कुंडलिनी ही जादूगर का वह तोता है, जिसमें उसकी जान बसती है

दोस्तों, रशिया में एक कहावत है कि जादूगर की जान उसके तोते में बसती है। यह बात पूर्णतः सत्य न भी हो, तो भी इसका मैटाफोरक महत्त्व है। कुंडलिनी ही वह तोता है, जिससे जादूगर को शक्ति मिलती रहती है।

किसी भी चीज को कुंडलिनी बनाया जा सकता है

जादूगर एक तोते को कुंडलिनी बनाता है। तोता रंगीन व सुंदर होता है, इसलिए आसानी से ध्यानालम्बन या ध्यान-कुंडलिनी बन जाता है। तोता एक मैटाफोर भी हो सकता है। तोते का अर्थ कोई सुंदर रूप वाली चीज भी हो सकता है। जैसे कि प्रेमी, गुरु या कोई अन्य सुंदर चीज। सुंदर चीज से आसानी से प्यार हो जाता है और वह मन में बस जाती है। जादूगर योगी का मैटाफोर भी हो सकता है। जैसे योगी की शक्तियां उसकी कुंडलिनी के कारण होती हैं, वैसे ही जादूगर की शक्तियां उसके तोते के आश्रित होती हैं।


जादूगर/योगी अपने तोते/कुंडलिनी की सहायता से ही भ्रमजाल फैलाता है


जैसे योगी अपनी कुंडलिनी से अद्वैत को प्राप्त करता है, वैसे ही जादूगर अपने तोते से अद्वैत प्राप्त करता है। जादूगर जब भ्रम के जादू को फैलाता है, तब अद्वैत की शक्ति से ही वह भ्रम के जाल में नहीं फंसता। वैसा ही योगी भी करता है। आम लोग योगी की दुनियावी लीलाओं से भ्रमित होते रहते हैं, परंतु वह स्वयं भ्रम से अछूता रहता है।


तोते/कुंडलिनी के मरने से जादूगर/योगी निष्क्रिय सा हो जाता है


इसीसे भावनात्मक सदमा लगता है, जैसा कि मैंने पिछली पोस्टों में बयान किया है। वास्तव में, तोते/कुंडलिनी के साथ जादूगर/योगी का पूरा जीवनक्रम जुड़ा होता है। तोते/कुंडलिनी के नष्ट होने से उससे जुड़ी सारी घटनाएं, यादें व मनोवृत्तियां नष्ट सी हो जाती हैं। इससे वह घने अंधेरे में पूरी तरह से शांत सा हो जाता है। इसे भावनात्मक सदमा कहते हैं। इसे ही पतंजलि की असम्प्रज्ञात समाधि भी कहते हैं। इसी परिस्थिति में कुंडलिनी जागरण हो सकता है। यदि इसे कुछ लंबे समय तक धारण किया जाए, तो आत्मज्ञान भी प्राप्त हो सकता है। औसतन लगभग छः महीने के अंदर आत्मज्ञान हो सकता है। इस स्थिति को संभालने के लिए यदि योग्य गुरु का सहयोग मिले, तो भावनात्मक सुरक्षा मिलती है।

ईश्वर सबसे बड़ा जादूगर है, जो तोते/कुंडलिनी से इस दुनिया के जादू को चलाता रहता है

हिंदु समेत विभिन्न धर्मों में ईश्वर को एक जादूगर या ऐंद्रजालिक माना गया है, जो अपने जादू या इंद्रजाल को खुले आसमान में फैलाता है। उससे यह दुनिया बन जाती है। वह पूर्ण अद्वैतशील है। इससे स्वयं सिद्ध हो जाता है कि उसके साथ उसकी कुंडलिनी (तोता) भी रहती है। उसी तोते को मायाशक्ति कहा गया है।

ई-बुक के लिए कवर डिजाइनिंग- स्वयम्प्रकाशन का एक मूलभूत आधारस्तम्भ

दोस्तों, यदि अनुभवों को सबके साथ साझा करने की कला न आए, तो उन अनुभवों का विशेष महत्त्व नहीं होता। वे अनुभव उसी अकेले आदमी तक सीमित रह जाते हैं, और उसी के साथ नष्ट हो जाते हैं। भारत में कभी अध्यात्म का परचम लहराया करता था। आध्यात्मिक विद्याएं अपने चरम पर होती थीं। पर समय के साथ उन विद्याओं को साझा करने की प्रवृत्ति पर रोक लगने लगी। उसके बहुत से कारण थे, जिनकी गहराई में मैं जाना नहीं चाहता। धीरे धीरे करके बहुत सी आध्यात्मिक विद्याएं विलुप्त हो गईं। आजकल के समय में वैबसाइट और ई-पुस्तक अनुभवों को साझा करने के सबसे महत्त्वपूर्ण साधन हैं। इसलिए वैबसाइट निर्माण व स्वयम्प्रकाशन की मूलभूत जानकारी सभी को होना जरूरी है। ईपुस्तक का आवरण ईपुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।

यह नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना वायरस लोकडाऊन के कारण ईबुक्स की मांग में बढ़ौतरी हुई है, और आगे भी होगी। पब्लिशिंग हाऊस भी अच्छा डिस्काउंट ऑफर दे रहे हैं। ब्लयू हिल्स पब्लिकेशन वाले भी 50℅ से ज्यादा का डिस्काउंट दे रहे हैं।

ईपुस्तकों का आवरण आकर्षक होना चाहिए

कभी समय था जब लोग बिना आवरण की पुस्तकों को पढ़ा करते थे। उनका मुख्य उद्देश्य पुस्तक की पाठ्य सामग्री होती थी, आवरण नहीं। अब समय बदल गया है। आजकल लोग आवरण की चकाचौंध में पुस्तक की पाठ्य सामग्री को भूल जाते हैं। अनेकों बार उत्कृष्ट किस्म की पुस्तक भी आवरण की कमी से कामयाब होने में बहुत लंबा समय ले लेती है, जबकि निम्नकोटि की पुस्तक भी आवरण की चकाचौंध में जल्दी ही कामयाब हो जाती है। इसका कारण यह नहीं है कि लोगों को निम्न कोटि की पुस्तक से कोई विशेष लाभ मिलता है। असली कारण तो ई पुस्तकों तक पूरे विश्व की पहुंच है। अगर 20 करोड़ पाठकों में से एक लाख लोग भी आवरण की ठगी का शिकार हो गए, तो पुस्तक तो कामयाब हो गई। दूसरा कारण ई पुस्तकों का सस्ता होना है। तीसरा कारण आजकल का भौतिकवाद औऱ जीवन जीने का बाहरी नजरिया है।

