गंदा स्राव प्रॉस्टेट तक भी पहुंच सकता है, जिससे प्रोस्टेट में इन्फेलेमेशन और संक्रमण पैदा हो सकता है। इसे एंटीबायोटिक से ठीक करना भी थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इसीलिए खूब पानी पीने को कहा जाता है, ताकि गंदा स्राव मूत्रनाल से बाहर धुल जाए। योनि-स्वास्थ्य का भी भरपूर ध्यान रखा जाना चाहिए। वैसे आजकल प्रोस्टेट की हर समस्या का इलाज है, प्रोस्टेट कैंसर का भी, यदि समय रहते जाँच में लाया जाए। क्योंकि पुराने जमाने में ऐसी सुविधाएं नहीं थीं, इसीलिए तंत्र विद्या को गुप्त रखा जाता था। इस ब्लॉग की एक पुरानी पोस्ट में कबूतर बने अग्निदेव को दिए माता पार्वती के श्राप को जो दिखाया गया है, जिसमें वे उसे उसके द्वारा किए घृणित कार्य की सजा के रूप में उसे लगातार जलन महसूस करने का शाप देती हैं, वह सम्भवतः प्रॉस्टेट के संबंध में ही है। योगी इस जलन की ऊर्जा को कुंडलिनी को देने के लिए पूर्ण सिद्धासन लगाते हैं। इसमें एक पाँव की एड़ी से मूलाधार पर दबाव लगता है, और दूसरे पाँव की एड़ी से आगे के स्वाधिष्ठान चक्र पर। इसलिए यह अर्ध सिद्धासन से बेहतर है क्योंकि अर्धसिद्धासन में दूसरा पैर भी जमीन पर होने से स्वाधिष्ठान पर नुकीला जैसा संवेदनात्मक और आर्गेस्मिक दबाव नहीं लगता। इससे स्वाधिष्ठान की ऊर्जा बाहर नहीं निकल पाती। कुंडलिनी ऊर्जा के घूमते रहने से यह यौनता-आधारित सिलसिला चलता रहता है, और आदमी का विकास होता रहता है। हालांकि यह सिलसिला साधारण आदमी में भी चलता है, पर उसमें इसका मुख्य लक्ष्य द्वैतपूर्ण दुनियादारी से संबंधित ही होता है। जबकि कुंडलिनी योगी का लक्ष्य कुंडलिनी युक्त अद्वैतपूर्ण जीवनयापन होता है। साधारण आदमी में बिना किसी प्रयास के ऊर्जा चढ़ती है, इसलिए यह प्रक्रिया धीमी और हल्की होती है। जबकि कुंडलिनी योगी अपनी इच्छानुसार ऊर्जा को चढ़ा सकता है, क्योंकि अभ्यास से उसे ऊर्जा नाड़ियों का और उन्हें नियंत्रित करने का अच्छा ज्ञान होता है, जिससे शक्ति उसके वश में आ जाती है। तांत्रिक योगी तो इससे भी एक कदम आगे होता है। इसीलिए तांत्रिकों पर सामूहिक यौन शोषण के आरोप भी लगते रहते हैं। वे कठोर तांत्रिक साधना से शक्ति को इतना ज्यादा वश में कर लेते हैं कि वे कभी सम्भोग से थकते ही नहीं। ऐसा ही मामला एक मेरे सुनने में भी आया था कि एक हिमालयी क्षेत्र में मैदानी भूभाग से आए तांत्रिक के पास असली यौन आनंद की प्राप्ति के लिए महिलाओं की पंक्ति लगी होती थी। कुछ लोगों ने हकीकत जानकर उसे पीटा भी, फिर पता नहीं क्या हुआ। तांत्रिकों के साथ यह बहुत बड़ा धोखा होता है। आम लोग उनके कुंडलिनी अनुभव को नहीं देखते, बल्कि उनकी साधना के अंगभूत घृणित खानपान और आचार-विचार को देखते हैं। वे आम नहीं खाते, पेड़ गिनते हैं। इससे वे उनका अपमान कर बैठते हैं, जिससे उनकी तांत्रिक कुंडलिनी वैसे लोगों के पीछे पड़ जाती है, और उनका नुकसान करती है। इसी को देवता का खोट लगना, श्राप लगना, बुरी नजर लगना आदि कहा जाता है। इसीलिए तांत्रिक साधना को, विशेषकर उससे जुड़े तथाकथित कुत्सित आचारों-विचारों को गुप्त रखा जाता था। साधारण लोक परिस्थिति में भी तो लोग तांत्रिक विधियों का प्रयोग करते ही हैं, पर वे साधारण सम्भोग चाहते हैं, यौन योग नहीं। शराब से शबाब हासिल करना हो या मांसभक्षण से यौनसुख को बढ़ाना हो, सब में यही सिद्धांत काम करता है। ऐसी चीजों से दिमाग़ के विचार शांत होने से दिमाग़ में एक वैक्यूम पैदा हो जाता है, जो मूलाधार से ऊर्जा को ऊपर चूसता है। इससे आगे के चैनल से ऊर्जा नीचे आ जाती है। इससे ऊर्जा घूमने लगती है, जिससे सभी अंगों के साथ मूलाधार से जुड़े अंग भी पुनः सक्रिय और क्रियाशील हो जाते हैं। मुझे तो लगता है कि बीयर पीने से जो पेशाब खुल कर आता है, वह इससे यौनांगों का दबाव कम होने से ही आता है, न कि इसमें मौजूद पानी से, जैसा अधिकांश लोग समझते हैं। सीधे पानी पीने से तो पेशाब इतना नहीं खुलता, चाहे जितना मर्जी पानी पी लो। अल्कोहल का प्रभाव मिटने पर पुनः दबाव बन जाए, यह अलग बात है। अब कोई यह न समझ ले कि अल्कोहल से कुंडलिनी ऊर्जा को घूमने में मदद मिलती है, इसलिए यह स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। हाहाहा। टेस्टॉस्टिरोन होर्मोन ब्लॉकर से इसलिए प्रॉस्टेट दबाव कम होता है, क्योंकि उससे इस होर्मोन की यौनाँग प्रेरक शक्ति क्षीण हो जाती है। इसके विपरीत, बहुत से आदर्शवादी पुरुष अपनी स्त्री को संतुष्ट नहीं कर पाते। मुझे मेरा एक दोस्त बता रहा था कि एक आदर्शवादी और संत प्रकार के उच्च सरकारी प्रोफेसर की पत्नि जो खुद भी एक सरकारी उच्च अधिकारी थी, उसने अपने कार्यालय से संबंधित एक बहुत मामूली से अविवाहित नवयुवक कर्मचारी से अवैध संबंध बना रखे थे। जब उन्हें इस बात का पता पुख्ता तौर पर चला, तो उनको इतना ज्यादा भावनात्मक सदमा लगा कि वे बेचारे सब कुछ यहीं छोड़कर विदेश चले गए, क्योंकि उन्हें पता चल गया था कि एक औरत को जब अश्लीलता का चस्का लग जाए तो उसे उससे पीछे हटाना बहुत मुश्किल है, हालांकि असम्भव नहीं है। हालांकि एक औरत के लिए व उसके अवैध प्रेमी के लिए ऐसा करना बहुत नुकसानदायक हो सकता है, विशेषकर यदि उसका असली प्रेमी या पति सिद्ध प्रेमयोगी हो। शिवपुराण के अनुसार जब शिव और पार्वती का विवाह हो रहा था, तो ब्रह्मा उस विवाह में पुरोहित की भूमिका निभा रहे थे। शिवपार्वती से पूजन करवाते समय ब्रह्मा की नजर पार्वती के पैर के नख पर पड़ गई। उसे वे मोहित होकर देखते ही रहे और पार्वती पर कमासक्त हो गए। इससे उनका वीर्यपात हो गया। शिव को इस बात का पता चल गया। इससे शिव इतने ज्यादा क्रोधित हुए कि प्रलय मचाने को तैयार हो गए। बड़ी मुश्किल से देवताओं ने उन्हें मनाया, फिर भी उन्होंने ब्रह्मा को भयंकर श्राप दे ही दिया। प्रलय तो टल गई पर ब्रह्मा की बहुत बड़ी दुर्गति हुई। यदि पार्वती के मन में भी विकार पैदा हुआ होता, और वह ब्रह्मा के ऊपर कमासक्त हुई होती, तो उसे भी शिव की कुंडलिनी शक्ति दंड देती। यदि वह शिव की अतिनिकट संगति के कारण उस दंड से अप्रभावित रहती, तो उस दंड का प्रभाव उससे जुड़े कमजोर मन वाले उसके नजदीकी संबंधियों पर पड़ता, जैसे उसकी होने वाली संतानेँ आदि। ऐसा सब शिव की इच्छा के बिना होता, क्योंकि कौन अपनी पत्नि को दंड देना चाहता है। दरअसल कुंडलिनी खुद ही सबकुछ करती है। यदि ऐसा कुत्सित कुकर्म अनजाने में हो जाए तो इसका प्रायश्चित यही है कि दोनों अवैध प्रेमी मन से एकदूसरे को भाई-बहिन समझें और यदि कभी अपनेआप मुलाक़ात हो जाए, तो एक दूसरे को भाई-बहिन कह कर सम्बोधित करें, और सच्चे मन से कुंडलिनी से माफी मांगे, ऐसा मुझे लगता है। जो हुआ, सो हुआ, उसे भूल जाएं। आगे के लिए सुधार किया जा सकता है। मेरे उपरोक्त ऊर्जा-उफान से मुझे ये लाभ मिला कि एकदम से मुझे छीकें शुरु हो गईं, और नाक से पानी बहने लगा, जिससे जुकाम का वायरस दो दिन में ही गायब हो गया। गले तक तो वह लगभग पहुंच ही नहीं पाया। दरअसल वह कुंडलिनी ऊर्जा वायरस के खिलाफ इसी सुरक्षा चक्र को मजबूती देने के लिए उमड़ रही थी। इसी तरह एकबार कई दिनों से मैं किसी कारणवश भावनात्मक रूप से चोटिल अवस्था में था। शरीरविज्ञान दर्शन की भावना से कुंडलिनी मुझे स्वस्थ भी कर रही थी, पर कामचलाऊ रूप में ही। फिर एक दिन तांत्रिक कुंडलिनी योग की शक्ति से कुंडलिनी ऊर्जा लगातार मेरे दिल पर गिरने लगी। मैं मूलाधार, स्वाधिष्ठान और आज्ञा चक्र और नासिकाग्र के साथ छाती के बाईं ओर स्थित दिल पर भी ध्यान करने लगा। इससे दोनों कुंडलिनी चैनल भी महसूस हो रहे थे, और साथ में उससे दिल की ओर जाती हुई ऊर्जा भी और फिर पुनः नीचे उसी केंद्रीय चैनल में उसे जुड़ते हुए महसूस कर रहा था। यह सिलसिला काफी देर तक चलता रहा, जिससे मेरी यौन कुंडलिनी ऊर्जा से मेरा दिल बिल्कुल स्वस्थ हो गया। बाद में यह मेरे व्यवहार में एकाएक परिवर्तन से और लोगों के मेरे प्रति सकारात्मक व्यवहार से भी सिद्ध हो गया।

