भाई विनोद शर्मा द्वारा रचित व दिल को छूने वाली कुछ कविताएँ- भाग 1

ये काल का प्रहार है

काल का प्रहार
आकाश अश्रु रो रहा
सृष्टि के पाप धो रहा

धरा मिलनकी इच्छासे
पर्वत भी धैर्य खो रहा

चारों दिशा अवरुद्ध है
जल धाराएँ क्रुद्ध हैं

नर कंकाल बह रहे
हकीकत बयान कर रहे

कुदरत की गहरी मार है
ये काल का प्रहार है।


रिश्तों में अपनापन नहीं
बच्चों में भोलापन नहीं

शीतल रुधिर शिराओं में
धीरज नहीं युवाओं में

वाणी मधु से रिक्त है
हरएक स्वार्थ सिक्त है

अविश्वास से भरा हुआ
हर शख्स है डरा हुआ

इन्सानियत की हार है
ये काल का प्रहार है।


दहक रही भीषण अग्न
झुलस रहा है बाग-वन

सूरज के रक्त नयन से
बरस रहे अंगार हैं

गुलों में वो महक नहीं
परिंदों की वो चहक नहीं

ठूंठ बन गए तरू
भूखंड हो गए मरू

आबोहवा बेज़ार है
ये काल का प्रहार है।


जागृति के नाम पर
विलुप्त शिष्टाचार है

सभ्यता ठगी खड़ी
सुषुप्त संस्कार है

श्रेष्ठता के ढोंग का
ओढ़े हुए नक़ाब है

कर्तव्य बोध शून्य है
अधिकारों का हिसाब है

निश्छलता तार-तार है
ये काल का प्रहार है।

शब्दों से कैसे खेलूं मैं

शब्दों से कैसे खेलूं मैं
अन्तर में भावों की ज्वाला
धधक-धधक सी उठती है।

असह्य अखण्डित दाह-वेदना
जिह्वा पर मेरे ठिठकती है।

प्राकट्य जटिल सा हो जाता है
बस भीतर -भीतर झेलूं मैं।

अब तू ही बता हमदर्द मेरे!
शब्दों से कैसे खेलूं मैं?


इस जगती में हर श्वास की
परिमित एक कड़ी होती है।

हृदय निकट गहन रिश्तों की
चिन्ता -व्यथा बड़ी होती है।

धीर धरूं क्यों?मन करता है
सबकी पीड़ा ले लूं मैं।

अब तू ही बता हमदर्द मेरे!
शब्दों से कैसे खेलूं मैं?


कोकिल की मीठी स्वर लहरी में
झींगुर की झिन-झिन दोपहरी में

मस्त मयूरों के नृत्यों में
गुंजित भवरों के कृत्यों में

प्रच्छन्न सरस जीवन-पय घट से
मधु वंचित प्याले भर लूं मैं।

अब तू ही बता हमदर्द मेरे!
शब्दों से कैसे खेलूं मैं?


काल सरित की अविरल धारा
अबल-सबल हर कोई हारा।


मूर्ख है जो धारा संग उलझे 
लहरें ऐसी जो न सुलझे। 

अब तक कोई पार न पाया 
कैसे वेग को ठेलूं मैं?
 
अब तू ही बता प्रियबन्धु मेरे! 
शब्दों से कैसे खेलूं मैं? 

ऐ ज़िन्दगी ! तू बेहद खूबसूरत है।

ऐ ज़िन्दगी ! तू बेहद खूबसूरत है।
तेरा हर नाज़ो नख़रा सह लेते हैं।

रुलाए तू हंसाए तू,
नश्तर चुभा,सहलाए तू।

तेरी लौ की तपिश में
परवाने बन जल जाते हैं,कुर्बान हुए जाते हैं ।
ऐ ज़िन्दगी!….

भीड़ न बनो जुदा हों भीड़ से खड़े

भीड़ न बनो जुदा हों भीड़ से खड़े,
जिधर भी तुम चलो काफ़िला साथ चल पड़े।
है ज़िन्दगी की राह मुश्किलात से भरी,
ये रास्ते न होंगे हीरे-मोती से जड़े।
भीड़ न बनो…….

मेहनत से ही मिलेगा मुक़द्दर में जो लिखा,
नहीं मिलेंगे स्वर्ण-कलश खेत में गढ़े।
भीड़ न बनो……

पढ़े लिखों का दौर यही शोर चारों ओर,
इन्सां वही है जो दिलों के ज़ज्बों को पढ़े।
भीड़ न बनो…..

