कुंडलिनी रूपांतरण के नाजुक दौर से गुजर रहा अंतरराष्ट्रीय समाज, जिसे युग परिवर्तन भी कहते हैं~यूक्रेन-रशिया युद्ध का मनोविज्ञान

सभी मित्रों को शिवरात्रि पर्व की बहुत-बहुत बधाइयाँ

मित्रो, मैं पिछली पोस्ट में धार्मिक आतंकवाद के बारे में बात कर रहा था। हाल ही में एक घटना और सामने आ गई। कर्नाटक में स्कूलों में हिजाब पहनने के नए चलन का शांतिपूर्वक विरोध करने वाले हिंदु बजरंग दल के एक 23 वर्ष के अविवाहित व अच्छे खासे कार्यकर्ता को कुछ जिहादियों ने मिलकर बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। ऐसी हिन्दुविरोधी घटनाएं सैंकड़ों सालों से नियमित रूप से हो रही हैं, कभी कम, तो कभी ज्यादा। पर एक भय का माहौल खड़ा करके इन्हें दबा कर या दुष्प्रचार से हल्का कर दिया जाता है। सभी लोगों का कल्याण इसीमें है कि सभी धर्मों के लोग मिलजुलकर रहें। आज सभी धर्मों को संशोधित करके उनमें से अमानवीय कट्टरता को बाहर निकालने की जरूरत है। मैं किसी धर्म-विशेष के पक्ष या विपक्ष में नहीं बोल रहा, बल्कि धर्म के वैज्ञानिक या मानवीय या कुंडलिनी पक्ष को उजागर करने की जरूरत महसूस कर रहा हूँ। धार्मिक हिंसा के मामले हर धर्म में देखे जाते हैं, कहीं कम तो कहीं ज्यादा। दरअसल क्या होता है कि जब किसी व्यक्ति द्वारा स्वार्थवश किसी विशेष धर्म से यह अपेक्षा की जाती है कि उससे उसे धन या रोजगार आदि के रूप में आर्थिक और सम्मान आदि के रूप में सामाजिक लाभ मिले। इससे वह उस धर्म के विरुद्ध लगने वाली बात जरा भी बर्दाश्त नहीं कर पाता, सच्ची और वैज्ञानिक बात भी नहीं। क्योंकि तब उसे अपनी रोजीरोटी और अपना सम्मान छिन जाने का डर सताने लगता है। यहीं से धार्मिक कट्टरता का उदय होता है। इसीलिए शास्त्रों में ठीक ही कहा गया है कि धार्मिक कार्यों से जीविका का उपार्जन नहीँ करना चाहिए, और न ही उन से सम्मान की अपेक्षा रखनी चाहिए। कोई चाहे कितना ही अपमान क्यों न करे, उसे झेल लेना चाहिए। इसीलिए यह मशहूर दोहा आम जनमानस में काफी प्रचलित है। मार-कूट धरती सहे, काट-कूट वनराय; कुटिल वचन साधु सहे, और से सहा न जाए।

साथ में, मैं वीर्य के महत्त्व के बारे में भी बता रहा था। वीर्यपात के बाद शरीर निस्तेज सा हो जाता है। तन-मन में एक कमजोरी सी छा जाती है। वैज्ञानिक तौर पर देखा जाए तो वीर्य में इतने ज्यादा पोषक तत्त्व भी नहीं होते, जिनकी भरपाई भोजन से न की जा सके। इससे जाहिर होता है कि उसमें कोई नाड़ी उत्तेजक तत्त्व होता है। नाड़ी की तंदरुस्ती से भोजन के पोषक तत्त्वों का शरीर में ठीक ढंग से एसिमिलेशन अर्थात अवशोषण होता है। इसका मतलब है कि वीर्यपात के बाद शरीर की पूर्ववर्ती क्रियाशीलता के लिए अतिरिक्त पोषक तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती है। नाड़ी की क्रियाशीलता की कमी को अतिरिक्त पोषक तत्त्वों से पूरा करना पड़ता है। इसीलिए वीर्यपात के एकदम बाद भूख भी बढ़ जाती है। हालांकि उसे पचाने में थोड़ी दिक्कत आ सकती है। सम्भवतः तन्त्र में इसी कमी को पूरा करने के लिए मांसभक्षण का प्रावधान करना पड़ा हो। सम्भवतः माँस में भी कोई नाड़ी उत्तेजक तत्त्व होता है। इसीलिए मांसाहारी जंतुओं में बहुत स्फूर्ति देखी जाती है। हो सकता है कि वह कोई खास विटामिन हो, जिसे मोबि-विटामिन कह सकते हैं। वह शरीर में मांसभक्षण के बाद ही बनता हो। शाकाहारी प्राणियों के शरीर में वह उपस्थित रहते हुए भी काम न कर पाता हो। उस विटामिन को विज्ञान अभी तक खोज न पाया हो। यदि वह विटामिन मिल जाए, तो उसे  प्रयोगशाला में भी बनाया जा सकता है, जिससे स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक बनाए जा सकते हैं। इससे पशुओं पर होने वाले नाजायज अत्याचार को काफी हद तक कम किया जा सकता है। पर यदि वीर्यस्खलन के बाद यौन-तांत्रिक तकनीकों से नागिन का मुख ऊपर की ओर मोड़ दिया जाए, तब कमजोरी नहीं आती। नागिन का मुख ऊपर की ओर हो जाने से फिर से वीर्यशक्ति ऊपर की ओर चढ़ने लगती है। इससे नाड़ियाँ फिर से क्रियाशील हो जाती हैं, जिससे पूरा शरीर फिर से सुचारु रूप से काम करने लग जाता है। इस नागिन को उठाने की प्रक्रिया को जितना जल्दी किया जाता है, उतना अधिक लाभ मिलता है। इससे फिर सिद्ध होता है कि वीर्य में कोई विशेष पोषक तत्त्व नहीं होते, जैसा कि विज्ञान भी कहता है, पर सम्भवतः इसमें कोई विशेष नाड़ी उत्तेजक तत्त्व होता है, जो शरीर की क्रियाशीलता के लिए बहुत जरूरी होता है। यदि इस पर वैज्ञानिक अनुसंधान किया जाए, तो एक बहुत ही शक्तिवर्धक दवाई बनाई जा सकती है। उससे नाड़ी ऊर्जा की कमी को पूरा करके आदमी की कार्यकुशलता और कार्यक्षमता को मनचाही रप्तार दी जा सकती है। इससे जहाँ आदमी का वर्तमानकालिक भौतिक पिछड़ापन दूर हो सकता है, साथ में जागृति भी आसानी से सुलभ हो सकती है। शास्त्रों में भी वीर्य को सबसे शक्तिशाली पदार्थ कहा गया है, रक्त से भी हजारों गुना अधिक। उनमें कहा गया है कि रक्त की हजारों बूंदों से वीर्य की एक बूंद बनती है। इसका मतलब है कि रक्त से छनकर कोई विशेष तत्त्व वीर्य के रूप में धीरे-धीरे जमा होता रहता है। जितनी बार वज्र प्रसारण होता है, उतनी ही बार वीर्य निर्माण के लिए रक्त का दौरा माना गया होगा। हरेक वज्र प्रसारण के बाद जो कुछ यौन उत्तेजना बढ़ती है, उसे ही वीर्य की वृद्धि के रूप में माना गया होगा।

