कुंडलिनी योग डीएनए को सूक्ष्म शरीर और डार्क एनर्जी या डार्क मैटर के रूप में दिखाता है

सूक्ष्म शरीर पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेंद्रियों, पांच प्राण, एक मन और एक बुद्धि के योग से बना है। 

यह सूक्ष्मशरीर ही परलोकगमन करता है, हाड़मांस से बना स्थूलशरीर नहीं। कोई बोल सकता है कि जब स्थूल शरीर नष्ट हो गया, तब ये इन्द्रियां, प्राण आदि कैसे रह सकते हैं, क्योंकि ये सभी स्थूलशरीर के आश्रित ही तो हैं। यही तो ट्रिक है। इसे आप लेखन की वर्णन करने की कला भी कह सकते हैं। लेखक अगर चाहता तो सीधा लिख सकता था कि शरीर और उसके सारे क्रियाकलाप उसके सूक्ष्मशरीर में दर्ज हो जाते हैं। पर यह वर्णन आकर्षक और समझने में सरल न होता। क्योंकि शरीर और उसके सभी क्रियाकलाप उसके मन, बुद्धि, कर्मेंद्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, और पांचोँ प्राणों के आश्रित रहते हैं, इसलिए कहा गया कि सूक्ष्मशरीर इन पांचोँ किस्म की चीजों से मिलकर बना है। मुझे तो ऐसा अनुभव नहीं हुआ था। मुझे तो ये चीजें सूक्ष्मशरीर में अलगअलग महसूस नहीँ हुई, बल्कि एक ही अविभाजित अंधेरा महसूस हुआ, जिसमें इन सभी चीजों की छाप महसूस हो रही थी। मतलब साफ है कि सूक्ष्मशरीर अनुभवरूप अपनी आत्मा के माध्यम से ही चिंतन करता है, आत्मा से ही निश्चय करता है, आत्मा से ही काम करता है, आत्मा के माध्यम से ही सभी इन्द्रियों के अनुभव लेता है, और आत्मा से ही दैनिक जीवन के सभी शारीरिक क्रियाकलाप करता है। मतलब सूक्ष्मशरीर में जीव के पिछले सभी जीवन पूरी तरह से दर्ज रहते हैं, जिनको वह लगातार आत्मरूप से अपने में अनुभव करता रहता है। ये अनुभव स्थूल शरीर की तरंगों की तरह बदलते नहीं। एक प्रकार से ये पिछले सभी जन्मों का मिलाजुला औसत रूप होता है। कई लोग सोचते होंगे कि सूक्ष्मशरीर एक बिना शरीर का मन होता होगा, जिसमें खाली अंतरिक्ष में विचारों की तरंगें उठती रहती होंगी, पर फिर स्थूल और सूक्ष्म शरीर में क्या अंतर रहा। वैसे भी बिना स्थूल शरीर के आधार के स्थूल मन का अस्तित्व संभव नहीं है। उदाहरण के लिए आप अपनी अंगूठी में जड़े हुए हीरे को सूक्ष्मशरीर मान लो। इसमें इसके जन्म से लेकर सभी सूचनाएं दर्ज हैं। कभी यह शुद्ध ऊर्जा था। सृष्टि निर्माण के साथ यह धरती पर वृक्ष बन गया। फिर भूकंप आदि से वृक्ष धरती के अंदर सैंकड़ो किलोमीटर नीचे दब कर कोयला बना। फिर पत्थर का कोयला बना। लाखों वर्षो तक यह भारी तापमान और दबाव झेलता रहा। इसमें अनगिनत परिवर्तन हुए। इसने अनगिनत क्रियाएं कीं। इसने अनगिनत वर्ष बिताए। फिर वह खोद कर निकाला गया। फिर तराशा गया। फिर आपने इसे खरीदा और अपनी अंगूठी में लगाया। ये सभी सूचनाएं इस हीरे में दर्ज हैं। हालांकि हीरे को देखकर हमें इन सूचनाओं का स्थूलरूप में पता नहीं चलता, पर वे सूचनाएं सूक्ष्मरूप में हमें जरूर अनुभव होती हैं, तभी हमें हीरा बहुत सुंदर, आकर्षक और कीमती लगता है। ऐसे ही किसीके सूक्ष्म शरीर के अनुभव से उसका पूरा पिछला ब्यौरा स्थूल रूप में मालूम नहीं होता, पर सूक्ष्मरूप में अनुभव होता है, उसके औसत स्वभाव को अनुभव करके। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे अर्जुन के पिछले सभी जन्मों को जानते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें अपने मन में दूरदर्शन की तरह सभी दृष्य महसूस हो रहे थे, बल्कि यह मतलब है कि उन सबका निचोड़ सूक्ष्मशरीर के रूप में महसूस हो रहा था। शास्त्रों की शैली ही ऐसी है कि वे अक्सर तथ्यों का पूर्ण विश्लेषण न करके उन्हें चमत्कारिक रूप में रहने देते हैं, ताकि पाठक हतप्रभ हो जाए।
ये अनुभव स्थूलशरीर से लिए अनुभवों से सूक्ष्म होते हैं, हालांकि हमें ऐसा लगता है, सूक्ष्मशरीर के लिए तो वह स्थूल अनुभव की तरह ही शक्तिशाली लगते होंगे, क्योंकि उस अवस्था में जीवित अवस्था के उन विचारों के शोर का व्यवधान नहीं होता, जो अनुभवों को कुंठित करते हैं। साथ में, पिछले सारे जन्मों का अनुभव भी आत्मा में हर समय सूक्ष्म रूप में बना रहता है, जबकि स्थूलशरीर में स्थूल विचारों के शोर में दबा रहता है। हाँ, वह नए अनुभव नहीँ ले सकता, क्योंकि उसके लिए स्थूलशरीर जरूरी होता है। इसलिए उसका आगे का विकास भी नहीँ होता। आगे के विकास के लिए ही उसे स्थूलशरीर के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। मुझे तो सूक्ष्मशरीर डीएनए की तरह जीव की सारी सूचनाएं दर्ज करने वाला लगता है। इसी तरह मुझे डार्क एनर्जी या डार्क मैटर भी स्थूल ब्रह्माण्ड का शाश्वत डीएनए लगता है।

डार्क एनर्जी और सूक्ष्मशरीर की समतुल्यता तभी सिद्ध हो सकती है, अगर उसे हम विभागों में न बांटकर एकमात्र अंधेरभरे आसमान की तरह मानें जिसमें इनके स्थूल रूप की सभी सूचनाएं सूक्ष्म अर्थात आत्म-अनुभवरूप में दर्ज होती हैं। कृपया इसे पूर्ण आत्मानुभव अर्थात आत्मज्ञान न समझ लिया जाए। यह आत्म-अनुभव की सर्वोच्च अवस्था है, जो एक ही किस्म का होता है, और जिसमें कोई सूचना दर्ज नहीँ होती मतलब शुद्ध आत्म-रूप होता है, जबकि सूक्ष्मशरीर वाला आत्म-अनुभव बहुत हल्के दर्जे का होता है, और उसमें दर्ज गुप्त सूचनाओं के अनुसार असंख्य प्रकार का होता है। यह “यत्पिंडे तत् ब्रह्मान्डे” के अनुसार ही होगा।

कुंडलिनी तंत्र आधारित संभोग योग और ओशो~एक सच जो अधूरा समझा गया

मित्रो, मैं पिछली पोस्ट में ओशो महाराज के सम्मान में उनकी दार्शनिक रचनाओं पर प्रकाश डाल रहा था। वे अपनी दार्शनिक कौशलता से अपनी रचनाओं को सार्थक विस्तार देते थे। सार्थक मतलब उनसे मन की उलझनेँ दूर होती थीं। इसके विपरीत, कई लोगों द्वारा कई जगह निरर्थक विस्तार भी किया जाता है, जिससे मन की उलझनेँ सुलझने की बजाय बढ़ती हैं। इसी तरह सार्थक विस्तार कई रहस्यों को अपने अंदर छुपा कर रखते हैं, ताकि वे अयोग्य व्यक्ति को आसानी से उपलब्ध न हो सकें, पर योग्य व्यक्ति उन्हें अच्छी तरह समझ सकें। पुराणों की शैली भी इसी तरह की सार्थक विस्तारवाद की होती है। विस्तृत कथाओं के बीच में किस्मकिस्म के रहस्य उजागर किए गए होते हैं, जो ज्ञानचक्षु को खोलते रहते हैं। सबसे ज्यादा कारगर लेख बड़े लेख ही होते हैं। बड़े लेखों में दुर्लभ ज्ञान इसी तरह छिपा होता है, जैसे मिट्टी से भरी विस्तृत खदान में सोना। गूगल भी इस बात को समझता है, इसीलिए बड़े लेखों को ज्यादा तवज्जो देता है। अधिकांश लोग विशेषतः जो जल्दबाजी से भरे होते हैं, वे बड़े लेखों के अंदर छिपे हुए दिव्य ज्ञान से वँचित रह जाते हैं। मेरे हाल ही के पिछले कुछ लेख बहुत बड़े-बड़े थे, यहाँ तक कि एक तो आठ हजार के करीब शब्दों से भरा लेख था। इतने शब्दों से बहुत सी लघु पुस्तिकाएँ बनना शुरु हो जाती हैं। उन लेखों को लिखकर मुझे सबसे ज्यादा संतुष्टि मिली, क्योंकि उनमें वैसे उत्कृष्ट ज्ञान की और रहस्योद्घाटनों की झलक दिखी मुझे, जो बहुत कम दिखाई देती है। उनसे मुझे कई नई अंतःदृष्टियां भी मिलीं। हालांकि मुझे लगता है कि सम्भवतः उसे कम ही पाठक पूरा पढ़ पाए होंगे, समय की कमी के कारण। वैसे लेखक की मानसिकता पूरा लेख पढ़कर ही अच्छे से पकड़ में आती है। मैं एक पुस्तक लेखक ज्यादा हुँ, ब्लॉग लेखक कम। इसीलिए मेरी सभी ब्लॉग पोस्टें आपस में जुड़ी हुई सी लगती हैं। पिछली ब्लॉग पोस्ट की कमी अगली पोस्ट में पूरी कर लेता हुँ। इस तरह श्रृंखला में बंधी पोस्टें पुस्तक के रूप में भी संकलित की जाती रहती हैं। यह पुस्तक लिखने का अच्छा तरीका है, क्योंकि आज के व्यस्त युग में कोई आदमी एक बैठक में तो पुस्तक नहीं लिख सकता। साथ में, इन पोस्टों को बहुत सोचसमझ कर, बारबार निरिक्षण करने के बाद, पूर्ण विस्तार के साथ, और व्याकरण के अनुसार शुद्ध रूप में लिखा जाता है, ताकि पाठकों को कमेंट करने की जरूरत ही न पड़े। इसीलिए तो मेरे ब्लॉग में कमेंट होते ही नहीं, केवल पाठक ही होते हैं। अगर कमेंट होते हैं, तो तारीफ के ही होते हैं। हहा😄। पुस्तक में भी कमेंट सेक्शन नहीं होता। पुस्तक रूप में सम्भवतः वे बड़ी ब्लॉग पोस्टें काफी पसंद की गईं, जिसका पता बुक डाउनलोड रिपोर्ट में इजाफे से चला। किसी लेखक की सम्पूर्ण मानसिकता का पूरा पता उसकी सभी रचनाओं को पढ़कर चलता है। क्योंकि किसी में कुछ विशेष होता है, तो किसी में कुछ। अगर किसी एक रचना में कमी रह गई हो, तो लेखक उसे अपनी दूसरी रचना में पूरी कर देता है। अधूरी रचनाएं पढ़ने से रचनाकार के प्रति गलतफहमी पैदा हो सकती है। लिटल नॉलेज इज ए डेंजरस थिंग। इसमें कोई संदेह नहीं कि ओशो की सभी रचनाएं पढ़कर कोई भी व्यक्ति महामानव बन सकता है। ओशो की रचनाएं बहुत ज्यादा हैं, मेरी रचनाएं तो उनके मुकाबले बहुत कम हैं। मेरी सभी रचनाएं भी अगर कोई पढ़ ले, तो भी वह इनाम का पात्र बन जाए, ओशो की सभी रचनाएं पढ़ना तो दूर की बात है। हालांकि यह अलग बात है कि ओशो जैसे महान अवतारी पुरुष के आगे मैं कहीं भी नहीं ठहरता। महान लोगों को समझना भी कई बार कैसे कठिन हो जाता है, इसका मैं एक उदाहरण देता हुँ। मैं जब किशोरावस्था में था तो कई अय्याश किस्म के लोगों से, मुख्यतः कॉलेज टाइम में इस तरह से ओशो के सम्भोग-योग को सुना करता था, जैसे कि वे बड़ी ख़ुशी और उत्साह से अपनी बुराइयों को ढकने की कोशिश कर रहे हों। कुछ-कुछ मज़ाकिया लहजा भी होता था उनका सुनाने का। हालांकि वे लोग उसे शुद्ध सम्भोग मानकर चलते थे, योग का तो उसमें नामोनिशान नहीं दिखता था। इसलिए मुझे ओशो द्वारा प्रदत्त शिक्षा पर संदेह होता था। क्योंकि उस समय मैं कुंवारा था, और सम्भोग के अनुभव से अपरिचित था। हाँ, कुछ रहस्यमयी सच्चाई उसमें जरूर झलकती थी मुझे। इसकी वजह थी, उस समय के आसपास मुझे शुद्ध प्रेमयोग से क्षणिक आत्म जागृति का प्राप्त होना, बेशक स्वप्नकाल में ही सही। पर वह इतनी मज़बूत थी जिसने मुझे एक झटके में पूरी तरह से रूपातंरित करके आध्यात्मिक पथ पर लगभग पूरी तरह से धकेल दिया था। इसकी एक वजह यह भी रही होगी कि बाल्यकाल जैसी अवस्था के कारण मेरा मस्तिष्क तरोताज़ा व संवेदनशील था उस समय, इसलिए बहुत रिसप्टेव था रूपातंरण के लिए। मेरा शुद्ध मानसिक प्रेमयोग बेशक सम्भोग से नहीं बना था, पर सम्भोग की मानसिकता और लालसा उसके आधार में जरूर थी, जैसी कि पुरुष-स्त्री के हरेक प्रेम के संबंध में अक्सर होता ही है। इसमें विशेष बात यह थी कि सम्भवतः सम्भोग की सूक्ष्म मानसिकता और लालसा दोनों पक्षो में बराबर और बढ़चढ़ कर थी, मतलब वह एकतरफा प्यार की तरह नहीं था, ऐसा लगता है मुझे। हालांकि सबकुछ मन के अदृश्य आकर्षण से ही था, स्थूल रूप में कुछ भी नहीं था, कोई बोलचाल नहीं थी, कोई व्यक्तिगत मेलमिलाप नहीं था, सबकुछ लोगों या छात्रों के समूह तक ही सीमित था। यह अलग बात है कि स्त्रीपक्ष से ही प्रेम से भरी और नादानी या बचपने जैसे से भरी हुई पहलें हुआ करती थीं, शुद्ध मित्रता या प्रेम का संबंध बनाने के लिए। देवीमाता की विशेष कृपा से मुझे तो जैसे प्रेम के क्षेत्र में पीएचडी ही मिल गई थी, ऐसा लगता था मुझे, क्योंकि मुख्यतः वह वही प्रेम लगता था मुझे, जिससे मेरे सहस्रार का कमल खिल जैसा उठा था अंत में, क्योंकि यही सृष्टि की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसके लिए और भी बहुत सी अनुकूल वजहें रही थीं, पर वे प्रेम को परवान चढ़ाकर ही रंग ला सकी थीं, सीधे तौर पर नहीं, ऐसा लगता है मुझे। क्योंकि शरीरीक सम्भोग से न सही पर मानसिक या सूक्ष्म या अव्यक्त सम्भोग जैसे सुख से मुझे वह समाधि मिली थी, इसलिए मुझे ओशो से अपना अदृश्य संबंध भी महसूस होता था, बेशक दार्शनिक स्तर का ही सही। हालांकि मैंने उनकी शिक्षाओं को कभी ढंग से पढ़ा नहीं था। सम्भवतः मैं इसीलिए स्थूल सम्भोग से समाधि को नकारता था, बेशक बाहरबाहर से ही सही, क्योंकि अपने मन में ऐसी सम्भावना मुझे लगती भी थी। जब भी ओशो के व वामपंथी तांत्रिकों के अनुसार सम्भोग योग आदि के बारे में या कोई भी रोमांटिक किस्सा सुनता, तो मैं आनंद से भरी हुई समाधि में खोने लगता, कुंडलिनी मेरे सहस्रार में जोरों से चमकने लगती, मेरा रोमरोम खिल उठता और मेरे शरीर में कंपन जैसा होने लगता व सिर में भारीपन जैसा आ जाता। सम्भवतः मेरे मुलाधार पर बनी यौन ऊर्जा के ऊपर चढ़ने से ऐसा होता था। मेरी पीठ सीधी हो जाती, मेरे मुख पर लाली आ जाती, सांस तेज जैसी चलने लगती और मानसिक प्रेमिका का मनमोहक व समाधि चित्र जैसे जीवंत सा होकर मेरे सामने हँसता हुआ नाचने-गाने सा लगता, जिसे वश में करने के लिए कई बार उन वृद्ध आध्यात्मिक पुरुष का मानसिक चित्र भी जीवंत हो जाता। यह अलग बात है कि अनेक वर्षों के बाद पूर्ण समाधि या कुंडलिनी जागरण की झलक वाला अनुभव मुझे उन्ही पुरुष के मानसिक चित्र के यौनयोग सहायित कुण्डलिनीयोग के माध्यम से ध्यान से मिला, प्रेमिका के मानसिक चित्र से नहीं। साथ वाले छात्र या लोग उसे अन्यथा न समझे, इसके लिए मैं सम्भोग योग की वार्ता को बंद करवाने की कोशिश करता, या वे मुझे असहज जानकर खुद ही बंद कर देते, या मैं उनसे दूर हो जाने की कोशिश करता। सब उससे कुछ हैरान जैसे होते और सम्भवतः मुझे नपुंसक जैसा समझते। वैवाहिक जीवन में भी लम्बे समय तक मैं सम्भोग-समाधि का रहस्य समझ नहीं पाया, हालांकि स्वाभाविक रूप से मैं उसकी तरफ जा रहा था क्योंकि कुदरतन हर कोई पूर्णता की तरफ बढ़ता है, पर यह पता नहीं था कि यही समाधि है, और यह सम्भोग से सबसे शीघ्रता से मिलती है। मतलब कि जैसे एक अंधा आदमी हाथी को छू तो पा रहा था, पर उसे यह पता नहीं था कि वह हाथी था। एकबार मैंने अख़बार में ओशो के सम्भोग-समाधि से संबंधित एक लेख को पढ़ा, तो मैं झुंझला गया। खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे वाली बात हुई। मैं अपने शुद्ध प्रेमयोग पर गर्वित जैसा होते हुए एक पिता समान वृद्ध व्यक्ति के सामने उस लेख का खंडन करने लगा। उन्होंने बड़े गुस्से में भड़कते हुए एक ही बात कही, वह ठीक कहता है। उस समय तो कुछ समझ नहीं आया पर अब लगता है कि वे ओशो जैसे महान व्यक्तित्व के कथन का खंडन भी नहीं कर पा रहे थे, और उसे समझ भी नहीं पा रहे थे। साथ में लोकलाज के डर से उसपर कुछ बोल भी नहीं पा रहे। खैर, समय बीतता गया, और मेरे अनुभव का दायरा बढ़ता गया। बहुत वर्षों के बाद की बात है। मानो किसी दैवीय शक्ति से आधिभोतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक, तीनों तापों से तपे हुए मुझ राहगीर को एक सरोवर के निकट उपजे वटवृक्ष की छाया तले जैसे स्थान पर लगभग 2-3 वर्ष विश्राम का मौका मिला। उस सकारात्मक  विश्राम से शक्ति अर्जित करके मैं इंटरनेट पर तंत्र से संबंधित लेख और पुस्तकें पढ़ने लगा। लगभग 10-15 वर्षों से शरीरविज्ञान दर्शन के साथ जीवनयापन करने से तंत्र की तरफ मेरा झुकाव पहले से ही बना हुआ था। मतलब कि बारूद तैयार था, उसे सिर्फ चिंगारी की जरूरत थी। साथ में, बहुत से कुंडलिनी संबंधी ऑनलाइन वार्ता मंचों में भी शामिल होने लगा। वैज्ञानिक व खोजी स्वभाव तो मेरा पहले से था ही। इसलिए यौनतंत्र की सहायता से कुंडलिनी को खोजने की इच्छा हुई, जो कुछ हद तक सफल भी हो गई। तब मैं ओशो के उपरोक्त वैश्विक महावक्य को लगभग  पूरी तरह समझ पाया। एक युगपुरुष को पूरी तरह तो कौन समझ सकता है, इसीलिए साथ में लगभग शब्द जोड़ रहा हुँ। यह अलग बात है कि सम्भोग योग कोई आधुनिक या मध्य युग की खोज नहीं है। शिवपुराण में भी इसका बेहतरीन उल्लेख मिलता है। वहाँ इसे रहस्यात्मक तरीके से लिखा गया है, जैसे अग्निदेव का कबूतर बनकर शिवतेज को धारण करना, उस तेज को सात ऋषिपत्नियों के द्वारा ग्रहण करना, ऋषिपत्नियों के द्वारा उसे हिमालय को देना, हिमालय के द्वारा उसे गंगा में उड़ेलना, गंगा के किनारे पर उगे सरकंडों पर उससे बालक कार्तिकेय का जन्म होना आदि। इस आख्यान को इसी ब्लॉग की एक पोस्ट में विस्तार से रहस्योद्घाटित भी किया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि देशकालातीत भगवान शिव ही संभोग योग के जनक हैं, कोई पार्थिव व्यक्ति नहीं। जहाँ तक मेरे सीमित ज्ञानचक्षु देख पा रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि प्रिय ओशो महाराज ने संभोग योग के वर्णन के दौरान भगवान शिव की इस कथा का हवाला देते हुए इसका श्रेय उन्हें दिया हो। अगर इसकी जानकारी किसी को हो तो कृपया मुझे बताए ताकि मेरे ज्ञान में भी वृद्धि हो सके। सम्भवतः इसी वजह से वे कुछ व्यर्थ के विवादों से भी घिरे रहे। होता क्या है कि जब अपने कथन का श्रेय किसी अन्य को, गुरु को या उच्चाधिकारी को या देवता को या ईश्वर को, या यहाँ तक कि काल्पनिक नाम को दिया जाता है, तो एक तो उससे अनावश्यक अहंकार पैदा नहीं होता, और दूसरा लोगों की गलतफहमी से अनावश्यक बवाल या विवाद भी पैदा नहीं होता। इसीलिए हरेक मंत्र के शुरु में ॐ लगाया जाता है, जिसका मतलब है कि यह कथन ईश्वर का है, मेरा नहीं। मैं भी शुरु से कहता आया हूँ कि इस बारे में मेरा कथन अपना नहीं है। मैं तो वही कह रहा हूँ जो पहले से ही भगवान शिव और ओशो महाराज या युगों पुरातन तांत्रिक कुंडलिनी योगियों ने कहा हुआ है। यह अलग बात है कि सूत्रों के अनुसार नूपुर शर्मा ने भी वही कहा था, जो कुरान में लिखा था, और उसने इस बात का हवाला भी दिया था। फिर भी उस बेचारी अकेली महिला के खिलाफ बहुत से मुस्लिम संगठन और इस्लामिक देश लामबंद हो गए, यहाँ तक कि उस बात पर जेहादियों ने कुछ हिन्दू लोगों का कत्ल तक कर दिया। इससे सिद्ध हो जाता है कि धर्माँधों के मामले में यह सोशल इंजिनीयरिंग तकनीक भी कम ही काम करती है। मुझे तो यह भी लगता है, और जैसी कुछ खबरें और गिरप्तारियां भी सुनने में आईं हैं कि यह नूपुर शर्मा को फँसाने का एक झूठा बहाना था, क्योंकि वह अपने ऊपर अंगुली उठाने का मौका ही नहीं देती थी। यह बहाना ऐसा था कि एक शेर नदी में ऊपर की तरफ पानी पी रहा था। उसकी निचली तरफ एक मेमना भी पानी पी रहा था। शेर ने मेमने से कहा कि तू मेरा पानी जूठा कर रहा है, मैं तुझे खा जाऊंगा। तो मेमने ने कहा कि महाराज, आप तो मेरे से ऊंचाई पर हैं, मेरा जूठा पानी तो आपतक आ ही नहीं रहा, बल्कि मैं आपका जूठा पानी पी रहा हुँ। तो शेर ने कहा कि फिर जरूर तेरे मांबाप ने मेरा पानी जूठा किया होगा, और ऐसा कहकर वह उसको खा गया। प्रखर और तेजस्वी भाजपा प्रवक्ता थी नूपुर शर्मा। हर राजनीतिक या धार्मिक प्रश्न का जवाब बड़ी चतुराई से, तहजीब से, दबदबे से, गहराई से और साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करती थी। सरस्वती, लक्ष्मी और काली की एकसाथ छटाएं दिखती थीं कई बार उनके अंदर। दूरदर्शन की चर्चाओं में अनर्गल और बेतुके तर्क-वितर्क करने वाले इस्लामिक विद्वानों को छठी का दूध याद दिलाती थी वह। भैंस के आगे बीन बजाओगे तो वह माला तो नहीं पहनाएगी न। करे कोई, मरे कोई। अब समय आ गया है कि धार्मिक असहिष्णुता का रोग जड़ से खत्म कर दिया जाए। जब तक मानवतापूर्ण और क़ानूनबद्ध तरीके से ऐसा न कर लिया जाए, तब तक ऐसी उद्वेगकारी बयानबाजी से बचना चाहिए। जब पता है कि बोतल का ढक्कन खोलने से जिन्न बाहर निकलेगा, तो उसे खोलना ही क्यों। दरअसल भोलेभाले और बड़बोले लोगों को भड़काने वाले दूसरे ही शातिर लोग होते हैं। हम किसी का पक्ष-विपक्ष नहीं लेते, न किसी की प्रशंसा करते, न किसी की बेइज्जती, सच को सच और झूठ को झूठ बोलते हैं, धर्माँधों के बिलकुल उलट। चलो भाई, फिर से थोड़ा सा मुख्य विषय कुंडलिनी की तरफ और चलते हैं। मेरे द्वारा या किसी अन्य के द्वारा कुंडलिनी की खोज कोई विशेष बात नहीं है। कुंडलिनी की खोज कोई आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत की खोज नहीं है, कि जिसे एकबार खोज लिया, तो दूसरों को दुबारा खोजने की जरूरत नहीं है। कुंडलिनी की खोज हरेक आदमी को खुद करनी पड़ेगी, और उसके अनुसार जीवनयापन करना पड़ेगा, औरों की खोज से विशेष लाभ नहीं मिलने वाला। दूसरों की खोज से यह अंदाजा जरूर लग सकता है कि वह देखने में कैसी है, और उसे कहाँ और कैसे खोजा जा सकता है।

ओशो महाराज कट्टर धार्मिकता के प्रखर विरोधी थे

ओशो महाराज को मैं इसलिए भी बहुत मानता हूँ, क्योंकि वे धार्मिक कट्टरता के प्रखर विरोधी थे। वे मानते थे कि यह उन्मुक्त आध्यात्मिक चिंतन को नहीं पनपने देती। इससे आदमी के ज्ञान का कमल ढंग से विकसित नहीं हो पाता। वे जेहाद के खिलाफ भी खुलकर अपनी बात रखते थे। उनका कहना था कि परम तत्त्व को धर्म की सुरक्षा के लिए किसी सिपाही की जरूरत नहीं है। वे खुद पूर्ण सक्षम हैं। वे कट्टर धार्मिक अधिष्ठाताओं को मानसिक रोगी जैसा कहते थे। अभी हाल ही में इसी हफ्ते जिहादियों ने राजस्थान के उदयपुर में कन्हैया लाल नाम के एक दर्जी का इसलिए आईएसआई और तालिबानी स्टाइल में बेरहमी से गला रेत कर कत्ल कर दिया क्योंकि उसने नूपुर शर्मा के समर्थन में एक फेसबुक पोस्ट डाली थी। यह घटना फ्रांस में घटित चार्ली हैब्दो जेहादी कांड की याद दिलाती है। यह बेहद निंदनीय है।

कुंडलिनी ही सांख्य दर्शन का पुरुष है, जिसका समाधि रूपी कुंडलिनी जागरण के द्वारा पूर्ण व प्रकृति से पृथक रूप में अनुभव ही योग का मुख्य ध्येय है 

दोस्तो, पिछली पोस्ट में मैं कुंडलिनी के बारे में कुछ दुर्लभ रहस्य साझा कर रहा था। गुरु आदि अपने देह स्वरूप में जितने ज्यादा जीवंत और आध्यात्मिक होते हैं, कुंडलिनी के रूप में उनका मानसिक रूप भी उतना ही ज्यादा मजबूत होता है। यहाँ तक कि वह आंतरिक मानसिक रूप इतना मजबूत होता है कि उसके आगे दूसरे मानसिक रूप या विचार तो फीके पड़ते ही हैं, पर साथ में सारे बाहरी भौतिक रूप भी फीके पड़ जाते हैं। कृष्ण और राम ऐसे ही कुंडलिनी पुरुष थे, इसीलिए उन्हें अवतार माना जाता है। उनके कुंडलिनी रूप अर्थात ध्यान रूप से अनगिनत लोग संसारसागर से तर गए। युगों बीत गए, पर आज भी वे असरदार हैं। वैसे तो कुंडलिनी पुरुष में सभी मानवीय और आध्यात्मिक गुण होने चाहिए, पर निःस्वार्थ भाव, निरहंकारता, और उदारता इनमें सबसे महत्वपूर्ण गुण प्रतीत होते हैं। आप खुद ही सोचो कि अगर कोई अपने स्वार्थ, अहंकार और संकीर्णता के भाव को जरा भी प्रदर्शित करता है, तो उससे बनी-बनाई दोस्ती भी बिगड़ जाती है, प्रेम गया तेल लेने। और जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ कुंडलिनी भी नहीं, क्योंकि कुंडलिनी प्रेमपूर्ण मानसिक चिंतन के आश्रित ही तो है। मैं एक संयुक्त और सामाजिक परिवार में पला-बढ़ा। चारों ओर प्रेमपूर्ण व्यवहार का बोलबाला होता था। थोड़ी-बहुत खटपट तो तब भी होती थी, पर तब वह गौण और निंदनीय होती थी, आजकल की तरह मुख्य और प्रशंसनीय नहीं। आज तो अगर कोई किसी के बुरे व्यवहार के बारे में शिकायत भी करे, तो भी उसे ही किनारे लगाया जाता है, उसके साथ ज्यादा से ज्यादा दिखावे की सहानुभूति प्रदर्शित करके। प्रश्नकर्ता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है। इसलिए चुप ही रहना पड़ता है। उस समय तो बुरा वर्ताव करने वालों की समाज के द्वारा खटिया खड़ी करके रख दी जाती थी। उस समय ज्यादातर लोगों में निःस्वार्थता और उदारता भरी होती थी। आँगन में आया हुआ कोई भी आदमी हो या जानवर, भूखा-प्यासा नहीं जाता था। परिचितों या रिश्तेदारों के बीच एक-दुसरे के परिवारों और घरों में स्थायी तौर पर बस जाने का रिवाज़ आम होता था, क्योंकि एकदूसरों के ऊपर विश्वास होता था, छोटामोटा धोखा खाते रहने के बाद भी। आजकल तो लोगों के पास मेहमानों के लिए, और यहाँ तक कि अपने परिवार के लिए भी समय नहीं है। उस समय अपनों से ज्यादा दूसरों को सम्मान व सुविधाएं देने का प्रयास किया जाता था। आज तो परिवार के असली सदस्य को भी यह महसूस नहीं होता कि वह उस परिवार का सदस्य है।

पिछली पोस्ट के अनुसार, कुंडलिनी को मूलाधार चक्र में इसीलिए सोया हुआ कहते हैं, क्योंकि वह वहाँ अनभिव्यक्त होती है, नष्टभूत नहीं। आदमी नींद में अनभिव्यक्त रहता है, नष्टभूत नहीं। वह सुबह होने पर फिर जाग जाता है। जिस चीज का अस्तित्व है, वह कभी नष्ट नहीं हो सकती, केवल अनभिव्यक्त हो सकती है। समय आने पर वह अभिव्यक्त भी जरूर होगी, क्योंकि अनभिव्यक्ति से अभिव्यक्ति के बीच में रूप बदलते रहना प्रकृति का स्वभाव है। चक्र नाम भी ग्रहीय कक्षाओं से पड़ा है, ऐसा लगता है मुझे। जैसे सौरमंडल में ग्रहों की या परमाणु के अंदर इलेक्ट्रोनों की अलगलग गोलाकार कक्षाएं अलगलग ऊर्जा स्तरों को दर्शाती हैं, उसी तरह अलग-अलग कुंडलिनी चक्र भी कुंडलिनी अर्थात मन की अभिव्यक्ति रूपी ऊर्जा के अलगलग स्तरों को दर्शाते हैं। चक्र का मतलब ही पहिए के जैसा गोल घेरा होता है। कुंडलिनी के आगे से पीछे के चक्र को और पीछे से आगे के चक्र को जाते रहने को कुंडलिनी का गोलाकार घेरे में घूमना भी कह सकते हैं। यह ऐसे ही है जैसे इंजन के पिस्टन की आगे-पीछे की गति करैंक शाफ़्ट से जुड़े फ्लाइ व्हील की गोलाकार गति में बदल जाती है।