केनवा डॉट कॉम मुझे पुस्तक आवरण बनाने वाली सबसे अच्छी वैबसाइट लगी

आपको हैरानी होगी कि मुझे आवरण बनाना सीखने में 3 साल लग गए। केनवा डॉट कॉम ने मेरा वह काम बहुत आसान कर दिया। 3 साल तक मेरी पुस्तकें केडीपी के बने बनाए बुक कवर के सहारे रहीं। हालाँकि वे कवर सुंदर व प्रोफेशनल नहीं लगते। एक पुस्तक का कवर मैंने एडोबे डॉट कॉम के फोटो एडिटर पर बनाया। उसमें सभी काम खुद करने होते थे, जैसे कि फ़ोटो पर टेक्स्ट लिखना और उसे मनचाहा एडिट करना। वह भी प्रोफेशनल नहीं लगा। एक दूसरी पुस्तक की कवर फोटो पर एडोबे से तितली, फूल आदि चिपकाए। उस फोटो को केनवा डॉट कॉम पर एक बैकग्राउंड प्लेन पेपर पर चिपका दिया। मैं केनवा डॉट कॉम की कार्यप्रणाली को समझ नहीं पा रहा था। केनवा को समझने का मौका मुझे तब मिला जब मैंने 6000 रुपये देकर अपनी एक पुस्तक के लिए ब्लयू हिल्स पब्लिकेशन से बुक कवर बनवाया और पुस्तक को प्रोमोट करवाया। पब्लिशर ने मेरी बाकि की 8 पुस्तकें देखकर कहा कि उनके बुक कवर प्रोफेशनल नहीं लग रहे थे। वैसे भी कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है।

केनवा डॉट कॉम पर कवर डिजाइनिंग कैसे करें

सबसे पहले वैबसाइट पर अपना अकाउंट बनाओ औऱ लॉग इन करो। होम पर जाओ। यहां ऑल योवर डिजाइन में आपके पहले के बनाए सभी डिजाइन होंगे। एक कस्टम डाइमेंशन का बटन होता है। इसमें हम किसी भी साईज (पिक्सेल लंबाई बाय पिक्सल चौड़ाई) का कवर बना सकते हैं। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि हरेक स्वयम्प्रकाशन के प्लेटफार्म पर अलग आकार की डिमांड होती है। केडीपी, किंडल डायरेक्ट पब्लिशिंग पर 2500 बाय 1600 पिक्सेल आकार की जेपीजी इमेज पर स्वीकार्य होती है। यदि ईबुक कवर वाले दूसरे ऑप्शन पर क्लिक किया जाए तो छोटे आकार की कवर (लगभग 800 बाय 200 पिक्सेल) बनती है। उसका साईज फिर अलग सॉफ्टवेयर से बढ़ाना पड़ता है। मुझे इसके लिए इमेजरिसाईज डॉट कॉम सर्वोत्तम व आसान लगा। ईबुक कवर या कस्टम डाइमेंशन बटन को क्लिक करके एक ड्रॉप डाऊन मीनू खुलता है। उस पर सबसे ऊपर टेम्पलेट बटन है। उससे पुस्तकों के सैंकड़ों किस्म के बने बनाए डिज़ाइन खुलते हैं। मनपसंद डिज़ाइन के टेम्पलेट पर क्लिक करने से वह दाईं तरफ की वर्किंग विंडो में आ जाती है। लेफ्ट ड्रॉपडाउन मीनू से अपलोड बटन दबाने से आपके द्वारा अपलोड की गई सभी फ़ोटो दिखेंगी। अपलोड एन इमेज पर क्लिक करके कम्प्यूटर से मनचाही फोटो को अपलोड करें। उस फ़ोटो को माऊस के लेफ्ट बटन से ड्रेग करके वर्किंग विंडो की सेलेक्टिड टेम्पलेट पर ड्रॉप कर दें। सीधा ड्रॉप करने से वह टेम्पलेट के बैकग्राउंड पर चिपक जाएगी। उस फोटो को छोटा या बड़ा किया जा सकता है। उस फोटो को टेम्पलेट का बैकग्राउंड बनाने के लिए ड्रैग की गई फोटो को माऊस से टेम्पलेट पर इधर-उधर चलाओ। एक पोजीशन पर टेम्पलेट के बॉर्डर ग्रीन से हो जाएंगे और फोटो पूरी टेम्पलेट पर फैलकर उसके बैकग्राउंड के रूप में हाईलाइट होने लगेगी। वहां पर माऊस को छोड़कर उस फोटो को ड्रॉप कर दो। इससे वह फोटो टेम्पलेट का बैकग्राउंड बन जाएगी। नीचे दी गई इमेज में पॉलीहाउस वाली फ़ोटो बैकग्राउंड का काम कर रही है। हालांकि टेम्पलेट के हैडिंग, सब-हैडिंग आदि सभी टेक्स्ट, मुख्य लाईनें व बॉक्स आदि वैसे ही रहेंगे। आप इन सभी विजुअल एलिमेंट्स को मनचाहे तरीके से एडिट कर सकते हो या उन्हें हटा सकते हो। आप अपनी पसंद का टैक्स्ट भी जोड़ सकते हो।आप टैक्स्ट के अक्षरों का आकार व उनकी बनावट भी बदल सकते हो। आप टेम्पलेट की ऐसी खाली जगह पर भी टैक्स्ट जोड़ सकते हैं, जहाँ पहले से टैक्स्ट नहीं है। ये सभी सुविधाएं मुफ्त में मिलती हैं। इसमें कवर डिजाइन की विजुअल क्वालिटी बेसिक होती है। पैसे देकर सब्सक्राइब करने पर आपको आपके अपने द्वारा बनाया गया कवर डिज़ाइन हाई डेफिनिशन क्वालिटी में डाऊनलोड करने को मिलता है। इसी तरह से, पैसे देकर बहुत सारी अच्छी टेम्पलेट मिलती हैं। 

