कुंडलिनी जागरण से आत्मा की पारलौकिक परमावस्था का पता नहीं चलता 

मित्रो, मैं कुछ दिन पहले रिलेक्स होने के लिए इस कड़ी गर्मी में दिन की धूप में छतरी लेकर बाहर निकला। चारों तरफ गलियों की सड़कों का जाल था, पर छायादार पेड़ कम थे। जहाँ थे, वहाँ उनके नीचे चबूतरे नहीं बने थे बैठने के लिए। पूरी कॉलोनी में तीन-चार जगह  चबूतरे वाले पेड़ थे। मैं बारी-बारी से हर चबूतरे पर बैठता रहा, और आसपास से आ रही कोयल की संगीतमयी आवाज का आनंद लेता रहा। गाय और बैल मेरे पास आ-जा रहे थे, क्योंकि उनको पता था कि मैं उनके लिए आटे की पिन्नियां लाया था। अच्छा है, अगर सैरसपाटे के साथ कुछ गौसेवा भी होती रहे। एक छोटे चबूतरे पर पेड़ से सटा हुआ एक पत्थर था। मैं उसपे बैठा तो मेरा खुद ही एक ऐसा आसन लग गया, जिसमें मेरा स्वाधिष्ठान चक्र पेड़ को मजबूती से छू रहा था, और पीठ पेड़ के साथ सीधी और छाती के पीछे पीठ की हड्डी पेड़ से सटी हुई थी। इससे मेरे मन में वर्षों पुरानी रंगबिरंगी भावनाएं उमड़ने लगीं। बेशक पुरानी घटनाओं के दृश्य मेरे सामने नहीं थे, पर उनसे जुड़ी भावनाएँ बिल्कुल जीवंत और ताज़ा थीं। ऐसा लग रहा था जैसे कि वे भावनाएं सत्य हों और उस अनुभव के समय वर्तमान में ही बनी हों। यहाँ तक कि अपने असली घटनाकाल में भी वे भावनाएँ उतनी सूक्ष्म और प्रत्यक्ष रूप में अनुभव नहीं हुई थीं, जितनी उस स्मरणकाल में अनुभव हो रही थीं। भावनाओं के साथ आनंद तो रहता ही है। असल में भावनाएँ ही घटनाओं का सार या चेतन आत्मा होती है। भावना के बिना तो घटना निष्प्राण और निर्जीव होती है। सम्भवतः स्वाधिष्ठान चक्र को इसीलिए इमोशनल बेगेज या भावनाओं का थैला भी कहते हैं। वैसे तो सभी चक्रोँ के साथ विचारात्मक भावनाएँ जुड़ी होती हैं। स्वाधिष्ठान चक्र से इसलिए ज्यादा जुड़ी होती हैं, क्योंकि सम्भोग सबसे बड़ा अनुभव है, और उसी अनुभव के लिए आदमी अन्य सभी अनुभव हासिल करता है। मतलब कि सम्भोग का अनुभव हरेक अनुभव पर हावी होता है। विज्ञान भी इस बात को मानता है कि सम्भोग ही जीवन के हरेक पहलू के विकास के लिए मूल प्रेरक शक्ति है। क्योंकि स्वाधिष्ठान चक्र सम्भोग का केंद्र है, इसलिए स्वाभाविक है कि उससे सभी भावनाएं जुड़ी होंगी। 

किसी भी चीज में रहस्य इसलिए लगता है, क्योंकि हम उसे समझ नहीं पाते, नहीं तो कुछ भी रहस्य नहीं है। जो कुछ समझ आ जाता है, वह विज्ञान ही लगता है। पूरी सृष्टि हाथ पे रखे आंवले की तरह सरल और प्रत्यक्ष है, यदि लोग योग विज्ञान के नजरिए से इसे समझें, अन्यथा इसके झमेलों का कोई अंत नहीं है।

मूलाधार को ग्राउंडिंग चक्र इसलिए कहते हैं क्योंकि वह मस्तिष्क को ऐसे ही अपने से जोड़ता है, जैसे पेड़ की जड़ पेड़ को अपने से जोड़कर रखती है। मूल का शाब्दिक अर्थ ही जड़ होता है। जैसे जड़ मिट्टी के सहयोग से अपनी ऊर्जा पैदा करके पेड़ को पोषण भी देती है और खुद भी पेड़ के पत्तों से अतिरिक्त ऊर्जा को अपनी ओर नीचे खींचकर खुद भी मजबूत बनती है, उसी तरह मूलाधार भी सम्भोग से अपनी ऊर्जा पैदा करके मस्तिष्क को ऊर्जा की आपूर्ति भी करता है, और मस्तिष्क में निर्मित फालतू विचारों की ऊर्जा को अपनी तरफ नीचे खींचकर खुद भी ताकतवर बनता है।

फिर एक दिन मैं फिर से उसी पुरानी झील के किनारे गया। एक पेड़ की छाँव में बैठ गया। मुझे अपनी सेहत भी ठीक नहीं लग रही थी, और मैं थका हुआ सा महसूस कर रहा था। लग रहा था कि जुकाम के वायरस का हमला हो रहा था मेरे ऊपर, क्योंकि एकदम से मौसम बदला था। अचानक भारी बारिश से भीषण गर्मी के बीच में एकदम से कड़ाके की ठंड पड़ी थी। उससे स्वाभाविक है कि मन भी कुछ बोझिल सा था। सोचा कि वहाँ शांति मिल जाए। गंगापुत्र भीष्म पितामह भी इसी तरह गंगा नदी के किनारे जाया करते थे शांति के लिए। मुझे तो लगता है कि यह एक रूपक कथा है। क्योंकि भीष्म पितामह आजीवन ब्रह्मचारी थे, इसलिए स्वाभाविक है कि उनकी यौन ऊर्जा बाहर की ओर बर्बाद न होकर पीठ की सुषुम्ना नाड़ी से ऊपर चढ़ती थी। इसे ही ही भीष्म पितामह का बारम्बार गंगा के पास जाना कहा गया है। गंगा नदी सुषुम्ना नाड़ी को कहा जाता है। क्योंकि सुषुम्ना नाड़ी अपनी ऊर्जा रूपी दुग्ध से बालक रूपी कुंडलिनी-मन का पोषण-विकास करती है, इसीलिए गंगारूपी सुषुम्ना को माँ कहा गया है। थोड़ी देर बाद मैं मीठी और ताज़ा हवा की लम्बी सांस लेते हुए उस पर ध्यान देने लगा। इससे पुराने भावनात्मक विचार मन में ऐसे उमड़ने लगे, जैसे तेज हवा चलने पर आसमान में धूल उमड़ आती है। अगर आदमी धूल को देखने लगे, तो उसका दम जैसा घुटता है, और मन उदास हो जाता है। यदि उस पर ध्यान न देकर केवल हवा को महसूस करे, तो वह प्रसन्नचित हो जाता है। मैंने भी उन विचारों की धूल पर ध्यान देना बंद कर दिया, और सांसों पर ध्यान देने लगा। विचार तो तब भी थे, पर तब परेशान नहीं कर रहे थे। सांस और विचार हमेशा साथ रहते हैं। आप उन्हें अलग नहीं कर सकते, ऐसे ही जैसे हवा और धूल साथ रहते हैं। हवा है, तो धूल भी है, और धूल है तो हवा भी है। अगर आप धूल हटाने के लिए दीवार आदि लगा दो, तो वहाँ हवा भी नहीं आएगी। इसी तरह यदि आप बलपूर्वक विचारों को दबाएंगे, तो सांस भी दब जाएगी। और ये आप जानते ही हैँ कि सांस ही जीवन है। इसलिए विचारों को दबाना नहीं है, उनसे ध्यान हटाकर सांसों पर केंद्रित करना है। विचारों को आतेजाते रहने दो। जैसे धूल के कण थोड़ी देर उड़ने के बाद एकदूसरे से जुड़कर या नमी आदि से भारी होकर नीचे बैठने लगते हैँ, उसी तरह विचार भी श्रृंखलाबद्ध होकर मन के धरातल में गायब हो जाते हैं। बस यह करना है कि उन विचारों की धूल को ध्यान रूपी छेड़ा नहीं देना है। बाहर के विविध दृश्य नजारे और आवाजें मन के धरातल को मजबूत करते हैँ, जिससे फालतू विचार उसपे लैंड करते रह सकें। इसीलिए लोग ऐसे कुदरती नजारों की तरफ भागते हैं। जैसे धूल का कुछ हिस्सा आसमान में दूर गायब हो जाता है और बाकि ज्यादातर हिस्सा फिर से उसी जमीं पर बैठता है, इसी तरह विचारों के उमड़ने से उनका थोड़ा हिस्सा ही गायब होता है, बाकि बड़ा हिस्सा पुनः उसी मन के धरातल पर बैठ जाता है। इसीलिए तो एक ही किस्म के विचार लम्बे समय तक बारबार उमड़ते रहते हैं, बहुत समय बाद ही पूरी तरह गायब हो पाते हैं। बारीक़ धूल जैसे हल्के विचार जल्दी गायब हो जाते हैं, पर मोटी धूल जैसे आसक्ति से भरे स्थूल विचार ज्यादा समय लेते हैं। इसीलिए यह नहीं समझना चाहिए कि एकबार के साक्षीभाव से विचार गायब होकर मन निर्मल हो जाएगा। लम्बे समय तक साधना करनी पड़ती है। आसान खेल नहीं है। इसलिए जिसे जल्दी हो और जो इंतजार न कर सके, उसे  साधना करने से पहले सोच लेना चाहिए। वैसे भी मुझे लगता है कि यह दुनिया से कुछ दूरी बनाने वाली साधना उन्हीं लोगों के लिए योग्य है, जो अपनी कुंडलिनी को जागृत कर चुके हैं, या जो दुनिया के लगभग सभी अनुभवों को हासिल कर चुके हैं। आम लोग तो इससे गुमराह भी हो सकते हैं। आम लोगों के लिए तो व्यावहारिक कर्मयोग ही सर्वोत्तम है। हालांकि जो लोग एकसाथ विविध साधना मार्गों पर चलने की सामर्थ्य और योग्यता रखते हैं, उनके लिए ऐसी कोई पाबंदी नहीं। थोड़ी ही देर में मेरा शरीर खुद ही भिन्न-भिन्न सिटिंग पोज बनाने लगा, ताकि कुंडलिनी ऊर्जा को मूलाधार चक्र से ऊपर चढ़ने में आसानी हो। स्वतोभूत योगासनों को मैंने पहली बार ढंग से महसूस किया, हालांकि घर में बिस्तर पर रिलेक्स होते हुए मेरे आसन लगते ही रहते हैं, ख़ासकर शाम के 5-6 बजे के बीच। सम्भवतः ऐसा दिनभर की थकान को दूर करने के लिए होता है, संध्या का ऊर्जावर्धक प्रभाव भी होता है साथ में। तो लगभग सुबह के थकानरहित समय में झील के निकट मेरी कुंडलिनी ऊर्जा का उछालें मारने का मतलब था कि मेरी थकान काम के बोझ से नहीं हुई थी, बल्कि किसी आसन्न रोग की वजह से थी। वह उसका एडवांस में इलाज करने के लिए आई थी। कुंडलिनी ऊर्जा इंटेलिजेंट होती है, इसलिए सब समझती है। विचारों के प्रति साक्षीभाव के साथ कुछ देर तक लम्बी और गहरी साँसे लेने से कुंडलिनी ऊर्जा को ऊपर चढ़ाने वाला दबाव तैयार हो गया था। जूते के सोल की पिछली नोक की हल्की चुभन से मूलाधार चक्र आर्गेस्मिक आनंदमयी संवेदना के साथ बहुत उत्तेजित हुआ, जिससे कुंडलिनी ऊर्जा उफनती नदी की तरह ऊपर चढ़ने लगी। विभिन्न चक्रोँ के साथ इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना  नाड़ियों में आर्गेस्मिक आनंदमयी संवेदना महसूस होने लगी। ऐसा लग रहा था कि जैसे कुंडलिनी ऊर्जा से पूरा शरीर रिचार्ज हो रहा था। साँसें भी आर्गेस्मिक आनंद से भर गई थीं। कुंडलिनी के साथ आगे के आज्ञा चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और वज्र शिखा के संयुक्त ध्यान से ऊर्जा आगे से नीचे के हिस्से में उतरकर सभी चक्रोँ के साथ पूरे शरीर को शक्तियुक्त कर रही थी। दरअसल आमधारणा के विपरीत मूलाधार चक्र में अपनी ऊर्जा नहीं होती, बल्कि उसे संभोग से ऊर्जा मिलती है। मूलाधार को रिचार्ज किए बगैर ही अधिकांश लोग वहाँ से ऊर्जा उठाने का प्रयास उम्रभर करते रहते हैं, पर कम ही सफल हो पाते हैं। सूखे कुएँ में टुलु पम्प चलाने से क्या लाभ। मूलाधार के पूरी तरह डिस्चार्ज होने के बाद यौन अंगों, विशेषकर प्रॉस्टेट का दबाव बहुत कम या गायब हो जाता है। उससे फिर से मन सम्भोग की तरफ आकर्षित हो जाता है, जिससे मूलाधार फिर से रिचार्ज हो जाता है। वैसे तो योग आधारित साँसों से भी मूलाधार चक्र शक्ति से आवेशित हो जाता है, जो संन्यासियों के लिए एक वरदान की तरह ही है। चाय से प्रॉस्टेट समस्या बढ़ती है, ऐसा कहते हैं। दरअसल चाय से मस्तिष्क में रक्तसंचार का दबाव बढ़ जाता है, इसीलिए तो चाय पीने से सुहाने विचारों के साथ फील गुड महसूस होता है। इसका मतलब है कि फिर यौन अंगों से ऊर्जा को ऊपर चढ़ाने वाला चुसाव नहीं बनेगा। इससे कुंडलिनी ऊर्जा घूमेगी नहीं, जिससे यौन अंगों समेत पूरे शरीर के रोगी होने की सम्भावना बढ़ेगी। उच्च रक्तचाप से भी ऐसी ही सैद्धांतिक वजह से प्रॉस्टेट की समस्या बढ़ती है। ऐसा भी लगता है कि प्रॉस्टेट की इन्फेलेमेशन या उत्तेजना भी इसके बढ़ने की वजह हो सकती है। स्वास्थ्य वैज्ञानिक भी ऐसा ही अंदेशा जता रहे हैं। जरूरत से ज्यादा तांत्रिक सम्भोग से प्रॉस्टेट उत्तेजित हो सकती है। तांत्रिक वीर्यरोधन से एक चुसाव भी पैदा हो सकता है जिससे संक्रमित योनि का गंदा स्राव प्रॉस्टेट तक भी पहुंच सकता है, जिससे प्रोस्टेट में इन्फेलेमेशन और संक्रमण पैदा हो सकता है। इसे एंटीबायोटिक से ठीक करना भी थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इसीलिए खूब पानी पीने को कहा जाता है, ताकि गंदा स्राव मूत्रनाल से बाहर धुल जाए। योनि-स्वास्थ्य का भी भरपूर ध्यान रखा जाना चाहिए। वैसे आजकल प्रोस्टेट की हर समस्या का इलाज है, प्रोस्टेट कैंसर का भी, यदि समय रहते जाँच में लाया जाए। क्योंकि पुराने जमाने में ऐसी सुविधाएं नहीं थीं, इसीलिए तंत्र विद्या को गुप्त रखा जाता था। इस ब्लॉग की एक पुरानी पोस्ट में कबूतर बने अग्निदेव को दिए माता पार्वती के श्राप को जो दिखाया गया है, जिसमें वे उसे उसके द्वारा किए घृणित कार्य की सजा के रूप में उसे लगातार जलन महसूस करने का शाप देती हैं, वह सम्भवतः प्रॉस्टेट के संबंध में ही है। योगी इस जलन की ऊर्जा को कुंडलिनी को देने के लिए पूर्ण सिद्धासन लगाते हैं। इसमें एक पाँव की एड़ी से मूलाधार पर दबाव लगता है, और दूसरे पाँव की एड़ी से आगे के स्वाधिष्ठान चक्र पर। इसलिए यह अर्ध सिद्धासन से बेहतर है क्योंकि अर्धसिद्धासन में दूसरा पैर भी जमीन पर होने से स्वाधिष्ठान पर नुकीला जैसा संवेदनात्मक और आर्गेस्मिक दबाव नहीं लगता। इससे स्वाधिष्ठान की ऊर्जा बाहर नहीं निकल पाती। कुंडलिनी ऊर्जा के घूमते रहने से यह यौनता-आधारित सिलसिला चलता रहता है, और आदमी का विकास होता रहता है। हालांकि यह सिलसिला साधारण आदमी में भी चलता है, पर उसमें इसका मुख्य लक्ष्य द्वैतपूर्ण दुनियादारी से संबंधित ही होता है। जबकि कुंडलिनी योगी का लक्ष्य कुंडलिनी युक्त अद्वैतपूर्ण जीवनयापन होता है। साधारण आदमी में बिना किसी प्रयास के ऊर्जा चढ़ती है, इसलिए यह प्रक्रिया धीमी और हल्की होती है। जबकि कुंडलिनी योगी अपनी इच्छानुसार ऊर्जा को चढ़ा सकता है, क्योंकि अभ्यास से उसे ऊर्जा नाड़ियों का और उन्हें नियंत्रित करने का अच्छा ज्ञान होता है, जिससे शक्ति उसके वश में आ जाती है। तांत्रिक योगी तो इससे भी एक कदम आगे होता है। इसीलिए तांत्रिकों पर सामूहिक यौन शोषण के आरोप भी लगते रहते हैं। वे कठोर तांत्रिक साधना से शक्ति को इतना ज्यादा वश में कर लेते हैं कि वे कभी सम्भोग से थकते ही नहीं। ऐसा ही मामला एक मेरे सुनने में भी आया था कि एक हिमालयी क्षेत्र में मैदानी भूभाग से आए तांत्रिक के पास असली यौन आनंद की प्राप्ति के लिए महिलाओं की पंक्ति लगी होती थी। कुछ लोगों ने हकीकत जानकर उसे पीटा भी, फिर पता नहीं क्या हुआ। तांत्रिकों के साथ यह बहुत बड़ा धोखा होता है। आम लोग उनके कुंडलिनी अनुभव को नहीं देखते, बल्कि उनकी साधना के अंगभूत घृणित खानपान और आचार-विचार को देखते हैं। वे आम नहीं खाते, पेड़ गिनते हैं। इससे वे उनका अपमान कर बैठते हैं, जिससे उनकी तांत्रिक कुंडलिनी वैसे लोगों के पीछे पड़ जाती है, और उनका नुकसान करती है। इसी को देवता का खोट लगना, श्राप लगना, बुरी नजर लगना आदि कहा जाता है। इसीलिए तांत्रिक साधना को, विशेषकर उससे जुड़े तथाकथित कुत्सित आचारों-विचारों को गुप्त रखा जाता था। साधारण लोक परिस्थिति में भी तो लोग तांत्रिक विधियों का प्रयोग करते ही हैं, पर वे साधारण सम्भोग चाहते हैं, यौन योग नहीं। शराब से शबाब हासिल करना हो या मांसभक्षण से यौनसुख को बढ़ाना हो, सब में यही सिद्धांत काम करता है। ऐसी चीजों से दिमाग़ के विचार शांत होने से दिमाग़ में एक वैक्यूम पैदा हो जाता है, जो मूलाधार से ऊर्जा को ऊपर चूसता है। इससे आगे के चैनल से ऊर्जा नीचे आ जाती है। इससे ऊर्जा घूमने लगती है, जिससे सभी अंगों के साथ मूलाधार से जुड़े अंग भी पुनः सक्रिय और क्रियाशील हो जाते हैं। मुझे तो लगता है कि बीयर पीने से जो पेशाब खुल कर आता है, वह इससे यौनांगों का दबाव कम होने से ही आता है, न कि इसमें मौजूद पानी से, जैसा अधिकांश लोग समझते हैं। सीधे पानी पीने से तो पेशाब इतना नहीं खुलता, चाहे जितना मर्जी पानी पी लो। अल्कोहल का प्रभाव मिटने पर पुनः दबाव बन जाए, यह अलग बात है। अब कोई यह न समझ ले कि अल्कोहल से कुंडलिनी ऊर्जा को घूमने में मदद मिलती है, इसलिए यह स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। हाहाहा। टेस्टॉस्टिरोन होर्मोन ब्लॉकर से इसलिए प्रॉस्टेट दबाव कम होता है, क्योंकि उससे इस होर्मोन की यौनाँग प्रेरक शक्ति क्षीण हो जाती है। इसके विपरीत, बहुत से आदर्शवादी पुरुष अपनी स्त्री को संतुष्ट नहीं कर पाते। मुझे मेरा एक दोस्त बता रहा था कि एक आदर्शवादी और संत प्रकार के उच्च सरकारी प्रोफेसर की पत्नि जो खुद भी एक सरकारी उच्च अधिकारी थी, उसने अपने कार्यालय से संबंधित एक बहुत मामूली से अविवाहित नवयुवक कर्मचारी से अवैध संबंध बना रखे थे। जब उन्हें इस बात का पता पुख्ता तौर पर चला, तो उनको इतना ज्यादा भावनात्मक सदमा लगा कि वे बेचारे सब कुछ यहीं छोड़कर विदेश चले गए, क्योंकि उन्हें पता चल गया था कि एक औरत को जब अश्लीलता का चस्का लग जाए तो उसे उससे पीछे हटाना बहुत मुश्किल है, हालांकि असम्भव नहीं है। हालांकि एक औरत के लिए व उसके अवैध प्रेमी के लिए ऐसा करना बहुत नुकसानदायक हो सकता है, विशेषकर यदि उसका असली प्रेमी या पति सिद्ध प्रेमयोगी हो। शिवपुराण के अनुसार जब शिव और पार्वती का विवाह हो रहा था, तो ब्रह्मा उस विवाह में पुरोहित की भूमिका निभा रहे थे। शिवपार्वती से पूजन करवाते समय ब्रह्मा की नजर पार्वती के पैर के नख पर पड़ गई। उसे वे मोहित होकर देखते ही रहे और पार्वती पर कमासक्त हो गए। इससे उनका वीर्यपात हो गया। शिव को इस बात का पता चल गया। इससे शिव इतने ज्यादा क्रोधित हुए कि प्रलय मचाने को तैयार हो गए। बड़ी मुश्किल से देवताओं ने उन्हें मनाया, फिर भी उन्होंने ब्रह्मा को भयंकर श्राप दे ही दिया। प्रलय तो टल गई पर ब्रह्मा की बहुत बड़ी दुर्गति हुई। यदि पार्वती के मन में भी विकार पैदा हुआ होता, और वह ब्रह्मा के ऊपर कमासक्त हुई होती, तो उसे भी शिव की कुंडलिनी शक्ति दंड देती। यदि वह शिव की अतिनिकट संगति के कारण उस दंड से अप्रभावित रहती, तो उस दंड का प्रभाव उससे जुड़े कमजोर मन वाले उसके नजदीकी संबंधियों पर पड़ता, जैसे उसकी होने वाली संतानेँ आदि। ऐसा सब शिव की इच्छा के बिना होता, क्योंकि कौन अपनी पत्नि को दंड देना चाहता है। दरअसल कुंडलिनी खुद ही सबकुछ करती है। यदि ऐसा कुत्सित कुकर्म अनजाने में हो जाए तो इसका प्रायश्चित यही है कि दोनों अवैध प्रेमी मन से एकदूसरे को भाई-बहिन समझें और यदि कभी अपनेआप मुलाक़ात हो जाए, तो एक दूसरे को भाई-बहिन कह कर सम्बोधित करें, और सच्चे मन से कुंडलिनी से माफी मांगे, ऐसा मुझे लगता है। जो हुआ, सो हुआ, उसे भूल जाएं। आगे के लिए सुधार किया जा सकता है। मेरे उपरोक्त ऊर्जा-उफान से मुझे ये लाभ मिला कि एकदम से मुझे छीकें शुरु हो गईं, और नाक से पानी बहने लगा, जिससे जुकाम का वायरस दो दिन में ही गायब हो गया। गले तक तो वह लगभग पहुंच ही नहीं पाया। दरअसल वह कुंडलिनी ऊर्जा वायरस के खिलाफ इसी सुरक्षा चक्र को मजबूती देने के लिए उमड़ रही थी। इसी तरह एकबार कई दिनों से मैं किसी कारणवश भावनात्मक रूप से चोटिल अवस्था में था। शरीरविज्ञान दर्शन की भावना से कुंडलिनी मुझे स्वस्थ भी कर रही थी, पर कामचलाऊ रूप में ही। फिर एक दिन तांत्रिक कुंडलिनी योग की शक्ति से कुंडलिनी ऊर्जा लगातार मेरे दिल पर गिरने लगी। मैं मूलाधार, स्वाधिष्ठान और आज्ञा चक्र और नासिकाग्र के साथ छाती के बाईं ओर स्थित दिल पर भी ध्यान करने लगा। इससे दोनों कुंडलिनी चैनल भी महसूस हो रहे थे, और साथ में उससे दिल की ओर जाती हुई ऊर्जा भी और फिर पुनः नीचे उसी केंद्रीय चैनल में उसे जुड़ते हुए महसूस कर रहा था। यह सिलसिला काफी देर तक चलता रहा, जिससे मेरी यौन कुंडलिनी ऊर्जा से मेरा दिल बिल्कुल स्वस्थ हो गया। बाद में यह मेरे व्यवहार में एकाएक परिवर्तन से और लोगों के मेरे प्रति सकारात्मक व्यवहार से भी सिद्ध हो गया।