चलो, फिर से अध्यात्म की तरफ लौटते हैं। वैसे अध्यात्म भी दुनियादारी के बीच ही पल्लवित-पुष्पित होता है, उससे अलग रहकर नहीं, ऐसे ही जैसे सुंदर फूल काँटों के बीच ही उगते हैं। कांटे ही फूलों की शत्रुओं से रक्षा करते हैं। मैं पिछली पोस्ट में जो प्रकृति-पुरुष विवेक के बारे में बात कर रहा था, उसे अपने समझने के लिए थोड़ा विस्तार दे रहा हूँ, क्योंकि कई बार मैं यहाँ अटक जाता हूँ। चाहें तो पाठक भी इसे समझ कर फायदा उठा सकते हैं। वैसे है यह पूरी थ्योरी ही, प्रेक्टिकल से बिल्कुल अलग। हाँ, थ्योरी को समझ कर आदमी प्रेक्टिकल की ओर प्रेरित हो सकता है। जब कुछ क्षणों के लिए मुझे कुंडलिनी-पुरुष अपनी आत्मा से पूर्णतः जुड़ा हुआ महसूस हुआ, मतलब कि जब मैं प्रकृति से मुक्त पुरुष बन गया था, तब ऐसा नहीं था कि उस समय प्रकृति रूपी विचार और दृश्य अनुभव नहीं हो रहे थे। वे अनुभव हो रहे थे, और साथ में कुंडलिनी चित्र भी, क्योंकि वह भी तो एक विचार ही तो है। पर वे मुझे मुझ पुरुष के अंदर और उससे अविभक्त ऐसे महसूस हो रहे थे, जैसे समुद्र में लहरें होती हैं। इसका मतलब है कि वे उस समय प्रकृति रूप नहीं थे, क्योंकि उनकी पुरुष रूप आत्मा से अलग अपनी कोई सत्ता नहीं थी। आम साधारण जीवन में तो प्रकृति की अपनी अलग सत्ता महसूस होती है, हालांकि ऐसा मिथ्या होता है पर भ्रम से सत्य लगता है। दुनियादारी झूठ और भ्रम पर ही टिकी है। दरअसल कुंडलिनी चित्र अर्थात मन पुरुष और प्रकृति के मेल से बना होता है। जब वह निरंतर ध्यान से अज्ञानावृत आत्मा से एकाकार हो जाता है, तब वह शुद्ध अर्थात पूर्ण पुरुष बन पाता है। मतलब कि तब ही वह प्रकृति के बंधन से छूट पाता है। पूर्ण और शुद्ध पुरुष का असली अनुभव परमानंद स्वरूप जैसा होता है। इससे स्वाभाविक है कि उसके पूर्ण अनुभव के साथ भी तो मन के विचार चित्र तो उभरेंगे ही। पर तब वे ऐसे मिथ्या या आभासी महसूस होंगें जैसे चूने के ढेर में खींची लकीरें। मतलब उनकी सत्ता नहीं होगी, केवल पुरुष की सत्ता होगी। इसीलिए तो उस कुंडलिनी जागरण के चंद क्षणों में परमानंद के साथ सब कुछ पूरी तरह एक सा ही महसूस होता है, सबकुछ अद्वैत। जीवित मनुष्य में आनंद के साथ मन के विचार बंधे होते हैं। आनंद के साथ विचार आएंगे ही आएंगे। इस तरह से पूर्ण निर्विचार अवस्था के साथ आत्मरूप का अनुभव असम्भव के समान ही है जीवित अवस्था में। वैसे साधना की वह सर्वोच्च अवस्था होती है। वहाँ तक असंख्य आत्मज्ञानियों में केवल एक-आध ही पहुंच पाता है। उसीके पारलौकिक अनुभव को वेदों में लिखा गया है, जिसे आप्तवचन कहते हैं। उस पर विश्वास करने के इलावा पूर्ण मुक्त आत्मा की पारलौकिक अवस्था को जानने का कोई तरीका नहीं है। ऐसा नहीं है कि कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी इस परमावस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। वह कर सकता है, पर जानबूझकर नहीं करता। इसकी मुख्य वजह है परमावस्था का अव्यवहारिक होना। यह अवस्था संन्यास की तरह होती है। इस अवस्था में आदमी प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में भौतिक रूप से पिछड़ जाता है। यहाँ तक कि खाने के भी लाले पड़ सकते हैं। अभी मानव समाज इतना विकसित नहीं हुआ है कि इस अवस्था के योग्य उम्मीदवारों के भरणपोषण और सुरक्षा का उत्तरदायित्व संभाल सके। सम्भवतः प्राचीन भारत में कोई ऐसी कार्यप्रणाली विकसित कर ली गई थी, तभी तो उस समय संन्यासी बाबाओं का बोलबाला हुआ करता था। पर आज के तथाकथित आधुनिक भारत में ऐसे बाबाओं की हालत बहुत दयनीय प्रतीत होती है। प्राचीन भारत में समाज का, विशेषकर समाज के उच्च वर्ग का पूरा जोर कुंडलिनी जागरण के ऊपर होता था। यह सही भी है, क्योंकि कुंडलिनी ही जीवविकास की अंतिम और सर्वोत्तम ऊंचाई है। हिन्दुओं की अनेकों कुंडलिनी योग आधारित परम्पराओं में उपनयन संस्कार में पहनाए जाने वाले जनेऊ अर्थात यग्योपवीत के पीछे भी कुंडलिनी सिद्धांत ही काम करता है। इसे ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इसका मतलब है ब्रह्म अर्थात कुंडलिनी की याद दिलाने वाला धागा। कई लोग कहते हैं कि यह बाईं बाजू की तरफ फिसल कर काम के बीच में अजीब सा व्यवधान पैदा करता है। सम्भवतः यह अंधे कर्मवाद से बचाने का एक तरीका हो। यह भी लगता है कि इससे यह शरीर के बाएं भाग को अतिरिक्त बल देकर इड़ा और पिंगला नाड़ियों को संतुलित करता है, क्योंकि बिना जनेऊ की साधारण परिस्थिति में आदमी का ज्यादा झुकाव दाईं तरफ ही होता है। इसे शौच के समय तब तक दाएं कान पर लटका कर रखा जाता है, जब तक आदमी शौच से निवृत होकर जल से पवित्र न हो जाए। इसके दो मुख्य लाभ हैं। एक तो यह कि शौच-स्नान आदि के समय क्रियाशील रहने वाले मूलाधार चक्र की शक्तिशाली ऊर्जा कुंडलिनी को लगती रहती है, और दूसरा यह कि आदमी की अपवित्र अवस्था का पता अन्य लोगों को लगता रहता है। इससे एक फायदा यह होता है कि इससे शौच के माध्यम से फैलने वाले संक्रामक रोगों से बचाव होता है, और दूसरा यह कि शौच जाने वाले आदमी की शक्तिशाली कुंडलिनी ऊर्जा का लाभ उसके साथ उसके नजदीकी लोगों को भी मिलता है, क्योंकि इससे वे उस ऊर्जा का गलत मतलब निकालने से होने वाले अपने नुकसान से बचे रह कर कुंडलिनी लाभ प्राप्त करते हैं। इसी तरह कमर के आसपास बाँधी जाने वाली मेखला से नाभि चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र स्वस्थ रहते हैं, जिससे पाचन सामान्य बना रहता है, और प्रॉस्टेट जैसी समस्याओं से भी बचाव होता है। यह अलग बात है कि क्रूर और अत्याचारी मुगल हमलावर औरंगजेब जनेऊ के कुंडलिनी विज्ञान को न समझते हुए प्रतिदिन तब खाना खाता था, जब तथाकथित काफ़िर लोगों के गले से सवा मन जनेऊ उतरवा लेता था। अफ़सोस की बात कि आज के वैज्ञानिक और लोकतान्त्रिक युग में भी विशेष वर्ग के लोग उसे अपना रोल मॉडल समझते हैं।