मैं यह भी बता रहा था कि कैसे हरेक जीव में, यहाँ तक कि घोरतम अन्धकारमय योनियों और अवस्थाओं में भी उसी तरह परमात्मा बसा होता है, जैसे एक छोटे से बीज में विशाल वृक्ष छिपा होता है। बेशक उन अवस्थाओं में परमात्मा सर्वाधिक अव्यक्त या अनभिव्यक्त होता है, पर पूर्णतः नहीं। इसीलिए वैदिक सांख्य दर्शन में घोरतम मूल प्रकृति को अव्यक्त या प्रधान भी कहते हैं। इसे भी परमात्मा की तरह अनादि और अनंत कहा गया है। यही शक्ति या पवित्र भूत है। यहीं से सभी जीवों की आत्मा आती है। इसीलिए तो यदि सभी जीवात्माएं एकसाथ भी मुक्त हो जाएं, तो भी नए जीव पैदा होते ही रहेंगे, क्योंकि उनकी जीवात्माओं का स्रोत मूल प्रकृति तो अविनाशी है। मुक्ति के बाद जीवात्मा फिर कभी भी मूल प्रकृति की तरफ वापिस नहीं लौटता। वह उसकी पकड़ से हमेशा के लिए छूट जाता है, क्योंकि वह परमात्मा से एकाकार हो जाता है। ऐसा शास्त्रों का कहना है। मेरा अपना छोटा सा अनुभव भी यही कहता है। मुझे सपने में केवल दस सेकंड की आत्मज्ञान जैसी अनुभूति की झलक मिली थी। उसने मुझे लम्बे समय तक दुनिया से अलगथलग सा मतलब अनासक्त बना कर रखा। मुझे पूरी तरह वापिस आने में लगभग दस साल लग गए। तो सोचिए, जब सपने में दस सेकंड के लिए परमात्मा से एकाकार जैसे होने पर (वह भी पूरी तरह से एकाकार नहीं) आदमी दुनिया के चंगुल से छूटने के करीब पहुंच जाता है, तब जो परमात्मा अनादि काल से अपने पूर्ण स्वरूप में स्थित है, वह कैसे इसके चंगुल में फंस सकता है। जीवित अवस्था में ऐसी पूर्ण अवस्था को लाखों में एक-आध लोग ही प्राप्त कर पाते होंगे, आज के भौतिक युग में तो इतने भी नहीं लगते मुझे। कुंडलिनी जागरण और पूर्ण अवस्था में तो जमीन और आसमान का फर्क है। कुंडलिनी जागरण तो सिर्फ एक शुरुवात भर है मुक्तियात्रा की। सबसे पहले जो जीवात्मा बनी, वो कहाँ से आई? यह यक्ष प्रश्न बहुत से लोग उठाते रहते हैं। उपरोक्तानुसार ऐसा भी नहीं कह सकते कि वह परमात्मा से आई। और ऐसा भी नहीं कह सकते कि वह पहले थी ही नहीं, क्योंकि जो पदार्थ असल में है ही नहीं, वह पैदा नहीं हो सकता। कोई भी वस्तु कभी पैदा नहीं हो सकती, और न ही कभी नष्ट हो सकती है, सिर्फ रूप ही बदल सकती है। विज्ञान भी तो इसी भारतीय दर्शन की पुष्टि करता है। विज्ञान में इसे द्रव्यमान और ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धांत कहते हैं, अर्थात प्रिंसिपल ऑफ़ मास एनर्जी कंजर्वेशन। मतलब कि जो चीज हमें नष्ट होती हुई सी लगती है, वह नष्ट न होकर पहले दृश्य ऊर्जा में और फिर अदृश्य ऊर्जा या डार्क एनर्जी में रूपांतरित हो जाती है। इसी सिद्धांत से परमाणु बम बना है, जिसकी धमकी रूस बारबार युक्रेन और नाटो के खिलाफ दे रहा है। शून्य का भी अपना अस्तित्व है। इसी शून्य को विज्ञान में काली ऊर्जा अर्थात डार्क एनर्जी कहते हैं। इसलिए यही मानना पड़ेगा कि शून्यरूप मूल प्रकृति से ही पहली जीवात्मा आई। इससे प्रकृति का अनादि और अनंत रूप खुद ही सिद्ध हो जाता है। अद्वैत वेदांत दर्शन के अनुसार तो मूल प्रकृति भी परमात्मा से भिन्न नहीं है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जैसा मैं पिछली पोस्टों में बता रहा था। अब मैं यह बताता हूँ कि ‘पवित्र भूत’ यह नाम मूल प्रकृति को क्यों दिया गया है। दरअसल यह परम अव्यक्त है, मतलब कि इसमें सब कुछ पूरी तरह से और बराबर मात्रा में अव्यक्त है। इसलिए यह बच्चे या परमात्मा की तरह निष्पक्ष हुई, जिसके लिए सब कुछ बराबर है। इसीलिए इसे सांख्य दर्शन के अनुसार समगुणावस्था भी कहते हैं। यानि कि इसमें स्थूल प्रकृति के सभी गुण या स्वभाव बराबर मात्रा में हैं, हालांकि अव्यक्त रूप में। मतलब कि अगर इससे कभी कुछ व्यक्त होएगा, तो सब कुछ बराबर मात्रा में होएगा, मतलब पूरी सृष्टि इससे अभिव्यक्त होएगी। सृष्टि में कुल मिलाकर सबकुछ बराबर ही होता है, प्लस और माईनस बराबर होते हैं। है तो यह भूत की तरह अन्धकारमय ही, पर है पवित्र। जबकि साधारण भूत में बुरे काम अव्यक्त रूप में ज्यादा छिपे होते हैं। इसलिए वे दूसरों का नुकसान करते हैं, और व्यक्त होने पर या जन्म लेने पर बुरे कर्म करते हैं। साधारण भूत के अँधेरे में ज्यादातर बुरे काम ही छिपे होते हैं, जबकि पवित्र भूत के अँधेरे में सम्पूर्ण सृष्टि छिपी होती है। हालांकि साधारण भूत के रूप में अच्छे काम भी छिपे हो सकते हैं, पर वे परमात्मा की तरह सम या बराबर या निष्पक्ष या निर्लिप्त नहीं होते। उनका झुकाव किसी विशेष कर्म या प्रवृत्ति की तरफ ज्यादा होता है। इसीलिए कहते हैं कि पवित्र भूत परमात्मा की तरफ ले जाता है। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि दोनों में उपरोक्तानुसार बहुत सी समानताएं हैं। खासकर दोनों परिवर्तनरहित, अद्वैत रूप और अनासक्त हैं। यह पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन में बहुत अच्छे से दिखाया गया है। यही अद्वैत तंत्र है, जो सबसे जल्दी फल देता है। तांत्रिक अद्वैतभाव के साथ पंचमकारों का सेवन करते हैं। इससे वे मूल प्रकृति की तरह अव्यक्त बन जाते हैं। फिर यौनयोग की शक्ति से एकदम से उनकी कुंडलिनी सहस्रार में प्रविष्ट हो जाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके मन में किसी विशेष वस्तु की चाह नहीं थी। यदि ऐसा होता तो उनकी शक्ति उस विशेष वस्तु की अभिव्यक्ति पर अटक जाती, मतलब किसी विशेष चक्र पर अटक जाती। हरेक चक्र विशेष पदार्थों व भावों का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे कि मुलाधार चक्र सुरक्षा आदि, मणिपुर चक्र खाद्य आदि, अनाहत चक्र सामाजिक भावनात्मक संबंध आदि, विशुद्धि चक्र वाणी-व्यवहार आदि, आज्ञा चक्र बुद्धि या चतुराई आदि से जुड़े पदार्थों और भावों का प्रतिनिधित्व करता है। सहस्रार चक्र सर्वसमभाव या अद्वैत का प्रतिनिधित्व करता है। इसी वजह से ही विशेष पदार्थ या भाव से जुड़ी आसक्ति के कारण कुंडलिनी उससे संबंधित चक्र पर अटक जाती है। जिस तरह मन से उस आसक्ति को नष्ट करके उससे संबंधित चक्र खुल जाता है, और कुंडलिनी को आगे निकलने का रास्ता दे देता है, उसी तरह हठयोग क्रियाओं से उस संबंधित चक्र को खोलने से उससे जुड़ी आसक्ति खुद ही नष्ट हो जाती है। इस तरह से अद्वैत साधना और कुंडलिनी योग साधना एकदूसरे की अनुपूरक हैं। मैं एक पुस्तक में पढ़ रहा था कि एक आदमी अपने शरीर की मालिश करके अपने चक्रोँ को अर्थात मन की गांठों को खोल रहा था। वह हड्डी तक को छूती हुई गहरी तेल की मालिश करता था। दरअसल मन की आसक्तियाँ या गांठें चक्रोँ से होते हुए शरीर के विभिन्न हिस्सों में जमा हो जाती हैं। जब मालिश से उन्हें खोला जाता है, तो चक्र भी खुल जाते हैं, क्योंकि वे चक्रोँ से जुड़ी होती हैं। ऐसा ही भारी व्यायाम जैसे कि कठिन परिश्रम या कार्डीएक या साईकलिंग से भी होता है। ऐसा ही कुंडलिनी योग से भी सबसे अच्छे और वैज्ञानिक तरीके से होता है। पूरे शरीर के आसनों से चक्रोँ की मालिश तो होती ही है, साथ में सभी सुदूरस्थ नसों और नाड़ियों की मालिश भी हो जाती है, जिससे उनमें फँसी आसक्ति की गांठेँ खुल जाती हैं। मूल प्रकृति के उपरोक्त वर्णन से प्रथमदृष्टया साफ दिख रहा है कि मूल प्रकृति या मूल शक्ति से ज्यादा साधारण, व्यावहारिक, व्याख्यात्मक, जानदार और सारगर्भित शब्द पवित्र भूत या पवित्र आत्मा प्रतीत होता है।

सांख्य दर्शन में दो शाश्वत तत्त्व हैं, प्रकृति और पुरुष। इनके संयोग से जीव बनता है, जैसे वह रज और शुक्र के संयोग से बनता है। इसमें अंधकारमय या रज या यिन या जड़ भाग प्रकृति है, और प्रकाश या शुक्र या यांग या चेतन भाग पुरुष है। सभी जीवों को पुरुष इस जुड़े हुए रूप में ही महसूस होता है, शुद्ध या बिना जुड़े या मूलरूप में नहीं। मतलब उसने कभी मूल प्रकृति को तो शुद्ध रूप में अनुभव किया था, क्योंकि कभी उसने अपनी जीवनयात्रा वहीं से शुरु की थी। उस समय पुरषोत्तम रूपी परमात्मा से उसमें पुरुष रूपी बीज पड़ा था। इसीलिए परमात्मा को वीर्यबीज डालने वाला पिता और प्रकृति को सृष्टि की योनिरूप माता कहा गया है। पर एकबार जीवनयात्रा को शुरु करने के बाद वह शुद्ध मूल प्रकृति को कभी अनुभव नहीं कर पाया, क्योंकि फिर हमेशा उसमें पुरुष का अंश विद्यमान रहा, कभी कम तो कभी ज्यादा। शुद्ध पुरुष को उसने कभी भी महसूस किया ही नहीं था। उसको महसूस करके ही जीव की मुक्ति की शुरुआत होती है। कुंडलिनी रूपी पुरुष को शुद्ध रूप में अनुभव करने के लिए किए जाने वाले अभ्यास का नाम ही कुंडलिनी योग है। अभ्यास करते हुए एक समय ऐसा आता है जब कुंडलिनी का ध्यान इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि आदमी अपने आप को कुंडलिनी के साथ पूरी तरह एकाकार महसूस करता है, अतीव आनंद व अद्वैत के साथ। यही समाधि है। यही कुंडलिनी जागरण है। यही शुद्ध पुरुष का अनुभव है। यही प्रकृति पुरुष का विवेक है। इसे विवेकख्याति भी कहते हैं। मतलब कि प्रकृति और पुरुष के बीच का अंतर और उनका गठजोड़ अच्छे से समझ आ जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कुंडलिनीजागरण के अतिरिक्त आदमी का हरेक अनुभव प्रकृति और पुरुष के मिश्रण से बना होता है। आदमी का अपना रूप प्रकृति होता है, और अनुभव का रूप पुरुष होता है। इसीलिए उन अनुभवों में द्वैत भाव होता है, मतलब आदमी को अनुभव के साथ अपनी एकता महसूस नहीं होती। उसे लगता है कि वह एक दर्शक की तरह अपने से अलग अनुभव दृश्यों को अनुभव कर रहा है। पर कुंडलिनी जागरण के समय आदमी को अनुभव का रूप अपना ही रूप लगता है, अपने से जरा भी अलग नहीं, मतलब पूर्ण अद्वैत भाव होता है। उसे लगता है कि वह बेशक दर्शक है, पर दृश्य अनुभव से अलग नहीं, और अपने को ही दृश्य अनुभव के रूप में महसूस कर रहा है। इसका मतलब हुआ कि आदमी ने शुद्ध पुरुष अर्थात आत्मा का अनुभव किया। खैर ये तो थ्योरेटीकल बातें  हैं, जो सांख्य दर्शन का निर्माण करती हैं। इसका प्रेक्टिकल रूप तो समाधि का अनुभव है, जो योगदर्शन का निर्माण करता है। योग सांख्य दर्शन को वैज्ञानिक प्रयोग से प्रमाणित करता है। 

फिर मैं कह रहा था कि रूपक या रहस्यात्मक रूप में जो बात कही जाती है वह स्पष्ट बात से कहीं ज्यादा प्रभावशाली होती है, क्योंकि वह सीधे अवचेतन मन में बैठकर संस्कार बन जाती है। इसलिए मैं कभी नहीं चाहता था कि हिन्दु शास्त्रों और पुराणों का वैज्ञानिक रहस्योदघाटन करूँ। पर जब मैंने देखा कि तथाकथित छद्म हिन्दू या धर्मनिरपेक्षतावादी या आधुनिकतावादी, और अन्य हिन्दुविरोधी मानसिकता वाले लोग लगातार दुष्प्रचार करते हुए हिंदु धर्म को नष्ट करने पर ही उतारू हो गए हैं, तब मुझे ऐसा करना पड़ा। यह विशेषतः उन्हीं का मुँह बंद करने के लिए है। ऐसा तभी होगा, जब वे हिन्दु दर्शन के विज्ञान को समझकर उससे लाभ उठाएंगे। यदि अच्छी भावना के साथ उनका रहस्योद्घाटन न किया जाए तो हिन्दुविरोधी लोग बुरी भावना के साथ उनका रहस्य उजागर करेंगे, या झूठा रहस्योद्घाटन करेंगे। जैसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद में मिले शिवलिंग के बारे में किया जा रहा है। वैसे दरअसल न तो मैंने ऐसा कभी सोचा और न ही कुछ ऐसा किया। सब कुछ खुद ही होता गया जरूरत के अनुसार। यह मैं प्रकृति की सोच और उसके कर्म को दर्शा रहा हूँ। इसलिए इसे मेरा नहीं, प्रकृति का योगदान समझा जाए तो ही उचित है। अगर कोई मुझे पढ़ने के लिए देगा, तो मैं तो उसी रहस्यात्मक मूलरूप को पढ़ना पसंद करूंगा। इसी तरह किसी की अच्छी रचना को पढ़ना हो या उसे पसंद करना हो, तो उसमें मुख्यतः माँ शक्ति का योगदान देखना चाहिए, रचनाकार का नहीं। कई लोग अच्छी रचनाओं को इसलिए नहीं पढ़ते या इसलिए पसंद नहीं करते, क्योंकि वे उसे केवल रचनाकार की कृति मानते हैं, और कई बार तो उनका रचनाकार के प्रति पूर्वाग्रह भी होता है। यदि वे रचना को प्रकृति माता की कृति मानें, तो वे भी उस रचना से लाभ उठा सकते हैं, और रचनाकार का हौंसला भी बढ़ा सकते हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि आदमी हर किसी रचना पर ध्यान दे। पर यदि असल में उसे रचना अच्छी लग रही है, तो उसे मन मसोस कर नहीं रहना चाहिए, रचना से पूरा लाभ उठाना चाहिए। इससे रचनाकार को भी अच्छा लगेगा। आजकल मैं फेसबुक और व्हाट्सएप पर ऐसी गुटबंदी अक्सर देखता हूँ जब लोग रचना को न देखकर उस गुट को या व्यक्ति को देखते हैं, जहाँ से साहित्यिक आदि रचना आई है। अपने गुट या बड़बोले आदमी से आई छीँक पर भी ढेर सारी प्रतिक्रियाएं मिलती हैं, जबकि अगर विरोधी गुट का आदमी या ज्यादातर शांत-मौन रहने वाला व्यक्ति जन्नत से महफ़िल भी उतार दे, तब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती, बेशक मन में लड्डू फूट रहे हों। यह अलग बात है कि असली लेखक प्रतिक्रिया से अपेक्षा नहीं रखता, पर सच्ची प्रतिक्रिया से पाठक को ही अतिरिक्त लाभ मिलता है। ऋषियों-फकीरों ने बहुत पहले ही आदमी की इस कमी को भांप लिया था, इसलिए उन्होंने युगों पहले ही इस बारे यह दोहा बनाकर चेता दिया था, “मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान”। आदमी को नीरक्षीर ग्राही होना चाहिए। जैसे हँस पानी मिले दूध में से केवल दूध ही पीता है, इसी तरह आदमी को भी अच्छी चीज हर जगह से ग्रहण कर लेनी चाहिए। कई लोग स्वार्थवश रचना को पढ़ते हैं। कइयों का मकसद समाज में अपना दबदबा कायम करना होता है। कई लोग इसलिए किसीकी रचना पढ़ते हैं, ताकि बदले में वह भी उनकी रचनाएं पढ़े। मुझे तो वैसे पाठक सबसे अच्छे लगते हैं जो निस्वार्थ भाव से रचना का आकलन करते हैं। वैसे भी मुझे लेखकों से अच्छे पाठक लगते हैं। लेखक में अहंकार पैदा हो सकता है, पर पाठक में नहीं। इसीलिए रचना का लाभ लेखक से ज्यादा पाठक को मिलता है। रचना को पढ़ने और पसंद करने से पाठक को भी उत्कृष्ट रचना बनाने की प्रेरणा मिलती है। मैं बहुत सी उत्कृष्ट किताबें, कविताएं पढ़ा करता था, और उन्हें पसंद भी करा करता था। इससे क्या हुआ कि मुझे भी रचना निर्माण की शक्ति मिलती रही, जिससे मेरी रचनाओं में निरंतर सुधार होता रहा। अब मैं अपने पाठकों में बहुत से भावी उत्कृष्ट रचनाकार देखता हूँ। यह परम्परा निरंतर चलती रहती है, और समाज जागृति की ओर कदम दर कदम बढ़ता रहता है।

इसी तरह पिछले लेख में बात चली थी कि बेशक योग के दौरान कुंडलिनी चित्र का ध्यान किया जा रहा हो, पर असल में वह उस चित्र या प्रतिबिम्ब का या उसको बनाने वाले बिम्ब का नहीं होता, बल्कि साधक द्वारा अपने रूप का ध्यान हो रहा होता है। किसी के मन के जो भी चित्र या भाव हैं, वे सब मिलकर उस आदमी का अपना रूप या मन बनाते हैं। कुंडलिनी चित्र को नियमित ध्यान से सबसे मज़बूत बनाया जाता है, ताकि वह पूरे मन का नेता बन सके। भीड़ को नेता के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है, सीधे तौर पर नहीं। मन को आप एक दरी समझ लो। विचारों और भावों को आप उस पर चिपकी धूल समझ लो। डंडे को आप कुंडलिनी चित्र समझ लो। डंडे से दरी को जोरजोर से पीटने को आप कुंडलिनी ध्यानयोग समझ लो। उससे जो धूल के कण बाहर झड़ते हैं, उन्हें आप मन में दबे हुए चेतन और अवचेतन किस्म के विचार और भाव समझ लो। बहुत गहराई से चिपके कणों को अवचेतन किस्म के विचार समझ लो। ऊपर-ऊपर से हल्के तौर पर चिपके कणों को चेतन किस्म के सतही विचार समझ लो। धूल के कण पहले बाहर निकलते हुए दिखते हैं, फिर खुले वायुमंडल में विलीन हो जाते हैं। इसी तरह मन के दबे विचार पहले महसूस होते हैं, फिर ऐसा लगता है कि कहीं शून्य में विलीन हो गए। आसपास में जैसे अधिक गति से वायु के चलने से धूल के कण ज्यादा मात्रा में बाहर निकलकर खुले गगन में गायब हो जाते हैं, उसी तरह लम्बी और गहरी साँसें लेने से मन के दबे विचार ज्यादा मात्रा में बाहर निकलकर आत्मा रूपी खुले आकाश में विलीन हो जाते हैं। यही साक्षीभाव या विपासना है। इस तरह से आत्मा की सफाई होती जाती है, और वह निर्मल से निर्मल होती रहती है। इसीको आत्मा का ध्यान कहा है, कुंडलिनी की सहायता से। जैसे मध्यम, एकसार व एक दिशा में चलने वाली हवा की गति से दरी के धूलकण ज्यादा अच्छी तरह से बाहर निकलकर गायब हो जाते हैं, वैसे ही इसी तरह की सांसों से मन के विचार ज्यादा अच्छी तरह से गायब होते हैं। जैसे हल्की हवा चलने से धूलकण दुबारा दरी पर बैठ जाते हैं, उसी तरह ठीक से सांस न लेने पर विचारों का कचरा पुनः मन पर बैठ जाता है। जैसे दरी को झाड़ने के बाद डंडे को हटा देते हैं, उसी तरह मन के पूरी तरह से साफ होने के बाद कुंडलिनी चित्र भी खुद ही गायब होने लगता है। यह अलग बात है कि नियमित योगसाधना से उसे हमेशा जिंदा रखा जाता है, ताकि मन पर लगातार जमने वाली विचारों की धूल साफ होती रहे। यह ऐसे ही है जैसे प्रतिदिन सुबह-शाम डंडे से दरी को झाड़ा जाता रहता है, और दिन में डंडे को साइड में रखा जाता है। पवित्र कुंडलिनी चित्र पिछली पोस्ट में दर्शाया गया वही फरिश्ता है, जिसे इस्लाम में सच्चा मुसलमान माना जाता है। अन्य मानसिक चित्र काफ़िर जिन्न भी हो सकते हैं, जो अल्लाह से दूर ले जाते हैं।

पिछले लेख में यह बात भी चली थी कि कुंडलिनी को एकदम से मूलाधार से सहस्रार को उठाने के लिए लोग सम्भोग की ओर आकर्षित होते हैं। पर वे उसके लिए पर्याप्त समय व शक्ति नहीं दे पाते, जिससे लाभ कम और कई बार तो नुकसान भी हो जाता है, जैसे वीर्यशक्ति का बहिर्गमन, अनचाहा गर्भ, यौन संक्रमण या प्रॉस्टेट आदि की समस्या। सम्भोग जीवन का सबसे सुखद और निर्णायक काम है। उसके लिए रात्रि का वह बचा-खुचा समय रखा गया है, जिस समय उसमें किसी भी कार्य को करने की शक्ति नहीं बची रहती, और जिस समय आदमी बेहोशी जैसी अवस्था में होता है। यह तो सम्भोग की दिव्यता है कि यह उस हालत में भी आदमी को तरोताज़ा कर देने का पर्याप्त प्रयास करता है। तब सोचो कि पहले से ही तरोताज़ा होने पर यह कितनी ज्यादा दिव्यता और कुंडलिनी शक्ति देता होगा। शास्त्रों में भी इसका वर्णन है। एक ऋषि ने एकबार अपनी कामातुर पत्नि के साथ संध्या के समय सम्भोग किया था, जिससे उसके गर्भ से दो भयानक व शक्तिशाली राक्षसों का जन्म हुआ था। यह उसी सम्भोग शक्ति से हुआ था। यह अलग बात है कि किसी वजह से वे सम्भोग शक्ति को कुंडलिनी देव को नहीं दे पाए, जिससे वह खुद ही उसके विपरीत स्वभाव वाले राक्षस को मिली। अगर कुंडलिनी देव को वह शक्ति मिलती तो सम्भवतः दो देवों का जन्म होता। मतलब कि उन्होंने सम्भोग को यौनयोग की तरह नहीं किया। सम्भवतः इसीलिए शास्त्रों में गैरवक्त में सम्भोग को वर्जित किया गया है। इतना तो इससे प्रमाणित हो ही गया है कि दिन के समय किए सम्भोग में बहुत शक्ति होती है। जिस शक्ति से राक्षस पैदा हो सकता है, उससे देवता भी पैदा हो सकता है। राक्षस सम्भवतः रूपक की तरह आसक्ति से भरी दुनियादारी को कहा गया है। देवता अर्थात कुंडलिनी फिर अनासक्ति व अद्वैत से भरी दुनियादारी हुई। आप इड़ा और पिंगला को दो राक्षस कह सकते हैं। सुषुम्ना चैनल को एकल देवता माना जा सकता है। यदि इड़ा और पिंगला की शक्ति आसक्तिपूर्ण सांसारिक भोगों के बजाय सुषुम्ना को हस्तांतरित कर दी जाए तो इड़ा और पिंगला को भी दो देवता कहा जा सकता है। इस तरह समाज के द्वारा सम्भोग को नजरन्दाज करने का मतलब है कि इसको सबसे फालतू और गैरज़रूरी काम माना गया है, जबकि सच्चाई यह है कि जीवन की सभी तरक्कियों और मुक्ति का रास्ता इसीसे होकर जाता है। दुनियादारी के बंधनों के लिए अच्छे से अच्छे समय चिन्हित किए जाते हैं, और इस शक्तिजागरण पैदा करने वाली क्रिया के लिए वह समय दिया जाता है, जब आदमी हर जगह से थकहार कर बैठ जाता है। मेरा एक हमउम्र जैसा गांव का चाचा बता रहा था कि वह जब एकबार जंगल के बीच बने रास्ते से गुजर रहा था, तो उस रास्ते के ऊपर कुछ स्थानीय महिलाएं पशुओं के लिए घास काट रही थीं। उनमें से एक महिला बाकियों को सुना रही थी कि एक तो पूरे दिनभर काम करके थक कर घर जाएं और ऊपर से वे रात को बेलन जैसे सरका दें। सभी भुक्तभोगी साथी महिलाओं ने उसकी दुख भरी दास्तान का अनुमोदन किया। अजीब विडंबना है। नारी जाति का कितना बड़ा अपमान है यह, और उसे इसे इस बात की भनक नहीं। उल्टा महिला अधिकार वाले केस कर दें ऐसी तथ्यपूर्ण बातों को लेकर। मेरा एक यूएसए का ब्लॉग मित्र भी यही अनुभवसिद्ध बात कर रहा था कि एक बार में ही लगातार काफी देर तक वीर्यनिरोधक सम्भोग करते हुए ही एक ऐसा थरेशहोल्ड या सीमाबिंदु आता है, जब मूलाधार की कुंडलिनी ऊर्जा पीठ से ऊपर चढ़ती हुई पूरे शरीर को तरोताज़ा और जागरण की ओर रूपांतरित करने लगती है। हालांकि कई बार यह ऊपर की ओर चढ़ने वाली और रूपान्तरण करने वाली ऊर्जा उस समय महसूस नहीं होती, पर एक-दो दिन बाद महसूस होने लगती है, विशेषकर कुंडलिनी योग के साथ। दरअसल यह सीधी सम्भोग की ऊर्जा नहीं होती, जैसी कि आम आदमी गलतफहमी से सोचते हैं, पर उसके रूपान्तरण से बनी आध्यात्मिक या कुंडलिनी ऊर्जा होती है। इसलिए इसके लिए हम आम बोलचाल का सम्भोग शब्द भी इस्तेमाल नहीं कर सकते। यौनयोग ज्यादा उपयुक्त शब्द लगता है। ऐसा समझ लो कि इसके लिए सभी कामधंधे छोड़कर पूर्णतः एकांत में (यहाँ तक कि इसकी कभी किसीको कानोंकान खबर न लगे, क्योंकि यौनकुंठित लोगों की इस पर बड़ी बुरी नजर लगती है, वैसे भी इसे सामाजिक नहीं कहा जा सकता, इसीलिए इसको गुह्य या गुप्त विद्या कहते हैं), बिना किसी विघ्न या व्यवधान के, समर्पित किए गए दिन के प्रातःकालीन या अन्य समय की तरोताज़ा तन-मन की अवस्था में 3-4 घंटे काफी है, इस जागरण-प्रारम्भ के लिए जरूरी सीमाबिंदु को प्राप्त करने के लिए। किसी के पास शक्ति और समय हो तो बीच-बीच में नींद की झपकियां लेते हुए जितने लम्बे समय तक चाहे कर सकता है। दुनिया में प्रेम और सुख से ज्यादा जरूरी भला क्या कामधंधा हो सकता है। पर ऐसी बातें किसीको बताना नहीं मांगता। सेक्स-कुंठित समाज में सेक्स की बात करने वाला व्यक्ति हंसी का पात्र बनता है। हाहाहा। 😄। लगता है इसी यौन कुंठा के कारण ही लोगों को पर्याप्त यौन संतुष्टि नहीं मिल रही है, जिससे समाज में महिला उत्पीड़न, व्यभिचार और बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं। मुझे तो लगता है कि समाज के सभी झगड़ों और समस्याओं के मूल में यही कारण है। वैसे भी बीच-2 में कुंडलिनी को यौन योग से पुनारवेशित या रिचार्ज करते रहना पड़ता है, नहीं तो यह उबाऊ या अल्प प्रभावी सा लगने लगता है। ओशो महाराज ठीक कहते थे कि सम्भोग के बारे में कभी पर्याप्त शोध हुए ही नहीं हैँ। समाज आज के तथाकथित आधुनिक युग में भी इतना उन्मुक्त नहीं हुआ है कि कोई कह दे कि वह कुछ दिनों के सम्भोग के लिए भ्रमण या आऊटिंग पर जा रहा है या काम से छुट्टी ले रहा है। आजकल तो कर्मोन्माद है हर जगह। काम, काम और बस काम। सम्भोग को तो केवल संतान पैदा करने वाली मशीनी कार्यवाही भर मान लिया गया है, लगता है। साथ में इसको फालतू और सबसे ओछे काम की तरह मान लिया गया है। परिणाम, जनसंख्या विस्फोट। ऐसी मानसिकता के साथ किए सम्भोग से जो जनसंख्या बनेगी, उसकी गुणवत्ता पर भी प्रश्नचिन्ह तो लगेगा ही। व्यक्तिगत जीवन और मुक्तिपथ का बोध ही नहीं है। इसी अंधे कर्मोन्माद से ही तो दुर्घटनाएं और युद्ध हो रहे हैं, जिनसे आम बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध को ही देख लो। क्या इसी के लिए दिनरात जीतोड़ मेहनत करके इतना विकास किया था। जिस अंधे काम से सदबुद्धि ही नष्ट हो जाए, उस काम से क्या लाभ। अभी चार-पांच दिन पहले दिल्ली के अवैध कारखाने में आग लगने से बीस से ज्यादा लोग जल कर मर गए और इतने ही लोग लापता हो गए। माना कि प्रशासन की लापरवाही है, पर आम जनता की भी कम नहीं है। हालांकि मासूम लोग ग़रीबी और घनी जनसंख्या से मजबूर हैं खतरे के नीचे जीवनबसर करने के लिए। सबसे ज्यादा दोषी तो वे बड़े लोग हैं, जो ज्यादा मुनाफे के लिए ऐसा अवैध काम कर रहे हैं। एक नवयुवती बालिका की चीखें यह कहते हुए कि अगर उसकी लापता बहिन नहीं मिली तो वह अपनी माँ और अन्य बहन के साथ सामूहिक आत्महत्या कर लेगी, दिल को चीर देती है। पहले भी ऐसी घटनाएं बहुत हुई हैं, पर उनसे ठीक सबक नहीं लिया, ऐसा लगता है। बस विकास, विकास और विकास। अगर जनसंख्या को नियंत्रित नहीं किया तो चाहे जितना मर्जी विकास कर लो, सब थोड़ा पड़ जाएगा। विकास भी ऐसा कि आजादी को मिले सत्तर साल से ज्यादा समय हो गया, पर बच्चों के स्कूल बैग का वजन घटने की बजाय बढ़ रहा है। एक दिन में अपने बेटे का स्कूल बैग पीठ पर लेकर उसको बाईक पर स्कूल छोड़ने गया। बैग इतना भारी लगा मुझे कि मेरे से संतुलन बिगड़ गया, और जैसे ही बाईक रोकी, वैसे ही बाईक के साथ हम दोनों एक तरफ को गिर गए। बेटे ने बैग पकड़ा हुआ था, इसलिए वह भी उसके साथ एकतरफ को झूल गया। संतुलन से संबंधित ज्यादातर बाईक की दुर्घटनाएं पीछे बैठने वाले के कारण होती हैं, इसलिए उसे ही पीछे बैठाएं, जिसे बाईक पर बैठना आता हो, या बैठना सिखा दें। हालांकि वहाँ जमीन भी समतल न होते हुए थोड़ी तिरछी थी। दरअसल आजकल के आधुनिक मोटरसाइकलों में न्यूट्रल गियर दूसरे और पहले गियर के बीच में आता है, इससे धोखा लगता है। मैंने डॉउनशिफ्ट किया तो जीरो गियर लग गया। इससे बाईक ने रेस नहीं ली। इससे संतुलन बिगड़ गया।  गनीमत यह रही कि चोट नहीं लगी और एक स्कूल बस पर्याप्त दूरी पर चल रही थी बहुत धीरे से, क्योंकि वहाँ मोड़ था और ट्रेफिक का रश था। हालांकि उसने मौके को भाम्पते हुए पहले ही बस रोक दी थी। स्कूल वालों को बच्चों की किताबें स्कूल में ही रखवाई रखनी चाहिए। यहाँ ट्रेफिक नियमों की अनदेखी भी अक्सर होती रहती है। मेरी पत्नि की एक मित्र की मित्र जो विदेश में भी जाके रहती है कह रही थी कि यहाँ की ड्राइविंग तो बड़ी विचित्र और क्रन्तिकारी या जानलेवा जैसी है। पर मुझे तो लगता है कि यहाँ के ड्राइवर बड़े सेंसिबल हैं, इसीलिए तो मूलभूत सुविधाओं के अभाव में और इतनी ज्यादा जनसंख्या होने के बावजूद भी अपेक्षाकृत कम सड़क दुर्घटनाएं होती हैं। फिर भी यहाँ रोड पर चलने वाले को काफ़ी अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है। भगवान बचाए। ऐसा ही विकास काशी विश्वनाथ मंदिर में हुआ सत्तर सालों में। आज भी वहाँ मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा जो मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई, उसका शिवलिंग उस मस्जिद के वजूखाने तलाब में एक सर्वे के द्वारा मिलना बताया जा रहा है। अयोध्या को तो अपना राम मंदिर वापिस मिल गया, पर उन हजारों मंदिरों का क्या होगा जिनको तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं। क़ुतुब मीनार में भी बहुत से मंदिरों के साक्ष्य मिले हैं। जिस ताजमहल को दुनिया के अजूबों में जगह मिली है, वह भी तेजोमहालय नाम का शिव मंदिर था, जिसकी पुष्टि बहुत से ऐतिहासिक साक्ष्य करते हुए बताए जा रहे हैं। मथुरा के मुख्य श्रीकृष्ण मंदिर की भी यही कहानी है।

कुंडलिनी योग ही असली एकेश्वरवाद है, जो दुनिया के सभी धर्मों और सम्प्रदायों का मूल सारतत्त्व है