चलो, फिर से अध्यात्म की तरफ लौटते हैं। वैसे अध्यात्म भी दुनियादारी के बीच ही पल्लवित-पुष्पित होता है, उससे अलग रहकर नहीं, ऐसे ही जैसे सुंदर फूल काँटों के बीच ही उगते हैं। कांटे ही फूलों की शत्रुओं से रक्षा करते हैं। मैं पिछली पोस्ट में जो प्रकृति-पुरुष विवेक के बारे में बात कर रहा था, उसे अपने समझने के लिए थोड़ा विस्तार दे रहा हूँ, क्योंकि कई बार मैं यहाँ अटक जाता हूँ। चाहें तो पाठक भी इसे समझ कर फायदा उठा सकते हैं। वैसे है यह पूरी थ्योरी ही, प्रेक्टिकल से बिल्कुल अलग। हाँ, थ्योरी को समझ कर आदमी प्रेक्टिकल की ओर प्रेरित हो सकता है। जब कुछ क्षणों के लिए मुझे कुंडलिनी-पुरुष अपनी आत्मा से पूर्णतः जुड़ा हुआ महसूस हुआ, मतलब कि जब मैं प्रकृति से मुक्त पुरुष बन गया था, तब ऐसा नहीं था कि उस समय प्रकृति रूपी विचार और दृश्य अनुभव नहीं हो रहे थे। वे अनुभव हो रहे थे, और साथ में कुंडलिनी चित्र भी, क्योंकि वह भी तो एक विचार ही तो है। पर वे मुझे मुझ पुरुष के अंदर और उससे अविभक्त ऐसे महसूस हो रहे थे, जैसे समुद्र में लहरें होती हैं। इसका मतलब है कि वे उस समय प्रकृति रूप नहीं थे, क्योंकि उनकी पुरुष रूप आत्मा से अलग अपनी कोई सत्ता नहीं थी। आम साधारण जीवन में तो प्रकृति की अपनी अलग सत्ता महसूस होती है, हालांकि ऐसा मिथ्या होता है पर भ्रम से सत्य लगता है। दुनियादारी झूठ और भ्रम पर ही टिकी है। दरअसल कुंडलिनी चित्र अर्थात मन पुरुष और प्रकृति के मेल से बना होता है। जब वह निरंतर ध्यान से अज्ञानावृत आत्मा से एकाकार हो जाता है, तब वह शुद्ध अर्थात पूर्ण पुरुष बन पाता है। मतलब कि तब ही वह प्रकृति के बंधन से छूट पाता है। पूर्ण और शुद्ध पुरुष का असली अनुभव परमानंद स्वरूप जैसा होता है। इससे स्वाभाविक है कि उसके पूर्ण अनुभव के साथ भी तो मन के विचार चित्र तो उभरेंगे ही। पर तब वे ऐसे मिथ्या या आभासी महसूस होंगें जैसे चूने के ढेर में खींची लकीरें। मतलब उनकी सत्ता नहीं होगी, केवल पुरुष की सत्ता होगी। इसीलिए तो उस कुंडलिनी जागरण के चंद क्षणों में परमानंद के साथ सब कुछ पूरी तरह एक सा ही महसूस होता है, सबकुछ अद्वैत। जीवित मनुष्य में आनंद के साथ मन के विचार बंधे होते हैं। आनंद के साथ विचार आएंगे ही आएंगे। इस तरह से पूर्ण निर्विचार अवस्था के साथ आत्मरूप का अनुभव असम्भव के समान ही है जीवित अवस्था में। वैसे साधना की वह सर्वोच्च अवस्था होती है। वहाँ तक असंख्य आत्मज्ञानियों में केवल एक-आध ही पहुंच पाता है। उसीके पारलौकिक अनुभव को वेदों में लिखा गया है, जिसे आप्तवचन कहते हैं। उस पर विश्वास करने के इलावा पूर्ण मुक्त आत्मा की पारलौकिक अवस्था को जानने का कोई तरीका नहीं है। ऐसा नहीं है कि कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी इस परमावस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। वह कर सकता है, पर जानबूझकर नहीं करता। इसकी मुख्य वजह है परमावस्था का अव्यवहारिक होना। यह अवस्था संन्यास की तरह होती है। इस अवस्था में आदमी प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में भौतिक रूप से पिछड़ जाता है। यहाँ तक कि खाने के भी लाले पड़ सकते हैं। अभी मानव समाज इतना विकसित नहीं हुआ है कि इस अवस्था के योग्य उम्मीदवारों के भरणपोषण और सुरक्षा का उत्तरदायित्व संभाल सके। सम्भवतः प्राचीन भारत में कोई ऐसी कार्यप्रणाली विकसित कर ली गई थी, तभी तो उस समय संन्यासी बाबाओं का बोलबाला हुआ करता था। पर आज के तथाकथित आधुनिक भारत में ऐसे बाबाओं की हालत बहुत दयनीय प्रतीत होती है। प्राचीन भारत में समाज का, विशेषकर समाज के उच्च वर्ग का पूरा जोर कुंडलिनी जागरण के ऊपर होता था। यह सही भी है, क्योंकि कुंडलिनी ही जीवविकास की अंतिम और सर्वोत्तम ऊंचाई है। हिन्दुओं की अनेकों कुंडलिनी योग आधारित परम्पराओं में उपनयन संस्कार में पहनाए जाने वाले जनेऊ अर्थात यग्योपवीत के पीछे भी कुंडलिनी सिद्धांत ही काम करता है। इसे ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इसका मतलब है ब्रह्म अर्थात कुंडलिनी की याद दिलाने वाला धागा। कई लोग कहते हैं कि यह बाईं बाजू की तरफ फिसल कर काम के बीच में अजीब सा व्यवधान पैदा करता है। सम्भवतः यह अंधे कर्मवाद से बचाने का एक तरीका हो। यह भी लगता है कि इससे यह शरीर के बाएं भाग को अतिरिक्त बल देकर इड़ा और पिंगला नाड़ियों को संतुलित करता है, क्योंकि बिना जनेऊ की साधारण परिस्थिति में आदमी का ज्यादा झुकाव दाईं तरफ ही होता है। इसे शौच के समय तब तक दाएं कान पर लटका कर रखा जाता है, जब तक आदमी शौच से निवृत होकर जल से पवित्र न हो जाए। इसके दो मुख्य लाभ हैं। एक तो यह कि शौच-स्नान आदि के समय क्रियाशील रहने वाले मूलाधार चक्र की शक्तिशाली ऊर्जा कुंडलिनी को लगती रहती है, और दूसरा यह कि आदमी की अपवित्र अवस्था का पता अन्य लोगों को लगता रहता है। इससे एक फायदा यह होता है कि इससे शौच के माध्यम से फैलने वाले संक्रामक रोगों से बचाव होता है, और दूसरा यह कि शौच जाने वाले आदमी की शक्तिशाली कुंडलिनी ऊर्जा का लाभ उसके साथ उसके नजदीकी लोगों को भी मिलता है, क्योंकि इससे वे उस ऊर्जा का गलत मतलब निकालने से होने वाले अपने नुकसान से बचे रह कर कुंडलिनी लाभ प्राप्त करते हैं। इसी तरह कमर के आसपास बाँधी जाने वाली मेखला से नाभि चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र स्वस्थ रहते हैं, जिससे पाचन सामान्य बना रहता है, और प्रॉस्टेट जैसी समस्याओं से भी बचाव होता है। यह अलग बात है कि क्रूर और अत्याचारी मुगल हमलावर औरंगजेब जनेऊ के कुंडलिनी विज्ञान को न समझते हुए प्रतिदिन तब खाना खाता था, जब तथाकथित काफ़िर लोगों के गले से सवा मन जनेऊ उतरवा लेता था। अफ़सोस की बात कि आज के वैज्ञानिक और लोकतान्त्रिक युग में भी विशेष वर्ग के लोग उसे अपना रोल मॉडल समझते हैं।

कुंडलिनी-शिव विवाह ही साधारण लौकिक विवाह का उद्गम स्थान है

मित्रो, आप सभी को छठ पर्व की शुभकामनाएं। मैं हाल ही के एक लेख में बता रहा था कि हिंदू त्यौहारों वाली आध्यात्मिक संस्कृति प्रकृति की पुजारी है, और वातावरणीय प्रदूषण के विरुद्ध है। सूत्रों के अनुसार अभी जब 2-3 दिन पहले छठी देवी की पूजा करने के लिए कुछ महिलाएं दिल्ली की यमुना नदी के पानी के बीच में सूर्य को अर्घ्य देने के लिए खड़ी हुईं, तो दुनिया को यमुना के वास्तविक प्रदूषण का पता चला। यमुना का पानी काला था, और उस पर इतनी ज्यादा सफेद झाग तैर रही थी कि वह ध्रुवीय समुद्र के बीच में तैर रहे बर्फ के पहाड़ लग रहे थे। बताने की जरूरत नहीं है कि अब यमुना की सफाई के प्रयास जोरों से शुरु हो गए हैं। पर इसको करवाने के लिए अनजाने में ही व्हिसल ब्लोवर का काम उन हिन्दू परंपरावादी महिलाओं से हो गया जो अपनी जान को जोखिम में डालकर प्रकृति को सम्मान देने और उसकी पूजा करने के लिए ज़हरीली नदी में उतरीं। कुछ तथाकथित अत्याधुनिक लोग तो उन्हें रूढ़िवादी और अंधविश्वासी कह सकते हैं, पर उन्होंने वह काम कर दिखाया जिसे बड़े-बड़े आधुनिकतावादी और तर्कवादी भी न करे। यह एक छोटा सा उदाहरण है। प्रकृति प्रेमी हिंदूवाद की इसी तरह हर जगह बेकद्री होती हुई दिखती है, इसीलिए प्रकृति विनाश की तरफ जाती हुई प्रतीत होती है। मैं यहाँ किसी धर्मविशेष का पक्ष नहीं ले रहा हूँ, और न ही किसी विचारधारा का विरोध कर रहा हूँ, बल्कि जो सत्य घटना घटित हुई है, उसीका वर्णन और विश्लेषण कर रहा हूँ।

राजा हिमाचल मस्तिष्क का और उसका राज्य शरीर का प्रतीक है

शिवपुराण में आता है कि राजा हिमाचल ने विवाह महोत्सव के लिए अपने सभी संबंधी पर्वतों और नदियों को निमंत्रण दिया। विभिन्न प्रकार के अन्नों का भंडारण करवाया। चारों तरफ साज-सज्जा की गई। अपने राज्य के सभी लोगों के लिए खूब सुख-सुविधाएं वितरित कीं। उससे उसके पूरे राज्य के लोग प्रसन्न हो गए। प्रमुख ऋषियों को शिव के पास विवाह का निमंत्रण लेकर कैलाश मिलने भेजा। दरअसल राजा हिमाचल और उसका महल मस्तिष्क ही है। कैलाश सहस्रार चक्र है। धरती ही राजा हिमाचल का राज्य है। वह पूरा शरीर है। वैसे भी पर्वत को भूभृत कहते हैं। इसका मतलब है, धरती को पालने वाला। मस्तिष्क ही शरीर को पालता है। राजा हिमाचल सभी नदियों को अपने महल बुलाता है, मतलब मस्तिष्क शरीर की सभी नाड़ियों की ऊर्जा को अपनी तरफ आकर्षित करता है। वह सभी पर्वतों को भी न्यौता देता है, मतलब मस्तिष्क का मुख्य केंद्र अन्य छोटे-छोटे केंद्रों से संवेदना-शक्ति को इकट्ठा करके कुंडलिनी जागरण की सर्वोच्च संवेदना को अभिव्यक्त करता है। यही शिव विवाह है, और इसीको ही विभिन्न पर्वतों का शिवविवाह में सम्मिलित होना कहा गया है। पर्वतराज हिमाचल विभिन्न खाद्यान्नों का भंडारण करता है, मतलब मस्तिष्क शरीर की सारी ऊर्जा अपनी तरफ खींचता है। भोजन ही ऊर्जा है, ऊर्जा ही भोजन है। प्राण ऊर्जा की प्राप्ति के लिए ही भोजन किया जाता है। तभी तो कहते हैं कि अन्न ही प्राण है। राजा हिमाचल के पूरे राज्य की जनता धन-धान्य से युक्त होकर हर्षोल्लास से भर जाती है, मतलब मस्तिष्क में जब ऊर्जा की भरमार होती है, तब उससे ऐसे रसायन निकलते हैं, जो पूरे शरीर को लाभ पहुंचाते हैं। शरीर और ब्रह्मांड के बीच में इस तरह की समकक्षता पुस्तक ‘शरीरविज्ञान दर्शन’ में सर्वोत्तम रूप में दर्शाई गई है। शिवविवाह के दिन राज्य के सभी लोग विभिन्न भोगों की धाम खाते हैं, और विभिन्न विलासों का भरपूर आनन्द उठाते हैं। इसका मतलब है कि कुंडलिनी जागरण वाले दिन पूरे शरीर में रक्तसंचार बढ़ जाता है। ऋषियों को आम आदमी के जैसे साधारण विवाह को इतने विस्तार से लिखने की क्या जरूरत थी, क्योंकि वे ज्यादातर खुद ब्रह्मचारी या अविवाहित होते थे, और कई तो गृहस्थी से दूर रहकर वनों में तप करते थे। कुंडलिनी के तो माता-पिता हैं, पर शिव के कोई नहीं। वह तो स्वयंभू परमात्मा हैं, इसीलिए शम्भु कहे जाते हैं। इससे जाहिर होता है कि यह साधारण विवाह नहीँ है। कुंडलिनी जागरण को ही शिवविवाह के रूप में वर्णित किया गया है, ताकि गृहस्थी में बंधे हुए आमजन भी उसे समझ सके और उसे आसानी से प्राप्त कर सके।

हिमाचल राज्य का सर्वोच्च महल सहस्रार है, जहाँ पर शिव-शक्ति का वैवाहिक जोड़ा ही स्थायी रूप से निवास कर सकता है