कुंडलिनी ही मन की वह ट्यूनिंग फ्रेकवेंसी है, जो मामूली सी लौकिक और पारलौकिक हलचल को भी आसानी से पकड़ लेती है

भगवान करे कि क्रिसमस के साथ कुंडलिनी बढ़े। सभी को क्रिसमस की शुभकामनाएं।

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दोस्तों, पिछली पोस्ट में मैंने बताया कि कैसे ग्रहों के साथ ट्यूनिंग बना लेने से उनके दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है। इस पोस्ट में हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि वह ट्यूनिंग क्या है, और वह कैसे कुण्डलिनी सिद्धांत से जुड़ी हुई है।

कुंडलिनी ही मन की वह फ्रेक्वेंसी है, जिस पर हम ग्रहों के साथ ट्यून हो सकते हैं

हम रेडियो की ट्यूनिंग को नोट करके रखते हैं, और उसी फ्रेक्वेंसी पर हम रेडियो को चलाते हैं। दूसरी फ्रेक्वेंसी पर चलाने से रेडियो नहीं चलेगा। इसी तरह हमें अपनी कुंडलिनी का बखूबी पता होता है, और उसे हम कभी भूलते नहीं। वह मन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चित्र होता है। उसको योगी लोग प्रतिदिन योगसाधना से भी याद करते रहते हैं। यदि किसी जन्मकुंडली-योग के कारण ग्रहों से आने वाला प्रकाश कम हो जाए, तो उसे संतुलित करने के लिए हमारे मन की कुंडलिनी की चमक बढ़ने लगती है। ऐसा महसूस होने पर हम कुंडलिनी योगसाधना को भी बढ़ा देते हैं। मन के दूसरे चित्रों की चमक बढ़ाने से हमें उतना लाभ नहीं मिलता, क्योंकि हमने उन्हें ग्रह पूजा आदि धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से ग्रहों के साथ व उनके प्रकाश के साथ नहीं जोड़ा होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी ट्यूनिंग ग्रहों के साथ नहीं की होती है। वास्तव में, धार्मिक अनुष्ठानों से केवल मन की कुंडलिनी ही ऊर्जावान बनती है। अन्य गतिविधियों से विचारों की बाढ़ में शक्ति बंट जाती है। इससे कोई एक विचार ट्यूनिंग फ्रेक्वेंसी की ऊर्जा प्राप्त नहीं कर पाता। ट्यूनिंग विचार की ऊर्जा जितनी अच्छी हो, उतनी अच्छी ट्यूनिंग होगी, क्योंकि अंदर-बाहर, यहाँ-वहाँ सभी कुछ ऊर्जा से भरपूर है। इसे हम ऑटो सर्च फंक्शन भी कह सकते हैं। ग्रहों के साथ पहले से ट्यून होई हुई कुंडलिनी खुद ही एक्टिवेट हो जाती है। ग्रहों के प्रकाश में किसी भी प्रकार के बदलाव के होने पर कुंडलिनी क्रियाशील हो जाती है। वह एक बफर का काम करते हुए उन बदलाओं के झटकों से सुरक्षा प्रदान करती है। 

