वर्चुअल पार्टिकल भी हर समय आकाश में बनते ही रहते हैं, और उसीमें विलीन भी होते रहते हैं। मतलब वे भी तो शून्य आकाश जैसी सिंगुलरिटी बनाते हैं फिर उनसे ब्लैकहोल क्यों नहीं बनता। तारे का सिकुड़ते हुए शून्य आकाश बन जाना ही ब्लैकहोल क्यों बनाता है। बात शायद द्रव्यमान की भी है। अनंत द्रव्यमान भी बनना चाहिए। मन का विचार अनंत द्रव्यमान कैसे है। शायद इसलिए कि वह अनंत की कल्पना कर सकता है। पहले तो यह जानना होगा कि विचार का भौतिक स्वरूप क्या है। शायद तारा सिकुड़ते हुए वही भौतिक रूप बनता हो। मान लो पहाड़ का विचार आया या पहाड़ को देखते हुए उसका चित्र मन में बनाया। उस विचारचित्र में स्थूल पहाड़ का पूरा द्रव्यमान दबाया हुआ समझ सकते हो आप। मतलब अगर पूरी सृष्टि का चित्र बने, तो उसमें भी पूरी सृष्टि का वजन समाया होगा। इसीलिए मन का विचार इतना बड़ा गड्ढा बनाता है आकाश में कि नया अनंत जीवाकाश ही बन जाता है। पर विचार का द्रव्यमान अनंत कैसे हो सकता है। यह तभी संभव है, अगर विचार बनाने वाली भौतिक तरंग शून्य स्थान घेरे, ब्लैकहोल की सिंगुलरिटी की तरह। ऐसा तो है ही। विचार न तरंगरूप है और न कणरूप। मतलब विचाररूपी आभासी हलचल का अपना पृथक अस्तित्व नहीं है। बाहर की वस्तु जैसा आभासी चित्र बनाने वाली कोई शून्य की हलचल है, अपना अस्तित्व नहीं है इसका। यह शायद हलचल भी नहीं है, क्योंकि हलचल भी कुछ समय के लिए रहती है, पर विचार तो एक सेकंड से भी कम समय में गायब हो सकता है। इसीलिए विचार शून्य स्थान घेरता है। वैसे भी जब खुद है ही नहीं, बल्कि बाहर की परछाई है, तो शून्यरूप ही हुई। फिर तो अगर छोटे से पत्थर का चित्र भी मन में बना, उसका भी अनंत द्रव्यमान होगा। फिर तो बोल सकते हैं कि अगर ऐसा है तब तो पानी में बना पेड़ का छायाचित्र भी अनंत द्रव्यमान लिए होगा और एक स्वतंत्र अनंत जीवाकाश बनाएगा। पर ऐसा तो नहीं होता। शायद मस्तिष्क में बने छायाचित्र में ही यह विशेष खासियत है, जो और कहीं नहीं है। या यूं कह सकते हैं कि मस्तिष्क में बना विचार ही शून्यरूप है। यह गौर करने का विषय है कि हम अपने ही उन विचारों से कैसे घबराए रहते हैं जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। हम इसलिए हमेशा तनाव में रहते हैं क्योंकि विचारों को हम स्थूल व भौतिक मान के चले होते हैं। यह तो वैज्ञानिक शोध का विषय भी है कि विचार की प्रकृति क्या है। पर विचारप्रयोग से हमने मोटे तौर पर बता दिया है। अगर ब्लैकहोल से अनुमान लगाएं, तो शायद उसमें भी विशाल तारे की परछाई मात्र ही बची रहती है, वह भी मस्तिष्क में बने चित्र की तरह, और कुछ नहीं। परछाई चिदाकाश मतलब मूलाकाश मतलब परमात्मा पर बनती है, जीव के मन की परछाई की तरह आत्मा में नहीं। तारे का पूरा द्रव्यमान उस परछाई में समाया होता है। और वह परछाई पूरे अनंत आकाश में छाई होती है, जैसे आदमी की आत्मा या अचेतन मन में बने चित्र को हम चिह्नित नहीं कर सकते कि वह कहां है। वह पूरे आत्माकाश में छाया होता है। इसीको नए आकाश का निर्माण होना कहते हैं। हरेक ब्लैकहोल बने तारे का पृथक अस्तित्व एक ही आकाश के अंदर पृथक परछाई के रूप में रहता है। यह ऐसे ही है जेसे हरेक जीवात्मा का पृथक अस्तित्व एक ही परमात्मा के अन्दर एक पृथक