केनवा पर फोटो डिजाइनिंग के सभी काम किए जा सकते हैं

केनवा पर लोगो, ब्लॉग बैनर, फेसबुक पोस्ट, इंस्टाग्राम फ़ोटो, लोगो, पोस्टर, कार्ड आदि सभी कुछ बनाया जा सकता है। ब्लॉग बैनर वैबसाइट के पेज या पोस्ट की फीचर्ड इमेज को कहते हैं। लोगो वैबसाइट या फेसबुक पेज के शुरु में एक छोटी सी गोलाकार फोटो के रूप में होता है। केनवा पर फोटो बैकग्राउंड को ट्रांसपेरेंट भी किया जा सकता है, पर शायद पेड सब्सक्रिप्शन के साथ। मोबाइल के लिए केनवा एप भी उपलब्ध है।

केनवा पर डिजाइन किया गया मेरी ईबुक का कवर


केनवा डॉट कॉम पर बने मेरे सभी ईबुक कवर्स को देखने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें।

कुंडलिनी के नवीनतम अवतार के रूप में कोरोना वायरस (कोविद-19); संभावित कोरोना-पुराण की मूलभूत रूपरेखा

दोस्तों, कोरोना ने एंड्रॉइड फोन पर वेबपोस्ट बनाना सिखा दिया है। इस हफ्ते मेरा डेस्कटॉप कम्प्यूटर भी लोकडाऊन में चला गया। वास्तव में कोरोना से दुनिया को बहुत कुछ सीखने को मिला है। कोरोना ने लोगों की अंधी भौतिक दौड़ पर लगाम लगाई है। इसने लोगों को जीवन जीने का तरीका सिखाया है। इसने मानवता को बढ़ावा दिया है। इसने प्रकृतिको स्वस्थ होने का अवसर प्रदान किया है। इसीलिए हम कोरोना को ईश्वर का अवतार मान रहे हैं, क्योंकि ईश्वर के अवतार ही इतने कम समय में ऐसे आश्चर्यजनक काम करते हैं।

कुंडलिनी और ईश्वर साथ-साथ रहते हैं

कुंडलिनी-अवतार कहो या ईश्वर-अवतार। बात एक ही है। कुंडलिनी ही शक्ति है। ईश्वर ही शिव है। वही अद्वैत है। शिव और शक्ति सदैव साथ रहते हैं। अद्वैत औऱ कुंडलिनी हमेशा साथ रहते हैं। कोरोना के डर से सभी लोग अद्वैतवादी बन गए हैं। वे जन्म-मृत्यु, यश-अपयश, और सुख-दुख में एकसमान रहना सीख गए हैं। इस प्रकार से हर जगह कुंडलिनी का बोलबाला हो गया है। हर जगह कुंडलिनी चमक रही है।

कुंडलिनी किसी भी रूप में अवतार ले सकती है

पुराणों में ईश्वर के विभिन्न अवतारों का वर्णन आता है। ईश्वर ने कभी मत्स्य अवतार, कभी वराह अवतार, कभी कच्छप अवतार, कभी वराह अवतार और कभी मनुष्य अवतार ग्रहण किया है। सभी अवतारों में उन्होंने अधर्म का नाश करके धर्म की स्थापना की है। जब ईश्वर मछली के रूप में अवतार ले सकता है, तब वायरस (कोरोना) के रूप में क्यों नहीं। कोरोना वायरस भी तो अधर्म का ही नाश कर रहा है।

कुंडलिनी के कोरोना अवतार के द्वारा अधर्म का नाश

सबसे पहले तो इसने उन धार्मिक कट्टरपंथियों के जमघट पर लगाम लगाई है, जो धर्म के नाम पर घोर अमानवतावादी बने हुए थे। इससे उनकी शक्ति क्षीण हुई है। दूसरा, इसने उन बड़े-2 विकसित देशों की हेकड़ी निकाल दी है, जो विज्ञान व तकनीक के घमंड में चूर होकर व्यापक जनसंहार के हथियार बना रहे थे। आज उनके हथियार उनके किसी काम नहीं आ रहे हैं, और उन्हीं के लिए मुसीबत बन गए हैं। हाल यह है कि कभी दुनिया को हथियार बेचने वाला सुपरपावर अमेरिका कोरोना के खिलाफ दवाई (हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन) के लिए भारत के आगे हाथ फैला रहा है। तीसरा, इसने लोगों के अंधाधुंध माँस भक्षण पर रोक लगाने का काम किया है। कोरोना के डर से लोग जीव हिंसा और मांस भक्षण से किनारा करने लगे हैं।

कुंडलिनी दुष्टों को अपनी ओर आकर्षित करके वैसे ही मारती है, जैसे कीड़ों-मकोड़ों को दीपक

विश्वस्त सूत्रों के अनुसार पाकिस्तान अपने आतंकवादियों को कोरोना से संक्रमित करवा कर भारत की सीमाओं में उनकी घुसपैठ करवा रहा है। इससे वही नष्ट होगा। भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार में भी दुष्ट राक्षस सुंदर मोहिनी देवी की तरफ आकृष्ट होकर उसी के द्वारा नष्ट हो गए थे।

कुंडलिनी के हाथ बहुत लंबे हैं

आजकल के लोगों का पुराणों के ऊपर से विश्वास उठ सा गया था। वे पुराणों के अवतारों की कहानियों को झूठा समझने लग गए थे। वे समझने लग गए थे कि आजकल के मिसाइल व परमाणु बम के युग में धनुष बाण या तलवार धारण करने वाला ईश्वर अवतार क्या कर लेगा। वे मान रहे थे कि मछली या कछुए जैसे अवतार भी आज क्या कर लेंगे। अब कुंडलिनी (ईश्वर) ने ऐसे लोगों का परिचय अपने उस विषाणु (विष्णु नहीं, विषाणु) अवतार से कराया है, जिसका नाम कोरोना है। उसको आज आदमी का कोई भी हथियार नुकसान नहीं पहुंचा पा रहा है, और न ही उसे रोक पा रहा है। ठीक ही कहा है, “न जाने किस रूप में नारायण मिल जाए”। इसलिए आज आदमी के लिए यही ठीक है कि वह कोरोना वायरस को कुंडलिनी समझ कर उसे नमस्ते करे, उससे अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगे, भविष्य के लिए उससे सबक ले, और अधर्म को छोड़कर धर्म के रास्ते पर चलना शुरु करे।

कोरोना पुराण से मिलती जुलती पुस्तक है “शरीरविज्ञान दर्शन”