कई लोग अक्सर कहते हैं कि उन्हें तो पीठ में ऊपर चढ़ती हुई ऊर्जा महसूस ही नहीं होती। ऊपर क्या चढ़ाएंगे, जब कुछ नीचे ही नहीं बनेगा। मतलब कि मूलाधार में जब कुंडलिनी ऊर्जा का निर्माण होगा, तभी उसे ऊपर चढ़ा पाएंगे न। मूलाधार पर कुंडलिनी ऊर्जा का निर्माण अनेक प्रकार से होता है। इनमें मुख्य हैं, यौगिक साँसें, रीढ़ की हड्डी को सीधा रखकर बैठने की सही विधि, योगासन, विविध व्यायाम, विविध प्रकार की शारीरिक क्रियाशीलता, पैदल सैर, साइकिल चलाना, अद्वैतभाव के साथ जीवनयापन और संभोग। संभोग से सर्वाधिक और सबसे जल्दी लाभ मिलता है, पर इसमें निपुणता की बड़ी जरूरत होती है, और इसे गुप्त भी रखना पड़ता है। इससे पीठ में ऊपर चढ़ती हुई ऊर्जा का स्पष्ट आभास होता है। संभोग के बाद आदमी अक्सर निस्तेज जैसे हो जाते हैं। यही गलत विधि है। आदमी का तेज कभी घटना ही नहीं चाहिए। दरअसल वीर्यशक्ति को कुंडलिनी ऊर्जा में रूपांतरित न करने से और अत्यावश्यक स्खलन के बाद नागिन को शीघ्रातिशीघ्र ऊपर न उठाने से ही यह तेज की हानि होती है। दरअसल अगर दिव्य नागिन को नीचे की तरफ ही मुँह किए रहने दिया जाए, तो एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक संदेश शरीर को प्रसारित हो जाता है कि वीर्य का उत्पादन रोक दिया जाए। सम्भवतः यह इस सम्भावना से उत्पन्न सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष भय से होता है कि वीर्य फिर से इसी तरह बर्बाद कर दिया जाएगा। इससे वीर्य की कमी से शरीर निस्तेज हो जाता है। इसके विपरीत, यदि स्खलन के बाद नागिन का मुँह ऊपर की ओर मोड़ दिया जाए, तो मस्तिष्क को यह सन्देश जाता है कि जो हुआ सो हुआ, पर अब शरीर वीर्य को बर्बाद न करके उसे शरीर के प्रयोग में लाएगा। इससे वीर्य का उत्पादन पहले से भी ज्यादा बढ़ जाता है, जिससे पिछले वीर्यक्षरण से उत्पन्न कमजोरी भी शीघ्र पूरी हो जाती है, और साथ में आगे का विकास भी शुरु हो जाता है। इसका यह मतलब नहीं कि वीर्यक्षरण करते रहना चाहिए। मर्द की विशिष्ट शक्ति उसके वीर्य से ही है। वीर्य के बिना तो वह नपुंसक की तरह ही बलहीन है। इसलिए हमेशा वीर्यसंरक्षण का प्रयास करते रहना चाहिए। वीर्यक्षरण से कुछ न कुछ हानि तो होती ही है, पर यह तंत्राभ्यास से बहुत कम रह जाती है। फिर इसे हानि भी नहीं कह सकते, क्योंकि वह हानि फिर कुंडलिनी लाभ में रूपांतरित हो जाती है। बल्कि इसका यह मतलब है कि यदि चूकवश हो जाए, या अत्यावश्यकतावश हो जाए, या पूर्वनियोजित कुंडलिनी लाभ के लिए किया जाए, तो कमजोरी से कैसे बचा जा सकता है। वीर्यक्षरण से उत्पन्न हुई इसी कमजोरी के कारण ही संभोग बदनाम हुआ है। साथ में, स्त्री भी बदनाम हुई है। उसे ऊर्जा निचोड़ने वाला या डाकिनी या विच या चुड़ैल वगैरह समझा गया। लापरवाही पुरुष की, पर दोषारोपण स्त्री पर। वैसे कुछ हद तक स्त्री भी पुरुष की मदद कर सकती है। अपने ऊपर लगे लाँछन को महिला खुद ही मिटा सकती थी, पर वह लज्जावश हमेशा चुप रही। उसने तन्त्र से भी मुंह मोड़ लिया। इसीलिए मैं प्रारम्भ से ही यह कहता आया हूं कि तन्त्र ही स्त्री को उसका खोया हुआ सम्मान वापिस दिला सकता है। जब लोगों को इन तथ्यों की समझ आएगी, तो यौनहिंसा में भी कमी आएगी। फिर औरत को पूजनीय और देवी माना जाएगा। मैं यहां लिंगभेद वाली बात नहीं कर रहा हूँ, अपितु तथ्यात्मक विश्लेषण का प्रयास कर रहा हूँ।

कम ऊर्जा वाले लोग तो अधिक ऊर्जा वाले लोगों से घृणा करेंगे ही। पशु को ही लें। उन्हें अपना कम ऊर्जा वाला सादा जीवन ही अच्छा लगता है। इसीलिए वे शहरों की बजाय जंगलों में रहना पसंद करते हैं। पर हाईटेक शहर में रहने वाले हाईटेक लोग भी जागृत आदमी के सामने कम ऊर्जा वाले हैं। दुनिया में ज्यादातर लोग कम ऊर्जा वाले ही हैं। इसीलिए वे जागृत लोगों को अलग-थलग सा करके रखते हैं। इसीलिए जागृत लोग कई बार अक्सर विभिन्न ज्यादतियों के शिकार भी बन जाते हैं। उदाहरण के लिए, जैसे ईसामसीह बने थे।

