गृह-2 (शरीरविज्ञान दार्शनिकों की विशेष पूजा)

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एक पुस्तक-पाठक की कलम से

भाइयो, बहुत से लोग अपने अहंकारपूर्ण जीवन में व्यस्त हैं, जो नरक के लिए एक साक्षात द्वार है। इसी तरह, कुछ लोग त्याग-भावना के बहकावे में आ जाते हैं। उपरोक्त दोनों ही प्रकार के लोग आंशिक सत्य पर चलने वाले प्रतीत होते हैं। वास्तव में एक आदमी इस संसार में इतना अधिक विकसित हो जाना चाहिए कि उसे त्याग की आवश्यकता ही महसूस न हो, अपितु संसार उसके त्याग के लिए स्वयं ही बाध्य हो जाए। मित्रो, तब त्याग अपने आप ही होता है, जब एक आदमी इस संसार में अपनी आध्यात्मिक विकास की एक निश्चित सीमा को लांघ देता है। अद्वैत दृष्टिकोण से ही आध्यात्मिक विकास का यह निर्दिष्ट सीमाबिंदु सर्वाधिक सरलता, आनंद व व्यावहारिकता के साथ प्राप्त होता है। यद्यपि “अद्वैत दृष्टिकोण”, केवल यह कहना आसान है, परन्तु  इसे विकसित करके निरंतर बना कर रखना बहुत कठिन है। यदि केवल अद्वैत दृष्टिकोण के बारे में पढ़ना, लिखना व बोलना ही पर्याप्त होता, तब व्यावहारिक रूप वाली विस्तृत आध्यात्मिक व तांत्रिक प्रक्रियाओं का विकास न हुआ होता। उदाहरण के लिए, तंत्र या बौद्ध मार्ग के मन्त्रों, यंत्रों (बाह्य वेबसाईट- literature.awgp.org) व मंडलों को ही देख लें। वे अच्छी तरह से बनाए जाकर, नियमित रूप से पूजे जाने चाहिए, सांसारिक व व्यावहारिक रूप में, उन्हें सूक्ष्म-संसार अर्थात अंतहीन संसार के सूक्ष्म नमूने/अनुकृतियाँ समझते हुए। उस सूक्ष्म संसार में देवताओं के भावना-दर्शन करने चाहिए। उन देवताओं में अद्वैत दृष्टिकोण होता है, यद्यपि वे पूर्णतः हमारे जैसे आम लोगों की तरह ही काम करते हैं। इस तरह से, उन देवताओं का अद्वैतमयी व अहंकाररहित दृष्टिकोण अपने आप ही हमारे अन्दर सर्वाधिक निपुणता के साथ उतर आता है, और निरंतर जारी भी रहता है। मित्रो, इस भौतिक संसार से समानता रखने वालों में, हमारे अपने भौतिक शरीर से बढ़िया भला क्या वस्तु हो सकती है? वास्तव में हमारा अपना मानव शरीर, अनंत विस्तार वाले इस बाहरी व भौतिक संसार का सर्वाधिक सूक्ष्म व सर्वश्रेष्ठ नमूना है। शास्त्रों में भी यह इस सत्योक्ति से सिद्ध किया गया है, “यत्पिण्डे तत्ब्रम्हाण्डे” (बाह्य वेबसाईट- aniruddhafriend-samirsinh.com)। इस उक्ति का अर्थ है कि जो कुछ भी छोटी संरचना (शरीर आदि) में विद्यमान है, वही  पूर्णतः समान रूप से, सभी कुछ पूरे ब्रम्हांड में है, अन्य कुछ नहीं। हमारे शरीर में अत्यंत सूक्ष्म देहपुरुष विद्यमान होते हैं। वे मनुष्य के सूक्ष्मरूप होते हैं, और पूरी तरह से मनुष्य की तरह ही होते हैं, यद्यपि अतिरिक्त रूप से वे अद्वैतभाव को भी धारण करते हैं। वे यंत्र-मंडल के देवताओं की तरह होते हैं, यद्यपि तुलनात्मक रूप से अधिक चुस्त व क्रियाशील होते हैं। शास्त्र भी इस बात को सिद्ध करते हैं कि हमारे शरीर में सभी देवता विद्यमान हैं। मित्रो, फिर इस शरीर-मंडल (बाह्य वेबसाईट- pinterest) साथ प्रत्येक परिस्थिति में खड़ा रहता है, और  प्रतिक्षण हमें अद्वैत दृष्टिकोण की सर्वोत्तमता की  याद दिलाता रहता है। यह अन्य मंडलों की तरह अस्थायी व नश्वर भी नहीं है, यहाँ तक कि यह अनादिकाल से हमारे साथ है, और तब तक साथ रहेगा, जब तक हम मुक्त नहीं हो जाते। क्योंकि मुक्त होने तक कोई न कोई शरीर तो मिलता ही रहता है। इससे, शरीरविज्ञान दार्शनिक अपने होने वाले प्रत्येक जन्म में इसके अद्वैत से लाभ प्राप्त करते रहते हैं।

