कुण्डलिनीयोग में कपालभाति प्राणायाम की अहम भूमिका है

बाएं और दाएं नथुने से बारीबारी साँस ली जाती है, और छोड़ी जाती है, ताकि इड़ा और पिंगला, दोनों साइड की नाड़ियों में कुण्डलिनी शक्ति झूलती रहे, और धीरे-धीरे बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी में ऊपर चढ़ती रहे। पतंग भी इसी तरह उड़ती है। डोरी को ढील देने पर कभी वह बहती हवा के थपेड़े से दाईं तरफ के आकाश में फैल जाती है, और फिर खींच देने पर सीधी ऊपर चढ़ती है। कभी विपरीत दिशा में हवा बहने से वह बाईं तरफ के आकाश में पसर जाती है, और फिर खींच देने पर सीधी ऊपर उठती है। दोनों साइड को झूलने से वह बहुत ऊँचाई में पहुंच जाने पर भी आदमी के सिर के ऊपर सीधी बनी होती है। यह सीधाई ही सुषुम्ना नाड़ी के समकक्ष है। कुण्डलिनी योग के समय भी, जब शरीर के बाएं हिस्से में प्राण की कमी होती है, और शरीर को ढीला छोड़ा जाता है, तो कुण्डलिनी शरीर के बाएं हिस्से मतलब इड़ा नाड़ी में बहने लगती है। इसी तरह जब शरीर के दाएं भाग में प्राणों की कमी हो जाती है, तो कुण्डलिनी दाएं भाग अर्थात पिंगला नाड़ी में बहती महसूस होती है। ऐसा लगता है कि जैसे आनंदमयी जैसी हलचल हो रही है, कोई करेंट वाली पतली तार जैसी नाड़ी मुझे तो महसूस होती नहीं। हो सकता है कि यह अव्यवहारिक किताबी बातें हों या उच्च स्तर के अभ्यास में महसूस होती हो। मुझे तो साधारण अनुभव से ही काफ़ी शक्ति महसूस होती है। आकाश में भी उस हिस्से की तरफ हवा चलती है, जिस हिस्से में वायु का दबाव कम हो जाता है, मतलब प्राण कम हो जाता है, क्योंकि वायु ही प्राण है। इससे स्वाभाविक है कि प्राण या हवा के बहाव के साथ कुण्डलिनी या मन या पतंग उसी तरफ चली जाती है। फिर जब वहाँ हवा या प्राण ज्यादा बढ़ जाता है, तो वह थोड़ा उल्टी दिशा की तरफ वापिस भागता है, जिसके साथ पतंग या कुण्डलिनी भी उसके साथ बह जाती है, और मान लो सीधी सिर के ऊपर या सुषुम्ना में आ जाती है। क्षणभर वहाँ रुक के वायु या प्राण दाएं आसमान में या पिंगला में पहुंच जाता है, जिसके साथ पतंग या कुण्डलिनी भी होती है। वहाँ से फिर बाईं ओर का सफर शुरु होता है। कुण्डलिनीरूपी मन या पतंग का इस तरह का पेंडुलम के जैसा दोलन चलता रहता है, और वह सुषुम्ना में या आसमान में ऊपर उठती रहती है।