क्या होता है कि थोड़ी सी आध्यात्मिक लक्ष्य की इच्छा भी आदमी को सफल बना देती है। छोटी सी इच्छा बेशक मामूली लगे, पर वह बीज की तरह बड़े पेड़ को जन्म देने वाली होती है। जैसे समय के साथ छोटा सा बीज भी वृद्धि करता हुआ महान वृक्ष बन जाता है, उसी तरह थोड़ा सा किया हुआ आध्यात्मिक प्रयास भी आगे चलकर बहुत बड़ी आध्यात्मिक सफलता अर्थात जागृति के रूप में वृद्धि को प्राप्त होता है। इसीलिए बच्चों में आध्यात्मिक संस्कार डालने की विशेष परम्परा रही है, ताकि वे बड़े होकर जागृति प्राप्त करें, और समाज को भी सही दिशा में ले जाएं। उदाहरण के लिए कुछ दिनों पहले मेरे बेटे ने अचानक अध्यात्मिक प्रश्नोत्तरी शुरु कर दी मेरे साथ। वैसे तो आजकल के बच्चों का ध्यान ऑनलाइन चटपटे ऑडियोवीडियो मसालों पर ही रहता है, पर उस दिन उसका दूसरा मूड बन गया था। वह पूछने लगा कि उसको पीपल को जल देने के लिए क्यों बोला जा रहा है। तो उसकी माँ ने बताया कि पीपल का पेड़ रात को भी ऑक्सीजन बनाता है, और भूतप्रेत उससे दूर रहते हैं। फिर उसने पूछा कि वह रात को कैसे ऑक्सीजन बनाता है, तो मैंने कहा कि चाँद की रौशनी में प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा। तब उसने पूछा कि उससे भूत कैसे भागते हैं, तो मैंने कहा कि प्रकाश संश्लेषण से पेड़ में ऊर्जा पैदा होती है, जिसकी तरंगों से भूत उसके निकट नहीं आते। ऊर्जा ही चेतना है, और चेतना ही भूतनाश है। कुछ तर्कवितर्क के बाद वह यह बात मान गया। फिर वह पूछता है कि क्या मैं सभी आध्यात्मिक मान्यताओं को वैज्ञानिक रूप मैं समझा सकता हूँ। तो मैंने कहा कि हाँ। फिर वह पूछता है कि जब थाली हाथ से फर्श पर गिरती है, तो उसको एकदम पकड़कर उसकी आवाज करने को बंद करने के लिए क्यों कहा जाता है। मैंने कहा कि गिरकर आवाज करने वाली थाली की आवाज की आवृत्ति लगातार धीरे-धीरे कम होती जाती है। एक आवृत्ति ऐसी आ सकती है, जो हमारे मस्तिष्क में पैदा होने वाली आवृत्ति से मेल खा सकती है। उससे अनुनाद पैदा हो सकता है, जिससे हमारे मस्तिष्क की आवृत्ति बहुत ज्यादा बढ़ सकती है। उससे रक्तचाप व तनाव बढ़ सकता है। फिर उसने पूछा कि ऐसा क्यों कहा जाता है कि उस बजती हुई थाली की आवाज भगवान तक पहुंचती है। तो उसकी माँ ने कहा कि भगवान हमारे अंदर ही है, जो दिल की गहराई में छुपा रहता है। मस्तिष्क में बहुत ज्यादा ऊर्जा के पैदा होने से उसका अहसास दिल तक महसूस होता है, मतलब भगवान तक पहुंच जाता है। मैंने भी इसका अनुमोदन किया। वह और ज्यादा प्रभावित होकर नया सवाल पूछने लगा कि तीन रोटी खाने को मना क्यों करते हैं, और तीन रोटी खा लेने के बाद आधी रोटी और खाने को क्यों कहते हैं। मैंने कहा कि विषम संख्या से हमारी नाड़ियाँ असंतुलित हो जाती हैं, पर सम संख्या से संतुलित हो जाती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मुख्य नाड़ियों की संख्या दो है, जो एक सम संख्या है। उनके नाम इड़ा और पिंगला हैं। वैसे भी विषम संख्या को ओड या अटपटा कहा जाता है। फिर वह पूछता है कि मुझे इन बातों का पता कैसे चला, तो उसकी माँ ने कहा कि इतने पुराण पढ़ने के बाद भी पता नहीं चलेगा, तो कब पता चलेगा। फिर बच्चा इधर-उधर व्यस्त हो गया। चलो, बच्चे में इतना तो संस्कार पड़ा। दरअसल संस्कार बहुत छोटा और सूक्ष्म बीज जैसा होता है, पर मन पर लगातार असर डालता रहता है, जिससे कालांतर में बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है। मन पर संस्कार पड़ते समय तो उसका पता भी नहीं चलता, जैसे सरसों के बीज का पता ही नहीं चलता। उसका प्रभाव लम्बे समय बाद ही नजर आता है, जैसे सरसों का लहलहाता खेत बिजाई के कई महीनों बाद ही दिखता है। संस्कार मौका पाते ही बढ़ने लगता है, और प्रतिकूलता में वहीँ रुक जाता है। गम्भीर योगसाधना के बिना यह कम या खत्म नहीं होता। यह ऐसे ही होता है, जैसे तनिक सूखा पड़ने पर फसल का बढ़ना रुक जाता है, पर वर्षा होने पर फसल फिर से बढ़ने लगती है। जैसे बहुत ज्यादा सूखा पड़ने पर कई बार फसल के साथ उगने वाले खरपतवार नष्ट भी हो जाते हैं, उसी तरह कुंडलिनी योगसाधना से बुरे संस्कार जल कर नष्ट भी हो जाते हैं। इसलिए हमेशा कुंडलिनी योग करना चाहिए। अनेकों पिछले जन्मों के संस्कार हमारे मन में अवचेतन मन के रूप में दबे पड़े होते हैं। उनकी सफाई कुंडलिनी योग से ही सम्भव लगती है। खास बात है कि कुंडलिनी योग से बुरे संस्कार ही नष्ट होते हैं, अच्छे संस्कार नहीं। कुंडलिनी योग से अद्वैत भाव पैदा होता है, जो एक ईश्वरीय भाव है। ईश्वरीय भाव में अच्छी चीजें ही होती हैं, बुरी नहीं। स्कूल में भी योग सहित ऐसी शिक्षा पद्धति होनी चाहिए, जिससे मन पर अच्छे और मजबूत संस्कार पड़े। 