उपरोक्तानुसार सप्तऋषियों को विवाह के निमंत्रण पत्र के साथ शिव के पास कैलाश भेजा। कैलाश सहस्रार चक्र है। वहाँ पर ही अद्वैतभाव रूपी शिव का निवासस्थान है। दरअसल प्राणोत्थान के बाद शरीर की ऊर्जा-नदी का प्रवाह सहस्रार की तरफ ही होता है। उससे स्वाभाविक है कि उस ऊर्जा के बल से सहस्रार क्षेत्र में अद्वैतभाव व आनन्द के साथ सुंदर चित्र प्रकट होते रहते हैं। यह भी स्वाभाविक ही है कि अधिकांशतः वे चित्र भी उन्हीं लोगों या वस्तुओं के बनते हैं, जिनके साथ अद्वैत भाव या आध्यात्मिक भाव जुड़ा होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई व्यक्ति उसी क्षेत्र में जाना चाहता है, जो क्षेत्र उसके अनुकूल या उसके जैसा हो। ऋषि-मुनियों से अधिक अद्वैतरूप या आध्यात्मिक कौन हो सकता है। इसीलिए उन आध्यात्मिक वस्तुओं या व्यक्तियों को सप्तर्षिओं के रूप में दिखाया गया है। वैसे वह गुरु, मंदिर का पुजारी, मंदिर, गाय, गंगा आदि कोई भी आध्यात्मिक वस्तु हो सकती है। शिवजी के नजदीक तो ये चीजें जाती हैं, और उन्हें कुंडलिनी के साथ एकाकार होने के लिए प्रेरित भी करती हैं, पर खुद शिव से एकाकार नहीं हो पातीं। इसीको इनके द्वारा शिव को उन्हीं के विवाह के लिए निमंत्रण देने के रूप में दिखाया गया है। विवाह किससे, कुंडलिनी से। शिव के साथ एकाकार न हो पाने के कारण ही इन्हें निमंत्रण देकर वापिस आते हुए दिखाया गया है। कोई भी चित्र शिव से जुड़े बिना निरन्तर सहस्रार में नहीं बना रह सकता, उसे जल्दी ही मस्तिष्क के निम्नतर ऊर्जा स्तर वाले निचले साधारण क्षेत्रों में आना ही पड़ता है। कुंडलिनी ही शिव के साथ एकाकार होने या जागृत होने के फलस्वरूप शिव के साथ कैलाश में निरंतर बनी रह पाती है। मतलब कि कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी को अपनी आत्मा के साथ जुड़ी हुई कुंडलिनी का अनुभव सहस्रार चक्र में निरंतर होता रहता है। यही कुंडलिनी जागरण की सर्वप्रमुख खूबी है, और यही आदमी को मोक्ष की ओर ले जाती है।

प्राण ही सहस्रार में शिव-शक्ति का विवाह रचाते हैं

फिर आता है कि शिव के विवाह समारोह के लिए विश्वकर्मा ने अद्भुत व दिव्य विवाह मंडप, भवन व प्रांगण आदि बनाए। जड़ मूर्तियां सजीव लग रही थीं, और सजीव वस्तुएं जड़ मूर्तियां लग रही थीं। जल में स्थल का और स्थल में जल का भान हो रहा था। दरअसल कुंडलिनी जागरण के आसपास प्राणों के सहस्रार में होने के कारण सब कुछ अद्भुत व दिव्य लगता है। अतीव आनन्द की स्थिति होती है। चारों ओर शांति महसूस होती है। अद्वैत भाव चरम के करीब होता है, और कुंडलिनी जागरण के दौरान तो चरम पर पहुंच जाता है। सभी कुछ एक जैसा लगता है। भेद दृष्टि खत्म सी हो जाती है। यह नशे के जैसी मूढ़ अवस्था नहीं होती, पर परम चेतनता और आनन्द से भरी होती है। इसी आध्यात्मिक भाव को यहाँ उपरोक्त रोचक कथानक के रूप में दर्शाया गया है। जल का थल लगना या थल का जल लगना, मतलब जल और थल के बीच में अभेद का अनुभव। जड़ का चेतन की तरह दिखना व चेतन का जड़ की तरह दिखना, मतलब जड़ और चेतन के बीच में समानता नजर आना। हर जगह झाड़-बुहार के पूरी तरह से साफ व निर्मल कर दी गई थी। इसका मतलब है कि सहस्रार में ही असली व पूर्ण निर्मलता का अनुभव होता है। बाहर से जितना मर्जी सफाई कर लो, यदि सहस्रार में प्राण नहीं हैं, तो सबकुछ मैला ही लगता है। इसी वजह से तो गाय के गोबर से पुते हुए आध्यात्मिक स्थान अति पवित्र महसूस होते हैं, क्योंकि आध्यात्मिकता के प्रभाव से सहस्रार चक्र प्राण से संपन्न होता है। जिन मूल्यवान भवनों में लड़ाई-झगड़ों का बोलबाला हो, वहां की चाकचौबंद सफाई भी रास नहीं आती, और वहाँ दम सा घुटता है। इसके विपरीत एक आध्यात्मिक साधु पुरुष की गोबर से लिपीपुती घासफूस की झौंपड़ी भी बड़ी आकर्षक व संजीदा लगती है।

कुंडलिनी ध्यान के लिए तप को ही शिव या इष्ट ध्यान के लिए तप कहा जाता है, मोटे तौर पर

कुंडलिनी एक लज्जा से भरी स्त्री की तरह अपने प्रियतम शिव से मिलने से शर्माती है, और असंख्य युगों और जन्मों तक अविवाहित रहकर ही उसकी अव्यवस्थित खोज में पागलों की तरह भटकती रहती है

दोस्तो, मैं पिछली पोस्ट में शिवपुराण का हवाला देकर बता रहा था कि पार्वती शिव से मिलते हुए शरमा कर पीछे भी हट रही थी, पर साथ में आनन्द से मुस्कुरा भी रही थी। दरअसल कुंडलिनी या जीव के साथ भी ऐसा ही होता है। कुंडलिनी जैसे ही शिव से एक होने लगती है, वैसे ही वह घबराकर और शरमा कर पीछे हट जाती है। हालांकि उसे आनन्द भी बहुत आता है, और बाद में वह पछताती भी है कि वह क्यों पीछे हटी। यही क्षणिक कुंडलिनी जागरण है, जैसा शिवकृपा से व गुरुकृपा से संभवतः मुझे भी हुआ था। अब तो मुझे वह अनुभव याद भी नहीं। इतना सा लगता है कि वह हुआ था कुछ और मैं पूरी तरह से खुल जैसा गया था उस समय। बहुत संभव है कि इसी कुंडलिनी कथा को ही इस शिवकथा के रूप में लिखा हो। न भी लिखा हो, तब भी कोई बात नहीं, क्योंकि जैसा स्थूल जगत में होता है, वैसा ही सूक्ष्म जगत में भी होता है। कोई फर्क नहीं। यतपिण्डे तत्ब्रह्मांडे। शिव ने जब कामदेव को भस्म कर दिया, तब वे खुद भी अंतर्धान हो गए। इससे पार्वती विरह से अत्यंत व्याकुल हो गई। हर समय वह शिव की याद में खोई रहती थी। उसे कहीं पर भी आनन्द नहीं मिल पा रहा था। उसका जीवन नीरस सा हो गया था। उसकी यह दशा देखकर पर्वतराज हिमाचल भी दुखी हो गए। उन्होंने अपनी बेटी पार्वती को अपनी गोद में बिठाकर उसे प्यार से सांत्वना दी। एकदिन नारद मुनि पार्वती से मिलने आए और पार्वती को समझाया कि उसने अपना अहंकार नष्ट नहीं किया था, इसीलिए शिव अंतर्धान हुए। फिर उससे और कहा कि शिव उसकी भलाई के लिए उसका अहंकार खत्म करना चाहते हैं, इसीलिए उससे दूर हुए हैं। नारद ने पार्वती को अहंकार खत्म करने के लिए तपस्या करने को कहा। जब पार्वती ने तपस्या के लिए नारद से मंत्र मांगा, तो नारद ने उसे शिव पंचाक्षर मन्त्र दिया। यह “ॐ नमः शिवाय” ही है।

उपरोक्त रूपात्मक कथा का रहस्योद्घाटन

ऐसा घटनाक्रम बहुत से प्रेम प्रसंगों में दृष्टिगोचर होता है। एकबार जब मानसिक यौनसंबंध बन जाता है, उसके बाद एकदूसरे के प्रति बेहिसाब आकर्षण पैदा हो जाता है। पुरुष लगातार अपनी प्रेमिका की परीक्षा लेता है। वह उसे अपने प्रेम में दीवाना देखना चाहता है। वह उसे अपने प्रति पूरी तरह से निष्ठावान और समर्पित देखना चाहता है। कई संयमित मन वाले पुरुष तो यहाँ तक चाहते हैं कि स्त्री उसे स्वयं प्रोपोज़ करे औऱ यहाँ तक कि वह अपनी डोली लेकर भी खुद ही उसके घर आए। यह जोक नहीं, एक मनोवैज्ञानिक वास्तविकता है। यह कुंडलिनी से प्रेरित ही है। वे ऐसा न होने पर स्त्री को त्यागने से भी परहेज नहीं करते। शिव के जैसे उच्च आध्यात्मिक पुरुष तो स्त्री के अत्यंत निकट आ जाने पर भी अपने को संयमित करके अपने को गलत काम से बचा लेते हैं। वे स्त्री से बात भी नहीं करते और जीवन में अपना अलग रास्ता पकड़ लेते हैं। यह शिव के अंतर्धान होने की तरह ही है। इससे स्त्री, प्रेमी पुरुष की याद में बिन पानी मछली की तरह तड़पती है। पार्वती के साथ भी वैसा ही हुआ था। पुरुष भी उसकी याद को अपने मन में बसा कर अपने काम में लग जाता है। यह शिव के ध्यान की अवस्था में चले जाने की तरह ही है। अधिकांशतः पुरुष तो पहले से ही शिव की तरह अहंकार से रहित होता है। ज्यादातर मामलों में, रूप, गुण और संपत्ति का अहंकार तो स्त्री को ही ज्यादा होता है। इसी वजह से पुरुष उससे दूर चला जाता है, क्योंकि आग और पानी का मेल कहाँ। मैं यहाँ लैंगिक पक्षपात नहीँ कर रहा हूँ, बल्कि प्रकृति की अद्भुत सच्चाई बयान कर रहा हूँ। अपवाद तो हर जगह हैं, कहीं ज्यादा तो कहीं कम। कालांतर में जब दुनियादारी के थपेड़े खाकर स्त्री का अहंकार नष्ट होता है, तब फिर उस प्रेमी पुरुष से उसकी मुलाकात होती है। हालाँकि अधिकांश स्त्रियों ने अपनी अलग गृहस्थी बसा ली होती है। पार्वती के जैसी तो बिरली ही होती है जो ताउम्र शिव की प्रतीक्षा करती रहती हो। फिर भी स्त्री, अपने सच्चे प्रेमी पुरुष से भावनात्मक लाभ तो प्राप्त करती ही है, बहिन, मित्र आदि किसी भी सम्बन्ध से। उन दोनों की मिश्रित मानसिक शक्ति स्वयँ ही उनकी संतानों को प्राप्त हो जाती है। यही शिव पार्वती का लौकिक मिलन, और मानसिक शक्ति के रूप में भगवान कार्तिकेय का जन्म है।

हिमालय का गंगावतरण वाला स्थान ही सहस्रार है

पार्वती उसी गंगावतरण वाले स्थान पर तप करती है, जहाँ उसने शिव के साथ प्रेमालाप किया था। वह स्थान सहस्रार चक्र ही है। “प्रेम की गंगा” छंद भी लोकप्रसिद्ध है। दरअसल प्रणय प्रेम से पीठ में सुषुम्ना से होकर चढ़ने वाली ऊर्जा ही वह प्रेम की गंगा है। कुंडलिनी सहस्रार चक्र पर आरूढ़ हो गई, और अद्वैत के आनन्द का अनुभव करने लगी। इसको ऐसे लिखा गया है कि पार्वती सहस्रार में तप करने लगी। तप का मतलब सहस्रार में कुंडलिनी का ध्यान ही है। यही शिव का ध्यान भी है, क्योंकि सहस्रार में कुंडलिनी से मिलने शिव देरसवेर जरूर आते हैं, मतलब कुंडलिनी जागरण जरूर होता है। तप ध्यान के लिए ही किया जाता है। इसलिए तप को ध्यान योग या कुंडलिनी योग भी कह सकते हैं। यदि तप से ध्यान न लगे, तो वह तप नहीं, मात्र दिखावा है। हालाँकि तप कुंडलिनी के ध्यान के लिए होता है, पर इसे मोटे तौर पर शिव के ध्यान के लिए बताया जाता है, क्योंकि कुंडलिनी से अंततः शिव की ही तो प्राप्ति होती है। यह इस ब्लॉग के इस मुख्य बिंदु को फिर से प्रमाणित करता है कि कुंडलिनी ध्यान या कुंडलिनी योग ही सबकुछ है। अपनी बेटी को मनाने और तप से रोकने के लिए उसके पिता हिमाचल और माता मेनका अपने पुत्रों और प्रसिद्ध पर्वतों के साथ वहाँ पहुंचते हैं। वे उसके कष्ट से दुखी हो जाते हैं। वे उसे कहते हैं कि कामदेव को भस्म करने वाले वैरागी शिव उसे नहीं मिलने आने वाले। वैसे भी भगवान को किसी की परवाह नहीं। वह अपने आप में पूर्ण है। वह अपनेआप में ही मस्त रहता है। ऐसे परम मस्तमौला को मना कर अपने वश में करना आसान काम नहीं है। पर पार्वती जैसे हठी भक्त लोग उसे मना लेते हैं। पार्वती को भक्ति की शक्ति का पूरा पता था, इसलिए वह नहीं मानती और तप करती रहती है। दरअसल मस्तिष्क ही हिमाचल राजा है। उससे ऐसे रसायन निकलते हैं, जो तपस्या से हटाते हैं। यही हिमाचल के द्वारा पार्वती को समझाना है। यह कुंडलिनी से ध्यान हटाकर जीव को बाहरी दुनियादारी में उलझाकर रखना चाहता है। विभिन्न पर्वत शिखर मस्तिष्क की अखरोट जैसी आकृति के उभार हैं, जो शरीर के विभिन्न भागों को नियंत्रित करते हैं। ये सभी पर्वतराज हिमाचल के अंदर ही हैं। मस्तिष्क को अपनी सत्ता के खोने का डर बना रहता है। उसके तप की आग की तपिश से सारा ब्रह्मांड जलने लगता है। इससे परेशान होकर ब्रह्मा को साथ लेकर सभी देवता और पर्वत उसे मनाने और तप से रोकने के लिए उसके पास जाते हैं। दरअसल यह शरीर ही संपूर्ण ब्रह्मांड है। इसमें सभी देवताओं का वास है। तप के क्लेश से यह शरीर तो दुष्प्रभावित होगा ही। यह स्वाभाविक ही है। ब्रह्मा सुमेरु पर्वत पर रहते हैं। सुमेरु पर्वत मस्तिष्क को ही कहते हैं। जैसे ब्रह्मा से ही सृष्टि का विकास होता है, वैसे ही मस्तिष्क से शरीर का विकास होता है, अपनी कल्पनाशीलता से। वैसे तो मस्तिष्क में सभी देवताओं का निवास है, पर मस्तिष्क के सर्वप्रमुख अभिमानी देवता को ही ब्रह्मा कहते हैं। सभी देवता मस्तिष्क के साथ पूरे शरीर में व्याप्त रहते हैं, पर ब्रह्मा मस्तिष्क में ही रहता है। इसीलिए ब्रह्मा का निवास सुमेरु में बताया गया है। इसलिए तप से ये ही शरीरस्थ देवता और इस शरीर रूपी ब्रह्मांड में रहने वाले असंख्य कोशिका रूपी जीव ही भूखे-प्यासे रहकर व्याकुल होते हैं। वास्तव में कुंडलिनी के साथ शरीर के प्राण भी सहस्रार को चले जाते हैं। इससे शरीर शक्तिहीन सा होकर अपंग जैसा या लाचार जैसा या पराश्रित जैसा हो जाता है। इससे स्वाभाविक ही है कि शरीर तो भौतिक रूप से पिछड़ेगा ही। बाहर के स्थूल ब्रह्मांड में कुछ नहीं होता। अगर बाहर के स्थूल जीवों और देवताओं को कष्ट हुआ करता, तो आज तक कोई भी नहीँ बचा होता, क्योंकि ध्यान योग के रूप में प्रतिदिन लाखों लोग तप करते हैं। कई योगी तो वनों-पर्वतों में भी घोर तप करते हैं।

कुंडलिनी रहस्य पुरुष व स्त्री के बीच के शाश्वत प्रेम संबंध के रूप में ही उजागर होता है

सभी मित्रों को आने वाले दीपावली पर्व की शुभकामनाएं

शिवपार्वती विवाह, दुनिया का महानतम रहस्य

मित्रो, एक अन्य अर्थ भी है शिव पार्वती विवाह का। पार्वती प्रकृति है, जो मन के विचारों के रूप में है। वह परब्रह्म शिव को बांध देती है। यही शिव पार्वती से कहते हैं कि पार्वती, मैं सदा स्वतंत्र हूँ, पर तुमने मुझे परतंत्र बना दिया है, क्योंकि सबकुछ करने वाली महामाया प्रकृति तुम ही हो। पार्वती ने घोर तपस्या की, मतलब प्रकृति ने करोड़ों वर्षों तक जीवविकास किया। तब वह इस काबिल हुई कि परमात्मा को जीवात्मा बना सकी। इससे जीव की उत्पत्ति हुई। पार्वती शिव से कहती है कि वह उसके पिता हिमालय से उसका हाथ मांगे। इसका मतलब है कि प्रकृति नहीं चाहती कि हर जगह जीवात्मा की उत्पत्ति होए। अगर ऐसा होता तो पत्थर, मिट्टी, पानी, कीटाणु आदि में भी जीवात्मा होती और उन्हें भी दुःख दर्द हुआ करता, इससे सृष्टि में अव्यवस्था फैलती। इसलिए प्रकृति चाहती है कि जब जीव का शरीर अच्छी तरह से विकसित हो जाए, तब उसीमें जीवात्मा की उत्पत्ति होए। इसी विकसित शरीर को ही पर्वतराज हिमालय कहा गया है। पार्वती पहले हिमालय का निर्माण करती है, फिर उसकी पुत्री के रूप में पैदा होकर उसी पर रहने लगती है। मतलब कि प्रकृति पहले शरीर का निर्माण करती है, फिर उसीसे पैदा जैसी होकर उसीके अंदर बस जाती है। यह ऐसे ही है, जैसे आदमी पहले अपने लिए घर बनाता है, फिर उसके अंदर खुद रहने लगता है। फिर शिव कहते हैं कि वे निर्विकार और निरीह होकर भी भक्तों के लिए शरीर धारण करते हैं। वास्तव में ये दृश्य जगत शिव का ही शरीर है। इसी के पीछे भागकर दरअसल आदमी शिव के पीछे ही भागता है, मतलब उसीकी भक्ति करता है। पर आदमी को ऐसा नहीं लगता। कुंडलिनी भी परब्रह्म शिव का स्थूल रूप ही है, जिसके ध्यान से शिव का ही ध्यान होता है। सीधे रूप में तो परब्रह्म शिव को कोई नहीं जान-पहचान सकता।

वामपंथी तंत्र के पुरोधा भगवान शिव

शिवपुराण में शिव को अभक्ष्यभक्षी और भूतबलिप्रेमी कहा है। मतलब साफ है। यह पँचमकारी वाममार्गियों की इस मान्यता की पुष्टि करता है कि शिव माँस, मदिरा, भांग आदि का सेवन करते हैं, और मंदिरों में देवताओं को दी जाने वाली पशुबलि से प्रसन्न होते हैं। खैर, सच्चाई तो वे ही जानें। मैं तो संभावना को ही अभिव्यक्त कर रहा हूँ। वास्तव में भगवान ही सबको बचाने वाले हैं, और वही मारने वाले भी हैं। पर मारने वाले हमें भ्रम से ही प्रतीत होते हैं। उनके द्वारा मारने में भी उनके द्वारा बचाना ही छिपा होता है। हम पूरी तरह से भगवान का गुणगान तो कर सकते हैं, पर पूरी तरह उनकी नकल नहीँ कर सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि भगवान कर्म और फल से प्रभावित नहीं होते, पर आदमी को बुरे कर्म का बुरा फल भोगना ही पड़ता है। हो सकता है कि इस्लाम की प्रारंभिक मान्यता भी यही हो, पर वह कालांतर में अतिवादी होकर अन्य धर्मों और संप्रदायों का दुश्मन बन गया हो। यहाँ तक कि एक मुस्लिम मौलवी कासिम ने भी भगवान शिव को इस्लाम के पहले दूत के रूप में संदर्भित किया है। इससे हाल की ही घटना याद आ रही है। सूत्रों के अनुसार, इस क्रिकेट विश्वकप में एक पाकिस्तानी खिलाड़ी बीच मैदान में सबके सामने नीचे बैठकर नमाज पढ़ने लग गया। पाकिस्तान को मैच जीतने से ज्यादा खुशी धर्मप्रचार से मिली।