जब पतंग बहुत ऊपर उठ जाती है, तब डोर पर खींच लगाकर उसे नीचे उतारते हैं। इसी तरह जब कुण्डलिनी काफी ऊँचाई तक उठकर दिमाग़ में दबाव, थकान, और सिरदर्द पैदा करती है, तब निःश्वास झटके के साथ चलने लगते हैं। ऐसा कपालभाती प्राणायाम में होता है, जहाँ बाहर जाती सांस झटके और दबाव से चलती है, पर अंदर जाती साँस इतनी शांति से व धीरे चलती है कि उसका पता ही नहीँ चलता। इससे निःश्वास पर ज्यादा अवेयरनेस रहती है। साथ में, इसमें शरीर की मांसपेशियां भी नीचे की तरफ धक्का लगाती हैं। इन दोनों बातों से कुण्डलिनी शक्ति फ्रंट चैनल से नीचे उतरती है, जिससे मस्तिष्क का दबाव कम होने से आदमी पुनः तरोताज़ा होकर फिर से दिमागी काम के लिए तैयार हो जाता है। चमत्कारी प्रभाव पैदा करता है कपालभाती। इसलिए काम के दबाव व समय की कमी के दौरान केवल इसी तरह की साँस ली जाए, तो बहुत लाभ प्रदान करती है। यहाँ एक बात बता दें कि मन-पतंग स्थायी तौर पर नीचे नहीं रहती, यह फिर बैक चैनल से ऊपर चढ़ जाती है। यह लगातार उपरनीचे घूमती रहती है। यह ऐसे ही है जैसे पतंग को हल्की खींच या तुनका लगाया जाता है, तो वह और ऊपर उठती है। साँसें तो यथार्थ में ही मन की डोर हैं, जैसा अक्सर कहा भी जाता है कि फलां की सांसों की डोर लंबी खिंच गई मतलब कोई जिन्दा बचगया, या सांसों की डोर टूट गई मतलब कोई मर गया। श्रीमदभागवत गीता में जब अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि भगवन, मन को वश में करना तो बहुत कठिन है, वायु को वश में करने से भी कठिन है, तब भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे कौन्तेय, मन अभ्यास से वश में आ जाता है, विशेषकर प्राणायाम के अभ्यास से।

ठंडे पानी से नहाते समय साँस तेजी से और झटकों से बाहर की ओर चलने लगती है। अधिकांश समय मुंह भी पूरा खुला होता है, जिससे साँसें धौकनी की तरह बाहर निकलती हैं। इससे दिमाग़ का दबाव नीचे उतरता है जिससे सिरदर्द से बचाव होता है। सम्भवतः ब्रेन हीमोरेज का खतरा भी कम हो जाता है। इससे ठंडा पानी झेलने की क्षमता बढ़ती है और वह आनंद दायी लगने लगता है। इसी तरह खाना खाने के बाद वज्र-आसन से भी लगभग ऐसा ही होता है। इससे दिमाग़ की शक्ति पाचन अंगों तक उतरती है जिससे पाचन दुरस्त होता है। साँस का ये स्टाइल कपालभाती ही है।

कुण्डलिनी से कोरोना से बचाव; कुण्डलिनी ही जीवन के लिए जोखिम भरी परिस्थितियों में सबसे अधिक साथ निभाती है, चाहे वह कोरोना वायरस हो या अन्य कोई भयंकर परिस्थिति

कुछ पहुंची हुई बातें हमें विश्वास करके माननी ही पड़ती हैं, क्योंकि उन्हें प्रत्यक्ष विज्ञान के द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता। इन्हीं में से एक बात है, परलोकगमन के समय कुण्डलिनी की सहायता प्राप्त होना। सभी धर्मों में यह बात बताई गई है कि एक इष्ट का ध्यान करते रहना चाहिए। वही इष्ट परलोक यात्रा को सुगम बनता है। यदि अंत समय में उस इष्ट का स्मरण हो जाए, तो मुक्ति निश्चित है। यदि मुक्ति न भी हो, तो इतना तो जरूर है कि वह जीवात्मा को धरती के बंधन से छुड़ाता है, जिससे परलोक यात्रा सुगम व शीघ्र हो जाती है। यह तो विज्ञान से भी सिद्ध है कि अंतरिक्ष यान को धरती के गुरुत्वाकर्षण से छूटने के लिए ही महान बल चाहिए होता है। उसके बाद वह स्वयं ही ऊपर जाता रहता है। वैसा ही बल इष्ट के स्मरण से मिलता है। उसी इष्ट को कुण्डलिनी कहते हैं।

