कुंडलिनी की सहायता के बिना देवता भी कामयाब नहीं हो पाते

पिछली पोस्ट को जारी रखते हुए, बुद्धिस्म में तंत्र वाली शाखा को वज्रयान नाम इसीलिए दिया गया है। प्रेमयोगी वज्र नाम भी इसीलिए पड़ा है। उसकी साधना में मूलरूप में तो प्रेमयोग ही है, पर उसमें तंत्र का भी अच्छा योगदान है। देवताओं ने वृत्रासुर के साथ लंबे अरसे तक युद्ध किया था। परंतु वे उसे हरा न सके थे। अंत में वे हार मानते हुए अपने अस्त्रशस्त्र दधिचि मुनि के आश्रम के निकट छोड़कर भाग गए। इसका मतलब है कि देवताओं ने दुखों के विचारों से बचने के लिए आदमी के शरीर में हाथपैर, आंखें, कान, मस्तिष्क आदि अनेकों अंग लगाए। पहले आदमी कीटाणुविषाणु की तरह एककोशिकीय जीव होता था। वह तो दुःख से भरी अवस्था ही थी। उस दुःख को दूर करने के लिए देवताओं ने कई युगों तक उस प्राथमिक जीव का विकास किया। अंत में मनुष्य शरीर बना। इतनी मेहनत के बाद भी दुखों का अंत कहां हुआ। उल्टा वह बढ़ने ही लगा। आज विज्ञान जितनी ज्यादा तरक्की कर रहा है, प्रकृति से उतनी ही ज्यादा छेड़छाड़ बढ़ रही है, जिससे जानमाल की तबाहियां भी बढ़ रही हैं। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं। हत्या, लूटपाट आदि अपराध बढ़ रहे हैं। मन के मुख्य पांच दोष काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर और उनसे पैदा होने वाले अनगिनत मानसिक विकार जैसे कि अवसाद, अकेलापन, हिंसा, स्वार्थभाव आदि बढ़ ही रहे हैं। मतलब दुखों के पहाड़ के रूप में वृत्रासुर का ही हमला हो गया। मजबूरन देवताओं ने हाथ खड़े कर दिए। दधिचि मुनि यहां आत्मा को कहा गया है। उसके आश्रम के निकट देवताओं ने हथियार छोड़ दिए, मतलब उन्होंने शरीर के सभी अंग निर्मित कर दिए, क्योंकि शरीर ही आत्मा के सबसे निकट है। देवताओं ने हार मान ली, मतलब इंद्रियों व अंगों के बल से चित्त का अहंकाररूपी परम दुख या शत्रु कभी नष्ट नहीं हो सकता था, यह पूरी तरह से सिद्ध हो गया था, छोटेमोटे शारीरिक व मानसिक दुख बेशक दूर हो जाते। यह परम दुख ही वृत्रासुर राक्षस था। शिव के वरदान से ही दधीचि मुनि की अस्थियां वज्रतुल्य बनी थीं। मतलब कि शिवप्रदत्त योग से हड्डियों में, विशेषकर रीढ़ की हड्डी में इतनी लोच व जीवंतता थी कि उसमें कुंडलिनी ऊर्जा आसानी से प्रवाहित हो सकती थी। वज्रपात बिजली गिरने को कहते हैं। उससे कठोर चट्टान भी टूट जाती है, और साथ में उसमें बिजली भी प्रवाहित होती है। इसी तरह रीढ़ की हड्डी की सुषुम्ना नाड़ी में प्रकाशमान ऊर्जारेखा का दौड़ना ही बिजली गिरने के समान है, और उससे अहंकार का नष्ट होना ही चट्टान के टूटने जैसा है। अहंकार ही दुनिया की सबसे कठोर वस्तु है, जिसे तोड़ना सबसे कठिन है।
कहते हैं कि ऋषि दधिचि की सुवर्चा नाम की एक पत्नी भी थी। जब देवता ब्रह्मा के पास सहायता मांगने गए थे, तब उन्होंने ही उन्हें दधीचि से अस्थियां मांगने की सलाह दी थी। सुवर्चा अंदर वाले कक्ष में थी, और देवता बाहर वाले कक्ष में बैठे दधीचि से उनकी हड्डियां मांग के ले गए। दधीचि ने योगसमाधि लगा कर शरीर छोड़ दिया और वे ब्रह्म में विलीन हो गए। जब सुवर्चा को पता चला तो वह बहुत क्रोधित हुई, और उसने देवताओं को श्राप दिया। उस समय सुवर्चा गर्भवती थी। ऋषि की वीर्यशक्ति से उसे दूसरे शिव के समान महान पुत्र प्राप्त हुआ। उसका नाम पिप्पलाद था। सृष्टि के मूल निर्माता तो ब्रह्मा ही हैं। उन्हें पता है कि देवता जितना मर्जी जोर लगा लें, पर वे आध्यात्मिक अज्ञान को नहीं मिटा सकते। यह भी उन्हें पता था कि योगी के मेरुदंड में स्थित सुषुम्ना में ऊर्जाप्रवाह से जब कुंडलिनी जागरण होगा, उसी से वह मर सकता है। जागृति से अज्ञान तो मिटेगा ही, अहंकार भी मिटेगा। अहंकार ही मनुष्य का अपना साधारण या लौकिक अनुभव वाला रूप होता है। जब अहंकार ही नहीं, तब मनुष्य का अस्तित्व भी कैसे रह सकता है। इसी को ऐसा कहा है कि दधीचि मुनि खुद शरीर छोड़कर चले गए। दरअसल अहंकार तो जागृति से पहले ही खत्म हो चुका होता है। तभी तो जागृति का अनुभव होता है। जरा भी अहंकार रहने से जागृति का अनुभव कैसे हो सकता है, क्योंकि दोनों एकदूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। तांत्रिक योगसाधना से जब योगी का अहंकार नष्टप्राय हो जाता है, तभी जागृति की असली शुरुआत होती है। अहंकार खत्म होने से योगी के मस्तिष्क में सांसारिक कचरा भी कम से कम रहता है, जिससे कुंडलिनी को जागृत होने के लिए पर्याप्त नाड़ी शक्ति उपलब्ध हो जाती है। ऋषि दधीचि की पत्नि जो सुवर्चा है, वह दरअसल बुद्धि है। अहंकार के नष्ट हो जाने से आदमी का रूपांतरण जैसा हो जाता है। रूपांतरण से पुराने विचार और स्मरण भुने बीज की तरह नष्टप्राय जैसे हो जाते हैं। पर वह प्रकाशमान बुद्धि या सद्बुद्धि बनी रहती है, जो अच्छे रास्ते पर लगाती है। पुराने अनुभव भी याद रहते ही हैं। संस्कृत शब्द वर्चस का अर्थ प्रकाशमान होता है। उसने देवताओं को श्राप दिया, मतलब तब शरीर देवताओं के अधीन रहकर मनमाना आचरण नहीं करता, बल्कि सद्बुद्धि के दिशानिर्देशन में रहकर युक्तियुक्त व्यवहार ही करता है। आदमी के रूपांतरण के बाद जो उसकी नई, जागृत व देवतुल्य अवस्था आती है, उसे ही पुत्र पिप्पलाद कहा गया है। वह रुद्र अर्थात शिव की तरह तंत्रात्मक अवस्था होती है, इसीलिए उसे रुद्रावतार कहा गया है।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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