कुंडलिनी ही एक सच्चे जीवरक्षक के रूप में

यह कहा जाता है कि विभिन्न जीवों में कुंडलिनी विभिन्न चक्रों पर रहती है। विकसित जीवों में यह ऊपर वाले चक्रों में रहती है, जबकि अविकसित जीवों में नीचे वाले चक्रों पर। मैंने इसका वर्णन एक पुरानी पोस्ट में भी किया है। इसका यह मतलब नहीं है कि सभी जीव कुंडलिनी योगी होते हैं और कुंडलिनी ध्यान करते हैं। इसका मतलब यह है कि जब हमारी चेतना का स्तर नीचा होता है, तब यदि अद्वैत का अदृश्य अवचेतन मन से ही सही, हल्का सा ध्यान या ख्याल किया जाए, तब कुंडलिनी आनंदमय शांति पैदा करती हुई नीचे वाले चक्रों पर आ जाती है। अदृश्य ध्यान का हल्का ख्याल मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि चेतनता की न्यूनावस्था में मस्तिष्क में ध्यान करने लायक़ ऊर्जा ही कहाँ होती है। अचेतनता के अंधकार के समय इस अचिंत्य ध्यान भावना से कुंडलिनी ज्यादातर नाभि चक्र पर अनुभव में आती है, और यदि चेतना का स्तर इससे भी अधिक गिरा हुआ हो, तो स्वाधिष्ठान चक्र पर आ जाती है। हालांकि कुछ क्षणों में ही कुंडलिनी मस्तिष्क के चक्रों में आ जाती है, क्योंकि कुंडलिनी का स्वभाव ही ऊपर उठना है। ऐसा करते हुए वह मूलाधार से ऊर्जा भी ऊपर ले आती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि निम्न चेतनता की अवस्था में मस्तिष्क में पर्याप्त ऊर्जा का स्तर नहीं होता, जो कुंडलिनी को ऊपर वाले चक्रों में स्थापित कर सके। मालूम पड़ता है कि कुंडलिनी का निचले चक्रों पर आना मृत्यु के समय सहायक होता है। मृत्यु के समय चेतनता बहुत निम्न स्तर पर होती है। उससे मन में अंधेरा सा छाया रहता है। उस समय अद्वैत की सूक्ष्म भावना से कुंडलिनी निचले चक्रों पर आकर अच्छे मित्र की तरह साथ निभाते हुए आनंदमयी और शांत चेतना प्रदान करती है। वह मृत्यु जनित सभी दुखों और कष्टों को हरते हुए आदमी को मुक्ति प्रदान करती है।

कुंडलिनी शक्ति और शिव के मिलन से ही कार्तिकेय नामक ज्ञान पैदा हुआ, जिसने तारकासुर नामक अज्ञानान्धकार का संहार किया

सभी मित्रों को दशहरे की हार्दिक बधाई

मित्रो, शिव पुराण के अनुसार, भगवान शिव सती के विरह में व्याकुल होकर पर्वतराज हिमाचल (हिमालय का भाग) के उस शिखर पर तप करने बैठ गए, जहाँ गँगा नदी का अवतरण होता है। गंगा के कारण वह स्थान बहुत पवित्र होता है। वे अपने मन को सती से हटाकर योगसाधना से परमात्मा में लगाने लगे। जब पर्वतराज हिमाचल को अपने यहाँ उनके आने का पता चला तो वे अपने परिवार और गणों के साथ शिव से मिलने चले गए, और उनकी सेवा में उपस्थित हो गए। शिव ने उनसे कहा कि वे वहाँ एकांत में तपस्या करना चाहते हैं, इसलिए कोई उनसे मिलने न आए। पर्वतराज ने अपने राज्य में यह ऐलान कर दिया कि जो भी शिव से मिलने का प्रयास करेगा, उसे कठोर राजदण्ड दिया जाएगा। परंतु पार्वती उनकी सेवा करना चाहती थी, इसलिए वह अपने पिता हिमालय से शिव के पास जाने की जिद करने लगी। थकहार के हिमालय पार्वती को लेकर शिव के पास फिर पहुंच गए, और पार्वती की सेवा स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करने लगे। शिव ने कहा कि वे ध्यान योग में रमे रहते हैं, वैसे में स्त्री का क्या काम। स्त्री तो स्वभाव से ही चंचल होती है, और बड़े से बड़े योगियों का ध्यान भंग कर देती हैं। फिर उन्होंने कहा कि वे हमेशा प्रकृति से परे अपने परमानन्द व शून्य स्वरूप में स्थित रहते हैं। इस पर पार्वती ने उनसे कहा कि वे प्रकृति से परे रह ही नहीं सकते। प्रकृति के बिना तो वे बोल भी नहीं सकते, फिर क्यों बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। अगर वे प्रकृति से परे हैं और उन्हें सबकुछ पहले से ही प्राप्त है, तब क्यों इस हिमालय शिखर पर तपस्या कर रहे हैं। जो प्रकृति से परे है, उसका प्रकृति कुछ नहीं बिगाड़ सकती, फिर क्यों उससे भयभीत हो रहे हैं। शिव को यह तर्क अच्छा लगा, और उन्होंने पार्वती को सखियों के साथ प्रतिदिन अपनी सेवा करने की अनुमति दे दी। शिव पार्वती के हावभाव से अनासक्त रहते थे। उनके मन में कभी कामभाव पैदा नहीं हुआ। हालाँकि उन्हें अपने ध्यान में पार्वती ही नजर आती थी। उन्हें लगने लगा कि उनकी पूर्व पत्नी सती ही पार्वती के रूप में उपस्थित हुई है। देवताओं व ऋषियों ने यह अच्छा अवसर जानकर कामदेव को शिव के मन में कामभाव पैदा करने के लिए भेजा। वे ऊर्ध्वरेता (ऐसा व्यक्ति जिसका वीर्य ऊपर की तरफ बहता हो) शंकर को च्युतरेता (ऐसा व्यक्ति जिसका वीर्य नीचे की ओर गिर कर बर्बाद हो जाता हो) बनाना चाहते थे। देवता व ऋषि दैत्य तारकासुर से परेशान थे। उसका वध शिव पार्वती के पुत्र के हाथों से होना था। इसीलिए वे शिव व पार्वती का विवाह कराना चाहते थे। शिव पहले तो पार्वती पर कामासक्त हो गए, और कामुकता के साथ उसके रूप-श्रृंगार का वर्णन करने लगे। फिर जैसे ही वे पार्वती के वस्त्रों के अंदर हाथ डालने लगे, और स्त्रीस्वभाव के कारण पार्वती शर्माती हुई दूर हटकर मुस्कुराने लगी, वैसे ही उन्हें अपनी ईश्वररूपता का विचार आया, और वे अपनी करनी पर पछताते हुए पीछे हट गए। फिर उनकी नजर पास में खड़े कामदेव पर गई। शिव की तीसरी आंख के क्रोधपूर्ण तेज से कामदेव खुद ही भस्म हो गया। शिव चाहते थे कि जब पार्वती का गर्व या अहंकार समाप्त हो जाएगा, वे तभी उसके साथ प्रेमसंबंध बनाएंगे। वैसा ही हुआ। जैसे ही पार्वती का अहंकार नष्ट हुआ, वैसे ही शिव ने उन्हें अपना लिया और उनके आपसी प्रेमसंबंध से कार्तिकेय का जन्म हुआ, जिसने बड़े होकर राक्षस तारकासुर का वध किया। तारकासुर ने देवताओं को बंधक बनाया हुआ था। वह देवताओं से अपनी मर्जी से काम करवाता था। दरअसल उसने ब्रह्मा से यह वरदान मांगा हुआ था कि वह शिव के पुत्र के सिवाय और किसी के हाथों से न मरे। उसे पता था कि शिव तो प्रकृति से परे साक्षात परमात्मा हैं, वे भला किसलिए विवाह करेंगे।

शिव-पार्वती विवाह की उपरोक्त रूपात्मक कहानी का रहस्योद्घाटन

ईश्वर भी जीव से मिलने के लिए बेताब रहता है। अकेले रहकर वह ऊब जैसा जाता है। यदि ऐसा न होता तो जीवविकास न होता। जीव से मिलने के लिए वह जीव के शरीर के सहस्रार में बैठकर तप करने लगता है। वह न कुछ खाता है, न कुछ पीता है। बस चुपचाप अपने स्वरूप में ध्यानमग्न रहता है। यही शिव का वहाँ तपस्या करना है। जीव का शरीर ही हिमालय पर्वत है, और जीव का मन अर्थात कुंडलिनी ही सती या पार्वती है। वे अपनी तपस्या व योगसाधना के प्रभाव से ही अपनी प्रेमिका सती के इतना नजदीक रहकर भी उसके लिए व्याकुल नहीं होते। सुषुम्ना यहाँ गंगा नदी है, जो सहस्रार को ऊर्जा की भारी मात्रा देकर उसे ऊर्जावान अर्थात पवित्र करती रहती है। जीवात्मा यहाँ पर्वतराज हिमालय या हिमाचल भी है। ऐसे तो जीवात्मा का मिलन परमात्मा से बीच-बीच में होता रहता है, पर पूरा मिलन नहीं होता। इसीको इस रूप में लिखा है कि शिव ने अपने वहाँ किसी के आकर मिलने को मना कर दिया। मिलने का अर्थ यहां पूर्ण मिलन ही है। दो के बीच पूर्ण मिलन तभी संभव हो सकता है, जब दोनों एक जैसे स्वभाव के हों। यदि शिव आम आदमी से पूर्णमिलन करेंगे, तो स्वाभाविक है कि उनकी तपस्या भंग हो जाएगी, क्योंकि आम आदमी तो तपस्या नहीं करते, और अनेकों दोषों से भरे होते हैं। इसीलिए जीवात्मा अपने मन और अपनी इन्द्रियों को बाहर ही बाहर दुनियादारी में ही उलझा कर रखता है, उसे शिव से मिलने सहस्रार की तरफ नहीं जाने देता। ये मन, इन्द्रियाँ और प्राण ही राजा हिमाचल के नगरनिवासी हैं। यदि ये कभी गलती से सहस्रार की तरफ चले भी जाएं, तो उन्हें अंधेरा ही हाथ लगता है। यह अंधेरा ही पर्वतराज हिमाचल द्वारा उन्हें दिया जाने वाला कठोर दंड है। पर मन में जो कुंडलिनी चित्र होता है, वह बारम्बार शिव से मिलने के लिए सहस्रार जाना चाहता है। यही पार्वती है। मन का सर्वाधिक शक्तिशाली चित्र कुंडलिनी चित्र ही होता है। वही सहस्रार तक आसानी से जाता रह सकता है। इसीको पार्वती की जिद और हिमालय के द्वारा उसको शिव के पास ले जाने के रूप में बताया गया है। इसीका यह मतलब भी निकलता है कि पार्वती शिव को कहती है कि यदि वह प्रकृति से परे है, तो वह सहस्रार में बैठ कर किसकी आस लगा कर तपस्या कर रहा है। मतलब कि प्रकृति ने ही शिव को इस शरीर के सहस्रार चक्र में बैठने के लिए मजबूर किया है, ताकि उसका मिलन पार्वती रूपी कुंडलिनी से हो सके। केवल कुंडलिनी चित्र को ही सहस्रार में भेजकर आनन्द आता है, अन्य चित्रों को भेजकर नहीं। इसको इस रूपात्मक कथा में यह कहकर बताया गया है कि शिव ने पार्वती के द्वारा की जाने वाले अपनी प्रतिदिन की सेवा को स्वीकार कर लिया। पार्वती प्रतिदिन सखियों के साथ शिव की सेवा करने उस पवित्र शिखर पर जाती और प्रतिदिन घर को लौट आती। इसका मतलब है कि प्रतिदिन के कुंडलिनी योगाभ्यास के दौरान कुंडलिनी थोड़ी देर के लिए ही सहस्रार में रुकती, शेष समय अन्य चक्रों पर रहती। मूलाधार चक्र ही कुंडलिनी शक्ति का अपना घर है। पीठ में ऊपर चढ़ने वाली मुख्य प्राण ऊर्जा और साँसों की गति जो हमेशा कुंडलिनी के साथ रहती हैं, वे पार्वती की सखियां कही गई हैं। हर क्रिया की बराबर की प्रतिक्रिया होती है। कुंडलिनी के सहस्रार में होने से अद्वैत का अनुभव हो रहा है, मतलब कुंडलिनी शिव का ध्यान कर रही है। उसके बदले में शिव भी कुंडलिनी का उतना ही ध्यान कर रहे हैं। शिव को पार्वती में अपनी अर्धांगिनी सती नजर आती है। दरअसल जीव या कुंडलिनी शिव से ही अलग हुई है। कभी वह शिव से एकरूप होकर रहती थी। ब्रह्मा आदि देवताओं के द्वारा कामदेव को शिव-पार्वती का मिलन कराने के लिए भेजने का अर्थ है, कुदरती तौर पर उच्च कोटि के योगसाधक का कामुकता या यौनतन्त्र की ओर आकर्षित होना। आप आए दिन देखते होंगे कि कैसे बड़े-बड़े आध्यात्मिक व्यक्तियों पर यौन शोषण के आरोप लगते रहते हैं। यहाँ तक विश्वामित्र जैसे प्रख्यात ब्रह्मऋषि भी इस यौनकामुकता से बच नहीं पाए थे, और भ्रष्ट हो गए थे। दरअसल यह कामुकता कुंडलिनी को इसी तरह से अंतिम मुक्तिगामी वेग (एस्केप विलोसिटी) को प्रदान करने के लिए पैदा होती है, जैसे एक अंतरिक्षयान को धरती के गुरुत्व बल से बाहर निकालने के लिए इसके रॉकेट इंजन से शक्ति पैदा होती है, ताकि वह भौतिकता से मुक्त होकर शिव से एकाकार हो सके। पर बहुत से योगी इस कामुकता को ढंग से संभाल नहीँ पाते, और लाभ की बजाय अपनी हानि कर बैठते हैं। उस यौनकामुकता का सहारा लेकर कुंडलिनी शिव के बहुत नजदीक तो चली गई, पर उनसे एकाकार नहीं हो सकी। इसका मतलब है कि कुंडलिनी जागरण नहीं हो सका। आज्ञा चक्र पर ध्यान से कुंडलिनी मानसपटल पर बनी रहती है, जिससे कामुकता वाला काम भी कामुकता से रहित और पवित्र हो जाता है। इसे ही शिव की तीसरी आंख से कामदेव का जल कर भस्म होना कहा गया है। तीसरी आंख आज्ञाचक्र पर ही स्थित होती है। मैं तो आज्ञा चक्र को ही तीसरी आंख मानता हूँ। तीसरी आँख या आज्ञा चक्र पर स्थित इसी कुंडलिनी शक्ति के प्रभाव से ही यौनयोग भौतिक कामुकता से अछूता रहता है, जबकि समान प्रकार की भौतिक गतिविधियों के बावजूद अश्लील पोर्न भड़काऊ कामुकता से भरा होता है। देवताओं की प्रार्थना पर शिव ने पार्वती से तभी विवाह किया जब पहले पार्वती ने अपना अहंकार नष्ट कर लिया। यह मैं पिछली पोस्ट में भी बता रहा था कि जब योगसाधना से उत्पन्न सत्त्वगुण पर भी अहंकार समाप्त हो जाता है, तभी कुंडलिनी जागरण की संभावना बनती है। कुंडलिनी मन या जीव का प्रतीक है। जीव का अहंकार खत्म हो गया, मतलब कुंडलिनी-रूपी पार्वती का अहंकार खत्म हो गया। जीव के शरीर में सभी देवता बसे हैं। जीवात्मा के रूप में वे भी शरीर में बंधे हुए हैं। उदाहरण के लिए ब्रह्मांड में उन्मुक्त विचरण करने वाले सूर्य देवता छोटी-2 दो आंखों में, सर्वव्यापी वायुदेव छोटी सी नाक में, अनन्त आकाश में फैला जल देवता सीमित रक्त आदि में। इसी तरह ऋषि भी जीव को ज्ञान का उपदेश करके बंधे हुए हैं। ये देवता और ऋषि भी तभी पूर्ण रूप से मुक्त माने जाएंगे, जब जीव मुक्त होगा, मतलब कुंडलिनी जागरण के रूप में शिव-पार्वती का विवाह होगा। जीवमुक्ति के लिए यही देवताओं व ऋषियों की प्रार्थना है, जिसे शिव अन्ततः स्वीकार कर लेते हैं। तारकासुर राक्षस यहाँ अज्ञान के लिए दिया गया नाम है। तारक का अर्थ आंख की पुतली होता है, जो अज्ञान की तरह ही अंधियारे रँग वाली होती है। यह जीव के मन सहित उसके पूरे शरीर को बंधन में डालता है। तारक का मतलब आंख या रौशनी या ज्ञान भी है। इसको नष्ट करने वाला राक्षस ही तारकासुर हुआ। अज्ञान रूपी तारकासुर आदमी को अंधा कर देता है। उपरोक्तानुसार जीव के बंधन में पड़ने से देवता और ऋषि खुद ही बंधन में पड़ जाते हैं। उसका संहार केवल कुंडलिनी जागरण से पैदा होने वाला ज्ञान ही कर पाता है, जिसे इस कथा में शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय के रूप में वर्णित किया गया है।

कुंडलिनी प्राण ऊर्जा का क्रीड़ा विलास ही है


दोस्तो, मैंने पिछले हफ्ते तीन फिल्में देखीं। उससे मेरा मस्तिष्क काफी क्रियाशील रहा। सम्भवतः इसीसे कई बार हल्का सा सिरदर्द भी रहा। हालाँकि मन में भरपूर शांति बनी रही, और भरपूर आनंद भी बना रहा। यह कुंडलिनी योग से बने हुए अद्वैत भाव से ही हुआ। फ़िर भी मैंने योग को कुछ कम किया, क्योंकि थोड़ी थकान व सुस्ती लग रही थी। इससे सिरदर्द भी थोड़ा कम हुआ और शरीर का कम्पन भी कम हुआ। वैसे ज्यादा अच्छा तब रहता है जब आसनों की संख्या कम न की जाए, पर उन पर लगने वाले समय को कम किया जाए। योग को काम की तरह नहीं लेना चाहिए। इसे थकान नहीं समझना चाहिए। इसे भरपूर आराम की तरह लेना चाहिए। शरीर व मन को ढीला छोड़ देना चाहिए। वास्तव में योग थकान को कम करता है, थकान को बढ़ाता नहीं। हरेक आसन एक विशेष प्रकार से प्राण ऊर्जा को ऊपर चढ़ाता है, और घुमाता है। वैसे भी कम नींद लेने से, रात को देर तक ज्यादा जागने से, खान-पान के समय में परिवर्तन से, पंखे या ऐसी की ज्यादा हवा लेने से तनाव व सिरदर्द पैदा हो जाता है। मेरे बाएं मस्तिष्क में क्रियाशीलता ज्यादा रही, जिसके लिए इड़ा नाड़ी से ऊर्जा ऊपर चढ़ रही थी। हालाँकि उसके साथ साथ आज्ञा चक्र और मूलाधार का ध्यान करने से ऊर्जा सुषुम्ना में स्थानांतरित हो जाती थी, जिससे दायाँ मस्तिष्क भी क्रियाशील हो जाता था, और सहस्रार में कुंडलिनी चित्र प्रकट हो जाता था। थोड़ी देर बाद वह ऊर्जा फिर से इड़ा नाड़ी में प्रविष्ट हो जाती थी। उसे फिर से इसी तरह सुषुम्ना में ले जाना पड़ता था। यह क्रम बार-2 चलता था। दरअसल दुनियादारी से बायाँ मस्तिष्क और अध्यात्म से दायाँ मस्तिष्क क्रियाशील होता है। दोनों मस्तिष्कों के संतुलन के लिए भौतिकता और आध्यात्मिकता का संतुलन जरूरी है। मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे देवलोक की स्त्रियां नंदा और अलकनन्दा का जल बारी-2 से पीकर रति क्रीड़ा की तरफ आकर्षित होती हैं और महान तृप्ति का अनुभव करती हैं। दरअसल वे दुनियादारी में डूबी हुई होती हैं। इसलिए उनमें ज्यादा एनेर्जी नहीं बची होती। वे सीधे तौर पर गंगा नदी तक नहीं पहुंच सकती हैं। इसलिए वे नन्दा और अलकनन्दा नदियों से ही काम चलाती हैं। मेरे साथ भी लगभग ऐसा ही हुआ। काम के ज्यादा बोझ के कारण मेरे अंदर इतनी एनेर्जी नहीं बची थी कि मैं कुंडलिनी को सीधे ही सहस्रार तक उठा पाता। ऐसा जबरदस्ती करने से मेरे सिर में हल्का दर्द हो रहा था। इसलिए मैंने कुंडलिनी ऊर्जा को उसकी अपनी मर्जी से पीठ से ऊपर चढ़ने दिया। फिर मैंने देखा कि वह इड़ा नाड़ी से होकर बाएँ मस्तिष्क को एक थ्रिल संवेदना के साथ जाने लगी, और लगातार जाती रही। मैं बस बीच में हल्का ध्यान फ्रंट आज्ञा चक्र और दांत के पीछे टिकाई हुई सीधी जीभ पर देता था। उनके साथ मूलाधार पर तो बहुत ही कम बार ध्यान दे पाता था, क्योंकि इससे ऊर्जा सीधे ही सहस्रार व सुषुम्ना में जाती है। उससे वह पिंगला या सुषुम्ना नाड़ी में जाने की कोशिश तो करती, पर जा नहीं पा रही थी। मतलब कि ऊर्जा की कमी थी। बड़ी देर बाद वह थोड़ी देर के लिए ही पिंगला और दाएँ मस्तिष्क में जाती थी, और फिर से इड़ा में आ जाती थी। कुंडलिनी ज्यादातर समय आज्ञा चक्र पर रहती, और उससे ऊपर न जाती। सुषुम्ना और सहस्रार में सिर्फ क्षण भर के लिए ठहरती थी। बात साफ है कि जितनी अपने अंदर ऊर्जा हो, उसीके हिसाब से कुंडलिनी को घुमाना चाहिए। जोर जबरदस्ती नहीँ करनी चाहिए।