किसी चीज को ऊंचा उठाने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता है। नीचे की ओर वह खुद जाती है। इसी तरह कुंडलिनी ऊर्जा को सहस्रार तक उठाने के लिए काफी पम्पिंग फोर्स की जरूरत पड़ती है, जो कुंडलिनी योग से हासिल की जाती है। पर वही कुंडलिनी ऊर्जा खुद ही नीचे गिरकर मूलाधार में पहुंच कर वहाँ पड़ी रहती है, क्योंकि मूलाधार सबसे ज्यादा नीचाई पर है। वैज्ञानिक बताते हैं कि जिराफ का दिल आदमी के दिल से लगभग 30 गुना बड़ा अर्थात शक्तिशाली होता है। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि जिराफ की गर्दन बहुत लम्बी होने से उसका सिर बहुत अधिक ऊंचाई पर स्थित होता है। वहाँ तक खून पहुंचाने के लिए दिल को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है, जो दिल के बड़े आकार से ही सम्भव है। तो इससे यह क्यों न माना जाए कि खून ही कुंडलिनी ऊर्जा है। हालांकि निष्कर्ष यह निकलता है कि कुंडलिनी ऊर्जा तो नाड़ी ऊर्जा ही है, पर वह रक्तप्रवाह को नियंत्रित करके अपना प्रभाव दिखाती है। कुंडलिनी ऊर्जा को सहस्रार तक चढ़ाने वाला एक नुस्खा बताता हूँ। आप स्वयं अंतरिक्ष या कहीं सूर्य, चन्द्र आदि पर स्थित हो जाओ। फिर अपने शरीर के कई सिरों वाले नाग को वहां से ऐसे देखो जो कुंडलिनी लगा कर बैठा है, और जिसने अपना फन ऊपर उठाया हुआ है, तथा अपने सबसे लंबे और केंद्रीय फन में अपनी पूँछ पकड़ी हुई है। इससे कुंडलिनी गोल लूप में घूमते हुए सहस्रार में चमकने लगेगी। इस विधि का यह लाभ है कि शरीर को कुंडलिनी ऊपर चढ़ाने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सुदूर अंतरिक्ष से देखने पर हमारा शरीर एक छोटी सी गेंद की तरह है, कोई लम्बीचौड़ी आकृति नहीं है। इससे एक मनोवैज्ञानिक सहायता मिलती है। चंद्र से याद आया कि चंद्र को पितृलोक भी कहते हैं। एकदिन मैं रात को बाहर टहल रहा था। सिर के ऊपर और थोड़ा सा आगे बहुत खूबसूरत गोल चांद था। लग रहा था मानो वह मेरे साथ चल रहा हो। उसकी तरफ ध्यान से औऱ प्यार से देखते रहने पर मुझे उसके अंदर अपने मुस्कुराते पूर्वज नजर आए। साथ में, कुंडलिनी ऊर्जा भी मेरे अंदर गोल-गोल घूमने लगी। सम्भवतः पूर्वज की सूक्ष्म व धुंधली याद को मजबूत बनानेके लिए ही कुंडलिनी ऊर्जा अपना सहयोग देने आई हो। चंद्रमा भी उस कुंडलिनी लूप का हिस्सा बन गया था, जो सहस्रार की तरह ही गोल छल्ले या लूप के सर्वोच्च शिखर के रूप में लग रहा था। वैसे तो उस समय मैं अपने तन्त्रसाथी के साथ हाथ से हाथ पकड़कर चल रहा था। यिन-यांग के इकट्ठा जुड़ने से अद्वैत व कुंडलिनी प्रकट हो जाते हैं। सम्भवतः अपने यांग को बढ़ाने के लिए ही पुरुष अपना पुरुषत्व बढ़ाने की कोशिश करते हैं। वे स्कूलों-कॉलेजों में बहादुरी या दादागिरी या स्पोर्ट्समैनशिप दिखाने की कोशिश करते हैं। इसके पीछे उनकी यही छुपी हुई मंशा होती है कि यिन अर्थात लड़की उनकी तरफ आकर्षित हो जाए। यदि ऐसा होता है तो वे अद्वैत व कुंडलिनी का महान आनन्द प्राप्त करते हैं। यदि लड़का पहले ही यिन की तरह हो, और उसकी तरफ यिन आकर्षित भी हो जाए, तब भी उतना फायदा नहीं होता। इसलिए कहते हैं कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। बहादुरी दिखाते समय जान का जोखिम तो बना ही रहता है। यही कारण है कि बॉयज होस्टल व गर्ल्ज हॉस्टल एकदूसरे के प्रति बेइंतेहा आकर्षित हुए रहते हैं। दरअसल बॉयज हॉस्टल यांग का समुद्र होता है, और गर्ल्ज होस्टल यिन का। यान-यिंग गठजोड़ में बहुत शक्ति होती है। यह ईश्वरीय शक्ति होती है। इसीलिए तो मातापिता को ईश्वर का स्वरूप माना जाता है। इस गठजोड़ को अद्वैत, और आनन्द इसलिए प्रदान किया गया है, ताकि जीव अपनी संतान का अच्छे से पालन पोषण कर सके। अद्वैत से प्रेम व परोपकार की भावना पैदा होती है। इसीलिए मातापिता को अपनी संतान ही सबसे प्रिय लगती है। यदि यिन-यांग गठजोड़ में ये अद्वैत या कुंडलिनी शक्ति न हुआ करती, तो मांबाप अपनी संतान की उपेक्षा करते, जिससे सृष्टि का विस्तार असम्भव सा हो जाता। ईश्वर में यह अद्वैत भाव चरमावस्था में होता है, इसीलिए वह किसी भी जीव से वैरविरोध न करके सबको सुखपूर्वक जीने के भरपूर अवसर देता है। इसलिए सभी जीवों को ईश्वर की संतान कहा जाता है। वैसे तो यिन-यांग गठजोड़ को ईश्वर ने संतान के लिए बनाया है, पर आध्यात्मिक वैज्ञानिकों ने इसका प्रयोग कुंडलिनी जागरण के लिए किया। यही फिर तन्त्र बन गया। कमजोर राजा ताकतवर राजा से दोस्ती बढ़ाने के लिए उसे या उसके पुत्र को अपनी बेटी का हाथ दे दिया करता था। इससे स्वाभाविक है कि यिन-यांग गठजोड़ के कारण दोनों के बीच मैत्री बढ़ जाया करती थी। आज भी अक्सर इसका उपयोग लोग अपने सामाजिक उत्थान के लिए करते रहते हैं। इतिहास गवाह है कि औरत ने कैसे समय-समय पर अपना जलवा दिखाया है। महाभारत का युद्ध एक औरत के गुस्से से हुआ था। उसने अपने बालों को तब तक न बांधने का निर्णय लिया था, जब तक वह कौरवपुत्रों के खून से अपने बालों को न धो लेती। मतलब कि उसने अपनी यिन शक्ति को अलग रखा, और यांग के साथ उसका पूरा गठजोड़ नहीं होने दिया। इससे उसके पति वीर पांडव हमेशा युद्धपिपासु बने रहे। यदि वह अपने यिन को इस तरह अपने बालों तक सीमित करके न रखती, तो वह जरूर यांग के साथ मिश्रित हो जाती, जिससे उसके पतियों में शांतिपरक ईश्वरीय गुण आ जाते, जिससे सम्भवतः युद्ध टल जाता। वैसे तो इस कथा के बहुत से कारण और पक्ष हैं, पर मैं केवल एक पक्ष को सामने रखकर अपना मन्तव्य स्पष्ट कर रहा हूँ। वैसे इस देवी शक्ति का दुरुपयोग भी बहुत होता है। उदाहरण के लिए दुष्ट राष्ट्रों के द्वारा सेनानायकों को बहलाने-फुसलाने के लिए औरतों को भेजा जाता है। सुनने में आया है कि पाकिस्तान भी आजकल अपने दुश्मन राष्ट्रों के खिलाफ कुछ ऐसा ही कर रहा है। आज अगर पुतिन, बाइडेन, जिनपिंग और यूक्रेन राष्ट्र प्रमुख जेलेन्स्की के मन में ऐसा यिन-यांग गठजोड़ बन जाए, तो दुनिया विनाशकारी युद्ध से बच सकती है। मैं इसके बारे में गहनता से न जाता हुआ यही कौमन सेंस की बात कहता हूं कि यदि सामने हार या हानि दिख रही हो तो युद्ध से भागना भी