कुंडलिनी योग डीएनए को सूक्ष्म शरीर और डार्क एनर्जी या डार्क मैटर के रूप में दिखाता है

सूक्ष्म शरीर पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेंद्रियों, पांच प्राण, एक मन और एक बुद्धि के योग से बना है। 

यह सूक्ष्मशरीर ही परलोकगमन करता है, हाड़मांस से बना स्थूलशरीर नहीं। कोई बोल सकता है कि जब स्थूल शरीर नष्ट हो गया, तब ये इन्द्रियां, प्राण आदि कैसे रह सकते हैं, क्योंकि ये सभी स्थूलशरीर के आश्रित ही तो हैं। यही तो ट्रिक है। इसे आप लेखन की वर्णन करने की कला भी कह सकते हैं। लेखक अगर चाहता तो सीधा लिख सकता था कि शरीर और उसके सारे क्रियाकलाप उसके सूक्ष्मशरीर में दर्ज हो जाते हैं। पर यह वर्णन आकर्षक और समझने में सरल न होता। क्योंकि शरीर और उसके सभी क्रियाकलाप उसके मन, बुद्धि, कर्मेंद्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, और पांचोँ प्राणों के आश्रित रहते हैं, इसलिए कहा गया कि सूक्ष्मशरीर इन पांचोँ किस्म की चीजों से मिलकर बना है। मुझे तो ऐसा अनुभव नहीं हुआ था। मुझे तो ये चीजें सूक्ष्मशरीर में अलगअलग महसूस नहीँ हुई, बल्कि एक ही अविभाजित अंधेरा महसूस हुआ, जिसमें इन सभी चीजों की छाप महसूस हो रही थी। मतलब साफ है कि सूक्ष्मशरीर अनुभवरूप अपनी आत्मा के माध्यम से ही चिंतन करता है, आत्मा से ही निश्चय करता है, आत्मा से ही काम करता है, आत्मा के माध्यम से ही सभी इन्द्रियों के अनुभव लेता है, और आत्मा से ही दैनिक जीवन के सभी शारीरिक क्रियाकलाप करता है। मतलब सूक्ष्मशरीर में जीव के पिछले सभी जीवन पूरी तरह से दर्ज रहते हैं, जिनको वह लगातार आत्मरूप से अपने में अनुभव करता रहता है। ये अनुभव स्थूल शरीर की तरंगों की तरह बदलते नहीं। एक प्रकार से ये पिछले सभी जन्मों का मिलाजुला औसत रूप होता है। कई लोग सोचते होंगे कि सूक्ष्मशरीर एक बिना शरीर का मन होता होगा, जिसमें खाली अंतरिक्ष में विचारों की तरंगें उठती रहती होंगी, पर फिर स्थूल और सूक्ष्म शरीर में क्या अंतर रहा। वैसे भी बिना स्थूल शरीर के आधार के स्थूल मन का अस्तित्व संभव नहीं है। उदाहरण के लिए आप अपनी अंगूठी में जड़े हुए हीरे को सूक्ष्मशरीर मान लो। इसमें इसके जन्म से लेकर सभी सूचनाएं दर्ज हैं। कभी यह शुद्ध ऊर्जा था। सृष्टि निर्माण के साथ यह धरती पर वृक्ष बन गया। फिर भूकंप आदि से वृक्ष धरती के अंदर सैंकड़ो किलोमीटर नीचे दब कर कोयला बना। फिर पत्थर का कोयला बना। लाखों वर्षो तक यह भारी तापमान और दबाव झेलता रहा। इसमें अनगिनत परिवर्तन हुए। इसने अनगिनत क्रियाएं कीं। इसने अनगिनत वर्ष बिताए। फिर वह खोद कर निकाला गया। फिर तराशा गया। फिर आपने इसे खरीदा और अपनी अंगूठी में लगाया। ये सभी सूचनाएं इस हीरे में दर्ज हैं। हालांकि हीरे को देखकर हमें इन सूचनाओं का स्थूलरूप में पता नहीं चलता, पर वे सूचनाएं सूक्ष्मरूप में हमें जरूर अनुभव होती हैं, तभी हमें हीरा बहुत सुंदर, आकर्षक और कीमती लगता है। ऐसे ही किसीके सूक्ष्म शरीर के अनुभव से उसका पूरा पिछला ब्यौरा स्थूल रूप में मालूम नहीं होता, पर सूक्ष्मरूप में अनुभव होता है, उसके औसत स्वभाव को अनुभव करके। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे अर्जुन के पिछले सभी जन्मों को जानते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें अपने मन में दूरदर्शन की तरह सभी दृष्य महसूस हो रहे थे, बल्कि यह मतलब है कि उन सबका निचोड़ सूक्ष्मशरीर के रूप में महसूस हो रहा था। शास्त्रों की शैली ही ऐसी है कि वे अक्सर तथ्यों का पूर्ण विश्लेषण न करके उन्हें चमत्कारिक रूप में रहने देते हैं, ताकि पाठक हतप्रभ हो जाए।
ये अनुभव स्थूलशरीर से लिए अनुभवों से सूक्ष्म होते हैं, हालांकि हमें ऐसा लगता है, सूक्ष्मशरीर के लिए तो वह स्थूल अनुभव की तरह ही शक्तिशाली लगते होंगे, क्योंकि उस अवस्था में जीवित अवस्था के उन विचारों के शोर का व्यवधान नहीं होता, जो अनुभवों को कुंठित करते हैं। साथ में, पिछले सारे जन्मों का अनुभव भी आत्मा में हर समय सूक्ष्म रूप में बना रहता है, जबकि स्थूलशरीर में स्थूल विचारों के शोर में दबा रहता है। हाँ, वह नए अनुभव नहीँ ले सकता, क्योंकि उसके लिए स्थूलशरीर जरूरी होता है। इसलिए उसका आगे का विकास भी नहीँ होता। आगे के विकास के लिए ही उसे स्थूलशरीर के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। मुझे तो सूक्ष्मशरीर डीएनए की तरह जीव की सारी सूचनाएं दर्ज करने वाला लगता है। इसी तरह मुझे डार्क एनर्जी या डार्क मैटर भी स्थूल ब्रह्माण्ड का शाश्वत डीएनए लगता है।