दोस्तो, मैं पिछली पोस्ट में जिन्न और कुंडलिनी की समतुल्यता के बारे में बात कर रहा था कि जब जिन्न मेरे साहसरार चक्र में जीवंत जैसा होकर मेरे से एकरूप हो गया, मतलब जब देखने वाला मैं और दिखने वाला जिन्न, दोनों अभेद हो गए, तब वही कुंडलिनी जागरण कहलाया। शास्त्रों में भी समाधि या कुंडलिनी जागरण की यही परिभाषा है।क्यों न हम जिन्न की बजाय फरिश्ता कहें, क्योंकि यह मुझे ज्यादा उपयुक्त लग रहा है। क्योंकि वह असली जिन्न न होकर उसका दर्पण-प्रतिबिम्ब था। मतलब उसमें अपनी स्वतंत्र इच्छा नहीं थी, वह ईश्वर की इच्छानुसार अच्छाई की तरफ ही चलता था। फरिश्ता भी ऐसा ही होता है। जिन्न का क्योंकि अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है, इसलिए वह किसी भी दिशा में ले जा सकता है। इसे यूँ समझ सकते हैं कि जिन्न किसी संसारचक्र में भटकते हुए जीव या मनुष्य का मानसिक चित्र है, जैसे किसी आदमी की याद मन में बसी होती है। वह आदमी वर्तमान में कहीं जीवित अवस्था में भी हो सकता है, और मृत्यु के बाद की पारलौकिक प्रेत अवस्था में या किसी अन्य योनि में भी। इसका मतलब है कि वह जो इच्छा या कर्म करेगा, वह टेलीपेथी आदि के माध्यम से उसके चित्र तक प्रसारित हो जाएंगे, जो उसको मन में धारण करने वाले साधक को जरूर परेशान करेंगे। साथ में, उसकी याद के साथ उसके आसक्ति आदि दुर्गुण भी तो मन में बसे ही होंगे। साधक को अपनी दृढ इच्छाशक्ति से उन्हें दबाना पड़ता है। इसीलिए कहते हैं कि जिन्न को सही रास्ते पर लगाए रखने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। पर इसके विपरीत फरिश्ता किसी ऐसे व्यक्ति का मानसिक चित्र होता है, जो यदि जीवित है, तो जीवन्मुक्त की तरह इच्छारहित होता है, और यदि मृत है, तो भी या तो मुक्त होता है, या किसी दिव्यलोक में होता है, किसी जीव-योनि में नहीं जन्मा होता है। साथ में, उसकी याद के साथ उसके अनासक्ति आदि दिव्य गुण भी मन में खुद ही बसे होते हैं। इसलिए फरिश्ता हमेशा तटस्थ और अछूता रहता है। इसलिए वह साधक की साधना में व्यवधान न डालकर साधना में एकप्रकार से मदद ही करता है। इसीलिए कहते हैं कि गुरु या आध्यात्मिक प्रबुद्ध या मुक्त व्यक्ति या देवता का ध्यान करना चाहिए। फिर कहते हैं कि फरिश्ता प्रकाश से बना होता है, जिन्न की तरह आग से नहीं। वैसे भी प्रकाश आग से ज्यादा दिव्य, शांत, सूक्ष्म, सतोगुण युक्त और तेजस्वी होता है। आसक्ति और अद्वैत जैसे आध्यात्मिक गुणों से भरा व्यक्ति पहले से ही सूक्ष्म होता है, इसलिए स्वाभाविक है कि उसका मानसिक चित्र तो और भी ज्यादा सूक्ष्म होगा। इसीलिए फ़रिश्ते को प्रकाश कहा है। दूसरी ओर, जिन्न ज्यादातर भड़कीले और सेक्सी लोगों के चित्र होते हैं। इसलिए वे ज्यादा स्थूल होते हैं, आग की तरह। इसीलिए दुनिया में सेक्सी लोगों का ज्यादा बोलबाला रहता है। दुनिया में फँसे लोगों को फ़रिश्ते बनने वाले साधु लोग कहाँ पसंद आने वाले। मुझे साधु और स्वादू एकसाथ प्राप्त हुए थे, इसलिए मैं साधु से ऊबा नहीं। स्वादू मतलब सेक्सी लोगों ने साधु के प्रति आकर्षण बना के रखा, क्योंकि सम्भवतः साधु और स्वादू के बीच अच्छी आपसी ट्यूनिंग थी। यह ऐसे ही था जैसे चीनी के साथ कड़वी दवा भी मीठी लगने लगती है।इसीलिए तो मेरे मन में एक जिन्न, और एक फरिश्ता, दोनों एकसाथ स्थायी तौर पर बस गए, जैसा कि मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था। यह एक अच्छी टेक्टिक साबित हो सकती है। जिन्न ज्यादातर प्रणय प्रेम वाली आग से बने होते हैं। जब असफल प्रेम संबंध आदि के कारण सैक्स की आग मन में लम्बे समय तक दबी रहती है, तब वह जिन्न बन जाती है , इसीलिए तो जिन्न सम्भोग के भूखे होते हैं। मुझे तो लगता है कि बिना धुएं की आग वज्र की यौन संवेदना को ही कहा गया है, क्योंकि वह आग की तरह प्रकाश और गर्मी से भरी होती है, और उसमें धुआँ भी नहीं होता। जिंग यौन-संवेदना की ऊर्जा को कहते हैं। हो सकता है कि जिंग से ही जिन्न शब्द बना हो। ये दोनों शब्द एक ही बिरादरी के हैं। एकसाथ कई मतलब भी हो सकते हैं इसके। जिन्न को अच्छा बनाना पड़ता है, पर फरिश्ता स्वभाव से ही अच्छा होता है। फरिश्ता जिन्न के बुरे स्वभाव पर लगाम लगा कर रखता है। अच्छे जिन्न और फरिश्ते के स्वभाव में ज्यादा अंतर नहीं होता है। अच्छा जिन्न साधना या संस्कार की कमी से बिगड़ भी सकता है, पर फरिश्ता नहीं बिगड़ता। सम्भोग से फरिश्ते भी शक्ति प्राप्त करते हैं, पर वे उस शक्ति से आदमी को कुंडलिनी जागरण की तरफ ले जाते हैं, जबकि जिन्न अधिकांशतः दुनियादारी की तरफ ले जाते हैं। साथ में मैं बता रहा था कि कैसे कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी का रुझान लेखन की तरफ बढ़ता है। दरअसल लेखन भी एक कुंडलिनी योग ही है, एक साक्षीभाव योग या विपासना योग। लिखने से पुरानी बातें मानसपटल पर अनासक्ति के साथ उभर कर विलीन होने लगती हैं, जिससे अन्तःकरण स्वच्छ होता जाता है। कुंडलिनी योग में भी ऐसा ही होता है। कुंडलिनीजागरण या कुंडलिनी ध्यान की शक्ति से चित्रविचित्र नए-पुराने विचार मन में साक्षीभाव या अनासक्तिभाव से उभरते हुए इसी तरह विलीन होते रहते हैं। जब तक पुरानी घटनाओं को मन में पुनः न उभारा जाए, तब तक वे वैसी ही मन में दबी रहती हैं, और आदमी को आगे बढ़ने से रोकती हैं। मैं यह भी बता रहा था कि जिन्न आदि सूक्ष्म या आकाशीय प्राणी केवल मन में होते हैं, बाहर कहीं नहीं। इसका मतलब है कि दरअसल वे होते तो किसी भौतिक पुरुष या स्त्री के चित्ररूप ही हैं, पर उनसे पूरी तरह अलग होते हैं। आप अपना चेहरा दर्पण में देख लो। आप खुद कहोगे कि मैं यह नहीं हूँ। आदमी का असली रूप उसका मन होता है, चेहरा नहीं। आदमी अपने मस्तिष्क में बने उस मानसिक चित्र के साथ अपनी भावनाएं जोड़ देता है, अपना मन जोड़ देता है, अपनी मान्यताएं जोड़ देता है, अपनी धारणाएं जोड़ देता है। इसीलिए कहते हैं कि दुनिया हमें वैसी ही दिखती है, जैसी इसे हम देखना चाहते हैं, या जैसा हमारा अपना स्वभाव है, दुनिया का अपना कोई रूप नहीं। आप अपने गुरु का ध्यान वर्षो तक करो, उससे कुंडलिनी जागरण भी प्राप्त कर लो, फिर अगर उनसे अचानक मिलो, तो वे आपको पहचान भी नहीं पाएंगे। आपने गुरु के बाहरी रूप का ध्यान किया, उनके मन का नहीं। किसीके मन का ध्यान कोई नहीं कर सकता, क्योंकि वह दिखता नहीं। मेरे कॉलेज टाइम का एक नवयुवक एक लड़की को बहुत चाहता था। जब वह कई वर्षों बाद उससे मिला, तो उसने उसे पहचानने से भी इंकार कर दिया। वह इस गम को बर्दाश्त न कर सका, और उसने नजदीक बने पुल से नदी में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। वैसे तो वह पहले भी आत्महत्या का प्रयास कर चुका था, अवसादग्रस्त की तरह था, और कुछ हद तक शराब की लत के अधीन भी था। दरअसल वह यौनप्रेम के वशीभूत होकर लड़की के बाहरी रूपरंग का ही ध्यान करता था, उसके मन अर्थात उसके असली स्वरूप का तो नहीं। अपने मन में बने उसके चित्र को उसने अपना स्वरूप दिया हुआ था। एकप्रकार से वह अपने से ही प्यार करता था। वस्तुतः हर कोई अपने से ही प्यार करता है, पर वह उसे किसी बाहरी व्यक्ति पर झूठमूठ ही आरोपित करता है, और फँसता है। कई चालाक लोग मीठी-मीठी बातें बनाकर इस झूठ को मनवा भी देते हैं, जिससे कई बार प्रेमिका उनके जाल में फँस भी जाती है। इसीलिए पतंजलि योग में उस चीज के चित्र को ध्यान का आलम्बन कहा है, जिसका मन में ध्यान किया जाता है। दरअसल ध्यान अपना ही होता है, इसीलिए मानसिक चित्र को ध्यान के लिए सहारा कहा है, असली ध्यान की वस्तु नहीं। इसीलिए ध्यान को आत्मानुसन्धान भी कहा जाता है, कुंडलिनी अनुसन्धान या जगत अनुसन्धान नहीं। दरअसल कुंडलिनी ध्यान या कुंडलिनी जागरण आत्मानुसन्धान का एक जरिया है, असली आत्मानुसन्धान नहीं। आपने फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस में भी देखा होगा कि मुन्नाभाई को मन में दिखने वाला गाँधी उसे वही बात बताता था जो बात उसको खुद को पता होती थी। जो उसे खुद पता नहीं होता था, उसे उसका गाँधी भी नहीं बता पाता था। दरअसल गाँधी के बारे में किताब पढ़ कर उसका मन गाँधी जैसा बन गया था, पर उसके मन ने उसे इस भ्रम में डाल दिया कि गाँधी खुद उसके अंदर बस गए हैं। ये बनावटी तरीका बढ़िया है कि सुबह-शाम एक विशिष्ट मानसिक चित्र का ध्यान कर लो, और जिंदगी मजे से जीते रहो। इससे सब कुछ किया या भोगा हुआ उस चित्र के द्वारा किया और भोगा हुआ माना जाएगा। आदमी खुद सब चीजों से अछूता रहेगा, अनासक्त रहेगा, जल में पड़े कमलपत्र की तरह। ऐसे ही जैसे मुन्नाभाई के लिए सबकुछ गाँधी कर रहा था, जबकि दरअसल वह खुद ही सबकुछ कर रहा था। यही दैनिक कुंडलिनी योग है। यही दैनिक पूजा-अराधना है। यही दैनिक संध्या-वंदन है। यह एक आश्चर्यजनक आध्यात्मिक मनोविज्ञान है, जो मुक्ति की ओर ले जाता है।

ईसाई धर्म में ये मान्यता है कि गिरे हुए फ़रिश्ते ने औरतों के साथ सम्भोग करके मानव जाति को आगे बढ़ाया। ऐसे बहुत से पुराने चित्र या शिलालेख हैं जिनमें राक्षस को औरत के साथ सम्भोगरत दिखाया गया है। इसीलिए पुराने समय में औरतों को ज्यादा सजधज कर खुले में बाहर घूमने की ज्यादा छूट नहीं होती थी। गिरा हुआ फरिश्ता दरअसल गिरा हुआ मन या गिरी हुई कुंडलिनी है, क्योंकि कुंडलिनी चित्र मन का प्रतिनिधि है। वही कुंडलिनी चित्र फरिश्ता है। कुंडलिनी कभी सहसरार में होती थी। आदमी की बदनीयती और बदमिजाज से वह नीचे गिरती रही, और सभी चक्रोँ को बेधते हुए मूलाधार चक्र रूपी अंधकूप में गिर गई। वहाँ से फिर ऊपर उठने के लिए वह सम्भोग का सहारा लेती है। फरिश्ते, शाश्वत फरिश्ते या आरकेंजल, और पवित्र आत्मा के बीच आपसी संबंध के बारे में भी लोगों के बीच भ्रम सा बना रहता है। दरअसल तीनों एक ही चीज है तत्त्वतः। एक ही शक्ति तत्त्व को समझाने के लिए तीन तत्वों में विभाजित किया गया है। पवित्र आत्मा को परमात्मा का अनादि सहचर और उससे अभिन्न माना गया है, जैसे सूर्यरश्मि सूर्य से अभिन्न है। शिव की शक्ति भी बिल्कुल ऐसी ही है। इसका मतलब कि अनादि शक्ति ही पवित्र आत्मा या हॉली स्पिरिट है। साधारण फरिश्ते को अस्थायी और नश्वर कहा गया है। लोगों के व्यक्तिगत आध्यात्मिक गुरु भी ऐसे ही होते हैं, जैसा मैंने अपने फरिश्ते बने गुरु के बारे में भी बताया है। वे सबके अलग-अलग हो सकते हैं, और अपने शिष्य तक ही सीमित रहते हैं। शाश्वत फ़रिश्ते या आरकेंजल हमारे शाश्वत वैदिक देवता हैं, जैसे गणेश, दुर्गा, शिव आदि। इनके ध्यानरूप मानसिक चित्र हर युग में लोगों को मुक्ति की तरफ ले जाते रहते हैं। मुझे लगता है कि बहुत से लोग इनमें मनमाना अंतर ढूंढ कर आपस में झगड़ा करते रहते हैं, और असली चीज से वँचित रह जाते हैं।

पिछली पोस्ट में मैं यह भी बता रहा था कि बहुईश्वरवादियों और एकेश्वरवादियों के बीच किस तरह वैरविरोध चलता रहता है। धर्म से इन विचारधाराओं का कोई लेनादेना नहीं है, क्योंकि ये किसी भी धर्म में हो सकती हैं। दरअसल ये व्यक्ति के मानसिक या आध्यात्मिक स्तर पर निर्भर करता है कि वह किस विचारधारा को मानता है। कोई व्यक्ति बहुईश्वरवादी धर्म से ताल्लुक रखता हुआ भी एकेश्वरवादी हो सकता है। इसी तरह कोई शख्स एकेश्वरवादी धर्म से ताल्लुक रखने पर भी बहुईश्वरवाद अर्थात द्वैतवाद से ग्रस्त हो सकता है। असली व अध्यात्म वैज्ञानिक विचारधारा तो एकेश्वरवादी ही है। कुंडलिनी योग भी एकेश्वरवादी ही है। कुंडलिनी योग एकाग्रता से प्राप्त होता है। एकाग्रता मतलब एकाग्र ध्यान का शाब्दिक अर्थ है, एक अग्र अर्थात एक चीज आगे, बाकि सब पीछे। वही सबसे आगे रहने वाली चीज ही कुंडलिनी है। दरअसल कोई भी धर्म बहुईश्वरवादी नहीं है, केवल भ्रम से ऐसा लगता है। कोई धार्मिक संप्रदाय यदि गणपति की आराधना करता है, तो केवल गणपति की ही करता है, किसी दूसरे देवता की नहीं। इसी तरह कोई शाक्त संप्रदाय यदि केवल दुर्गा की पूजा करता है, तो वह बहुईश्वरवाद कैसे हुआ। मतलब कि साम्प्रदायिक स्तर पर कोई भी धर्म बहुईश्वरवादी नहीं है। यह भी मैंने पिछली पोस्ट में बताया था कि कैसे देवमूर्ति आदि की पूजा से यिनयांग गठबंधन के बनने से मन की एकमात्र कुंडलिनी क्रियाशील हो जाती है। यदि कोई विविध प्रकार की देवमूर्तियों की पूजा भी करे, तो भी वह बहुईश्वरवादी नहीं है, क्योंकि सभी से यिन-यांग गठबंधन बनता है, जिससे एकमात्र कुंडलिनी को ही बल मिलता है, अन्य किसी को नहीं। इसके विपरीत, एकेश्वरवादी धर्म को मानने वाला व्यक्ति यदि कुंडलिनी और योग को न माने, तो वह बहुईश्वरवाद या द्वैत से भरा हुआ व्यक्ति है। जब उसके मन में कोई एकमात्र चीज अर्थात कुंडलिनी स्थायी तौर पर हमेशा स्थिर नहीं रहेगी, तो स्वाभाविक है कि उसका मन विविधता से भरे हुए द्वैतपूर्ण संसार में भटका रहेगा। फिर ऐसे द्वैतपूर्ण व्यक्ति को एकेश्वरवादी कैसे माना जा सकता है। दरअसल कुंडलिनी ही वह ईश्वर है, जिसकी हम ध्यान के रूप में पूजा कर सकते हैं। वह खुद पूर्ण परब्रह्म ईश्वर तक ले जाती है। सीधे तौर पर तो हम निराकार ब्रह्म को न तो देख सकते हैं और न ही अनुभव कर सकते हैं, फिर उसकी पूजा कैसे की जा सकती है। अगर पूजा करने की कोशिश की जाए, तो कमोबेश कुंडलिनी ही उस पूजा को स्वीकार करने के लिए मन में प्रकट होने लगती है, हालांकि उतनी नहीं जितनी सीधे कुंडलिनी ध्यान से प्रकट होती है। फिर क्यों न सीधे ही कुंडलिनी ध्यान अर्थात कुंडलिनी योग किया जाए। यदि निराकार ईश्वर की पूजा करने वाला एकेश्वरवादी मन में पैदा हो रही एकमात्र कुंडलिनी का बलपूर्वक विरोध करेगा, तब तो मानसिक ऊर्जा के पास विविधता से भरे संसार के रूप में उजागर होने के सिवाय कोई चारा नहीं बचेगा। मतलब कि ब्रह्म अर्थात एकेश्वर उपासक का मन द्वैत से भरे संसार से भर जाएगा। फिर वह एकेश्वरवादी कहाँ रहा। इसीलिए कहते हैं कि जैसा दावा किया जाता है या जैसा दिखता है, हमेशा वैसा नहीं होता, बल्कि कई बार बिल्कुल विपरीत होता है। सच्चाई को जानने के लिए मनोवैज्ञानिक खोजबीन करनी पड़ती है।

जो शक्ति शरीर के अंदर है, वही बाहर भी है। अंदर भी वह शिव से मिलना चाहती है इसलिए पीठ से होकर ऊपर चढ़ती है। वैसे तो वह अव्यक्त अर्थात निराकार है पर खुद को अभिव्यक्त करने के लिए मन के संसार का निर्माण करती है। कुंडलिनी चित्र उस मन का सबसे प्रभावशाली अंश होता है। शक्ति उसीके रूप में जागृत होकर शिव से एकाकार होती है। शक्ति या ऊर्जा का अपना कोई रूप नहीं होता। वह किसी संवेदना के रूप में ही अनुभव हो सकती है। संवेदनाओं में भी मानसिक चित्र में सबसे अधिक संवेदना छुपी होती है, उनमें भी व्यक्तिविशेष के चित्रों में, उनमें भी चिरपरिचित के चित्रों में, और उनमें भी गुरु या देव या पूर्वज के चित्र में सबसे अधिक संवेदना छिपी होती है। वैसे सैद्धांतिक रूप से देव -छाया में सबसे अधिक संवेदना छुपी होती है, अर्थात देवछाया के रूप में शक्ति सर्वाधिक अभिव्यक्त होकर सबसे आसानी से जागृत हो सकती है। देव मतलब अद्वैत, और देवछाया मतलब अद्वैत भाव की सहायता से मन में बनने वाला पवित्र व स्थायी चित्र। इससे जाहिर होता है कि जागृति के लिए सबसे जरूरी दो चीजें हैं, शक्ति और देवछाया। देवछाया को हम कुंडलिनी चित्र या संक्षेप में कुंडलिनी या पवित्र भूत या जिन्न या फरिश्ता भी कह सकते हैं, जैसा कि पिछली पोस्ट में बताया गया है। बाहर भी वह शक्ति इसी तरह विविध स्थूल संसार का निर्माण करती है। उस संसार में कुछ विशेष क्षेत्र भी होते हैं, जैसे भारत देश, उसमें भी हरिद्वार या काशी, या अन्य विशेष व सुन्दर पर्यटन स्थल आदि। उन विशेष क्षेत्रों के रूप में शक्ति सबसे ज्यादा अभिव्यक्त होती है। तभी तो वैसे क्षेत्रों में जागृति की सम्भावना ज्यादा होती है। इसीलिए आदमी ऐसे सुन्दर क्षेत्रों के निर्माण में लगा रहता है, जहाँ उसका मन प्रफुल्लित होकर चरम रूप में अभिव्यक्त हो जाए। मन की या कुंडलिनी शक्ति की चरम अभिव्यक्ति को ही तो कुंडलिनी जागरण कहते हैं। वैसे तो प्रकृति या समष्टि शक्ति भी ऐसे सुन्दर क्षेत्रों के निर्माण में लगी रहती है, पर जीव विशेषकर मनुष्य के रूप में व्यष्टि शक्ति इसे तेजी प्रदान करने और उसमें चार चाँद लगाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पर आजकल आदमी प्रकृति के साथ जरूरत से ज्यादा छेड़छाड़ करके उसके कार्य में बाधा डाल रहा है, जो उसके अस्तित्व के लिए ठीक नहीं है।

व्यष्टि और समष्टि शक्ति में अभिन्नता का मतलब है कि शरीर के अंदर शक्ति साधना से आदमी कुछ हद तक बाहरी स्थूल शक्ति पर नियंत्रण हासिल कर सकता है। उदाहरण के लिए, कल्पना करो कि कोई आदमी बाहरी बुरी शक्ति के प्रभाव में आकर किसी दुर्घटना का शिकार होने वाला होता है। आदमी को इसका आभास हो जाता है और वह कुंडलिनी का ध्यान करते हुए अतिरिक्त सतर्क हो जाता है। कुंडलिनी के ध्यान से उसके मन का अंधेरा छंट जाता है, जिससे प्रभावित होकर बाहरी शक्ति का अंधेरा भी कुछ हद तक छंट जाता है, जिससे वह बाहर भी उसे बचाने के लिए विशेष प्रयास करती है, जैसे बचने के लिए सुरक्षित जगह या सामान मिल जाना। यह कुछ हद तक ही होता है, इसलिए केवल इसके सहारे भी नहीं रहा जा सकता, पर यह कुछ न कुछ मदद जरूर करती है। यह बहुत दूर से या प्रार्थना से भी हो सकता है, क्योंकि शक्ति सर्वव्यापी है। होता क्या है कि किसी विपत्ति में फंसे व्यक्ति को मारने आई बुरी या काली शक्ति उसके परिचित व्यक्ति को देशांतर में भी महसूस हो सकती है। वह यदि कुंडलिनी ध्यान से उसे शांत कर दे, तो वह उस विपत्ति में पड़े व्यक्ति के लिए शांत हो सकती है। सम्भवतः यही प्रार्थना का रहस्य है।

जिसको शरीर में अपनी इच्छानुसार शक्ति को घुमाना आ गया, लगता है उसे बहुत कुछ आ गया। अशिक्षित लोग उसके लिए यौन क्रीड़ा का इस्तेमाल करते थे। इससे संवेदना रूपी शक्ति के शरीर के निचले हिस्सों में महसूस होने से, उस शक्ति को बल देने के लिए मस्तिष्क की शक्ति आगे से होते हुए नीचे उतरती थी, जिससे मस्तिष्क भी हल्का हो जाता था, और नीचे के सारे चक्र भी शक्ति से तृप्त हो जाते थे, जिससे पूरा शरीर तृप्त हो जाता था। हालांकि उन्हें कम और अल्पकालिक लाभ मिलता था, क्योंकि वे केवल संवेदना से जुड़े द्वैत से भरे संसार को ही अनुभव करते थे, उससे जुड़ी कुंडलिनी को नहीं, क्योंकि उनके मन में कोई स्थाई कुंडलिनी चित्र नहीं होता था। इससे उन्हें संवेदना वाले मूलाधार से जुड़े अंगों पर तो संवेदना के रूप में शक्ति महसूस होती थी, पर बीच वाले चक्रोँ पर नहीं। जैसे कि अनाहत चक्र, मणिपुर चक्र आदि पर। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि अधिकांशतः इन बीच वाले चक्रोँ पर तो कुंडलिनी चित्र ही शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, इन पर संवेदना नहीं होती, और न ही द्वैतपूर्ण संसार। द्वैतपूर्ण संसार तो केवल मस्तिष्क में ही रहता है। कुंडलिनी चित्र ही चक्रोँ पर मांसपेशी की सिकुड़न पैदा करता है, जिससे हल्की सी संवेदना पैदा होती है। कुंडलिनी योगी ने इस प्रक्रिया को कृत्रिम, वैज्ञानिक और ज्यादा प्रभावशाली बनाया। उसने सिद्धासन या अर्धसिद्धासन के दौरान पैर की ऐड़ी से मुलाधार चक्र को दबा कर वहाँ बनावटी संवेदना पैदा की। साथ में उसने संवेदना के ऊपर कुंडलिनी चित्र को आरोपित किया, ताकि शक्ति को खींचने के लिए अधिक आकर्षण बने, और कम संवेदना पैदा होने पर भी कुंडलिनी चित्र के माध्यम से शक्ति को आकर्षित किया जा सके। बाकि कुंडलिनी से मिलने वाले मुक्तिलाभ को तो सब जानते ही हैं। इसीलिए कहते हैं कि योग से तन-मन भी स्वस्थ रहता है, और आत्मा भी।

शक्ति का कोई स्थायी आधार या आश्रय भी जरूर होना चाहिए। यह किसी कला, विद्या, रुचि या हॉबी आदि के रूप में हो सकता है। जैसे मेरी शक्ति का आधार लेखन और कविता रचना है। इससे मेरी व्यर्थ में नष्ट होने वाली शक्ति लेखन और कविता निर्माण में व्यय हो जाती है। एकबार किसी आदमी ने मेरा नुकसान कर दिया। उससे मेरे अंदर उससे लड़ने के लिए एक शक्ति से भरा जोश पैदा हो गया। फिर मैंने बुद्धि से निर्णय लिया कि लड़ाई से कोई लाभ नहीं, नुकसान ही है। मेरे अंदर जो शक्ति पैदा हुई थी, उसे मैंने कविता रचना की ओर मोड़ दिया, जिससे एक सुंदर सी कविता बन कर तैयार हो गई। मतलब कि मैंने शक्ति को रूपांतरित या दिग्दर्शित किया। शिवपुराण में भी एक कथा ऐसी ही आती है। इंद्र के द्वारा किए अपमान से जब शिव बहुत ज्यादा क्रोधित हो गए, तो वे उसे भस्म करने को आतुर हो गए। फिर ब्रह्मा आदि देवों ने शिव को बड़ी मुश्किल से मनाया। पर शिव का गुस्सा शांत ही नहीं हो रहा था। इसलिए देवताओं ने शिव के गुस्से को माथे से बाहर निकाला और उसे समुद्र में डलवा दिया, जिससे जलंधर नाम का दैत्य पैदा हुआ। जलंधर कथा को हम अगली पोस्ट में रहस्योदघाटित करेंगे। काश कि युक्रेन, रूस और नाटो की शक्ति को भी ऐसा ही दिग्दर्शन मिलता। मूलाधार चक्र शक्ति का सबसे बड़ा सिंक या अवशोषक या आकर्षणकर्ता होता है। कुंडलिनी योग में इसीलिए तो ऐड़ी को मूलाधार चक्र पर रखा जाता है। दरअसल ऐड़ी के दबाव से बनी संवेदना से मस्तिष्क की शक्ति नीचे उतरते हुए सभी चक्रोँ में बराबर बंट जाती है, पर खिंचाव तो मुलाधार ने ही पैदा किया न। यह ऐसे ही है कि जैसे छत की टंकी से सबसे निचली मंजिल पर पानी पहुंचाने से बीच वाली मंजिलों में भी पानी खुद ही पहुंच जाता है। यदि किसी बीच की मंजिल को ही पानी दिया जाए, तो उससे नीचे की मंजिलें बिना पानी के रह जाएंगी। यौन योग से तन-मन की अतिरिक्त शक्ति या तनावहीनता मूलाधार को मिल रहे वज्र के अतिरिक्त सहयोग से प्राप्त होती है। मूलाधार पर शक्ति सबसे ज्यादा अव्यक्त या अनभिव्यक्त रूप में रहती है, घुप्प अँधेरे की तरह। इसीलिए तो ऐसी अन्धकारपूर्ण मानसिक अवस्था में आदमी का मन सम्भोग की तरफ भागता है। सम्भोग का स्थान मूलाधार है। इसीलिए कहते हैं कि शक्ति का मूल निवासस्थान मूलाधार है। आदमी सबसे ज्यादा अनभिव्यक्त या शिथिल अवस्था में अपने घर पर होता है। काम धंधे के लिए बाहर निकलने पर उसकी अभिव्यक्ति बढ़ती जाती है। कुंडलिनी भी इसी तरह अभिव्यक्त होने के लिए अपने घर मूलाधार से बाहर निकलना चाहती है। जल्दी से जल्दी अधिकतम अभिव्यक्ति के लिए वह सम्भोग का सहारा लेती है। सम्भोग से वह सीधी आज्ञा चक्र और सहसरार चक्र में पहुंच जाती है। अन्यथा सामान्य लौकिक रीति से सभी चक्रोँ को क्रमवार भेदते हुए धीरेधीरे ऊपर चढ़ते हुए ज्यादा से ज्यादा अभिव्यक्त होती जाती है। बेशक चढ़ती तो वह पीठ से ही है, पर पीठ के हरेक चक्र की शक्ति आगे वाले संबंधित मुख्य चक्र तक भी रिसती रहती है। सहसरार पर वह सबसे ज्यादा अभिव्यक्त हो जाती है। वहाँ भी अभिव्यक्ति के चरम को छूने पर वह जागृत होकर शिव में मिल जाती है। मनुष्य ही शक्ति की इस चरम अभिव्यक्ति को प्राप्त कर सकता है। अन्य प्राणी अलग -अलग स्तर तक ही शक्ति को अभिव्यक्त कर सकते हैं, पूर्ण अभिव्यक्ति को छोड़कर। इस तरह से ऊर्जा या शक्ति के अनगिनत स्तर हैं। जो जीव या योनि इस विकास श्रृंखला में जितने ज्यादा निचले पायदान पर है, उसमें शक्ति की अभिव्यक्ति उतनी ही कम है। भूतप्रेत का भी अपना एक विशिष्ट ऊर्जा स्तर होता है, इसीलिए वह भी एक जीवयोनि है। इसी तरह कीड़ों मकोड़ों का ऊर्जा स्तर भी बहुत नीचे होता है। हालांकि इनमें उतनी ही शक्ति होती है, जितनी किसी मनुष्य, देवता या भगवान में होती है, बेशक वह अभिव्यक्त नहीं होती। मतलब कि वे भी अपनी अभिव्यक्ति बढ़ाते हुए कभी न कभी शिव तक जरूर पहुंचेंगे। इसीलिए तो कहते हैं कि सभी को समान समझते हुए सभी में अपनी आत्मा के दर्शन करने चाहिए। इस विचार क्षेत्र से जो आश्चर्यजनक बात निकलती है, वह यह है कि जिन निर्जीव चीजों को हम निर्जीव कहते हैं, वे भी जीवित हैं, उनमें शक्ति की अभिव्यक्ति सबसे कम है। इसीलिए हिंदू धर्म में हर चीज की पूजा की जाती है, यहां तक कि पत्थर, नदी, पहाड़ की भी। दुनिया की कुछ अन्य संस्कृतियों में भी जैसे कि विलुप्तप्राय प्राचीन सैल्टिक संस्कृति में ऐसी ही प्रकृति-पूजन की मान्यता है। भगवान शिव ने भी इसीलिए भूतों को अपने बराबर का दर्जा देकर उन्हें अपना गण बनाया है। ‘अहिंसा परमो धर्म:’, यह प्रसिद्ध उक्ति भी इसी सिद्धांत से बनी है। नाजायज जीवहिंसा का समर्थन दुनिया के किसी भी धर्म में नहीं किया गया है।

कुंडलिनी और इस्लाम~कुंडलिनी जिन्न, सलत या नमाज योग, अल्लादीन योगी,  चिराग आज्ञा चक्र, व शरीर बोतल है, और आँखें आदि इन्द्रियां उस बोतल का ढक्कन हैं

मित्रो, मैं पिछले लेख में बता रहा था कि कैसे अच्छे लेखक के लिए अनुभवी होना बहुत जरूरी है। अनुभव की पराकाष्ठा जागृति में है। इसलिये हम कह सकते हैं कि एक जागृत व्यक्ति सबसे काबिल लेखक बन सकता है। होता क्या है कि जागृत व्यक्ति का पिछला जीवन जल्दी ही खत्म होने वाला होता है, तेजी से चल रहे रूपाँतरण के कारण। इसलिये उसमें खुद ही एक नेचुरल इंस्टिन्कट पैदा हो जाती है कि वह अपने पुराने जीवन को शीघ्रता से लिखकर सुरक्षित कर ले, ताकि जरूरत पड़ने पर वह उसे पढ़ कर अपने पुराने जीवन को याद कर ले। इससे उसे रूपान्तरण का सदमा नहीं लगता। इस इंस्टिनकट या आत्मप्रेरणा की दूसरी वजह यह होती है कि लोगों को जागृति के लिए प्रेरणा मिले और उन्हें यह पता चल सके कि जागृति के लिए कैसा जीवन जरूरी होता है। अगर उसे खुद भी फिर से कभी जागृति की जरूरत पड़े, तो वह उससे लाभ उठा सके। वेदों और पुराणों को लिखने वाले लोग जागृत हुआ करते थे। उन्हें ऋषि कहते हैं। यह उनकी रचनाओं को पढ़ने से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। उन्हें पढ़ने से लगता है कि वे जीवन के सभी अनुभवों से भरे होते थे। उनका लेखन मानव के हरेक पहलू को छूता है। साथ में मैं अपना ही एक अनुभव साझा कर रहा था कि कैसे  मुझे अपने ही लेख ने प्रेरित किया। अन्य अधिकांश लोग तो दूसरों के लेखों से प्रेरित होते हैं। मुझे अपना ही लेख अचंभित करता था। उसमें मुझे अनेकों अर्थ दिखते थे, कभी कुछ तो कभी कुछ, और कभी कुछ नहीं। यह आदमी का मानसिक स्वभाव है कि सस्पेंस या संदेह और थ्रिल या रोमांच से भरी बात के बारे में वह बार-बार सोचता है। इसी वजह से वह लेख मेरे मन में हमेशा खुद ही बैठा रहता था, और मुझे ऐसा लगता था कि वह मुझे जीवन में दिशानिर्देशित कर रहा था। दरअसल अगर कोई चीज मन में लगातार बैठी रहे, तो वह कुंडलिनी का रूप ले लेती है। कई लोग उसे झेल नहीं पाते और अवसाद का शिकार हो जाते हैं। इसीलिए तो लोग कहते हैं कि फलां आदमी फलां चीज के बारे में लगातार सोच-सोच कर पागल हो गया। दरअसल वैसा ऊर्जा की कमी से होता है। कुंडलिनी शरीर की ऊर्जा का अवशोषण करती है। यदि कोई अतिरिक्त ऊर्जा को न ले तो स्वाभाविक है कि उसमें शक्तिहीनता जैसी घर कर जाएगी। इससे उसका मन अपनी रोज की साफसफाई के लिए भी नहीं करेगा। अवसाद की परिभाषा भी यही है कि आदमी अपने शरीर की देखरेख भी ढंग से नहीं कर पाता, बाकि काम तो छोड़ो। मेरा एक सहकर्मी जो अवसाद की दवाइयां भी खाता था, कई-कई दिनों तक न तो नहाता था और न खाना बनाता था। कुंडलिनी, ऊर्जा और शक्ति एकदूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं, लगभग। अवसाद में आदमी अकेलेपन में इसलिए रहने लगता है क्योंकि वह व्यर्थ के झमेलों से बचकर अपनी ऊर्जा बचाना चाहता है। पर इससे कई बार उसका अवसाद बढ़ जाता है, क्योंकि उसे प्रेमभरी सहानुभूति देने वाला कोई नहीं रहता। पर यदि कुंडलिनी के लिए अतिरिक्त ऊर्जा या शक्ति की आपूर्ति हो जाए, और उससे आदमी के काम कुप्रभावित न हों, तो कुंडलिनी चमत्कार करते हुए आदमी को मुक्ति की ओर ले जाती है। कई बार अवसाद के मरीज में ऊर्जा तो पर्याप्त होती है, पर वह ऊर्जा दिग्भ्रमित होती है। कुंडलिनी योग से यदि ऊर्जा को सही दिशा देते हुए उसे कुंडलिनी को प्रदान किया जाए, तो अवसाद समाप्त हो जाता है। मुझे भी ऐसा ही अवसाद होता था, जो कुंडलिनी योग से समाप्त हो गया। मेरे उन लेखों में यौनवासना का बल भी था, तंत्र के रूप में। क्योंकि आपने देखा होगा कि लगभग हरेक फिल्म में रोमांस होता है। यह रोचकता प्रदान करने के लिए होता है। कोई चीज हमें तभी रोचक लगती है जब वह कुंडलिनी शक्ति से हमारे मन में ढंग से बैठती है। मतलब साफ है कि फ़िल्म में प्रणय संबंधों का तड़का इसीलिए लगाया जाता है, ताकि उससे मूलाधार-निवासिनी कुंडलिनी शक्ति सक्रिय हो जाए, जिससे पूरी फ़िल्म अच्छे से मन में बैठ जाए और लोग एकदूसरे से चर्चा करते हुए उसका खूब प्रचार करे, और वह ब्लॉकबस्टर बने। इसीलिए यदि ऐतिहासिक दस्तावेज पर भी फ़िल्म बनी हो, तो भी उसमें रोमांस जोड़ दिया जाता है, सच्चा न मिले तो झूठा ही सही। इसीलिए कई बार ऐसी फिल्मों का विरोध भी होता है। इसी विरोध के कारण ही फ़िल्म पद्मावती (स्त्रीलिंग) का नाम बदलकर पद्मावत (पुलिंग) रखना पड़ा था। यह फ़िल्म उद्योग का मनोविज्ञान है। ऐसा लग रहा था कि वे लेख मैंने नहीं, बल्कि मेरी कुंडलिनी ने लिखे थे। मेरा मन दो हिस्सों में विभाजित जैसा था, एक हिस्सा कुंडलिनी पुरुष या गुरु या उपदेशक के रूप में था, और दूसरे हिस्से में मेरा पूरा व्यक्तित्व एक शिष्य या श्रोता के रूप में था। कुंडलिनी का यह लाभ भी काबिलेगौर है। वैसे आम आदमी तो अपने लिखे या शत्रु द्वारा लिखे लेख  से ज्यादा लाभ नहीं उठा सकता, पर कुंडलिनी को धारण करने वाला व्यक्ति उनसे भी पूरा लाभ उठा लेता है, क्योंकि उसे लगता है कि वे कुंडलिनी ने लिखे हैं। सम्भवतः इसीलिये कुंडलिनी को सबसे बड़ा गुरु या मार्गदर्शक कहते हैं। एक लेख से मुझे अपने लिए खतरा भी महसूस होता था, क्योंकि उसमें धर्म के बारे में कुछ सत्य और चुभने वाली बातें भी थीं। हालांकि गलत कुछ नहीं लिखा था। उस बारे मुझे कुछ धमकी भरी चेतावनियाँ भी मिली थीं। उसकी वजह मुझे यह भी लगती है कि उससे कुछ बड़े-बुजुर्गों और तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के अहंकार को चोट लगी होगी कि एक साधारण सा कम उम्र का लड़का धर्म, तंत्र व आध्यात्मिक विज्ञान के बारे में कुछ कैसे लिख सकता था। हो सकता है कि उन्हें यह भी लगा हो कि उन लेखों में एक जगह गुरु का अपमान झलकता था। हालाँकि लगता है कि वे बाद में समझ गए थे कि वैसा कुछ नहीं था, और वे लेख अनगिनत अर्थों से भरे थे, ताकि हर किस्म के लोगों को पसंद आते। वैसे उन्हें यह सवाल पत्रिका के लिए लेख के चयनकर्ताओं से पूछना चाहिए था कि उन्होंने मेरे लेखों को क्या देखकर चयनित किया था। मुझे उन लेखों से पैदा हुए भय से लाभ भी मिला। भय से एक तो हमेशा उन लेखों पर ध्यान जाता रहा, और दूसरा लेखन की बारीकियों की समझ विकसित हुई। मेरे लेखन को मेरे परिवार के एक या दो बड़े लोगों ने भी पढ़ा था। उन्हें भी उससे अपने लेखन में कुछ सुधार महसूस हुआ था। साथ में, मैं बता रहा था कि कैसे  पुरातन चीजों के साथ संस्कार जुड़े होते हैं। इसी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत से प्रेरित होकर ही पुराणों के ऋषियों ने अपने लेखन में कभी सीमित काल नहीं जोड़ा है। केवल ‘बहुत पुरानी बात’ लिखा होता है। इससे पाठक के अवचेतन मन में यह दर्ज हो जाता है कि ये अनादि काल पहले की बातें हैं। इससे  सर्वाधिक काल-संभव संस्कार खुद ही प्राप्त हो जाता है। इसी तरह यदि कहीं कालगणना की जाती है, तो बहुत दूरपार की, लाखों -करोड़ों वर्षों या युगों की। इसीलिए हिंदू धर्म को ज्यादातर लोग सनातन धर्म कहना पसंद करते हैं।