एक युद्धनीति है, कायरता नहीं। और ये भी सभी जानते हैं कि युद्ध चाहे कैसा ही क्यों न हो, उसमें कुछ न कुछ हानि होना तो निश्चित ही है। मैंने इशारों में ही बहुत कुछ कह दिया है। समझदार के लिए तो इशारा ही काफी है। मैं पिछले कुछ दिनों कामकाज में काफी व्यस्त रहा। यदि यह पता होता कि मेरे लिखने से युद्ध रुक सकता है, तो सब काम छोड़कर लिखने ही बैठता। अब पोस्ट के मुख्य विषय पर आते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि एक औरत में बहुत शक्ति होती है। उसके आगे बड़ी-बड़ी सेनाएँ और बड़े-बड़े राष्ट्र घुटने टेक देते हैं। औरत एक देवी होती है। पर वह तब न, अगर औरत समझे। आज तो वह इस रहस्यमयी तंत्रविद्या को भूली हुई सी लगती है। सूर्य यांग है, उसको चढ़ाया जाने वाला अर्घ्य का जल यिन है। इसीलिए कहते हैं कि सूर्य की तरफ ऊँचाई से जल डालना चाहिए, ताकि सूर्य और जल एकसाथ नजर आए। सबसे बढ़िया तब माना जाता है अगर जल की धारा के बीच में से सूर्य दिखे। इससे यिन और यांग सबसे अच्छी तरह मिश्रित हो जाते हैं, जिससे कुंडलिनी-अद्वैत पैदा होता है। हाथी यिन है, औऱ आदमी यांग। दोनों के मिश्रण का नाम भगवान गणेश है। इसी तरह बन्दर यिन है, और आदमी यांग। दोनों का मिश्रण मंकीगोड हनुमान जी हैं। इसीलिए इन दोनों देवताओं की आराधना से अद्वैत व कुंडलिनी का अनुभव बड़ी तेजी से होता है। भगवान शिव के माथे पर त्रिपुंड व तीसरी आंख के चिन्ह होते हैं। त्रिपुंड चंदन आदि से बनाई तीन समानांतर रेखाएं हैं, और तीसरी आंख चन्दन से लगाया गया दीप ज्योति के आकार का तिलक है। त्रिपुंड का मतलब प्रकृति के तीन गुण हैं, सत्त्व, रज और तम। तीसरी आंख कुंडलिनी जागरण को दर्शाती है। इसका मतलब है कि दुनियादारी में तरक्की कर लेने के बाद ही कुण्डलिनी जागरण की अनुभूति होती है, दुनिया को छोड़कर नहीं। नहाने के बाद गीले शरीर को तौलिये से एकदम साफ न करके उसका पानी खुद निचुड़ने देने के लिए कहा जाता है। दरअसल इससे शरीर में ठंडक पैदा होती है, जिससे मांसपेशियों में सिकुड़न पैदा होती है। पीठ की मांसपेशियों से होते हुए यह सिकुड़न ऊपर चढ़ती है, और आगे के शरीर से नीचे उतरती है। इस सिकुड़न के साथ कुंडलिनी भी शरीर में बहुत अच्छे तरीके से घूमती है। इसी तरह मन्दिर आदि में या आध्यात्मिक पर्व पर भोग या भोजन आदि खाने को इसलिए दिया जाता है, क्योंकि मुंह के अंदर की ऊपर की और नीचे की सतहें आपस में मिल जाती हैं, जिससे कुंडलिनी स्विच के ऑन होने से कुंडलिनी परिपथ पूर्ण हो जाता है, जिससे कुंडलिनी घूमने लगती है। इन सब बातों का मतलब यह है कि हिंदु शास्त्रों व पुराणों की हरेक बात वैज्ञानिक व आध्यात्मिक रूप से एकदम खरी उतरती है, तथा कुंडलिनी पर आधारित है। कई लोग ऐसी बातों को अंधविश्वास कहते हैं। पर यह उनके देखने का नजरिया है, जिससे उन्हें ऐसा लगता है। वे उन्हें स्थूल आँखों से भौतिक रूप में देखना चाहते हैं, पर वे मन की आंखों से देखने पर ही सूक्ष्म रूप में नजर आती हैं। कुंडलिनी भी मन की आँखों से ही दिखती है, स्थूल आँखों से नहीं। इसीलिए कुंडलिनी के दिखाई देने को तीसरी आँख का खुलना भी कहा जाता है। यह तीसरी आँख मन की आँख ही है। इसका मतलब है कि सारे धर्म विशेषकर हिंदु धर्म पूरी तरह से कुंडलिनी पर ही आश्रित है, क्योंकि इसमें बताई गई अधिकांश चीजें मन की आँखों से ही दिखती हैं, भौतिक आँखों से नहीं। पुराणों की रूपक कथाएं भी तब तक समझ नहीं आतीं, जबतक उनके बारे में गहन सोचविचार न किया जाए। इससे मन की आंखें खुलती हैं। और जहाँ मन की आँख है, वहाँ तो कुंडलिनी होगी ही। मुझे तो यहाँ तक लगता है कि पुराणों में लिखे गए भौतिक पूजापाठ औऱ कर्मकांड के विधान भी किन्हीं मानसिक या शारीरिक प्रणालियों को रूपक के रूप में अभिव्यक्त करते हैं, वास्तविक भौतिक व स्थूल क्रियाओं को नहीं। पर लोगों ने उन्हें भौतिक रूपों में समझा, और उनका भौतिक प्रचलन शुरु हुआ। निम्न श्रेणी के लोगों को इससे फायदा भी हुआ, क्योंकि वे उनके सहारे ऊंचे कुंडलिनी योग तक आसानी से पहुंच गए। पर उच्च वर्ग के बुद्धिजीवियों को इससे नुकसान भी हुआ होगा, क्योंकि वे पूरी उम्र इन्हीं में उलझे रहे होंगे, और कुंडलिनी योग का असली प्रयास नहीं कर पाए होंगे, जिसके वे असली हकदार थे। इसका मतलब है कि रूपकों का यथार्थ विश्लेषण भी जरूरी है आजकल। आजकल अधिकांश लोग बुद्धिजीवी और सम्पन्न हैं। उनके पास पर्याप्त समय औऱ संसाधन हैं कि वे आराम से मनोलोक की सैर कर सकें। फिर यह लोगों की योग्यता और पसंद पर निर्भर है कि क्या वे पौराणिक बातों को भौतिक रूप में अपनाएं, या सूक्ष्म आध्यात्मिक रूप में। उदाहरण के लिए यज्ञ का मतलब चक्र पर साँसों की सहायता से कुंडलिनी ध्यान है। यज्ञ की वायु साँसों का प्रतीक है, यज्ञकुंड चक्र का, और उसमें धधक रही अग्नि कुंडलिनी का। लोगों ने उसे भौतिक समझकर भौतिक यज्ञ-हवन का प्रचलन शुरु कर दिया। हजारों किलोग्राम देसी घी, तिल आदि यज्ञ की बलि चढ़ने लगा। यहाँ किसी प्रथा की आलोचना नहीं हो रही है, अपितु तथ्यात्मक वर्णन हो रहा है। यज्ञ की कीमती सामग्रियां बहुत अल्प मात्रा में मात्र धार्मिक औपचारिकता को पूरा करने के लिए डाली जा सकती हैं। आज जनसंख्या विस्फोट के कारण ही ऐसी बात होती है, पहले ऐसा नहीं होता था। उस समय ऐसी कोई खाद्य पदार्थों की समस्या नहीं थी, क्योंकि जनसंख्या कम थी, और अर्थव्यवस्था कृषिप्रधान होती थी। वैसे यज्ञ से लाभ बहुत मिलता है। मैं जब यज्ञ करता हूँ, तो मुझे अपनी कुंडलिनी बहुत तेज चमकती हुई महसूस होती है, यज्ञकुंड की अग्नि के रूप में। सम्भवतः वही कुंडलिनी यज्ञ देवता है, या भगवान विष्णु है, या अग्निदेवता है, जो यज्ञ का फल प्रदान करता है। भगवान विष्णु लोकपालक है, कुंडलिनी भी लोकपालक है। दोनों ही अद्वैत भाव की सहायता से सभी लोकों का पालन करते हैं। जैसा कि मैंने ऊपर समझाया है। इसलिए शास्त्रों में भगवान विष्णु अर्थात कुंडलिनी को यज्ञ का भोक्ता अर्थात कुंडलिनी योग का लाभार्थी कहा जाता है। यज्ञ से माइक्रोकोस्मिक ऑर्बिट में भी वह शानदार ढंग से घूमती है। कईयों के मन में प्रश्न उठता होगा कि अद्वैत भाव के दौरान कुंडलिनी मन में क्यों प्रकट होने लगती है। हो सकता है कि मैंने इसको पहले भी स्पष्ट किया होगा, क्योंकि मैं इतना ज्यादा लिखता हूँ कि मुझे भी कई बार याद नहीं रहता कि क्या लिख दिया है, और क्या नहीं। दरअसल असली अद्वैत भाव के दौरान मस्तिष्क के सहस्रार में बहुत ऊर्जा होती है, पर सबकुछ एकजैसा लगने के कारण उससे मन में कोई विशेष चित्र या विचार नहीं बनता। इसलिए उपलब्ध ऊर्जा का लाभ उठाने के लिए सबसे प्रिय या सबसे अभ्यस्त चित्र अर्थात कुंडलिनी चित्र अनायास ही मन में प्रकट होने लगता है। वस्तुओं को भेदभाव से अनुभव करने वाला आज्ञा चक्र है। इसीलिए कहते हैं कि जब जागरण की झलक या तीव्र अद्वैतभावना खत्म हो जाती है, तो कुंडलिनी ऊर्जा सहस्रार से आज्ञा चक्र को उतर जाती है। यिन-यांग की एकजुटता के समय मूलाधार चक्र क्रियाशील हो जाता है, क्योंकि उससे यौन क्रीड़ा का स्मरण हो आता है। मूलाधार और सहस्रार चक्र आपस में सीधे जुड़े होते हैं, इसलिए मूलाधार में ऊर्जा बढ़ने से सहस्रार में खुद ही ऊर्जा बढ़ने लगती है। जैसे सहस्रार में ऊर्जा जाने से कुंडलिनी का ध्यान खुद होने लगता है, उसी तरह कुंडलिनी चित्र के ध्यान से सहस्रार में खुद ही ऊर्जा बढ़ने लगती है, क्योंकि हरेक अनुभूति सहस्रार में ही होती है, पर आदमी के मानसिक ऊर्जा स्तर के अनुसार विभिन्न चक्रों पर प्रेषित कर दी जाती है। यही कुंडलिनी योग का सिद्धांत भी है। क्योंकि कुंडलिनी मस्तिष्क की ऊर्जा को खाने लगती है, इसलिए मस्तिष्क की ऊर्जा को पूरा करने के लिए खुद ही मूलाधार से ऊर्जा ऊपर चढ़ने लगती है। वह ऊर्जा सहस्रार को ही जाती है, आज्ञा चक्र को नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि एकमात्र या एकाकी कुंडलिनी का ध्यान अद्वैत का प्रतीक है। अद्वैत का शाब्दिक अर्थ भी एक ही होता है। मन्दिर आदि में कुंडलिनी सहस्रार में रहती है, क्योंकि वहाँ अद्वैतमयी वातावरण होता है। पर यदि मन में दुनियादारी के रंगबिरंगे चित्रों की भरमार हो, तब भी मस्तिष्क को ऊर्जा देने वाला तो मूलाधार ही है, पर तब वह ऊर्जा सहस्रार को न जाकर आज्ञा चक्र को जाती है। मूलाधार और आज्ञा चक्र भी आपस में सीधे जुड़े हुए होते हैं। अद्वैतभाव के ध्यान से ऊर्जा सीधा सहस्रार अर्थात कुंडलिनी को जाती है, पर द्वैतभाव के ध्यान से आज्ञा चक्र को जाती है। इसीलिए तीखा व चालाकी से सोचने वाले लोग आंखों को भींचते जैसे रहते हैं, क्योंकि आज्ञाचक्र आँखों के बीच में बताया जाता है। अब यदि नशे या हिंसक आचरण से या अनुचित मांसाहार से या थकान आदि से मस्तिष्क में ऊर्जा की कमी हो, तब भी अद्वैत जैसा महसूस होता है, क्योंकि मन में कोई विचार नहीं बन रहे होते हैं। अवसाद या अंधेरा जैसा महसूस होता है। इसमें कुंडलिनी को देने के लिए ऊर्जा नहीं होती, इसलिए प्रयास करने पर कुंडलिनी चित्र मन में तो आ सकता है, पर बहुत कम चमक या ऊर्जा के साथ। इसलिए वह नीचे के कम ऊर्जा वाले चक्रों को चला जाता है। इसे ही हम कहते हैं कि बुरे काम से आदमी का पतन हो गया। हालाँकि योगसाधना के अभ्यास से वह जल्दी ही ऊपर उठने लगती है, और कुछ दिनों में सहस्रार में पहुंच जाती है। इस बार वह वहाँ पहले से भी ज्यादा चमकती है। यह ऐसे ही है जैसे कोई कूदने का बारबार अभ्यास करके बहुत ऊंचा कूदने लगता है। इसको कहते हैं कि फलां आदमी फिर ऊपर उठ गया है। दुनियादारी में यह उठने-गिरने का खेल लगातार चलता रहता है। सम्भवतः पँचमकारों वाले तांत्रिक योग का मूल सिद्धांत भी कुंडलिनी की यही उछलकूद है। बीच-बीच में भिन्न-भिन्न लोगों में कुंडलिनी का यह अस्थायी चढ़ना-उतरना चलता रहता है। पर एक अधिक स्थायी तौर का समष्टि कुंडलिनी-गमन भी होता है। इसमें एक समाज के सभी लोगों की कुंडलिनी एकसाथ चलकर किसी चक्र पर स्थित हो जाती है, और फिर वहां लम्बे समय तक बनी रहती है। उदाहरण के लिए, भौतिक व सामाजिक सुख सुविधाओं के विकास के दौरान लोगों की सामूहिक कुंडलिनी आज्ञाचक्र पर होती है। विकास का चरम छू लेने के बाद भी कुछ समय वहाँ बनी रहती है, और फिर सहस्रार को जाने लगती है। इस दौर में बहुत से लोगों को जागृति मिलने लगती है, और लोगों की रुचि भौतिक विज्ञान से हटकर आध्यात्मिक विज्ञान की तरफ स्थानांतरित होने लगती है। लोग देवता, प्रकृति और ईश्वर के प्रति वफादार होने लगते हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाली अति भौतिकता नष्ट होने लगती है। लोगों को यह आधुनिक व्यवस्था का पतन लगता है। अक्सर कहा भी जाता है कि विकास का दौर पूरा होने के बाद पतन का दौर शुरु होता है। पर यह पतन नहीं बल्कि व्यवस्था का आध्यात्मिक रूपांतरण हो रहा होता है। इसको ठीक से न समझने से ही इसके प्रति असहनशीलता से युद्ध, लूटपाट आदि घटनाएँ हो सकती हैं, यह अलग बात है। पर यदि इस रूपांतरण को ढंग से संभाला जाए, तो असली आध्यात्मिक विकास का युग यहीं से प्रारंभ होता है। इसीको युग परिवर्तन कहते हैं, जैसे कि कलियुग के बाद सतयुग का आना। मुझे लगता है कि विश्व आज इसी सामूहिक रूपांतरण के दौर से गुजर रहा है। यदि अकेले आदमी के रूपांतरण को ढंग से न संभाला जाए, तो वह अवसाद में जाकर कुछ भी गलत कदम उठा सकता है। इसी तरह, यदि पूरे विश्व या उसके अंतर्गत किसी देश या समाज के रूपांतरण को ढंग से न संभाला जाए, वह भी सामूहिक अवसाद में जाकर युद्धादि के रूप में कुछ भी गलत कदम उठा सकता है। वैसे आजकल देश आदि छोटे समाज के भी बहुत ज्यादा मायने हैं, क्योंकि दुनिया के सभी देश एकदूसरे पर निर्भर होने से एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। एक देश की हलचल पूरे विश्व में उथलपुथल मचा सकती है। विश्व आज उच्चतर आत्मजागृति की ओर रूपांतरित हो रहा है। यह रूपांतरण अच्छी तरह से निर्देशित और सुखद रप्तार से होना चाहिए, एकदम या झटके से नहीं। इसलिए इस रूपांतरण के जोखिम भरे दौर में अधिक से अधिक आध्यात्मिक लेखकों की जरूरत है, जो पूरी दुनिया को वैज्ञानिक ढंग से अध्यात्म समझाए, क्योंकि आज के लोगों की सोच वैज्ञानिक है, और उन्हें वैज्ञानिक ढंग से ही कुछ समझाया जा सकता है।

कुण्डलिनी ही माता पार्वती है, जीवात्मा ही भगवान शिव है, और कुण्डलिनी जागरण ही शिवविवाह है

दोस्तो, पिछली पोस्ट में इस सर्वविदित सिद्धांत की पुष्टि की गई थी कि दरअसल कुंडलिनी विकास को ही जीवविकास की संज्ञा दी गई है। कुंडलिनी मूलाधार में जन्म लेती है, विभिन्न स्थानों पर बढ़ती है, और अंत में सहस्रार में जागृत हो जाती है। इसे ही शिवविवाह कहते हैं। जैसे उच्च कोटि के गृह में विवाह के बाद प्रेमी युगल विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करता है, वैसे ही आत्मा-कुंडलिनी का जोड़ा सहस्रार में विवाहित होकर विभिन्न चक्रों पर भ्रमण करता रहता है। इसे ही शास्त्रों में ऋषियों का विभिन्न लोकों में भ्रमण बताया गया है। दरअसल वे लोक विभिन्न चक्रों के रूप में ही हैं। आज हम इस पर चर्चा करेंगे।

कुंडलिनी ही पार्वती है

अहंकार ही राजा दक्ष है। उसकी बेटी सती ही कुंडलिनी है। अहंकार से ही आदमी दुनियादारी में कामयाब होता है। उसी से एक स्थिर चित्र का निर्माण होता है, जो कुंडलिनी है। अहंकार रूपी दक्ष नहीं चाहता कि उसकी पुत्री कुंडलिनी भूतिया शिव के पीछे भागकर उसकी दुनियादारी को नुकसान पहुंचाए। अंत में वह हार जाता है और सती शिव को प्राप्त करने के लिए कुंडलिनी योग रूपी तप करती है। वह उसकी इच्छा के विरुद्ध जाकर शिव से विवाह कर लेती है मतलब कुंडलिनी जाग जाती है। अहंकार काफी कम हो जाता है पर मरता नहीं। वह कुंडलिनी को शिव से दूर करके अपने झमेले में फंसा लेता है। जब कुंडलिनी को यह भान होता है तब तक उसकी उमर पूरी हो चुकी होती है। गुस्से में शिव के द्वारा दक्ष का सिर काटकर बकरे का सिर लगाने का अर्थ है कि अहंकार शरीर के साथ भी नहीं मरता, अपितु कुछ क्षीण जरूर हो जाता है। अगले जन्म में कुंडलिनी रूपी सती पार्वती के रूप में पर्वत राज के घर पैदा होती है। वह शिव की प्राप्ति के लिए फिर तप करती है। कुंडलिनी अपना अभियान अगले जन्म में फिर से शुरु कर देती है। मैटाफोरिक कथा में इसका मतलब है कि उस कुंडलिनी को धारण करने वाला योगी अपने अगले जन्म में अपने अंतिम लक्ष्य की पूर्ति के लिए हिमालय में योगसाधना करने चला जाता है। वहाँ इंद्र अपनी गद्दी खो जाने के डर से कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने के लिए भेजता है। शिव उसे अपनी दृष्टि से जला देते हैं। यहाँ शिव, योगी की सुप्त अंतरात्मा हैं। कामदेव दुनिया की रंगरलियों का रूपक है। यदि योगी की कुंडलिनी उसकी आत्मा से मिलन को उत्सुक हो, तो दुनिया की रंगरलियां आत्मा का अहित नहीँ कर सकतीं, बल्कि खुद ही क्षीण हो जाती हैं। पार्वती के माता-पिता प्रारंभ में पार्वती को शिव से विवाह से रोकते हैं। दरअसल मन-बुद्धि ही पार्वती के माता पिता के प्रतीक हैं। कुंडलिनी की उत्पत्ति उन्हीं से होती है। वे कुंडलिनी से दुनियादारी की उपलब्धियों की ही अपेक्षा रखते हैं, उसे ईश्वर की प्राप्ति के लिए तप आदि प्रयास नहीं करने देना चाहते। शिव भी पार्वती को हतोत्साहित करने के लिए उसे घटिया भेष में मिलकर शिव की बुराइयां सुनाते हैं। दरअसल वह अज्ञान से ढकी प्रारंभिक योगी की आत्मा ही है जो भगवान के बारे में भ्रम पैदा करती रहती है। पर पार्वती तप में लगी रहती है। अंत में शिव प्रसन्न होकर उससे विवाह कर लेते हैं, मतलब कुंडलिनी जागरण हो जाता है। फिर पार्वती कैलाश को चली जाती है, मतलब कुंडलिनी सहस्रार में बस जाती है। उसके कार्तिकेय बेटा पैदा होता है। वह दिव्य सेना का अधिपति है। उसके बेटा गणेश भी जन्म लेता है, जो समस्याओं से बचाता है, और विघ्नों को हरता है। वास्तव में ये सभी काम जागृत कुंडलिनी के ही हैं। दिव्य सेना यहाँ शरीर की इन्द्रियों की प्रतीक है। शिवपुराण की मिथक कथा में शिव को भूत की तरह दिखाया गया है, जिसके प्रति पार्वती आकर्षित होती है। उसके माँ बाप उसे रोकते हैं। दरअसल अज्ञान से ढकी आत्मा ही शिव है, जो बाहर से अंधेरे भूत की तरह लगती है। पर असल में अंदर से वह प्रकाशरूप ही होती है। अहंकार और बुद्धि ही पार्वती रूपी कुण्डलिनी के माँ-बाप हैं। ये उसे शिव की ओर जाने से रोकते हैं।कालिदास के कुमारसम्भव के अनुसार पार्वती शिव को गुफा के वीराने से गृहस्थ जीवन की मुख्य धारा में लाना चाहती है। कुण्डलिनी भी इसी तरह से अज्ञाननिद्रा में डूबी आत्मा को जगाना चाहती है। साथ में लिखा है कि कामदेव के भस्म होने से सृष्टि व्यवस्था थम सी गई थी। फिर पार्वती ने शिव से विवाह किया और उनसे कामदेव को पुनर्जीवित करवाया। फिर सृष्टि की प्रक्रिया पुनः प्रारंभ हो गई। जब तक तीव्र कुंडलिनी योगसाधना चली होती है, तब तक योगी दुनियादारी से दूरी सी बना कर रखता है। कुण्डलिनी जागरण के बाद उसका मन पुनः दुनिया में रम जाने का करता है, यद्यपि ज्ञान के साथ। इसे ही कामदेव का पुनर्जन्म कहा गया है।देवीभागवत पुराण के अनुसार, पर्वत राज हिमालय और उसकी पत्नी मैना भगवती आदि पराशक्ति को प्रसन्न करती है। वही पार्वती के रूप में उनकी बेटी बन जाती है। वास्तव में अज्ञान से ढकी आत्मा ही पर्वत राज हिमालय है, और बुद्धि मैना है। जब दोनों अच्छे सांसारिक कर्मों से व मानवता से शक्ति को प्रसन्न करते हैं तो वह कुंडलिनी के रूप में उनके शरीर में स्थायी रूप से बस जाती है। 
पार्वती अपने लास्य नृत्य से शिव को शांत करती हैं, जब वे विनाशकारी तांडव नृत्य करते हैं। असल में अज्ञान से भरी हुई जीवात्मा अशांत व भटकी हुई होती है। वह बहुत से गलत काम करती है। कुंडलिनी ही उसे प्रकाश प्रदान करके सन्मार्ग दिखाती है।
शाक्त के अनुसार, शिव पार्वती के घर पर निवास करते हैं। यहाँ पार्वती को मुख्य और शिव को गौण माना गया है। उनके आपसी विवाद से शिव नाराज होकर घर छोड़कर जाने लगते हैं। तब पार्वती दशमहाविद्याओं को उतपन्न करके उनसे शिव के भागने का हरेक द्वार बंद करवाती है, और शिव को जाने से रोकती है। दरअसल सहस्रार के सिवाय विभिन्न चक्र विशेषकर मूलाधार कुंडलिनी का घर है। वहाँ उसका प्रभुत्व रहता है। वहाँ जीवात्मा ज्यादा सहज नहीं रहता। किसी कारणवश कुंडलिनी के शिथिल पड़ने से वह वहाँ से भागने लगता है। फिर कुण्डलिनी पंचमकारों और उनसे उत्पन्न पाँच वीभत्स भावों का आश्रय लेती है। इससे वह बहुत मजबूत होकर जीवात्मा को जाने से रोकती है। क्योंकि जहाँ कुंडलिनी है, वहाँ जीवात्मा है। उसके भागने के लिए कहे गए विभिन्न मार्ग कुंडलिनी चक्र ही हैं। कई स्थानों पर कुंडलिनी चक्रों की संख्या दस भी बताई गई है।एक मिथक के अनुसार, पार्वती नहा रही होती है। उसने अपने बेटे गणेश को दरवाजे पर पहरेदार के बतौर रखा होता है। गणेश शिव को भी अंदर नहीँ जाने देते। शिव नाराज होकर उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। इससे पार्वती शिव से बहुत नाराज होती है। फिर उसे प्रसन्न करने के लिए शिव गणेश को हाथी का सिर लगाते हैं। दरअसल, कुंडलिनी चाहती है कि शरीर में उसका सबसे अधिक प्रभुत्व रहे। गणेश इन्द्रियों का नायक है। वह दुनिया की फालतू चीजों को कुंडलिनी का प्रभुत्व नष्ट करने से रोकता है। वह बाहर से आए भगवानों को भी ऐसा करने से रोकता है। इससे बाहरी धार्मिक संगठन नाराज होकर उसे सजा देते हैं। पर उन्हें कुण्डलिनी की शक्ति के आगे झुककर उसे छोड़ना पड़ता है। यद्यपि वह दुनिया के द्वारा की गई उपेक्षा से काफी क्षीण हो जाता है। शाक्त पंथ में यह भी आता है कि शक्ति के बिना शिव एक शव है। यह सत्य ही है क्योंकि कुंडलिनी के संयोग के बिना जीवात्मा अचेतन और अंधकार से भरा हुआ होता है। जब सहस्रार में उसका कुंडलिनी से विवाह होता है, तभी वह शिव बनता है। उपरोक्त सभी तथ्यों से जाहिर है कि कुंडलिनी योग ही शिव व पार्वती से जुड़ी मिथक कथाओं के मूल में है।

कुंडलिनी के लिए ही भगवान शिव काशी में पार्वती के साथ विहार करने के लिए सभी जिम्मेदारियों से मुक्त बने रहते हैं

सभी मित्रों को पावन शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं

मित्रो, मैंने पिछली पोस्टों में बताया था कि भगवान शिव मस्त-मलंग तांत्रिक की तरह रहते हैं। उनके पास कुछ अति जरूरी चीजों के सिवाय कुछ अतिरिक्त नहीं रहता। उनमें से माता पार्वती भी एक हैं, जिनके साथ वे काशी में स्वच्छन्द रूप से विचरण करते रहते हैं। 

तंत्रसिद्धि के लिए दुनियादारी के झंझटों से दूर रहना जरूरी है

शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव ने दुनियादारी के झमेले से दूर रहने के लिए भगवान विष्णु की उत्पत्ति की। उन्होंने उन्हें दुनिया के पालन और रक्षण की जिम्मेदारियां सौंपी। स्वयं वे पार्वती के साथ सुखपूर्वक योगसाधना करने के लिए काशी में विहार करने लगे। कहते हैं कि वे आज भी वहाँ विचरण करते रहते हैं।