डार्क एनर्जी और सूक्ष्मशरीर की समतुल्यता तभी सिद्ध हो सकती है, अगर उसे हम विभागों में न बांटकर एकमात्र अंधेरभरे आसमान की तरह मानें जिसमें इनके स्थूल रूप की सभी सूचनाएं सूक्ष्म अर्थात आत्म-अनुभवरूप में दर्ज होती हैं। कृपया इसे पूर्ण आत्मानुभव अर्थात आत्मज्ञान न समझ लिया जाए। यह आत्म-अनुभव की सर्वोच्च अवस्था है, जो एक ही किस्म का होता है, और जिसमें कोई सूचना दर्ज नहीँ होती मतलब शुद्ध आत्म-रूप होता है, जबकि सूक्ष्मशरीर वाला आत्म-अनुभव बहुत हल्के दर्जे का होता है, और उसमें दर्ज गुप्त सूचनाओं के अनुसार असंख्य प्रकार का होता है। यह “यत्पिंडे तत् ब्रह्मान्डे” के अनुसार ही होगा।

मानवतापूर्ण समस्याएँ भी कुण्डलिनी को क्रियाशील करती हैं

मानवतापूर्ण समस्याएँ क्या हैं

ऐसी समस्याएँ जो सतही या आभासिक होती हैं, तथा जिनसे अपना या औरों का कोई अहित नहीं होता है, वे मानवतापूर्ण समस्याएँ कहलाती हैं। उदाहरण के लिए, किसी को प्रेमसंबंध के टूटने की समस्या का आभास होता है। यद्यपि वास्तविकता यह होती है कि उसका प्रेमप्रसंग कभी चला ही नहीं होता है। ऐसा ही आश्चर्यजनक एहसास प्रेमयोगी वज्र को भी हुआ था, जिससे उसे क्षणिक आत्मजागरण की अनुभूति होने में मदद मिली थी।

अन्य उदाहरण हम उपवास का लेते हैं। वह हमें समस्या की तरह लगता है, जबकि वास्तव में वैसा होता नहीं है। उपवास से शरीर और मन के साथ कुण्डलिनी को भी ऊर्जा मिलती है।