अब शिव पुराण की आगे की कथा को समझते हैं। हाथी का सिर जोड़कर गणेश को गजानन बना दिया गया। मतलब कि भगवान शिव पार्वती की कुंडलिनी तो वापिस नहीं ला पाए, पर उन्होंने कुंडलिनी सहायक के रूप में गजानन को पैदा किया। हाथी वाला भाग यिन का प्रतीक है, और मनुष्य वाला भाग यांग का। यिन-यांग गठजोड़ के बारे में एक पिछली पोस्ट में भी बताया है। उसे देखकर पार्वती के मन में अद्वैतभावना पैदा हुई, जिससे उसे अपनी कुंडलिनी अर्थात अपने असली पुराने गणेश की याद वापिस आ गई, और वह हमेशा उसके मन में बस गया। इसलिए गजानन उसे बहुत प्यारा लगा और उसे ही उसने अपना पुत्र मान लिया। उसे आशीर्वाद भी दिया कि हर जगह सबसे पहले उसी की पूजा होगी। अगर उसकी पूजा नहीं की जाएगी, तो सभी देवताओं की पूजा निष्फल हो जाएगी। वास्तव में गजानन की पूजा से अद्वैतमयी कुंडलिनी शक्ति उजागर हो जाती है। वही फिर अन्य देवताओं की पूजा के साथ वृद्धि को प्राप्त करती है। देवताओं की पूजा का असली उद्देश्य कुंडलिनी ही तो है। यदि गजानन की पूजा से वह उजागर ही नहीं होगी, तो कैसे वृध्दि को प्राप्त होगी। अगर होगी, तो बहुत कम। 

फिर शिव-पार्वती अपने दोनों पुत्रों कार्तिकेय और गणेश के विवाह की योजना बनाते हैं। वे कहते हैं कि जो सबसे पहले समस्त ब्रह्मांड की परिक्रमा करके उनके पास वापिस लौट आएगा, उसीका विवाह पहले होगा। कार्तिकेय मोर पर सवार होकर उड़ जाता है, अभियान को पूरा करने के लिए। उधर गणेश के पास चूहा ही एकमात्र वाहन है, जिसपर बैठकर ब्रह्मांड की परिक्रमा करना असंभव है। इसलिए वह माता पिता के चारों तरफ घूमकर परिक्रमा कर लेता है। वह कहता है कि मातापिता के शरीर में संपूर्ण ब्रह्मांड बसा है, और वे ही ईश्वर हैं। बात ठीक भी है, और शरीरविज्ञान दर्शन के अनुसार ही है। सवारी के रूप में चूहे का मतलब है कि गणेश अर्थात यिन-यांग गठजोड़ ज्यादा क्रियाशील नहीं होता। यह शरीर में कुंडलिनी की तरह नहीं घूमता। शरीर मतलब ब्रह्मांड। कार्तिकेय अर्थात कुण्डलिनी का शरीर में चारों ओर घूमना ही पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा है। इसीलिए उसे तीव्र वेग से उड़ने वाले मोर की सवारी कहा गया है। गणेश तो भौतिक मूर्ति के रूप में शरीर के बाहर जड़वत स्थित रहता है। इसीलिए मन्द चाल चलने वाले चूहे को उसका वाहन कहा गया है। वह खुद नहीं घूमता, पर शरीर के अंदर घूमने वाले कुंडलिनी पुरुष को शक्ति देता है। यदि उसका मानसिक चित्र घूमता है, तो वास्तविक कुंडलिनी पुरुष की अपेक्षा बहुत धीमी गति से। वह तो यिन-यांग का मिश्रण है। माता-पिता या शिवपार्वती भी यिन-यांग का मिश्रण है। दोनों के इसी समान गुण के कारण उसके द्वारा मातापिता की परिक्रमा कही गई है। क्योंकि यिन-यांग गठजोड़ से, बिना कुंडलिनी योग के, सीधे ही भी जागृति मिल सकती है, इसीलिए उसके द्वारा बड़ी आसानी से परमात्मा शिव या ब्रह्मांड की प्राप्ति या परिक्रमा होना बताया गया है। यिन-याँग के बारे में बात चली है, तो मैं इसे और ज्यादा स्पष्ट कर देता हूँ। मांस मृत्यु या यिन है, और उसे जला रही अग्नि जीवन या याँग है। इसीलिए श्मशान में कुंडलिनी ज्ञान प्राप्त होता है। शिव इसी वजह से श्मशान में साधना करते हैं। धुएं के साथ उसकी गंध अतिरिक्त प्रभाव पैदा करती है। सम्भवतः इसी यिनयांग से आकर्षित होकर लोग तंदूरी चिकन आदि का —–। मैंने अपने कुछ बड़े-बुजुर्गों से सुना है कि वैदिक काल के लोग जिंदा भैंसों या बैलों और बकरों को यज्ञकुंड की धधकती आग में डाल दिया करते थे, जिससे यज्ञ के देवता प्रसन्न होकर हरप्रकार से कल्याण करते थे। आजकल भी पूर्वी भारत में ऐसा कभीकभार देखा जा सकता है। आदर्शवादी कहते हैं कि शाकाहार संपूर्ण आहार है। यदि ऐसा होता तो दुनिया से जानवरों की अधिकांश किस्में विलुप्त न हो गई होतीँ, क्योंकि आदमी के द्वारा अधिकांशतः उनका इस्तेमाल भोजन के रूप में ही हुआ। कहते हैं कि एक यज्ञ तो ऐसा भी है, जिसमें गाय को काटा जाता है, जबकि गाय को हिन्दु धर्म में अति पवित्र माना जाता है। यज्ञ की हिंसा को हल्का दिखाने वाले कई लोग यह अवैज्ञानिक तर्क भी देते हैं कि पुराने समय के ऋषि यज्ञ में मरने वाले पशु को अपनी शक्ति से पुनर्जीवित कर देते थे, पर आजकल किसी में ऐसी शक्ति नहीं है, इसलिए आजकल ऐसे यज्ञ आम प्रचलन में नहीं हैं। कई दार्शनिक किस्म के लोग कहते हैं कि यज्ञ में बलि लगे हुए पशु को स्वर्ग प्राप्त होता है। जब बुद्धिस्ट जैसे लोगों द्वारा उनसे यह सवाल किया जाता है कि तब वे स्वर्ग की प्राप्ति कराने के लिए यज्ञ में पशु के स्थान पर अपने पिता की बलि क्यों नहीं लगाते, तब वे चुप हो जाते हैं। सम्भवतः वे यज्ञ देवता कुंडलिनी के रूप में ही होते थे। ऐसा जरूर होता होगा, क्योंकि ऐसे हिंसक यज्ञ-यागों का वर्णन वेदों में है। काले तंत्र या काले जादू में इसी तरह मांस के हवन से कुंडलिनी शक्ति पैदा की जाती है, जिसे जिन्न भी कहते हैं। हम यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम नाजायज पशु हिंसा के सख्त खिलाफ हैं, और यहाँ प्रकरणवश ही तथ्यों को सामने रखा जा रहा है, किसी जीवन-पद्धति की वकालत के लिए नहीं। इमरान खान ने बुशरा बेगम से बहुत काला जादू कराया, पर बात नहीं बनी। इससे जुड़ी एक बात मुझे याद आ रही है। मेरा एक दोस्त मुझे एकबार बता रहा था कि मृत पशु के व्यवसाय से जुड़े किसी विशेष समुदाय के लोगों का एक शक्तिशाली देवता होता है। उसे वे गड्ढा कहते हैं। दरअसल हरवर्ष एक कटे हुए मृत बकरे को उस गड्ढे में दबा दिया जाता है। जिससे उसमें बहुत खतरनाक मांसखोर जीवाणु पनपे रहते हैं। यदि किसीका बुरा करना हो, तो उस गड्ढे की मिट्टी की मुट्ठी शत्रु के घर के ऊपर  फ़ेंक दी जाती है। जल्दी ही उस घर का कोई सदस्य या तो मर जाता है, या गंभीर रूप से बीमार हो जाता है। विज्ञान के अनुसार तो उस मिट्टी से जीवाणु-संक्रमण फैलता है। पर मुझे इसके पीछे कोई घातक मनोवैज्ञानिक वजह भी लगती है। जिन्न क्या है, कुंडलिनी ही है। चीज एक ही है। यह तो साधक पर निर्भर करता है कि वह उसे किस तरीके से पैदा कर रहा है, और किस उद्देश्य के लिए प्रयोग में लाएगा। यदि यह सात्विक विधि से पैदा की गई है, और आत्मकल्याण या जगकल्याण के लिए है, तब उसे शक्ति या कुंडलिनी या होली घोस्ट या पवित्र भूत कहेंगे। यदि उसे तामसिक तरीके से पैदा किया है, हालांकि उसे आत्मकल्याण और जगकल्याण के प्रयोग में लाया जाता है, तब इसे तांत्रिक कुंडलिनी कहेंगे। यदि इसे तामसिक या काले तरीके से पैदा किया जाता है, और इससे अपने क्षणिक स्वार्थ के लिए जगत के लोगों का नुकसान किया जाता है, तब इसे जिन्न या भूत या डेमन कहेंगे। अब्राहमिक धर्म वाले कई लोग जो कुंडलिनी को डेमन या शैतान कहते हैं, वे अपने हिसाब से ठीक ही कहते हैं। मैं ऐसा नहीं बोल रहा हूँ कि सभी लोग ऐसा कहते हैं। आपको हरेक धर्म में हर किस्म के लोग मिल जाएंगे। हमारे लिए सभी धर्म समान हैं। इस वैबसाईट में धार्मिक वैमनस्य के लिए कोई जगह नहीं ह। कुंडलिनी योग से जो शरीर में कंपन, सिकुड़न, नाड़ी-चालन आदि विविध लक्षण प्रकट होने लगते हैं, उसे वे शैतान का शरीर पर कब्जा होना कहते हैं। पर मैं उसे देवता का शरीर पर कब्जा होना कहूंगा। शैतान और देवता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनके पास कुंडलिनी को वश में करने वाली युक्तियां व संस्कार नहीं हैं, इसलिये उनसे वह हिंसा, नुकसान, दंगे, जिहाद, धर्म परिवर्तन आदि करवाती है। हाल ही में जो देशभर में कई स्थानों पर रामनवमी के जुलूसों पर विधर्मियों के द्वारा हिंसक पथराव हुआ है, वह शक्ति से ही हुआ है। उस पर उन्हें कोई पछतावा नहीं, क्योंकि इसको उन्होंने महान मानवता का काम माना हुआ है, लिखित रूप में भी और सामूहिक तौर पर भी। हम मानते हैं कि कुंडलिनी शक्ति मानवता के लिए काम करती है, ये भी ऐसा ही मानते हैं, पर इन्होंने कुंडलिनी को धोखे में डाला हुआ है, मानवता को विकृत ढंग से परिभाषित करके। यह ऐसे ही है कि एक सांप घर के अंदर घुसा था चूहे का शिकार करने, पर शिकार सोया हुआ आदमी बन गया, क्योंकि चूहा सांप से बचने के लिए उसके बिस्तर में घुस गया। गजब का मनोविज्ञान है लगता है यह, जिस पर यदि ढंग से शोध किए जाएं, तो समाज में व्याप्त परस्पर वैरभाव समाप्त हो सकता है। शक्ति कुंडलिनी का ही पर्याय है, या यूँ कहो कि शक्ति कुंडलिनी से ही मिलती है, बेशक वह किसी को महसूस होए या न। उनके लिए तो कुंडलिनी शैतान ही कही जाएगी। पर हिन्दु धर्म में गुरु परम्परा, संस्कार आदि अनेकों युक्तियों से कुंडलिनी को वश में कर के उससे मानवता, सेवा, जगकल्याण, और मोक्ष संबंधी काम कराए जाते हैं। इसलिए हिन्दुओं के लिए वही कुंडलिनी देवता बन जाती है। ऐसा होने पर भी, हिन्दु धर्म में भी बहुत से लोग कई बार कुंडलिनी के आवेश को सहन नहीं कर पाते। मैं एकबार ऊँचे हिमालयी क्षेत्रों में किसी प्रसंगवश रहता था। हम कुछ साथियों का मकान-मालिक बहुत अच्छा इंसान था। देवता पर बहुत ज्यादा आस्था रखने वाला था। हमेशा देवपूजा में शामिल होता था। उसके पूरे परिवार के संस्कार ऐसे ही पवित्र थे। मेरे एक रूममेट के साथ अक्सर उठता-बैठता था। एकबार उस मकान मालिक की कुंडलिनी शक्ति को पता नहीं क्या हुआ, वह ज्यादा ही खानेपीने लग गया, जिससे वह सम्भवतः कुंडलिनी को नियंत्रित नहीं कर पा रहा था। वह रोज मेरे रूममेट को साथ लेकर शराब पीता और पूरे दिन उसके साथ और कुछ अन्य लोगों के साथ ताश खेलता रहता। समझाने पर भी न समझे। उसकी बड़ी-बड़ी और लाली लिए आँखें जैसे शून्यता को ढूंढती रहती। वह अजीब सा और डरावना सा लगता। ऐसा लगता कि जैसे उस पर देवता की छाया पड़ गई हो, पर उल्टे रूप में। मेरा रूममेट भी बड़ा परेशान। वह किसी के काबू नहीं आया पुलिस के सिवाय। बाद में माफी माँगने लगा। अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हुआ। शराब तो उसने बिल्कुल छोड़ दी, और वह पहले से भी ज्यादा नेक इंसान बन गया। इससे जाहिर होता है कि वह देवता या कुंडलिनी के वश में था। इसीलिए वह मारपीट आदि नहीं कर रहा था। यदि मारपीट आदि बवाल मचाता, तो मानते कि वह भूतरूपी कुंडलिनी के वश में होता। उसकी कुंडलिनी को जरूरत से ज्यादा तांत्रिक ऊर्जा मिल रही थी, जिससे वह उसे नियंत्रित नहीं कर पा रहा था। यदि वह अपनी मर्जी से कर रहा होता तो बाद में माफी न मांगता, बहुत शर्मिंदा न होता, और प्रायश्चित न करता। ऐसे मैंने बहुत से अच्छे लोग देखे हैं, जिन्हे पता नहीं एकदम से क्या हो जाता है। वे तो खातेपीते भी नहीं। बिल्कुल सात्विक जीवन होता है उनका। लगता है कुंडलिनी को पर्याप्त ऊर्जा न मिलने से भी ऐसा होता है। यदि उनकी ऊर्जा की कमी को उच्च ऊर्जा वाली चीजों विशेषकर ननवेज या विशेष टॉनिक से पूरा किया जाए, तो वे एकदम से ठीक हो जाते हैं। इसीलिए कहते हैं कि शक्ति खून की प्यासी होती है। माँ काली के एक हाथमें खड़ग और दूसरे हाथ में खून से भरा कटोरा होता है। अगर ऊर्जा की कमी से कुंडलिनी रुष्ट होती है, तो ऊर्जा की अधिकता से भी। इसीलिए योग में संतुलित आहार व विहार पर बल दिया गया है। अपने व्यवसाय की खातिर मैं कुछ समय के लिए एक जंगली जैसे क्षेत्र में भी रहा था। वहां एक गांव में मैंने देखा था कि एक बुजुर्ग आदमी को प्रतिदिन मांस चाहिए होता था खाने को, बेशक थोड़ा सा ही। अगर उसे किसी दिन मांस नहीं मिलता था, तो उसमें भूत का आवेश आ जाता था, और वह अजीबोग़रीब हरकतें करने लगता था, गुस्सा करता, बर्तन इधरधर फ़ेंकता, और परिवार वालों को परेशान करता, अन्यथा वह दैवीय गुणों से भरा रहता था। कुछ तो इसमें मनोवैज्ञानिक कारण भी होता होगा, पर सारा नहीं। बहुत से लोग यह मानते हैं कि शक्ति से केवल लड़ाई-झगड़े जैसे राक्षसी गुण ही पनपते हैं, दैवीय गुण नहीं। पर सच्चाई यह है कि दया, प्रेम, नम्रता, सहनशीलता जैसे दैवीय गुणों के लिए भी शक्ति की जरूरत पड़ती है। अगर विष्ठा को ढोने के लिए ताकत की जरूरत होती है, तो अमृत को ढोने के लिए भी ताकत की जरूरत पड़ती है। यह अलग बात है कि शक्ति का स्रोत क्या है। पर यह भी सत्य है कि शक्ति का सबसे उत्कृष्ट स्रोत संतुलित आहार ही है, और वह ननवेज के बिना पूरा नहीं होता। हम यहाँ निष्पक्ष रूप से वैज्ञानिक तथ्य सामने रख रहे हैं, न कि किसी की जीवनपद्धति। भारत-विभाजन के कारण लाखों निर्दोष लोग मारे गए। विभाजन भी बड़ा अजीब और बेढंगा किया गया था। देश को तोड़ना और जोड़ना जैसे एक गुड्डे-गुडिया का खेल बना दिया गया। उसके लिए तथाकथित जिम्मेदार लोग तो बहुत उच्च जीवन-आदर्श वाले और अहिंसक थे। फिर सामाजिक न्याय, धार्मिक न्याय, बराबरी, हित-अहित, कूटनीति और निकट भविष्य में आने वाली समस्याओं का आकलन वे क्यों नहीं कर पाए। प्रथमदृष्टया तो ऐसा लगता है कि उनमें ऊर्जा की कमी रही होगी, और उनके विरोधी ऊर्जा से भरे रहे होंगे। तब ऐसे आदर्शवाद और अहिंसा धर्म से क्या लाभ। इससे अच्छा तो तब होता अगर वो अपनी ऊर्जा के लिए छुटपुट मानवीय हिंसा को अपनाकर उस भयानक मानवघातिनी हिंसा को रोक पाते, और भविष्य को भी हमेशा के लिए सुरक्षित कर देते। समझदारों के लिए इशारा ही काफी होता है। इस बारे ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। हम किसी की आलोचना नहीं कर रहे हैं, पर तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं। विरोध नीतियों, विचारों और कामों का होता है, व्यक्तियों का नहीं। हम आदर्शवाद की तरफ भी कोई अंगुली नहीं उठा रहे हैं। आदर्शवाद उच्च व्यक्तित्व का आधारस्तम्भ है। यह एक अच्छी और मानवीय आदत है। कुंडलिनी जागरण की प्राप्ति कराने वाले कारकों में यह मूलभूत कारक प्रतीत होता है। हमारा कहने का यही तात्पर्य है कि दुनिया में, खासकर आज के कलियुग में अधिकांश लोग मौकापरस्त होते हैं और आदर्शवादी का नाजायज फायदा उठाने के लिए तैयार रहते हैं। इसलिए आदर्शवाद के साथ अतिरिक्त सतर्कता की जरूरत होती है। दक्षिण भारत में मछली उत्पादन बहुत होता है, समुद्रतटीय क्षेत्र होने के कारण। इसलिए वहाँ अधिकांश लोग मांसाहारी होते हैं। फिर भी वहाँ हिन्दु संस्कृति को बहुत मान-सम्मान मिलता है। इसकी झलक दक्षिण की फिल्मों में खूब मिलती है। मुख्यतः इसी वजह से आजकल वहाँ की फिल्में पूरी दुनिया में धूम मचा रही हैं। सम्भवतः उपरोक्त वृद्ध व्यक्ति की कुंडलिनी शक्ति ऊर्जा की कमी से ढंग से अभिव्यक्त न होकर भूत जैसी बन जाती थी। एकप्रकार से संतुलित आहार से उसके मन को शक्ति मिलती थी, क्योंकि कुंडलिनी मन ही है, मन का एक विशिष्ट, स्थायी, व मज़बूत भाव या चित्र है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिससे मन को शक्ति मिलती है, उससे कुंडलिनी को भी खुद ही शक्ति मिलती है। कुंडलिनी को ही सबसे ज्यादा शक्ति मिलती है, क्योंकि कुंडलिनी ही मन का सबसे प्रभावशाली हिस्सा है। इसीलिए योग में संक्षेप में कहते हैं कि कुंडलिनी को शक्ति मिली, मन की बात नहीं होती। योग में कुंडलिनी से मतलब है, बाकि विस्तृत मन से कोई विशेष प्रयोजन नहीं। आप आदिवासियों के झुण्ड के सरदार को आसानी से वश में कर सकते हो, पूरे झुंड को नहीं। जैसे सरदार को वश में करने से पूरा झुंड वश में हो जाता है, उसी तरह कुंडलिनी को वश में करने से पूरा मन वश में हो जाता है। यूँ कह सकते हैं कि कुंडलिनी ही मन का मर्म है। अगर किसी की कुंडलिनी को पकड़ लिया, तो उसके पूरे मन को पकड़ लिया। तभी तो हरेक आदमी अपनी कुंडलिनी के बारे में छुपाता है। साम्प्रदायिक हिंसा ऐसे ही धार्मिक आवेश में होती है, और उसके लिए मन से पछतावा होने पर भी कोई माफी नहीं मांगता, क्योंकि धर्म में ही ऐसा लिखा होता है कि यह अच्छा काम है और जन्नत को देने वाला है। देवता तो उसे लाभ देना चाह रहा था, पर वह लाभ नहीं ले पा रहा था। उसका तनमन देवता के आवेश को सहन नहीं कर पा रहा था। इसलिये देवता उसके लिए भूत या डेमन बन गया था। इसी से बचने के लिए ही हठयोग के अभ्यास से तनमन को स्वस्थ करना पड़ता है, तभी कोई देव-कुंडलिनी को सहन और नियंत्रित करने की सामर्थ्य पाता है। यदि बंदर के हाथ उस्तरा लग जाए, तो दोष उस्तरे का नहीं है, दोष बंदर का है। इसी तरह, मैंने एकबार देखा कि एक देवता के सामने एक गुर (विशेष व्यक्ति जिस पर देवता की छाया पड़ती हो) जब ढोल की आवाज से हिंगरने या नाचने लगा, तो उसकी दिल के दौरे से मौत हो गई। लोगों ने कहा कि उसके ऊपर देवता की बजाय भूत की छाया पड़ी। दरअसल उसका निर्बल शरीर देवता रूप कुंडलिनी के आवेश को सहन नहीं कर पाया होगा। इसीलिए कुंडलिनी योग के लिए उत्तम स्वास्थ्य का होना बहुत जरूरी है। योग की क्रिया स्वयं भी उत्तम स्वास्थ्य का निर्माण करती है। मेरे दादाजी पर भी देवता की छाया उतारी जाती थी। छाया या साया चित्र को भी कहते हैं। यिन-याँग गठजोड़ ही देवता है। उससे जो मन में कुंडलिनी चित्र बनता है, उसे ही देवता की छाया कहते हैं। जब ढोल की आवाज से देवता उनके अंदर नाचता था, तब उनकी साँसे एकदम से तेज हो जाती थीं। उनकी पीठ एकदम सीधी और कड़ी हो जाती थी, सिर भी सीधा, और वे अपने आसन पर ऊपर-नीचे की ओर जोर-जोर से हिलते थे। उस समय उनके दोनों हाथ अगले स्वधिष्ठान चक्र पर जुड़े हुए और मुट्ठीबंद होते थे। ऐसा लगता है कि उनकी कुंडलिनी ऊर्जा मूलाधार से पीठ से होते हुए ऊपर चढ़ रही होती थी। मैंने कभी उनसे पूछा नहीं, अगर मौका मिला तो जरूर पूछूंगा। उस समय कुछ पूछने पर वे हांफते हुए कुछ अस्पष्ट से शब्दों में बोलते थे, जिसे देवता की सच्ची आवाज समझा जाता था। उससे बहुत से काम सिद्ध किए जाते थे, और बहुत से विवादों को निपटाया जाता था। देवता के आदेश का पालन लोग तहेदिल से करते थे, क्योंकि वह आदेश हमेशा ही शुभ और सामाजिक होता था। 5-10 मिनट में देवता की छाया उतरने के बाद वे शांत, तनावमुक्त और प्रकाशमान जैसे दिखते थे। कई बार उसकी थकान के कारण वे दिन में ही नींद की झपकी भी ले लेते थे। कई बार वह देवछाया थोड़ी देर के लिए और हल्की आती थी। कई बार ज्यादा देर के लिए और बहुत शक्तिशाली आती थी। कई बार नाममात्र की आती थी। कुछेक बार तो बिल्कुल भी नहीं आती थी। फिर कुछ दिनों बाद वह प्रक्रिया दुबारा करनी पड़ती थी, जिसे स्थानीय भाषा में नमाला कहते हैं। साल में इसे 1-2 बार करना पड़ता था, खासकर नई फसल के दौरान। कई बार तात्कालिक विवाद को मिटाने के लिए इमरजेंसी अर्थात आपात परिस्थिति में भी देवता को बुलाना पड़ता था। देव-छाया जितनी मजबूत आती थी, उसे उतना ही शुभ माना जाता था।

वैसे जिन्न अच्छे भी हो सकते हैं, जो किसीका नुकसान नहीं करते, फायदा ही करते हैं। यह उपरोक्तानुसार संस्कारों पर और जिन्न को हैंडल करने के तरीके पर निर्भर करता है। यदि कुंडलिनी जैसी दिव्य शक्ति हमेशा शैतान हुआ करती, तो जिन्न कभी अच्छे न हुआ करते। इसका मतलब है कि कुंडलिनी शक्ति के हैंडलर पर काफ़ी निर्भर करता है कि वह क्या गुल खिलाएगी। सलत या नमाज ही कुंडलिनी योग है। इसमें भी वज्रासन में घुटनों के बल बैठा जाता है। कुछ अल्लाह का ध्यान किया जाता है, जिससे स्वाभाविक है कि माथे पर आज्ञा चक्र क्रियाशील हो जाएगा। तब आगे को झुककर माथे को अर्थात उस पर स्थित आज्ञा चक्र को जमीन पर छुआया या रगड़ा जाता है। उससे अज्ञाचक्र पर कुंडलिनी या अल्लाह का ध्यान ज्यादा मज़बूत होकर शरीर में चारों तरफ एक ऊर्जा प्रवाह के रूप में घूमने लगता है। फिर पीठ को ऊपर उठाकर आदमी फिर से सीधा कर लेता है, और आँखें बंद रखता है। इससे वह घूमती हुई ऊर्जा बोतलनुमा शरीर में बंद होकर बाहर नहीं निकल पाती, क्योंकि आँख रूपी बोतल का ढक्क्न भी बंद कर दिया जाता है। जरूरत पड़ने पर जब आदमी दुनियादारी में काम करने लगता है, तो वह कुण्डलीनिनुमा ध्यान बाहर आकर बाहरी दुनिया में दिखने लग जाता है, और उसे सहानुभूति देकर उसकी काम में मदद करता है, और उसे तनाव पैदा नहीं होने देता। फिर अगले सलत के समय ध्यान के बल से वह ध्यान चित्र फिर शरीर के अंदर घुस जाता है, जिसे वहाँ पूर्ववत फिर बंद कर दिया जाता है। आप समझ ही गए होंगे कि इसका क्या मतलब है। फिर भी मैं बता देता हूँ। सलत ही कुंडलिनी योग है। वज्रासन ही योगासन है। अज्ञाचक्र या माथा ही चिराग है। जमीन पर माथा रखना या आज्ञाचक्र के साथ मूलाधार चक्र का ध्यान ही चिराग को जमीन पर रगड़ना है। वैसे भी मूलाधार को जमीनी चक्र अर्थात जमीन से जोड़ने वाला चक्र कहा जाता है। दरअसल माथे को जमीन पर छुआने से आज्ञा चक्र और मुलाधार चक्र के बीच का परिपथ पूरा होने से दोनों आपस में जुड़ जाते हैं, मतलब यांग और यिन एक हो जाते हैं। उससे मन में अद्वैत और उससे प्रकाशमान कुंडलिनी चित्र का पैदा होना ही चिराग से चमकते जिन्न का निकलना है। पीठ और सिर का ऊपर की ओर बिल्कुल सीधा करके उसका शरीर में अंदर ही अंदर ध्यान करना ही उसको बोतल में भरना है। शरीर ही बोतल है। आँखों को बंद करना अर्थात इन्द्रियों के दरवाजों को बंद करना अर्थात इन्द्रियों का प्रत्याहार ही बोतल का मुँह ढक्कन लगाकर बंद करना है। ध्यान चित्र इन्द्रियों से ही बाहर निकलता है और बाहरी जगत की चीजों के ऊपर आरोपित हो जाता है। इसे बोतलनुमा शरीर में कैद रखा जाता है, अर्थात इसे चक्रोँ पर गोलगोल घुमाया जाता है, और जरूरत के अनुसार बाहर भी लाया जाता रहता है। बाहर आकर यह दुनियावी व्यवहारों व कामों में अद्वैतभाव और अनासक्ति भाव पैदा करता है, जिससे मोक्ष मिलता है। साथ में, भौतिक उपलब्धियां तो मिलती ही हैं। मोक्ष के प्राप्त होने को ही सबकुछ प्राप्त होना कह सकते है। इसीलिए कहते हैं कि जिन्न सबकुछ देता हैं, या मनचाही वस्तुएँ प्रदान करता है। पवित्र कुरान शरीफ में साफ लिखा है कि बिना धुएं की आग से जिन्न पैदा हुआ। हिन्दु धर्म भी तो यही कहता है कि जब यज्ञ की अग्नि चमकीली, भड़कीली और बिना धुएं की हो जाती है, तब उसमें डाली हुई आहुति से यज्ञ का देवता अर्थात कुंडलिनी प्रकट होकर उसे ग्रहण करती है, और तृप्त होती है। मैंने खुद ऐसा कई बार महसूस किया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जिन्न और कुंडलिनी एक ही चीज के दो नाम हैं। बुरे जिन्न से बचने के लिए अच्छे जिन्न को बढ़ावा देना चाहिए। अल्लाह या भगवान के ध्यान से और योग से अच्छा जिन्न साथ देता है, नहीं तो बुरा जिन्न हावी हो जाता है। मेरे साथ भी ऐसी ही दुविधा होती थी। मेरे ऊपर दो किस्म के जिन्न हावी रहते थे। एक जिन्न तो देवतुल्य, ऋषितुल्य, वयोवृद्ध, तेजस्वी, अध्यात्मवादी, कर्मयोगी, और पुलिंग प्रकार का था। दूसरा जिन्न भी हालांकि भूतिया नहीं था, पर भड़कीला, अति भौतिकवादी, विज्ञानवादी, प्रगतिशील, खूबसूरत, जवान और स्त्रीलिंग प्रकार का था। उसमें एक ही कमी थी। वह कई बार भयानक क्रोध करता था, पर मन से साफ और मासूम था, किसी का बुरा नहीं करता था। मैंने दोनों किस्म के जिन्नों से भरपूर लाभ उठाया। दोनों ने मुझे भरपूर भौतिक समृद्धि के साथ जागृति उपलब्ध करवाई। समय और स्थान के अनुसार कभी मेरे अंदर पहले वाला जिन्न ज्यादा हावी हो जाता था, कभी दूसरे वाला। अब मेरी उम्र भी ज्यादा हो गई है, इसलिए मैं अब दूसरे वाले जिन्न का आवेश सहन नहीं कर पाता। इसलिए मुझे अब कुंडलिनी ध्यानयोग की सहायता से पहले वाले जिन्न को ज्यादा बलवान बना कर रखना पड़ता है। मेरा अनुभव इसी इस्लामिक मान्यता के अनुसार है कि लोगों की तरह ही जिन्न की जिंदगियां होती हैं। उनके लिंग, परिवार, स्वभाव आदि वैसे ही भिन्न-भिन्न होते हैं। उनकी उम्र होती है, शरीर की विविध अवस्थाएं होती हैं। वे वैसे ही पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, और अंत में मर जाते हैं। मैंने दोनों जिन्नों को बढ़ते हुए महसूस किया, हालांकि धीमी रप्तार से। अब तो मुझे लगता है कि पहले वाले जिन्न की उम्र पूरी होने वाली है। हालांकि मैं ऐसा नहीं चाहता। उसके बिना मुझे बुरा लगेगा। फिर मुझे किसी नए जिन्न से दोस्ती करनी पड़ेगी, जो आसान काम नहीं है। दोनों जिन्न मेरे सम्भोग से शक्ति प्राप्त करते थे। कुंडलिनी भी इसी तरह तांत्रिक सम्भोग से शक्ति प्राप्त करती है। कई बार तो वे खुद भी मेरे साथ यौनसंबंध बनाते थे। सीधा यौनसंबंध बनाते थे, ऐसा भी नहीं कह सकते, पर मुझे किसीसे यौनसंबंध बनाने के लिए प्रेरित करते थे, ताकि वे उससे शक्ति प्राप्त कर सकते। यदि यौन संबंध से यौन साथी को शक्ति न मिले पर उन जिन्नों को शक्ति मिले, तो यही कहा जाएगा कि जिन्नों से यौन संबंध बनाया, भौतिक यौनसाथी से नहीं। सामाजिक रूप में ऐसा कहते हुए संकोच और शर्म महसूस होती है, पर यह सत्य है। दूसरे वाले जिन्न से मुझे एकसाथ ही हर किस्म का रिश्ता महसूस होता था। एकबार तो पहले वाले जिन्न ने मुझे समलैंगिकता और दूसरे वाले जिन्न ने बलात्कार की तरफ भी धकेल दिया था, पर मैं बालबाल बच गया था। उस समय यौन शक्ति से छाए हुए वे मुझे मन की आँखों से बिल्कुल स्पष्ट महसूस होते थे, और कई दिनों तक मुझे आनंदित करते रहते थे। पहले वाला जिन्न जब मेरे अद्वैतपूर्ण जीवन, कर्मयोग और सम्भोग की शक्ति से अपने उत्कर्ष के चरम पर पहुंचा, तो मेरे मन में कुछ क्षणों के लिए जीवंत हो गया, जो कुंडलिनी जागरण कहलाया। दूसरे वाला जिन्न तो मेरे साथ काफी समय तक पत्नी की तरह भी रहा, उससे बच्चे भी हुए, फिर उसकी उम्र ज्यादा हो जाने से उसने मेरे साथ सम्भोग करना लगभग बंद ही कर दिया। कई बार तो ऐसा लगता था कि वे दोनों जिन्न पति-पत्नि या प्रेमी-प्रेमिका के रूप में थे, हालांकि तलाकशुदा की तरह एकदूसरे से नाराज जैसे लगते थे, और एकदूसरे की ज्यादतियों से बचाने के लिए मेरे पास बारीबारी से आते-जाते थे। इससे मैं संतुलित हो जाया करता था। यह सब मनोवैज्ञानिक अनुभव है, मन के अंदर है, बाहर भौतिक रूप से कुछ नहीं है। उन्होंने मुझसे कभी सम्पर्क नहीं किया। वे मेरे मन में ऐसे रहते थे जैसे किसी पुराने परिचित या दोस्त की याद मन में बसी रहती है। मुझे लगता है कि वे असली जिन्न नहीं थे, बल्कि जिन्न की छाया मात्र थे, अर्थात दर्पण में बने प्रतिबिम्ब की तरह। अगर असली होते, तो उनमें अपना अहंकार होता, जिससे वे मुझे परेशान भी कर सकते थे, और मेरी योगसाधना में विघ्न भी डाल सकते थे। इसका मतलब है कि जिन्न या देवता की छाया ही योगसाधना में मदद करती है, उनका असली रूप नहीं। इसलिए यही कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति में देवता की छाया प्रविष्ट हुई है, असली देवता नहीं। यह अनुभव भी इस्लामिक मान्यता के अनुसार ही है। हिन्दु मान्यता भी ऐसी ही है, क्योंकि चीज एक ही है, केवल नाम में अंतर हो सकता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार भूत होते हैं। जैसा यह भौतिक लोक है, वैसा ही एक सूक्ष्म लोक है। जैसे जैसे लोग भौतिक लोक में होते हैं, बिल्कुल वैसे ही सूक्ष्म लोक में भी होते हैं। जैसे-जैसे क्रियाकलाप इस स्थूल भौतिक लोक में होते हैं, बिल्कुल वैसे-वैसे ही सूक्ष्म आध्यात्मिक लोक में भी होते हैं। एकसमान समारोह, मित्रता, वैर, रोजगार, पशु-पक्षी और अन्य सबकुछ बिल्कुल एक जैसा। उस सूक्ष्म लोक के निवासियों को ही भूत कहते हैं। वे आपस में टेलीपेथी से सम्पर्क बनाकर रखते हैं। वे सबको महसूस नहीं होते। उन्हें या तो योगी महसूस कर सकते हैं, या फिर वे जिन पर उन भूतों का आवेश आ जाए। तांत्रिक योगी तो उन्हें वश में कर सकते हैं, पर साधारण आदमी को वे अपने वश में कर लेते हैं। योगी उन्हें वश में करके उन्हें योगसाधना के बल से देवता या कुंडलिनी में रूपान्तरित कर देते हैं। इसी को भूतसिद्धि कहते हैं। बुरे लोग उनसे नुकसान भी करवा सकते हैं।