ग्रहों के ऊपर कुण्डलिनी के ध्यान से वह ट्यूनिंग फ्रेक्वेंसी बन जाती है

ऐसा ग्रहों के पूजन से, सूर्य को अर्घ्य देने से, प्रतिदिन ध्यानपूर्वक पंचांग पढ़ने से और अन्य विविध धार्मिक अनुष्ठानों से होता है। तभी तो शास्त्रों में आता है कि प्रतिदिन ध्यानपूर्वक पंचांग को पढ़ने वाले पर कभी कोई विपत्ति नहीं आती। किसी आदमी के लिए ग्रहों के प्रकाशमान होने पर उसकी कुंडलिनी उस प्रकाश को ग्रहण करके चमकने लगती है। जब वे ग्रह उस आदमी के लिए अंधकारमय बनते हैं, तब वही कुंडलिनी उस आदमी को प्रकाश प्रदान करती रहती है। इस प्रकार से कुंडलिनी एक बैटरी या phosphorescent/ स्‍फुरदीप्‍त पदार्थ की तरह काम करती है, जो चार्ज और डिस्चार्ज होती रहती है, और अंधकार से बचाती है। प्रतिदिन के कुंडलिनी योग से भी उसे चार्ज किया जाता रहता है।

ग्रह-शांति के उपाय कुंडलिनी को रिचार्ज करते हैं

ग्रह-शांति के लिए नवग्रह पूजन, दान, जप-तप, व्रत, यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। ये सभी उपाय मन को प्रकाशित करते हैं। सबसे अधिक प्रकाशित कुंडलिनी होती है, क्योंकि वही मन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण चित्र के रूप में होती है। उस कुंडलिनी से निकलने वाला प्रकाश ग्रहों के प्रकाश की कमी को पूरा कर देता है।

जीवन की प्रत्येक परिस्थिति ग्रहनिर्मित ही होती है

हरेक घटना सूर्य के प्रकाश में होती है। क्योंकि सभी आकाशीय पिंड एक-दूसरे से जुड़े हैं, इसलिए अन्य सभी ग्रहों का भी उनमें योगदान होता है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि कुंडलिनी जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में हितकारक होती है। यदि किसी आदमी को उन्नत होने के लिए उन्न्त होने के लिए उपयुक्त घटनाओं का सहयोग मिल रहा हो, तो हम कह सकते हैं कि उसके ग्रह शुभ हैं। इसी तरह यदि किसी आदमी को उन्नत होने के लिए घटनाएँ न मिल रही हों या अनुपयुक्त घटनाएं मिल रही हों, तो कह सकते हैं कि उसके ग्रह अशुभ हैं।

इस पोस्ट की विश्लेषणात्मक विवेचना यही है कि जिस तरह एक रेडियो सेट से हमेशा अच्छा संगीत प्राप्त करने के लिए उसे हमेशा ट्यूनिंग फ्रेकवेंसी पर ऑन रखना जरूरी है, उसी तरह हमेशा आनंदमयी बने रहने के लिए मन में हमेशा कुण्डलिनी को बसा कर रखना जरूरी है। 

कुंडलिनी वाहक के रूप में हजार फनों वाला शेषनाग

दोस्तों, लम्बी पोस्ट लिखने की प्रतीक्षा में अपने छोटे अनुभवों को लिखने का मौका भी नहीं मिलता। इसलिए मैंने सोचा है कि कुंडलिनी से संबंधित इधर-उधर के छोटे-मोटे विचार ही लिखा करूंगा। इससे कुंडलिनी से लगातार जुड़ाव बना रहेगा, जो आध्यात्मिक उन्नति के लिए बहुत जरूरी है। वैसे भी व्यस्त जीवन में एकसाथ लंबी पोस्ट लिखना संभव भी नहीं है।

मस्तिष्क के दबाव को नीचे उतारने से कुंडलिनी भी नीचे उतर जाती है

जैसे ही अपनी वर्तमान स्थिति को देहपुरुष की तरह अद्वैतमयी समझा जाता है, वैसे ही मस्तिष्क में कुंडलिनी प्रकट हो जाती है। उससे मस्तिष्क में एक दबाव सा पैदा हो जाता है। उस दबाव को नीचे उतारने के लिए जीभ को तालु के साथ दबा कर रखा जाता है, और कुछ न बोलते हुए मुँह बंद रखा जाता है। साथ में कुंडलिनी ऊर्जा के नीचे उतरने का चिंतन किया जाता है। ऐसा चिंतन भी किया जाता है कि दिमाग का दबाव फ्रंट चैनल से नीचे उतर रहा है। उससे दिमाग हल्का हो जाता है, और दबाव के साथ कुंडलिनी भी नीचे उतर कर किसी उपयुक्त चक्र पर बैठ जाती है। वह फिर दिमाग से लगातार आ रहे दबाव से उत्तरोत्तर चमकती रहती है। उसी दबाव को प्राण भी कहते हैं। दिमाग के खाली या हल्का हो जाने पर मूलाधार चक्र से कुंडलिनी ऊर्जा बैक चैनल से दिमाग तक चढ़ जाती है। पहले की पोस्ट में कहे गए मानसिक आघात से भी ऐसा ही होता है। मानसिक आघात से दिमाग पूरा खाली जैसा हो जाता है, और कुंडलिनी शक्ति पूरे वेग से पीठ में ऊपर चढ़ जाती है, अर्थात सुषुम्ना खुल जाती है। तांत्रिक मदिरापान से भी कई बार ऐसा ही होता है। उससे भी दिमाग खाली जैसा हो जाता है। इस तरह से कुण्डलिनी लूप पूरा हो जाता है, और कुंडलिनी चक्रवत घूमती रहती है। इसे माइक्रोकोस्मिक ऑर्बिट भी कहते हैं। इससे यौन कामुकता का आवेग भी शांत हो जाता है, क्योंकि उसकी एनर्जी कुंडलिनी को लग जाती है। स्त्री में भी पूर्णतः ऐसा ही होता है। जैसा कि पुरानी पोस्ट में बताया गया है कि उनका वज्र तुलनात्मक रूप से लघु परिमाण वाला होता है, जो शरीर-कमल के कुछ अंदर समाहित होता है। यह तंत्र साधना की एक प्रमुख तकनीक है।