हर लम्हा है बदलाव ये मन्ज़ूर तुम करो,
तोड़ रूढ़ियों की बन्दिशें आगे चलो बढ़े।
भीड़ न बनो…..

ज़हनी संगीनें तन चुकी हैं होश में आओ,
जिस्मानी जंग छोड़ के हम खुद से ही लड़ें।
भीड़ न बनो…..

मतलबी हर शख़्स यहाँ घात में बैठा,
मालूम नहीं किस ग़रज़ से शानों पे चढ़े।
भीड़ न बनो…..

करता है वो इन्साफ बिना भेदभाव के,
अपनी कमी का दोष हम किसी पे क्यों मढ़ें।
भीड़ न बनो…..

लियाक़त नहीं मोहताज किसी धन की दोस्तो!
खिलते हैं वे कमल भी जो कीचड़ में हों पड़े।
भीड़ न बनो…..।

दिल के इस मयखाने में जज़्बात ये साक़ी बनते हैं

दिल के इस मयखाने में जज़्बात ये साक़ी बनते हैं
आँखों के पैमाने से फिर दर्द के जाम छलकते हैं।

तेरी रहमतों की बारिश का इन्तज़ार मुझको

तेरी रहमतों की बारिश का इन्तज़ार मुझको
उम्मीद के ये बादल घिरने लगे हैं फिर से ।

जो ज़ख़्म अब से पहले नासूर बन गए थे
रिस्ते हुए ज़ख़्म वो भरने लगे हैं फिर से।

दो अश्क

बैठ कहीं सुनसान जगह पर
ख़ुदग़रज़ी के इस आलम से
माज़ी के गुज़रे लम्हों में
कुछ देर मैं खोना चाहता हूँ
दो अश्क बहाना चाहता हूँ।

जाड़े की ठण्डी सुबह में
ठिठुरते हुए बाहों को बांधे
प्राची से उगते सूरज को
बेसब्री से तकना चाहता हूँ
दो अश्क बहाना चाहता हूँ।

पशु चराने दादी के संग
सुनसान सघन जंगल के भीतर
सर रखकर उनकी गोदी में
वही कथा मैं सुनना चाहता हूँ
दो अश्क——————-।

सुबह सबेरे खेत जोतते
पिता के पद-चिह्नों के पीछे
‘चल’ ‘हट’ कर उन बैलों को
सही दिशा दिखाना चाहता हूँ
दो अश्क——————-।

व्यर्थ उलझकर भाई-बहन से
सच्चे-झूठे आँसू लेकर
स्नेह भरे माँ के आँचल में
वो दुलार मैं पाना चाहता हूँ
दो अश्क—————-।

शहर गए अब्बू के संग
भीड़ भरी सड़क पर उनकी
विश्वास भरी उँगली को थामे
उस भीड़ में खोना चाहता हूँ
दो अश्क—————–।

कोई बड़ी शरारत हो जाने पर
सहमे हुए घबराए मन से
घास गई उस माँ की मैं
वही बाट जोहना चाहता हूँ
दो अश्क—————-।

बिना बताए माँ-अब्बू जब
आँखों से ओझल हो जाते
घर आने पर कहीं दुबककर
मैं उनसे रूठना चाहता हूँ
दो अश्क—————-।

मासूम बचपना कहीं छोड़कर
हरपल मरता है शख़्स यहाँ
इतराता अपने जन्म दिवस पर
क्यों? यही जानना चाहता हूँ
दो अश्क——————।

यदि आपने इस लेख/पोस्ट को पसंद किया तो कृपया लाईक बटन दबाएँ, इसे शेयर करें व इस वार्तालाप/ब्लॉग को अनुसृत/फॉलो करें, व साथ में अपना विद्युतसंवाद पता/ई-मेल एड्रेस भी दर्ज करें, ताकि इस ब्लॉग के सभी नए लेख एकदम से सीधे आपतक पहुंच सकें। साथ में, कमेंट में अपनी राय देना न भूलें। धन्यवादम।

यन्त्र बना है मानव अब तो बलि चढ़ा जज़्बातों की। कभी नहीं करता तहलील उत्पन्न हुए हालातों की।  

कट के अपनी डोर से पतंग कोई उड़ न पाए। परवाज़ भरी थी जिस ज़मीन से उसी ज़मीन पे गिर जाए —-

उपरोक्त “भाई विनोद शर्मा द्वारा रचित कालजयी, भावपूर्ण व दिल को छूने वाली कविताएँ- भाग 2″ का आनंद उठाने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें” 

Published by

demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

3 thoughts on “भाई विनोद शर्मा द्वारा रचित व दिल को छूने वाली कुछ कविताएँ- भाग 1”

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s