मित्रो, अधिकाँश लोग देहक्षायी यौनसम्बन्ध में संलिप्त रहते हैं। यौनसम्बन्ध एक आश्चर्यजनक क्रिया है,  जिसके बारे में न्यूनतम अध्ययन किया गया प्रतीत होता है। यदि यह अनुचित विधि से किए जाने के कारण नरक/दुःख/बंधन  की प्राप्ति करवा सकता है, तो यही स्वर्ग/सुख/मुक्ति की प्राप्ति भी करवा सकता है, यदि इसे उचित विधि व कुण्डलिनीयोग के साथ किया जाए। यह पुस्तक यौनाचार की अनुभूत व प्रमाणित तांत्रिक   पद्धति  का वर्णन करती है, जिससे उस कुण्डलिनीजागरण की प्राप्ति होती है, जो कि अंतिम मोक्ष के लिए द्वाररूप है। मित्रो, ये देहपुरुष हमारे शरीर में हर स्थान पर विद्यमान होते हुए, अपने देहदेश के प्रति महान देशभक्त व राष्ट्रवादी होते हैं। ये हमें भी इस तरह के गुण धारण करना सिखाते हैं, यदि आधुनिक  दर्शन, शविद के माध्यम से इनका चिंतन किया जाए। हमारे अपने शरीर में प्रकृति अपने सम्पूर्ण विस्तार के साथ विद्यमान है। वह प्रकृति देहपुरुषों के द्वारा पूरी तरह से संरक्षित व विवर्धित की जाती रहती है। इसके विपरीत, आधुनिक स्थूलपुरुषों के द्वारा अपनी स्थूलप्रकृति नष्ट की जा रही है। यदि आप प्रकृति-प्रेमी और प्रकृति-संरक्षक हैं, तब तो यह पुस्तक आपके लिए ही है।

मित्रो, हमारा आश्चर्यजनक भौतिक शरीर (बाह्य वेबसाईट- bharatsvasthya.net) अनगिनत कोशिकाओं से बना हुआ है। वे सभी कोशिकाएं बेहतरीन तालमेल व सहयोग के साथ काम करती रहती हैं, जिससे हमारा शरीर एक सर्वोत्तम समाज बन कर उभरता है। हम ये कलाएं और अन्य भी बहुत कुछ उनसे सीख सकते हैं। इसके साथ ही, वे कोशिकाएं अद्वैतवादी व जीवन्मुक्त भी हैं। वे मनस्कता से पूर्ण हैं। यदि उन्हें मन से रहित माना जाए, तब तो उचित ढंग से क्रियाशील मन के बिना इस तरह के आश्चर्यमयी कारनामों की उनसे कल्पना नहीं की जा सकती। इससे यह सिद्ध होता है कि उनके अन्दर एक मन विद्यमान होता है, परन्तु इसी के साथ वे मन से रहित भी होते हैं, क्योंकि वे अपने अद्वैतभाव के कारण अपने मन में आसक्त नहीं होते। मनुष्य भी उस तरह के समाज को बनाने का प्रयास करता है, परन्तु हर बार बुरी तरह से असफल हो जाता है। इसका कारण है, हम उनके बारे में आध्यात्मिक/दार्शनिक विधि से पूर्ण विस्तार के साथ नहीं जानते। यह ई-पुस्तक इसी समस्या का हल करती है।

मित्रो, हम पूरी तरह से देहपुरुषों (वे कोशिकाएं) की तरह ही व्यवहार व कर्म करते रहते हैं, परन्तु केवल हम ही आसक्ति, अहंकार व अद्वैत को प्राप्त करते हैं, वे देहपुरुष नहीं। यह पुस्तक दिखाती है कि इस कारीगरी को उनसे कैसे सीखा जाए? देहपुरुष कई स्थानों पर एकवचन में ही लिखा गया है, यद्यपि वे असंख्य हैं। यह इसलिए, क्योंकि वे सभी, आध्यात्मिक रूप से अर्थात अपने वास्तविक आत्मरूप (असली आत्मा) से एक दूसरे से अभिन्न हैं। यह पुस्तक यह भी दिखाती है कि देहपुरुष को अपनी कुण्डलिनी कैसे बनाया जाए, और उसे उसके ध्यान से कैसे विवृद्ध किया जाए? इस संसार में अद्वैत के बारे में बहुत सी मिथ्या समझ व बहुत सी मिथ्या धारणाएं विद्यमान हैं, पढ़ें ईपुस्तक, कुण्डलिनी रहस्योद्घाटित- प्रेमयोगी वज्र क्या कहता है)। वे भी सभी इस पुस्तक में बहुत अच्छी तरह से व व्यावहारिक रूप से स्पष्टीकृत की गई हैं।  