यह भी लगता है कि अल्लादिन की कहानी शिवतंत्र या उस जैसी तांत्रिक मान्यता से निकली है। जिसने यह कहानी बनाई, वह गजब का ज्ञानी, तांत्रिक और जागृत व्यक्ति लगता है। सम्भवतः उसे यौन तंत्र को स्पष्ट रूप में सामने रखने में मृत्यु का भय रहा होगा, क्योंकि पुराने जमाने की तानाशाही व्यवस्था में, खासकर इस्लामिक व्यवस्था में क्या पता कौन कब इसका गलत मतलब समझ लेता, और जान का दुश्मन बन जाता। इसलिए उसने रूपक कथा के माध्यम से तंत्र को अप्रत्यक्ष रूप से लोगों के अवचेतन मन में डालने का प्रयास किया होगा, और आशा की होगी कि भविष्य में इसे डिकोड करके इसके हकदार लोग इससे लाभ उठाएंगे। एक प्रकार से उसने गुप्त गुफा में खजाने को सुरक्षित कर लिया, और रूपक कथा के रूप में उस ज्ञान -गुफा का नक्शा भूलभूलैया वाली पहेली के रूप में छोड़ दिया। फिल्मों में दिखाए जाने वाले ऐसे मिथकीय खोजी अभियान इसी रहस्यात्मक तंत्र विज्ञान को अभिव्यक्त करने वाली मनोवैज्ञानिक चेष्ठा है। इसीलिए वैसी फिल्में बहुत लोकप्रिय होती हैं। वज्र पर जहाँ यौन संवेदना पैदा होती है, उस बिंदु को चिराग कहा गया है, क्योंकि वहाँ पर योनि-रुपी जमीन से रगड़ खाने पर उसमें संवेदना-रूपी प्रकाशमान ज्योति प्रज्वलित हो जाती है। उस प्रकाशमान ज्योति पर कुंडलिनी रूपी जिन्न पैदा हो जाता है। बोतल चिराग के साथ ही रखी होती है। इससे वह कुंडलिनी-जिन्न बोतल के अंदर प्रविष्ट हो जाता है। नाड़ी-छल्ला ही वह बोतल है, जो वज्रशिखा की सतह पर संवेदना-बिंदु से शुरु होकर मुलाधार से होता हुआ पीठ में ऊपर चढ़ता है, और आगे के नाड़ी चैनल से होता हुआ नीचे आकर फिर से उस संवेदना-बिंदु से जुड़ जाता है। वज्र का वीर्यनिकासी-द्वार ही उस बोतल का मुँह है। तांत्रिक विधि से वीर्यपतन को रोककर वीर्यशक्ति को ऊपर चढ़ाना ही जिन्न को बोतल में भरना है। वीर्यपात रोकने को ही बोतल के मुंह को ढक्क्न से बंद करना कहा गया है। साँसों की शक्ति के दबाव से ही जिन्न बोतल के अंदर घूमता है। अंदर को जाने वाली सांस से वह बोतल के पिछले हिस्से से ऊपर चढ़ता है, और बाहर आने वाली सांस से बोतल की अगली दीवार को छूता हुआ नीचे उतरता है। अगर मूलाधार से लेकर सहसरार तक के पूरे शरीर को बोतल माना जाए, तो पीठ को बोतल की पिछली दीवार, और शरीर के आगे के हिस्से को बोतल की अगली दीवार कह सकते हैं। चक्रोँ को जोड़ने वाली मध्य रेखा को बोतल की दोनों मुख्य दीवारों की अंदरूनी सतह पर स्थित एक विशिष्ट राजमार्ग कह सकते हैं, जिस पर जिन्न दौड़ता है। चक्रोँ को जिन्न के विश्रामगृह कह सकते हैं। वज्र को बोतल की गर्दन कह सकते हैं। आश्चर्यजनक समानता रखने वाला रूपक है यह। इस बोतल-रूपक के सामने तो मुझे हिन्दुओं का नाग-रूपक भी फीका लग रहा है। पर नाग-रूपक इसलिए ज्यादा विशेष प्रभावशाली हो सकता है, क्योंकि नाग जीवित प्राणी और कुदरती है, उसका जमीन वाला चौड़, चौड़ा फन, दोनों को जोड़ने वाला बीच वाला पतला भाग, और  कमर का गड्ढा बिल्कुल मानव-शरीर की बनावट की तरह है। जब जैसा रूपक उपयुक्त लगे, वैसे का ही ध्यान किया जा सकता है, कोई रोकटोक नहीं। 

बोतल का ढक्क्न खोलकर जिन्न को बाहर निकलने देने का मतलब है कि नियंत्रित और तांत्रिक तरीके से वीर्यपात किया। जिन्न के द्वारा ‘क्या हुक्म मेरे आका’ कहने का मतलब है, जिन्न या कुंडलिनी का बाहरी जगत में स्पष्ट रूप में दृष्टिगोचर होना। हालांकि जिन्न मन में ही होता है, पर वीर्य शक्ति के साथ बाहर गया हुआ महसूस होता है। फिर जिन्न के द्वारा आदमी के सभी कामों में मदद करने का अर्थ है, जिन्न का सभी कामों के दौरान एक विश्वासपात्र मित्र के रूप में अनुभव होते रहना। इससे दुनिया में अद्वैत और अनासक्ति का भाव बना रहता है, जिससे भौतिक सुखों के साथ आध्यात्मिक मुक्ति भी मिलती है। कुण्डलिनी रूपी जिन्न को शरीररूपी बोतल के अंदर कुण्डलिनी-योग-ध्यान की खुराक से लगातार पालते रहना पड़ता है। इससे वह शक्ति का संचय करता रहता है, और बाहर खुले में छोड़े जाने पर योगसाधक के बहुत से काम बनाता है। यह ऐसे ही है जैसे राजा लोग अपने अस्तबल में घोड़ों का पालन-पोषण बड़े समर्पण और प्यार से करवाते थे। उससे बलवान बने घोड़े जब बाहर खुले में निकाले जाते थे, तो बड़ी निष्ठा और समर्पण से राजा के काम करते और करवाते थे, शिकार करवाते थे, रथ खींचते थे, युद्ध में मदद करते थे, भ्रमण करवाते थे आदि।

पानी यिन है, और तनाव व भागदौड़ से भरा मनुष्य का तनमन याँग है। इसीलिए झील आदि के पास शांति मिलती है। वृक्ष का जड़ अर्थात अचेतन आकार यिन है, और उसमें जीवन याँग है। इसीलिए वृक्ष को देवता कहते हैं, और लोग अपने घरों के आसपास सुंदर वृक्ष लगाते हैं। मुलाधार यिन है, आज्ञा या सहस्रार चक्र यांग है। पत्थर आदि की चित्रविचित्र जड़ या मृत प्रतिमाऐं और मूर्तियां यिन है, और उनमें चेतन या जीवित देवता का ध्यान याँग है। यिनयांग की सहायता से सिद्ध होने वाला दुनियादारी वाला व्यावहारिक योग ही क्रियाशील कुंडलिनीयोग है। दूसरी ओर, कई बार बैठक वाले कुंडलिनी योगी की कुंडलिनी उम्रभर घुमती रहती है, पर वह जागृत नहीं हो पाती, और अगर होती है, तो बड़ी देर से होती है। इसीको इस तरह से कहा गया है कि गणेश ने ब्रह्मांड की परिक्रमा पहले कर ली। गणेश का विवाह कर दिया गया। उसको सिद्धि और बुद्धि नाम की दो कन्याएँ पत्नियों के रूप में प्रदान कर दी गईं। इनसे उसे क्षेम और लाभ नाम के दो पुत्र प्राप्त होते हैं। दरअसल यिन-यांग गठजोड़ दुनियादारी से सम्बंधित है। यह अनेक प्रकार के विरोधी गुणों वाले लोगों को साथ लेकर चलने की कला है। नेतृत्व की कला है। इससे प्रेमपूर्ण भौतिक सम्बंध बनते हैं, दुनिया में तरक्की मिलती है। नए-नए अनुभव मिलते हैं। इन्हीं दुनियावी उपलब्धियों को सिद्धि और बुद्धि कहा गया है। जबकि बैठक वाला कुंडलिनी योगी दुनिया से विरक्त की तरह रहता है। इससे उसे दुनियावी भौतिक लाभ नहीं मिलते। इसीको कार्तिकेय का अविवाहित होकर रहना बताया गया है। ऐसा उसने नारद मुनि की बातों में आकर नाराज होकर किया। नारद मुनि ने उसके कान भरे कि शिवपार्वती ने उसके साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है, और उसे गणेश की तुलना में बहुत कम आंका है। इससे वह नाराज होकर अपने मातापिता के निवासस्थान कैलाश पर्वत को छोड़कर क्रौंच पर्वत को चला जाता है, और वहीँ स्थायी रूप से निवास करने लगता है। आज भी उत्तराखंड स्थित क्रौंच पर्वत पर कार्तिकेय का रमणीय मंदिर है। शिवपार्वती आज भी प्रेम के वशीभूत होकर साल में एकबार उससे मिलने आते हैं। तब वहाँ मेला लगता है। वास्तव में कुंडलिनी योगी का मन ही नारद मुनि है। जब वह देखता है कि तांत्रिक किस्म के शरीरविज्ञान-दार्शनिक लोग दुनिया में हर किस्म का सुख, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष एकसाथ प्राप्त कर रहे हैं, पर उसे न तो माया मिल रही है और न ही राम, तब वह अपनी तीव्र कुंडलिनी योगसाधना कम कर देता है। इस प्रकार से हम गणेश जैसे स्वभाव वाले लोगों को तांत्रिक कर्मयोगी भी कह सकते हैं। इसीलिए गणेश चतुर व्यापारियों का मुख्य देवता होता है। आपने भी अधिकांश व्यापार-प्रचारक वार्षिक कैलेंडरों पर गणेश का चित्र बना देखा ही होगा। और उनमें साथ में लिखा होता है, ‘शुभ लाभ’। प्राचीन सभ्यताओं में इसीलिए देवीदेवताओं के प्रति भरपूर आस्था होती थी। पर बहुत से अब्रहामिक एकेश्वरवादियों ने उनका विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज भी आदिवासी जनजातियों में यह देवपूजन प्रथा विद्यमान है। हरेक कबीले का अपना खास देवता होता है। हिमालय के उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में मैंने खुद यह शक्तिशाली अद्वैत व कर्मयोग पैदा करने वाली प्रथा देखी है। हिमाचल का कुल्लू जिले का मलाणा गाँव तो इस मामले में विश्वविख्यात है। वहाँ सिर्फ देवता का प्रशासन काम करता है, किसी सरकारी या अन्य तंत्र का नहीं। उपरोक्तानुसार पत्थर आदि की चित्रविचित्र जड़ प्रतिमाऐं और मूर्तियां यिन है, और उनमें चेतन देवता का ध्यान याँग है। इस यिन -यांग के मिश्रण से ही सभी भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ मिलती हैं, हालांकि मिलती हैं कुंडलिनी के माध्यम से ही, पर रास्ता कर्मयोग व दुनियादारी वाला है। मतलब कि बैठक वाला कुंडलिनी योगी ज्यादा समय दुनिया से दूर नहीं रह सकता। वह जल्दी ही हतोत्साहित होकर अपनी कुंडलिनी को सहस्रार से आज्ञा चक्र को उतार देता है। वहाँ वह बुद्धिपूर्वक भौतिक जीवन जीने लगता है, हालांकि यिन-यांग गठजोड़ अर्थात शिवपार्वती से दूर रहकर, क्योंकि उसे दुनियादारी की आदत नहीं है। साथ में, वह ज्यादा ही आदर्शवादी बनता है। यही उसका शिवपार्वती अर्थात परमात्मा से नाराज होना है। दरअसल शिवपार्वती गठजोड़ ही असली परमात्मा हैं। अकेले शिव भी पूर्ण परमात्मा नहीं, और अकेली पार्वती भी नहीं। सहस्रार ही कैलाश और आज्ञाचक्र ही क्रौंच पर्वत है, जैसा कि एक पिछली पोस्ट में बताया गया है। शिव परमात्मा उसे अपनी तरफ आकर्षित करते रहते हैं, पुत्र-प्रेम के कारण। वैसे भी जीव शिव परमात्मा का पुत्र ही तो है। कई बार अल्प जागृति के रूप में उससे मिल भी लेते हैं। यही शिवपार्वती का प्रतिवर्ष उससे मिलने आना कहा गया है।

कुंडलिनी के लिए संस्कार या सत्संग का महत्त्व

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में संस्कारों के बारे में बात कर रहा था। जितने लोगों तक किसी आदमी की अच्छी प्रतिज्ञा या अच्छे काम या अच्छे आचरण का सन्देश जाता है, मन पर उसका संस्कार उतना ही मजबूत बनता है। इसी संस्कार के लिए ही तो लोग ब्लॉग लिखते हैं, लेख लिखते हैं, प्रचार करते हैं, सशुल्क या निःशुल्क शिविर लगाते हैं, छोटे-बड़े समारोहों का आयोजन करते हैं, आदि। जिसको जितनी ज्यादा भीड़ मिलती है, वह उतना ज्यादा सफल माना जाता है। इन क्रियाकलापों के लिए कई बार काफी खर्चा करना पड़ता है, कई बार सस्ते में हो जाता है। कई बार बड़ों और गुरु लोगों की कृपा से मुफ्त में भी हो जाता। मैं इसी मामले में जागृति से जुड़ी अपने साथ घटी घटना बताता हूँ। कॉलेज टाइम में गुरुजनों की कृपा से मुझे एक पत्रिका में लेख लिखने का मौका मिला था। मैंने दो-तीन लेख लिख के दे दिए, जो सौभाग्यवश एक पेज पर छप गए। वे लेख सामान्य शरीरविज्ञान दर्शन, मानवता धर्म, प्रेम, देशप्रेम, कर्मयोग, तन्त्र और काव्य से संबंधित थे। मुझे उससे एक नई पहचान मिली। उससे मेरे मन पर इतना गहरा संस्कार पड़ गया कि मैं खूब क्रियाशील हो गया और दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा। मुझे तो लगता है कि कई वर्षों के भौतिक विकास के बाद जब मेरे मन में वह संस्कार-रूपी बीज भरापूरा वृक्ष बन गया, तभी मुझे जागृति की दूसरी झलक मिली, जिससे मेरे से शरीरविज्ञान दर्शन की रचना पुस्तक के रूप में पूर्ण हुई, अन्य भी बहुत सी पुस्तकों की रचना हुई, और कुंडलिनी ब्लॉग लिखने में भी काफी हद तक सफलता मिली। मतलब कि मैं पहले पुस्तकों को व्यवहारिक जीवन में खूब जिया हूँ, बाद में मैंने उस जीवन को पुस्तकों और ब्लॉग के रूप में उतारा है। ऐसा नहीं है कि मैं पैदा हुआ, और लिखने बैठ गया। वह तो नकल होती है। असली लेखन वह है जिसमें अपना जीवन कागज पर उतरता हुआ दिखे। उस समय मेरे यौन हॉर्मोन्स का स्तर काफी उच्च था, जैसा कि उस उम्र में सबका होता ही है। पर मुझे लगता है कि जागृति की प्रथम झलक और कुंडलिनी के कारण मेरा कुछ ज्यादा ही और आध्यात्मिक रूप से विशिष्ट था। सम्भवतः इसी वजह से वह शुभ संस्कार इतनी दृढ़ता से जम गया हो, जो ताउम्र मेरे से जुड़ा रहने के लिए बेताब लगता था। मुझे यह भी लगता है कि जागृति की पहली झलक के बाद मेरा पुराना संघर्षमय जैसा बालजीवन एकदम से मेरे मन में ध्वस्त जैसा हो गया था। उससे मेरा मन एक बच्चे की तरह साफ हो गया था, बिना लिखे नए ब्लैकबोर्ड की तरह। बच्चे की तरह मेरा रूपांतरण चल रहा था, जिससे मेरा मन-मस्तिष्क उसी की तरह बहुत ज्यादा ग्रहणशील हो गया था। इसीसे उस शुभ संस्कार ने मेरे मन में इतनी सकारात्मक और चिरस्थायी क्रियाशीलता पैदा कर दी कि उसने कालांतर में मुझे जागृति की दूसरी झलक भी दिखला दी। इसीलिए कहा जाता है कि बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बच्चों में अच्छे संस्कार डालने वाले सुसंस्कृत शिक्षक का समाज में इतना ज्यादा महत्त्व क्यों बताया गया है। सर्वप्रथम शिक्षिका माँ होती है। उसके द्वारा दिए संस्कारों का प्रभाव मनुष्य पर सबसे ज्यादा होता है। इसीलिए कहा गया है कि रमन्ते तत्र देवताः, नार्यस्यत्र पूज्यंते। शिवाजी महाराज को माँ जीजाबाई से जन्म से ही (यूँ कहो कि गर्भ से ही) संस्कार मिलने शुरु हो गए थे, इसी वजह से वे आक्रमणकारी मुगलों से सनातन धर्म की रक्षा कर सके। संस्कारों का प्रभाव कई जन्मों तक मन पर पड़ा रहता है। मैंने बहुत पहले एक बात सुनी-पढ़ी थी। रूस की एक 80 वर्ष की बुजुर्ग महिला ने स्कूल की पढ़ाई शुरु की। जब उससे पूछा गया कि वह पढ़ाई उसके किस काम आएगी, तो उसने जवाब दिया कि वह उसके अगले जन्म में काम आएगी। मतलब वह अगले जन्म के लिए पढ़ रही थी। उसने यह पढ़ी-पढ़ाई बात नहीं की होगी पर अपने अनुभव और अनुमान आदि के आधार पर कही होगी, क्योंकि पुनर्जन्म का बोलबाला हिन्दू धर्म में ही लगता है मुझको। स्वस्थ समाज का निर्माण स्वस्थ मन से होता है। स्वस्थ मन का निर्माण स्वस्थ संस्कारों से होता है। स्वस्थ संस्कारों का निर्माण स्वस्थ शिक्षा प्रणाली से होता है। हिंदी में एक कहावत है, काँटे का मुँह शुरु से ही पैना होता है। इसका मतलब है कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता उसके बचपन में ही चल जाता है। इसलिए यह कहावत भी संस्कारों का महत्त्व प्रदर्शित करती है।

उपरोक्त उदाहरण से यह मतलब भी निकलता है कि यह जरूरी नहीं है कि संस्कारों के निर्माण के लिए बड़े-बड़े और महंगे समारोहों पर ही निर्भर रहा जाए। हालाँकि इनसे समाज में उत्तम प्रथा बनी रहती है। रोज जो प्रातः संस्कृत मन्त्र बोले जाते हैं, वे भी संस्कारों का निर्माण करते हैं। उन मन्त्रों की शक्ति यही है कि वे अवचेतन मन पर गहरा प्रभाव डालकर संस्कार बनाते हैं। संस्कृत मंत्रों से कुंडलिनी शक्ति इसलिए भी मिलती है, क्योंकि इनको गाते समय साँसें लम्बी, गहरी, धीमी और नियमित हो जाती हैं। सांसों के साथ इनका तालमेल होता है। मन्त्र का कुछ भाग अंदर जाती हुई लम्बी गहरी सांस के साथ गाया जाता है, तो कुछ भाग बाहर निकलती हुई लम्बी गहरी सांस के साथ। अधिकांश मामलों में तो सिर्फ बाहर जाती सांस के साथ ही गाया जाता है। अंदर जाती गहरी सांस पर तो सिर्फ ध्यान दिया जाता है। सांस पर ध्यान देने से और ज्यादा कुंडलिनी-अद्वैत का लाभ मिलता है। इससे संस्कार और अधिक मजबूत हो जाता है। सांसों और मंत्र-शब्दों पर अनासक्तिपूर्ण ध्यान जाने से अद्वैत व साक्षीभाव का उदय होता। चालीसा आदि बोलने से भी इसी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत से लाभ मिलता है। वैसे कुछ न कुछ लाभ तो हर किसी गाने को गाकर मिलता है। यह गायन का आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। मैं जब बचपन में नानी के घर जाया करता था, तो मेरे नानाजी मुझे और मेरे दोनों लगभग हमउम्र मामाओं को ऐसे बहुत से प्रातःकालीन मंत्र बार-बार बुला कर याद कराया करते थे, जो मुझे अभी तक याद हैं। एक सार्वभौमिक उदारता का निर्माण करने वाला वैदिक संस्कृत मन्त्र बताता हूँ। सह नाववतु सह नौ भुनक्तौ सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै। इसका अर्थ है, हमारी साथ-साथ रक्षा हो, मतलब हम सब एकदूसरे की रक्षा करें, हम सब साथ मिलकर खाएं मतलब कोई भूखा न रहे या सबको रोजगार मिले, हम सब साथ-साथ मिलकर बल का प्रयोग करें मतलब हम सब एकदूसरे की सहायता करें। हमारे द्वारा प्राप्त की गई विद्या तेज अर्थात व्यावहारिकता के प्रकाश से परिपूर्ण हो मतलब सिर्फ किताबी न हो, हम एकदूसरे से द्वेष अर्थात नफरत न करें। यह बहुत शक्तिशाली मंत्र है, और ज्यादा नहीं तो कम से कम इसे तो प्रतिदिन प्रातः जरूर बोलना चाहिए। गा कर बोलने पर तो यह और ज्यादा आकर्षक और प्रभावशाली लगता है। इसमें ‘मा’ शब्द विशेष प्रभावशाली है। इसका अर्थ वैसे तो ‘न’ होता है, पर यह मन पर माँ अर्थात माता के प्रभाव को भी पैदा करता है। इससे मन बच्चे की तरह भोला और ग्रहणशील बन जाता है। इसलिए गाते समय मा शब्द को दीर्घता और गुरुता प्रदान करनी चाहिए। प्रसिद्ध भारतीय नारा, ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ भी तो सरल शब्दों में यही मंत्र है। इसमें संदेह नहीं कि यह देश के लोगों में अच्छे संस्कार डालने का प्रयास है, जो कालांतर में जरूर फलीभूत होगा। गजब का मनोविज्ञान छिपा होता है संस्कृत मन्त्रों में। अगर इनका गहराई से अध्ययन किया जाए, तो बहुत सी रहस्यात्मक शक्तियाँ हाथ लग सकती हैं। वैदिक मंत्र होने के कारण इसकी संस्कृत का व्याकरण और अर्थ ज्यादा स्पष्ट नहीं है। वैदिक मंत्र ऐसे ही होते हैं। इनमें सस्पेंस जैसा होता है। यह इसलिए ताकि बेशक ये स्थूल रूप से समझ न आए, पर अपने विशेष उच्चारण और शब्द रचना के साथ मन पर गहरा सूक्ष्म संस्कार छोड़ते हैं, जो स्थूल समझ से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होता है। सस्पेंस में भी बहुत शक्ति होती है। इससे आदमी विचारों का घोड़ा तेजी से दौड़ाता है, और बहुत सी मंजिलें आसानी से पा लेता है। इसीलिए सस्पेंस से भरी फिल्में बहुत लोकप्रिय होती हैं। मेरे द्वारा लिखे बताए गए उपरोक्त लेख भी भरपूर सस्पेंस से भरे थे, इसीसे उनसे इतनी शक्ति मिली। मुझे तो मिली ही, पर मुझे लगता है कि अन्य अनेक लोगों को भी मिली, जिन्होंने ये पढ़े थे। उनसे दोहरे अर्थ निकलते थे, भौतिक भी और आध्यात्मिक भी, सभ्य भी और असभ्य भी, धार्मिक भी और अधार्मिक भी, व्यंग्यात्मक भी और गम्भीर भी, आलोचनात्मक भी और विश्लेषणात्मक भी। कभी उनमें अश्लीलता नजर आती थी तो कभी तांत्रिक मनोविज्ञान। उनके साथ शरीरविज्ञान दर्शन का ऐसा तड़का लगा था कि ये उपरोक्त परस्पर विरोधी भाव उनमें एकसाथ भी नजर आते थे, और कुछ भी नजर नहीं आता था। सबकुछ शून्य के जैसे सन्नाटे की तरह लगता था। इसी वजह से वे हरेक किस्म के लोगों को पसंद आए। साथ में, उनमें कुछ थ्रिल भी था। मुझे तो लगता है कि पुराणों की कथाएँ इसीलिए बहुत प्रभावशाली होती हैं, क्योंकि उनमें भरपूर सस्पेंस और थ्रिल होता है। बाहुबली फ़िल्म इतनी लोकप्रिय क्यों हुई। उसमें शुरु से लेकर सस्पेंस बनाया हुआ था, जो फिल्म के दूसरे भाग के अंत में जाकर खत्म हुआ। थ्रिल भी उसमें बहुत और एक आभासिक या पौराणिक प्रकार का था। इसी तरह, एक और मंत्र है, ‘कराग्रे वसते लक्ष्मी—-‘आदि। यह सुबह सो कर उठकर हथेली की ओर देखकर बोला जाता है। यह शरीरविज्ञान दर्शन सम्मत है, क्योंकि इससे हाथ में अर्थात शरीर में पूरे ब्रह्मांड का अनुभव होता है। पौराणिक मन्त्रों का व्याकरण स्पष्ट होता है और इनकी शब्दरचना भी स्पष्ट होती है, इसलिए इनमें वैदिक मन्त्रों जितनी अदृश्य शक्ति नहीं होती। कई लोग अपने असभ्य आचरण के लिए दूसरों को दोष देते हैं। पर वास्तव में दोष उनके अंदर अच्छे संस्कारों की कमी का है। यह अलग बात है कि अच्छे संस्कारों की कमी के लिए कुछ हद तक पूरा समाज जिम्मेदार होता है। अच्छे संस्कार न डालने के लिए कभी माँबाप पर दोषारोपण होता है, कभी गुरुजनों पर तो कभी परिवारजन, मित्र, रिश्तेदार आदि अन्य निकटवर्ती सुपरिचित लोगों पर। हालांकि अपने संस्कारों के लिए आदमी स्वयं भी जिम्मेवार होता है। आदमी के पिछले जन्मों के संस्कार ही यह निश्चय करते हैं कि वह किस प्रकार के संस्कार ग्रहण करेगा। तभी तो आपने देखा होगा कि कई बार बहुत बुरे परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति भी बहुत बड़ा महात्मा बनता है। दरअसल वह पिछले जन्म के अच्छे संस्कारों के कारण अपने वर्तमान जीवन में बुरे संस्कारों की तरफ आकृष्ट नहीं होता, बल्कि वह अच्छे संस्कारों की तरफ भागता है, बेशक वे परिवार के बाहर ही क्यों न हों। इसी तरह, कई बार सभ्य परिवार का कोई सदस्य भी कई बार दुरात्मा बन जाता है। इस छोटी सी कहावत के बहुत बड़े मायने हैं, ‘बोए बीज बबूल का, आम कहाँ से होए’।