शेषनाग का बीच वाला फन सबसे लंबा है

पुरानी पोस्ट में भी मैंने बताया था कि शेषनाग को वज्र से लेकर रीढ़ की हड्डी से होते हुए मस्तिष्क तक लिटाने पर वज्र-संवेदना आसानी से सहस्रार तक पहुंच जाती है। उसका मुख्य लक्षण है, एकदम से वज्र का संकुचित हो जाना। उससे पीठ के केंद्र में संवेदना की सरसराहट सी महसूस होती है। पूरे नाग का एकसाथ ध्यान करना पड़ता है। वास्तव में, संवेदना में चाल का और स्थान बदलने का गुण होता है। शेषनाग के एक हजार फन हैं, जो पूरे मस्तिष्क को कवर करते हैं। उसका केंद्रीय फन सबसे मोटा और लम्बा दिखाया जाता है। वही केंद्रीय फन सर्वाधिक क्रियाशील प्रकार का है। इससे कुंडलिनी उसी में चलती है। वास्तव में संवेदना/कुंडलिनी की सेंटरिंग के लिए ऐसा किया गया है। इससे कुंडलिनी पूरी तरह से सेंट्रल लाइन में चलती है। वह केंद्रीय फन नीचे झुक कर भौंहों के बीच में स्थित आज्ञा चक्र को भी चूमता रहता है। इससे कुंडलिनी आज्ञा चक्र में पहुंच कर वहाँ दबाव के साथ आनन्द पैदा करती है। कई बार कुंडलिनी सीधी आज्ञा चक्र तक पहुंच जाती है। वैसे भी, हठयोग की एक मुख्य नाड़ी, वज्र नाड़ी को आज्ञा चक्र तक जाने वाली बताया गया है। आज्ञा चक्र से कुंडलिनी जीभ से होते हुए सबसे अच्छी तरह से नीचे उतरती है। सिर को और पीठ को इधर-उधर हिलाने से शेषनाग भी इधर-उधर हिलता-डुलता प्रतीत होना चाहिए। उससे और अधिक कुंडलिनी-लाभ मिलता है।

शेषनाग को क्षीर महासागर में दिखाया गया है, और उसके एक हजार फन भगवान विष्णु के सिर पर फैले हुए हैं

चित्र में ऐसा ही दिखाया गया है। वास्तव में हमारा शरीर भी एक सूक्ष्म क्षीर सागर ही है। इस शरीर में 70 % से अधिक पानी है, जो चारों ओर फैला हुआ है। वह पानी खीर के दूध की तरह ही पौष्टिक है। उसी शरीर के दुधिया पानी के बीच में उपरोक्त शेषनाग अपने फन उठाकर बैठा है। आदमी का सिर उसके एक हजार फनों के रूप में है।

कुंडलिनी के लिए सेंटरिंग क्यों जरूरी है

दोस्तों, हरेक वस्तु की एनर्जी उसके केंद्र में होती है। इसे सेंटर ऑफ मास या सेंटर ऑफ ग्रेविटी भी कहते हैं। इसी तरह शरीर की एनर्जी उसकी केंद्रीय रेखा पर सर्वाधिक होती है। इसीलिए कुंडलिनी को उस रेखा पर घुमाया जाता है, ताकि वह अधिक से अधिक शक्ति प्राप्त कर सके। मुझे पूरे सूर्य में कुंडलिनी का ध्यान करना मुश्किल लग रहा था। पर जब मैंने सूर्य की सतही केंद्रीय रेखा पर ध्यान लगाया, तो वह आसानी से व मजबूती से लग गया। इन सभी बातों से पता चलता है कि कुंडलिनी का मनोविज्ञान भी भौतिक विज्ञान की तरह ही प्रमाणित सिद्ध होता है।

कुंडलिनी असफल प्रेम प्रसंग के विरुद्ध बेहतरीन सुरक्षाकवच है

दोस्तों, आजकल असफल प्रेम के मामले बढ़ते जा रहे हैं। इसकी मुख्य वजह अविश्वास, भावनाओं की बेकद्री, रिश्तों में गलतफहमियां, स्वार्थ व धोखेबाजी आदि मानव स्वभाव की बुराइयां हैं। असफल प्रेम का सदमा आदमी के पूरे शरीर व मन को झकझोरने वाला होता है। इससे बचने के लिए कुंडलिनी योग एक सर्वोत्तम साधन है। इसलिए आजकल सभी को कुंडलिनी योग करना चाहिए, क्योंकि किसी न किसी रूप में सभी लोग प्रेम के सताए हुए हैं। 

प्रेमी का शरीर आदमी के चक्रों में बस जाता है

आदमी का अपने प्रेमी के साथ बहुत गहरा जुड़ाव पैदा हो जाता है। प्रेमी का आदमी के मन में लगातार स्मरण बना रहता है। भोजन करते समय स्मरण से प्रेमी का शरीर आदमी के आगे के तालु, विशुद्धि, अनाहत और मणिपुर चक्रों पर बस जाता है। भावनामय होने पर वह अनाहत चक्र पर मजबूत हो जाता है। यौन उत्तेजना होने पर वह मन से नीचे उतरकर स्वाधिष्ठान व मूलाधार चक्रों पर आ जाता है। वहाँ से वह मेरुदंड से ऊपर चढ़कर फिर से मस्तिष्क के सहस्रार चक्र में पहुंच जाता है। इससे आदमी के पीछे वाले चक्रों पर भी वह चित्र स्थापित हो जाता है। गहन चिंतन करते समय प्रेमी का चित्र आज्ञा चक्र में पहुंच जाता है। एक प्रकार से प्रेमी का चित्र कुंडलिनी बन जाता है, और कुंडलिनी योग अनजाने में ही चलता रहता है। यह प्रक्रिया बहुत धीमी और कुदरती होती है, इसलिए इसका आभास भी नहीं होता और प्रेमी का चित्र भी बहुत ज्यादा मजबूती से शरीर के सभी चक्रों पर जम जाता है।

कुंडलिनी योग से बनी हुई बनावटी कुंडलिनी प्रेमी के चित्र को रिप्लेस कर देती है

गुरु या देव रूप की कृत्रिम कुंडलिनी को प्रतिदिन के कुंडलिनी योग अभ्यास से चक्रों पर दृढ़ कर दिया जाता है। इससे प्रेमी के रूप वाली कुदरती कुंडलिनी चक्रों से हटने लगती है। इससे आदमी को असफल प्रेम के सदमे से राहत मिलती है। साथ में, कुंडलिनी योगी भविष्य के लिए भी असफल प्रेम के सदमे से सुरक्षित हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उसके चक्रों पर बनावटी कुंडलिनी पहले से ही डेरा डाले हुए होती है। इससे वहाँ पर प्रेम की कुदरती कुंडलिनी अपना डेरा नहीं जमा पाती। 

यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कृत्रिम कुंडलिनी योग करते समय प्रेमी की छवि का भी कुंडलिनी के रूप में ध्यान किया जा सकता है। हालांकि, कुंडलिनी के कमजोर होने और कई सामाजिक समस्याओं से बचने के लिए प्रेमी के संबंध में उचित शारीरिक संयम रखा जाना चाहिए। जब प्रेमी की छवि का मन में पूर्ण प्रदर्शन हो जाता है तब वह संतुष्ट हो जाता है, जिससे प्रेमी के लिए वासना या लालसा स्वयं ही घट जाती है। इसके बाद, कुंडलिनी भी कमजोर हो जाती है। यह प्रक्रिया उस कुंडलिनी के जागरण या अन्य कुंडलिनी, मुख्य रूप से गुरु या देवता के मानसिक रूप के त्वरित विकास व जागरण के लिए अहम भूमिका प्रदान करती है।