परछाई के रूप में होता है। शायद इसी परछाई या छवि को डार्क एनर्जी कहते हैं। जो तारे ब्लैकहोल नहीं बनाते, वे सुपर डार्क एनर्जी में विलीन हो जाते हैं। यह सुपर डार्क एनर्जी एकप्रकार का जनरल पूल है मूल अनंत आकाश में फैला हुआ, जिससे अंतरिक्षीय पिंड बनते रहते हैं, और उसमें ही विलीन होते रहते हैं। शायद वर्चुअल पार्टिकल भी इससे ही अंदर बाहर कूदते रहते हैं। इसीको मैंने एक पिछली पोस्ट में कहा था कि कम वजन वाले तारे ब्लैकहोल रूपी जन्ममरण के चक्कर में न पड़कर मुक्त हो जाते हैं। यह सुपर डार्क एनर्जी भारतीय दर्शन की मूल प्रकृति की तरह है। दोनों में हूबहू समानता है। दोनों ही शाश्वत हैं। दोनों से ही सृजन होता है। दोनों एक ही चीज़ है, सिर्फ विषयानुसार कहने भर का फर्क है। मूल प्रकृति से जीवात्मा या जीव का उद्गम होता है, तो सुपर डार्क एनर्जी से ब्रह्मांड का। जो भी भौतिक पदार्थ बनता है, वह सीधा मूल अनंत आकाश से नहीं बनता, पर उसमें व्याप्त सुपर डार्क एनर्जी से बनता है। इसी तरह कोई भी जीव सीधा परमात्मा से नहीं आता, पर मूल प्रकृति से आता है। पर दोनों में से किसी में भी सबका लय हो सकता है, हालांकि पूरी तरह सुपर डार्क एनर्जी में नहीं, पर इसके अन्दर एनकोडिड व्यक्तिगत डार्क एनर्जी के रूप में। अब कोई कहे कि अगर जीवात्मा या तारा मूल प्रकृति में गया, तो वह मुक्त होकर परमात्मा से कब मिला। मतलब साफ है कि मूल प्रकृति और परमात्मा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसीलिए कह रहे हैं कि मूल प्रकृति से कोई आ ही सकता है, इसके अंदर जा नहीं सकता। परमात्मा अनंत चेतन आकाश है तो मूल प्रकृति उसकी छाया। दरअसल वह छाया अनुभवरूप नहीं है, फिर भी उसका आभासी या काल्पनिक या सैद्धांतिक अस्तित्व तो है। वह होकर भी नहीं है। मतलब कि मूल प्रकृति में गया तो परमात्मा में ही गया, क्योंकि अनुभव तो वह अपने परमात्मरूप को ही करेगा। जीवात्मा के आने के लिए तो वह ठीक है, कि जीवात्मा ने उस परमात्मा की परछाई से कभी जन्ममरण वाली जीवन यात्रा शुरु की थी, क्योंकि परमात्मा कभी भी जीवनयात्रा या जन्ममरण के बंधन में बंध ही नहीं सकता। पर यात्रा का अंत परमात्मा में जाकर ही होता है, उसकी परछाईं में नहीं।
वैज्ञानिक भी शंका जाहिर कर रहे हैं कि शायद ब्लैकहोल ने ही डार्क एनर्जी बनाई हो। यह ऐसा ही है जैसे कई भारतीय दर्शन इसपर वादविवाद करते हुऐ कहते थे कि मूल प्रकृति का अपना अस्तित्व नहीं, उसे जीव ने अपनी आत्मा के अज्ञान के अंधेरे से बनाया है। पर शास्त्रों का निष्कर्ष मानें तो ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि डार्क एनर्जी या मूल प्रकृति अनादि कही गई है। हां उल्टा जरूर हुआ है कि उससे अंतरिक्षीय पिंड बने हैं, जिनसे ब्लैकहोल बने हैं। बेशक वे उसमें बारबार विलीन होते रहते हैं, और उससे जन्म लेते रहते हैं, जीवात्मा की तरह। पर मुझे तो दोनों ही बातें सही लगती हैं शास्त्रों के अनुसार। मतलब सुपर डार्क एनर्जी और ब्लैकहोल एकदूसरे को बनाते रहते हैं। संभवतः ब्लैकहोल से जो हॉकिंस रेडिएशन निकलती रहती है, वह सुपर डार्क एनर्जी में एड अप होती रहती है। जरूरी नहीं कि हॉकिंग रेडिएशन से ब्लैकहोल की सारी डार्क एनर्जी बाहर निकालकर ही वह अंधेरे से