कुंडलिनी के लिए संस्कारों का महत्त्व

भौतिक उपलब्धियां अल्प अवधि में भी प्राप्त की जा सकती हैं। पर कुंडलिनी की प्राप्ति के लिए बहुत लंबा समय लग जाता है। अधिकांश मामलों में तो एक पूरा जीवन भी थोड़ा पड़ने से कई जन्मों के प्रयास की आवश्यकता लगती है। अगले जन्म का क्या पता कि कहाँ मिले, कैसा मिले। इसलिए प्रयास होना चाहिए कि इसी एक मनुष्य-जीवन में कुंडलिनी की प्राप्ति हो जाए। ऐसा केवल संस्कारों से ही सम्भव हो सकता है। यदि जन्म से ही आदमी को कुंडलिनी के संस्कार देना शुरु कर दिया जाए, और यह सिलसिला उम्रभर जारी रखा जाए, तभी यह हो पाना सम्भव लगता है। प्राचीन भारतीय हिंदू परंपरा में ऐसा होता भी था। यह कोई झूठी शेखी बघारने वाली बात नहीं है। कदम-कदम पर देवमन्दिर होते थे। आध्यात्मिक उत्सव-पर्व होते रहते थे। हरेक क्रियाकलाप के साथ अध्यात्म जुड़ा होता था। ज्योतिष पर लोगों की आस्था होती थी। चारों ओर वैदिक कर्मकांड का बोलबाला था। वर्णाश्रम धर्म अपने श्रेष्ठ रूप में विद्यमान था। हरेक आदमी के सोलह संस्कार कराए जाते थे। यह सब कुंडलिनी के लिए ही तो था। यह सब कुंडलिनी विज्ञान है, आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। बड़े-बूढ़े लोग जब संस्कार प्रदान करते थे, तब उनके व्यक्तित्व की छाप बच्चों के मन पर गहरी पड़ जाती थी। इससे बच्चा बड़ा होकर एकसाथ दो जीवन जीता था, अपना भी और अपने पूर्वज का भी। उदाहरण के लिए मान लो एक व्यक्ति अपने पौत्र को कुंडलिनी संस्कार देता है। इससे पौत्र के मन में अपने दादा के प्रति अच्छे भाव पैदा हो जाते हैं। इससे अनजाने में ही दादा के जीवन-अनुभवों का लाभ पौत्र को मिलने लगता है। मतलब कि दादा बिना मरे ही पौत्र के रूप में दूसरा जीवन जी रहा है, अर्थात दादा की उम्र दुगुनी हो गई है, और पौत्र को अपनी आयु के साथ दादा की दुगुनी आयु भी प्राप्त होती है। इससे पौत्र की आयु तिगुनी मानी जाएगी, अर्थात 300 साल। अब यह समझ लो कि पौत्र ने लगातार 300 साल तक कुंडलिनी योग किया है। इतने समय की साधना से बहुत संभव है कि उसे कुंडलिनी जागरण हो जाए। पौत्र का अपना असली जीवन तो सौ साल का ही है, पर उसे संस्कारों के कारण तीन सौ सालों का लाभ मिल रहा है। यही कारण है कि हिंदू शास्त्रों में वर्णित कालगणना के मामले में भ्रम पैदा होता है। वहाँ किसी की आयु 300, किसी की 500 या किसी की हजारों साल की बताई गई है। इसी तरह कोई सैंकड़ों सालों तक तप-साधना करता है, तो कोई हजारों सालों तक। दरअसल यह वास्तविक उम्र या समय नहीं होता, बल्कि संस्कारों के कारण मिल रहा इतनी उम्र या समय का लाभ है। उपरोक्त उदाहरण में, इसी तरह दादा भी दो उम्रों को एकसाथ जीता है, एक अपनी और एक अपने पौत्र की। अगर बुढ़ापे से उनकी मृत्यु भी हो जाए, तब भी उन्हें अगले जन्म में पिछले जन्म की दोनों उम्रों का लाभ मिलता है, संस्कारों के कारण। एक-दूसरों से जीवन का साझाकरण संस्कारों से ही सम्भव है। हिंदु अध्यात्म में गुरु परम्परा भी संस्कार को बढ़ाने के लिए ही है। यदि किसी की गुरु परम्परा 10 गुरुओं से चली आ रही है, तो वर्तमान काल के गुरु की सांस्कारिक उम्र 1000 साल मानी जाएगी। मतलब उसे 1000 साल लम्बी चलने वाली कुंडलिनी योगसाधना का लाभ एकदम से अपने आप मिल जाएगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि हरेक गुरु अपने शिष्य अर्थात भावी गुरु को संस्कारों के रूप में अपना सारा जीवन देते आए हैं, जिससे संस्कार उत्तरोत्तर बढ़ते रहे। इसी तरह, यदि किसी का वंश 10 पीढ़ियों से चलता आ रहा है, तो उसकी वर्तमान पीढ़ी के व्यक्ति की सांस्कारिक उम्र 1000 साल मानी जाएगी। आपस में जितना अधिक भावनात्मक और प्रेमपूर्ण सम्बंध बना होगा, संस्कारों का उतना ही अधिक लाभ मिलेगा। यदि एक परिवार दस पीढ़ियों से लगातार आध्यात्मिक जीवन पद्धति को जीता आ रहा है, तो उसकी वर्तमान समय की दसवीं पीढ़ी के सदस्य को समझा जाएगा कि वह बिना मृत्यु को प्राप्त हुए, एक हजार वर्षों से लगातार आध्यात्मिक जीवन पद्धति को जीता आ रहा है। इसका मतलब है कि जो जीवन पद्धति या परंपरा जितनी अधिक पुरातन है, उसमें उतना ही ज्यादा संस्कारों का बल है। इस हिसाब से तो हिंदु या वैदिक परंपरा सबसे शक्तिशाली है, क्योंकि यह सबसे पुरातन है। अगर मैं आज शिवपुराण को रहस्योद्घाटित कर रहा हूँ, तो इसका यह मतलब भी हो सकता है कि मैं इसके लेखक ऋषि के संस्कार को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से प्राप्त कर रहा हूँ। परम्परा में संस्कार छिपे होते हैं, इसलिए हमें परम्परा को विलुप्त नहीं होने देना है। अगर उसे युग के अनुरूप भी ढालना है, तो उसके मूल रूप से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिये। प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस कहते हैं कि नयापन इस तरह लाओ कि पुरानापन भी जीवित रहे। परम्परा से कटा आदमी डोरी से कटी पतंग की तरह दिशाहीन हो जाता है। हालांकि आज हमें उपरोक्त वैदिक परंपरा या जीवन पद्धति की तरह अन्य पुरातन परम्पराएँ भी अजीब सी लगती हैं। यह ऐसा इसलिए है क्योंकि आज ये विकृत हो गई हैं, अपने असली स्वरूप में नहीं हैं। आज ये ढोंग या दिखावा बन कर रह गई हैं। आज इनमें शक्ति नहीं है। आज हम बहुत आदर्शवादी बन गए हैं, जिससे अपनी असली संस्कृति भूल सी गए हैं। यह ऐसे है, जैसे शिवपुराण में कथा आती है कि त्रिपुरासरोंको पथभ्रष्ट करने के लिए भगवान विष्णु ने सिर मुंडवाए हुए बौद्ध-जैन भिक्षु जैसे लोग पैदा किए। वे शिवलिंग, वेदों, यज्ञों व उनमें दी जाने वाली पशु बलि के विरोध में छद्म अहिंसा आदि का उपदेश देते हुए अपने मायामय धर्म का प्रचार करने लगे। इससे महिलाएं कुलटा हो गईं। जिससे सब शक्तिहीन हो गए। वे भिक्षु मुंह पर कपड़ा जैसा बाँध रखते थे, और बहुत धीरे चलते थे, ताकि पैर के नीचे दब कर किसी चींटी आदि सूक्ष्म जीव की हत्या न हो जाए। शिवलिंग पूजा छोड़ने से सब तन्त्र से विमुख हो गए। उन्हें शक्तिहीन जानकर देवताओं ने अच्छा मौका जानकर उन त्रिपुरासरों को शिव से मरवा दिया। फिर वे मुंडी लोग भगवान नारायण के पास जाकर कहने लगे कि आपका काम हो गया, अब आप बताएं हम कहाँ जाएं। नारायण ने उन्हें रेगिस्तान चले जाने का निर्देश दिया और कहा कि कलियुग में फिर दुनिया में फैल जाना। आज के कलियुग में यह बात सच होती हुई लग रही है। मैं इस कथा का रहस्योद्घाटन अगली पोस्ट में करूंगा।

उपरोक्त बातों से सिद्ध होता है कि संस्कारों के बिना कुंडलिनी दुर्लभ है। संस्कार के साथ शुभ लगाने की जरूरत नहीं, क्योंकि इसका मतलब ही शुभ संस्कार बनता है। विशेष संस्कार बताने के लिए विशेष शब्द जोड़ सकते हैं, जैसे भौतिक संस्कार, स्वच्छता के संस्कार आदि। क्योंकि कुंडलिनी आध्यात्मिक संस्कार से मिलती है, इसलिए इस कुंडलिनी विषयक वेबसाइट में संस्कार का मतलब आध्यात्मिक संस्कार ही समझा जाएगा, जो शुभ संस्कार का ही एक प्रकार है। बुरे संस्कार के साथ बुरा या अशुभ जोड़ना पड़ता है। यह समझा जा सकता है कि बच्चे से कुंडलिनी योग या अन्य आध्यात्मिक क्रियाकलाप आसानी से नहीं कराया जा सकता, पर संस्कार तो डाला जा सकता है। यही संस्कार रूपी बीज कालांतर में कब महान वृक्ष बनेगा, किसीको पता भी नहीं चलेगा। संस्कार संगति से बनता है। इसीलिए अच्छी संगति की अध्यात्म में बहुत बड़ी महिमा है। थोड़ी सी संगति से भी अनगिनत लोग, यहाँ तक कि अन्य जीव भी भवसागर से तर गए हैं। शास्त्र ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं। उदाहरण के लिए, एक कौवा मंदिर पर चढ़ाया हुआ प्रसाद खाता था। संगति या संस्कार के प्रभाव से वह अगले जन्म में साधु बना और मुक्त हो गया। कोई जीव या मनुष्य किसी साधु की कुटिया के सानिध्य में रहकर मुक्त हो गया, आदि। वृंदावन में तो भगवान कृष्ण की संगति से फूल-पौधे भी तर गए। यह सब संस्कार या संगति का ही चमत्कार है। बिना किए ही सबकुछ हो जाता है। संस्कार की तरह संगति का मतलब भी यहाँ शुभ या आध्यात्मिक संगति ही समझना चाहिए। तत्त्वतः संगति और संस्कार में कोई अंतर नहीं है।

कुंडलिनी रूपांतरण के नाजुक दौर से गुजर रहा अंतरराष्ट्रीय समाज, जिसे युग परिवर्तन भी कहते हैं~यूक्रेन-रशिया युद्ध का मनोविज्ञान

सभी मित्रों को शिवरात्रि पर्व की बहुत-बहुत बधाइयाँ

मित्रो, मैं पिछली पोस्ट में धार्मिक आतंकवाद के बारे में बात कर रहा था। हाल ही में एक घटना और सामने आ गई। कर्नाटक में स्कूलों में हिजाब पहनने के नए चलन का शांतिपूर्वक विरोध करने वाले हिंदु बजरंग दल के एक 23 वर्ष के अविवाहित व अच्छे खासे कार्यकर्ता को कुछ जिहादियों ने मिलकर बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। ऐसी हिन्दुविरोधी घटनाएं सैंकड़ों सालों से नियमित रूप से हो रही हैं, कभी कम, तो कभी ज्यादा। पर एक भय का माहौल खड़ा करके इन्हें दबा कर या दुष्प्रचार से हल्का कर दिया जाता है। सभी लोगों का कल्याण इसीमें है कि सभी धर्मों के लोग मिलजुलकर रहें। आज सभी धर्मों को संशोधित करके उनमें से अमानवीय कट्टरता को बाहर निकालने की जरूरत है। मैं किसी धर्म-विशेष के पक्ष या विपक्ष में नहीं बोल रहा, बल्कि धर्म के वैज्ञानिक या मानवीय या कुंडलिनी पक्ष को उजागर करने की जरूरत महसूस कर रहा हूँ। धार्मिक हिंसा के मामले हर धर्म में देखे जाते हैं, कहीं कम तो कहीं ज्यादा। दरअसल क्या होता है कि जब किसी व्यक्ति द्वारा स्वार्थवश किसी विशेष धर्म से यह अपेक्षा की जाती है कि उससे उसे धन या रोजगार आदि के रूप में आर्थिक और सम्मान आदि के रूप में सामाजिक लाभ मिले। इससे वह उस धर्म के विरुद्ध लगने वाली बात जरा भी बर्दाश्त नहीं कर पाता, सच्ची और वैज्ञानिक बात भी नहीं। क्योंकि तब उसे अपनी रोजीरोटी और अपना सम्मान छिन जाने का डर सताने लगता है। यहीं से धार्मिक कट्टरता का उदय होता है। इसीलिए शास्त्रों में ठीक ही कहा गया है कि धार्मिक कार्यों से जीविका का उपार्जन नहीँ करना चाहिए, और न ही उन से सम्मान की अपेक्षा रखनी चाहिए। कोई चाहे कितना ही अपमान क्यों न करे, उसे झेल लेना चाहिए। इसीलिए यह मशहूर दोहा आम जनमानस में काफी प्रचलित है। मार-कूट धरती सहे, काट-कूट वनराय; कुटिल वचन साधु सहे, और से सहा न जाए।

साथ में, मैं वीर्य के महत्त्व के बारे में भी बता रहा था। वीर्यपात के बाद शरीर निस्तेज सा हो जाता है। तन-मन में एक कमजोरी सी छा जाती है। वैज्ञानिक तौर पर देखा जाए तो वीर्य में इतने ज्यादा पोषक तत्त्व भी नहीं होते, जिनकी भरपाई भोजन से न की जा सके। इससे जाहिर होता है कि उसमें कोई नाड़ी उत्तेजक तत्त्व होता है। नाड़ी की तंदरुस्ती से भोजन के पोषक तत्त्वों का शरीर में ठीक ढंग से एसिमिलेशन अर्थात अवशोषण होता है। इसका मतलब है कि वीर्यपात के बाद शरीर की पूर्ववर्ती क्रियाशीलता के लिए अतिरिक्त पोषक तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती है। नाड़ी की क्रियाशीलता की कमी को अतिरिक्त पोषक तत्त्वों से पूरा करना पड़ता है। इसीलिए वीर्यपात के एकदम बाद भूख भी बढ़ जाती है। हालांकि उसे पचाने में थोड़ी दिक्कत आ सकती है। सम्भवतः तन्त्र में इसी कमी को पूरा करने के लिए मांसभक्षण का प्रावधान करना पड़ा हो। सम्भवतः माँस में भी कोई नाड़ी उत्तेजक तत्त्व होता है। इसीलिए मांसाहारी जंतुओं में बहुत स्फूर्ति देखी जाती है। हो सकता है कि वह कोई खास विटामिन हो, जिसे मोबि-विटामिन कह सकते हैं। वह शरीर में मांसभक्षण के बाद ही बनता हो। शाकाहारी प्राणियों के शरीर में वह उपस्थित रहते हुए भी काम न कर पाता हो। उस विटामिन को विज्ञान अभी तक खोज न पाया हो। यदि वह विटामिन मिल जाए, तो उसे  प्रयोगशाला में भी बनाया जा सकता है, जिससे स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक बनाए जा सकते हैं। इससे पशुओं पर होने वाले नाजायज अत्याचार को काफी हद तक कम किया जा सकता है। पर यदि वीर्यस्खलन के बाद यौन-तांत्रिक तकनीकों से नागिन का मुख ऊपर की ओर मोड़ दिया जाए, तब कमजोरी नहीं आती। नागिन का मुख ऊपर की ओर हो जाने से फिर से वीर्यशक्ति ऊपर की ओर चढ़ने लगती है। इससे नाड़ियाँ फिर से क्रियाशील हो जाती हैं, जिससे पूरा शरीर फिर से सुचारु रूप से काम करने लग जाता है। इस नागिन को उठाने की प्रक्रिया को जितना जल्दी किया जाता है, उतना अधिक लाभ मिलता है। इससे फिर सिद्ध होता है कि वीर्य में कोई विशेष पोषक तत्त्व नहीं होते, जैसा कि विज्ञान भी कहता है, पर सम्भवतः इसमें कोई विशेष नाड़ी उत्तेजक तत्त्व होता है, जो शरीर की क्रियाशीलता के लिए बहुत जरूरी होता है। यदि इस पर वैज्ञानिक अनुसंधान किया जाए, तो एक बहुत ही शक्तिवर्धक दवाई बनाई जा सकती है। उससे नाड़ी ऊर्जा की कमी को पूरा करके आदमी की कार्यकुशलता और कार्यक्षमता को मनचाही रप्तार दी जा सकती है। इससे जहाँ आदमी का वर्तमानकालिक भौतिक पिछड़ापन दूर हो सकता है, साथ में जागृति भी आसानी से सुलभ हो सकती है। शास्त्रों में भी वीर्य को सबसे शक्तिशाली पदार्थ कहा गया है, रक्त से भी हजारों गुना अधिक। उनमें कहा गया है कि रक्त की हजारों बूंदों से वीर्य की एक बूंद बनती है। इसका मतलब है कि रक्त से छनकर कोई विशेष तत्त्व वीर्य के रूप में धीरे-धीरे जमा होता रहता है। जितनी बार वज्र प्रसारण होता है, उतनी ही बार वीर्य निर्माण के लिए रक्त का दौरा माना गया होगा। हरेक वज्र प्रसारण के बाद जो कुछ यौन उत्तेजना बढ़ती है, उसे ही वीर्य की वृद्धि के रूप में माना गया होगा।

कई लोग अक्सर कहते हैं कि उन्हें तो पीठ में ऊपर चढ़ती हुई ऊर्जा महसूस ही नहीं होती। ऊपर क्या चढ़ाएंगे, जब कुछ नीचे ही नहीं बनेगा। मतलब कि मूलाधार में जब कुंडलिनी ऊर्जा का निर्माण होगा, तभी उसे ऊपर चढ़ा पाएंगे न। मूलाधार पर कुंडलिनी ऊर्जा का निर्माण अनेक प्रकार से होता है। इनमें मुख्य हैं, यौगिक साँसें, रीढ़ की हड्डी को सीधा रखकर बैठने की सही विधि, योगासन, विविध व्यायाम, विविध प्रकार की शारीरिक क्रियाशीलता, पैदल सैर, साइकिल चलाना, अद्वैतभाव के साथ जीवनयापन और संभोग। संभोग से सर्वाधिक और सबसे जल्दी लाभ मिलता है, पर इसमें निपुणता की बड़ी जरूरत होती है, और इसे गुप्त भी रखना पड़ता है। इससे पीठ में ऊपर चढ़ती हुई ऊर्जा का स्पष्ट आभास होता है। संभोग के बाद आदमी अक्सर निस्तेज जैसे हो जाते हैं। यही गलत विधि है। आदमी का तेज कभी घटना ही नहीं चाहिए। दरअसल वीर्यशक्ति को कुंडलिनी ऊर्जा में रूपांतरित न करने से और अत्यावश्यक स्खलन के बाद नागिन को शीघ्रातिशीघ्र ऊपर न उठाने से ही यह तेज की हानि होती है। दरअसल अगर दिव्य नागिन को नीचे की तरफ ही मुँह किए रहने दिया जाए, तो एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक संदेश शरीर को प्रसारित हो जाता है कि वीर्य का उत्पादन रोक दिया जाए। सम्भवतः यह इस सम्भावना से उत्पन्न सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष भय से होता है कि वीर्य फिर से इसी तरह बर्बाद कर दिया जाएगा। इससे वीर्य की कमी से शरीर निस्तेज हो जाता है। इसके विपरीत, यदि स्खलन के बाद नागिन का मुँह ऊपर की ओर मोड़ दिया जाए, तो मस्तिष्क को यह सन्देश जाता है कि जो हुआ सो हुआ, पर अब शरीर वीर्य को बर्बाद न करके उसे शरीर के प्रयोग में लाएगा। इससे वीर्य का उत्पादन पहले से भी ज्यादा बढ़ जाता है, जिससे पिछले वीर्यक्षरण से उत्पन्न कमजोरी भी शीघ्र पूरी हो जाती है, और साथ में आगे का विकास भी शुरु हो जाता है। इसका यह मतलब नहीं कि वीर्यक्षरण करते रहना चाहिए। मर्द की विशिष्ट शक्ति उसके वीर्य से ही है। वीर्य के बिना तो वह नपुंसक की तरह ही बलहीन है। इसलिए हमेशा वीर्यसंरक्षण का प्रयास करते रहना चाहिए। वीर्यक्षरण से कुछ न कुछ हानि तो होती ही है, पर यह तंत्राभ्यास से बहुत कम रह जाती है। फिर इसे हानि भी नहीं कह सकते, क्योंकि वह हानि फिर कुंडलिनी लाभ में रूपांतरित हो जाती है। बल्कि इसका यह मतलब है कि यदि चूकवश हो जाए, या अत्यावश्यकतावश हो जाए, या पूर्वनियोजित कुंडलिनी लाभ के लिए किया जाए, तो कमजोरी से कैसे बचा जा सकता है। वीर्यक्षरण से उत्पन्न हुई इसी कमजोरी के कारण ही संभोग बदनाम हुआ है। साथ में, स्त्री भी बदनाम हुई है। उसे ऊर्जा निचोड़ने वाला या डाकिनी या विच या चुड़ैल वगैरह समझा गया। लापरवाही पुरुष की, पर दोषारोपण स्त्री पर। वैसे कुछ हद तक स्त्री भी पुरुष की मदद कर सकती है। अपने ऊपर लगे लाँछन को महिला खुद ही मिटा सकती थी, पर वह लज्जावश हमेशा चुप रही। उसने तन्त्र से भी मुंह मोड़ लिया। इसीलिए मैं प्रारम्भ से ही यह कहता आया हूं कि तन्त्र ही स्त्री को उसका खोया हुआ सम्मान वापिस दिला सकता है। जब लोगों को इन तथ्यों की समझ आएगी, तो यौनहिंसा में भी कमी आएगी। फिर औरत को पूजनीय और देवी माना जाएगा। मैं यहां लिंगभेद वाली बात नहीं कर रहा हूँ, अपितु तथ्यात्मक विश्लेषण का प्रयास कर रहा हूँ।

कम ऊर्जा वाले लोग तो अधिक ऊर्जा वाले लोगों से घृणा करेंगे ही। पशु को ही लें। उन्हें अपना कम ऊर्जा वाला सादा जीवन ही अच्छा लगता है। इसीलिए वे शहरों की बजाय जंगलों में रहना पसंद करते हैं। पर हाईटेक शहर में रहने वाले हाईटेक लोग भी जागृत आदमी के सामने कम ऊर्जा वाले हैं। दुनिया में ज्यादातर लोग कम ऊर्जा वाले ही हैं। इसीलिए वे जागृत लोगों को अलग-थलग सा करके रखते हैं। इसीलिए जागृत लोग कई बार अक्सर विभिन्न ज्यादतियों के शिकार भी बन जाते हैं। उदाहरण के लिए, जैसे ईसामसीह बने थे।

क्या होता है कि थोड़ी सी आध्यात्मिक लक्ष्य की इच्छा भी आदमी को सफल बना देती है। छोटी सी इच्छा बेशक मामूली लगे, पर वह बीज की तरह बड़े पेड़ को जन्म देने वाली होती है। जैसे समय के साथ छोटा सा बीज भी वृद्धि करता हुआ महान वृक्ष बन जाता है, उसी तरह थोड़ा सा किया हुआ आध्यात्मिक प्रयास भी आगे चलकर बहुत बड़ी आध्यात्मिक सफलता अर्थात जागृति के रूप में वृद्धि को प्राप्त होता है। इसीलिए बच्चों में आध्यात्मिक संस्कार डालने की विशेष परम्परा रही है, ताकि वे बड़े होकर जागृति प्राप्त करें, और समाज को भी सही दिशा में ले जाएं। उदाहरण के लिए कुछ दिनों पहले मेरे बेटे ने अचानक अध्यात्मिक प्रश्नोत्तरी शुरु कर दी मेरे साथ। वैसे तो आजकल के बच्चों का ध्यान ऑनलाइन चटपटे ऑडियोवीडियो मसालों पर ही रहता है, पर उस दिन उसका दूसरा मूड बन गया था। वह पूछने लगा कि उसको पीपल को जल देने के लिए क्यों बोला जा रहा है। तो उसकी माँ ने बताया कि पीपल का पेड़ रात को भी ऑक्सीजन बनाता है, और भूतप्रेत उससे दूर रहते हैं। फिर उसने पूछा कि वह रात को कैसे ऑक्सीजन बनाता है, तो मैंने कहा कि चाँद की रौशनी में प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा। तब उसने पूछा कि उससे भूत कैसे भागते हैं, तो मैंने कहा कि प्रकाश संश्लेषण से पेड़ में ऊर्जा पैदा होती है, जिसकी तरंगों से भूत उसके निकट नहीं आते। ऊर्जा ही चेतना है, और चेतना ही भूतनाश है। कुछ तर्कवितर्क के बाद वह यह बात मान गया। फिर वह पूछता है कि क्या मैं सभी आध्यात्मिक मान्यताओं को वैज्ञानिक रूप मैं समझा सकता हूँ। तो मैंने कहा कि हाँ। फिर वह पूछता है कि जब थाली हाथ से फर्श पर गिरती है, तो उसको एकदम पकड़कर उसकी आवाज करने को बंद करने के लिए क्यों कहा जाता है। मैंने कहा कि गिरकर आवाज करने वाली थाली की आवाज की आवृत्ति लगातार धीरे-धीरे कम होती जाती है। एक आवृत्ति ऐसी आ सकती है, जो हमारे मस्तिष्क में पैदा होने वाली आवृत्ति से मेल खा सकती है। उससे अनुनाद पैदा हो सकता है, जिससे हमारे मस्तिष्क की आवृत्ति बहुत ज्यादा बढ़ सकती है। उससे रक्तचाप व तनाव बढ़ सकता है। फिर उसने पूछा कि ऐसा क्यों कहा जाता है कि उस बजती हुई थाली की आवाज भगवान तक पहुंचती है। तो उसकी माँ ने कहा कि भगवान हमारे अंदर ही है, जो दिल की गहराई में छुपा रहता है। मस्तिष्क में बहुत ज्यादा ऊर्जा के पैदा होने से उसका अहसास दिल तक महसूस होता है, मतलब भगवान तक पहुंच जाता है। मैंने भी इसका अनुमोदन किया। वह और ज्यादा प्रभावित होकर नया सवाल पूछने लगा कि तीन रोटी खाने को मना क्यों करते हैं, और तीन रोटी खा लेने के बाद आधी रोटी और खाने को क्यों कहते हैं। मैंने कहा कि विषम संख्या से हमारी नाड़ियाँ असंतुलित हो जाती हैं, पर सम संख्या से संतुलित हो जाती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मुख्य नाड़ियों की संख्या दो है, जो एक सम संख्या है। उनके नाम इड़ा और पिंगला हैं। वैसे भी विषम संख्या को ओड या अटपटा कहा जाता है। फिर वह पूछता है कि मुझे इन बातों का पता कैसे चला, तो उसकी माँ ने कहा कि इतने पुराण पढ़ने के बाद भी पता नहीं चलेगा, तो कब पता चलेगा। फिर बच्चा इधर-उधर व्यस्त हो गया। चलो, बच्चे में इतना तो संस्कार पड़ा। दरअसल संस्कार बहुत छोटा और सूक्ष्म बीज जैसा होता है, पर मन पर लगातार असर डालता रहता है, जिससे कालांतर में बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है। मन पर संस्कार पड़ते समय तो उसका पता भी नहीं चलता, जैसे सरसों के बीज का पता ही नहीं चलता। उसका प्रभाव लम्बे समय बाद ही नजर आता है, जैसे सरसों का लहलहाता खेत बिजाई के कई महीनों बाद ही दिखता है। संस्कार मौका पाते ही बढ़ने लगता है, और प्रतिकूलता में वहीँ रुक जाता है। गम्भीर योगसाधना के बिना यह कम या खत्म नहीं होता। यह ऐसे ही होता है, जैसे तनिक सूखा पड़ने पर फसल का बढ़ना रुक जाता है, पर वर्षा होने पर फसल फिर से बढ़ने लगती है। जैसे बहुत ज्यादा सूखा पड़ने पर कई बार फसल के साथ उगने वाले खरपतवार नष्ट भी हो जाते हैं, उसी तरह कुंडलिनी योगसाधना से बुरे संस्कार जल कर नष्ट भी हो जाते हैं। इसलिए हमेशा कुंडलिनी योग करना चाहिए। अनेकों पिछले जन्मों के संस्कार हमारे मन में अवचेतन मन के रूप में दबे पड़े होते हैं। उनकी सफाई कुंडलिनी योग से ही सम्भव लगती है। खास बात है कि कुंडलिनी योग से बुरे संस्कार ही नष्ट होते हैं, अच्छे संस्कार नहीं। कुंडलिनी योग से अद्वैत भाव पैदा होता है, जो एक ईश्वरीय भाव है। ईश्वरीय भाव में अच्छी चीजें ही होती हैं, बुरी नहीं। स्कूल में भी योग सहित ऐसी शिक्षा पद्धति होनी चाहिए, जिससे मन पर अच्छे और मजबूत संस्कार पड़े। 

