प्राण क्या है
प्राण शरीर की शक्ति को कहते हैं। यह जीवनी शक्ति है, जो जीवन को चलायमान रखती है। प्राणवायु शक्ति को बना कर रखती है। इसी तरह, खाया-पिया हुआ अन्न-जल भी इस शक्ति को बना कर रखता है। शरीर का हिलना-डुलना, काम-काज व योग-व्यायाम भी इस शक्ति को बना कर रखते हैं। काम, क्रोध आदि मानसिक विकार, एवं विभिन्न रोग इस शक्ति को घटाते रहते हैं।
प्राण का ऊर्ध्वगमन (ऊपर जाना) व अधोगमन (नीचे गिरना)
साधारण, संतुलित, व आदर्श मानवीय अवस्था में प्राण पूरे शरीर में समान रूप से व्याप्त रहता है। उसका प्राण मन-मस्तिष्क में व बाह्य इन्द्रियों में समान रूप से कार्य करता है। जब व्यक्ति आदर्श मानवीय अवस्था से नीचे गिरने लगता है, तब उसका प्राण बाह्य इन्द्रियों की तरफ ज्यादा प्रवाहित होने लगता है। उसी अनुपात में उसके मस्तिष्क में प्राण कम होने लगता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उसका प्राण शरीर के निचले चक्रों में केन्द्रित होने लगता है। जब उसके प्राण का अधिकाँश भाग बाह्य इन्द्रियों में समाहित हो जाता है, तब वह दानव या पशु जैसा बन जाता है। इस स्थिति को हम कह सकते हैं कि उसका प्राण पूरी तरह से नाभिचक्र से नीचे केन्द्रित हो गया है। इससे आदमी द्वैतवादी, आसक्त, व मन के दोषों से युक्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति जब ऐसे जीवन की उलझनों से थक जाता है या उनसे ऊब जाता है, तब वह एकांत व शान्ति की खोज में निकल पड़ता है। वह बाह्य इन्द्रियों से उपरत हो जाता है। ऐसे में उसके दुनियादारी से प्रचंड बने हुए प्राण के पास ज्यादा शारीरिक काम नहीं रहता। इसलिए वह मस्तिष्क की तरफ चढ़ने लगता है, और वहां अपना असर दिखाता है। इसे ही प्राणोत्थान कहते हैं। इससे मस्तिष्क में चित्र-विचित्र व पुरानी यादें आनंद के साथ उमड़ने लगती हैं। इससे वे शान्ति के साथ आत्मा में लीन होने लगती हैं। मन में चारों ओर शान्ति छा जाती है। मन का कचरा साफ होने लगता है। इस तरह से महामानव या देवता का प्राण ऊपर वाले चक्रों में अधिक केन्द्रित होता है।
पाचन तंत्र एक दूसरे मस्तिष्क के रूप में
मैं इस उपरोक्त तथ्य को एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहता हूँ। व्रत-उपवास वाले दिन मन-मस्तिष्क में स्वयं ही ध्यान होता रहता है। पाचन प्रणाली को दूसरा मस्तिष्क भी कहते हैं, क्योंकि वह बहुत अधिक प्राण-ऊर्जा का भक्षण करती है। व्रत से इस प्रणाली को आराम मिलने के कारण वहां की प्राण-ऊर्जा मस्तिष्क को उपलब्ध हो जाती है।
वैज्ञानिक भी इस बात की पुष्टि कर चुके हैं कि मानव-मस्तिष्क के विकास में आग की खोज के साथ तेज गति आई। उसके पाचन तंत्र का अधिकाँश काम आग ने कर दिया। इससे पाचन तंत्र की अधिकाँश प्राण-शक्ति मस्तिष्क को उपलब्ध होने लगी।
प्राणोत्थान से कुण्डलिनी का पोषण
यदि मस्तिष्क में पहुंचे हुए प्राण से कुण्डलिनी (एक विशेष मानसिक चित्र) को पुष्ट न किया जाए, तो उससे कुण्डलिनी जागृत नहीं हो पाएगी। इसकी बजाय उससे विभिन्न प्रकार के मानसिक चित्र एकसाथ पुष्ट होते रहेंगे, जिससे प्राणशक्ति सब के बीच में बंट जाएगी। उससे पर्याप्त बल के अभाव में कोई भी मानसिक चित्र जागृत नहीं हो पाएगा। अतः प्राणोत्थान के साथ कुण्डलिनी-ध्यान भी आवश्यक है। यदि पहले से ही कुण्डलिनी-ध्यान किया जा रहा है, तब तो और भी अच्छा है। इसीलिए प्राणोत्थान को कुण्डलिनी उत्थान भी कहते हैं।