असफल प्रेम से उत्पन्न सदमे के इलाज के लिए और उससे बचाव के लिए हिंदी में लिखित पुस्तक “शरीरविज्ञान दर्शन- एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र (एक योगी की प्रेमकथा)” सर्वोत्तम प्रतीत होती है।

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कुंडलिनी ही जादूगर का वह तोता है, जिसमें उसकी जान बसती है

दोस्तों, रशिया में एक कहावत है कि जादूगर की जान उसके तोते में बसती है। यह बात पूर्णतः सत्य न भी हो, तो भी इसका मैटाफोरक महत्त्व है। कुंडलिनी ही वह तोता है, जिससे जादूगर को शक्ति मिलती रहती है।

किसी भी चीज को कुंडलिनी बनाया जा सकता है

जादूगर एक तोते को कुंडलिनी बनाता है। तोता रंगीन व सुंदर होता है, इसलिए आसानी से ध्यानालम्बन या ध्यान-कुंडलिनी बन जाता है। तोता एक मैटाफोर भी हो सकता है। तोते का अर्थ कोई सुंदर रूप वाली चीज भी हो सकता है। जैसे कि प्रेमी, गुरु या कोई अन्य सुंदर चीज। सुंदर चीज से आसानी से प्यार हो जाता है और वह मन में बस जाती है। जादूगर योगी का मैटाफोर भी हो सकता है। जैसे योगी की शक्तियां उसकी कुंडलिनी के कारण होती हैं, वैसे ही जादूगर की शक्तियां उसके तोते के आश्रित होती हैं।


जादूगर/योगी अपने तोते/कुंडलिनी की सहायता से ही भ्रमजाल फैलाता है


जैसे योगी अपनी कुंडलिनी से अद्वैत को प्राप्त करता है, वैसे ही जादूगर अपने तोते से अद्वैत प्राप्त करता है। जादूगर जब भ्रम के जादू को फैलाता है, तब अद्वैत की शक्ति से ही वह भ्रम के जाल में नहीं फंसता। वैसा ही योगी भी करता है। आम लोग योगी की दुनियावी लीलाओं से भ्रमित होते रहते हैं, परंतु वह स्वयं भ्रम से अछूता रहता है।


तोते/कुंडलिनी के मरने से जादूगर/योगी निष्क्रिय सा हो जाता है


इसीसे भावनात्मक सदमा लगता है, जैसा कि मैंने पिछली पोस्टों में बयान किया है। वास्तव में, तोते/कुंडलिनी के साथ जादूगर/योगी का पूरा जीवनक्रम जुड़ा होता है। तोते/कुंडलिनी के नष्ट होने से उससे जुड़ी सारी घटनाएं, यादें व मनोवृत्तियां नष्ट सी हो जाती हैं। इससे वह घने अंधेरे में पूरी तरह से शांत सा हो जाता है। इसे भावनात्मक सदमा कहते हैं। इसे ही पतंजलि की असम्प्रज्ञात समाधि भी कहते हैं। इसी परिस्थिति में कुंडलिनी जागरण हो सकता है। यदि इसे कुछ लंबे समय तक धारण किया जाए, तो आत्मज्ञान भी प्राप्त हो सकता है। औसतन लगभग छः महीने के अंदर आत्मज्ञान हो सकता है। इस स्थिति को संभालने के लिए यदि योग्य गुरु का सहयोग मिले, तो भावनात्मक सुरक्षा मिलती है।

ईश्वर सबसे बड़ा जादूगर है, जो तोते/कुंडलिनी से इस दुनिया के जादू को चलाता रहता है

हिंदु समेत विभिन्न धर्मों में ईश्वर को एक जादूगर या ऐंद्रजालिक माना गया है, जो अपने जादू या इंद्रजाल को खुले आसमान में फैलाता है। उससे यह दुनिया बन जाती है। वह पूर्ण अद्वैतशील है। इससे स्वयं सिद्ध हो जाता है कि उसके साथ उसकी कुंडलिनी (तोता) भी रहती है। उसी तोते को मायाशक्ति कहा गया है।

कुंडलिनी योगसाधना से उत्पन्न शक्ति या उर्जा को स्तरोन्नत करती है

दोस्तों, मैं इस पोस्ट में कुंडलिनी से जुड़ा हुआ सबसे बड़ा रहस्य उजागर करने जा रहा हूँ। योग साधना से जिस चीज को बढ़ाया जाता है, उसको भिन्न-2 स्थानों पर भिन्न-2 नाम दिए गए हैं। कहीं इसे ऊर्जा, कहीं पर संवेदना, कहीं पर प्रकाश, और कहीं पर कुंडलिनी कहा जाता है। वास्तव में ये सभी नाम सही हैं। ये सभी नाम एक ही साधना का वर्णन ऐसे कर रहे हैं, जैसे बहुत से अंधे एक हाथी का वर्णन उसके एक-2 अंग से करते हैं।

संवेदना-ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन का मेरा अपना अनुभव

मैंने पिछली पोस्ट में बताया था कि भावनात्मक सदमे से कैसे मेरी संवेदना-ऊर्जा मूलाधार से सहस्रार तक लगातार प्रवाहित हो रही थी। सहस्रार मस्तिष्क के बीचोंबीच या यूँ कहो कि चोटी बांधने वाले स्थान से तीन अंगुल आगे की तरफ एक बिंदु रूप में था। वहां पर वैसे भी दबाने पर एक संवेदनात्मक अनुभूति होती है। वह गर्दन की सतह के बीचोंबीच होती हुई एक सीधी रेखा में सहस्रार तक जा रही थी, सिर के करवेचर के साथ नहीं मुड़ रही थी। मतलब कि वह सिर की सतह के साथ लहर न खाकर उसके बीच में से घुसकर ऊपर जा रही थी। ओर वह प्रकाशमान ऊर्जा एक पुल की तरह लग रही थी, जो इन दोनों चक्रों को आपस में जोड़ रही थी। इसका अर्थ है कि मेरी सुषुम्ना नाड़ी खुल गई थी। वास्तव में यह ऊर्जा एक खारिश की अनुभूति जैसी ही साधारण सेंसेशन थी, पर बहुत घनीभूत थी। मैं पहले ऐसे ऊर्जा चैनेल पर कम ही विश्वास करता था, पर इस अनुभव से मेरा विश्वास पक्का हो गया। यह ऊर्जा प्रवाह लगभग 10 सेकेंड तक बना रहा, जिसके दौरान मुझे एक अति प्रकाशमान मंदिर का साक्षात अनुभव हुआ। जैसे कि मैं उस मंदिर से जुड़कर एकाकार हो गया था। फिर मेरी कुंडलिनी मेरे उस अनुभव क्षेत्र में आई, और मैं उससे एकाकार हो गया। यद्यपि यह पूर्ण एकाकार नहीं था। अर्थात यह खंडित या अल्प कुंडलिनी जागरण था, पूर्ण नहीं। सम्भवतः ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मेरी सुषुम्ना पूरी तरह नहीं खुली थी, और ज्यादा समय तक खुली नहीं रही। 