मानवता के लिए समस्या झेलना भी मानवतापूर्ण समस्या है

जप, तप, योग आदि आध्यात्मिक गतिविधियाँ इसका अच्छा उदाहरण हैं। देश, समाज, मानवीय धर्म, परिवार आदि के लिए समस्या सहना मानवीय समस्या है। समस्या से जितनी अधिक सत्यता व शुद्धि के साथ जितने अधिक लोगों का भला होगा, उसकी मानवता उतनी ही अधिक होगी।

मानवतापूर्ण समस्या से क्या होता है

मानवतापूर्ण समस्या से आदमी मानवता से प्रेम करने लगता है। वह सभी मनुष्यों से प्रेम करने लगता है। उसके मन में एक विशेष मनुष्य (गुरु,मित्र,देव आदि) की छवि बस जाती है। समय के साथ वही फिर कुण्डलिनी बन जाती है। प्रेमयोगी वज्र के साथ भी यही हुआ। शरीरविज्ञान दर्शन के प्रभाव से चल रही उसकी अति क्रियाशीलता के कारण उसके मन में उन वृद्धाध्यात्मिक पुरुष की छवि पुष्ट होती गई।

मानवीय समस्या से कुण्डलिनी कैसे विकसित होती है

जब कुण्डलिनी मन में काफी मजबूत हो जाती है, तब एक समय ऐसा आता है कि व्यक्ति काम के व कुण्डलिनी के दोहरे बोझ से टूट जैसा जाता है। वैसी स्थिति में जैसे ही कोई बड़ी आभासिक समस्या उसके रास्ते में आए, तो वह पूरी तरह से कुण्डलिनी के समक्ष आत्मसमर्पण कर देता है, और कुण्डलिनी के आश्रित हो जाता है। इससे उसकी कुण्डलिनी क्रियाशील हो जाती है।

क्रियाशील हो चुकी कुण्डलिनी फिर कैसे जागृत होती है

कुण्डलिनी के क्रियाशील हो जाने के बाद समस्याग्रस्त व्यक्ति का मानसिक अवसाद घट जाता है, और आनंद बढ़ जाता है। इससे कुण्डलिनी पर उसका विश्वास बढ़ जाता है, और उसे लगता है कि उसकी कुण्डलिनी से ही उसको सभी समस्याओं से सुरक्षा मिलती है। फिर वह कुण्डलिनी को जागृत करने वाले योग आदि शास्त्रों का अध्ययन और उनका अभ्यास करने लगता है। इससे उसका योग से सम्बंधित ज्ञान और अभ्यास आगे से आगे बढ़ता रहता है। अंततः उसकी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है।

प्रेमयोगी वज्र को कैसे समस्या से कुण्डलिनी के लिए एस्केप विलोसिटी मिली

प्रेमयोगी वज्र शरीरविज्ञान दर्शन के प्रभाव से प्राप्त हो रहीं मानवीय समस्याओं, विभिन्न मानवीय कामों और कुण्डलिनी के बोझ से टूट जैसा गया था, शारीरिक रूप से। उसकी स्मरणशक्ति भी काफी घट गई थी। यद्यपि उसके मन में आनंद व शान्ति काफी बढ़ गए थे। फिर उसे घर से बहुत अधिक दूर सपरिवार शान्ति के साथ एक मनोरम स्थान पर रहने का मौक़ा मिला। घर से वहां तक आवागमन के लिए उसने अत्याधुनिक व बहुत महंगी गाड़ी खरीदी। उसको उसमें ड्राईवर सीट कम्फर्ट नहीं मिला। वह बहुत पछताया, पर जो होना था, वह हो चूका था। अपने को संभालने के लिए वह पूरी तरह से कुण्डलिनी के सहारे होकर मन में उसका ध्यान करने लगा। उससे उसकी कुण्डलिनी चमकने लगी, और उसकी चिंता लगभग समाप्त ही हो गई। इससे आश्वस्त होकर वह ई-बुक्स, पेपर बुक्स, इंटरनेट व मित्रों की मदद से योग सीखने लगा। उससे उसकी कुण्डलिनी एक साल में ही बहुत मजबूत हो गई। उसके अंतिम एक महीने में यौनयोग की सहायता लेने पर वह जागृत हो गई। उसके बाद वह अपनी गाड़ी का अभ्यस्त हो गया, तथा उसे पता चला कि उसकी गाड़ी का कम्फर्ट दरअसल अन्य गाड़ियों से कहीं अधिक था। इसका अर्थ है कि उसकी समस्या असली नहीं बल्कि आभासिक थी, जो उसकी कुण्डलिनी को जगाने के लिए उसके अन्दर पैदा हुई थी।