शरीरविज्ञान दार्शनिकों के द्वारा अनोखी अराधना

शरीरविज्ञान दार्शनिक प्रतिक्षण ही अनंत उपचारों से, अनायास ही, अर्थात अनजाने में ही, अर्थात बिना किसी औपचारिकताओं के ही देहपुरुषों की पूजा करते रहते हैं, क्योंकि देहपुरुष कहीं दूर नहीं, अपितु उनके अपने शरीर में ही विद्यमान होते हैं। वे उन्हें नद, नदी, तालाब, समुद्र आदि अनेक जल-स्रोतों के जल से स्नान करवाते हैं, तथा उन्हें पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, अभिषेक व शुद्धोदक आदि के रूप में जल अर्पित करवाते हैं। विविध व सुगन्धित हवाओं के रूप में नाना किस्म के धूप लगाते हैं। औषधियों से उनकी चिकित्सा करते हैं। अनेक प्रकार के वाहनों में बैठाकर उन्हें एक प्रकार से पालकियों में घुमाते भी हैं। उनके द्वारा बोली गई शुभ वाणी से उनके उपदेश ग्रहण करते हैं। सुनाई देती हुई, अनेक प्रकार की शुभ वाणियों को उनके प्रति अर्पित स्तोत्र, घंटानाद व शंखनाद समझकर, उनसे उनकी स्तुति करते हैं। अनेक प्रकार के व्यंजनों से उन्हें भोग लगाते हैं। नेत्ररूपी दीप-ज्योति से उनकी आरती उतरवाते हैं। अनेक प्रकार के मानवीय मनोरंजनों, संकल्प-कर्मरूपी व्यायामों से व योग-भोगादि अन्यानेक विधियों से उनका मनोरंजन करते हैं। इस प्रकार से शरीरविज्ञान दार्शनिकों के द्वारा किए गए सभी मानवीय काम व व्यवहार ईश्वरपूजारूप ही हैं। पुरुष की सारी अनुभूतियाँ, उसके काम-काज को काबू में रखने वाली, उसकी चित्तवृत्तियाँ ही हैं, जिन्हें देहपुरुष ही अपने अन्दर पैदा करते हैं, देहदेश को नियंत्रित करने के लिए। ऐसा समझने वाला पुरुष देहपुरुषों को ही कर्ता-भोक्ता समझता है, और कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। साथ में, कुण्डलिनीयोग व शविद-अद्वैत के एकसाथ लम्बे आचरण से मानसिक कुण्डलिनीचित्र देहपुरुषों के ऊपर आरोपित हो जाता है, जिससे कुण्डलिनी बहुत पुष्ट हो जाती है। वास्तव में हम अनादिकाल से ही पूजा व सेवा करते आ रहे हैं, इस देहमंडल की। परन्तु हमें इसका पर्याप्त लाभ नहीं मिलता, क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान नहीं है, और यदि ज्ञान है तो दृढ़ता से विश्वास करते हुए, इस बात को मन में धारण नहीं करते। शविद के अध्ययन से यह विश्वास दृढ़ हो जाता है, जिससे धारणा भी निरंतर पुष्ट होती रहती है। इससे हमें पुराने समय के किए हुए, अपने प्रयासों का फल एकदम से व इकट्ठा, कुण्डलिनीजागरण के रूप में मिल जाता है। इस तरह से हम देख सकते हैं कि शरीरविज्ञानदार्शनिक पूरी तरह से वैदिक-पौराणिक पुरुषों की तरह ही होते हैं। बाहर से वे कुछ अधिक व्यवहारवादी व तर्कवादी लग सकते हैं, परन्तु अन्दर से वे उनसे भी अधिक शांत, समरूप व मुक्त होते हैं। वे उस तूफान से भड़के हुए महासागर की तरह होते हैं, जो बाहर से उसी की तरह, तन-मन से भरपूर चंचल-चलायमान होते हैं, परन्तु अन्दर से उसी की तरह शांत व स्थिर भी होते हैं।

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अग्रपृष्ठ- हमारे अपने शरीर के अन्दर बसा हुआ अद्वैतशाली ब्रम्हांड

पूर्वपृष्ठ- आत्मज्ञान व कुण्डलिनीजागरण के साक्षात अनुभव का विवरण