मस्तिष्क के साथ प्रत्येक चक्र पर कुण्डलिनी-ध्यान सहायक है, क्योंकि सभी चक्रों पर बहुत सी प्राण-शक्ति जमा होती है, जो कुण्डलिनी को पुष्ट करती है। वास्तव में कहीं पर भी ध्यान की गई कुण्डलिनी मस्तिष्क में ही पुष्ट होती है, क्योंकि अंततः मस्तिष्क ही सभी अनुभवों का स्थान है।
प्राणोत्थान का सबसे श्रेष्ठ तरीका
वास्तव में प्राणोत्थान की बहुत सी विधियां हैं। यद्यपि तंत्र का यौनयोग (सेक्सुअल योगा) इसके लिए सबसे श्रेष्ठ व व्यावहारिक तरीका है। इससे दुनियादारी के झमेले में फंसे हुए आदमी का भी एकदम से प्राणोत्थान हो जाता है। आदमी अचानक ही चमत्कारिक रूप से अपने आप को रूपांतरित सा महसूस करता है। यौनयोग दिन के समय पूर्ण चेतना की अवस्था में व पूर्ण निष्ठा-समर्पण से किया जाए, तो सर्वोत्तम है। हालांकि इसको पूर्ण सामाजिक व मानवीय उत्तरदायित्वों के साथ करना चाहिए।
प्राणोत्थान के लक्षण
मन में कुण्डलिनी का ध्यान निरंतर व स्वयं ही होता रहता है। शान्ति, आनंद, हल्केपन, सात्विकता, संतुष्टि आदि दिव्य गुणों का अनुभव होता है। योगसाधना करने में बहुत मन लगता है। संसार के प्रति लिप्सा (क्रेविंग) नहीं रहती, हालांकि सामान्य इच्छाएँ नहीं रुकतीं। किसी भी चीज में आसक्ति नहीं रहती है। हो जाए या मिल जाए, तो भी ठीक, और न होए या न मिले, तो भी ठीक। सभी कुछ एकसमान सा लगता है। यह अद्वैत है। चिंता व तनाव समाप्त हो जाते हैं। भूख अच्छी लगती है। अच्छा स्वास्थ्य महसूस होता है। भ्रमण के लिए मन करता है। अवसाद समाप्त हो जाता है। उत्तम मानसिकता अपने चरम के आसपास होती है। किसी से वैर-विरोध नहीं रहता। व्यक्ति सहनशील, हंसमुख, आकर्षक, सर्वप्रिय व मिलनसार बन जाता है। क्षमा भाव बना रहता है। काम, क्रोध अदि मन के विकार गायब हो जाते हैं। भारी, अस्त-व्यस्त व तेज-तर्रारी वाले शारीरिक कामों में मन नहीं लगता, क्योंकि शरीर की अधिकाँश प्राणशक्ति मस्तिष्क की ओर प्रवाहित होती रहती है। जरूरत पड़ने पर आदमी ऐसे काम कर भी लेता है, यद्यपि उससे उसका प्राणोत्थान नीचे गिरने लगता है।
कुण्डलिनी जागरण के लिए प्राणोत्थान बहुत जरूरी
इसी प्राणोत्थान की अवस्था में अनुकूल परिस्थितियाँ मिलने पर कुण्डलिनी-जागरण होता है। प्राणोत्थान के बिना कुण्डलिनी-जागरण नहीं होता।
कुण्डलिनी-जागरण शिखर-बिंदु तक पहुंचे हुए प्राणोत्थान के रूप में
प्राणोत्थान व कुण्डलिनी-जागरण के बीच में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है। दोनों के बीच में केवल अभिव्यक्ति के स्तर का ही अंतर है। इसीलिए कई अति महत्त्वाकांक्षी लोग प्राणोत्थान को ही कुण्डलिनी जागरण समझ लेते हैं। पूर्णता को प्राप्त प्राणोत्थान ही कुण्डलिनी जागरण कहलाता है। प्राणोत्थान तो लम्बे समय तक भी रह सकता है। यहाँ तक कि यह कई सालों तक भी रहता है, विशेषतः यदि कुण्डलिनी तांत्रिक प्रकार की हो। कुण्डलिनी के साथ प्राणोत्थान ही आत्मज्ञान करवाता है। कुण्डलिनी जागरण तो केवल इसे अतिरिक्त रूप में पुष्ट ही करता है, अन्य कुछ नहीं। किताबों के अध्ययन व अन्य गहन दिमागी कार्यों से भी प्राणोत्थान होता है, यद्यपि इसे तीव्रता, आध्यात्मिकता व लम्बे समय तक स्थिरता कुण्डलिनी से ही मिलती है। प्राणोत्थान के विपरीत कुण्डलिनी जागरण क्षणिक होता है। इसका अनुभव आधा या एक मिनट से अधिक नहीं रहता। अधिकाँश लोग तो विलक्षणता के डर से इसे कुछ ही सेकंडों में नीचे उतार देते हैं, जैसा ही इस वेबसाईट के नायक प्रेमयोगी वज्र के साथ भी हुआ था।