कुंडलिनी के लिए संस्कार या सत्संग का महत्त्व

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में संस्कारों के बारे में बात कर रहा था। जितने लोगों तक किसी आदमी की अच्छी प्रतिज्ञा या अच्छे काम या अच्छे आचरण का सन्देश जाता है, मन पर उसका संस्कार उतना ही मजबूत बनता है। इसी संस्कार के लिए ही तो लोग ब्लॉग लिखते हैं, लेख लिखते हैं, प्रचार करते हैं, सशुल्क या निःशुल्क शिविर लगाते हैं, छोटे-बड़े समारोहों का आयोजन करते हैं, आदि। जिसको जितनी ज्यादा भीड़ मिलती है, वह उतना ज्यादा सफल माना जाता है। इन क्रियाकलापों के लिए कई बार काफी खर्चा करना पड़ता है, कई बार सस्ते में हो जाता है। कई बार बड़ों और गुरु लोगों की कृपा से मुफ्त में भी हो जाता। मैं इसी मामले में जागृति से जुड़ी अपने साथ घटी घटना बताता हूँ। कॉलेज टाइम में गुरुजनों की कृपा से मुझे एक पत्रिका में लेख लिखने का मौका मिला था। मैंने दो-तीन लेख लिख के दे दिए, जो सौभाग्यवश एक पेज पर छप गए। वे लेख सामान्य शरीरविज्ञान दर्शन, मानवता धर्म, प्रेम, देशप्रेम, कर्मयोग, तन्त्र और काव्य से संबंधित थे। मुझे उससे एक नई पहचान मिली। उससे मेरे मन पर इतना गहरा संस्कार पड़ गया कि मैं खूब क्रियाशील हो गया और दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा। मुझे तो लगता है कि कई वर्षों के भौतिक विकास के बाद जब मेरे मन में वह संस्कार-रूपी बीज भरापूरा वृक्ष बन गया, तभी मुझे जागृति की दूसरी झलक मिली, जिससे मेरे से शरीरविज्ञान दर्शन की रचना पुस्तक के रूप में पूर्ण हुई, अन्य भी बहुत सी पुस्तकों की रचना हुई, और कुंडलिनी ब्लॉग लिखने में भी काफी हद तक सफलता मिली। मतलब कि मैं पहले पुस्तकों को व्यवहारिक जीवन में खूब जिया हूँ, बाद में मैंने उस जीवन को पुस्तकों और ब्लॉग के रूप में उतारा है। ऐसा नहीं है कि मैं पैदा हुआ, और लिखने बैठ गया। वह तो नकल होती है। असली लेखन वह है जिसमें अपना जीवन कागज पर उतरता हुआ दिखे। उस समय मेरे यौन हॉर्मोन्स का स्तर काफी उच्च था, जैसा कि उस उम्र में सबका होता ही है। पर मुझे लगता है कि जागृति की प्रथम झलक और कुंडलिनी के कारण मेरा कुछ ज्यादा ही और आध्यात्मिक रूप से विशिष्ट था। सम्भवतः इसी वजह से वह शुभ संस्कार इतनी दृढ़ता से जम गया हो, जो ताउम्र मेरे से जुड़ा रहने के लिए बेताब लगता था। मुझे यह भी लगता है कि जागृति की पहली झलक के बाद मेरा पुराना संघर्षमय जैसा बालजीवन एकदम से मेरे मन में ध्वस्त जैसा हो गया था। उससे मेरा मन एक बच्चे की तरह साफ हो गया था, बिना लिखे नए ब्लैकबोर्ड की तरह। बच्चे की तरह मेरा रूपांतरण चल रहा था, जिससे मेरा मन-मस्तिष्क उसी की तरह बहुत ज्यादा ग्रहणशील हो गया था। इसीसे उस शुभ संस्कार ने मेरे मन में इतनी सकारात्मक और चिरस्थायी क्रियाशीलता पैदा कर दी कि उसने कालांतर में मुझे जागृति की दूसरी झलक भी दिखला दी। इसीलिए कहा जाता है कि बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बच्चों में अच्छे संस्कार डालने वाले सुसंस्कृत शिक्षक का समाज में इतना ज्यादा महत्त्व क्यों बताया गया है। सर्वप्रथम शिक्षिका माँ होती है। उसके द्वारा दिए संस्कारों का प्रभाव मनुष्य पर सबसे ज्यादा होता है। इसीलिए कहा गया है कि रमन्ते तत्र देवताः, नार्यस्यत्र पूज्यंते। शिवाजी महाराज को माँ जीजाबाई से जन्म से ही (यूँ कहो कि गर्भ से ही) संस्कार मिलने शुरु हो गए थे, इसी वजह से वे आक्रमणकारी मुगलों से सनातन धर्म की रक्षा कर सके। संस्कारों का प्रभाव कई जन्मों तक मन पर पड़ा रहता है। मैंने बहुत पहले एक बात सुनी-पढ़ी थी। रूस की एक 80 वर्ष की बुजुर्ग महिला ने स्कूल की पढ़ाई शुरु की। जब उससे पूछा गया कि वह पढ़ाई उसके किस काम आएगी, तो उसने जवाब दिया कि वह उसके अगले जन्म में काम आएगी। मतलब वह अगले जन्म के लिए पढ़ रही थी। उसने यह पढ़ी-पढ़ाई बात नहीं की होगी पर अपने अनुभव और अनुमान आदि के आधार पर कही होगी, क्योंकि पुनर्जन्म का बोलबाला हिन्दू धर्म में ही लगता है मुझको। स्वस्थ समाज का निर्माण स्वस्थ मन से होता है। स्वस्थ मन का निर्माण स्वस्थ संस्कारों से होता है। स्वस्थ संस्कारों का निर्माण स्वस्थ शिक्षा प्रणाली से होता है। हिंदी में एक कहावत है, काँटे का मुँह शुरु से ही पैना होता है। इसका मतलब है कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता उसके बचपन में ही चल जाता है। इसलिए यह कहावत भी संस्कारों का महत्त्व प्रदर्शित करती है।