राजा परीक्षित को इसी इष्ट-ध्यान से एक सप्ताह में मुक्ति मिल गई थी

राजा परीक्षित को पता चल गया था कि एक सप्ताह में उनकी मृत्यु होने वाली थी। इसलिए उन्होंने अपना पूरा ध्यान श्री कृष्ण में लगा दिया था। इससे उन्हें मुक्ति मिल गई। इसी तरह रजा खट्वांग को पता चल गया था कि उनकी मृत्यु 1 घंटे बाद होने वाली है। इसलिए उन्होंने अपना पूरा ध्यान अपने इष्ट में लगा दिया था। इससे उन्हें मुक्ति मिल गई।

इसीलिए मेरी नानी जी कहा करती थीं कि आजकल तो मुक्ति को प्राप्त करना बहुत आसान है। आजकल डाक्टर लोग पहले से बता देते हैं कि किस बीमार व्यक्ति के मरने की सम्भावना कब और कितनी है।

कुण्डलिनी ध्यान से कोरोना वायरस से निपटने में भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों प्रकार से मदद मिल सकती है

कोरोना वायरस से भी पता चल ही गया है कि आदमी की जिंदगी बहुत अस्थायी है। इससे शिक्षा लेते हुए लोगों को कुण्डलिनी साधना शुरू कर देनी चाहिए। पहले तो कुण्डलिनी आदमी को कोरोना से बचाने की पूरी कोशिश करेगी, जैसा कि पिछली एक और अन्य स्वास्थ्य संबंधी कुंडलिनी पोस्टों में बताया गया है। यदि आदमी फिर भी बच न पाया, तो यह उसे मुक्ति प्रदान करेगी या परलोक यात्रा को तो आसान बनाएगी ही।

कुण्डलिनी को तालु और गले पर विशेष रूप में केन्द्रित करें

वैसे तो कुण्डलिनी को प्रत्येक चक्र पर बारी-बारी से केन्द्रित करना चाहिए, फिर भी तालु चक्र, विशुद्धि चक्र और अनाहत चक्र पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कोरोना वायरस का हमला इन्हीं क्षेत्रों पर होता है। कुण्डलिनी को इन क्षेत्रों में केन्द्रित करने से वहां पर सकारात्मक रक्त संचार बढ़ेगा। रक्त संचार के सकारात्मक होने का अर्थ है कि रक्त संचार के साथ कुण्डलिनी भी विद्यमान होगी। वही कुण्डलिनी अद्वैत शक्ति है। शरीर के सूक्ष्म सैनिक उसी अद्वैत शक्ति की सहायता से कीटाणुओं व विषाणुओं के साथ लड़ते हैं, तथा उनका संहार करते हैं। साधारण व्यायाम से रक्त संचार में तो वृद्धि होती है, पर उसमें वह दिव्य कुण्डलिनी शक्ति नहीं होती। तालु चक्र मुख के अन्दर बिलकुल पीछे होता है, जहां पर एक मांस की अंगुली जैसी संरचना नीचे लटकी होती है। वहां पर गला ख़राब होने पर खारिश जैसी भी होती है। विशुद्धि चक्र गर्दन के बिलकुल केंद्र में होता है, जहाँ पर थायरायड ग्रंथि भी होती है। अनाहत चक्र छाती में तथा दोनों स्तनों के बिलकुल बीचोंबीच होता है। विशुद्धि और अनाहत, दोनों ही चक्रों के आगे और पीछे के दो चक्र होते हैं, जो एक सीधी काल्पनिक रेखा से आपस में जुड़े होते हैं। दो-चार दिन के अभ्यास से इन चक्रों का खुद ही पता लगने लगता है। इन चक्रों पर कुण्डलिनी का ध्यान करने से उन पर संकुचन जैसा अनुभव होता है, और एक सरसराहट जैसी संवेदना भी अनुभव होती है। इसका अर्थ है कि वे चक्र क्रियाशील हो गए हैं।

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