मुक्त होता है, बल्कि थोड़ी सी डार्क एनर्जी निकालने से भी वह काम हो जाता है। इतनी डार्क एनर्जी को इतनी कम विकिरणस्राव रप्तार से कौन पूरा बाहर निकाल सकता है। अगर ऐसा होता है तो इसमें बहुत ज्यादा समय लगेगा, जो अव्यवहारिक है। इसी तरह आदमी को कुंडलिनी योग से मन का सारा अंधेरकचरा बाहर निकालने की जरूरत नहीं, बल्कि लंबे समय तक थोड़ा थोड़ा कचरा निकालने से भी जागृति या मुक्ति मिल ही जाती है। असंख्य जन्मों से इकट्ठे हुए असीमित कचरे को भला पूरा कौन निकाल सकता है।
हिंदू शास्त्रों में आता है कि सृष्टि के प्रारंभ से पहले परमात्मा के मन में एक ही विचार पैदा हुआ, एकोहम बहुस्याम, मतलब मैं एक हूं, बहुत सा बन जाऊं। शायद यही विचार तथाकथित सिंगुलरिटी तक सिकुड़ा हुआ अनंत द्रव्यमान है। संभवतः उस विचार से ही आकाश में छेद हो गया। एक नया अनंत आकाश बन गया। पर भ्रम से वह अपने पूर्ण प्रकाश को भूल गया, हालांकि मूल परमात्मा पूर्ववत अप्रभावित रहा। यही सुपर डार्क एनर्जी है। इसीसे सृष्टि बनती है, और इसीसे उसका विस्तार होता है। वैसे ही जैसे आदमी के मन के अंधेरे में विचारों की प्रकाशमान दुनिया विकसित होती है। वही सुपर डार्क एनर्जी ब्रह्मा का मूल मन है, और उसके मन में विचारों का विकास ही सृष्टि निर्माण है। फिर ब्रह्मा ने पूछा कि सृष्टि कैसे बनाऊं, तो ब्रह्म यानि परमात्मा ने कहा कि यथापूर्वमकल्पयत अर्थात जैसे पहले बनाई थी। इसका मतलब है कि कोड रूप में पिछली सृष्टि की सूचना ब्रह्मा की याददाश्त के रूप में रहती है।
हिंदु दर्शन बोलता है कि मन के विचारों के प्रति आसक्ति से ही अज्ञान या अंधकार पैदा होता है। यह बात वैज्ञानिक ही तो है। आसक्ति मतलब पकड़कर रखना या चिपकना। ब्लैकहोल भी तो अपने अंदर की सिंगुलरिटीरूपी विचार को पकड़कर रखता है। यह अलग बात है कि हॉकिंग रेडिएशन से उसे बाहर फेंकने की कोशिश भी करता है। आदमी भी योग, विपश्यना, अनासक्तिपूर्ण जीवनयापन आदि से विचारों को बाहर भगाता ही रहता है। यह अलग बात है कि कब इसमें पूरी सफलता मिले।
विज्ञानी कहते हैं कि ब्लैकहोल की सिंगुलरिटी में स्पेसटाईम शून्य हो जाते हैं। फिर बिगबैंग के समय वे फिर से फैलने लगते हैं, जिससे ब्रह्मांड का निर्माण शुरु हो जाता है, और वह आगे से आगे फैलने लगता है। जरा ध्यान से सोचें तो सिंपल सी बात है। कोई ज्यादा गणित लगाने की जरूरत नहीं है। भीतर से सोचते हैं। बाहर तो भीतर की तरह ही है। यही अध्यात्म की खासियत है कि यह भीतर को समझता है, पर विज्ञान बाहर को समझता है। भीतर समझना आसान भी है, सस्ता भी है और सर्वसुलभ भी। बाहर तो बखेड़ा और परेशानी ज्यादा है। महंगा भी है, और सर्वसुलभ भी नहीं। जब अनंत आत्मा के प्रकाशमान आकाश में अंधेरा छा गया, तब वह होते हुए भी शून्य ही है। है तो उसमें परमात्मा अर्थात सबकुछ पर अंधेरे में किस काम का। अगर फाईव स्टार होटल में अंधेरा छा जाए तो वह किस काम का। वह तो न होने की तरह ही है। इसी को स्पेसटाईम शून्य होना कहा गया है। फिर वह फैलने लगता है, विचारों के ब्रह्मांड के रूप में। वह स्पेसटाईम ही फैल रहा है, क्योंकि उसीकी तरंगें ही तो विचारों के रूप में हैं। फैलना बंद होएगा तब, जब अंतिम छोर पा लेगा मतलब अनंत चैतन्य अंतरिक्ष अर्थात मुक्ति।