उपरोक्त उदाहरण से यह मतलब भी निकलता है कि यह जरूरी नहीं है कि संस्कारों के निर्माण के लिए बड़े-बड़े और महंगे समारोहों पर ही निर्भर रहा जाए। हालाँकि इनसे समाज में उत्तम प्रथा बनी रहती है। रोज जो प्रातः संस्कृत मन्त्र बोले जाते हैं, वे भी संस्कारों का निर्माण करते हैं। उन मन्त्रों की शक्ति यही है कि वे अवचेतन मन पर गहरा प्रभाव डालकर संस्कार बनाते हैं। संस्कृत मंत्रों से कुंडलिनी शक्ति इसलिए भी मिलती है, क्योंकि इनको गाते समय साँसें लम्बी, गहरी, धीमी और नियमित हो जाती हैं। सांसों के साथ इनका तालमेल होता है। मन्त्र का कुछ भाग अंदर जाती हुई लम्बी गहरी सांस के साथ गाया जाता है, तो कुछ भाग बाहर निकलती हुई लम्बी गहरी सांस के साथ। अधिकांश मामलों में तो सिर्फ बाहर जाती सांस के साथ ही गाया जाता है। अंदर जाती गहरी सांस पर तो सिर्फ ध्यान दिया जाता है। सांस पर ध्यान देने से और ज्यादा कुंडलिनी-अद्वैत का लाभ मिलता है। इससे संस्कार और अधिक मजबूत हो जाता है। सांसों और मंत्र-शब्दों पर अनासक्तिपूर्ण ध्यान जाने से अद्वैत व साक्षीभाव का उदय होता। चालीसा आदि बोलने से भी इसी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत से लाभ मिलता है। वैसे कुछ न कुछ लाभ तो हर किसी गाने को गाकर मिलता है। यह गायन का आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। मैं जब बचपन में नानी के घर जाया करता था, तो मेरे नानाजी मुझे और मेरे दोनों लगभग हमउम्र मामाओं को ऐसे बहुत से प्रातःकालीन मंत्र बार-बार बुला कर याद कराया करते थे, जो मुझे अभी तक याद हैं। एक सार्वभौमिक उदारता का निर्माण करने वाला वैदिक संस्कृत मन्त्र बताता हूँ। सह नाववतु सह नौ भुनक्तौ सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै। इसका अर्थ है, हमारी साथ-साथ रक्षा हो, मतलब हम सब एकदूसरे की रक्षा करें, हम सब साथ मिलकर खाएं मतलब कोई भूखा न रहे या सबको रोजगार मिले, हम सब साथ-साथ मिलकर बल का प्रयोग करें मतलब हम सब एकदूसरे की सहायता करें। हमारे द्वारा प्राप्त की गई विद्या तेज अर्थात व्यावहारिकता के प्रकाश से परिपूर्ण हो मतलब सिर्फ किताबी न हो, हम एकदूसरे से द्वेष अर्थात नफरत न करें। यह बहुत शक्तिशाली मंत्र है, और ज्यादा नहीं तो कम से कम इसे तो प्रतिदिन प्रातः जरूर बोलना चाहिए। गा कर बोलने पर तो यह और ज्यादा आकर्षक और प्रभावशाली लगता है। इसमें ‘मा’ शब्द विशेष प्रभावशाली है। इसका अर्थ वैसे तो ‘न’ होता है, पर यह मन पर माँ अर्थात माता के प्रभाव को भी पैदा करता है। इससे मन बच्चे की तरह भोला और ग्रहणशील बन जाता है। इसलिए गाते समय मा शब्द को दीर्घता और गुरुता प्रदान करनी चाहिए। प्रसिद्ध भारतीय नारा, ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ भी तो सरल शब्दों में यही मंत्र है। इसमें संदेह नहीं कि यह देश के लोगों में अच्छे संस्कार डालने का प्रयास है, जो कालांतर में जरूर फलीभूत होगा। गजब का मनोविज्ञान छिपा होता है संस्कृत मन्त्रों में। अगर इनका गहराई से अध्ययन किया जाए, तो बहुत सी रहस्यात्मक शक्तियाँ हाथ लग सकती हैं। वैदिक मंत्र होने के कारण इसकी संस्कृत का व्याकरण और अर्थ ज्यादा स्पष्ट नहीं है। वैदिक मंत्र ऐसे ही होते हैं। इनमें सस्पेंस जैसा होता है। यह इसलिए ताकि बेशक ये स्थूल रूप से समझ न आए, पर अपने विशेष उच्चारण और शब्द रचना के साथ मन पर गहरा सूक्ष्म संस्कार छोड़ते हैं, जो स्थूल समझ से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होता है। सस्पेंस में भी बहुत शक्ति होती है। इससे आदमी विचारों का घोड़ा तेजी से दौड़ाता है, और बहुत सी मंजिलें आसानी से पा लेता है। इसीलिए सस्पेंस से भरी फिल्में बहुत लोकप्रिय होती हैं। मेरे द्वारा लिखे बताए गए उपरोक्त लेख भी भरपूर सस्पेंस से भरे थे, इसीसे उनसे इतनी शक्ति मिली। मुझे तो मिली ही, पर मुझे लगता है कि अन्य अनेक लोगों को भी मिली, जिन्होंने ये पढ़े थे। उनसे दोहरे अर्थ निकलते थे, भौतिक भी और आध्यात्मिक भी, सभ्य भी और असभ्य भी, धार्मिक भी और अधार्मिक भी, व्यंग्यात्मक भी और गम्भीर भी, आलोचनात्मक भी और विश्लेषणात्मक भी। कभी उनमें अश्लीलता नजर आती थी तो कभी तांत्रिक मनोविज्ञान। उनके साथ शरीरविज्ञान दर्शन का ऐसा तड़का लगा था कि ये उपरोक्त परस्पर विरोधी भाव उनमें एकसाथ भी नजर आते थे, और कुछ भी नजर नहीं आता था। सबकुछ शून्य के जैसे सन्नाटे की तरह लगता था। इसी वजह से वे हरेक किस्म के लोगों को पसंद आए। साथ में, उनमें कुछ थ्रिल भी था। मुझे तो लगता है कि पुराणों की कथाएँ इसीलिए बहुत प्रभावशाली होती हैं, क्योंकि उनमें भरपूर सस्पेंस और थ्रिल होता है। बाहुबली फ़िल्म इतनी लोकप्रिय क्यों हुई। उसमें शुरु से लेकर सस्पेंस बनाया हुआ था, जो फिल्म के दूसरे भाग के अंत में जाकर खत्म हुआ। थ्रिल भी उसमें बहुत और एक आभासिक या पौराणिक प्रकार का था। इसी तरह, एक और मंत्र है, ‘कराग्रे वसते लक्ष्मी—-‘आदि। यह सुबह सो कर उठकर हथेली की ओर देखकर बोला जाता है। यह शरीरविज्ञान दर्शन सम्मत है, क्योंकि इससे हाथ में अर्थात शरीर में पूरे ब्रह्मांड का अनुभव होता है। पौराणिक मन्त्रों का व्याकरण स्पष्ट होता है और इनकी शब्दरचना भी स्पष्ट होती है, इसलिए इनमें वैदिक मन्त्रों जितनी अदृश्य शक्ति नहीं होती। कई लोग अपने असभ्य आचरण के लिए दूसरों को दोष देते हैं। पर वास्तव में दोष उनके अंदर अच्छे संस्कारों की कमी का है। यह अलग बात है कि अच्छे संस्कारों की कमी के लिए कुछ हद तक पूरा समाज जिम्मेदार होता है। अच्छे संस्कार न डालने के लिए कभी माँबाप पर दोषारोपण होता है, कभी गुरुजनों पर तो कभी परिवारजन, मित्र, रिश्तेदार आदि अन्य निकटवर्ती सुपरिचित लोगों पर। हालांकि अपने संस्कारों के लिए आदमी स्वयं भी जिम्मेवार होता है। आदमी के पिछले जन्मों के संस्कार ही यह निश्चय करते हैं कि वह किस प्रकार के संस्कार ग्रहण करेगा। तभी तो आपने देखा होगा कि कई बार बहुत बुरे परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति भी बहुत बड़ा महात्मा बनता है। दरअसल वह पिछले जन्म के अच्छे संस्कारों के कारण अपने वर्तमान जीवन में बुरे संस्कारों की तरफ आकृष्ट नहीं होता, बल्कि वह अच्छे संस्कारों की तरफ भागता है, बेशक वे परिवार के बाहर ही क्यों न हों। इसी तरह, कई बार सभ्य परिवार का कोई सदस्य भी कई बार दुरात्मा बन जाता है। इस छोटी सी कहावत के बहुत बड़े मायने हैं, ‘बोए बीज बबूल का, आम कहाँ से होए’।

कुंडलिनी के लिए संस्कारों का महत्त्व

भौतिक उपलब्धियां अल्प अवधि में भी प्राप्त की जा सकती हैं। पर कुंडलिनी की प्राप्ति के लिए बहुत लंबा समय लग जाता है। अधिकांश मामलों में तो एक पूरा जीवन भी थोड़ा पड़ने से कई जन्मों के प्रयास की आवश्यकता लगती है। अगले जन्म का क्या पता कि कहाँ मिले, कैसा मिले। इसलिए प्रयास होना चाहिए कि इसी एक मनुष्य-जीवन में कुंडलिनी की प्राप्ति हो जाए। ऐसा केवल संस्कारों से ही सम्भव हो सकता है। यदि जन्म से ही आदमी को कुंडलिनी के संस्कार देना शुरु कर दिया जाए, और यह सिलसिला उम्रभर जारी रखा जाए, तभी यह हो पाना सम्भव लगता है। प्राचीन भारतीय हिंदू परंपरा में ऐसा होता भी था। यह कोई झूठी शेखी बघारने वाली बात नहीं है। कदम-कदम पर देवमन्दिर होते थे। आध्यात्मिक उत्सव-पर्व होते रहते थे। हरेक क्रियाकलाप के साथ अध्यात्म जुड़ा होता था। ज्योतिष पर लोगों की आस्था होती थी। चारों ओर वैदिक कर्मकांड का बोलबाला था। वर्णाश्रम धर्म अपने श्रेष्ठ रूप में विद्यमान था। हरेक आदमी के सोलह संस्कार कराए जाते थे। यह सब कुंडलिनी के लिए ही तो था। यह सब कुंडलिनी विज्ञान है, आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। बड़े-बूढ़े लोग जब संस्कार प्रदान करते थे, तब उनके व्यक्तित्व की छाप बच्चों के मन पर गहरी पड़ जाती थी। इससे बच्चा बड़ा होकर एकसाथ दो जीवन जीता था, अपना भी और अपने पूर्वज का भी। उदाहरण के लिए मान लो एक व्यक्ति अपने पौत्र को कुंडलिनी संस्कार देता है। इससे पौत्र के मन में अपने दादा के प्रति अच्छे भाव पैदा हो जाते हैं। इससे अनजाने में ही दादा के जीवन-अनुभवों का लाभ पौत्र को मिलने लगता है। मतलब कि दादा बिना मरे ही पौत्र के रूप में दूसरा जीवन जी रहा है, अर्थात दादा की उम्र दुगुनी हो गई है, और पौत्र को अपनी आयु के साथ दादा की दुगुनी आयु भी प्राप्त होती है। इससे पौत्र की आयु तिगुनी मानी जाएगी, अर्थात 300 साल। अब यह समझ लो कि पौत्र ने लगातार 300 साल तक कुंडलिनी योग किया है। इतने समय की साधना से बहुत संभव है कि उसे कुंडलिनी जागरण हो जाए। पौत्र का अपना असली जीवन तो सौ साल का ही है, पर उसे संस्कारों के कारण तीन सौ सालों का लाभ मिल रहा है। यही कारण है कि हिंदू शास्त्रों में वर्णित कालगणना के मामले में भ्रम पैदा होता है। वहाँ किसी की आयु 300, किसी की 500 या किसी की हजारों साल की बताई गई है। इसी तरह कोई सैंकड़ों सालों तक तप-साधना करता है, तो कोई हजारों सालों तक। दरअसल यह वास्तविक उम्र या समय नहीं होता, बल्कि संस्कारों के कारण मिल रहा इतनी उम्र या समय का लाभ है। उपरोक्त उदाहरण में, इसी तरह दादा भी दो उम्रों को एकसाथ जीता है, एक अपनी और एक अपने पौत्र की। अगर बुढ़ापे से उनकी मृत्यु भी हो जाए, तब भी उन्हें अगले जन्म में पिछले जन्म की दोनों उम्रों का लाभ मिलता है, संस्कारों के कारण। एक-दूसरों से जीवन का साझाकरण संस्कारों से ही सम्भव है। हिंदु अध्यात्म में गुरु परम्परा भी संस्कार को बढ़ाने के लिए ही है। यदि किसी की गुरु परम्परा 10 गुरुओं से चली आ रही है, तो वर्तमान काल के गुरु की सांस्कारिक उम्र 1000 साल मानी जाएगी। मतलब उसे 1000 साल लम्बी चलने वाली कुंडलिनी योगसाधना का लाभ एकदम से अपने आप मिल जाएगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि हरेक गुरु अपने शिष्य अर्थात भावी गुरु को संस्कारों के रूप में अपना सारा जीवन देते आए हैं, जिससे संस्कार उत्तरोत्तर बढ़ते रहे। इसी तरह, यदि किसी का वंश 10 पीढ़ियों से चलता आ रहा है, तो उसकी वर्तमान पीढ़ी के व्यक्ति की सांस्कारिक उम्र 1000 साल मानी जाएगी। आपस में जितना अधिक भावनात्मक और प्रेमपूर्ण सम्बंध बना होगा, संस्कारों का उतना ही अधिक लाभ मिलेगा। यदि एक परिवार दस पीढ़ियों से लगातार आध्यात्मिक जीवन पद्धति को जीता आ रहा है, तो उसकी वर्तमान समय की दसवीं पीढ़ी के सदस्य को समझा जाएगा कि वह बिना मृत्यु को प्राप्त हुए, एक हजार वर्षों से लगातार आध्यात्मिक जीवन पद्धति को जीता आ रहा है। इसका मतलब है कि जो जीवन पद्धति या परंपरा जितनी अधिक पुरातन है, उसमें उतना ही ज्यादा संस्कारों का बल है। इस हिसाब से तो हिंदु या वैदिक परंपरा सबसे शक्तिशाली है, क्योंकि यह सबसे पुरातन है। अगर मैं आज शिवपुराण को रहस्योद्घाटित कर रहा हूँ, तो इसका यह मतलब भी हो सकता है कि मैं इसके लेखक ऋषि के संस्कार को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से प्राप्त कर रहा हूँ। परम्परा में संस्कार छिपे होते हैं, इसलिए हमें परम्परा को विलुप्त नहीं होने देना है। अगर उसे युग के अनुरूप भी ढालना है, तो उसके मूल रूप से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिये। प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस कहते हैं कि नयापन इस तरह लाओ कि पुरानापन भी जीवित रहे। परम्परा से कटा आदमी डोरी से कटी पतंग की तरह दिशाहीन हो जाता है। हालांकि आज हमें उपरोक्त वैदिक परंपरा या जीवन पद्धति की तरह अन्य पुरातन परम्पराएँ भी अजीब सी लगती हैं। यह ऐसा इसलिए है क्योंकि आज ये विकृत हो गई हैं, अपने असली स्वरूप में नहीं हैं। आज ये ढोंग या दिखावा बन कर रह गई हैं। आज इनमें शक्ति नहीं है। आज हम बहुत आदर्शवादी बन गए हैं, जिससे अपनी असली संस्कृति भूल सी गए हैं। यह ऐसे है, जैसे शिवपुराण में कथा आती है कि त्रिपुरासरोंको पथभ्रष्ट करने के लिए भगवान विष्णु ने सिर मुंडवाए हुए बौद्ध-जैन भिक्षु जैसे लोग पैदा किए। वे शिवलिंग, वेदों, यज्ञों व उनमें दी जाने वाली पशु बलि के विरोध में छद्म अहिंसा आदि का उपदेश देते हुए अपने मायामय धर्म का प्रचार करने लगे। इससे महिलाएं कुलटा हो गईं। जिससे सब शक्तिहीन हो गए। वे भिक्षु मुंह पर कपड़ा जैसा बाँध रखते थे, और बहुत धीरे चलते थे, ताकि पैर के नीचे दब कर किसी चींटी आदि सूक्ष्म जीव की हत्या न हो जाए। शिवलिंग पूजा छोड़ने से सब तन्त्र से विमुख हो गए। उन्हें शक्तिहीन जानकर देवताओं ने अच्छा मौका जानकर उन त्रिपुरासरों को शिव से मरवा दिया। फिर वे मुंडी लोग भगवान नारायण के पास जाकर कहने लगे कि आपका काम हो गया, अब आप बताएं हम कहाँ जाएं। नारायण ने उन्हें रेगिस्तान चले जाने का निर्देश दिया और कहा कि कलियुग में फिर दुनिया में फैल जाना। आज के कलियुग में यह बात सच होती हुई लग रही है। मैं इस कथा का रहस्योद्घाटन अगली पोस्ट में करूंगा।

उपरोक्त बातों से सिद्ध होता है कि संस्कारों के बिना कुंडलिनी दुर्लभ है। संस्कार के साथ शुभ लगाने की जरूरत नहीं, क्योंकि इसका मतलब ही शुभ संस्कार बनता है। विशेष संस्कार बताने के लिए विशेष शब्द जोड़ सकते हैं, जैसे भौतिक संस्कार, स्वच्छता के संस्कार आदि। क्योंकि कुंडलिनी आध्यात्मिक संस्कार से मिलती है, इसलिए इस कुंडलिनी विषयक वेबसाइट में संस्कार का मतलब आध्यात्मिक संस्कार ही समझा जाएगा, जो शुभ संस्कार का ही एक प्रकार है। बुरे संस्कार के साथ बुरा या अशुभ जोड़ना पड़ता है। यह समझा जा सकता है कि बच्चे से कुंडलिनी योग या अन्य आध्यात्मिक क्रियाकलाप आसानी से नहीं कराया जा सकता, पर संस्कार तो डाला जा सकता है। यही संस्कार रूपी बीज कालांतर में कब महान वृक्ष बनेगा, किसीको पता भी नहीं चलेगा। संस्कार संगति से बनता है। इसीलिए अच्छी संगति की अध्यात्म में बहुत बड़ी महिमा है। थोड़ी सी संगति से भी अनगिनत लोग, यहाँ तक कि अन्य जीव भी भवसागर से तर गए हैं। शास्त्र ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं। उदाहरण के लिए, एक कौवा मंदिर पर चढ़ाया हुआ प्रसाद खाता था। संगति या संस्कार के प्रभाव से वह अगले जन्म में साधु बना और मुक्त हो गया। कोई जीव या मनुष्य किसी साधु की कुटिया के सानिध्य में रहकर मुक्त हो गया, आदि। वृंदावन में तो भगवान कृष्ण की संगति से फूल-पौधे भी तर गए। यह सब संस्कार या संगति का ही चमत्कार है। बिना किए ही सबकुछ हो जाता है। संस्कार की तरह संगति का मतलब भी यहाँ शुभ या आध्यात्मिक संगति ही समझना चाहिए। तत्त्वतः संगति और संस्कार में कोई अंतर नहीं है।

कुंडलिनी साहित्य के रूप में संस्कृत साहित्य एक आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, अत्याधुनिक, और सदाबहार साहित्य है

संस्कृत साहित्य कुंडलिनी आधारित साहित्य होने के कारण ही एक अनुपम साहित्य है

दोस्तो, मैं संस्कृत साहित्य का जन्मजात शौकीन हूँ। संस्कृत साहित्य बहुत मनोरम, सजीव, जीवंत व चेतना से भरा हुआ है। एक सज्जन संस्कृत विद्वान ने बहुत वर्षों पहले ‘संस्कृत साहित्य परिचायिका’ नाम से एक सुंदर, संक्षिप्त व ज्ञान से भरपूर पुस्तक लिखी थी। उस समय ऑनलाइन पुस्तकों का युग नहीं आया था। इससे वह आजतक गुमनामी में पड़ी रही। मेरी इच्छा उसको ऑनलाइन करने की हुई। कम्प्यूटर पर टाइपिंग में समस्या आई, क्योंकि अधिकांश शब्द संस्कृत के थे, और टाइप करने में कठिन थे। भला हो एंड्रॉयड में गूगल के इंटेलिजेंट कीबोर्ड का। उससे अधिकांश टाइपिंग खुद ही होने लगी। मैं तो शुरु के कुछ ही वर्ण टाइप करता हूँ, बाकी वह खुद प्रेडिक्ट कर लेता है। आधे से ज्यादा टाइप हो गई। अधिकांश पब्लिशिंग प्लेटफोरमों पर तो मैंने इसे ऑनलाइन भी कर दिया है। शेष स्थानों पर भी मैं इसे जल्दी ही ऑनलाइन करूँगा। निःशुल्क पीडीएफ बुक के रूप में यह इस वेबसाइट के शॉप पेज पर दिए गए निःशुल्क पुस्तकों के लिंक पर भी उपलब्ध है। यह सभी साहित्यप्रेमियों के पढ़ने लायक है। आजकल किसी भी विषय का आधारभूत परिचय ही काफी है। बोलने का तात्पर्य है कि विषय की हिंट ही काफी है। उसके बारे में बाकि विस्तार तो गूगल पर व अन्य साधनों से मिल जाता है। केवल साहित्य से जुड़े हुए प्रारम्भिक संस्कार को बनाने की आवश्यकता होती है, जिसे यह पुस्तक बखूबी बना देती है। संस्कृत साहित्य का भरपूर आनंद लेने के लिए इस पुस्तक का कोई सानी नहीं है। यह छोटी जरूर है, पर गागर में सागर की तरह है। इसी पुस्तक से निर्देशित होकर मैं कालीदासकृत कुमारसम्भव काव्य की खोज गूगल पर करने लगा। मुझे पता चला कि इसमें शिव-पार्वती के प्रेम, उससे भगवान कार्तिकेय के जन्मादि की कथा का वर्णन है। कुमार मतलब लड़का या बच्चा, सम्भव मतलब उत्पत्ति। कहते हैं कि शिव और पार्वती के संभोग का वर्णन करने के पाप के कारण कवि कालीदास को कुष्ठरोग हो गया था। इसलिए वहां पर उन्होंने उसे अधूरा छोड़ दिया। बाद में उसे पूरा किया गया। कुछ लोग कहते हैं कि आम जनमानस ने शिव-पार्वती के प्रति भक्तिभावना के कारण उनके संभोग-वर्णन को स्वीकार नहीं किया। इसलिए उन्हें उसे रोकना पड़ा। पहली संभावना यद्यपि विरली पर तथ्यात्मक भी लगती है, क्योंकि वह आम संभोग नहीं है। उसका लौकिक तरीके से वर्णन नहीं किया जा सकता। वह एक तंत्रसाधना के रूप में है, और रूपकात्मक है, जैसा कि पिछली पोस्ट में दिखाया गया है। लौकिक हास्यविनोद व मनोरंजन का उसमें कोई स्थान नहीं है। इस संभावना के पीछे मनोविज्ञान तथ्य भी है। क्योंकि देवताओं के साथ बहुत से लोगों की मान्यताएं और आस्थाएँ जुड़ी होती हैं, इसलिए उनके अपमान से उनकी अभिव्यक्त बददुआ या नाराजगी की दुर्भावना तो लग ही सकती है, पर अनभिव्यक्त अर्थात अवचेतनात्मक रूप में भी लग सकती है। इस तरह से अवलोकन करने पर पता चलता है कि सारा संस्कृत साहित्य हिंदु वेदों और पुराणों की कथाओं और आख्यानों के आधार पर ही बना है। अधिकाँश साहित्यप्रेमी और लेखक वेदों या पुराणों से किसी मनपसंद विषय को उठा लेते हैं, और उसे विस्तार देते हुए एक नए साहित्य की रचना कर लेते हैं। क्योंकि वेदों और पुराणों के सभी विषय कुण्डलिनी पर आधारित होने के कारण वैज्ञानिक हैं, इसलिए संस्कृत साहित्य भी कुण्डलिनीपरक और वैज्ञानिक ही सिद्ध होता है।

विभिन्न धर्मों की मिथकीय आध्यात्मिक कथाओं के रहस्योद्घाटन को सार्वजनिक करना आज के आधुनिक, वैज्ञानिक, व भौतिकवादी युग की मूलभूत मांग प्रतीत होती है

मुझे यह भी लगता है कि आध्यात्मिक रहस्यों को उजागर करने से समाज को बहुत लाभ भी प्राप्त हो सकता  है। मैं यह तो नहीं कहता कि हर जगह रहस्य को उजागर किया जाए, क्योंकि ऐसा करने से रहस्यात्मक कथाओं का आनन्द समाप्त ही हो जाएगा। पर कम से कम एक स्थान पर तो उन रहस्यों को उजागर करने वाली रचना उपलब्ध होनी चाहिए। कहते हैं कि आध्यात्मिक सिद्धांतों व तकनीकों को इसलिए रहस्यमयी बनाया गया था, ताकि आदमी आध्यात्मिक परिपक्वता से पहले उनको आजमाकर पथभ्रष्ट न होता। पर कई बार ऐसा भी होता है कि अगर आध्यात्मिक परिपक्वता से पहले ही आदमी को रहस्य की सच्चाई पता चल जाए, तब भी वह उससे तभी लाभ उठा पाएगा जब उसमें परिपक्वता आएगी। रहस्य को समझ कर उसे यह लाभ अवश्य मिलेगा कि वह उससे प्रेरित होकर जल्दी से जल्दी आध्यात्मिक प्रगति प्राप्त करने की कोशिश करके आध्यात्मिक परिपक्वता को हासिल करेगा, ताकि उस रहस्य से लाभ उठा सके। साथ में, तब तक वह योग साधना के रहस्यों व सिद्धांतों से भलीभांति परिचित हुआ रहेगा। उसे जरूरत पड़ने पर वे नए और अटपटे नहीं लगेंगे। कहते भी हैं कि अगर कोई आदमी अपने पास लम्बे समय तक चाय की दुकान का सामान संभाल कर रखे तो वह एकदिन चाय की दुकान जरूर खोलेगा, और कामयाब उद्योगपति बनेगा। पहले की अपेक्षा आज के युग में आध्यात्मिक रहस्योद्घाटन को सार्वजनिक करना इसलिए भी जरूरी लगता है क्योंकि आजकल ईमानदार, व निपुण आध्यात्मिक गुरु विरले ही मिलते हैं, और जो होते हैं वे भी अधिकांशतः आम जनमानस की पहुंच से दूर होते हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। उस समय अध्यात्म का बोलबाला होता था। आजकल तो भौतिकता का बोलबाला ज्यादा है। अगर आजकल कोई आध्यात्मिक रूप से परिपक्व हो जाए, और उसे उसकी जरूरत के अनुसार सही मार्गदर्शन न मिले, तो उसे तो बड़ी आध्यात्मिक हानि उठानी पड़ सकती है। एक अन्य लाभ यह भी मिलेगा कि जब सभी धर्मों का रहस्योद्घाटन हो जाएगा, तब सबको कुंडलिनी तत्त्व अर्थात अद्वैत तत्त्व ही अध्यात्म के मूल तत्त्व के रूप में नजर आएगा। इससे सभी धर्मों के बीच में आपसी कटुता समाप्त हो जाएगी और असल रूप में सर्वधर्मसमभाव स्थापित हो पाएगा। इससे दुनिया के अधिकांश झगड़े समाप्त हो जाएंगे।

इड़ा नाड़ी को ही ऋषिपत्नी अरुन्धती कहा गया है

अब पिछली पोस्ट में वर्णित रूपकात्मक कथा को आगे बढ़ाते हैं। उसमें जिस अरुंधति नामक ऋषिपत्नी का वर्णन है, वह दरअसल इड़ा नाड़ी है। इड़ा नाड़ी अर्धनारीश्वर के स्त्री भाग का प्रतिनिधित्व करती है। कई बार हठयोग का अभ्यास करते समय प्राण इड़ा नाड़ी में ज्यादा प्रवाहित होने लगता है। इसका मतलब है कि वह प्राण को सुषुम्ना में जाने से रोकती है। सुषुम्ना से होता हुआ ही प्राण चक्रों पर अच्छी तरह स्थापित होता है। प्राण के साथ वीर्यतेज भी होता है। इसको यह कह कर बताया गया है कि अरुंधति ने ऋषिपत्नियों को अग्नि देव के निकट जाने से रोका। पर योगी ने आज्ञाचक्र के ध्यान से प्राण के साथ वीर्यतेज को सुषुम्ना से प्रवाहित करते हुए चक्रों पर उड़ेल दिया। इसको ऐसे दिखाया गया है कि ऋषिपत्नियों ने अरुंधती की बात नहीं मानी, पर भगवान शिव के इशारे को समझा। आज्ञाचक्र शिव का प्रतीक भी है, क्योंकि वहीँ पर उनका तीसरा नेत्र है।

कुंडलिनी जागरण और कुंडलिनी योग के बीच में केवल अनुभव की मात्रा को लेकर ही भिन्नता है, अनुभव की प्रकृति को लेकर नहीं

कई जगह सहस्रार को आठवां चक्र माना जाता है। सहस्रार तक वीर्यतेज पहुंचाना अन्य चक्रों से मुश्किल होता है। जबरदस्ती ऐसा करने से सिरदर्द होने लग सकता है। इसलिए नीचे के सात चक्रों पर ही वीर्य को स्थापित किया जाता है। इसीको रूपक में ऐसा कहा गया है कि आठ में से सात ऋषिपत्नियाँ ही अग्निदेव के पास जाकर आग सेंकने लगीं। आई तो आठवी भी, पर उसने आग की तपिश नहीं ली। मतलब कि थोड़ा सा वीर्यतेज तो सहस्रार तक भी जाता है, पर वह नगण्यतुल्य ही होता है। सहस्रार तक वीर्यतेज तो मुख्यतः सुषुम्ना के ज्यादा क्रियाशील होने से उससे होकर ही जाता है। इसीको रूपक में यह कहा गया है कि गंगानदी ने शिव के वीर्य को सरकंडे की घास में उड़ेल दिया। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि प्राण या वीर्यतेज या ऊर्जा या शक्ति के साथ कुंडलिनी चित्र तो रहता ही है। ये सभी नाम आपस में पर्यायवाची की तरह हैं, अर्थात सभी शक्तिपर्याय हैं। वीर्यतेज से सर्वप्रथम व सबसे ज्यादा जलन आगे के स्वाधिष्ठान चक्र पर महसूस होती है। यह उसी जननांग से जुड़ा है, जिसे पिछले लेख में कबूतर कहा गया है। उसके साथ जब चक्रों पर बारी-बारी से कुंडलिनी का भी ध्यान किया जाता है, तब वह तेज चक्रों पर आने लगता है। फिर वह चक्रों से रीढ़ की हड्डी में जाता हुआ महसूस होता है। सम्भवतः यह आगे के चक्र से पीछे के चक्र को रिस जाता है। इसीलिए आगे-पीछे के दोनों चक्र आपस में एक पतले एनर्जी चैनल से जुड़े हुए बताए जाते हैं। इसीको मिथक कथा में यह कह कर बताया गया है कि ऋषिपत्नियों ने वह वीर्य तेज हिमालय को दिया, क्योंकि पीछे वाले चक्र रीढ़ की हड्डी में ही होते हैं। पुराण बहुत बारीकी से लिखे गए होते हैं। उनके हरेक शब्द का बहुत बड़ा और गहरा अर्थ होता है। इस तेज-स्थानांतरण का आभास पीठ के मध्य भाग में नीचे से ऊपर तक चलने वाली सिकुड़न के साथ आनन्द की व नीचे के बोझ के कम होने की अनुभूति से होता है। फिर थोड़ी देर बाद उस सिकुड़न की सहायता से वह तेज सुषुम्ना में प्रविष्ट होता हुआ महसूस होता है। यह अनुभूति बहुत हल्की होती है, और खारिश की या किसी संवेदना की या यौन उन्माद या ऑर्गेज्म की एक आनन्दमयी लाइन प्रतीत होती है। यह ऐसा लगता है कि पीठ के मेरुदंड की सीध में एक मांसपेशी की सिकुड़न की रेखा एकसाथ नीचे से ऊपर तक बनती है और ऑर्गेज्म या यौन-उन्माद के आनन्द के साथ कुछ देर तक लगातार बनी रहती है। ऐसा लगता है कि वह नाड़ी सहस्रार में कुछ उड़ेल रही है। इसके साथ ही कुंडलिनी चित्र सहस्रार में महसूस होता है। अभ्यास के साथ तो हर प्रकार की अनुभूति बढ़ती रहती है। इसीको रूपक में ऐसे कहा गया है कि अग्निदेव ने वह तेज सात ऋषिपत्नियों को दिया, ऋषिपत्नियों ने हिमालय को दिया, हिमालय ने गंगानदी को, और गंगानदी ने सरकंडे की घास को दिया। इसका सीधा सा मतलब है कि कुंडलिनी क्रमवार ही सहस्रार तक चढ़ती है, सीधी नहीं। योग में अक्सर ऐसा ही बोला जाता है। हालाँकि तांत्रिक योग से सीधी भी सहस्रार में जा सकती है। किसीकी कुंडलिनी मूलाधार में बताई जाती है, किसी की स्वाधिष्ठान चक्र तक ऊपर चढ़ी हुई, किसीकी मणिपुर चक्र तक, किसीकी अनाहत चक्र तक, किसीकी विशुद्धि तक, किसी की आज्ञाचक्र तक और किसीकी सहस्रार तक चढ़ी हुई बताई जाती है। हालांकि इन सातों चक्रों में तो कुण्डलिनी प्रतिदिन के योगाभ्यास में चढ़ती औऱ उतरती रहती है, पर कुंडलिनी को लम्बे समय तक एक चक्र पर स्थित रखने के लिए काफी अभ्यास की जरूरत होती है। आपकी कुंडलिनी प्रतिदिन सहस्रार में भी जाएगी, पर यह योगाभ्यास के दौरान सहस्रार पर ध्यान लगाने के समय जितने समय तक ही सहस्रार में रहेगी। जब कुण्डलिनी लगातार, पूरे दिनभर, कई दिनों तक और बिना किसी योगाभ्यास के भी सहस्रार में रहने लगेगी, तभी वह सहस्रार तक चढ़ी हुई मानी जाएगी। इसे ही प्राणोत्थान भी कहते हैं। इसमें आदमी दैवीय गुणों से भरा होता है। पशुओं को आदमी की इस अवस्था का भान हो जाता है। मैं जब इस अवस्था के करीब होता हूँ, तो पशु मुझे विचित्र प्रकार से सूंघने और अन्य प्रतिक्रियाएं दिखाने लगते हैं। इसमें ही कुंडलिनी जागरण की सबसे अधिक संभावना होती है। इसके लिए सेक्सुअल योग से बड़ी मदद मिलती है। ये जरूरी नहीं कि ये सभी अनुभव तभी हों, जब कुंडलिनी जागरण हो। हरेक कुंडलिनी योगी को ये अनुभव हमेशा होते रहते हैं। कई इन्हें समझ नहीं पाते, कई ठीक ढंग से महसूस नहीं कर पाते, और कई दूसरे छोटे-मोटे अनुभवों से इन्हें अलग नहीं कर पाते। सम्भवतः ऐसा तब होता है, जब कुंडलिनी योग का अभ्यास हमेशा या लंबे समय तक नित्य प्रतिदिन नहीं किया जाता। अभ्यास छोड़ने पर कुण्डलिनी से जुड़ीं अनुभूतियां शुरु के सामान्य स्तर पर पहुंच जाती हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ। नहाते समय चाहे शरीर के किसी भी हिस्से में पानी के स्पर्श की अनुभूति ध्यान के साथ की जाए, वह अनुभूति एक सिकुड़न के साथ पीठ से होते हुए सहस्रार तक जाती हुई महसूस होती है। इससे जाहिर होता है कि मेरुदण्ड में ही सुषुम्ना नाड़ी है, क्योंकि वही शरीर की सभी संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाती है। कुंडलिनी जागरण और कुंडलिनी योग के बीच में केवल अनुभव की मात्रा को लेकर ही भिन्नता है, अनुभव की प्रकृति को लेकर नहीं। कुंडलिनी जागरण में कुंडलिनी अनुभव उच्चतम स्तर तक पहुंच जाता है, व इससे सम्बंधित अन्य अनुभव भी शीर्षतम स्तर तक पहुंच सकते हैं। कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी फिर से एक साधारण कुंडलिनी योगी बन जाता है, ज्यादा कुछ नहीं।

मेडिटेशन एट टिप अर्थात शिखर पर ध्यान

यह एक वज्रोली क्रिया का छोटा रूप ही है। इसमें वीर्य को बाहर नहीं गिराया जाता पर पेनिस टिप या वज्रशिखा पर उसे ले जाकर वापिस ऊपर चढ़ाया जाता है। यह ऐसा ही है कि वीर्य स्खलन के बिना ही उसकी चरम अनुभूति के करीब तक संवेदना को बढ़ाया जाता है, और फिर संभोग को रोक दिया जाता है। यह ऐसा ही है कि यदि उस अंतिम सीमाबिन्दु के बाद थोड़ा सा संभोग भी किया जाए, तो वीर्य का वेग अनियंत्रित होने से वीर्यस्खलन हो जाता है। यह तकनीक ही आजकल के तांत्रिकों विशेषकर बुद्धिस्ट तांत्रिकों में लोकप्रिय है। यह बहुत प्रभावशाली भी है। यह तकनीक पिछले लेख में वर्णित अग्निदेव के कबूतर बनने की शिवपुराण कथा से ही आई है। यह ज्यादा सुरक्षित भी है, क्योंकि इसमें पूर्ण वज्रोली की तरह ज्यादा दक्षता की जरूरत नहीं, और न ही संक्रमण आदि का भय ही रहता है। दरअसल शिवपुराण में रूपकों के रूप में लिखित रहस्यात्मक कथाएं ही तंत्र का मूल आधार हैं। 

शरीर व उसके अंगों का देवता के रूप में सम्मान करना चाहिए

तंत्र शास्त्रों में आता है कि योनि में सभी देवताओं का निवास है। इसीलिए कामाख्या मंदिर में योनि की पूजा की जाती है। इससे सभी देवताओं की पूजा स्वयं ही हो जाती है। दरअसल ऐसा मूलाधार की प्रचण्ड ऊर्जा के कारण ही होता है। वास्तव में यही मूलाधार को ऊर्जा देती है। उससे वहाँ कुंडलिनी चित्र का अनुभव होता है। क्योंकि मन में सभी देवताओं का समावेश है, और कुंडलिनी मन का सारभूत तत्त्व या प्रतिनिधि है, इसीलिए ऐसा कहा जाता है। इसलिए पिछले लेख में वर्णित रूपक के कुछ यौन अंशों को अन्यथा नहीं लेना चाहिए। शरीरविज्ञान दर्शन के अनुसार शरीर के सभी अंग भगवदस्वरूप हैं। पुराणों के अनुसार भी शरीर के सभी अंग देवस्वरूप हैं। शरीर में सभी 33 करोड़ देवताओं का वास है। इसका मतलब तो यह हुआ कि शरीर का हरेक सेल या कोशिका देवस्वरूप ही है। इससे यह अर्थ भी निकलता है कि शरीर की सेवा और देखभाल करना सभी देवताओं की पूजा करने के समान ही है। पुस्तक ‘शरीरविज्ञान दर्शन’ में यह सभी कुछ तथ्यों के साथ सिद्ध किया गया है। यह शरीर सभी पुराणों का और शरीरविज्ञान दर्शन का सार है। पुराण पुराने समय में लिखे गए थे, पर शरीरविज्ञान दर्शन आधुनिक है। इसलिए शरीर के किसी भी अंग का अपमान नहीं करना चाहिए। शारीरिक अंगों का अपमान करने से देवताओं का अपमान होता है। ऐसा करने पर देवता तारकासुर रूपी अज्ञान को नष्ट करने में मदद नहीं करते, जिससे आदमी की मुक्ति में अकारण विलंब हो जाता है। कई लोग धर्म के नाम पर इसलिए नाराज हो जाते हैं कि किसी देवता की तुलना शरीर के अंग से क्यों कर दी। इसका मतलब तो भगवदस्वरूप शरीर और उसके अंगों को तुच्छ व हीन समझना हुआ। एक तरफ वे देवता को खुश कर रहे होते हैं, पर दूसरी तरफ भगवान को नाराज कर रहे होते हैं।