प्रेमयोगी वज्र का एकांत-विहार का अपना निजी अनुभव

प्रेमयोगी वज्र भी भगवान शिव की तरह दुनियादारी के झमेले में फंसा हुआ था। उसने लगभग 20 वर्षों तक कठिन परिश्रम किया, और विकास के अनेक कारनामे स्थापित किए। हालाँकि उसका रुझान तांत्रिक जीवन की तरफ भी रहता था। इससे वह अद्वैत भाव में स्थित रह पाता था। उससे वह थकान महसूस करने लगता था। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि अद्वैत भाव या कुण्डलिनी को बनाए रखने के लिए भी कुछ अतिरिक्त शक्ति खर्च होती रहती है। शक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं, भगवान भी नहीं। तभी तो शक्ति को शिव का अभिन्न हिस्सा समझा जाता है। हालांकि कभी-कभार के तांत्रिक खान-पान व रहन-सहन से उस शक्ति की आपूर्ति आसानी से हो जाती थी। आग उसे भी जलाती है, जो उसके बारे में जानता है; और उसे भी उतना ही जलाती है, जो उसके बारे में नहीं जानता। इसी तरह दुनियादारी के झंझट सभी के अंदर2अज्ञान का अंधेरा पैदा कर देते हैं। यह अलग बात है कि अद्वैतयुक्त ज्ञानी में वह अंधेरा कम घना होता है। यह ऐसे ही है जैसे आग के बारे में जानने वाला आदमी उससे बचने का प्रयास करता है, जिससे वह कम जलन प्राप्त करता है। उसी दौरान किसी अचिंत्य परिस्थिति के कारण उसका शिव के प्रति प्रेम जागा था। फिर वैसी ही दिव्य परिस्थितियों के कारण उसे घर से अति दूर सपरिवार एकांत से भरे  स्थान में रहने का अवसर मिला। उससे वह पुराना जीवन लगभग भूल सा गया। एक प्रकार से भगवान शिव ने उसे अपनी तरह दुनियादारी के झंझटों से मुक्त कर दिया। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि जो दुनिया में उलझा हो, उसे ही त्याग का फल मिलता है। जो पहले से ही सोया हुआ हो, उसे सो कर कोई लाभ नहीं मिलता। तभी तो शिवपुराण में लिखा है कि दुनियादारी के झंझटों को संभालने के लिए शिव ने विष्णु को नियुक्त किया और स्वयं संसार को त्याग कर काशी चले गए। एक अधिकारी अपने मातहत को उन्हीं जिम्मेदारियों को सौंप सकता है, जिनके बारे में वह खुद बखूबी जानता हो और जिन्हें निभाने का उसे लंबा अनुभव हो। यदि भगवान शिव ने दुनिया को लम्बे समय तक न चलाया होता, तो वे विष्णु को अपनी जगह पर कैसे प्रतिनियुक्त कर पाते। जो दुनिया को पुरजोर तरीक़ेसे नहीं स्वीकारते, उन्हें दुनिया के त्याग का फल भी नहीं मिलता। इसलिए जब तक दुनिया में रहो, पूरी तरह डूब के रहो, पर होश संभाल कर रखो। आज विज्ञान भी इस बात को स्वीकारता है कि जब मन की चेतनायुक्त क्रियाशीलता एकदम से 50 प्रतिशत से ज्यादा गिर जाए, तब आत्मजागृति की संभावना काफी बढ़ जाती है। इसीलिए पुराने समय में राजा लोग एकदम से राज्य का त्याग करके तप के लिए वनवास को चले जाया करते थे। चार आश्रम भी इसीलिए बने थे। गृहस्थ आश्रम के झमेले को निभा कर आदमी एकांत में स्थित वानप्रस्थ आश्रम जाया करते थे, जहाँ उन्हें बहुत शान्ति मिलती थी। उस एकांत में प्रेमयोगी वज्र शिव की तरह ही पूर्ण तंत्रमयी जीवन बिताते हुए अपने तांत्रिक साथी के साथ मनोरम व धार्मिक स्थानों पर विहार करने लगा। उससे उसकी कुण्डलिनी क्रियाशील हो गई, और दो वर्षों के अंदर ही जागृत हो गई।

शिव के के द्वारा भाँग का सेवन 

भगवान शिव के बेफिक्री, मस्ती, आनन्दपूर्णता, अद्वैत व भोलेपन आदि गुणों को ही उनके द्वारा भाँग का नशा किए जाने के रूप में दिखाया गया है। लोग इन्हीं गुणों की प्राप्ति के लिए ही नशा करते हैं। पर ज्यादातर लोग सफल नहीं हो पाते, क्योंकि ये गुण आत्मा के आश्रित हैं, नशे के नहीं। यदि तांत्रिक विधि से व गुरु की देखरेख में हल्का नशा किया जाए, तो वह इन गुणों की झलक दिखाकर इनकी स्थायी प्राप्ति के लिए प्रेरित कर सकता है। इन गुणों की वास्तविक व स्थायी प्राप्ति तो आत्मबल से ही सम्भव है।

भगवान शिव के ऊपर दुग्ध व भाँग मिश्रित जल चढ़ाने के पीछे छिपा आध्यात्मिक मनोवैज्ञानिक रहस्य

मैं आज सुबह सपरिवार एक शिवमंदिर घूम कर आया। पैदल ही 4 किलोमीटर का सफर तय किया। मौसम बड़ा सुहाना था। चारों ओर प्रकृति की छटा बिखरी हुई थी। आम के पीले पुष्प गुच्छों पर भौंरे गुंजायमान हो रहे थे। लोगबाग मंदिर आ-जा रहे थे। रास्ते में कुछ पिल्ले हमारे साथ-साथ चलने लगे, फिर कुछ सूंघ कर रुक गए और इधर-उधर देखने लगे। कुछ पुराने और बड़े पेडों पर लताएँ ऐसे घनीभूत होकर लिपटी हुई थीं, जैसे कि कोई प्रियतमा अपने प्रेमी से या माता अपने शिशु से अपना लगाव दिखा रही हो। एक सूखा पेड़ आधा नीचे झुका हुआ था, और एक जिंदगी से थक कर झुके एक बूढ़े इंसान की तरह लग रहा था। वास्तव में अधिकांश समय हम देखकर भी कुछ नहीं देखते। उस रास्ते से मैं कई बार गुजरा हूँ, पर ये चीजें मुझे पहली बार नजर आईं। इसलिए आँखों के साथ दिमाग और मन भी खुले रखने चाहिए। मंदिर से आते हुए रास्ते से कुछ भाँग के पत्ते भी तोड़कर साथ ले आया। घर में उनको करीब 20 मिनट तक शिव के मंत्र के जाप के साथ बारीक पीस। फिर उसे थोड़े पानी, उतने ही दूध और कुछ शहद के साथ मिश्रित किया। उस घोल को मैं लगभ 25 मिनट तक शिव मन्त्र के जाप के साथ फैंटता रह। फिर उस घोल को छान कर साफ किया। उस से थोड़ा सा घोल लेकर मैं पास के दूसरे मंदिर सपत्नीक चला गया। वहां उसे लोटे के जल मैं मिश्रित कर दिया और उससे शिवलिंग का अभिषेक करने लगा। लगभग 15 मिनट तक मैं थोड़ा-थोड़ा करके उस जल को शिवलिंग के ऊपर गिराता रहा। उस जल का रंग कुछ दूधिया और हरा था। एक अन्य दंपत्ति भी नजदीक ही बैठे थे, और शिव की पूजा के साथ शिव की आरती गा रहे थे। जैसे ही शिवलिंग पर मेरा जल गिरता था, मेरी कुण्डलिनी शक्ति प्राप्त करके वहाँ चमकने लगती थी। मन भी कुछ रोमांटिक मूड में जैसा आ गया था। वास्तव में वह जल भगवान शिव का यौन द्रव्य बन गया था। दूध से उसका रंग सफेद हो गया था, और भाँग से उसमें यौनता का नशा चढ़ गया था। एक बार पारद शिवलिंग के दर्शन के समय भी मुझे वैसी ही अनुभूति हुई थी। जब मैंने गूगल पर सर्च किया तो पता चला कि तरल पारे को एक विशेष प्राचीन हर्बल तकनीक से ठोस बनाया जाता है। वह एक प्रकार से भगवान शिव की ठोस बन गया यौन द्रव्य ही है। इससे अवचेतन में यह संदेश भी जाता है कि भटकते हुए तरल मन को ठोस बना कर शांत करना चाहिए। मैं घर वापिस आया और भगवान शिव के नाम से उस द्रव्य का आधा गिलास पी गया।