किसी चीज को ऊंचा उठाने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता है। नीचे की ओर वह खुद जाती है। इसी तरह कुंडलिनी ऊर्जा को सहस्रार तक उठाने के लिए काफी पम्पिंग फोर्स की जरूरत पड़ती है, जो कुंडलिनी योग से हासिल की जाती है। पर वही कुंडलिनी ऊर्जा खुद ही नीचे गिरकर मूलाधार में पहुंच कर वहाँ पड़ी रहती है, क्योंकि मूलाधार सबसे ज्यादा नीचाई पर है। वैज्ञानिक बताते हैं कि जिराफ का दिल आदमी के दिल से लगभग 30 गुना बड़ा अर्थात शक्तिशाली होता है। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि जिराफ की गर्दन बहुत लम्बी होने से उसका सिर बहुत अधिक ऊंचाई पर स्थित होता है। वहाँ तक खून पहुंचाने के लिए दिल को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है, जो दिल के बड़े आकार से ही सम्भव है। तो इससे यह क्यों न माना जाए कि खून ही कुंडलिनी ऊर्जा है। हालांकि निष्कर्ष यह निकलता है कि कुंडलिनी ऊर्जा तो नाड़ी ऊर्जा ही है, पर वह रक्तप्रवाह को नियंत्रित करके अपना प्रभाव दिखाती है। कुंडलिनी ऊर्जा को सहस्रार तक चढ़ाने वाला एक नुस्खा बताता हूँ। आप स्वयं अंतरिक्ष या कहीं सूर्य, चन्द्र आदि पर स्थित हो जाओ। फिर अपने शरीर के कई सिरों वाले नाग को वहां से ऐसे देखो जो कुंडलिनी लगा कर बैठा है, और जिसने अपना फन ऊपर उठाया हुआ है, तथा अपने सबसे लंबे और केंद्रीय फन में अपनी पूँछ पकड़ी हुई है। इससे कुंडलिनी गोल लूप में घूमते हुए सहस्रार में चमकने लगेगी। इस विधि का यह लाभ है कि शरीर को कुंडलिनी ऊपर चढ़ाने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सुदूर अंतरिक्ष से देखने पर हमारा शरीर एक छोटी सी गेंद की तरह है, कोई लम्बीचौड़ी आकृति नहीं है। इससे एक मनोवैज्ञानिक सहायता मिलती है। चंद्र से याद आया कि चंद्र को पितृलोक भी कहते हैं। एकदिन मैं रात को बाहर टहल रहा था। सिर के ऊपर और थोड़ा सा आगे बहुत खूबसूरत गोल चांद था। लग रहा था मानो वह मेरे साथ चल रहा हो। उसकी तरफ ध्यान से औऱ प्यार से देखते रहने पर मुझे उसके अंदर अपने मुस्कुराते पूर्वज नजर आए। साथ में, कुंडलिनी ऊर्जा भी मेरे अंदर गोल-गोल घूमने लगी। सम्भवतः पूर्वज की सूक्ष्म व धुंधली याद को मजबूत बनानेके लिए ही कुंडलिनी ऊर्जा अपना सहयोग देने आई हो। चंद्रमा भी उस कुंडलिनी लूप का हिस्सा बन गया था, जो सहस्रार की तरह ही गोल छल्ले या लूप के सर्वोच्च शिखर के रूप में लग रहा था। वैसे तो उस समय मैं अपने तन्त्रसाथी के साथ हाथ से हाथ पकड़कर चल रहा था। यिन-यांग के इकट्ठा जुड़ने से अद्वैत व कुंडलिनी प्रकट हो जाते हैं। सम्भवतः अपने यांग को बढ़ाने के लिए ही पुरुष अपना पुरुषत्व बढ़ाने की कोशिश करते हैं। वे स्कूलों-कॉलेजों में बहादुरी या दादागिरी या स्पोर्ट्समैनशिप दिखाने की कोशिश करते हैं। इसके पीछे उनकी यही छुपी हुई मंशा होती है कि यिन अर्थात लड़की उनकी तरफ आकर्षित हो जाए। यदि ऐसा होता है तो वे अद्वैत व कुंडलिनी का महान आनन्द प्राप्त करते हैं। यदि लड़का पहले ही यिन की तरह हो, और उसकी तरफ यिन आकर्षित भी हो जाए, तब भी उतना फायदा नहीं होता। इसलिए कहते हैं कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। बहादुरी दिखाते समय जान का जोखिम तो बना ही रहता है। यही कारण है कि बॉयज होस्टल व गर्ल्ज हॉस्टल एकदूसरे के प्रति बेइंतेहा आकर्षित हुए रहते हैं। दरअसल बॉयज हॉस्टल यांग का समुद्र होता है, और गर्ल्ज होस्टल यिन का। यान-यिंग गठजोड़ में बहुत शक्ति होती है। यह ईश्वरीय शक्ति होती है। इसीलिए तो मातापिता को ईश्वर का स्वरूप माना जाता है। इस गठजोड़ को अद्वैत, और आनन्द इसलिए प्रदान किया गया है, ताकि जीव अपनी संतान का अच्छे से पालन पोषण कर सके। अद्वैत से प्रेम व परोपकार की भावना पैदा होती है। इसीलिए मातापिता को अपनी संतान ही सबसे प्रिय लगती है। यदि यिन-यांग गठजोड़ में ये अद्वैत या कुंडलिनी शक्ति न हुआ करती, तो मांबाप अपनी संतान की उपेक्षा करते, जिससे सृष्टि का विस्तार असम्भव सा हो जाता। ईश्वर में यह अद्वैत भाव चरमावस्था में होता है, इसीलिए वह किसी भी जीव से वैरविरोध न करके सबको सुखपूर्वक जीने के भरपूर अवसर देता है। इसलिए सभी जीवों को ईश्वर की संतान कहा जाता है। वैसे तो यिन-यांग गठजोड़ को ईश्वर ने संतान के लिए बनाया है, पर आध्यात्मिक वैज्ञानिकों ने इसका प्रयोग कुंडलिनी जागरण के लिए किया। यही फिर तन्त्र बन गया। कमजोर राजा ताकतवर राजा से दोस्ती बढ़ाने के लिए उसे या उसके पुत्र को अपनी बेटी का हाथ दे दिया करता था। इससे स्वाभाविक है कि यिन-यांग गठजोड़ के कारण दोनों के बीच मैत्री बढ़ जाया करती थी। आज भी अक्सर इसका उपयोग लोग अपने सामाजिक उत्थान के लिए करते रहते हैं। इतिहास गवाह है कि औरत ने कैसे समय-समय पर अपना जलवा दिखाया है। महाभारत का युद्ध एक औरत के गुस्से से हुआ था। उसने अपने बालों को तब तक न बांधने का निर्णय लिया था, जब तक वह कौरवपुत्रों के खून से अपने बालों को न धो लेती। मतलब कि उसने अपनी यिन शक्ति को अलग रखा, और यांग के साथ उसका पूरा गठजोड़ नहीं होने दिया। इससे उसके पति वीर पांडव हमेशा युद्धपिपासु बने रहे। यदि वह अपने यिन को इस तरह अपने बालों तक सीमित करके न रखती, तो वह जरूर यांग के साथ मिश्रित हो जाती, जिससे उसके पतियों में शांतिपरक ईश्वरीय गुण आ जाते, जिससे सम्भवतः युद्ध टल जाता। वैसे तो इस कथा के बहुत से कारण और पक्ष हैं, पर मैं केवल एक पक्ष को सामने रखकर अपना मन्तव्य स्पष्ट कर रहा हूँ। वैसे इस देवी शक्ति का दुरुपयोग भी बहुत होता है। उदाहरण के लिए दुष्ट राष्ट्रों के द्वारा सेनानायकों को बहलाने-फुसलाने के लिए औरतों को भेजा जाता है। सुनने में आया है कि पाकिस्तान भी आजकल अपने दुश्मन राष्ट्रों के खिलाफ कुछ ऐसा ही कर रहा है। आज अगर पुतिन, बाइडेन, जिनपिंग और यूक्रेन राष्ट्र प्रमुख जेलेन्स्की के मन में ऐसा यिन-यांग गठजोड़ बन जाए, तो दुनिया विनाशकारी युद्ध से बच सकती है। मैं इसके बारे में गहनता से न जाता हुआ यही कौमन सेंस की बात कहता हूं कि यदि सामने हार या हानि दिख रही हो तो युद्ध से भागना भी एक युद्धनीति है, कायरता नहीं। और ये भी सभी जानते हैं कि युद्ध चाहे कैसा ही क्यों न हो, उसमें कुछ न कुछ हानि होना तो निश्चित ही है। मैंने इशारों में ही बहुत कुछ कह दिया है। समझदार के लिए तो इशारा ही काफी है। मैं पिछले कुछ दिनों कामकाज में काफी व्यस्त रहा। यदि यह पता होता कि मेरे लिखने से युद्ध रुक सकता है, तो सब काम छोड़कर लिखने ही बैठता। अब पोस्ट के मुख्य विषय पर आते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि एक औरत में बहुत शक्ति होती है। उसके आगे बड़ी-बड़ी सेनाएँ और बड़े-बड़े राष्ट्र घुटने टेक देते हैं। औरत एक देवी होती है। पर वह तब न, अगर औरत समझे। आज तो वह इस रहस्यमयी तंत्रविद्या को भूली हुई सी लगती है। सूर्य यांग है, उसको चढ़ाया जाने वाला अर्घ्य का जल यिन है। इसीलिए कहते हैं कि सूर्य की तरफ ऊँचाई से जल डालना चाहिए, ताकि सूर्य और जल एकसाथ नजर आए। सबसे बढ़िया तब माना जाता है अगर जल की धारा के बीच में से सूर्य दिखे। इससे यिन और यांग सबसे अच्छी तरह मिश्रित हो जाते हैं, जिससे कुंडलिनी-अद्वैत पैदा होता है। हाथी यिन है, औऱ आदमी यांग। दोनों के मिश्रण का नाम भगवान गणेश है। इसी तरह बन्दर यिन है, और आदमी यांग। दोनों का मिश्रण मंकीगोड हनुमान जी हैं। इसीलिए इन दोनों देवताओं की आराधना से अद्वैत व कुंडलिनी का अनुभव बड़ी तेजी से होता है। भगवान शिव के माथे पर त्रिपुंड व तीसरी आंख के चिन्ह होते हैं। त्रिपुंड चंदन आदि से बनाई तीन समानांतर रेखाएं हैं, और तीसरी आंख चन्दन से लगाया गया दीप ज्योति के आकार का तिलक है। त्रिपुंड का मतलब प्रकृति के तीन गुण हैं, सत्त्व, रज और तम। तीसरी आंख कुंडलिनी जागरण को दर्शाती है। इसका मतलब है कि दुनियादारी में तरक्की कर लेने के बाद ही कुण्डलिनी जागरण की अनुभूति होती है, दुनिया को छोड़कर नहीं। नहाने के बाद गीले शरीर को तौलिये से एकदम साफ न करके उसका पानी खुद निचुड़ने देने के लिए कहा जाता है। दरअसल इससे शरीर में ठंडक पैदा होती है, जिससे मांसपेशियों में सिकुड़न पैदा होती है। पीठ की मांसपेशियों से होते हुए यह सिकुड़न ऊपर चढ़ती है, और आगे के शरीर से नीचे उतरती है। इस सिकुड़न के साथ कुंडलिनी भी शरीर में बहुत अच्छे तरीके से घूमती है। इसी तरह मन्दिर आदि में या आध्यात्मिक पर्व पर भोग या भोजन आदि खाने को इसलिए दिया जाता है, क्योंकि मुंह के अंदर की ऊपर की और नीचे की सतहें आपस में मिल जाती हैं, जिससे कुंडलिनी स्विच के ऑन होने से कुंडलिनी परिपथ पूर्ण हो जाता है, जिससे कुंडलिनी घूमने लगती है। इन सब बातों का मतलब यह है कि हिंदु शास्त्रों व पुराणों की हरेक बात वैज्ञानिक व आध्यात्मिक रूप से एकदम खरी उतरती है, तथा कुंडलिनी पर आधारित है। कई लोग ऐसी बातों को अंधविश्वास कहते हैं। पर यह उनके देखने का नजरिया है, जिससे उन्हें ऐसा लगता है। वे उन्हें स्थूल आँखों से भौतिक रूप में देखना चाहते हैं, पर वे मन की आंखों से देखने पर ही सूक्ष्म रूप में नजर आती हैं। कुंडलिनी भी मन की आँखों से ही दिखती है, स्थूल आँखों से नहीं। इसीलिए कुंडलिनी के दिखाई देने को तीसरी आँख का खुलना भी कहा जाता है। यह तीसरी आँख मन की आँख ही है। इसका मतलब है कि सारे धर्म विशेषकर हिंदु धर्म पूरी तरह से कुंडलिनी पर ही आश्रित है, क्योंकि इसमें बताई गई अधिकांश चीजें मन की आँखों से ही दिखती हैं, भौतिक आँखों से नहीं। पुराणों की रूपक कथाएं भी तब तक समझ नहीं आतीं, जबतक उनके बारे में गहन सोचविचार न किया जाए। इससे मन की आंखें खुलती हैं। और जहाँ मन की आँख है, वहाँ तो कुंडलिनी होगी ही। मुझे तो यहाँ तक लगता है कि पुराणों में लिखे गए भौतिक पूजापाठ औऱ कर्मकांड के विधान भी किन्हीं मानसिक या शारीरिक प्रणालियों को रूपक के रूप में अभिव्यक्त करते हैं, वास्तविक भौतिक व स्थूल क्रियाओं को नहीं। पर लोगों ने उन्हें भौतिक रूपों में समझा, और उनका भौतिक प्रचलन शुरु हुआ। निम्न श्रेणी के लोगों को इससे फायदा भी हुआ, क्योंकि वे उनके सहारे ऊंचे कुंडलिनी योग तक आसानी से पहुंच गए। पर उच्च वर्ग के बुद्धिजीवियों को इससे नुकसान भी हुआ होगा, क्योंकि वे पूरी उम्र इन्हीं में उलझे रहे होंगे, और कुंडलिनी योग का असली प्रयास नहीं कर पाए होंगे, जिसके वे असली हकदार थे। इसका मतलब है कि रूपकों का यथार्थ विश्लेषण भी जरूरी है आजकल। आजकल अधिकांश लोग बुद्धिजीवी और सम्पन्न हैं। उनके पास पर्याप्त समय औऱ संसाधन हैं कि वे आराम से मनोलोक की सैर कर सकें। फिर यह लोगों की योग्यता और पसंद पर निर्भर है कि क्या वे पौराणिक बातों को भौतिक रूप में अपनाएं, या सूक्ष्म आध्यात्मिक रूप में। उदाहरण के लिए यज्ञ का मतलब चक्र पर साँसों की सहायता से कुंडलिनी ध्यान है। यज्ञ की वायु साँसों का प्रतीक है, यज्ञकुंड चक्र का, और उसमें धधक रही अग्नि कुंडलिनी का। लोगों ने उसे भौतिक समझकर भौतिक यज्ञ-हवन का प्रचलन शुरु कर दिया। हजारों किलोग्राम देसी घी, तिल आदि यज्ञ की बलि चढ़ने लगा। यहाँ किसी प्रथा की आलोचना नहीं हो रही है, अपितु तथ्यात्मक वर्णन हो रहा है। यज्ञ की कीमती सामग्रियां बहुत अल्प मात्रा में मात्र धार्मिक औपचारिकता को पूरा करने के लिए डाली जा सकती हैं। आज जनसंख्या विस्फोट के कारण ही ऐसी बात होती है, पहले ऐसा नहीं होता था। उस समय ऐसी कोई खाद्य पदार्थों की समस्या नहीं थी, क्योंकि जनसंख्या कम थी, और अर्थव्यवस्था कृषिप्रधान होती थी। वैसे यज्ञ से लाभ बहुत मिलता है। मैं जब यज्ञ करता हूँ, तो मुझे अपनी कुंडलिनी बहुत तेज चमकती हुई महसूस होती है, यज्ञकुंड की अग्नि के रूप में। सम्भवतः वही कुंडलिनी यज्ञ देवता है, या भगवान विष्णु है, या अग्निदेवता है, जो यज्ञ का फल प्रदान करता है। भगवान विष्णु लोकपालक है, कुंडलिनी भी लोकपालक है। दोनों ही अद्वैत भाव की सहायता से सभी लोकों का पालन करते हैं। जैसा कि मैंने ऊपर समझाया है। इसलिए शास्त्रों में भगवान विष्णु अर्थात कुंडलिनी को यज्ञ का भोक्ता अर्थात कुंडलिनी योग का लाभार्थी कहा जाता है। यज्ञ से माइक्रोकोस्मिक ऑर्बिट में भी वह शानदार ढंग से घूमती है। कईयों के मन में प्रश्न उठता होगा कि अद्वैत भाव के दौरान कुंडलिनी मन में क्यों प्रकट होने लगती है। हो सकता है कि मैंने इसको पहले भी स्पष्ट किया होगा, क्योंकि मैं इतना ज्यादा लिखता हूँ कि मुझे भी कई बार याद नहीं रहता कि क्या लिख दिया है, और क्या नहीं। दरअसल असली अद्वैत भाव के दौरान मस्तिष्क के सहस्रार में बहुत ऊर्जा होती है, पर सबकुछ एकजैसा लगने के कारण उससे मन में कोई विशेष चित्र या विचार नहीं बनता। इसलिए उपलब्ध ऊर्जा का लाभ उठाने के लिए सबसे प्रिय या सबसे अभ्यस्त चित्र अर्थात कुंडलिनी चित्र अनायास ही मन में प्रकट होने लगता है। वस्तुओं को भेदभाव से अनुभव करने वाला आज्ञा चक्र है। इसीलिए कहते हैं कि जब जागरण की झलक या तीव्र अद्वैतभावना खत्म हो जाती है, तो कुंडलिनी ऊर्जा सहस्रार से आज्ञा चक्र को उतर जाती है। यिन-यांग की एकजुटता के समय मूलाधार चक्र क्रियाशील हो जाता है, क्योंकि उससे यौन क्रीड़ा का स्मरण हो आता है। मूलाधार और सहस्रार चक्र आपस में सीधे जुड़े होते हैं, इसलिए मूलाधार में ऊर्जा बढ़ने से सहस्रार में खुद ही ऊर्जा बढ़ने लगती है। जैसे सहस्रार में ऊर्जा जाने से कुंडलिनी का ध्यान खुद होने लगता है, उसी तरह कुंडलिनी चित्र के ध्यान से सहस्रार में खुद ही ऊर्जा बढ़ने लगती है, क्योंकि हरेक अनुभूति सहस्रार में ही होती है, पर आदमी के मानसिक ऊर्जा स्तर के अनुसार विभिन्न चक्रों पर प्रेषित कर दी जाती है। यही कुंडलिनी योग का सिद्धांत भी है। क्योंकि कुंडलिनी मस्तिष्क की ऊर्जा को खाने लगती है, इसलिए मस्तिष्क की ऊर्जा को पूरा करने के लिए खुद ही मूलाधार से ऊर्जा ऊपर चढ़ने लगती है। वह ऊर्जा सहस्रार को ही जाती है, आज्ञा चक्र को नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि एकमात्र या एकाकी कुंडलिनी का ध्यान अद्वैत का प्रतीक है। अद्वैत का शाब्दिक अर्थ भी एक ही होता है। मन्दिर आदि में कुंडलिनी सहस्रार में रहती है, क्योंकि वहाँ अद्वैतमयी वातावरण होता है। पर यदि मन में दुनियादारी के रंगबिरंगे चित्रों की भरमार हो, तब भी मस्तिष्क को ऊर्जा देने वाला तो मूलाधार ही है, पर तब वह ऊर्जा सहस्रार को न जाकर आज्ञा चक्र को जाती है। मूलाधार और आज्ञा चक्र भी आपस में सीधे जुड़े हुए होते हैं। अद्वैतभाव के ध्यान से ऊर्जा सीधा सहस्रार अर्थात कुंडलिनी को जाती है, पर द्वैतभाव के ध्यान से आज्ञा चक्र को जाती है। इसीलिए तीखा व चालाकी से सोचने वाले लोग आंखों को भींचते जैसे रहते हैं, क्योंकि आज्ञाचक्र आँखों के बीच में बताया जाता है। अब यदि नशे या हिंसक आचरण से या अनुचित मांसाहार से या थकान आदि से मस्तिष्क में ऊर्जा की कमी हो, तब भी अद्वैत जैसा महसूस होता है, क्योंकि मन में कोई विचार नहीं बन रहे होते हैं। अवसाद या अंधेरा जैसा महसूस होता है। इसमें कुंडलिनी को देने के लिए ऊर्जा नहीं होती, इसलिए प्रयास करने पर कुंडलिनी चित्र मन में तो आ सकता है, पर बहुत कम चमक या ऊर्जा के साथ। इसलिए वह नीचे के कम ऊर्जा वाले चक्रों को चला जाता है। इसे ही हम कहते हैं कि बुरे काम से आदमी का पतन हो गया। हालाँकि योगसाधना के अभ्यास से वह जल्दी ही ऊपर उठने लगती है, और कुछ दिनों में सहस्रार में पहुंच जाती है। इस बार वह वहाँ पहले से भी ज्यादा चमकती है। यह ऐसे ही है जैसे कोई कूदने का बारबार अभ्यास करके बहुत ऊंचा कूदने लगता है। इसको कहते हैं कि फलां आदमी फिर ऊपर उठ गया है। दुनियादारी में यह उठने-गिरने का खेल लगातार चलता रहता है। सम्भवतः पँचमकारों वाले तांत्रिक योग का मूल सिद्धांत भी कुंडलिनी की यही उछलकूद है। बीच-बीच में भिन्न-भिन्न लोगों में कुंडलिनी का यह अस्थायी चढ़ना-उतरना चलता रहता है। पर एक अधिक स्थायी तौर का समष्टि कुंडलिनी-गमन भी होता है। इसमें एक समाज के सभी लोगों की कुंडलिनी एकसाथ चलकर किसी चक्र पर स्थित हो जाती है, और फिर वहां लम्बे समय तक बनी रहती है। उदाहरण के लिए, भौतिक व सामाजिक सुख सुविधाओं के विकास के दौरान लोगों की सामूहिक कुंडलिनी आज्ञाचक्र पर होती है। विकास का चरम छू लेने के बाद भी कुछ समय वहाँ बनी रहती है, और फिर सहस्रार को जाने लगती है। इस दौर में बहुत से लोगों को जागृति मिलने लगती है, और लोगों की रुचि भौतिक विज्ञान से हटकर आध्यात्मिक विज्ञान की तरफ स्थानांतरित होने लगती है। लोग देवता, प्रकृति और ईश्वर के प्रति वफादार होने लगते हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाली अति भौतिकता नष्ट होने लगती है। लोगों को यह आधुनिक व्यवस्था का पतन लगता है। अक्सर कहा भी जाता है कि विकास का दौर पूरा होने के बाद पतन का दौर शुरु होता है। पर यह पतन नहीं बल्कि व्यवस्था का आध्यात्मिक रूपांतरण हो रहा होता है। इसको ठीक से न समझने से ही इसके प्रति असहनशीलता से युद्ध, लूटपाट आदि घटनाएँ हो सकती हैं, यह अलग बात है। पर यदि इस रूपांतरण को ढंग से संभाला जाए, तो असली आध्यात्मिक विकास का युग यहीं से प्रारंभ होता है। इसीको युग परिवर्तन कहते हैं, जैसे कि कलियुग के बाद सतयुग का आना। मुझे लगता है कि विश्व आज इसी सामूहिक रूपांतरण के दौर से गुजर रहा है। यदि अकेले आदमी के रूपांतरण को ढंग से न संभाला जाए, तो वह अवसाद में जाकर कुछ भी गलत कदम उठा सकता है। इसी तरह, यदि पूरे विश्व या उसके अंतर्गत किसी देश या समाज के रूपांतरण को ढंग से न संभाला जाए, वह भी सामूहिक अवसाद में जाकर युद्धादि के रूप में कुछ भी गलत कदम उठा सकता है। वैसे आजकल देश आदि छोटे समाज के भी बहुत ज्यादा मायने हैं, क्योंकि दुनिया के सभी देश एकदूसरे पर निर्भर होने से एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। एक देश की हलचल पूरे विश्व में उथलपुथल मचा सकती है। विश्व आज उच्चतर आत्मजागृति की ओर रूपांतरित हो रहा है। यह रूपांतरण अच्छी तरह से निर्देशित और सुखद रप्तार से होना चाहिए, एकदम या झटके से नहीं। इसलिए इस रूपांतरण के जोखिम भरे दौर में अधिक से अधिक आध्यात्मिक लेखकों की जरूरत है, जो पूरी दुनिया को वैज्ञानिक ढंग से अध्यात्म समझाए, क्योंकि आज के लोगों की सोच वैज्ञानिक है, और उन्हें वैज्ञानिक ढंग से ही कुछ समझाया जा सकता है।

कुंडलिनी के प्रति अरुचि को भी एक मानसिक रोग माना जा सकता है

दोस्तों, मैं पिछले ब्लॉग लेख में कुछ व्यावहारिक जानकारियां साझा कर रहा था। हालाँकि सभी जानकारियां व्यक्तिगत होती हैं। किसीके कुछ जानकारियां काम आती हैं, किसीके दूसरी। पता तो हर किस्म की मानवीय जानकारी का होना चाहिए, क्या पता किस समय कौनसी जानकारी काम आ जाए। व्यक्ति का व्यक्तित्व बदलता रहता है। कभी मैं तन्त्र पर जरा भी यकीन नहीं कर पाता था। हालाँकि उसकी मोटे तौर की जानकारी मुझे थी। वो जानकारी मेरे काम तब आई जब मेरा व्यक्तित्व व कर्म बदला, जिससे मुझे तन्त्र पर विश्वास होने लगा। खैर, तन्त्र का दुरुपयोग भी बहुत हुआ है। जिस तन्त्र की शक्ति से कुंडलिनी जागरण मिल सकता था, उसे भौतिक दुनियादारी को बढ़ावा देने के लिए प्रयोग में लाया गया। परिणाम सबके सामने है। आज का अंध भौतिकवाद और जेहादी किस्म की कट्टर धार्मिकता उसी का परिणाम है। किसी धर्म विशेष के बारे में कहने भर से ही मौत का फतवा जारी हो जाए, और कोई भी आदमी या संस्था डर के मारे कुछ न कह पाए, ये आज के विज्ञान के युग में कितना बड़ा विरोधाभास है। नाम को तो हिंदुस्तान है, पर हिंदुओं की सफाई का अभियान जोरों पर है। एक सुनियोजित अंतरराष्ट्रीय साजिश चल रही है। इसी हिन्दुविरोधी श्रृंखला में अब हिंदूवादी व राष्ट्रवादी सुदर्शन चैनल के प्रमुख सुरेश चव्हाणके जी की हत्या की जेहादी साजिश का खुलासा हुआ है। जबरन धर्मांतरण का सिलसिला जारी है। फिर उन्हें राईस बैग कन्वर्ट भी कहा जाता है। धर्म इसलिए बनाए गए थे ताकि मानवता को बढ़ावा मिले। ऐसा भी क्या धर्म, जो मानवता से न चले। मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है। जो अन्य धर्म और देश इसपर चुप्पी जैसी साध कर इसका अपरोक्ष समर्थन किए हुए हैं, उन्हें यह नहीं पता कि कल को उनका नम्बर भी लग सकता है। डबल स्टैंडर्ड की भी कोई सीमा नहीं आजकल। यदि बैप्टिसम वैज्ञानिक है, तो गंगास्नान भी वैज्ञानिक है। यदि गंगास्नान अंधविश्वास है, तो बैप्टिसम भी अंधविश्वास है। दोगलापन क्यों। जो ट्रूडो सिंघु बॉर्डर पर चले किसान आंदोलन को लोकतांत्रिक बताते हुए उसका समर्थन कर रहे थे, वे आज ट्रक ड्राइवर्स के आंदोलन को अलोकतांत्रिक बता रहे हैं। गहराई से जांचे-परखे बिना कोई भी सतही बयानबाजी नहीं करनी चाहिए। तन्त्र एक शक्ति है। तन्त्र का दुरुपयोग, मतलब शक्ति का दुरुपयोग। प्रकृति को भी इसने विनाश की ओर धकेल दिया है। देवी काली के लिए जो पशु बलि दी जाती थी, वह कुंडलिनी के लिए ही थी। काली कुंडलिनी को ही कहा गया है। पर कितने लोगों ने इसे समझा और इसका सही लाभ उठाया। हालांकि कुछ अप्रत्यक्ष लाभ तो मिलता ही है, पर उसे फलीभूत होने में बहुत वक्त लग जाता है। पर उस शक्ति से कुंडलिनी जागरण के लिए कितने लोगों ने प्रयास किया होगा, और कितना प्रयास किया होगा। शायद बहुत कम या लाखों में से कुछ सौ लोगों ने। उनमें से सही प्रयास भी कितनों ने किया होगा। शायद दस–बीस लोगों ने। उनमें से कितने लोगों को कुंडलिनी जागरण मिला होगा। शायद एक-दो लोगों को। तो फिर काली आदि कुंडलिनी प्रतीकों को समझने और समझाने में कहाँ गलती हुई। इसी का अनुसंधान कराने के लिए ही शायद काल ने वह प्रथा आज लुप्तता की ओर धकेल दी है। वैसे आजकल की अंधी पशु हिंसा से वह प्रथा कहीं ज्यादा अच्छी थी। वैदिक युग में कभी-कभार होने वाली यज्ञबलि से लोग अपने शरीर की अधिकांश जरूरत पूरी कर लिया करते थे। वैसे पशुहिंसा पर चर्चा मानवीय नहीं लगती, पर जिस विषय पर हम बोलेंगे नहीं, उसे दुरस्त कैसे करेंगे। कीचड़ को साफ करने के लिए कीचड़ में उतरना पड़ता है। पशु भी जीव है, उसे भी दुख-दर्द होता है। हिंदु धर्म के अनुसार गाय के शरीर में सभी देवताओं का निवास है। शरीरविज्ञान दर्शन भी तो यही कहता है कि सभी जीवों के शरीर में संपूर्ण ब्रह्मांड स्थित है। इसलिए उसके अधिकारों का भी ख्याल रखा जाना चाहिए। आजकल बहुत सी पशु अधिकारों से जुड़ी संस्थाएँ हैं, पर मुझे तो ज्यादातर निष्पक्ष और निःस्वार्थ नहीं लगतीं। वे जहाँ एक विशेष धर्म में हो रही बड़े तबके की और अमानवीय धार्मिक हिंसा पर मौन रहती हैं, वहीं पर किसी अन्य विशेष धर्म की छोटी सी धार्मिक व मानवतावादी हिंसा पर भी हायतौबा मचा देती हैं। आज तो पशुहिंसा पे कोई लगाम ही नहीं है। मानवाधिकार आयोग की तरह पशु अधिकार आयोग भी होना चाहिए। पर आज मानवाधिकार आयोग भी निष्पक्ष और ठीक ढंग से कार्यशील कहाँ है। अगर मानवाधिकार आयोग की चलती, तो आज धर्म के नाम पर हत्याएँ न हो रही होतीं। आज तो पशुहिंसा के साथ आध्यात्मिक व मानवतावादी प्रतीक भी नहीं जुड़ा है। कोई नियम कायदे नहीं हैं। पशु क्रूरता आज चरम के करीब लगती है, और आध्यात्मिक विकास निम्नतम स्तर पर। आज बहुत से लोग पशुजन्य उत्पादों का बिल्कुल प्रयोग नहीं करते। फिर इतनी ज्यादा पशुहत्या कैसे हो रही है। मतलब साफ है। जो पशुजन्य उत्पाद का उपभोग करते हैं, वे अपनी जरूरत से कहीं ज्यादा उपभोग कर रहे हैं। इससे वे स्वस्थ कम और बीमार ज्यादा हो रहे हैं। आजकल पूरी दुनिया में बढ़ रहा मोटापे का रोग इसका अच्छा उदाहरण है। जो इनका उपयोग नहीं करते, उनकी कमी भी वे पूरी कर दे रहे हैं। तो फिर कुछ लोगों के द्वारा इनको छोड़ने से क्या लाभ। जो ज्यादा उपभोग कर रहे हैं, वे भी बीमार हो रहे हैं, और जो बिल्कुल भी उपभोग नहीं कर रहे हैं, वे भी बीमार हो रहे हैं। ज्यादा उपयोग करने वाले यदि व्यायाम या दवाईयों आदि की सहायता से अपने शरीर को बीमार होने से बचा रहे हैं, फिर भी उनका मन तो बीमार हो ही रहा है। जरूरत से ज्यादा तमोगुण और रजोगुण से मन तो बीमार होगा ही। क्या है कि पाश्चात्य संस्कृति में अधिकांशतः शरीर की बीमारी को ही बीमारी माना जाता है। मन की बीमारी को भी अधिकांशतः अवसाद तक ही सीमित रखा जाता है। वास्तव में अध्यात्म में मन न लगना भी एक मन की बीमारी है। जीवविकास कुंडलिनी के लिए हो रहा है। यदि कोई कुंडलिनी से परहेज कर रहा है, तो वह जीवविकास से विपरीत दिशा में जा रहा है। ऐसी मानसिकता यदि मन की बीमारी नहीं है, तो फिर क्या है। असंतुलित जीवन से ऐसा ही हो रहा है आजकल। संतुलन कहीं नहीं है। इससे अच्छा तो तब होता यदि सभी लोग अपनी भौतिक और आध्यात्मिक जरूरत के हिसाब से इनका उपभोग करते, जैसा अधिकांशतः पुराने समय में होता था। इससे पशुओं पर होने वाला अत्याचार काफी कम होता। और साथ में जो पशु व्यवसाय से जुड़े गरीब लोग हैं, उनके सामने भी रोजी-रोटी का सवाल खड़ा नहीं होता। मेरा एक दोस्त था, जो पशु व्यवसाय से जुड़ा सम्पन्न व्यक्ति था। वह कहता था कि पशुहिंसा से जुड़ा कारोबार वही करता है, जो बहुत गरीब हो, और जिसके पास कमाई का और कोई चारा न हो। पशु मांस का उपभोग भी गरीब और मजदूर तबके के लोग करते हैं, क्योंकि उन्हें सस्ते में इसमें सभी पोषक तत्व आसानी से मिल जाते हैं। उनके पास इतना पैसा नहीं होता है कि वे उच्च पोषकता वाले महंगे शाकाहारी उत्पादों को खरीद सकें। आम मध्यमवर्गीय आदमी ऐसे पाप वाला काम नहीं करना चाहता। उच्चवर्गीय आदमी अगर अपने शौक की पूर्ति के लिए करे, तो वह अलग बात है। पर आज तो लालच इस हद तक बढ़ गया है कि आदमी करोड़पति बनने के लिए पशुहिंसा से जुड़े कारोबार करना चाहता है। पशु कल्याण के नाम पर आदमी को तो भूखों मरने नहीं छोड़ा जा सकता न। मतलब साफ है कि कोई अभियान तभी सफल होता है यदि पूरा समाज उसमें सहयोग करे। मात्र कुछ लोगों से समाज की व्यवस्था में एकदम से पूर्ण परिवर्तन नहीँ आता। हालांकि आ भी जाता है, पर उसमें समय काफी लग सकता है। यदि सभी लोग एकसाथ परिवर्तित हो जाएं, तो समाज भी एकदम से परिवर्तित हो जाएगा। लोगों का समूह ही समाज है। मैं किसी भी जीवनपद्धति के पक्ष या विपक्ष में नहीं बोल रहा। कोई भी व्यक्ति अपनी स्थिति-परिस्थिति के अनुसार अपनी जीवनचर्या चुनने के लिए स्वतंत्र है। किसी को कुछ सूट कर सकता है, तो किसी को कुछ। मैं तो सिर्फ अध्यात्मिक व वैज्ञानिक रूप से वस्तुस्थिति को बयां करके उसे चर्चा में लाने की कोशिश कर रहा हूँ। हम नाजायज जीवहिंसा की कतई वकालत नहीं करते, इसलिए कुछ नियम कायदे तो होने ही चाहिए। यदि कोई कहे कि ये सब तो भौतिकवाद से सम्बंधित बातें हैं, इनसे अध्यात्म कैसे मिलेगा। दरअसल असली अध्यात्म कुंडलिनी जागरण के बाद शुरु होता है। और कुंडलिनी जागरण मानवीय भौतिकवाद के चरम को छूने के बाद मिलता है। असली अद्वैत मानवीय द्वैत के चरम से शुरु होता है। असली अध्यात्म मानवीय विज्ञान के चरम से शुरु होता है। कई लोग अध्यात्म के वैज्ञानिक विश्लेषण का विरोध यह मानकर करते हैं कि कुण्डलिनी की प्राप्ति तर्कशील या लॉजिकल दिमाग से नहीं होती। वे अध्यात्म से बेखबर से बने रहते हैं। वे अध्यात्म के लिए कोई प्रयास नहीं करते। वे एक अनासक्त की तरह दिखावा करते हुए हरेक काम के बारे में लापरवाह व अहंकारपूर्ण व्यवहार से भरे हुए बने रहते हैं, और पूर्णता का ढोंग सा करते रहते हैं। ऐसे लोग आसक्त और अज्ञानी से भी निचले पायदान पर स्थित होते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि असली आसक्त या अज्ञानी आदमी तो कभी न कभी अनासक्ति व ज्ञान व जागृति के लिए प्रयास जरूर करेगा, पर अनासक्ति या ज्ञान का ढोंग करने वाला आदमी उसके लिए कभी प्रयास नहीं करेगा, क्योंकि वह इस धोखे में रहेगा कि वह पहले से ही अनासक्त और ज्ञानी है। असली अनासक्ति में तो आदमी को अनासक्ति के बारे में पता ही नहीं चलता, न ही वह अनासक्ति के नाम पर दुनियादारी से दूर भागता है। कई लोग इसलिए बेपरवाह बने रहते हैं, क्योंकि उन्हें कई लोग बिना प्रयास के ही या उनके बचपन में ही आध्यात्मिक या जागृत दिखते हैं। पर वे इस बात को नहीं समझते कि उनके पिछले जन्म का प्रयास उनके इस जन्म में काम कर रहा है। बिना प्रयास के कुछ नहीं मिलता, सांस भी नहीं। सच्चाई यह है कि दिमाग की वास्तविक तर्कहीन या इलॉजिकल अवस्था वैज्ञानिक तर्कों और अन्वेषणों का चरम छू लेने के बाद ही होती है। जब आदमी अध्यात्म का वैज्ञानिक कसौटी पर पूरा अन्वेषण कर लेता है, तब वह थकहार कर चुप होकर बैठ जाता है। वहीँ से ईश्वर-शरणागति और विश्वास पर आधारित असली तर्कहीनता शुरु होती है। उससे पहले की या अन्वेषण का प्रयास किए बिना ही जबरदस्ती पैदा की गई तर्कहीनता एक ढोंग ही होती है। यह अलग बात है कि लोग औरों की नकल करके आध्यात्मिक बनने का दिखावा करते हैं। वह भी ठीक है। समथिंग इज बैटर देन नथिंग। पर इसमें अटूट विश्वास की आवश्यकता होती है। नहीं तो क्या पता यह परलोक में काम आएगा भी या नहीं। मेरे द्वारा यहाँ पर किसीको निरुत्साहित नहीं किया जा रहा है। केवल संभावना को खुल कर व्यक्त किया जा रहा है। किसको पता कि परलोक में क्या होता है, पर अपनी सीमित बुद्धि से अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है। आप्तवचन पर भी आज के वैज्ञानिक युग में सोचसमझ कर ही यकीन किया जा सकता है, आंख बंद करके नहीं। मैं यह दावा नहीं कर रहा कि मुझे कुण्डलिनी जागरण हुआ है। मुझे गुरुकृपा और शिवकृपा से कुंडलिनी जागरण की झलक दिखी है। क्योंकि हर जगह तो क्षणिक, झलक, कुंडलिनी जैसे सहयोजित शब्द नहीं लिखे जा सकते, विस्तार के भय से, इसलिए जल्दी में जागरण या कुण्डलिनी जागरण ही लिखना पड़ता है। यदि कोई मेरी हरेक ब्लॉग पोस्ट ध्यान से पढ़ेगा, तो उसे ही पता चलेगा कि वह जागरण कैसा है। चीज की क्षणिक झलक देखने का यह मतलब नहीं कि उसने उस चीज को ढंग से देख लिया हो। हाँ, कुंडलिनी जागरण की क्षणिक झलक देखकर मुझे यह यकीन हो गया है कि कुंडलिनी जागरण का अस्तित्व है, और वह आध्यात्मिकता के लिए जरूरी है। और यह भी कि वह कैसे प्राप्त हो सकता है। वैसे ही, जैसे किसी चीज की झलक देख लेने के बाद उस चीज के अस्तित्व के बारे में विश्वास हो जाता है, और उसे पाने का तरीका पता चल जाता है। वस्तुतः तो मैं आम आध्यात्मिक व्यक्ति के जैसा ही एक साधारण कुंडलिनी जिज्ञासु हूँ। आध्यात्मिक चर्चा करना मेरा जन्मजात शौक है। जब विद्वान लोग उपलब्ध होते थे, तब आमनेसामने चर्चा कर लेता था। अब ब्लॉग पर लिखता हूँ। ब्लॉग मुझे सबसे अच्छा तरीका लगा। इसमें कोई बेवजह ट्रोलिंग नहीं कर सकता। किसी का कमेंट यदि अच्छा लगे तो अप्रूव कर दो, वरना डिनाय या डिलीट कर दो। आमनेसामने की चर्चा में धोखा लगता है। कई लोग बाहर से आध्यात्मिक जैसा बनने का ढोंग करते हैं। उन पर विश्वास करके यदि उनसे चर्चा करो, तो वे उस समय बगुला भगत की तरह हाँ में हाँ मिलाते हैं, और बाद में धुआँ देने को तैयार हो जाते हैं, क्योंकि वे दूसरे आदमी की आध्यात्मिकता को उसकी कमजोरी समझकर उसका नाजायज फायदा उठाते हैं। यहां तक कि कई लोग तो आध्यात्मिक चर्चा सुनते समय ही सुनाने वाले का मजाक उड़ाने लग जाते हैं। दोस्त भी अजनबी या दुश्मन जैसे बनने लगते हैं। इसलिए जो अच्छे विचार मन में आते हों, उनको किसीको सुनाने से अच्छा लिखते रहो। कम से कम लोग पागल तो नहीं बोलेंगे। अगर लिखने की बजाय उनको अपने में ही बड़बड़ाने लगोगे, तब तो लोग पक्का पागल कहेंगे। दो-चार लोगों के इलावा मेरे अपने दायरे से कोई भी मेरे ब्लॉग के फॉलोवर नहीं हैं। उनमें भी अधिकतर वे हैं, जिन्होंने कभी मेरी एक-आध पोस्ट को या किताब को पसंद किया, और फिर मैंने उनसे अपना ब्लॉग फॉलो करने के लिए कहा। कइयों को तो फॉलो करने के लिए स्टेप बाय स्टेप निर्देशित किया। वैसे उनमें से कोई मेरे ब्लॉग को छोड़कर भी नहीं गया। मतलब साफ है, उन्हें इससे लाभ मिल रहा है। वैसे मैं अपने लाभ के लिए ब्लॉग लिखता हूँ, पर यदि किसी और को भी लाभ मिले, तो मुझे दोगुनी खुशी मिलती है। मेरे अधिकाँश मित्रों व परिचितों को मेरे ब्लॉग के बारे में पता है, पर किसीने उसके बारे में जानने की कोशिश नहीं की, फॉलो करना तो दूर की बात है। मेरे अधिकांश फॉलोवर दूरपार के और विदेशों के हैं। उनमें भी ज्यादातर विकसित देशों के हैं। इससे भी इस धारणा की पुष्टि हो जाती है कि वैज्ञानिक या बौद्धिक या सामाजिक विकास के चरम को छू लेने के बाद ही असली अध्यात्म शुरु होता है। एक कहावत भी है कि घर का जोगी जोगड़ा और दूर का जोगी सिद्ध। वैसे भी मुझे सिद्ध कहलाए जाने का जरा भी शौक नहीं है। मंजिल पर पहुंच गया, तो सफर का मजा खत्म। असली मजा तो तब है अगर मंजिल मिलने के बाद भी सफर चलता रहे। इससे सफर और मंजिल का मजा एकसाथ मिलता रहता है। सच्चाई यह है कि पूर्ण सिद्धि कभी नहीं मिलती। आदमी चलता ही रहता है, चलता ही रहता है, कभी रुकता नहीं। बीच-बीच में जागरण रूपी चैन की सांस लेता रहता है। वैसे अभी विकासशील देशों में वेबसाइट और ब्लॉग का प्रचलन कम है। जागृति वाली वैबसाइट बनाने और पढ़ने के लिए तो वैसे भी अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। जहाँ रोजमर्रा की आम जरूरतों को पूरा करने के लिए ऊर्जा कम पड़ती हो, वहाँ जागृति के लिए अतिरिक्त ऊर्जा कहाँ से लाएंगे। यहाँ ज्यादातर लोगों को व्हाट्सएप और फेसबुक से ही फुर्सत नहीं है। जो ज्ञान एक विषय समर्पित ब्लॉग व वैबसाइट से मिलता है, वह फेसबुक, क्वोरा जैसे माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफार्म से मिल ही नहीं सकता। शुरुवाती लेखक के लिए तो क्वोरा ठीक है, पर बाद में वैबसाइट-ब्लॉग के बिना मन नहीं भरता। मुझे नेट पर अधिकांश वेबसाइट व ब्लॉग भी पसंद नहीं आते। जरूरत के हिसाब से उनसे जानकारी तो ले लेता हूँ, पर उन्हें फॉलो करने का मन नहीं करता। एक तो वे एक अकेले विषय के प्रति समर्पित नहीं होते। दूसरा, विस्तृत वैज्ञानिक चर्चा के साथ भी नहीं होते। तीसरा, या तो उनमें पोस्टों की बाढ़ सी होती है, या फिर लम्बे समय तक कोई पोस्ट ही नहीं छपती। चौथा, उन पोस्टों में भाषा व व्याकरण की अशुद्धियाँ होती है। उनमें व्यावहारिक दृष्टिकोण भी नहीं होता, और वे किसी दूसरे ग्रह की रहस्यात्मक कहानियाँ ज्यादा लगती हैं। उनमें मनोरंजकता और सकारात्मक या सार्थक संपर्कता कम होती है। समय की कमी भी एक वजह होती है। उनमें सभी विषयों की खिचड़ी सी पकाई होती है। इससे कुछ भी समझ नहीं आता। कहा भी है कि एके साधे सब सधे, सब साधे सब जाए। अगर कोई ज्योतिष का सिर-पैर एक करने वाला पूर्ण समर्पित ब्लॉग, डिमिस्टिफाइंगज्योतिषडॉटकॉम आदि नाम से हो, तो मैं उसे क्यों फॉलो नहीं करूंगा। दूसरा, उनमें विज्ञापनों के झुंड चैन नहीं लेने देते। इसीलिए मैंने अपने ब्लॉग में विज्ञापन नहीं रखे हैं। पैसा ही सबकुछ नहीं है। जो कोई किसी प्रोडक्ट के बारे में विज्ञापन देता है, उसे खुद उसके बारे में पता नहीं होता, क्योंकि उसको उसने प्रयोग करके कहाँ परखा होता है, या कौन सा सर्वे किया होता है। फिर जनता को क्यों ठगा जाए। पर्सनल ब्लॉग के नाम भी प्रोफेशनल व विषयात्मक लगने चाहिए, ताकि लोग उनकी तरफ आकर्षित हो सकें। सक्सेनाडॉटकॉम या जॉनडॉटकॉम नाम से अच्छा तो म्यूसिकसक्सेनाडॉटकॉम या राइटिंगजॉनडॉटकॉम है। इससे पता चलेगा कि इन ब्लॉग्स का विषय संगीत या लेखन है। विषयात्मक लेखों के बीच में अन्य विषय, व्यक्तिगत लेख और व्यक्तिगत घटनाक्रम भी लिखे जा सकते हैं। ऐसी वैबसाइट टू इन वन टाइप कही जा सकती हैं। ये प्रोफेशनल भी होती हैं, और पर्सनल भी। ये ज्यादा प्रभावशाली लगती है। अपनी पर्सनल वैबसाइट के लिए 200-250 रुपए का प्रति महीने का खर्चा लोगों को ज्यादा लगता है। पर वे जो 200 रुपए की अतिरिक्त मोबाइल सिम प्रति माह रिचार्ज करते हैं, उसका खर्चा उन्हें ज्यादा नहीं लगता। वैबसाइट से तो दुनिया भर की जानकारी मिलती है, पर अतिरिक्त सिम से तो कुछ नहीं मिलता, सिर्फ जिम्मेदारी का बोझ ही बढ़ता है। नकारात्मक जैसी किस्म के लोगों की भी आजकल कोई कमी नहीं। मैं क्वोरा पर कुण्डलिनी से संबंधित प्रश्न का एक उत्तर पढ़ रहा था, तो उसमें यह कहकर कुंडलिनी पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया गया था कि पुराने धर्मशास्त्रों में कुंडलिनी के बारे में ऐसा कहाँ लिखा गया है, जैसे लोग आजकल सोशल मीडिया पर दावे कर रहे हैं। शायद उसका कहने का मतलब था कि शास्त्रों के कहे के अतिरिक्त अनुभव गलत है, और उसे सोशल मीडिया पर बताना भी गलत है। मतलब, अपनी कमजोरियों का ठीकरा शास्त्रों पर फोड़ना चाहते हैं, और उन्हें अपनी खीज और ईर्ष्या के लिए ढाल की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं। ओपन माइंड नहीँ हैं। शास्त्रों के कंधों पर रखकर बन्दूक चलाना चाहते हैं, अपना कोई योगदान नहीं देना चाहते। यह उस दमनकारी नीति से उपजी सोच है, जैसी विदेशी हमलावरों ने सैंकड़ों सालों तक इस देश में बना कर रखी। यह ऐसी सोच है कि असली कुंडलिनी योगी समाज में दबे हुए से रहे और अपनी आवाज कभी बुलंद न करें। फिर समाज में आध्यात्मिकता कैसे पनपेगी। हैरानी इस बात की कि उस पर ढेर सारे अपवोट और अनुकूल कमेंट मिले हुए थे। मैंने उस पर कुछ कहना ठीक नहीं समझा, क्योंकि जिस मंच ने पहले ही निर्णय ले लिया हो, उस पर चर्चा करके क्यों ट्रोल हुआ जाए।