ऊर्ध्वरेता पुरुष को ब्रह्मचारी माना जाए या तांत्रिक

मुझे इस सप्ताह शिवपुराण में एक नई जानकारी भी मिली। एक श्लोक में ऊर्ध्वरेता शब्द लिखा मिला। ऊर्ध्वरेता मनुष्य को महान ज्ञानी या आत्मज्ञानी या महान आध्यात्मिक साधक के समकक्ष रखा गया था। ऊर्ध्व का मतलब ‘ऊपर की ओर’ है, और रेता का मतलब ‘वीर्य’ है। इसलिए ऊर्ध्वरेता का मतलब हुआ कि वह व्यक्ति जो अपने वीर्य को ऊपर की ओर चढ़ाता है। यह तो वही सेक्सुअल सबलीमेशन है, जो तंत्रयोग की आधारभूत क्रिया है। तंत्र के नाम पर आजकल इसका ही बोलबाला है, हालाँकि यह वृहद परिपेक्ष्य वाले तंत्र का एक सर्वप्रमुख सहयोगी कारक ही है। अपने आप में यही सबकुछ नहीं है। इसका हिंदी में अनुवाद करते हुए इसे ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी लिखा गया है। जो ब्रह्मचारी है, वह ऊर्ध्वरेता कैसे बन पाएगा, क्योंकि ब्रह्मचारी में तो रेता का उत्पादन ही नहीं होता। रेता का उत्पादन तो सैक्सुअल स्टिमुलेशन से होता है, पर ब्रह्मचारी तो इससे सर्वथा दूर रहता है। यदि उसमें सामान्य शारीरिक क्रियाओं के तहत रेता का उत्पादन होता भी है, तो वह बहुत कम व अन-नोटिसड रहता है। जिस चीज को आदमी शरीर में नोटिस भी नहीं कर सकता, उसे वह ऊपर कैसे चढ़ाएगा। इससे एक और बात पता चलती है कि पुराणों में हर जगह तंत्र का उल्लेख है, और पौराणिक काल में तँत्रविज्ञान आम जनमानस में व्याप्त था। ब्रह्मचर्य भी तो एक तँत्रविज्ञान ही है। यदि ब्रह्मचारी योगसाधना की सहायता से वीर्य ऊर्जा को ऊपर न चढ़ाता रहे, तो वह उसे परेशान करेगी, और उसके मन व शरीर में विकार भी पैदा कर सकती है। यह अलग बात है कि वामपंथी तंत्र में इस ब्रह्मचर्य को अमर्यादित व प्रचण्ड रूप दिया जाता है। इससे हालाँकि आध्यात्मिक विकास बहुत तीव्रता से होता है, पर यदि यह सही ढंग से न किया जाए तो यह आध्यात्मिक पतन भी तीव्र गति से ही करता है। आजकल अधिकांशतः केवल इसी सैक्सुअल तंत्र को ही तंत्र माना जाता है।

महान लोगों के दोष भी आभूषणों की तरह शुभ होते हैं

इस दुनिया में कुछ भी सत्य नहीं है। सब कुछ एकदूसरे के सापेक्ष है। जो दोष आम लोगों में कुलक्षण कहे गए हैं, वही दोष भगवान शिव में सुलक्षण हैं। इसीलिए शिवपुराण में नारद मुनि पार्वती के माता-पिता को समझाते हुए कहते हैं कि ज्ञानियों और महान लोगों के दोष भी गुणों की तरह ही होते हैं। दरअसल नारद मुनि उन्हें बताते हैं कि उनकी पुत्री पार्वती का विवाह एक भूतिया, नंगे, जंगली और असामाजिक व्यक्ति से होगा। इससे वे चिंतित हो जाते हैं। फिर नारद उनकी चिंता को दूर करते हुए कहते हैं कि शिव भी ऐसे ही हैं, इसलिए पार्वती का विवाह शिव से करवाओ। पार्वती उनके मन की चंचलता को मिटा देगी। यह तंत्रयोग का ही तो वर्णन हो रहा है। फिर अधिकांश लोग कहते हैं कि तंत्र यहाँ से आया, वहाँ से आया; या तंत्र ऐसा है, तंत्र वैसा है। शिवपुराण एक पूर्ण समर्पित तंत्र-पुराण ही है। इसकी तंत्रविद्या आसानी से इसलिए पकड़ में नहीं आती, क्योंकि उसे उच्च कोटि की सामाजिकता व रूपकता के साथ लिखा गया है।

मान-अपमान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं

पिछले हफ्ते ही एक दुखद समाचार मिला कि अखाड़ा संघ के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी ने फंदे से झूलकर अपने प्राणों का अंत कर दिया। सूत्रों के अनुसार उन्होंने अपने आखिरी लिखित व वीडियो दस्तावेज में अपने इस काम के लिए अपने शिष्य आनन्द गिरि को जिम्मेदार ठहराया। आनन्द गिरि को उन्होंने बचपन से लेकर पालपोस कर बड़ा किया था, और उनका उसके प्रति विशेष लगाव होता था। सूत्रों के अनुसार वह उन्हें पहले भी समाज में अपमानित करवा चुका था, और अब भी झूठी विडियो वायरल करने जा रहा था, जिसमें उसके गुरु नरेंद्र गिरि किसी स्त्री के साथ आपत्तिजनक अवस्था में दिखाए जाते। इसी अपमान के डर से उन्होंने यह कदम उठाया। वैसे अभी भी इसकी जाँच चल रही है, और अंतिम निष्कर्ष सामने नहीं आया है। गीता में एक श्लोक आता है~जितात्मनः प्रशान्तस्यपरमात्मा समाहितः।शीतोष्णसुखदुःखेषुतथा मानापमानयोः॥६-७॥सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान में जिसने स्वयं को जीता हुआ है, ऐसा पुरुष परमात्मा में सम्यक् प्रकार से स्थित है॥7॥फिर अपमान से भयभीत होने को हम किस प्रकार का अध्यात्म कहेंगे। मैं यहाँ किसी का पक्ष नहीं ले रहा हूँ। मैं केवल घटना के एक पक्ष के बारे में वर्णन कर रहा हूँ, क्योंकि उसीसे सम्बंधित विचार मेरे मन में उठ रहे हैं। हरेक घटना के अनेक पक्ष होते हैं। पर हरेक पक्ष के बारे में विचार रखना एक अकेले आदमी के लिए संभव नहीं है। किसीका यह कहना कि इस घटना का केवल एक ही पक्ष क्यों लिया गया, बेमानी है। दूसरे पक्ष जानने के लिए दूसरे लोगों के विचार जानने चाहिए। एक जगह सभी कुछ नहीं मिल सकता। वैसे भी सम्पूर्ण जानकारी सभी पक्षों को जानकर ही मिलती है। लिटल नॉलेज इज ए डेंजरस थिंग। अगर दूसरे पक्ष की बात संक्षेप में कहूँ तो वह यही है कि गुरु, ज्ञानी और भक्त का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। कुंडलिनी आदमी को बेहद संवेदनशील बना देती है। इसलिए कुंडलिनी योगी को परेशान नहीं करना चाहिए। उनसे प्रेम से ही बर्ताव करना चाहिए। सम्भवतः महिलाएं इसी कुंडलिनी सिद्धांत के कारण ज्यादा संवेदनशील होती हैं। मैं अगली पोस्ट में थोड़ा विस्तार से बताऊंगा कि ऐसा क्यों होता है। पहली बात, अपने प्रति सम्मान पर इतना लट्टू क्यों हुआ जाए कि उसके बाद अपमान झेल ही न सकें। अगर किसीके द्वारा लट्टू हुए बिना न रहा जाए, तो अपना सम्मान करवाया ही क्यों जाए। कुंडलिनी ही ऐसी परिस्थितियों में आदमी की सहायता व रक्षा करती है। कुंडलिनी के अतिरिक्त सृष्टि की हरेक वस्तु में स्वार्थ भरा है। कोई भी आदमी बिना स्वार्थ के मित्रता नहीं दिखाता। वृक्ष भी स्वार्थ के लिए ही फल देता है। गाय से दूध लेने के लिए उसे भी घास खिलाना पड़ता है। यहाँ तक कि नदी व पहाड़ आदि निर्जीव वस्तु से लाभ प्राप्त करने के बदले में उन्हें साफ-सुथरा रखना पड़ता है। पर कुंडलिनी तो बदले में किसी चीज की अपेक्षा नहीं रखती। वह बुरे समय में भी साथ देती है, और सांत्वना व सहानुभूति प्रदान करती है। कुंडलिनी अखण्ड ऊर्जा का एक बुलबुला है। उसका अखण्ड ऊर्जा से अलग अस्तित्व नहीं है। आसमान की तरह शून्य होने से उसे भला किस चीज की जरूरत हो सकती है। जो उसे जितना अधिक याद करता है, उसे उसका उतना ही ज्यादा साथ मिलता है। कुंडलिनी के अतिरिक्त हरेक वस्तु अस्थायी और अपवित्र है। कुंडलिनी के अतिरिक्त हरेक वस्तु भौतिक बाध्यताओं व सीमाओं से बंधी होती हैं। कुंडलिनी एक शुद्ध मानसिक चित्र है, शून्य ऊर्जा-आकाश का एक बुलबुला है। उसे भौतिक आयाम छू भी नहीं सकता। इसलिए अच्छी तरह से पालपोस कर रखी गई कुंडलिनी बुरे वक्त में बहुत काम आती है। जब भौतिक कार्यों व सम्बन्धों से तनाव बढ़ जाता है, तब पूरे शरीर की कार्यप्रणाली गड़बड़ा जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मस्तिष्क में ऊर्जा की कमी हो जाती है। उस समय अद्वैत की भावना करने से मन में कुंडलिनी प्रकट होने लगती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अद्वैत से शरीर थोड़ा रिलेक्स हो जाता है, जिससे ऊर्जा की खपत घट जाती है। अतिरिक्त ऊर्जा से मन में कुंडलिनी प्रकट होने लगती है। उस कुंडलिनी को बनाए रखने के लिए मूलाधार से ऊर्जा ऊपर चढ़ने लगती है। उससे एकदम से शारीरिक कार्यप्रणाली दुरस्त हो जाती है, और उससे मन के क्रोध आदि दोष मिट जाते हैं। दरअसल ऐसा मस्तिष्क में ऊर्जा की भरपूर उपलब्धता पैदा होने से ही होता है। मैंने पिछली पोस्ट में भी शिवपुराण का हवाला देकर लिखा था कि सहस्रार चक्र पूरे मस्तिष्क को ऊर्जा की आपूर्ति करता है। इसलिए जब मस्तिष्क में कुंडलिनी प्रकट हो जाए तो उसके साथ आज्ञा चक्र और मूलाधार चक्र का एकसाथ ध्यान करके उसे सेंट्रलाइज करने को कहा जाता है, ताकि वह सहस्रार में आ जाए। सहस्रार चक्र में इसीलिए एक हजार पंखुड़ियों को दर्शाया जाता है क्योंकि वह मस्तिष्क सहित पूरे शरीर में अनगिनत या हजारों स्थानों में ऊर्जा की आपूर्ति करता है। 

श्वास पर ध्यान से लाभ कुंडलिनी के माध्यम से ही मिलता है

एक दिन मैं थका हुआ महसूस कर रहा था। मैं सो भी नहीं पा रहा था, क्योंकि दिन में खाना खा लेने के बाद सोने से मुझे गैस्ट्रिक एसिड रिफलक्स होता है। पेट से मुंह को खटास जैसी आती है, जिससे दांत भी घिसते हैं। खाली बैठ कर साँसों पर ध्यान देने लगा, खासकर हँस शब्द के साथ। इससे थकान भी दूर हो गई और कुंडलिनी आनन्द भी प्रकट हो गया। साँस भरते समय साँस की आवाज पतले संगीत वाली थी, और बाहर जाती साँस की आवाज मोटे संगीत की थी। आप कह सकते हैं कि अंदर जाती साँस की आवाज की ट्रेबल या फ्रेकवेंसी ज्यादा थी, पर बाहर जाती साँस का ट्रेबल कम और बास ज्यादा था। म की आवाज ज्यादा ट्रेबल की और स की आवाज कम ट्रेबल की है। इसीलिए हँस के रूप में साँस पर ध्यान दिया जाता है। इसलिए हँ का ध्यान अंदर जाती साँस के साथ, व स का ध्यान बाहर जाती साँस के साथ किया जाता है। इससे बहुत लाभ मिलता है।

वैदिक दर्शन एक व्यावहारिक दर्शन है

व्यवहारिक दर्शन इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह शून्यवादी दर्शन नहीं है। वैदिक कर्मकांड इसका जीता जागता उदाहरण है। इसमें योग और ध्यान को दुनियादारी से प्राप्त किया जाता है, पलायनवाद से नहीं। मैं खुद इसी माहौल में पला-बढ़ा हूँ। यह अलग बात है कि जागरण रूपी अंतिम छलांग के लिए मैंने कुछ समय के लिए तंत्रयोग का सहारा भी लिया। पर यह भी सत्य है कि तंत्रयोग भी तभी सहायता करता है, यदि वैदिक कर्मकांड के प्रेमभरे माहौल में आदमी ने प्रारम्भिक आध्यात्मिक मुकाम हासिल कर लिया हो।

आध्यात्मिक रूप से हरेक पुरुष शिव और हरेक स्त्री पार्वती है

सती तपस्या करके शिव को प्राप्त करती है। अगले जन्म में जब वह पार्वती बनती है, तब भी तपस्या से ही शिव को प्रसन्न करके उन्हें प्राप्त करती है। मुझे तो यह तँत्रसम्मत गृहस्थ जीवन का रूपक ही लगता है। पार्वती की तपस्या यहाँ पर गृहस्थ जीवन की शुरुआत में एक पत्नी का, त्याग और समर्पण से भरपूर जीवन ही है। इसीलिए देखने में आता है कि गृहस्थी की शुरूआती खटपट के बाद ही असली गृहस्थ जीवन शुरु होता है। किसीकी गृहस्थी कुछ महीनों में ही पटरी पर आ जाती है, किसी को कुछ साल लग जाते हैं। कईयों के बीच तो तब असली ट्यूनिंग बनती है, जब उनके बच्चे भी बड़े हो जाते हैं। यह पति-पत्नी, दोनों की उचित भागीदारी पर निर्भर करता है कि कितना समय लगेगा। कई स्त्री पर आसक्त रहने वाले पति पत्नी से बिल्कुल भी तप नहीं करवाते और न ही खुद करते हैं। वे हालाँकि शुरु में ही फुल्ली ट्यूनड लगते हैं, पर यह दिखावा ज्यादा होता है। इस जल्दबाजी में वे एकदूसरे को ढंग से व गहराई से नहीं जान पाते। इससे कुछ न कुछ तांत्रिक कमी तो बाद तक रह ही जाती है। शादी से पहले तो चाहता ही है कि उसकी होने वाली पत्नी गुणों में देवी पार्वती से कम न हो, पर शादी के बाद भी पुरुष चाहता है कि उसकी पत्नी उसकी तन-मन-धन से सेवा करती रही, उससे भरपूर प्रेम करे और पूरी तरह उसके प्रति समर्पित रहे। मतलब कि पति चाहता है कि उसकी पत्नी उसके लिए पहले घोर तप करे, तभी वह अपने आपको उसके हवाले करेगा। भगवान शिव भी तो सती से या पार्वती से यही चाहते हैं। इसीलिए पार्वती निरन्तर शिव का स्मरण करते हुए घोर तप करती है। उसीके बाद शिव उसे स्वीकार करते हैं। थोड़ा तप तो शिव भी करते हैं। वे लगातार पार्वती की याद में इधर-उधर भटकते रहते हैं। यही उनका तप है। दरअसल यह मानव जीवन का मनोविज्ञान ही है, जिसे पुराणों में देवी-देवताओं की कथाओं द्वारा समझाया गया है।

युद्ध की देवी काली

युद्ध आदि के समय और अन्य विकट परिस्थितियों में भगवती माता या काली की पूजा करने का विधान है। दरअसल ऊर्जा का स्रोत स्त्री ही है। युद्ध आदि के समय बहुत अधिक प्राण ऊर्जा की आवश्यकता होती है, आम समय की अपेक्षा दुगुने से भी ज्यादा। शरीर को चलायमान रखने के लिए अलग से ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, और मन को स्थिर रखने के लिए अलग से। अगर मुक्ति की आकांक्षा हो, तब तो और भी ज्यादा ऊर्जा चाहिए, क्योंकि उसके लिए साथ में नाड़ियों और अन्य चक्रों के साथ सहस्रार को भी जागृत रखना पड़ता है। काली को वीभत्स रूप इसलिए दिया गया है क्योंकि उससे प्राप्त ऊर्जा का इस्तेमाल युद्धादि में उपजे रक्तपात के लिए भी होता है। दूसरा मतलब यह भी है कि शक्ति खून की प्यासी भी हो सकती है।

कुंडलिनी प्रेम, आदर, और समर्पण के भावों की भूखी है, जो योग या सामाजिक रिश्तों या दोनों से बढ़ाए जाने योग्य हैं

कुंडलिनी योग के सर्वोच्च महत्त्व को दर्शाती शिवपुराण की शिव-सती व दक्ष-यज्ञ की कथा

दोस्तो, इस हफ्ते मुझे एक नई अंतर्दृष्टि मिली है। शिवपुराण में एक प्रसिद्ध कथा आती है। प्रजापति दक्ष जो ब्रह्मा का पुत्र था, उसने शिवेच्छा और अपने पिता की संस्तुति से प्रेरित होकर अपनी पुत्री सती का विवाह भगवान शिव से कराया था। एकबार किसी तीर्थस्थान पर ऋषियों और राजाओं की बैठक हो रही थी। उस सभा में भगवान शंकर भी बैठे थे। तभी वहाँ ब्रह्मा भी आए। सभी लोग उनके सम्मान में खड़े हो गए और उन्हें नमन किया। परंतु भगवान शिव चुपचाप बैठे रहे। इससे दक्ष उनपर बड़ा गुस्सा हुआ, और उन्हें भला-बुरा कहने लगा। बात यहीं खत्म नहीं हुई। दक्ष के मन में क्रोध और बदले की आग बुझ ही नहीं रही थी। इसलिए उसने शिव को अपमानित करने के लिए एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उसमें उसने अपने जामाता शिव को छोड़कर अपने सभी संबंधियों, सृष्टि के सभी देवताओं और विशिष्ट लोगों को बुलाया। जब पार्वती ने अपनी बहनों को सज-धज कर कहीं जाते हुए देखा, तो अपनी सखी से उनसे पुछवाया कि वे कहाँ जा रही थीं। जब पार्वती को अपने पिता दक्ष के यज्ञ के बारे में पता चला तो वह अपने पति शिव के पास जाकर चलने के लिए कहने लगी। शिव ने बताया कि दक्ष उनसे शत्रुता रखते हैं, इसलिए उन्होंने उन्हें जानबूझकर नहीं बुलाया। सती ने फिर कहा कि शास्त्रों के अनुसार पिता, गुरु और मित्र के यहाँ जाने के लिए किसी निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती। तब शिव ने जवाब दिया कि उसकी बात ठीक है, पर दक्ष की बात और है, वह वहाँ उसका अपमान करेंगे और अपनों के द्वारा किया अपमान मृत्यु से बढ़कर होता है। पर सती नहीँ मानी और वहां चली गई। वहाँ अपने पति शिव का स्थान व भाग न देखकर वह बहुत क्रोधित हुई और अपने पिता दक्ष को फटकारने लगी। सती ने शिव को असली और सबसे बड़ा देवता बताया। दक्ष ने उससे कोई बात नहीं की और न ही औरों को करने दी। फिर जब सती चुप नहीं हुई, तब उसने सती को भूतों के साथ रहने वाले वेदविरुद्ध और गन्दे शिव की पत्नी कहा। फिर सती ने यह सोचकर कि वह शिव को क्या मुंह दिखाएगी और जब वे उसे दाक्षायणी या दक्ष-पुत्री कहेंगे तो वह क्या जवाब देगी, अपना शरीर योगविद्या से त्याग दिया और यज्ञ की अग्नि में प्रविष्ट कर गई। उसके दुख से 10000 शिवगणों ने गुस्से में अपने अस्त्र-शस्त्रों से अपने अंग भंग कर दिए और मृत्यु को प्राप्त हो गए। जब बाकि बचे गणों ने यज्ञ पर हमला किया तो ऋषियों द्वारा यज्ञ से पैदा किए ऋभु देवों से उनका युद्ध हुआ। उसी समय आकाशवाणी हुई जो दक्ष को फटकारने लगी। उसने सती को सबकी माँ, सूर्य-चन्द्र समेत सारी सृष्टि को पैदा करने वाली, शिव की परम प्यारी, शिव के आधे शरीर के रूप वाली, भुक्ति और मुक्ति देने वाली, सभी सुख प्रदान करने वाली, और परम आदरणीय बताया। उसने सती का आदर न करने पर दक्ष को बहुत फटकारा। ऋभुओं ने उस समय तो शिवगणों को भगा दिया पर बाद में शिव के भयानक दूसरे गणों ने आकर दक्ष यज्ञ का विध्वंस कर दिया था। वह सती अपने अगले जन्म में पार्वती नाम से फिर से शिव की पत्नी बनी।

कुंडलिनी शक्ति सती, कार्यकारी मन ब्रह्मा, और भूतिया जीवात्मा शिव के रूप में दर्शाया गया है

अब उपरोक्त कथा का गूढ़ रहस्य समझते हैं। दरअसल कुंडलिनी ही देवी सती है। शिव शून्य आकाश की तरह है। दोनों साथ रहकर ही अपनी सत्ता प्राप्त करते हैं। अलग रहकर तो न होने के सदृश ही हैं। मतलब कि दोनों साथ रहते हैं। सती से ही शिव को चमक प्राप्त होती है। शिव से सती को स्थिरता या सनातनता या अजरता-अमरता, और सर्वव्यापकता प्राप्त होती है। अब यहाँ कुछ दार्शनिक पेंच हैं, जिन्हें अक्सर नजरन्दाज किया जाता है। आदमी बड़े-2 धार्मिक कार्य करता है, पर कुंडलिनी योग को नजरंदाज करता है। ऐसे लोग प्रजापति दक्ष की तरह हैं, जिन्हें उसकी तरह नरक में जाना पड़ता है। इस कथा में कुंडलिनी योग का महत्त्व छिपा हुआ है। भाईसाहब, अब कुंडलिनी क्या है, यही यक्ष प्रश्न हरेक पोस्ट में खड़ा हो जाता है। मन में तो अनगिनत चित्र हैं। अब किसे कुंडलिनी माना जाए। तो इसका यही उत्तर बनता है कि तांत्रिक यौनयोग या पंचमकारों वाले योग के समय जो मन में सबसे मजबूती व सहजता से उभरे, वही चित्र कुंडलिनी है। क्योंकि कुंडलिनी तभी बनती है न जब मन का कोई चित्र मूलाधार स्थित यौन शक्ति से जुड़ता है। वही चित्र कुंडलिनी चित्र है, मन का कोई सामान्य चित्र नहीं। कुंडलिनी की दूसरी पहचान यह है कि उसके साथ आदमी के अंदर शून्यता, और व्यापकता भी हावी हो जाती है। यही शिव या आत्मा है, जिसे भूतों का साथी कहा गया है। भूत मृत्यु को भी कहते हैं। शून्यता और व्यापकता मृत्यु का प्रमुख गुण है। इसीसे शिव या आत्मा भूतों का साथी हुआ। कुंडलिनी की तीसरी पहचान है कि यह एक शुद्ध मानसिक चित्र होता है। मतलब कि वह भौतिक रूप में उपलब्ध नहीं होता। भौतिक रूप में मिलने से वह चित्र कुंडलिनी रहता ही नहीं, क्योंकि भौतिक वस्तुओं में हजारों दोष दिखाई देते हैं। दोषों वाली चीज मन में कहाँ चमकी रह पाएगी। इसीलिए किसी देवता के या गुरु के मानसिक चित्र को कुंडलिनी बनाया जाता है। विशेष आदर बुद्धि होने के कारण गुरु के भौतिक रूप में भी दोष नहीं दिखाई देता। कुंडलिनी की चौथी पहचान यह है कि मन में अद्वैतमयी भाव पैदा होने पर केवल अकेला कुंडलिनी चित्र मन में तेजी से चमकने लगता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अद्वैत भाव शून्य आकाश जैसा ही होता है। मतलब यह शिव भाव होता है। वहाँ सती तो हर हाल में पहुंचेगी ही, क्योंकि वह शिव के आधे शरीर के रूप में जो है। अगर फिर भी आपको कुंडलिनी का पता न चले, तो मैं कुछ नहीं कर सकता। हाहाहा। शिवपुराण में भी वही लिखा है जो मैं पिछली पोस्टों में बोल रहा था कि कुंडलिनी ही आध्यात्मिक मुक्ति के साथ भौतिक तरक्की व भोग-विलास भी प्रदान करती है। मन से ही सारा संसार है। जो यह कहा गया है कि उससे ही सारी सृष्टि की उत्पत्ति होती है, वह सब मन में ही तो होता है। सारी सृष्टि इस फुटबॉल के जितने आकार वाले सिर के अंदर पसरे मन में ही तो है, बाहर कुछ भी नहीं है। और भाई मन का सर्वप्रमुख प्रतिनिधि होने के कारण कुंडलिनी को मन भी कह सकते हैं। तो हुई न कुंडलिनी से ही सारी सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय। दक्ष यहाँ कर्म में लगे हुए गौण मन का प्रतीक है। वह जगत में प्रसिद्धि व पुण्य प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के यज्ञ कर्म करता है। वह अनेक प्रकार के देवताओं का पूजन करता है। उससे अद्वैत भाव से मन में कुंडलिनी का उद्भव होता है। वही उसकी सबसे प्रिय पुत्री सती है। शिव उससे शादी करने की इच्छा करते हैं, मतलब वे कुंडलिनी को जागरण के लिए प्रेरित करते हैं। यह भी आता है कि शिव-सती की जोड़ी सनातन है, वे केवल लीला के लिए ही अलग होते रहते हैं, और शादी करते रहते हैं। तभी तो सती अगले जन्म में पार्वती बनकर फिर से शिव की पत्नी बनी। इसका मतलब साफ है कि जीव ईश्वर से अलग होता है, और उसी में विलीन भी हो जाता है। दक्ष शिव की इच्छा का सम्मान करते हुए सती का विवाह शिव से कर देते हैं, मतलब कुंडलिनी जागरण हो जाता है, दक्ष अर्थात गौण मन जिसका पूरा आनंद उठाता है। ब्रह्मा भी सती का विवाह शिव से कराने के लिए दक्ष को मनाते हैं। इसका मतलब है कि जो ब्रह्मा के रूप में मुख्य या मूल मन है, वह अपने अंदर सृष्टि को बढ़ा कर ज्यादा से ज्यादा बड़ा होना चाहता है। उसे पता है कि ईश्वर में मिलकर वह सबसे बड़ा हो जाएगा। इसलिए वह काम-काज में व्यस्त रहने वाले मन अर्थात दक्ष को कुंडलिनी जागरण के लिए प्रेरित करता है। ब्रह्मा यहाँ मूल मन का प्रतीक है। फिर दक्ष सती को यज्ञ में नहीं बुलाता। इसका मतलब है कि कुंडलिनी जागरण के बाद कार्यकारी मन कुंडलिनी योग नहीं करता और दुनिया के कामों में व्यस्त हो जाता है। मतलब साफ है कि यदि कुंडलिनी जागरण के बाद कुंडलिनी योग न किया, तब भी पतन सम्भव है। फिर जिसकी कुंडलिनी जागृत ही नहीं हुई, उसे तो क्यों नहीं करना चाहिए। दक्ष ने शिव को नहीं बुलाया, मतलब उसने अद्वैत भाव को धारण नहीं किया। सती दक्ष से मिलने अकेले गई, मतलब कुंडलिनी मन में बारबार आती है यह देखने कि उसका सम्मान है कि नहीं। शिव उसके साथ तभी आएंगे जब उसे सम्मान दिया जाएगा अर्थात कुंडलिनी से अद्वैत भाव को धारण करके शिव को भी सम्मान दिया जाएगा, मतलब कुंडलिनी योग से उसपर गौर किया जाएगा। हालांकि मन से तो शिव कुंडलिनी के साथ है ही। दक्ष ने कुंडलिनी का सम्मान नहीं किया, मतलब उसने कुंडलिनी योग नहीं किया। सती ने आत्मदाह किया, मतलब कुंडलिनी नष्ट हो गई। उसके साथ शिवगणों ने भी आत्महनन किया, मतलब दक्ष रूपी गौण मन से शिव के बहुत से गुण गायब हो गए। गणों को सुंदर विचार भी कह सकते हैं। वे कुंडलिनी के साथ रहते हैं, और शिव की सहायता से उत्पन्न होते हैं। बाकि बचे गणों ने यज्ञ पर हमला किया, मतलब भगवान के कोप से सांसारिक विघ्न आए। यज्ञ से उत्पन्न ऋभुओं ने गणों को भगाया, मतलब अच्छे कर्मों के पुण्यों से दक्ष का बचाव हुआ। बाद में शिव के महान गणों से ऋभु देव भी नहीं बचा सके, मतलब मृत्यु के समय दक्ष के अच्छे कर्म उसके काम नहीं आए, और कुंडलिनी न होने से शिव ने भी उसका साथ नहीं दिया। शिवगण ने दक्ष का सिर धड़ से अलग कर दिया, मतलब दक्ष को मुक्ति के बिना ही मरना पड़ा। फिर शिव ने उसे बकरे का सिर लगाया जिससे वह  बैं-बैं या बम-बम की आवाज करता हुआ शिव की स्तुति करने लगा। मतलब कुंडलिनी के आंशिक प्रभाव से दक्ष का पुनर्जन्म एक शिवभक्त के रूप में हुआ जिससे शिव की भक्ति करता हुआ वह मुक्त हो गया। बकरे में अहंकार नहीं होता। वह भक्ति का प्रतीक है, क्योंकि वह अपने मालिक के लिए बैं-बैं की प्रेम की रट लगा रखता है। इसका मतलब है कि जो कुंडलिनी योग से कुंडलिनी को सम्मान नहीं देता, वह अगले जन्म में भक्त बनता है। भक्ति उसकी योग की कमी को पूरा करती है। जब बुढ़ापे, बाल्यावस्था व बीमारी की अवस्था में आदमी तांत्रिक कुंडलिनी योग नहीं कर सकता, उस समय भक्ति ही उसका सहारा होती है। भक्ति से वह अपने मन को लगातार इष्ट में लगा कर रखता है। मुझे प्रेम और सम्मान में कोई अंतर प्रतीत नहीं होता। प्रेम और सम्मान वास्तव में पर्यायवाची शब्दों की तरह है। प्रेम से ही असली सम्मान होता है। बिना प्रेम का सम्मान तो दिखावा या जबरदस्ती का सम्मान है। तभी पहाड़ी भाषा में एक कहावत है, “मूंड मेक रौ डाल नी कराऊँदि”। इसका मतलब है कि किसी का सिर मोड़कर उससे प्रणाम नहीं कराई जा सकती। जहां ज्ञान खत्म होता है, वहाँ भक्ति शुरु होती है। भगवान वेदव्यास ने 17 पुराण रच दिए थे। सारी सृष्टि का और ईश्वर का ज्ञान उसमें भर दिया था। पर उन्हें संतुष्टि नहीं मिली। इसलिए उन्होंने भक्तिमय पुराण श्रीमद्भागवत की रचना की। फिर उनकी कुंडलिनी स्थिर हुई, जिससे उन्हें परम संतुष्टि मिली। पर सीधे भक्ति करना भी मुश्किल है। असली भक्ति ज्ञान के बाद ही होती है। जो लोग बचपन से ही प्रेमी स्वभाव के होते हैं, वे पिछले जन्म के कुंडलिनी योगी प्रतीत होते हैं। कुंडलिनी योग को आसन प्राणायाम वाले योग तक ही सीमित नहीं समझना चाहिए। यह प्राकृतिक कारणों से स्वयं भी हो सकता है। कुंडलिनी के प्रति आदर बुद्धि रखने में तो कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये। वह एक मानसिक चित्र है, आध्यात्मिक चित्र है। उसमें भौतिकता का कोई नामोनिशान नहीँ। अशुद्धि तो भौतिक पदार्थों में ही सम्भव है। अशुद्धि भौतिक ही होती है। यह शारीरिक अपशिष्टों, घृणा, क्रोध,वासना आदि से बनी होती है। आकाश या शून्य में कोई भौतिक वस्तु है ही नहीं। इसीलिए कुंडलिनी चाहे किसी भी रंग-रूप में क्यों न हो, हर हालत में आदरणीय है। इसीलिए आध्यात्मिक व्यक्ति को ही ज्यादातर मामलों में गुरु बनाया जाता है, क्योंकि उनमें आकाश की तरह अशुद्धि या दोष नहीं होते। दोष स्वार्थ से पैदा होते हैं। आकाश को किसी चीज की जरूरत नहीं क्योंकि वह अविनाशी है, इसलिए उसमें दोष नहीं हैं। दूरदर्शन के चरित्र भी इसीलिए प्रिय व आदरणीय लगते हैं, क्योंकि वे भी आकाश की तरह ही शुद्ध हैं। मन में बने चित्र से ज्यादा कुछ नहीं हैं। उनके भौतिक रूप से हमें कोई मतलब नहीं होता। भौतिक रूप के साथ बहुत जिम्मेदारियां जुड़ी होती हैं। तभी तो कई लोग इन चरित्रों के इतने दीवाने हो जाते हैं कि उनके लिए पता नहीं क्या-क्या कर बैठते हैं। यदि वैसे लोग उन्हें कुंडलिनी बना कर साधना करे, तो सफलता क्यों न मिले।

प्रेम, आदर और समर्पण ही मानवता की रीढ़ है

प्रेम, आदर और समर्पण में भावना की मात्रा का ही फर्क है, वैसे तीनों समान हैं। प्रेम तो हम बच्चों के साथ भी करते हैं। विशिष्ट लोगों के लिए प्रेम के साथ आदर जुड़ने से वह और घना हो जाता है। अति विशिष्ट और दिल के सबसे नजदीक लोगों के लिए उसमें समर्पण भी जुड़ जाता है। इससे प्रेम सर्वोच्च कोटि का बन जाता है। कुंडलिनी ऐसे ही सर्वोच्च कोटि के प्रेम या समर्पण की भूखी होती है। हम जो औरों से अपने प्रति समर्पण की आकांक्षा करते हैं, वह कुंडलिनी के लिए ही करते हैं। मुझे बाहुबली फिल्म में बाहुबली के प्रति लोगों का उच्च कोटि का समर्पण दिखा था। महामानव या सुपरहीरो वाली फिल्में इसीलिए अच्छी लगती हैं क्योंकि उनमें समर्पण की घटनाओं से कुंडलिनी को बल मिलता है। इसी तरह मेरे क्षणिक जागरण के समय वहाँ उपस्थित लोग मुझे अपने प्रति समर्पित से लगे। उनकी वह समर्पण की भावना मेरी कुंडलिनी को लगी और वह जागृत हो गई। यदि मैं तांत्रिक कुंडलिनी योग न कर रहा होता, तो वह समर्पण कुंडलिनी के प्रति तो होता और उससे कुंडलिनी चमकती भी पर जागृत न होती। स्त्री प्रेम और प्रणय प्रेम कुंडलिनी को बढ़ाता है, क्योंकि उसमें समर्पण होता है। अगर तो प्रणय प्रेम तांत्रिक किस्म का हो, तब तो और अधिक कुंडलिनी को भड़काता है। इसीलिए शास्त्रों में समर्पण और प्रणय प्रेम से भरी कथाओं की भरमार है। भक्ति भी तो समर्पण ही है। तभी कहते हैं कि जहां ज्ञान हार जाता है, वहाँ भक्ति जीत जाती है। इसी समर्पण के लिए ही हिंदु शास्त्रों में प्रेम और शिष्टाचार का बहुत ज्यादा महत्त्व है। इसीलिए कुंडलिनी संस्कृति एक आदर्श मानवतापूर्ण संस्कृति है, क्योंकि इसमें प्रेम, आदर और समर्पण की भरमार होती है, जो मानवता के सर्वप्रमुख गुण हैं। प्राचीन आर्यन संस्कृति ऐसी ही आदर्श संस्कृति थी। आजकल की पीढ़ी के लोग इन्हें मजाक में लेते हैं। तभी तो एक वीडियो गेम की रिकॉर्डिंग वाले अदने से यू टयूब चैनल को भी कुछ ही महीनों में हजारों-लाखों फ़ॉलोअर मिल जाते हैं, और ज्ञान-विज्ञान से भरे इस कुंडलिनी ब्लॉग को तीन सालों में पांच सौ भी नहीं मिले हैं। मैं आत्मप्रशंसा नहीं कर रहा हूँ, और न ही फॉलोवर्स बढ़ाने की मंशा रखता हूँ, पर आज के समाज की दयनीय दशा की तस्वीर साझा कर रहा हूँ। मैं तो कुछ भी नहीं हूँ। मैं तो बस एक मामूली सा टैन सैकण्ड मैन या दशक्षण व्यक्ति हूँ, मतलब मेरे सारे आध्यात्मिक अनुभव दस सेकंड के लगभग ही रहे हैं। हाहाहा।

तंत्र योग से समर्पण की कमी पूरी की जा सकती है

हिंदु शास्त्रों में जो मांसाहार और मद्य का निषेध है, वह इसी समर्पण की भावना को बचाने के लिए है। बेचारे पालतू पशु आदमी के प्रति पूरी तरह से समर्पित होते हैं, पर आदमी ही उनका गला घोंटता है। यह समर्पण भाव का गला घोंटना ही तो है। इस हिसाब से इससे बढ़िया तो जंगल या झील का शिकार है। उससे समर्पण के साथ धोखा तो नहीं होगा। यह एक दार्शनिक जुगाली है, इसे ज्यादा गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए। इसी तरह मद्यपान भी समर्पण को घटाता है, क्योंकि इससे आदमी अनजाने में ही दुर्व्यवहार कर बैठता है। यहाँ पँचमकारी तँत्रविज्ञान काम कर सकता है। तंत्र विज्ञान समर्पण भाव से ज्यादा अपेक्षा नहीं रखता। वह तो बलपूर्वक कुंडलिनी को वश में करके उसे जागृत कर लेता है। यह तो कुंडलिनी को बलात्कार से वश में करने की तरह ही है। हालाँकि कुछ जरूरत तो पड़ती ही है, जैसे मुझे पड़ी थी, जैसा मैंने ऊपर बताया। यदि समर्पण को बिल्कुल नजरन्दाज करना हो, तो तांत्रिक योग बहुत शक्तिशाली होना चाहिये। वैसे जब तन्त्रयोगी का शरीर दुर्बल हो जाता है और उससे उच्च कोटि का तंत्रयोग नहीं हो पाता, तब तो अन्ततः उसे समर्पण या भक्ति के आश्रित होना ही पड़ता है। यही यहाँ ज्ञान पर भक्ति की जीत है। हालाँकि उसे भक्ति भाव बहुत शीघ्रता से प्राप्त हो जाता है, पर फिर उसे अपना खान-पान और आचार-विचार सुधारना पड़ता है।

पूर्ण समर्पण ही कुंडलिनी जागरण के रूप में कुंडलिनी योग की पराकाष्ठा है

कुंडलिनी योग की शुरूआत कुंडलिनी से बलपूर्वक प्रेमपूर्ण सम्बन्ध बनाने से होती है। धीरे-धीरे वह प्रेम आसान हो जाता है। फिर समय के साथ उसके साथ आदर भी जुड़ जाता है, और वह और ज्यादा मजबूत हो जाता है। लगातार कुंडलिनी योग करते हुए बहुत समय बीतने पर कुंडलिनी के प्रति प्रेम और आदर के साथ समर्पण भी जुड़ जाता है। फिर अंत में कुंडलिनी के प्रति समर्पण इतना ज्यादा बढ़ जाता है कि योगी कुंडलिनी के साथ एकाकार हो जाता है। इसे ही समाधि या कुंडलिनी जागरण कहते हैं। तंत्रयोग से बेशक कुंडलिनी जागरण एक झटके में मिल जाता हो, पर बाद में कुंडलिनी जागरण को स्थायी बनाने के लिए उसे योगसाधना के इसी क्रम से गुजरना पड़ता है। इसलिए कुंडलिनी जागरण हुआ हो या न हुआ हो, कुंडलिनी योग सभी को करते रहना चाहिए। जिन्हें नहीं हुआ हो, उन्हें जल्दी सफलता मिलती है, क्योंकि उन्हें उसका अहंकार नहीं होता और नए अनुभव को प्राप्त करने का शौक भी होता है। दुबारा से एक ही अनुभव को प्राप्त करने में इतनी रुचि नहीं होती, जितनी नए अनुभव को प्राप्त करने में होती है।

कुंडलिनी तंत्र की वैज्ञानिकता को भगवान शिव स्वयं स्वीकार करते हैं

दोस्तो, शिवपुराण में आता है कि पार्वती ने जब शिव के साथ दिव्य वनों, पर्वत श्रृंखलाओं में विहार करते हुए बहुत समय बिता दिया, तो वह पूरी तरह से तृप्त और संतुष्ट हो गई। उसने शिव को धन्यवाद दिया और कहा कि वह अब संसार के सुखों से पूरी तरह तृप्त हो गई है, और अब उनके असली स्वरूप को जानकर इस संसार से पार होना चाहती है। शिव ने पार्वती को शिव की भक्ति को सर्वोत्तम उपाय बताया। उन्होंने कहा कि शिव का भक्त कभी नष्ट नहीं होता। जो शिवभक्त का अहित करता है, वे उसे अवश्य दंड देते हैं। उन्होंने शिवभक्ति का स्वरूप भी बताया। पूजा,अर्चन, प्रणाम आदि भौतिक तरीके बताए। सख्य, दास्य, समर्पण आदि मानसिक तरीके बताए। फिर कहा कि जो शिव के प्रति पूरी तरह से समर्पित है, शिव के ही आश्रित है, और हर समय उनके ध्यान में मग्न है, वह उन्हें सर्वाधिक प्रिय है। वे ऐसे भक्त की सहायता करने के लिए विवश है, फिर चाहे वह पापी और कुत्सित आचारों व विचारों वाला ही क्यों न हो। शिवभक्ति को ही उन्होंने सबसे बड़ा ज्ञान बताया है।

पार्वती का शिव के साथ घूमना जीव का आत्मा की सहायता से रमण करना है

वास्तव में जीव चित्तरूप या मनरूप ही है। जीव यहां पार्वती है, और आत्मा शिव है। मन के विचार आत्मा की शक्ति से ही चमकते हैं, ऐसा शास्त्रों में लिखा है। इसको ढंग से समझा नहीं गया है। लोग सोचते हैं कि आत्मा की शक्ति तो अनन्त है, इसलिए अगर मन ने उसकी थोड़ी सी शक्ति ले ली तो क्या फर्क पड़ेगा। पर ऐसा नहीं है। आत्मा मन को अपना प्रकाश देकर खुद अंधेरा बन जाती है। यह वैसे ही होता है, जैसे माँ अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को अपनी ताकत देकर खुद कमजोर हो जाती है। वास्तव में ऐसा होता नहीं, पर भ्रम से जीव को ऐसा ही प्रतीत होता है। इसी वजह से पार्वती का मन शिव के साथ भोग-विलास करते हुए भ्रम से भर गया। अपनी आत्मा के घने अंधकार को अनुभव करके उसे उस अंधकार से हमेशा के लिए पार जाने की इच्छा हुई। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब तक आदमी समस्या को प्रचंड रूप में अनुभव न करे, तब तक वह उसे ढंग से हल करने का प्रयास नहीं करता। इसीलिए तजुर्बेदार लोग कहते हैं कि संसार सागर में डूबने के बाद ही उससे पार जाने की इच्छा पैदा होती है। इसलिए यह तंत्र सम्मत सिद्धांत एक वैज्ञानिक सत्य है कि निवृत्ति के लिए प्रवृत्ति बहुत जरूरी है। प्रवृत्ति के बिना निवृत्ति का रास्ता सरलता से नहीं मिलता। इसलिए नियम-मर्यादा की डोर में बंधे रहकर दुनिया में जमकर ऐश कर लेनी चाहिए, ताकि मन इससे ऊब कर इसके आगे जाने का रास्ता ढूंढे। नहीं तो मन इसी दुनिया में उलझा रह सकता है। कई तो इतने तेज दिमाग होते हैं कि दूसरों के एशोआराम के किस्से सुनकर खुद भी उनका पूरा मजा ले लेते हैं। कइयों को वे खुद अनुभव करने पड़ते हैं।

कुंडलिनी को शिव, और कुंडलिनी योग को शिवभक्ति माना गया है

कुंडलिनी से भी यही फायदे होते हैं, जो शिव ने अपने ध्यान से बताए हैं। शिवपुराण ने कुंडलिनी न कहकर शिव इसलिए कहा है, क्योंकि यह पुराण पूरी तरह से शिव के लिए ही समर्पित है। इसलिए स्वाभाविक है कि शिवपुराण रचयिता ऋषि यही चाहेगा कि सभी लोग भगवान शिव को ही अपनी कुंडलिनी बनाए। उपरोक्त शिव वचन के अनुसार कुंडलिनी तंत्र सबसे ज्यादा वैज्ञानिक, प्रभावशाली और प्रगतिशील है। बाहर से देखने पर पापी और कुत्सित आचार-विचार तो तंत्र में भी दिखते हैं, हालांकि साथ में शक्तिशाली कुंडलिनी भी होती है। वह चकाचौंध वाली कुंडलिनी उन्हें पवित्र कर देती है। तीव्र कुंडलिनी शक्ति से शिव कृपा तो मिलती ही है, साथ में भौतिक पंचमकारों आदि से भौतिक तरक्की भी मिलती है। इससे कई लाभ एकसाथ मिलने से आध्यात्मिक विकास तेजी से होता है। शिव खुद भी बाहर से कुत्सित आचार-विचार वाले लगते हैं। प्रजापति दक्ष ने यही लांछन लगाकर ही तो शिव का महान अपमान किया था। वास्तव में शिव एक शाश्वत व्यक्तित्व हैं। जो शिव के साथ हुआ, वह आज भी उनके जैसे लोगों के साथ हो रहा है, और हमेशा होता है। शाश्वत चरित्र के निर्माण के लिए ऋषियों की सूझबूझ को दाद देनी पड़ेगी। दूसरी ओर, साधारण कुंडलिनी योग से भौतिक शक्ति की कमी रह जाती है, जिससे आध्यात्मिक विकास बहुत धीमी गति से होता है। जहाँ शक्ति रहती है वहीं शिव भी रहता है। ये हमेशा साथ रहते हैं। इसीलिए शिवपुराण में आता है कि आम मान्यता के विपरीत शिव और पार्वती (शक्ति) का कभी वियोग नहीं होता। वे कभी आपस में ज्यादा निकट सम्बन्ध बना लेते हैं, और कभी एक-दूसरे को कथाएँ सुनाते हुए थोड़ी दूरी बना कर रहते हैं। उनके निकट सम्बन्ध का मतलब आदमी की कुंडलिनी जागरण या समाधि की अवस्था है, और थोड़ी दूरी का मतलब आदमी की आम सांसारिक अवस्था है। मैंने कुंडलिनी तंत्र के ये सभी लाभ खुद अनुभव किए हैं। एकबार मेरे कान में दर्द होता था। मैंने व्यर्थ में बहुत सी दवाइयां खाईं। उनका उल्टा असर हो रहा था। फिर मैंने अपने कान का सारा उत्तरदायित्व कुंडलिनी को सौंप दिया। मैं पूरी तरह कुंडलिनी के आगे समर्पित हो गया। अगले ही दिन होम्योपैथी डॉक्टर का खुद फोन आया और मुझे छोटा सा नुस्खा बताया, जिससे दर्द गायब। और भी उस दवा से बहुत फायदे हुए। एकबार किसी गलतफहमी से मेरे बहुत से दुश्मन बन गए थे। मैं पूरी तरह कुंडलिनी के आश्रित हो गया। कुंडलिनी की कृपा से मैं तरक्की करता गया, और वे देखते रह गए। अंततः उन्हें पछतावा हुआ। पछतावा पाप की सबसे बड़ी सजा है। मेरा बेटा जन्म के बाद से ही नाजुक सा और बीमार सा रहता था। भगवान शिव की प्रेरणा से मैंने उसके स्वास्थ्य के लिए कुंडलिनी की शरण ली। कुंडलिनी को प्रसन्न करने या यूं कह लो कि कुंडलिनी को अतिरिक्त रूप से चमकाने के लिए शिव की ही प्रेरणा से कुछ छोटा मानवतापूर्ण तांत्रिक टोटका भी किया। उसके बाद मुझे अपने व्यवसाय में भी सफलता मिलने लगी और मेरा बेटा भी पूर्णिमा के चाँद की तरह उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। 

हिंदुओं के बीच में आध्यात्मिकता को लेकर कभी  विवाद नहीँ रहा

कुंडलिनी ध्यान ही कुंडलिनी भक्ति है। भक्ति से जो मन में निरंतर स्मरण बना रहता है, वही ध्यान से भी बना रहता है। अपने प्रभाव की कुंडलिनी को प्रसिद्ध करने के लिए तो विभिन्न सम्प्रदायों एवं धार्मिक मत-मतांतरों के बीच प्रारंभ से होड़ लगी रही है। शिवपुराण में भगवान शिव को भगवान विष्णु से श्रेष्ठ बताने के लिए कथा आती है कि एकबार भगवान शिव ने अपनी गौशाला में बड़ा सा सिंहासन रखवाया और उस पर भगवान विष्णु को बैठा दिया। उसके बाद भगवान शिव के परम धाम के अंदर वह गौशाला भगवान विष्णु का गौलोक बन गया। यह अपनी-2 श्रेष्ठता को सिद्ध करने वाले प्रेमपूर्ण व हास्यपूर्ण आख्यान होते थे, इनमें नफरत नहीं होती थी, मध्ययुग से चली आ रही कट्टर मानसिकता (जिहादी और अन्य बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन कराने वाले धार्मिक समूहों की तरह) के ठीक उलट। 

सनातन धर्म की क्षीणता के लिए आंशिक आदर्शवाद भी जिम्मेदार है

आध्यात्मिक उपलब्धि के सच्चे अनुभव को जनता से साझा करने को अहंकार मान कर किनारे लगाया गया। जीवन की क्षणभंगुरता और मृत्यु के बखान से जीवन की आध्यात्मिक उपलब्धि  को ढका गया। दूसरी ओर, भौतिक तरक्की करने वाले लोग कुछ न छुपाते हुए अपनी उपलब्धि का प्रदर्शन करते रहे। लोग भी मजबूरन उनकी ही कीर्ति फैलाते रहे। इसको अहंकार नहीं माना गया। इस वजह से असली अध्यात्म सिकुड़ता गया। इस कमी का लाभ उठाने नकली आध्यात्मिक लोग आगे आए। उन्होंने अध्यात्म को भौतिकता का तड़का लगाकर पेश किया, जिसे लोगों ने स्वीकार कर लिया। वह भी लोगों को अहंकार नहीं लगा। इससे अध्यात्म और नीचे गिर  गया। ऐसे तो कोई भी अपने को आत्मज्ञानी या कुंडलिनी-जागृत बोल सकता है। यदि किसी को असल में आत्मज्ञान हुआ है, तो वह अपना स्पष्ट अनुभव हमेशा पूरी दुनिया के सामने रखे, ताकि उसका मिलान असली, शास्त्रीय, व सर्वमान्य अनुभव से किया जाए। ऐसा अनुभवकर्ता उम्रभर अपने उस अनुभव से संबंधित चर्चाएं, तर्क-वितर्क व उसकी सत्यता-सिद्धि करता रहे। साथ में, उसका आध्यात्मिक विकास भी उम्र भर होता रहे। वह उम्र भर जागृति के लिए समर्पित रहे। तभी माना जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति का अनुभव असली अनुभव है। चार दिन टिकने वाले जागृति के अनुभव तो बहुत से लोगों को होते हैं।

कुंडलिनी विज्ञान ही अधिकांश धार्मिक मान्यताओं की रीढ़ है


इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी-मार्ग

मित्रो, कुंडलिनी विज्ञान सभी धर्मों की रीढ़ है। सभी धार्मिक मान्यताएं इस पर आधारित है। आज मैं हिन्दू धर्म की कुछ परंपरागत मान्यताओं का उदाहरण देकर इस सिद्धान्त को स्पष्ट करूंगा। साथ में, कुंडलिनी योग के कुछ व्यावहारिक बिंदुओं पर भी प्रकाश डालने की कोशिश करूंगा। हालांकि ये मान्यताएं तुच्छ लगती हैं, पर ये कुंडलिनी योग का बहुत बड़ा व व्यावहारिक संदेश देती हैं।

दोनों पैरों की ठोकर से कुंडलिनी को केंद्रीकृत करना

इस मान्यता के अनुसार यदि किसी आदमी के पैर की ऐड़ी को पीछे से किसी अन्य आदमी के पैर से ठोकर लग जाए तो दूसरे पैर को भी उसी तरह ठोकर मारनी पड़ती है। उससे दोनों लोगों का शुभ होता है। दरअसल एक तरफ के पैर की ठोकर से कुंडलिनी शरीर के उस तरफ अधिक क्रियाशील हो जाती है, क्योंकि कुंडलिनी संवेदना का पीछा करती है। जब शरीर के दूसरी तरफ के पैर में भी वैसी ही संवेदना पैदा होती है, तब कुंडलिनी दूसरी तरफ जाने लगती है। इससे वह शरीर के केंद्र अर्थात सुषुम्ना नाड़ी में आ जाती है। इससे आदमी संतुलित हो जाता है, जिससे उसका हर प्रकार से शुभ होता है। दूसरे आदमी को भी इस प्रभाव का लाभ मिलता है, क्योंकि जैसा कर्म, वैसा फल। मैंने यह खुद होते देखा है।

एक या ऑड छींक अशुभ, पर दो या ईवन छींकें शुभ मानी जाती हैं

इसके पीछे भी यही कुंडलिनी सिद्धांत काम करता है। एक छींक की संवेदना से दिमाग का एक ही तरफ का हिस्सा क्रियाशील होता है। कल्पना करो कि बायाँ हिस्सा क्रियाशील हुआ। इसका मतलब है कि उस समय आदमी की सोच सीमित, लीनियर या लॉजिकल थी। क्योंकि दिमाग के दोनों हिस्से आपस में लगातार कंम्यूनिकेट करते रहते हैं, इसलिए यह पक्का है कि वह दाएँ हिस्से को सतर्क कर देगा। जब दूसरी छींक आती है, तो उससे दिमाग का दायाँ हिस्सा क्रियाशील हो जाता है। उससे आदमी की सोच असीमित या इलॉजिकल हो जाती है। इससे कुंडलिनी या अवेयरनेस दिमाग के दोनों हिस्सों में घूमकर दिमाग के बीच में केंद्रित हो जाती है। इसी केंद्रीय रेखा पर सहस्रार और आज्ञा चक्र विद्यमान हैं। इससे पूर्णता, संतुलन और आनन्द का अनुभव होता है। 