आजकल तो इसके पढ़ने का विशेष फायदा है, क्योंकि आजकल स्वास्थ्य संबंधी आपदा (कोरोना) चरम पर है। इस पुस्तक में पूरे शरीर विज्ञान को एक पौराणिक उपन्यास की तरह रोचक ढंग से समझाया गया है। इसलिए इस पुस्तक को कोरोना पुराण भी कह सकते हैं। इससे जहां एक ओर भौतिक विकास होता है, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक विकास भी। इसमें कोरोना जैसे विषाणु के मानवता के ऊपर हमले की घटना का भी भविष्यवाणी की तरह वर्णन किया है। वह श्वास प्रणाली को अवरुद्ध करता है। उससे बहुत से लोग बड़ी दीनता के साथ मर जाते हैं, और बहुत से बच भी जाते हैं। मानवशरीर को इसमें एक देश की तरह दिखाया गया है। विषाणु को उग्रपंथी शत्रु मनुष्य की तरह दिखाया गया है। शरीर की रोगाणुओं से रक्षा करने वाले व्हाईट ब्लड सेल्स, देहदेश के वीर सैनिक हैं। श्वास नलिकाएं कन्दराएँ हैं। फेफड़े एक विशाल जलाशय के रूप में हैं। बहुत सुंदर दार्शनिक चित्रण है। ऐसे बहुत से दार्शनिक आख्यान पूरी पुस्तक में हैं, जो समस्त शरीर की सभी वैज्ञानिक गतिविधियों को कवर करते हैं। लगता है कि इस पुस्तक के लेखक को इस कोरोना महामारी का अचिंत्य पूर्वाभास हो गया हो, जिसे वह बता न सकता हो। उसी धुंधले पूर्वाभास ने उसे पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया हो। पुस्तक लगभग 2017 में छपी है। पुस्तक को समीक्षा में सर्वपठनीय, सर्वोत्तम व विलक्षण आंका गया है।

कोरोना से सबक लेकर अब लोग फिर से वेद पुराणों पर विश्वास करने लगे हैं। आशा है कि पाठकों को यह संक्षिप्त कोरोना पुराण पसंद आया होगा।

हम किसी भी धर्म का समर्थन या विरोध नहीं करते हैं। हम केवल धर्म के वैज्ञानिक और मानवीय अध्ययन को बढ़ावा देते हैं।

इस पोस्ट में दी गई समाचारीय सूचना को सबसे अधिक विश्वसनीय माने जाने वाले सूत्रों से लिया गया है। इसमें लेखक या वैबसाईट का अपना कोई योगदान नहीं है।

यह पोस्ट चिकित्सा विज्ञान का विकल्प नहीं है, अपितु उसकी अनुपूरक है। कृपया कोरोना से लड़ने के लिए डाक्टर की सलाह का पालन अवश्य करते रहें।

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कुण्डलिनी से लेखक की लेखन कला/कौशल, व्यक्तित्व, अनुभव, मस्तिष्क व सम्पूर्ण स्वास्थ्य का विकास

दोस्तों, लिखना आसान है, पर लिखी हुई बात का पाठकों के दिलो-दिमाग पर राज करना आसान नहीं है। लिखी हुई बातें जरूरतमंद लोगों तक पहुंचनी चाहिए। यदि वे गैर जरूरतमंद लोगों के पास पहुँचती हैं, तो उनसे लाभ की बजाय नुक्सान ही है। वैसे लोग उनको पढ़ने के लिए केवल अपना समय ही बर्बाद करेंगे। कई बार तो वैसे लोग उलटी शिक्षा भी ले लेते हैं। इससे लेखक का भी नुक्सान होता है। एक लेखक की किस्मत पाठकों के हाथ में होती है। इसलिए हमेशा अच्छा ही लिखना चाहिए। वैसा लिखना चाहिए, जिससे सभी लोगों को लाभ मिले। यदि केवल एक आदमी भी लेखन से लाभ प्राप्त करे, तो वह भी लाखों केजुअल पाठकों से बेहतर है। इसलिए एक लेखक को ज्यादा पाठकों की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि जरूरतमंद और काबिल पाठकों की ख्वाहिश रखनी चाहिए। इसीलिए प्राचीन समय में कई गुरु केवल एक ही आदमी को अपना शिष्य बनाते थे, और उसे अपने समान पूर्ण कर देते थे। मैंने अपने कोलेज टाईम में चिकित्सा विज्ञान के ऊपर आध्यात्मिक शैली में एक लेख लिखा था। जाहिर है कि उसके सभी पाठक चिकित्सा विज्ञान से जुड़े हुए थे। उसे इवल 100-200 पाठकों ने पढ़ा। मुझे नहीं पता कि उससे उन्हें क्या लाभ मिला। पर इतना जरूर अंदाजा लगता हूँ कि वे जरूरतमंद व काबिल थे, इसलिए उन्हें उससे उन्हें जरूर लाभ मिला होगा। मैं भी उन पाठकों की तरह ही उस लेख के लिए जरूरतमंद और काबिल था, इसीलिए मुझे भी लाभ मिला। इसका मतलब है कि लेखक पहले अपने लिए लिखता है, अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए लिखता है। बाद में उससे पाठकों की जरूरत पूरी होती है। अगर अपनी ही जरूरत पूरी नहीं होगी, तो पाठकों की जरूरत कैसे पूरी होगी।ब्लाक। मुझे तो उसे लिखने से बहुत से लाभ मिले। उससे मेरे जीवन की दिशा और दशा बदल गई। मेरा जीवन सकारात्मक, जोशीला, मेहनती व लगन वाला बन गया। इससे लगता है कि उस लेख से पाठकों को बहुत फायदा हुआ होगा। वह इसलिए, क्योंकि लेखक पाठकों का दर्पण होता है। उसमें पाठकों की ख़ुशी भी झलकती है, और गम भी। इसलिए अच्छा और फायदेमंद ही लिखना चाहिए।

कुण्डलिनी से फालतू दिमागी शोर थमता है, जिससे लाभपूर्ण विचारों के लिए मस्तिष्क में नई जगह बनती है

कुण्डलिनी पर ध्यान केन्द्रित करने से मस्तिष्क की फालतू शक्ति कुण्डलिनी पर खर्च हो जाती है। इससे वह विभिन्न प्रकार के फालतू विचारों को बना कर नहीं रख पाती। यदि वैसे विचार बनते भी हैं, तो वे बहुत कमजोर होते हैं, जिन पर कुण्डलिनी हावी हो जाती है। फालतू विचारों के थमने से मस्तिष्क में नए, सुन्दर, व्यावहारिक, अनुभवपूर्ण व रचनात्मक विचारों के लिए जगह बनती है। उन विचारों को जब हम लिखते हैं, तो बहुत सुन्दर लेख बनता है।