कुण्डलिनी के प्रति समर्पण ही ईश्वर के प्रति समर्पण है।

आभासिक समस्या सफलता के लिए भरपूर कोशिशों के बाद होनी चाहिए

यदि थोड़े से एफर्ट्स के बाद ही समस्या का सामना करना पड़े, तब आदमी का विश्वास विविधतापूर्ण दुनियादारी पर बना रहता है, और वह कुण्डलिनी के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण नहीं करता। परन्तु जब भरपूर प्रयास करने के बाद भी आदमी को हानि का ऐहसास होता है, तब दुनिया से उसका विश्वास उठ जाता है, और वह पूरी तरह से कुण्डलिनी के सामने घुटने टेक देता है, ताकि बिना भौतिक मशक्कतों के ही उसे प्राण-रस या जीवन-रस मिलता रहे। यह सिद्धांत है कि भरपूर प्रयासों के बाद आने वाली समस्याएँ आभासिक या सकारात्मक ही होती हैं, वास्तविक या नकारात्मक नहीं।

इस कुंडलिनी उत्प्रेरक समस्या को भौतिक दुनियादारी के प्रति सकारात्मक और अस्थायी अविश्वास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है

इस कुंडलिनी उत्प्रेरक समस्या को बहुत से लोग भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक आघात / ट्रामा के रूप में परिभाषित करते हैं। हालांकि यह वास्तव में आघात नहीं है, क्योंकि आघात तो व्यक्ति को नीचे गिराता है, कुंडलिनी की असीमित ऊंचाइयों तक नहीं उठाता। वास्तव में इसे भौतिक दुनिया के प्रति विश्वास के सकारात्मक और अस्थायी रूप से क्षीण होने के रूप में कहा जाना चाहिए, जो कि व्यक्ति को कुंडलिनी {एकमात्र मानसिक छवि} की मानसिक दुनिया की ओर प्रेरित करता है।

तंत्र के अनुसार भौतिक दुनियादारी से मन भरने पर ही कुण्डलिनी आसानी से प्राप्त होती है

एक व्यक्ति को जीवन के हरेक क्षेत्र का अनुभव होना चाहिए {जैसा प्रेमयोगी वज्र को था}, नहीं तो भौतिक दुनिया के प्रति लालसा से उसका मन दुनिया में रमा रहेगा। वह पार्याप्त रूप से समृद्ध भी होना चाहिए {जैसा प्रेमयोगी वज्र था}, नहीं तो उसे कमाई की चिंता बनी रहेगी, जिससे उसका मन दुनिया से नहीं हटेगा। सीधी सी तंत्रसम्मत बात है कि जिसका मन भौतिक दुनिया की सकारात्मक, कर्मपूर्ण व मानवीय रंगीनियों से भर गया हो, उसे ही उससे ऊपर उठने का मौक़ा आसानी से मिलता है।

कुण्डलिनी के विलयन से आत्मज्ञान

योग-साधना करते-२ एक समय ऐसा आता है, जब कुण्डलिनी आत्मा में विलीन होने लगती है। तब व्यक्ति का विश्वास कुण्डलिनी से भी हटकर आत्मा पर केन्द्रित हो जाता है। उसके दौरान ही उसे क्षणिक आत्मज्ञान हो जाता है। ऐसा ही प्रेमयोगी वज्र के साथ भी हुआ था, जिसका वर्णन उसने अपनी हिंदी में पुस्तक “शरीरविज्ञान दर्शन- एक आधुनिक कुण्डलिनी तंत्र (एक योगी की प्रेमकथा)” तथा अंग्रेजी में पुस्तक “Love story of a Yogi- what Patanjali says” में विस्तार के साथ किया है।

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