कुंडलिनी से एकाकार होने के अतिरिक्त लाभ

जिस समय संवेदना ऊर्जा मूलाधार से सहस्रार तक सुषुम्ना नाड़ी से प्रवाहित हो रही हो, उस समय जो मानसिक चित्र बनता है, वह उतना तीव्र व स्पष्ट होता है कि आदमी उससे जुड़कर एकाकार हो जाता है। उससे आदमी को जीवन का वह सबसे बड़ा सुख मिलता है, जो कि सम्भव है। उससे आदमी संतुष्ट हो जाता है। उससे वह जीवन के प्रति अनासक्त होकर अद्वैतशील बन जाता है। उससे उसके मन में कुंडलिनी का बसेरा हो जाता है, क्योंकि अद्वैत के साथ कुंडलिनी सदैव रहती है। यदि आदमी पहले से ही कुंडलिनी साधना कर रहा हो, तब सुषुम्ना प्रवाह के दौरान अन्य चित्रों की बजाय कुंडलिनी का चित्र बनता है, और उससे आदमी एकाकार हो जाता है। इससे कुंडलिनी को अतिरिक्त शक्ति मिल जाती है। यदि प्रारंभ से ही संवेदना के साथ कुंडलिनी को जोड़ा जाता रहे, तब दोनों एक दूसरे को बढ़ाते रहते हैं। सुषुम्ना प्रवाह के दौरान जब कुंडलिनी मेरे मन में आई, तब मुझे उसके साथ मंदिर से अधिक जुड़ाव महसूस हुआ। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि रोज के कुंडलिनी ध्यान से मैं कुंडलिनी के साथ जीने का अभ्यस्त हो गया था। इन बातों से सिद्ध होता है कि सम्पूर्ण साधना कुंडलिनी योग ही है।

यदि चक्र अवरोधित न हों, तो सुषुम्ना के ऊर्जा प्रवाह के अनुभव के बिना ही कुंडलिनी जागरण होता है, और वह जागरण संपूर्ण होता है

उपरोक्त तथ्य को सिद्ध करने के लिए मैं अपना ही उदाहरण देता हूँ। अपने आत्मज्ञान के अनुभव के दौरान मैं सपने में दिख रहे दृश्य के साथ एकाकार हुआ था, किसी विशेष कुंडलिनी चित्र के साथ नहीं। परंतु उसके बाद मेरी वह महिला मित्र कुंडलिनी के रूप में मेरे मन में दृढ़ता से संलग्न हो गई थी, जिसकी सर्वाधिक सहायता से मैं उस आत्मज्ञान के अनुभव तक पहुंचा था।

उसके कई वर्षों बाद मैं कुंडलिनी साधना करने लगा। मैंने उन्हीं वृद्ध आध्यात्मिक पुरुष को अपनी कुंडलिनी बनाया हुआ था। उस दौरान जब मेरी सुषुम्ना खुली और उसमें ऊर्जा का प्रवाह हुआ (यद्यपि मुझे वह प्रवाह अनुभव नहीं हुआ, क्योंकि मेरे सभी चक्र अनब्लॉक थे, इसी वजह से वह जागरण संपूर्ण था, यद्यपि मैंने डर कर उसे एकदम नीचे उतार दिया), तब कुंडलिनी चित्र मेरे मन में प्रकट हुआ और मैं उससे पूरी तरह से एकाकार हो गया। हालांकि बैकग्राउंड के अन्य दृष्यों से भी मैं एकाकार ही था, पर मुख्य तो कुंडलिनी ही थी। इसी तरह, आत्मज्ञान के समय भी मुझे पीठ में एनर्जी फलो का भान नहीं हुआ, इसीलिए वह जागरण भी पूर्ण शक्तिशाली लग रहा था।

विशेष प्रकार का श्वास होने पर ही सुषुम्ना नाड़ी खुलती है

कहते हैं कि जब श्वास डायफ्रागमेटिक अर्थात एब्डोमिनल, गहरी, धीमी और बिना आवाज के चले; तभी सुषुम्ना के खुलने की ज्यादा संभावना होती है। मेरे भावनात्मक सदमे के दौरान मेरी सांसें बिल्कुल ऐसी ही हो गई थीं। इसीसे मेरी सुषुम्ना नाड़ी खुली। इससे यह जनप्रचलित बात सिद्ध हो जाती है कि सांसों के नियमन से ही योग होता है। 

सुषुम्ना के थ्रू एनर्जी राईज के लिए मूलाधार और सहस्रार चक्र के बीच में बहुत ज्यादा विभवांतर अर्थात पोटेंशियल डिफरेंस पैदा होना चाहिए

भावनात्मक सदमे से ये फायदा हुआ कि मेरा मस्तिष्क फुली डिस्चार्ज होकर नेगेटिव पोटेंशियल में आ गया था। मूलाधार तांत्रिक योगसाधना के कारण फुली पोसिटिव पोटेंशियल में था। इससे मूलाधार और सहस्रार के बीच में बहुत ज्यादा पोटेंशियल डिफरेंस पैदा हुआ। इससे मूलाधार और सहस्रार के बीच में सेंसेशनल इलेक्ट्रिक स्पार्क पैदा हुआ, जिसे हम एनर्जी राइज कह रहे हैं।

और हां, पूर्व पोस्ट में जिस मित्र से मुझे भावनात्मक सदमा मिला था, उससे प्यारा समझौता हो गया है। सप्रेम।

कुंडलिनी जागरण के लिए भावनात्मक सदमे की आवश्यकता

दोस्तों, मान्यता है कि भावनात्मक सदमे से भी कुंडलिनी जागरण होता है। यदि पहले से ही कुंडलिनी योग किया जा रहा हो, तब तो वह ज्यादा प्रभावी हो जाता है। आज मैं इसी से संबंधित अपना ताजा अनुभव बताऊंगा।