कुण्डलिनी से लेखक की दिमागी थकान दूर होती है, जिससे नए विचारों के लिए दिमाग की स्फूर्ति पुनः जाग जाती है

लिखने के लिए लेखक को ताबड़तोड़ विचारों का सहारा लेना पड़ता है। वे विचार विभिन्न प्रकार के होते हैं। कुछ नए होते हैं, कुछ पुराने, कुछ बहुत पुराने। उन विचारों की बाढ़ से लेखक अशांत, बेचैन, तनावयुक्त व भ्रमित सा हो जाता है। उसकी भूख-प्यास घट जाती है। उसका रक्तचाप बढ़ जाता है। वह थका-२ सा रहता है। वह चिड़चिड़ा सा हो जाता है। वैसी हालत में कुण्डलिनी योग उसके लिए संजीवनी का काम करता है। कुण्डलिनी उसे एकदम से रिफ्रेश कर देती है, और वह नया लेख लिखने के लिए तैयार हो जाता है।

कुण्डलिनी से लेखक का अपना वह शरीर स्वस्थ रहता है, जो ज्यादातर समय गतिहीन सा रहने से रोगग्रस्त बन सकता है

लेखक को अधिकाँश समय बैठना पड़ता है, तभी वह लिख पाता है। यदि आदमी अपनी जीवनी-शक्ति/प्राण-शक्ति को गतिशील कामों में ज्यादा लगाएगा, तो वह लेखन के लिए कम पड़ जाएगी। वैसे तो लेखक अपना संतुलन बना कर रखते हैं, पर फिर भी कई बार बहुत बैठना पड़ता है। वैसे समय में तो कुण्डलिनी उसके लिए औषधि का काम करती है। वह शरीर के सभी हिस्सों पर रक्त संचार को कायम रखती है, क्योंकि जहाँ कुण्डलिनी है, वहां रक्त-संचार/प्राण-संचार है।

कुण्डलिनी लेखक के द्वारा अक्सर की जाने वाली पाठकों को खोजने वाली अंधी दौड़ पर लगाम लगाती है

कुण्डलिनी मन की इच्छाओं की छटपटाहट पर लगाम लगाती है। उन इच्छाओं में पाठकों को पाने की महत्त्वाकांक्षी इच्छा भी शामिल है। वैसी इच्छाओं से लेखक को बहुत सी परेशानियाँ घेर लेती हैं। कुण्डलिनी आदमी को अद्वैत का बोध करा कर यथाप्राप्त जीवन से संतुष्ट करवाती है। इससे लेखक अपने लेखन के व्यर्थ के प्रचार-प्रसार से भी बचा रहता है। इससे वह अपना पूरा ध्यान अपने लेखन पर लगा पाता है। जिस पाठक को जिस प्रकार के लेख की जरूरत होती है, वह उसे ढूंढ ही लेता है। उसे तो बस मामूली सा इशारा चाहिए होता है।

पाठकों का काम भी लेखक की तरह ही दिमागी होता है। इसलिए उन्हें भी कुण्डलिनी से ये सारे लाभ मिलते हैं। इसी तरह, अन्य दिमागी या शारीरिक काम करने वाले लोगों को भी कुण्डलिनी से ये सारे लाभ मिलते हैं, क्योंकि दिमाग/मन ही सबकुछ है।   

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कुण्डलिनी के साथ पशु-प्रेम

यह सर्वविदित है कि कुण्डलिनी प्रेम का प्रतीक है। कुण्डलिनी समर्पण का प्रतीक है। कुण्डलिनी श्रद्धा-विश्वास का प्रतीक है। कुण्डलिनी स्वामीभक्ति का प्रतीक है। कुण्डलिनी सेवाभाव का प्रतीक है। कुण्डलिनी परहितकारिता का प्रतीक है। कुण्डलिनी आज्ञापालन का प्रतीक है। कुण्डलिनी सहनशक्ति का प्रतीक है। ये कुण्डलिनी के साथ रहने वाले मुख्य गुण हैं। अन्य भी बहुत से गुण कुण्डलिनी के साथ विद्यमान रहते हैं। यदि हम गौर करें, तो ये सभी मुख्य गुण पशुओं में भी विद्यमान होते हैं। इनमें से कई गुण तो उनमें मनुष्यों से भी ज्यादा मात्रा में प्रतीत होते हैं।  इससे यह अर्थ निकलता है कि पशु कुण्डलिनी-प्रेमी होते हैं। आइये, हम इसकी विवेचना करते हैं।

कुण्डलिनी स्वामीभक्ति का प्रतीक है

आजतक कुत्ते से ज्यादा स्वामीभक्ति किसी प्राणी में नहीं देखी गई है। ऐसे बहुत से  उदाहरण हैं, जब कुत्ते ने अपने मालिक के लिए जान तक दे दी है। इसका अर्थ है कि कुत्ते के मन में अपने मालिक के व्यक्तित्व की छवि स्थाई और स्पष्ट रूप से बसी हुई होती है। वह छवि कुत्ते के मन के लिए एक खूंटे की तरह काम करती है। इससे कुत्ता आपने विचारों और क्रियाकालापों के प्रति अनासक्ति भाव या साक्षी भाव प्राप्त करता रहता है। उससे कुत्ते को आनंद प्राप्त होता रहता  है। उस कुण्डलिनी छवि के महत्त्व को वह कभी नहीं भूलता, यहाँ तक कि उसके लिए जान तक दे सकता है। इसके विपरीत, बहुत से मनुष्य अपने मालिक के प्रति वफादारी नहीं निभा पाते। इससे सिद्ध  हो जाता है कि कुत्ता  मनुष्य से भी ज्यादा कुण्डलिनी प्रेमी होता है।

कुण्डलिनी सेवा भाव का प्रतीक है

उदाहरण के लिए, गाय को ही लें। वह हमें दूध देकर हमारी सेवा करती है। अधिकतर गौवें अपनी देख-रेख करने वाले मालिक के पास ही दूध देती हैं। दूसरा कोई जाए, तो वे जोर की लात भी टिका सकती हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि गाय के मन में अपने मालिक की छवि बस जाती है, जो  उसके लिए कुण्डलिनी का काम करती है।  एक आदमी  तो अपने मालिक को कभी भी छोड़ सकता है, परन्तु गाय ऐसा कभी नहीं करती है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि पशु मनुष्य से भी ज्य्यादा नैष्ठिक कुण्डलिनी भक्त होते हैं।

यह अलग बात है कि दिमाग की कमी के कारण पशु मनुष्य की तरह मालिक (कुण्डलिनी) को बारम्बार बदल भी नहीं सकता। अधिकाँश मनूश्य तो अपने दिमाग पर इतना घमंड करने लग जाते हैं कि कुण्डलिनी के परिपक्व होने से पहले ही उसे बदल देते हैं। ऐसी स्थिति से तो पशु वाली स्थिति ही बेहतर प्रतीत होती है। एक बात और है। पालतु पशु को जब आदमी द्वारा संरक्षण व भोजन प्राप्त होता है, तभी उसे कुण्डलिनी को ज्यादा बढ़ाने का अवसर मिलता है।

कुण्डलिनी परहितकारिता का प्रतीक है

इसी तरह, विभिन्न पशु-पक्षी विभिन्न प्रकार  के उत्पाद देकर मनुष्य का भला करते  रहते हैं। ऐसा उनके मनुष्य के प्रति प्रेम से ही सम्भव  हो सकता है। माता प्रेम के वशीभूत होकर ही अपने बच्चे को दूध पिलाती है। यह भी सत्य है कि प्रेम केवल कुण्डलिनी से ही होता है। यह अलग बात है कि पशु उसे बोलकर बता नहीं सकता। यदि प्रेम न भी हो, तो भी किसी का हित करते हुए स्वयं ही उससे प्रेम हो जाता है। यहाँ तक कि पेड़-पौधे भी कुण्डलिनी-प्रेमी होते हैं, क्योंकि वे भी सदैव परहित में लगे रहते हैं।

कुण्डलिनी आज्ञापालन का प्रतीक है

हम उसी की आज्ञा का पालन सबसे अधिक तत्परता के साथ करते हैं,  जो हमारे मन में सबसे अधिक बसा होता है, जो हमें सबसे अधिक महत्त्वशाली लगता है, और जिस पर हमें सबसे अधिक विश्वास होता है। वही हमारी कुण्डलिनी के रूप में होता है। वही आनंद का स्रोत भी होता है। अपनी मालिक की आज्ञा का पालन कुत्ते बहुत बखूबी करते हैं। कुत्ते में तो दिमाग भी इंसान से कम होता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि कुत्ता केवलमात्र कुण्डलिनी से ही आज्ञापालन के लिए प्रेरित होता है, अन्य लॉजिक से नहीं। आदमी तो दूसरे भी बहुत से लॉजिक लगा लेता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि एक कुत्ता भी कुण्डलिनी की अच्छी समझ रखता है।

इन बातों का उद्देश्य मनुष्य को गौण सिद्ध करना नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मनुष्य जीव-विकास की सीढ़ी पर सबसे ऊपर है। यहाँ बात केवल कुण्डलिनी के बारे में हो रही है।

कुण्डलिनी कर्तव्यपालन का प्रतीक है

एक बैल यदि अस्वस्थ भी हो, तो भी वह खेत में हल चलाने से पीछे नहीं हटता। इसी तरह, यदि उसका मूड ऑफ़ हो, तो भी वह अपने कदम पीछे नहीं हटाता। यह अलग बात है, यदि वह हल चलाते-२ हांफने लगे या नीचे गिर जाए। इसका सीधा सा अर्थ है कि बैल भी कुण्डलिनी प्रेमी होता है। उसका रोजमर्रा का काम व उसके मालिक का व्यक्तित्व उसके मन में एक मजबूत कुण्डलिनी के रूप में बस जाता है, जिसे वह नजरअंदाज नहीं कर पाता। अपने आनंद के स्रोत को भला कौन बुद्धिमान प्राणी छोड़ना चाहे। इसी तरह, सहनशक्ति के मामले में बभी समझ लेना चाहिए।

पशुओं के कुण्डलिनी प्रेम के बारे में प्रेमयोगी वाज्र का आपना अनुभव

उसका ब्बच्पन पालतु पशुओं से भरे-पूरे परिवार में बीता था। पशुओं के मन के भाव पढ़ने में उसे बहुत मजा आता था। जंगल में बैलों का खेल-२ में आपस में भिड़ना उसे रोमांचित कर देता था। मवेशियों का जंगल के घास से पेट भर जाने के बाद अपने बाड़े की तरफ दौड़ लगाना एक अलग ही रोमांच पैदा करता था। एक गाय बड़ी नटखट, चंचल व साथ में दुधारू भी थी। वह एक नेता की तरह सभी मवेशियों के आगे-२ चला करती थी। सभी मवेशी उसे सींग मारने को आतुर रहते थे, इसलिए वह अकेले में ही चरा करती थी। वह जंगल के डर से उनकी नजरों से दूर भी नहीं जाती थी। उसकी बछिया भी वैसी ही निकली। वह देखने में भी बहुत सुन्दर थी। जंगल से बाड़े की तरफ पहाड़ी से नीचे उतरते समय वह पूंछ खड़ी करके बड़ी तेजी से कुदकते हुए भागती, और कुछ दूर जाकर पीछे से आने वाले  मवेशियों का इन्तजार करते हुए खड़ी होकर बार-२ गर्दन मोड़कर पीछे देखने लग जाती। जब वे नजदीक आते, तब फिर से दौड़ पड़ती।

जब प्रेमयोगी वज्र की कुण्डलिनी बलवान होती थी, तब सभी मवेशी उसके आसपास चरने के लिए आ जाया करते थे। कोई मवेशी उसे कान टेढ़े करके बड़े आश्चर्य से व प्रेम से देखने लग जाते थे। कई तो उसे चाटने भी लग जाते थे। वे उसे बार-२ सूंघते, और आनंदित हो जाते। शायद उन्हें कुण्डलिनी के साथ विद्यमान सबलीमेटिड वीर्य की खुशबू भी उसके रोमछिद्रों से निकली हुई महसूस होती थी। कुण्डलिनी जागरण के आसपास (प्राणोत्थान के दौरान) भी पशुओं के संबंध में उसका ऐसा ही अनुभव रहा। कई बार तो खूंटे से बंधीं कमजोर दिल वाली भैंसें उसे अचानक अपने पास पाकर डर सी भी जाती थीं, और फिर अचानक प्यार से सूंघने लग जाती थीं। ज्यादातर ऐसा उन्हीं के साथ होता था, जो क्रोधी, सींग मारने वाली, और दूध देने में आनाकानी करने वाली होती थीं। इसका सीधा सा मतलब है कि वे कुण्डलिनी से कम परिचित होती थीं।

पशुओं के बीच में रहने से कुण्डलिनी विकास

प्रेमयोगी वज्र ने यह महसूस किया कि पशुओं, विशेषकर जंगल में खुले घूमने वाले, पालतु, व गाय जाति के मवेशियों के बीच में रहकर कुण्डलिनी ज्यादा स्पष्ट रूप से विकसित हो जाती थी। पशु स्वभाव से ही प्रकृति प्रेमी होते हैं। प्रकृति में तो हर जगह अद्वैतरूपा कुण्डलिनी विद्यमान है ही। इसलिए कुण्डलिनी प्रेमी को पशुओं से भी प्रेम करना चाहिए।

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पहाड़ों में कुण्डलिनी

मित्रो, पहाड़ों का अपना एक अलग ही आकर्षण है। वहां पर मन प्रफुल्लित, साफ, हल्का, शांत व आनंदित हो जाता है। पुराना जीवन रंग-बिरंगे विचारों के रूप में मस्तिष्क में उमड़ने लगता है, जिससे बड़ा ही आनंद महसूस होता है। चिंता, अवसाद व तनाव दूर होने लगते हैं। गत जीवन के मानसिक जख्म भरने लगते हैं। प्रेमयोगी वज्र को भी अपने व्यावसायिक उत्तरदायित्वों के कारण कुछ वर्षों तक ऊंचे पहाड़ों में रहने का मौक़ा मिला था। उसे वहां के लोगों से व प्राकृतिक परिवेश से भरपूर प्यार, सहयोग व सम्मान मिला।

पहाड़ों में अपने आप विपासना साधना होती रहती है

उपरोक्त तथ्यों से जाहिर है कि पहाड़ों में विपासना के लिए सर्वाधिक अनुकूल परिस्थितियाँ मौजूद होती हैं। यदि आदमी योग आदि के माध्यम से अपना बल भी लगाए, तब तो शीघ्र ही आध्यात्मिक सफलता मिलती है। प्रेमयोगी वज्र को भी उपरोक्त मानसिक सद्प्रभावों का अनुभव पहाड़ों के इसी गुण के कारण हुआ।

कुण्डलिनी ही पहाड़ों में स्वयम्भूत विपासना को पैदा करती है

आश्चर्य की बात है कि प्रेमयोगी वज्र की मानसिक कुण्डलिनी, जो पहले दब जैसी गई थी, वह पहाड़ों में बहुत मजबूत हो गई थी। वह तांत्रिक कुण्डलिनी थी, और उसकी मानसिक प्रेमिका के रूप में थी। उसके साथ ही उसकी मानसिक गुरु के रूप वाली कुण्डलिनी भी वहां पर ज्यादा चमकदार बन गई थी। पर उसने देखा कि पहाड़ों के लोग प्रेमिका के रूप वाली कुण्डलिनी को बहुत ज्यादा महत्त्व दे रहे थे, गुरु के रूप वाली कुण्डलिनी की अपेक्षा। गुरु के रूप वाली कुण्डलिनी को वहां के पंडित वर्ग के आध्यात्मिक लोग ज्यादा महत्त्व दे रहे थे, यद्यपि प्रेमिका की कुण्डलिनी के साथ ही, अकेली गुरु के रूप वाली कुण्डलिनी को नहीं। इसका कारण यह है कि पहाड़ मन के काम-रस या श्रृंगार-रस को उत्तेजित करते हैं। इसी वजह से तो काम शास्त्रों में ऊंचे पहाड़ों का सुन्दर वर्णन बहुतायत में पाया जाता है। उदाहरण के लिए विश्वप्रसिद्ध साहित्यिक रचना “मेघदूत”।

दूसरा प्रमाण यह है कि मैदानी भागों में कुण्डलिनी योग साधना के बाद जब प्रेमयोगी वज्र पर्वत-भ्रमण पर गया, तब पहाड़ों में उसकी कुण्डलिनी प्रचंड होकर जागृत हो गई, जैसा कि इस वैबसाईट के “गृह-2” वैबपेज पर वर्णित किया गया है। इसके अतिरिक्त, प्रेमयोगी वज्र को क्षणिक आत्मज्ञान का अनुभव भी पहाड़ों में ही हुआ था, जो उसने इस वैबसाईट के “गृह-2” वेबपेज पर वर्णित किया है । इसी वजह से तो अनादिकाल से लेकर योग साधक शीघ्र सिद्धि के लिए मैदानों से पहाड़ों की तरफ पलायन करते आए हैं।

पहाड़ों में कुण्डलिनी क्यों चमकने लगती है?

वास्तव में, पहाड़ देवता की मूर्ति की तरह काम करते हैं। तभी तो कई धर्मों में पहाड़ को देवता माना गया है। एक प्रकार से देवता की मूर्ति पहाड़ के रूप में प्रतिक्षण आँखों के सामने विद्यमान रहती है। पहाड़ मैं विद्यमान अद्वैत तत्त्व आदमी के मन में भी अद्वैतभाव पैदा कर देता है। उस अद्वैत के प्रभाव से कुण्डलिनी मन-मंदिर में छा जाती है।

यदि किसी के मन में कुण्डलिनी न भी हो, तो भी अद्वैतभाव से बहुत से आध्यात्मिक लाभ मिलते हैं। साथ में, उससे धीरे-२ कुण्डलिनी भी बनना शुरू हो जाती है।

यह बात इस वैबसाईट में पहले भी सिद्ध की जा चुकी है कि सृष्टि के कण-कण में अद्वैत तत्त्व विद्यमान है। वास्तव में, वही भगवान् है। इसे समझने के लिए सबसे बढ़िया पुस्तक “शरीरविज्ञान दर्शन” है।

मौन, ध्यान एवं जप आदि कार्यों के लिए एकांत की जरूरत होती है और इसके लिए पहाड़ों से अच्छा कोई स्थान नहीं हो सकता।

क्यों बनाए गए हैं ऊंचे पहाड़ों पर देवी नंदिर, आखिर क्या है इसका रहस्य?

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सौंदर्य के आधार के रूप में कुंडलिनी

सुन्दरता क्या है

यह अक्सर कहा जाता है कि सुन्दरता किसी दूसरे में नहीं, अपितु अपने अन्दर होती है। ध्यान योग से यह बात बखूबी सिद्ध हो जाती है। सुन्दर वस्तु को इसलिए सुन्दर कहा जाता है क्योंकि वह हमारे मन में आनंद के साथ लम्बे समय तक दृढ़तापूर्वक बसने की सामर्थ्य रखती है। मन में वैसी आकर्षक व स्थायी छवि को ही कुण्डलिनी भी कहते हैं।

सुन्दर वस्तु के प्रति अनायास ध्यान

लम्बे समय तक मन में बैठी हुई वस्तु की तरफ ध्यान स्वयं ही लगा रहता है। इससे अनादिकाल से लेकर मन में दबे पड़े चित्र-विचित्र विचार व रंग-बिरंगी भावनाएं उमड़ती रहती हैं। उनके प्रति साक्षीभाव व अनासक्ति-भाव स्वयं ही विद्यमान रहता है, क्योंकि मन में बैठी हुई उपरोक्त वस्तु निरंतर अपनी ओर व्यक्ति का ध्यान खींचती रहती है। इससे वे भावनामय विचार क्षीण होते रहते हैं, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति उत्तरोत्तर शून्यता की ओर बढ़ता जाता है। अंततः व्यक्ति पूर्ण शून्यता या आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है।

सबसे अधिक सुन्दर वस्तु

लौकिक परिपेक्ष्य में एक सर्वगुणसंपन्न स्त्री को एक उसके योग्य व उसके रुचिकर पुरुष के लिए सर्वाधिक सुन्दर माना जाता है। ऐसा इसीलिए है क्योंकि वैसी स्त्री का चित्र वैसे पुरुष के मन में सर्वाधिक मजबूती से बस जाता है। दोनों के बीच में प्रतिदिन के संपर्क से वह चित्र मजबूती प्राप्त करता रहता है। अंततः वह इतना अधिक माजबूत व स्थायी बन जाता है कि वह एक योग-समाधि का रूप ले लेता है। यदि बीच में स्वस्थ आकर्षण में (सच्चे प्यार में) खलल पड़े, तो मानसिक चित्र कमजोर भी पड़ सकता है। ऐसा जरूरत से ज्यादा इंटरेक्शन, शारीरिक सम्बन्ध आदि से हो सकता है। लौकिक व्यवहार में यह नजर भी आता है कि विवाह के बाद परस्पर आकर्षण कम हो जाता है। यदि अनुकूल परिस्थितियाँ मिलती रहें, तो ऐसे यिन-यांग आकर्षण को समाधि व आत्मज्ञान के स्तर तक पहुँचाने के लिए २ साल काफी हैं। ऐसे ही बहुत सारे मामलों में हैरान कर देने वाली अनुकूल परिस्थितियों को देखकर ईश्वर पर व अच्छे कर्मों पर बरबस ही विश्वास हो जाता है।

सुन्दरता की प्राप्ति सांसारिक वस्तुओं पर नहीं, अपितु अच्छे कर्मों व ईश्वर-कृपा पर निर्भर

कई लोगों के पिछले कर्म अच्छे नहीं होते, और उन पर  ईश्वर की कृपा भी नहीं होती। ऐसे लोगों को ऐसा मजबूत यिन-यांग आकर्षण उपलब्ध ही नहीं होता। कई लोगों को यदि उपलब्ध हो भी जाता है, तो भी अनुकूल परिस्थितियाँ न मिलने के कारण वह लम्बे समय तक स्थिर नहीं रह पाता। ऐसे में समाधि नहीं लग पाती। बहुत से लोग वर्तमान में बहुत अच्छे कर्म कर रहे होते हैं। वे सदाचारी होते हैं। वे बड़ों-बूढ़ों को व गुरुओं को प्रसन्न रखते हैं, एवं उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। वे उनके सामने नतमस्तक बने रहते हैं। वे सभी कठिनाईयों व दुर्व्यवहारों को प्रसन्नता के साथ सहते हैं। इससे उनके मन में अपने गुरुओं, वृद्धों व परिवारजनों की छवियाँ बस जाती हैं। उनमें से कोई अनुकूल छवि उनकी कुण्डलिनी बन जाती है। कई बार अप्रत्यक्ष रूप से कुण्डलिनी को पुष्ट करने वाला यिन-यांग आकर्षण भी कई किस्मत वालों को प्राप्त हो जाता है।

अवसरों से रहित लोगों के लिए कुण्डलिनी-योग एक बहुत बड़ी राहत

जिन अधिकाँश व बदकिस्मत लोगों को प्राकृतिक रूप से भरपूर ध्यान का अवसर नहीं मिलता, उन्हीं के लिए कुण्डलिनी योग बनाया गया है, मुख्य रूप से। कई हतोत्साहित व निराशावादी लोग इसे “रेत में से तेल निकालने” की संज्ञा भी देते हैं। यद्यपि यह अब सच्चाई है कि रेत में भी तेल (पैट्रोल) होता है। इसमें उपयुक्त समय पर तंत्र के प्रणय-योग के सम्मिलन से यह बहुत आसान, व्यावहारिक व कारगर बन जाता है।

बनावटी प्यार

किसी विशेष वस्तु से प्रतिदिन  के लौकिक प्यार की कमी को मेडीटेशन से पूरा करना भी एक जादुई कारीगरी ही है। इसे हम “प्रेम का कृत्रिम निर्माण (synthesis of love)” भी कह सकते हैं। योग एक ऐसी फैक्टरी है, जो प्रेम का कृत्रिम उत्पादन करती है। यह कारीगरी मुझे बचपन से लेकर प्रभावित करती आई है। इससे लौकिक प्यार की तरह पतन की भी सम्भावना नहीं होती, क्योंकि वस्तु से सारा इंटरेक्शन मन में ही तो होता है। अति तो इन्द्रियों से ही होती है हमेशा।

सुन्दरता सापेक्ष व आभासिक होती है

यदि सुन्दरता निरपेक्ष होती, तो एक सुन्दर स्त्री सभी प्रकार के लोगों को एकसमान सुन्दर लगा करती, और हिंसक जानवर भी उसके पीछे लट्टू हो जाया करते। इसी तरह, यदि सुन्दरता भौतिक रूप-आकार पर निर्भर होती, तब योग से प्रवृद्ध की गई वृद्ध गुरु व काली माता (बाहरी तौर पर कुरूप व डरावनी) के रूप की कुण्डलिनी सबसे अधिक सुन्दर न लगा करती, और वह योगी के मन में सबसे ज्यादा मजबूती से न बस जाया करती।

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