मस्तिष्क में अंदरूनी विवाह ही अर्धनारीश्वर का रूप या शिवविवाह है

मस्तिष्क का दायाँ और बायाँ भाग बारी-2 से काम करते रहते हैं। ऐसा उनके बीच के स्थाई संपर्क मार्ग से होता है। इस न्यूरोनल या नाड़ी मार्ग को कॉर्प्स कॉलोसम कहते हैं। जिनमें किसी रोग आदि के कारण नहीं होता, वे लगातार मस्तिष्क के एक ही हिस्से से बड़ी देर तक काम करते रहते हैं। उनमें आपसी तालमेल न होने के कारण वे अपने काम ढंग से नहीं कर पाते। सामान्य व्यक्ति में कुछ देर तक बायाँ मस्तिष्क काम करता है। वह तर्कपूर्ण, सीमित, व व्यावहारिक दायरे में रहकर कुशलता से रोजमर्रा के काम करवाता है। थोड़ी देर में ही वह विचारों की चकाचौंध से थक जाता है। फिर शरीर दाएँ मस्तिष्क के नियंत्रण में आ जाता है। उसकी कार्यशैली आकाश की तरह असीमित, तर्कहीन, व खोजी स्वभाव की होती है। क्योंकि इसमें आदमी को सीमित दायरे में बांधने वाले विचारों की चकाचौंध नहीं होती, इसलिए यह अंधकार लिए होता है। इसमें रहकर जैसे ही आदमी की विचारों की पुरानी थकान खत्म होती है, वैसे ही यह हिस्सा बन्द हो जाता है, और बायाँ हिस्सा फिर से चालू हो जाता है। यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। कार्य के आधिपत्य को आपस में परिवर्तित करने का समय अंतराल आदमी की सतर्कता और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के अनुसार बदलता रह सकता है। अब बात आती है, मस्तिष्क के दोनों हिस्सों को एकसाथ समान रूप से क्रियाशील करने की। यही कुंडलिनी का केंद्रीय रेखा या सुषुम्ना में आना है। इससे कुंडलिनी शक्ति मतलब प्राण शक्ति दोनों हिस्सों में बराबर बंट जाती है, और पूरे मस्तिष्क को क्रियाशील कर देती है। ऐसा ही कुंडलिनी जागरण के समय भी महसूस होता है, जब किसी विशेष क्षेत्र की बजाय पूरा मस्तिष्क समान रूप में चेतन, क्रियाशील और कम्पायमान हो जाता है। इसे हम अर्धनारीश्वर का आंतरिक मिलन या शिवविवाह भी कह सकते हैं। यह भी कह सकते हैं, शरीर के बाएँ भाग का विवाह दाएँ भाग से हो गया है। हिंदु धर्म में अर्धनारीश्वर नामक शिव के बाएं भाग को स्त्री और आधे दाएँ भाग को पुरुष के रूप में दिखाया गया है। कुंडलिनी चित्र बाएँ मस्तिष्क में रहने का ज्यादा प्रयास करता है, इसीलिए कुंडलिनी को स्त्री रूप दिया गया है। आप खुद देखिए, हर किसी के मन में चकाचौंध से भरे विचारों के पूल के अंदर हमेशा डूबे रहने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को दाएँ मस्तिष्क के खाली आकाश में जागरूकता को स्थानांतरित करने के नियमित अभ्यास के माध्यम से दूर किया जाना ही लक्ष्य है। कुंडलिनी योग के माध्यम से इसे केंद्र में लाने की कोशिश की जाती है। कुंडलिनी के केन्द्रीभूत होने से ही एक आदमी पूर्ण मानव बनता है। इससे उसमें तार्किक व्यावहारिकता भी रहती है, और साथ में अतार्किक भावप्रधानता व खोजीपना भी। इसका अर्थ है कि वहाँ अद्वैत उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि अद्वैत के बिना दो विरोधी गुणों का साथ रहना सम्भव ही नहीं है। इसी तरह, सीधे तौर पर शरीरविज्ञान दर्शन या पुराणों से अद्वैत भाव बना कर रखने से मन में कुंडलिनी की स्पष्टता बढ़ जाती है। मन में दो विरोधी गुणों को एकसाथ बना कर रखने के लिए या कुंडलिनी योग से कुंडलिनी को बना कर रखने के लिए बहुत अधिक प्राण ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इसीलिए मैंने पिछ्ली पोस्ट में योग के लिए संतुलित आहार व संतुलित जीवन पर बहुत जोर दिया है। शुरु-2 में मैं कुंडलिनी योग करते समय मस्तिष्क में सहस्रार चक्र व आज्ञा चक्र के स्तर पर कुंडलिनी को सिर में चारों ओर ऐसे घुमाता था, जैसे एक किसान गोलाकार खेत में हल चला रहा हो। उससे मेरा पूरा मस्तिष्क क्रियाशील हो जाता था, और आनन्द के साथ कुंडलिनी केन्द्रीभूत हो जाती थी। मैंने यह भी देखा कि एक नाक से जल खींचकर दूसरे नाक से निकालने पर भी कुंडलिनी को केन्द्रीभूत होने में मदद मिलती है। इसे जलनेती कहते हैं। इसके लिए जल गुनगुना गर्म और हल्का नमकीन होना चाहिए, नहीं तो सादा और ठंडा जल नाक की म्यूकस झिल्ली में बहुत चुभता है। 

इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ ही कुंडलिनी जागरण के लिए मूलभूत नाड़ियाँ हैं

कुंडलिनी योग के अभ्यास के दौरान पीठ में तीन नाड़ियों की अनुभूति होती है। नाड़ियाँ वास्तव में सूक्ष्म संवेदना मार्ग हैं, जो केवल अनुभव ही की जा सकती हैं। भौतिक रूप में तो मुझे ये शरीर में नजर आती नहीं। हो सकता है कि ये भौतिक रूप में भी हों। यह एक रिसर्च का विषय है। एक नाड़ी पीठ के बाएं हिस्से से होकर ऊपर चढ़ती है, और बाएँ मस्तिष्क से होते हुए आज्ञा चक्र पर समाप्त हो जाती है। दूसरी नाड़ी भी इसी तरह पीठ के व मस्तिष्क के दाएँ हिस्से से गुजरते हुए आज्ञा चक्र पर ही पूर्ण हो जाती है। एक इसमें इड़ा और दूसरी पिंगला नाड़ी है। इन दोनों के बिल्कुल बीच में और ठीक रीढ़ की हड्डी के बीच में से तीसरी नाड़ी पीठ व मस्तिष्क के बीचोंबीच होती हुई सहस्रार तक जाती है। यह सुषुम्ना नाड़ी है। सामान्य आरेखों के विपरीत, मुझे इड़ा और पिंगला पीठ में अधिक किनारों पर मिलती हैं। यह एक कम अभ्यास का प्रभाव हो सकता है। दरअसल, योग में दार्शनिक सिद्धांतों से ज्यादा भावना या अनुभव मायने रखता है। कुंडलिनी जागरण इसी नाड़ी से चढ़ती हुई कुंडलिनी से होता है। यदि कुंडलिनी इड़ा या पिंगला नाड़ी से होकर भी ऊपर चढ़ रही हो, तब भी उसे रोकना नहीं चाहिए, क्योंकि कुंडलिनी हर हालत में फायदेमंद ही होती है। उसे जबरदस्ती सुषुम्ना में धकेलने का भी प्रयास करना चाहिए, क्योंकि कुंडलिनी जबरदस्ती को ज्यादा पसंद नहीं करती। कुंडलिनी अपने प्रति समर्पण से खुश होती है। जब वह इड़ा या पिंगला से चढ़ रही हो, तब उसके ध्यान के साथ मूलाधार या स्वाधिष्ठान चक्र व आज्ञा चक्र का भी एकसाथ ध्यान करना चाहिए। इससे वह एकदम सुषुम्ना में आ जाती है, या थोड़ी देर के लिए पीठ के दूसरे किनारे की नाड़ी में चढ़ने के बाद सुषुम्ना में चढ़ने लगती है। इससे कुंडलिनी सहस्रार में प्रकाशित होने लगती है। इसके साथ, शरीर व मन के संतुलन के साथ आनन्द की प्राप्ति भी होती है। कुंडलिनी को सहस्रार से नीचे आज्ञा चक्र को नहीं उतारा जाता, इसीलिए सुषुम्ना नाड़ी का अंत सहस्रार चक्र में चित्रित किया जाता है। वास्तव में कुंडलिनी को सहस्रार में रखना व उधर जागृत करना ही कुंडलिनी योग का सर्वप्रमुख ध्येय है। इसीसे सभी आध्यात्मिक गुण प्रकट होते हैं। सहस्रार चक्र पिंड को ब्रह्मांड से जोड़ता है। यह सबसे अधिक आध्यात्मिक चक्र है, जो एक तरफ आत्मा से जुड़ा होता है, और दूसरी तरफ परमात्मा से। सहस्रार में कुंडलिनी के दबाव को झेलने की बहुत क्षमता होती है। ऐसा लगता है कि कुंडलिनी से सहस्रार की खारिश मिट रही है, और मजा आ रहा है। फिर भी यदि वहां असहनीय दबाव लगे, तो कुंडलिनी को आज्ञा चक्र तक व आगे की नाड़ी से शरीर में नीचे उतार सकते हैं। हालांकि, यह इडा या पिंगला के माध्यम से नीचे लाने की तुलना में अधिक कठिन और गड़बड़ वाला दिखाई देता है। हालाँकि उल्टी जीभ को नरम तालु से छुआ कर रखने से इसमें मदद मिलती है। इसीलिए इड़ा और पिंगला का अंत आज्ञा चक्र में चित्रित किया गया है, पर सुषुम्ना नाड़ी का अंत सहस्रार चक्र में दिखाया गया है। यदि आप मूलाधार और आज्ञा चक्र पर एकसाथ ध्यान लगाओ, तो कुंडलिनी का संचार इड़ा नाड़ी से होता है। यदि आप स्वाधिष्ठान चक्र और आज्ञा चक्र का एकसाथ ध्यान करो, तो कुंडलिनी का संचरण पिंगला नाड़ी से होता है। चित्र में भी ऐसा ही दिखाया गया है। इसका अर्थ है कि आज्ञा चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र, तीनों का एकसाथ ध्यान करने से कुंडलिनी का संचरण सुषुम्ना नाड़ी से ही होगा या वह सीधी ही सहस्रार तक पहुंच जाएगी। ऐसा चित्र में दिखाया भी गया है। आप देख सकते हैं कि सुषुम्ना नाड़ी की भागीदारी के बिना ही कुंडलिनी सहस्रार चक्र तक पहुंच गई है। इड़ा और पिंगला से कुंडलिनी एकसाथ आज्ञा चक्र तक आई। वहाँ से वह बाएँ और दाएँ मस्तिष्क से ऊपर चढ़ कर सहस्रार पर इकट्ठी हो जाती है। ऐसा महसूस भी होता है। दोनों तरफ के मस्तिष्क में दबाव से भरी मोटी लहर ऊपर जाती और सहस्रार में जुड़ती महसूस होती है। तभी चित्र में इन दोनों लघु नाड़ियों को मोटी पट्टी के रूप में दिखाया गया है। जब कुंडलिनी को आगे की नाड़ी से नीचे उतारना होता है, तब इन्हीं पट्टीनुमा नाड़ियों से इसे सहस्रार से आज्ञा चक्र तक उतारा जाता है, और वहाँ से नीचे। आपने भी देखा होगा, जब आदमी मानसिक रूप से थका होता है, तो वह अपने माथे को मलता है, और अपनी आँखों को भींचता है। इससे उसे माथे के दोनों किनारों से गशिंग या उफनते हुए द्रव की पट्टी महसूस होती है। उससे वह मानसिक रूप से पुनः तरोताजा हो जाता है। ये इन्हीं नाड़ियों की क्रियाशीलता से अनुभव होता है। आप इसे अभी भी करके अनुभव कर सकते हो। वास्तविक व त्वरित दैनिक अभ्यास के दौरान कोई नाड़ी महसूस नहीं होती। केवल ये चार चक्र महसूस होते हैं, और कुंडलिनी सहस्रार चक्र में महसूस होती है। इड़ा नाड़ी अर्धनारीश्वर देव के स्त्री भाग का प्रतिनिधित्व करती है। पिंगला नाड़ी उनके आधे और पुरुष भाग का प्रतिनिधित्व करती है। सुषुम्ना नाड़ी दोनों भागों के मिलन या विवाह का द्योतक है। मूलाधार से मस्तिष्क तक सबसे ज्यादा ऊर्जा का वहन सुषुम्ना नाड़ी करती है। तभी तो तांत्रिक योग के समय सहस्रार का ध्यान करने से मूलाधार एकदम से संकुचित और शिथिल हो जाता है। दैनिक लोकव्यवहार में आपने भी महसूस किया होगा कि जब मस्तिष्क किसी और ही काम में व्यस्त हो जाता है, तो कामोत्तेजना एकदम से शांत हो जाती है। बेशक वह ऊर्जा सुषुम्ना से गुजरते हुए नहीं दिखती, पर सहस्रार तक उसके गुजरने का रास्ता सुषुम्ना से होकर ही है। सुषुम्ना से ऊर्जा का प्रवाह तो यौगिक साँसों के विशेष और लम्बे अभ्यास से अनुभव होता है। वह भी केवल कुछ क्षणों तक ही अनुभव होता है, जैसा आसमानी बिजली गिरने का अनुभव क्षणिक होता है। पर इसको अनुभव करने की आवश्यकता भी नहीं। महत्त्वपूर्ण तो कुंडलिनी जागरण है, जो इसके अनुभव के बिना ही होता है। यदि आप सीधे ही फल तक पहुंच पा रहे हो, तो पेड़ को देखने की क्या जरूरत है। सम्भवतः इसी से यह कहावत बनी हो, “आम खाओ, पेड़ गिनने से क्या लाभ”। इड़ा और पिंगला से भी ऊर्जा आज्ञा चक्र तक ऊपर चढ़ती है, पर सुषुम्ना जितनी नहीं।

कुंडलिनी एक पक्षी की तरह है जो खाली और खुले आसमान में उड़ना पसंद करता है

मित्रो, योग या अध्यात्म को उड़ान के साथ संबद्ध करके दिखाया गया है। आध्यात्मिक शास्त्रों में विमानों का वर्णन अनेक स्थानों पर आता है। कई जगहों पर योगियों को आसमान में उड़ते हुए दिखाया गया है। आत्मा को पंछी की उपमा दी गई है। आज हम इस पर वैज्ञानिक चर्चा करेंगे।
आत्मा और आकाश में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है
दोनों ही त्रिआयामी हैं। दोनों ही सर्वव्यापी हैं। आत्मजागृति के दिव्य अनुभव के दौरान आदमी अपने को प्रकाशमयी आनंदमयी, सर्वव्यापक, व चेतनापूर्ण आकाश के रूप में अनुभव करता है। इसी तरह, मृतात्मा से साक्षात्कार के समय भी आदमी अपने को आकाश की तरह अनुभव करता है। हालाँकि उसमें प्रकाश, चेतना व आनन्द के गुण बहुत कम होते हैं। इसलिए वह रूप चमकते काजल की तरह प्रतीत होता है। फिर भी वह रूप सर्वव्यापक होता है।

 आदमी का मन हमेशा से ही आसमान में उड़ने को ललचाता रहा है

इसका कारण यही है कि आत्मा आकाश जैसे रूप वाली होती है। हर कोई अपने जैसे गुण स्वभाव वाले से मैत्री करना चाहता है। इसीलिए हरेक आदमी आकाश में भ्रमण करना चाहता है। यही कारण है कि वायुयान में बैठकर आनन्द मिलता है। जब मैं विमान में बैठा था, तो मेरे मन में आनंद के साथ कुंडलिनी क्रियाशील हो गई थी। इसी तरह, मैं एकदिन परिवार के साथ पतंग का मजा लेने एक खाली मैदान में चला गया। बच्चे ऊंचे आसमान में पतंग उड़ा रहे थे, और मैं जमीन पर दरी बिछा कर उस पर लेट गया, ताकि बिना गर्दन मोड़े पतंग को लगातार देख पाता। मैं लगभग डेढ़ घंटे तक पतंग को बिना थके देखता रहा। उस दौरान मेरे मन में आनन्द से भरे शांत विचारों के साथ कुंडलिनी क्रियाशील बनी रही। कई बार तो ऐसा लगा कि मैं खुद ही पतंग पर बैठ कर ऊंचे आसमान में उड़े जा रहा हूँ। कई दिन तक वह आनन्द मेरे मन में बना रहा, और साथ में उमंग भी छाई रही। काम-काज में भी अच्छा मन लगा रहा। इसी तरह, पहाड़ों में भी कुंडलिनी आनंद बढ़ जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पहाड़ भी आकाश की तरह थ्री डायमेंशनल हैं, हालाँकि उससे थोड़ा कम हैं। पहाड़ों में भी आदमी हर प्रकार से गति कर सकता है। वह आगे-पीछे भी जा सकता है, और ऊपर नीचे भी चढ़ सकता है।

आत्मारूपी आकाश के उपलब्ध होते ही कुंडलिनी पक्षी उसमें उड़ान भरने लग जाता है

शरीरविज्ञान दर्शन या अन्य अद्वैतशास्त्र से जब मन में आकाश जैसी शून्यता छाने लगती है, तब कुंडलिनी उसमें एक उड़ते हुए पक्षी की तरह अनुभव होने लगती है। साथ में आकाश में उड़ने के जैसा आनन्द तो होता ही है। उस समय आत्मा तो बैकग्राउंड के अंधकारमयी व शून्य आकाश की तरह होती है, केवल कुंडलिनी ही प्रकाशरूप पक्षी की तरह अभिव्यक्त होती है। इसलिए शास्त्रों में कुंडलिनी को आत्मा या पक्षी के रूप में माना गया है। कुंडलिनी आत्मा का संपीडित या लघु रूप है। जैसे साँप कुंडलिनी मार कर छोटा हो जाता है, उसी तरह आत्मा भी। इसीलिए इसे कुंडलिनी कहते हैं। जब कुंडलिनी आत्मा से जुड़कर सर्वव्यापक हो जाती है, तब उसे ही सांप का कुंडलिनी खोलकर अपने असली और विस्तृत रूप में आना कहते हैं। इसी तरह, आकाश से संबंध होने पर भी मन में आकाश जैसी अद्वैतमयी शून्यता खुद ही छाने लगती है। उससे भी वही कुंडलिनी प्रभाव पैदा होता है, जिससे मन उसी तरह आनन्द से भर जाता है। इसीलिए उपरोक्तानुसार, शास्त्रों में योगियों को आसमान में उड़ते हुए दिखाया गया है, तथा विमानों का बहुतायत में वर्णन किया गया है। 

कुंडलिनी ही भ्रमित आत्मा का दीपक है

अद्वैत के ध्यान से मन आकाश की तरह शून्य व निश्चल तो बन जाता है, पर उसका आंनद व प्रकाश गायब हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आनन्द व प्रकाश मन के विचारों के साथ होते है। ये विचारों के साथ ही गायब हो जाते हैं। इन्हीं की भरपाई करने के लिए ही एकाकी चित्र रूपी कुंडलिनी मन में क्रियाशील हो जाती है। यह दीपक की तरह काम करती है, और विचारशून्य मन या आत्मा को आनंदपूर्ण प्रकाश से भर देती है। लम्बे समय के कुंडलिनी योग अभ्यास से एक समय ऐसा भी आता है जब आत्मा का अपना खुद का नैसर्गिक प्रकाश पैदा हो जाता है। फिर तो वहाँ कुंडलिनी दीपक की रौशनी भी फीकी पड़ जाती है। पर ऐसा साधना के सबसे ऊंचे व अंतिम स्तर पर ही होता है। इसे ही असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।

कुंडलिनी ही आत्मा की भौतिक प्रतिनिधि है

आत्मा तो आकाश की तरह शून्य होती ही, पर उसके विपरीत चेतनापूर्ण होती है, पर दुनियादारी में रहने से उस पर माया या भ्रम का दुष्प्रभाव पड़ता है। इससे उसका चेतन प्रकाश गायब हो जाता है। जब आदमी अद्वैत भावना से आत्मा में लौटने का प्रयास करता है, तो वहाँ कुंडलिनी प्रकट हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अद्वैत से उत्पन्न निर्विचार अवस्था से मस्तिष्क में न्यूरोनल एनर्जी इकट्ठी हो जाती है, जो आमतौर के विचारों को बनाती है। उस न्यूरोनल एनर्जी को बाहर निकलने का आसान रास्ता कुंडलिनी के रूप में ही नजर आता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उसके लिए मस्तिष्क को निश्चय नहीं करना पड़ता है कि कुंडलिनी चित्र कैसा है, क्या इसके बारे में विचार करना चाहिए, इसको विचारने के क्या परिणाम होंगे आदि। इसकी वजह है, कुंडलिनी चित्र से लम्बे समय से संबंध बना होना। यह संबंध प्रेम आदि के रूप में प्राकृतिक भी हो सकता है, और योग आदि के रूप में बनावटी भी। वही कुंडलिनी चित्र आत्मा को उसके प्रकाश, चेतना आदि के स्वाभाविक गुण प्रदान करता है। उस समय यिन के रूप में आत्मा होती है, और यांग के रूप में कुंडलिनी। हालांकि ऐसा हमें सांसारिक भ्रम के कारण लगता है। असल में तो यिन के रूप में कुंडलिनी और यांग के रूप में आत्मा होती है। इन दोनों का जुड़ाव ही शिवविवाह है। जब यह पूरा हो जाता है, तो यही कुंडलिनी जागरण या आत्मसाक्षात्कार कहलाता है। उस समय कुंडलिनी की चेतना पूरे आत्म-आकाश में छा जाती है, और दोनों पूरी तरह एक-दूसरे में घुले-मिले प्रतीत होते हैं। कुंडलिनी को आत्मा का भौतिक प्रतिनिधि इसीलिए कहा जा रहा है, क्योंकि वह बेशक एक सीमित व एकाकी चित्र के रूप में है, और भौतिक बाध्यताओं से बंधी है, पर उसमें आत्मा के सभी चेतनामयी गुण विद्यमान हैं। वही आत्मा को उसके अपने असली चेतनामयी गुणों की याद दिलाती है। पर ऐसा अभ्यास से होता है। इसीलिए कुंडलिनी को योग, प्रेम आदि से हमेशा बना कर रखा जाता है।