27 साल बाद व्हाट्सएप पर मुलाकात

सीनियर सेकंडरी स्कूल एजुकेशन के बाद कई सहपाठियों से पहली बार मुलाकात 27 साल बाद व्हाट्सएप पर हुई। अच्छा लग रहा था। पुरानी भावनाओं पर हरियाली छा रही थी। उसी क्लास के दौरान मेरी कुंडलिनी सबसे तेजी से विकसित हुई थी। कुंडलिनी का दूसरा नाम प्रेम भी है। सीधी सी बात है कि ग्रुप के सभी सदस्यों के साथ मेरा अच्छा प्रेमपूर्ण संबंध था। ग्रुप मैंने शुरु किया था, हालांकि सदस्यों को जोड़ने का अधिकांश काम एक अनुभवी सदस्या ने किया था। कुछ दिन ग्रुप अच्छा चला। कुंडलिनी का मनोविज्ञान समझने के लिए मैं एक भावनात्मक सदस्या के बारे में विस्तार से जानना चाहता था। लेखन का औऱ कुंडलिनी रिसर्च का मुझे पहले से ही शौक है। सदस्या ने मेरा मेसेज पढ़ा और ट्यूशन आदि के लिए आए बच्चों की पढ़ाई खत्म होने के बाद बात करने का भरोसा उदासीन भाव के साथ दिया। यद्यपि वह पढ़ाई आज तक खत्म नहीं हो सकी। मैंने मान लिया कि पारिवारिक या अन्य मनोवैज्ञानिक कारणों से उसने ठीक ही किया होगा। क्योंकि विश्वास ही कुंडलिनी की पहचान है। पर मुझे उससे भावनात्मक सदमा लगा। वैसा भावनात्मक सदमा मुझे 2-3 बार पहले भी लग चुका था। वास्तव में ऐसा धोखा तब होता है, जब हम मन के संसार को असली मानने लगते हैं। पर वास्तव में दोनों में बहुत अंतर हो सकता है। मन में जो आपका सबसे बड़ा मित्र है, वह असल जीवन में आपका सबसे बड़ा शत्रु हो सकता है। इससे साफ जाहिर है कि प्रेम ही सबसे बड़ा मित्र है, और प्रेम ही सबसे बड़ा शत्रु भी है। एक पालतु पशु अपने मालिक से बहुत ज्यादा प्रेम करता है, और उससे दूर नहीं होना चाहता, पर वही मालिक उसे कसाई के हाथों सौंप देता है। तभी तो कहते हैं कि प्यार या विश्वास अंधा भी होता है। 

मानसिक आघात के बाहरी लक्षणों का पैदा होना

उस आघात से मैं बहुत सेंसिटिव व इमोशनल हो गया था। मैं ग्रुप में कुछ न कुछ लिखे जा रहा था। अन्य सदस्यों की छोटी-2 बातें मुझे चुभ रही थीं। इस वजह से मैंने दो सदस्यों को ग्रुप से निकाल दिया। उससे नाराज होकर एडमिन सदस्या भी निकल गई। हालाँकि मैंने उन्हें उसी समय दुबारा ग्रुप में शामिल कर दिया औऱ कहा कि वे चाहें तो निकाले गए सदस्यों को दुबारा दाखिल कर दें। मैं इमोशनल तो था ही , उससे मुझे उसके बाहर निकलने में भी पार्शियलिटी की बू आई, जिससे मेरा मन और डिस्टर्ब हो गया। उसके बाद उपरोक्त ट्यूशन मैडम जी भी बिना वजह बताए ग्रुप छोड़कर चली गईं। एक-एक करके लोग ग्रुप से बाहर जाने लगे। मैं ग्रुप से बाहर होने के उनके दुख को महसूस करने लगा। वही वजह बता कर मैंने भी भावनात्मक आवेश में आकर ग्रुप से किनारा कर लिया। हालांकि ऐसा चलता रहता है सोशल मीडिया में, पर यहाँ पर कुंडलिनी से जुड़ी संवेदनशीलता की बात हो रही है। उस शाम को मैं काफी रोया। रात को मुझे अपने सिरहाने के के नीचे रुमाल रखना पड़ा। दरअसल वो आँसू खुशी के थे, जो लंबे अरसे बाद दोस्तों से मिलकर आ रहे थे। मेरे पूरे शरीर और मन में थकान छा गई। मेरी पाचन प्रणाली गड़बड़ा गई। 

भावनात्मक सदमे के दौरान कुंडलिनी सर्ज

उसी भावनात्मक आघात वाली शाम को मेरी एनर्जी बार-2 मेरी पीठ से चढ़कर शरीर के आगे के भाग से नीचे उतर रही थी, एक बंद लूप में। कभी-कभी उस एनर्जी के साथ कुंडलिनी भी जुड़ जाती थी। रात को नींद में अचानक बहुत सारी एनर्जी मेरी पीठ में ऊपर चढ़ी। उसके साथ में ऐसा स्वप्न आया कि मैं बहुत बड़े औऱ सुंदर मंदिर के द्वार से अंदर प्रविष्ट हो रहा हूँ। वह एनर्जी मेरे मस्तिष्क में समा रही थी। विशेष बात यह थी कि उस एनर्जी से मेरे मस्तिष्क में बिल्कुल भी दबाव पैदा नहीं हो रहा था, जैसा अक्सर होता है। शायद कई दिनों तक भरपूर नींद लेने से मेरा मस्तिष्क तरोताजा हो गया था। दूसरी वजह यह थी कि भावनात्मक सदमे से दिमाग खाली सा हो गया था। फिर मस्तिष्क में उस एनर्जी के साथ कुंडलिनी जुड़ गई। वह कुंडलिनी जागरण जैसा अनुभव था, यद्यपि उसके स्तर तक नहीं पहुंच सका। 

कुंडलिनी के बारे में वर्णन केवल इसी वैबसाइट में मिलेगा

मैंने हर जगह अध्ययन किया। हर जगह केवल एनर्जी का ही वर्णन है, कुंडलिनी का कहीं नहीं। अधिकांश जगह एनर्जी को ही कुंडलिनी माना गया है। पर दोनों में बहुत अंतर है। बिना कुंडलिनी की एनर्जी तो वैसी भारतीय मिसाइल है, जिस पर भारत का राष्ट्रीय ध्वज अंकित नहीं है। विशेष चीज, जो प्यार की निशानी है, और मानवता का असली विकास करने वाली है, वह कुंडलिनी ही है। एनर्जी तो केवल कुंडलिनी को जीवन्तता प्रदान करने का काम करती है। इस वेबसाइट के इलावा यदि कहीं कुंडलिनी का वर्णन है, तो वह “पतंजलि योगसूत्र” पुस्तक है। उसमें कुंडलिनी को ध्यानालम्बन कहा गया है। अधिकांश लोगों के मन में कुंडलिनी व शक्ति (एनर्जी) के स्वभाव के बीच में कन्फ्यूजन बना रहता है।

एक पुस्तक जिसने मुझे हर बार भावनात्मक सदमे से बचाया और उससे बाहर निकलने में मेरी मदद की

वह पुस्तक है, “शरीरविज्ञान दर्शन”, जो इस वेबसाइट के “शॉप (लाईब्रेरी)” वेबपेज पर उपलब्ध है। विस्तृत जानकारी के लिए इस लिंक पर जाएं।

अद्वैत भाव के साथ मदिरा ही सोमरस या एलिकसिर ऑफ़ लाइफ है

उपरोक्त पुस्तक के साथ मदिरा ने मेरे रूपांतरण के साथ मेरी कुंडलिनी या आत्मा का विकास भी किया। खाली मदिरा कुंडलिनी को हानि पहुंचाती है। इस भावना के साथ थोड़ी सी मदिरा का भी बहुत ज्यादा असर होता था, और मदिरा की लत भी नहीं लगती थी। इसका अर्थ है कि पुराने समय में जो सोमरस या एलिकसिर ऑफ़ लाइफ बताया गया है, वह अद्वैत भावना वाले विधिविधान के साथ व उचित मात्रा में सेवन की गई उच्च कोटि की मदिरा ही है, कोई अन्य जादुई द्रव नहीं। देवता भी इसका पान करते हैं। 

प्रेम या सम्मान, दोनों में से एक से संतुष्ट हो जाते।
अन्यथा अपनी भावनाओं के भंडार की राह को प्रकाशित कर देते, हम स्वयं ही अन्वेषण कर लेेते।।

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