चलो, फिर से कुण्डलिनी से जुड़ी भगवान कार्तिकेय की कथा पर वापिस चलते हैं। तारकासुर को मारने विभिन्न देवता आए, पर वे उसे मार न सके। फिर शिव का मुख्य गण वीरभद्र आया। उसने अपने अमित पराक्रम से उसे लगभग मरणासन्न कर दिया। पर वह फिर उठ खड़ा हुआ। अंत में सभी देवताओं ने मिलकर कार्तिकेय को उसे मारने भेजा। तब राक्षस तारकासुर ने उस बालक को देखकर हँसते हुए भगवान विष्णु से कहा कि वह बड़ा निर्लज्ज है, इसीलिए उसने बालक को उससे लड़कर मरने के लिए भेजा है। फिर उसने विष्णु को कोसते हुए कहा कि वह प्रारम्भ से ही कपटी और पापी है। उसने रामावतार में धोखे से बाली को मारा था, और मोहिनी अवतार में राक्षसों को ठगा था। इस तरह से तारकासुर ने विष्णु के बहुत से पाप गिनाए, और कहा कि वह उसको मारकर उन सभी पापों की सजा देगा। फिर कार्तिकेय ने तारकासुर पर हमला किया। भयंकर युद्ध हुआ। उससे पवन स्तम्भित जैसी हो गई, और धरती कांपने लगी। सूर्य भी फीका पड़ने लग गया। कार्तिकेय ने अपनी अत्यंत चमकदार शक्ति तारकासुर पर चलाई। इससे तारकासुर मर गया। उसके बहुत से सैनिक मारे गए। कई सैनिकों ने देवसेना की शरणागति स्वीकार करके अपनी जान बचाई। तारकासुर का एक राक्षस बाणासुर युद्ध से जिंदा भाग गया था। वह क्रोंच पर्वत को प्रताड़ित करने लगा। जब उसने उसकी शिकायत कार्तिकेय से करी, तो उसने बाणासुर को भी मार दिया। इसी तरह प्रलम्बासुर राक्षस शेषनाग के पुत्र कुमुद को दुखी करने लगा। कार्तिकेय ने उसका वध भी कर दिया।

तारकासुर वध का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

वीरभद्र को हम शिव का प्रमुख व्यक्तित्व कह सकते हैं, क्योंकि वह शिव का मुख्य गण है। मुख्य सेनापति में राजा के गुण तो आएंगे ही। एक प्रकार से यह तांत्रिक व्यक्तित्व है। ऐसे व्यक्तित्व से तारकासुर यानी अज्ञान काफी कमजोर या मरणासन्न हो जाता है, पर मरता नहीं है। मरता तो वह शिवपुत्र कार्तिकेय से ही है। कार्तिकेय यहाँ अथक व अटूट संभोग योग से उत्पन्न वीर्यतेज को सहस्रार को चढ़ाने से फलीभूत कुंडलिनी जागरण का प्रतीक है। सात्विक विष्णु भी तारकासुर को मारने आया। पर उसे उसके पुराने पाप कचोटते रहे। दुनिया में अक्सर देखा जाता है कि बहुत सात्विक आदमी अपने द्वारा हुआ छोटा सा पाप भी नहीँ भूल पाते। वे तांत्रिक ऊर्जा का उपभोग भी नहीं करते, जो पापों को नष्ट करने के लिए तांत्रिक बल देती है। अपने पुराने पापों की कुंठा ही उनकी कुंडलिनी को जागृत नहीं होने देती। इसीको ऐसा कहकर बताया गया है कि तारकासुर भगवान विष्णु से उसके पुराने पापों की सजा देने की बात कर रहा है। कार्तिकेय को बालक इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह कुण्डलिनी योग से निर्मित मानसिक पुरुष है, जो नया-नया ही पैदा हुआ है, और भौतिक वस्तुओं से कम प्रभावी प्रतीत होता है। सूर्य, चंद्र, वायु आदि देवता बहुत पुराने समय से लेकर हैं। उनका भौतिक अस्तित्व है, जिससे वे कठोर या दृढ़ शरीर वाले हैं। इसीलिए उन्हें तुलनात्मक रूप से वयस्क माना गया है। पर कुण्डलिनी तो शुद्ध मानसिक चित्र है, जिससे वह बच्चे की तरह मुलायम है। क्योंकि कुंडलिनी चित्र मूलाधार की उसी वीर्यशक्ति से पैदा होता है, जिससे सन्तान पैदा होती है। इसीलिए कार्तिकेय को बच्चा कहा गया है। कार्तिकेय ने तारकासुर पर हमला किया, मतलब कुंडलिनी योगी ने शक्तिशाली तांत्रिक योग से प्राणोत्थान को लंबे समय तक बना कर रखा, जिससे चमचमाती कुंडलिनी लम्बे समय तक लगातार सहस्रार में बनी रही। पवन स्तम्भित हो गई, मतलब शक्तिशाली प्राणोत्थान से योगी की साँसें बहुत धीमी और गहरी अर्थात लगभग न के बराबर हो गईं। योग की ऐसी उच्चावस्था में प्राण ही ऑक्सीजन की ज्यादातर जरूरत पूरी करने लगता है। धरती कांपने लगी, मतलब प्राणोत्थान से पूरे शरीर का प्राण सहस्रार में घनीभूत हो गया, जिससे शरीर में प्राण की कमी हो गई। इससे दुनियादारी के तनावयुक्त विविध कार्यों का शरीर पर जरा सा भी भार पड़ने पर शरीर कमजोरी के कारण कांपने लगता है। सूर्य फीका पड़ने लग गया, मतलब सहस्रार में कुण्डलिनी के काबिज होने से पूरे मन में अद्वैत भाव छा गया। अद्वैत में तो सुख और दुख समान लगने लगते हैं, प्रकाश और अंधकार समान लगने लगता है, मतलब सूर्य और चन्द्र समान लगने लगते हैं। यही सूर्य का फीका पड़ना है। कार्तिकेय ने अपनी चमकदार शक्ति तारकासुर के ऊपर चलाई। कार्तिकेय अर्थात कुंडलिनी की अपने आप की चमक ही उसकी वह चमकदार शक्ति है, जो उसने तारकासुर अर्थात अज्ञान के ऊपर चलाई। मतलब उसकी अपनी जागरण की चमक से ही द्वैतरूपी अज्ञान या तारकासुर नष्ट हुआ। अज्ञान रूपी तारकासुर के सैनिक हैं, विभिन्न मानसिक दोष और उनसे उपजे दूषित आचार-विचार। वे नष्ट हो जाते हैं। जो बचे रहते हैं, वे रूपांतरित होकर पवित्र हो जाते हैं। मतलब कि वे देवसेना की शरण में चले जाते हैं। जैसे कि कामभाव तन्त्रभाव में रूपांतरित होकर पवित्र हो जाता है, और मानव के आध्यात्मिक विकास में मदद करता है। राक्षस बाणासुर से यहाँ तात्पर्य बुरी नजरों के बाणों से है। नयन बाण, यह एक प्रसिद्ध शास्त्रीय उक्ति है। क्योंकि आंखें आज्ञाचक्र से जुड़ी होती हैं, इसलिए बुरी नजरों से वह दुष्प्रभावित होता है। यही बाणासुर राक्षस द्वारा क्रोंच पर्वत को प्रताड़ित करना है। दूषित नजर से बुद्धि दूषित होती है। बुद्धि आज्ञाचक्र में निवास करती है। क्योंकि जब तक जागृति से मन को तसल्ली नहीं मिल जाती, तब तक आदमी की नजरों में किसी न किसी तरह से भौतिक आनंद पाने की लालसा बनी रहती है। इसीसे नजर दूषित होती है। जैसे कि पराई नारी से क्षणिक सम्भोगसुख की लालसा होना, जिससे नारी पर गलत नजर पड़ती है। इससे गलत विचार आते हैं, जिससे बुद्धि की कल्पना शक्ति और निर्णय शक्ति भी पापपूर्ण होने लगती है। मतलब बाणासुर क्रोंच पर्वत को रौंदने लगता है, जिससे उसका अधिष्ठातृ देवता प्रताड़ित महसूस करके दुखी होता है।  पिछली पोस्ट में मेरा अनुमान सही था कि आज्ञाचक्र को ही क्रोंच पर्वत कहा गया है। जागृति का ज्ञान होने के बाद बुरी और दूषित नजर का नष्ट होना ही कार्तिकेय के द्वारा बाणासुर का वध है। इसी तरह, शेषनाग मूलाधार से सहस्रार चक्र तक जाने वाली सुषुम्ना नाड़ी को कहा गया है, क्योंकि इसकी आकृति एक कुण्डली लगाए हुए और फन उठाए नाग की तरह है। सहस्रार चक्र को ही उसका पुत्र कुमुद कहा गया है। कुमुद का अर्थ श्वेतकमल होता है। सहस्रार चक्र को भी एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल के रूप में दर्शाया जाता है। सुषुम्ना से ही सहस्रार को प्राण अर्थात जीवन मिलता है, इसीलिए दोनों का पिता-पुत्र का सम्बंध दिखाया गया है। प्रलंब माला को कहते हैं। कुंडलिनी भी माला के रूप वाले माइक्रोकोस्मिक ऑर्बिट में घूमती है। यह एक व्यवहारिक अनुभव है कि जब माला पूरी जुड़ी हुई होती है, तभी कुंडलिनी सभी चक्रों में विशेषकर सहस्रार चक्र में अच्छे से प्रवेश कर पाती है। टूटी हुई माला से कुंडलिनी ऊर्जा गति नहीं कर पाती। राक्षस प्रलम्बासुर यही टूटी हुई माला है। वह शेषनाग पुत्र कुमुद को दुखी करने लगा, मतलब टूटा हुआ ऊर्जा परिपथ सहस्रार चक्र तक प्राण ऊर्जा की आपूर्ति को बाधित करने लगा। कार्तिकेय ने प्रलम्बासुर को मारा, मतलब कुंडलिनी जागरण के बाद कुंडलिनी के पीछे के चैनल से ऊपर चढ़ने से और आगे के चैनल से नीचे उतरने से ऊर्जा परिपथ पूर्ण हो गया। साथ में, कुंडलिनी जागरण से उत्साहित आदमी आगे भी नियमित रूप से कुंडलिनी योगाभ्यास करने लगा, जिससे माला रूपी केंद्रीय कुंडलिनी चैनल ज्यादा से ज्यादा खुलता गया। वास्तव में असली माला जाप तो चक्रों की माला में कुंडलिनी का जाप ही है। इसीको गलत समझने के कारण धागे और मनकों की भौतिक माला बनी होगी। या हो सकता है कि कुंडलिनी योग को आम अशिक्षित लोगों की समझ में लाने के लिए ही धागे की माला का प्रचलन शुरु कराया गया होगा। हालांकि इससे भी बहुत से लाभ मिलते हैं। अभ्यास से धागे की बाहरी माला चक्रों की भीतरी माला में रूपांतरित हो जाती है। 

कुंडलिनी योग में लेखन का महत्त्व

दोस्तो, पिछली पोस्ट में मैं बता रहा था कि कैसे कुंडलिनी प्रेम की भूखी होती है। आध्यात्मिक शास्त्रों में भगवान भी तो प्रेम के ही भूखे बताए जाते हैं। दरअसल भगवान वहाँ कुंडलिनी को ही कहा गया है। साथ में मैं बता रहा था कि कैसे आजकल की पीढ़ी असंतुलित होती जा रही है। इलेक्ट्रॉनिक वीडियोस, सोशल मीडिया और गेम्स के लिए उनके पास समय भी बहुत है, और संसाधन भी। पर इलेक्ट्रॉनिक बुक्स, वैबपोस्टस और चर्चाओं के लिए न तो समय है, और न ही संसाधन। इनके भौतिक या कागजी रूपों की बात तो छोड़ो, क्योंकि वे भी अपनी जगह पर जरूरी हैं। यदि ये आध्यात्मिक प्रकार के हैं, तब तो बिल्कुल भी नहीं। एकबार एक जानेमाने पुस्तक विक्रेता की दुकान पर उसके मालिक से मेरी इस बात पर संयोगवश चर्चा चल पड़ी थी। बेचारे कह रहे थे कि इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स ने उनकी दुकान पर पुस्तकों की बिक्री बहुत कम कर दी है। फिर भी उनके संतोष व उनकी सहनशीलता को दाद देनी पड़ेगी जो कह रहे थे कि बच्चों को बड़े प्यार से ही मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स से दूर रखना चाहिए, डांट कर नहीं। डांट से वे कुण्ठा औऱ हीनता से भर जाएंगे। डांटने से अच्छा तो उनको इनका प्रयोग करने दो, वे खुद सीखेंगे। यहाँ हम किसी चीज को ऊंचा या नीचा नहीं दिखा रहे हैं। हम तो यही कह रहे हैं कि संतुलित मात्रा में सभी मानवीय चीजों की जरूरत है। संतुलन ही योग है, संतुलन ही अध्यात्म है।

असली लेखक अपने लिए लिखता है

मैं हमेशा अपने बौद्धिक विकास के लिए लिखने की कोशिश करता रहता हूँ। जो असली लेखक होता है, वह औरों के लिए नहीं, अपने लिए लिखता है। लेखन से दिमाग को एकप्रकार से एक्सटर्नल हार्ड डिस्क मिल जाती है, डेटा को स्टोर करने के लिए। इससे दिमाग का बोझ कम हो जाने से वह ज्यादा अच्छे से सोच-समझ सकता है। आपको तो पता ही है कि कुंडलिनी योग के लिए चिंतन शक्ति की कितनी अधिक जरूरत है। केंद्रित या फोकस्ड चिंतन ही तो कुंडलिनी है। उस लेखन को कोई पढ़े तो भी ठीक, यदि न पढ़े तो भी ठीक। अपने जिस लेखन से आदमी खुद ही लाभ नहीं उठा सकता, उससे दूसरे लोग क्या लाभ उठाएंगे। अपने फायदे के साथ यदि दुनिया का भी फायदा हो, तो उससे बढ़िया क्या बात हो सकती है। आप मान सकते हो कि मेरे आध्यात्मिक अनुभवों में मेरे लेखन का अप्रतिम योगदान है। कई बार तो लगता है कि यदि मुझे लेखन की आदत न होती, तो वे अनुभव होते ही न। आजकल ईबुक्स की कीमतें बढ़ा-चढ़ा कर रखने का रिवाज सा चला है। पर सच्चाई यह है कि उन पर लेखक के भौतिक संसाधन खर्च नहीं होते, जैसे कि कागज, पैन आदि। सैल्फ पब्लिशिंग से पब्लिशिंग भी निःशुल्क उपलब्ध होती है। केवल लेखक की बुद्धि ही खर्च होती है। पर बुद्धि तो खर्च होने से बढ़ती है। किताब की कीमत तो बुद्धि व अनुभव के रूप में अपनेआप मिल ही जाती है, तब पैसे की कीमत किस बात की। कहते भी हैं कि विद्या खर्च करने से बढ़ती है। इसीलिए पुराने जमाने में आध्यात्मिक सेवाएं निःशुल्क या नो प्रोफिट नो लॉस पर प्रदान की जाती थीं। सशुल्क ईबुक्स को बहुत कम पाठक मिलते हैं। निःशुल्क पुस्तकों को खरीदने व बेचने के लिए गूगल प्ले बुक्स और पीडीएफ ड्राइव डॉट नेट बहुत अच्छे प्लेटफॉर्म हैं। पिछले एक साल के अंदर गूगल प्ले बुक्स पर मेरी नौ हजार पुस्तकें शून्य मूल्य पर बिक गई हैं। इन पुस्तकों में भी सबसे ज्यादा बिक्री इस वेबसाइट की सभी ब्लॉग पोस्टस को इकट्ठा करके बनाई गई पुस्तकों की हुई है। यदि उनकी कीमत रखी होती तो शायद नौ भी न बिकतीं। यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि एक अन्य प्लेटफार्म पर इन पुस्तकों के पेड वेरशन्स (न्यूनतम मूल्य पर) भी हैं, वहाँ तो लगभग नौ ही बिकी हैं। गूगल प्ले बुक्स पर भी एक बार पुस्तकों का न्यूनतम मूल्य रखकर प्रयोग किया था, तब भी दो या तीन महीनों में केवल 4-5 प्रतियां ही बिक पाई थीं। अपने लेखन के प्रति पाठकों की रुचि से जो संतोष प्राप्त होता है, वह पैसे से प्राप्त नहीं होता। 

इड़ा औऱ पिंगला नाड़ी अर्धनारीश्वर को इंगित करते हैं

अपने पिछले लेखन से मैंने इस हफ्ते यह बात सीखी कि क्यों न अपने आध्यात्मिक अनुभवों का सार्वभौमिक प्रमाण आध्यात्मिक शास्त्रों में भी ढूंढा जाए। इसलिए मैंने स्वामी मुक्तिबोधानन्द की हठयोग प्रदीपिका को पढ़ना शुरु किया। दो दिनों में ही 15% से ज्यादा पुस्तक को पढ़ लिया। इतना जल्दी इसलिए पढ़ पाया क्योंकि जो मैं अपने अनुभवों से लिखता आया हूँ, कमोबेश वही तो था लिखा हुआ। साथ में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की छुट्टी होने के कारण पर्याप्त समय भी मिल गया। सिर्फ दो-चार विचारों में अंतर जरूर था। यदि मैं वह अंतर बताऊंगा, तो यह माना जा सकता है कि आपने भी वह पुस्तक पढ़ ली होगी, क्योंकि आप मेरी पोस्टस शुरु से पढ़ते आ रहे हैं। मैं वह अंतर आने वाली पोस्टों में भी बताता रहूँगा।
उस पुस्तक में लिखा है कि इड़ा नाड़ी पीठ के बाएं भाग से ऊपर चढ़ती है, पर ऊपर जाकर दाईं ओर मुड़कर मस्तिष्क के दाएं गोलार्ध को कवर करती है। पर मुझे तो वह बाएँ मस्तिष्क में ही जाते हुए अनुभव होती है। इसी तरह पिंगला नाड़ी को निचले शरीर के दाएं भाग और मस्तिष्क के बाएं भाग को कवर करते हुए दर्शाया गया है। पर मुझे तो वह दाएं मस्तिष्क में ही जाते हुए दिखती है। अर्धनारीश्वर के चित्र में भी ऐसा ही, मेरे अनुभव के अनुरूप ही दिखाया जाता है। वहाँ तो ऐसा नहीं दिखाया जाता कि शरीर का निचला बायाँ भाग स्त्री का और ऊपरी बायाँ भाग पुरुष का है। हो सकता है कि इसमें कुछ और दार्शनिक या अनुभवात्मक पेच हो।

आध्यात्मिक सिद्धियां बताने से बढ़ती भी हैं

एक अन्य मतभेद यह था कि उस पुस्तक में सिद्धियों को गुप्त रखने की बात कही गई थी। मैं भी यही मानता हूँ कि एक स्तर तक तो गोपनीयता ठीक है, पर उसके आगे नहीं। जब मन जागृति से भर जाए और आदमी क्षणिक जागृति के और अनुभव प्राप्त न करना चाहे, तब अपनी जागृति को सार्वजनिक करना ही बेहतर है। इससे जिज्ञासु लोगों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। ऐसा दरअसल खुद ही होता है। जिस आदमी के पास कम पैसा होता है, और पैसों से मन नहीं भरा होता है, वह उसे छिपाता है, ताकि दूसरे लोग न मांग ले। पर जब आदमी के पास असीमित पैसा होता है, और पैसों से उसका मन भर चुका होता है, तब वह उसके बारे में खुलकर बताता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उसे पता होता है कि कोई कितना भी ले ले, पर उसका पैसा खत्म नहीं होने वाला। यदि कोई उसका सारा पैसा ले भी ले, तब भी उसे फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उसका मन तो पैसे से पहले ही भर चुका होता है। बल्कि उसे तो फायदा ही लगता है, क्योंकि जो चीज उसे चाहिए ही नहीँ, उससे उसका पीछा छूट जाता है। वैसे आजकल के वैज्ञानिक व बुद्धिजीवी समाज में आध्यात्मिक सिद्धियां बताने से बढ़ती भी हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि आजकल के पढ़े-लिखे लोग एक-दूसरे की जानकारियों से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ते हैं। मुझे तो लगता है कि यदि मैं अपने प्रथम आध्यात्मिक अनुभव की खुली चर्चा सोशल मीडिया में न करता, तो मुझे जागृति का दूसरा अनुभव न मिलता। पुराने समय के आदिम युग में अनपढ़ता व अज्ञान के कारण सम्भवतः लोग एक-दूसरे से ईर्ष्या व घृणा करते होंगे। इससे वे एक-दूसरे के ज्ञान से प्रेरणा न लेकर एक-दूसरे की टांग खींचकर आपस में एक-दूसरे को गिराते होंगे, तभी उस समय सिद्धियों को छिपाने का बोलबाला रहा होगा। कुंडलिनी के बारे में भी मुझे अधूरी सी जानकारी लगी। इस बारे अगली पोस्ट में बताऊंगा। 

ई-बुक के लिए कवर डिजाइनिंग- स्वयम्प्रकाशन का एक मूलभूत आधारस्तम्भ

दोस्तों, यदि अनुभवों को सबके साथ साझा करने की कला न आए, तो उन अनुभवों का विशेष महत्त्व नहीं होता। वे अनुभव उसी अकेले आदमी तक सीमित रह जाते हैं, और उसी के साथ नष्ट हो जाते हैं। भारत में कभी अध्यात्म का परचम लहराया करता था। आध्यात्मिक विद्याएं अपने चरम पर होती थीं। पर समय के साथ उन विद्याओं को साझा करने की प्रवृत्ति पर रोक लगने लगी। उसके बहुत से कारण थे, जिनकी गहराई में मैं जाना नहीं चाहता। धीरे धीरे करके बहुत सी आध्यात्मिक विद्याएं विलुप्त हो गईं। आजकल के समय में वैबसाइट और ई-पुस्तक अनुभवों को साझा करने के सबसे महत्त्वपूर्ण साधन हैं। इसलिए वैबसाइट निर्माण व स्वयम्प्रकाशन की मूलभूत जानकारी सभी को होना जरूरी है। ईपुस्तक का आवरण ईपुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।

यह नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना वायरस लोकडाऊन के कारण ईबुक्स की मांग में बढ़ौतरी हुई है, और आगे भी होगी। पब्लिशिंग हाऊस भी अच्छा डिस्काउंट ऑफर दे रहे हैं। ब्लयू हिल्स पब्लिकेशन वाले भी 50℅ से ज्यादा का डिस्काउंट दे रहे हैं।

ईपुस्तकों का आवरण आकर्षक होना चाहिए

कभी समय था जब लोग बिना आवरण की पुस्तकों को पढ़ा करते थे। उनका मुख्य उद्देश्य पुस्तक की पाठ्य सामग्री होती थी, आवरण नहीं। अब समय बदल गया है। आजकल लोग आवरण की चकाचौंध में पुस्तक की पाठ्य सामग्री को भूल जाते हैं। अनेकों बार उत्कृष्ट किस्म की पुस्तक भी आवरण की कमी से कामयाब होने में बहुत लंबा समय ले लेती है, जबकि निम्नकोटि की पुस्तक भी आवरण की चकाचौंध में जल्दी ही कामयाब हो जाती है। इसका कारण यह नहीं है कि लोगों को निम्न कोटि की पुस्तक से कोई विशेष लाभ मिलता है। असली कारण तो ई पुस्तकों तक पूरे विश्व की पहुंच है। अगर 20 करोड़ पाठकों में से एक लाख लोग भी आवरण की ठगी का शिकार हो गए, तो पुस्तक तो कामयाब हो गई। दूसरा कारण ई पुस्तकों का सस्ता होना है। तीसरा कारण आजकल का भौतिकवाद औऱ जीवन जीने का बाहरी नजरिया है।

केनवा डॉट कॉम मुझे पुस्तक आवरण बनाने वाली सबसे अच्छी वैबसाइट लगी

आपको हैरानी होगी कि मुझे आवरण बनाना सीखने में 3 साल लग गए। केनवा डॉट कॉम ने मेरा वह काम बहुत आसान कर दिया। 3 साल तक मेरी पुस्तकें केडीपी के बने बनाए बुक कवर के सहारे रहीं। हालाँकि वे कवर सुंदर व प्रोफेशनल नहीं लगते। एक पुस्तक का कवर मैंने एडोबे डॉट कॉम के फोटो एडिटर पर बनाया। उसमें सभी काम खुद करने होते थे, जैसे कि फ़ोटो पर टेक्स्ट लिखना और उसे मनचाहा एडिट करना। वह भी प्रोफेशनल नहीं लगा। एक दूसरी पुस्तक की कवर फोटो पर एडोबे से तितली, फूल आदि चिपकाए। उस फोटो को केनवा डॉट कॉम पर एक बैकग्राउंड प्लेन पेपर पर चिपका दिया। मैं केनवा डॉट कॉम की कार्यप्रणाली को समझ नहीं पा रहा था। केनवा को समझने का मौका मुझे तब मिला जब मैंने 6000 रुपये देकर अपनी एक पुस्तक के लिए ब्लयू हिल्स पब्लिकेशन से बुक कवर बनवाया और पुस्तक को प्रोमोट करवाया। पब्लिशर ने मेरी बाकि की 8 पुस्तकें देखकर कहा कि उनके बुक कवर प्रोफेशनल नहीं लग रहे थे। वैसे भी कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है।

केनवा डॉट कॉम पर कवर डिजाइनिंग कैसे करें

सबसे पहले वैबसाइट पर अपना अकाउंट बनाओ औऱ लॉग इन करो। होम पर जाओ। यहां ऑल योवर डिजाइन में आपके पहले के बनाए सभी डिजाइन होंगे। एक कस्टम डाइमेंशन का बटन होता है। इसमें हम किसी भी साईज (पिक्सेल लंबाई बाय पिक्सल चौड़ाई) का कवर बना सकते हैं। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि हरेक स्वयम्प्रकाशन के प्लेटफार्म पर अलग आकार की डिमांड होती है। केडीपी, किंडल डायरेक्ट पब्लिशिंग पर 2500 बाय 1600 पिक्सेल आकार की जेपीजी इमेज पर स्वीकार्य होती है। यदि ईबुक कवर वाले दूसरे ऑप्शन पर क्लिक किया जाए तो छोटे आकार की कवर (लगभग 800 बाय 200 पिक्सेल) बनती है। उसका साईज फिर अलग सॉफ्टवेयर से बढ़ाना पड़ता है। मुझे इसके लिए इमेजरिसाईज डॉट कॉम सर्वोत्तम व आसान लगा। ईबुक कवर या कस्टम डाइमेंशन बटन को क्लिक करके एक ड्रॉप डाऊन मीनू खुलता है। उस पर सबसे ऊपर टेम्पलेट बटन है। उससे पुस्तकों के सैंकड़ों किस्म के बने बनाए डिज़ाइन खुलते हैं। मनपसंद डिज़ाइन के टेम्पलेट पर क्लिक करने से वह दाईं तरफ की वर्किंग विंडो में आ जाती है। लेफ्ट ड्रॉपडाउन मीनू से अपलोड बटन दबाने से आपके द्वारा अपलोड की गई सभी फ़ोटो दिखेंगी। अपलोड एन इमेज पर क्लिक करके कम्प्यूटर से मनचाही फोटो को अपलोड करें। उस फ़ोटो को माऊस के लेफ्ट बटन से ड्रेग करके वर्किंग विंडो की सेलेक्टिड टेम्पलेट पर ड्रॉप कर दें। सीधा ड्रॉप करने से वह टेम्पलेट के बैकग्राउंड पर चिपक जाएगी। उस फोटो को छोटा या बड़ा किया जा सकता है। उस फोटो को टेम्पलेट का बैकग्राउंड बनाने के लिए ड्रैग की गई फोटो को माऊस से टेम्पलेट पर इधर-उधर चलाओ। एक पोजीशन पर टेम्पलेट के बॉर्डर ग्रीन से हो जाएंगे और फोटो पूरी टेम्पलेट पर फैलकर उसके बैकग्राउंड के रूप में हाईलाइट होने लगेगी। वहां पर माऊस को छोड़कर उस फोटो को ड्रॉप कर दो। इससे वह फोटो टेम्पलेट का बैकग्राउंड बन जाएगी। नीचे दी गई इमेज में पॉलीहाउस वाली फ़ोटो बैकग्राउंड का काम कर रही है। हालांकि टेम्पलेट के हैडिंग, सब-हैडिंग आदि सभी टेक्स्ट, मुख्य लाईनें व बॉक्स आदि वैसे ही रहेंगे। आप इन सभी विजुअल एलिमेंट्स को मनचाहे तरीके से एडिट कर सकते हो या उन्हें हटा सकते हो। आप अपनी पसंद का टैक्स्ट भी जोड़ सकते हो।आप टैक्स्ट के अक्षरों का आकार व उनकी बनावट भी बदल सकते हो। आप टेम्पलेट की ऐसी खाली जगह पर भी टैक्स्ट जोड़ सकते हैं, जहाँ पहले से टैक्स्ट नहीं है। ये सभी सुविधाएं मुफ्त में मिलती हैं। इसमें कवर डिजाइन की विजुअल क्वालिटी बेसिक होती है। पैसे देकर सब्सक्राइब करने पर आपको आपके अपने द्वारा बनाया गया कवर डिज़ाइन हाई डेफिनिशन क्वालिटी में डाऊनलोड करने को मिलता है। इसी तरह से, पैसे देकर बहुत सारी अच्छी टेम्पलेट मिलती हैं। 

केनवा पर फोटो डिजाइनिंग के सभी काम किए जा सकते हैं

केनवा पर लोगो, ब्लॉग बैनर, फेसबुक पोस्ट, इंस्टाग्राम फ़ोटो, लोगो, पोस्टर, कार्ड आदि सभी कुछ बनाया जा सकता है। ब्लॉग बैनर वैबसाइट के पेज या पोस्ट की फीचर्ड इमेज को कहते हैं। लोगो वैबसाइट या फेसबुक पेज के शुरु में एक छोटी सी गोलाकार फोटो के रूप में होता है। केनवा पर फोटो बैकग्राउंड को ट्रांसपेरेंट भी किया जा सकता है, पर शायद पेड सब्सक्रिप्शन के साथ। मोबाइल के लिए केनवा एप भी उपलब्ध है।

केनवा पर डिजाइन किया गया मेरी ईबुक का कवर


केनवा डॉट कॉम पर बने मेरे सभी ईबुक कवर्स को देखने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें।