कुंडलिनी सहस्रार चक्र में जबकि कुंडलिनी शक्ति मूलाधार चक्र में निवास करती है

मित्रो, कुंडलिनी और कुण्डलिनी शक्ति के बीच में अंतर को लेकर दुनिया में अक्सर भ्रम देखा जाता रहता है। कई लोग कुंडलिनी को कुंडलिनी शक्ति समझ लेते हैं, और दूसरे कई लोग कुण्डलिनी शक्ति को कुंडलिनी समझ लेते हैं। आज हम इस बारे में अनुभवात्मक चर्चा करेंगे।

कुण्डलिनी शक्ति का मूल निवासस्थान मूलाधार चक्र है, जबकि कुण्डलिनी का मूल निवासस्थान सहस्रार है

शक्ति मूलाधार में उत्पन्न होती रहती है। वह सहस्रार तक जाकर कुण्डलिनी को पुष्ट करती है। इससे ऐसा लगता है कि कुण्डलिनी मूलाधार में पैदा हो रही है। सहस्रार से शक्ति आज्ञाचक्र से होकर नीचे उतरती है, और शरीर के सभी चक्रों में फैल जाती है। इससे ऐसा आभास होता है कि सभी चक्रों पर कुंडलिनी घूम रही है। वास्तव में वह शक्ति घूम रही होती है। शक्ति को प्राण या प्राणशक्ति भी कहते हैं।यदि चक्रों पर ही कुण्डलिनी हुआ करती, तो वह वहाँ पर जागृत भी होती। पर कुंडलिनी तो सहस्रार में ही जागृत होती है।

शरीर में अनुभव का स्थान मस्तिष्क ही है, कोई अन्य स्थान नहीं

शरीर के किसी भी भाग की चमड़ी में यदि खुजली हो, तो उसकी अनुभूति मस्तिष्क में ही होती है। हालांकि हमें ऐसा लगता है कि खुजली वाले स्थान पर संवेदना की अनुभूति होती है।कुण्डलिनी के साथ भी वैसा ही होता है। चाहे हम किसी भी चक्र पर कुण्डलिनी का ध्यान करें, उसकी अनुभूति मस्तिष्क में ही होगी। परन्तु लगता ऐसा है कि चक्र पर कुण्डलिनी है। यदि मस्तिष्क को दवा आदि से बेहोश किया जाए, तो शरीर के चक्रों पर भी संवेदना या कुण्डलिनी की अनुभूति नहीं होगी। इसी तरह जब सुषुम्ना नाड़ी पीठ में एक चमकती हुई लकीर के रूप में अनुभव होती है, तो वह अनुभूति भी मस्तिष्क में ही हो रही होती है।

मस्तिष्क से फ्रंट चैनेल के रास्ते उतरता हुआ प्राण कुंडलिनी के आभासिक चित्र को भी अपने साथ नीचे ले आता है

यह इस बात से सिद्ध होता है कि जब मस्तिष्क में कुंडलिनी का ध्यान हो रहा होता है, उस समय यदि जीभ को तालु से लगा कर प्राण को मस्तिष्क से नीचे उतारा जाए, तो कुंडलिनी भी उसके साथ उतरकर सभी चक्रों को भेदते हुए मूलाधार तक पहुंच जाती है। कुंडलिनी का चित्र तो लगातार मस्तिष्क में ही बन रहा होता है, पर उसका आभासिक अनुभव विभिन्न चक्रों पर होता है। इसी तरह, पीठ से ऊपर चढ़ता हुआ प्राण कुंडलिनी को भी वापिस ऊपर ले जाता हुआ प्रतीत होता है। हालांकि कुण्डलिनी कुण्डलिनी मस्तिष्क में ही होती है। इसका मतलब है कि जब प्राण कुण्डलिनी को अपने साथ चलाता है, तो कुण्डलिनी भी प्राण को अपने साथ चलाती है, क्योंकि दोनों आपस में जुड़े होते हैं। तांत्रिक हठयोग में प्राण को कुंडलिनी का हैन्डल बनाया जाता है, जबकि राजयोग में कुंडलिनी को प्राण का हैंडल बनाया जाता है। मिश्रित योग में दोनों ही तरीकों का इस्तेमाल होता है, इसलिए यह सबसे ज्यादा प्रभावी है।

मस्तिष्क के विभिन्न विचार भी जब प्राण के साथ नीचे उतरते हैं, तो वे कुंडलिनी बन जाते हैं

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि योगी को कुण्डलिनी के चिंतन की आदत पड़ी होती है। इसलिए कुंडलिनी विचार सबसे प्रिय होता है। तभी तो प्रिय व्यक्ति के लिए कहते हैं कि वह तो मेरे दिल का टुकड़ा है। माँ बेटे के लिए अपनी कोख का हवाला देती है। जब प्राण किसी चक्र पर केंद्रित हो, तब मस्तिष्क में विचारों के लिए बहुत कम प्राण बचा होता है। उतने कम प्राण में तो कुण्डलिनी चित्र को ही बना के रखा जा सकता है, क्योंकि रोज के योगाभ्यास के बल से मस्तिष्क को उसको आसानी से और कम प्राण ऊर्जा से बनाने की आदत पड़ी होती है। इसी तरह, योगाभ्यास के समय जब मन विचारशून्य सा होता है, तो मूलाधार से सहस्रार को चढ़ने वाली शक्ति से कुंडलिनी ही उजागर होती है। यह इसलिए क्योंकि कुंडलिनी की लिए सोचकर ध्यान लगाने की जरूरत नहीं होती। वह रोज के अभ्यास से खुद ही ध्यानपटल पर बनी रहती है। इसी तरह, योगाभ्यास के दौरान जब साँसे प्राणों से भरपूर होती हैं, तब भी कुण्डलिनी ही पुष्ट होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कुण्डलिनी चित्र ही उन साँसों के प्राणों का सबसे अधिक फायदा उठाते हुए सबसे तेजी से चमक सकती हैं। ऐसा रोज के कुंडलिनी अभ्यास से ही होता है।

अनुभूति का स्थान सहस्रार चक्र ही है, इसीलिए कहा जाता है कि आत्मा सहस्रार में निवास करती है

मुझे तो कुण्डलिनी जागरण की अनुभूति पूरे मस्तिष्क में हुई। ऐसा लगा कि मस्तिष्क का हरेक कण कम्पायमान या जागृत हो रहा था। यद्यपि कुण्डलिनी मस्तिष्क के सबसे ऊपरी हिस्से में महसूस हो रही थी। उसे ही क्राऊन चक्र भी कहते हैं। जब जागरण की अनुभूति समाप्त हुई, तब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र में महसूस हुई। सहस्रार से जागरण की शुरुआत इसलिए होती है क्योंकि मूलाधार से ऊपर चढ़ने वाली प्राणशक्ति सीधी सहस्रार में प्रविष्ट होकर वहाँ पर कुंडलिनी को चमकाती है। हो सकता है कि अनुभव केवल सहस्रार चक्र में ही होती हो, और अन्य मस्तिष्कीय केंद्रों में अनुभूति सहस्रार से ही रेफर्ड होकर आई हो। हालांकि मेरा यह अनुमान वैज्ञानिक प्रयोगों के विरुद्ध है, जिसमें मस्तिष्क में बहुत से अनुभूति के केंद्र बताए गए हैं। वैसे तो चिकित्सा विज्ञान अभी तक चक्रों और नाड़ियों की पहेली को नहीं सुलझा पाया है। इसी तरह, आज्ञा चक्र और उससे निचले चक्रों की तरह मस्तिष्क व शरीर के सभी बिंदुओं पर महसूस होने वाली संवेदनाएं रेफर्ड ही हैं। संवेदनाओं का मूल स्थान तो सहस्रार ही है। सहस्रार में जागरण के एकदम बाद कुंडलिनी आज्ञा चक्र पर आ जाती है। इससे जाहिर होता है कि निचला चक्र अपने ऊपर वाले चक्र से कम ऊर्जा स्तर का होता है। मतलब यह है कि सहस्रार की प्राणऊर्जा के विभिन्न स्तर विभिन्न चक्रों के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। जागरण के समय ऊर्जा स्तर टॉप मोस्ट लेवल पर होता है। ऊर्जा स्तर के एक निश्चित सीमा के नीचे गिरने से जागरण की अनुभूति समाप्त हो जाती है। उस समय भी कुण्डलिनी रहती तो सहस्रार में ही है, पर वह आज्ञा चक्र में प्रतीत होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सहस्रार से प्राण आज्ञा चक्र तक उतर गया होता है। यदि कुण्डलिनी प्राण के साथ न चला करती, तो जागरण के एकदम बाद किसी भी चक्र पर महसूस हुआ करती। उसके बाद जैसे-जैसे प्राण नीचे उतरता है, कुण्डलिनी भी उसके साथ उतरती महसूस होती है। यह ऐसे ही होता है, जैसे जब किसी अंग में बहुत तेज दर्द होता है, तो वह सहस्रार में महसूस होता है, और आदमी कहता है कि उसका सिर फटा जा रहा है। इससे ऐसी कहावत भी बनी है कि”इतनी दर्द हुई कि चोटी खड़ी हो गई”। दरअसल बालों की चोटी सहस्रार के निकट बँधी होती है। छोटी मोटी दर्द तो प्रभावित अंग के स्थानीय क्षेत्र में ही लोकेलाइज्ड महसूस होती है। यदि बिना सुन्न किए दाँत उखाड़ा जाए, तो सहस्रार में बहुत तेज दर्द होता है। आदमी बोलता है कि उससे बड़ा दर्द कोई नहीं हो सकता। कुंडलिनी जागरण के अनुभव के बाद भी तो आदमी यही बोलता है कि इससे बड़ा अनुभव नहीं हो सकता। वास्तव में कुंडलिनी जागरण ही दुनिया की सबसे बड़ी अनुभूति है। अगर कोई है, तो वह आत्मज्ञान या ईश्वर ही है। उसमें अद्वैत और आनंद की अनुभूति पूर्ण रूप में होती है। अद्वैत और आनन्द तो दाँत उखाड़ने के बाद भी महसूस होता है, पर पूर्णरूप में नहीं। इससे भी जाहिर होता है कि अनुभूति का स्थान सहस्रार ही है। दाँत निकालने के दर्द की अनुभूति की जागरण की अनुभूति से समानता की बात बहुत से योगियों ने की है। मैंने भी ऐसा दाँत निकालने का उच्चतम स्तर का दर्द एकबार महसूस किया था। सुन्न करने वाली दवा अपना असर नहीं दिखा पाई थी। उससे मुझे अपना मस्तिष्क फटता हुआ सा इसलिए महसूस हुआ, क्योंकि मेरे शरीर का सारा प्राण दर्द का पीछा करते हुए सहस्रार में घुस गया था। उसके बाद मुझे 3 साल पहले हुए आत्मज्ञान का स्मरण हो आया, क्योंकि वह अवस्था उसीके जैसी आध्यात्मिक थी। वह प्राणोत्थान की अवस्था लग रही थी। इसमें पूरे शरीर का प्राण सहस्रार में केंद्रित होता है। इसका वर्णन मैंने एक पुरानी पोस्ट में किया है। सम्भवतः दुःख या दर्द से पाप का नष्ट होना इससे पैदा हुई इस योग भावना से ही होता है। इससे इस बात की भी पुष्टि हो जाती है कि योग से पाप क्षीण होते हैं। अब कुण्डलिनी के अनुभव को तो दर्द के अनुभव की तरह पैदा नहीं किया जा सकता है। अगर ऐसा होता तो आदमी सावधानी से अपने बाहरी अंगों में संवेदना पैदा करके कुण्डलिनी को महसूस किया करता। कुण्डलिनी का ध्यान तो मस्तिष्क में ही किया जा सकता है। ऐसा करना आम आदमी के लिए कठिन है। इसलिए प्राण को कुंडलिनी के हैंडल के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। तांत्रिक हठयोग से प्राण को सहस्रार तक चढ़ाया जाता है। उससे वहां खुद ही कुण्डलिनी प्रकट होकर मजबूत होती रहती है। इससे जाहिर होता है कि हठयोग राजयोग की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक, व्यावहारिक व आसान है। वैसे समयानुसार दोनों का मिश्रित प्रयोग मुझे ज्यादा कारगर लगा। उपरोक्तानुसार जब दर्द के साथ प्राण सहस्रार तक पहुंचता है, तो उससे कुण्डलिनी भी अनुभव होने लगती है। परंतु ज्यादा कुण्डलिनी लाभ नहीं मिलता, क्योंकि अधिकांश प्राण को दर्द की अनुभूति खा जाती है। हालांकि कई जगह स्पर्श की अनुभूति का कुण्डलिनी के लिए प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, जीभ और तालु के आपसी स्पर्श के अनुभव से कुण्डलिनी और प्राण मस्तिष्क से वहां तक उतर जाते हैं, और फ्रंट चैनल से नीचे चले जाते हैं।उपरोक्तानुसार ही, जैसे सहस्रार में बनने वाले चित्र ही चक्रों पर बने हुए प्रतीत होते हैं, उसी तरह बाहरी दुनिया में बनने वाले सूर्य, नदी, पर्वत वगैरह के चित्र भी सहस्रार में ही बन रहे होते हैं, पर उनकी अनुभूति दूर बाहर होती है। यह ट्रिक मस्तिष्क ने क्रमिक जीवविकास के दौरान सीखी है। यदि सभी कुछ अंदर ही महसूस हुआ करता, तो बाहर की तरफ दौड़ न होती, और जीवविकास न होता।जितनी तेज अनुभूति होती है, वह उतनी ही ज्यादा आत्मा से चिपकती है। उसे ही समाधि भी कहते हैं। ऐसी तेज अनुभूति सहस्रार में ही होती है। तभी तो आदमी यौन प्रेमी को कभी भूल नहीं पाता। दरअसल मूलाधार से उठ रही अनुभूति सीधी सहस्रार में जा बैठती है और वहाँ प्रेमी के चित्र को मजबूत करती है। इसी वजह से कई लोग प्रेम में पागल होकर साधु बन जाते हैं।सहस्रार चक्र की इसी सार्वभौमिकता के कारण उसे एक हजार पंखुड़ियां दी गई हैं। इसका मतलब है कि यह शरीर के हरेक बिंदु से जुड़ा होता है। अन्य चक्रों में दो, तीन या चार पंखुड़ियां होती हैं, मतलब कि वे आसपास के कुछेक चक्रों से ही जुड़े होते हैं। इसका वर्णन मैंने एक पुरानी पोस्ट में किया है। शिवपुराण के अनुसार कुण्डलिनी ही शिव है, और शिव ही कुंडलिनी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उसमें शिव ही का ध्यान लगाने को कहा गया है। उसीके अनुसार वह शिव सहस्रार में निवास करते हैं। शक्ति उनसे मिलने के लिए मूलाधार से ऊपर चढ़ती रहती है। जब शक्ति का आवेग एक निश्चित सीमा से ऊपर उठ जाता है, तब उसका शिव के साथ मिलन का कामोन्माद चरम पर पहुंच जाता है। उससे शिव-शक्ति का मिलन पूर्ण हो जाता है, जो कुण्डलिनी जागरण के रूप में प्रकट होता है।

मिश्रित योग सबसे अधिक कारगर होता है, इस उपरोक्त कथन की पुष्टि के लिए मैं अपने साथ घटित घटना का एक उदाहरण देता हूँ। मैं उस समय प्राणोत्थान की अवस्था में था। प्रतिदिन योगाभ्यास कर रहा था। एक दिन मेरे अचानक मिले पुराने मित्र के कारण मुझे कुण्डलिनी का तेज स्मरण हो आया। मैं उसमें खो गया। तभी अचानक मेरे प्राण भी उस कुंडलिनी का साथ देने के लिए मूलाधार से उठकर पीठ के रास्ते मस्तिष्क को चढ़ गए। इससे वह कुण्डलिनी जागृत हो गई। इसका विस्तृत विवरण इस वेबसाइट के होमपेज पर है। प्राण इसीलिए ऊपर चढ़ पाए, क्योंकि मैं प्रतिदिन तांत्रिक हठयोग का अभ्यास कर रहा था, और मुझे प्राण को ऊपर चढ़ाने की आदत बनी हुई थी। यदि वह आदत न होती, तो कुंडलिनी का स्मरण तो मस्तिष्क में तेजी से होता पर वह जागृत न होती, क्योंकि उसे मूलाधार की प्राणशक्ति न मिलती। जागरण कराने वाली असली प्राणशक्ति तो मूलाधार चक्र में ही रहती है। इससे पूर्वकथित इस बात की भी पुष्टि हो जाती है कि प्राण कुंडलिनी का पीछा करता है, और जहाँ कुंडलिनी जाती है, वहाँ प्राण भी चला जाता है। कुण्डलिनी के स्मरण को आप राजयोग कह सकते हैं, और मूलाधार से प्राण को ऊपर चढ़ाने को हठयोग कहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सभी प्रकार के योग मिलजुल कर काम करते हैं, और सभी एक ही महायोग के विभिन्न हिस्से हैं।

कुंडलिनी स्विच

मित्रों, इस बार मैं योग की साधारण सी तकनीक का वर्णन करूंगा। यह है, जीभ की निचली सतह को नरम तालु से टच करने की। वैसे इसके बारे में मैंने पहले भी लिखा था। परंतु इस बार मैं तकनीक का व्यवहारिक रूप दिखाऊँगा। अभी भी मैंने कुंडलिनी को जीभ के माध्यम से फ्रंट चैनेल से उतारा। योग के निरन्तर अभ्यास से मेरी इस तकनीक में लगातार निखार आ रहा है। इसके बारे में मैं नित नई बातें सीख रहा हूँ। 

मस्तिष्क के विचारों और जीभ -तालु के स्पर्श का एकसाथ ध्यान करना चाहिए

ऐसा करने से विचारों की शक्ति खुद ही फ्रंट चैनेल से होते हुए नीचे उतर जाती है। 

जीभ तालु पर जितना पीछे कांटेक्ट में रहे, उतना ही अच्छा है

तालु का पीछे वाला भाग नरम, मखमली, नम व फिसलन से भरा होता है। वहाँ पर स्पर्श की संवेदना भी ज्यादा मजबूत व आनन्द से भरी होती है। कुंडलिनी जितने अधिक ऊपर वाले चक्रों में होती है, जीभ-तालु के आपसी स्पर्श की अनुभूति भी उतनी ही जल्दी और तेज होती है। स्पर्श की अनुभूति यदि पलभर के लिए भी हो जाए, तो भी कुंडलिनी नीचे उतर जाती है। यह ऐसे ही होता है, जैसे दो तारों के क्षणभर के संपर्क से ही करेंट प्रवाहित हो जाता है। कई बार यह अनुभूति जीभ को तालु पर रब करके भी पैदा की जाती है।

साँसें भी जीभ-तालु के आपसी स्पर्श को बनाने और मिटाने का काम करती हैं

इसीलिए जीभ-तालु के कांटेक्ट पॉइंट को कुंडलिनी स्विच भी बोलते हैं। साँस भरते समय यह कांटेक्ट पॉइंट कुछ लूस पड़ जाता है। वास्तव में यहाँ पर अवेयरनेस घट जाती है। इसका मतलब है कि कुंडलिनी स्विच ऑफ़ हो जाता है, और चैनेल का लूप सर्किट ब्रेक हो जाता है। इससे कुंडलिनी एनर्जी मस्तिष्क में जमा हो जाती है। पेट से साँसें भरने से ऐसा ज्यादा अच्छी तरह से होता है। इसी तरह, बैक चैनेल का फन उठाए नाग के रूप में ध्यान करने से भी कुण्डलिनी को बैक चैनेल में ऊपर चढ़ने में मदद मिलती है। मस्तिष्क में कुण्डलिनी एनर्जी के जमा होने से जीभ-तालु के स्पर्श को अनुभव करना भी आसान हो जाता है, जैसा ऊपर बताया गया है। फिर साँस छोड़ते हुए यह और आसान हो जाता है, क्योंकि उस समय पूरे फ्रंट चैनेल पर नीचे की तरफ दबाव पड़ता है। इस तरह से एक स्वचालित यंत्र के पुर्जों की तरह ये सभी तकनीकी बिंदु एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं, और कुण्डलिनी चक्र लगातार चलने लगता है। इससे शरीर और मन दोनों रिफ्रेश हो जाते हैं। वैसे भी, कभी भी जीभ को तालु से स्पर्श कराने पर मस्तिष्क का अतिरिक्त बोझ नीचे उतर जाता है। मस्तिष्क के खाली हो जाने से उसमें एकदम से कुण्डलिनी स्वयं ही प्रकट हो जाती है। सिर्फ स्पर्श से कुछ नहीं होता, वहाँ पर अवेयरनेस भी पहुंचनी चाहिए। स्पर्श की संवेदना को गौर से अनुभव करने से वहाँ अवेयरनेस खुद ही पहुंच जाती है। उसके परिणामस्वरूप फ्रंट चैनेल में विशेषकर फ्रंट स्वाधिष्ठान चक्र में एक गहरी मांसपेशियों की सिकुड़न की अनुभूति होती है, और साथ में साँस की एक गहरी गैसप के साथ नियमित व गहरी सांसें चलने लगती हैं। यही कुण्डलिनी एनर्जी का चलना है। 

जीभ के पिछले हिस्से के केन्द्र से फ्रंट चैनल गुजरती है, जो सभी फ्रंट चक्रों को बेधते हुए मूलाधार तक जाती है। उससे कुंडलिनी एनर्जी के गुजरते समय पूरे फ्रंट चैनल एरिया में सनसनी के साथ ऐंठन महसूस होती है।

कई बार कुंडलिनी एनेर्जी पतली और केंद्रीय लाइन पर महसूस होती है, कभी बिना रेखा के ही

जरूरी नहीं कि हमेशा ही जीभ को तालु पर बहुत पीछे ले जाना पड़े। कई बार तालु के अगले भाग में ही अच्छी अनुभूति मिल जाती है। सामान्य पोजिशन में सीधी जीभ की तालु के साथ स्पर्श-संवेदना को भी अनुभव किया जा सकता है। जैसा ठीक लगे, वैसा करना चाहिए। कई बार कुण्डलिनी पतली रेखा में चलती महसूस होती है। ऐसा तब होता है, जब ध्यान तेज होता है, और मन शांत होता है। कई बार कुंडलिनी शक्ति केवल एक चक्र से दूसरे चक्र को स्थान बदलते दिखती है, चक्रों को जोड़ने वाली चैनल लाइन नहीं दिखाई देती।  अभ्यास के साथ खुद ही अनुभूतियाँ विकसित होती रहती हैं। इसलिए औरों की अनुभूतियों की नकल न करते हुए सही अभ्यास में लगे रहना चाहिए। इसी तरह, कई बार कुंडलिनी के चलने से संबंधित क्षेत्र की मांसपेशियों का संकुचन और ढीलापन ही महसूस होता है, बेशक कुंडलिनी का पता नहीं चलता। ऐसा सही तकनीक को लागू करने से होता है। यह कुण्डलिनी के प्रभाव को दिखाता है। कई बार ऐसा महसूस भी नहीं होता, खासकर जब मांसपेशियां थकी हों।

कुंडलिनी असफल प्रेम प्रसंग के विरुद्ध बेहतरीन सुरक्षाकवच है

दोस्तों, आजकल असफल प्रेम के मामले बढ़ते जा रहे हैं। इसकी मुख्य वजह अविश्वास, भावनाओं की बेकद्री, रिश्तों में गलतफहमियां, स्वार्थ व धोखेबाजी आदि मानव स्वभाव की बुराइयां हैं। असफल प्रेम का सदमा आदमी के पूरे शरीर व मन को झकझोरने वाला होता है। इससे बचने के लिए कुंडलिनी योग एक सर्वोत्तम साधन है। इसलिए आजकल सभी को कुंडलिनी योग करना चाहिए, क्योंकि किसी न किसी रूप में सभी लोग प्रेम के सताए हुए हैं। 

प्रेमी का शरीर आदमी के चक्रों में बस जाता है

आदमी का अपने प्रेमी के साथ बहुत गहरा जुड़ाव पैदा हो जाता है। प्रेमी का आदमी के मन में लगातार स्मरण बना रहता है। भोजन करते समय स्मरण से प्रेमी का शरीर आदमी के आगे के तालु, विशुद्धि, अनाहत और मणिपुर चक्रों पर बस जाता है। भावनामय होने पर वह अनाहत चक्र पर मजबूत हो जाता है। यौन उत्तेजना होने पर वह मन से नीचे उतरकर स्वाधिष्ठान व मूलाधार चक्रों पर आ जाता है। वहाँ से वह मेरुदंड से ऊपर चढ़कर फिर से मस्तिष्क के सहस्रार चक्र में पहुंच जाता है। इससे आदमी के पीछे वाले चक्रों पर भी वह चित्र स्थापित हो जाता है। गहन चिंतन करते समय प्रेमी का चित्र आज्ञा चक्र में पहुंच जाता है। एक प्रकार से प्रेमी का चित्र कुंडलिनी बन जाता है, और कुंडलिनी योग अनजाने में ही चलता रहता है। यह प्रक्रिया बहुत धीमी और कुदरती होती है, इसलिए इसका आभास भी नहीं होता और प्रेमी का चित्र भी बहुत ज्यादा मजबूती से शरीर के सभी चक्रों पर जम जाता है।

कुंडलिनी योग से बनी हुई बनावटी कुंडलिनी प्रेमी के चित्र को रिप्लेस कर देती है

गुरु या देव रूप की कृत्रिम कुंडलिनी को प्रतिदिन के कुंडलिनी योग अभ्यास से चक्रों पर दृढ़ कर दिया जाता है। इससे प्रेमी के रूप वाली कुदरती कुंडलिनी चक्रों से हटने लगती है। इससे आदमी को असफल प्रेम के सदमे से राहत मिलती है। साथ में, कुंडलिनी योगी भविष्य के लिए भी असफल प्रेम के सदमे से सुरक्षित हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उसके चक्रों पर बनावटी कुंडलिनी पहले से ही डेरा डाले हुए होती है। इससे वहाँ पर प्रेम की कुदरती कुंडलिनी अपना डेरा नहीं जमा पाती। 

यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कृत्रिम कुंडलिनी योग करते समय प्रेमी की छवि का भी कुंडलिनी के रूप में ध्यान किया जा सकता है। हालांकि, कुंडलिनी के कमजोर होने और कई सामाजिक समस्याओं से बचने के लिए प्रेमी के संबंध में उचित शारीरिक संयम रखा जाना चाहिए। जब प्रेमी की छवि का मन में पूर्ण प्रदर्शन हो जाता है तब वह संतुष्ट हो जाता है, जिससे प्रेमी के लिए वासना या लालसा स्वयं ही घट जाती है। इसके बाद, कुंडलिनी भी कमजोर हो जाती है। यह प्रक्रिया उस कुंडलिनी के जागरण या अन्य कुंडलिनी, मुख्य रूप से गुरु या देवता के मानसिक रूप के त्वरित विकास व जागरण के लिए अहम भूमिका प्रदान करती है।

असफल प्रेम से उत्पन्न सदमे के इलाज के लिए और उससे बचाव के लिए हिंदी में लिखित पुस्तक “शरीरविज्ञान दर्शन- एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र (एक योगी की प्रेमकथा)” सर्वोत्तम प्रतीत होती है।

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