दोस्तो, महाभारत में अश्वत्थामा नाम का एक महान व्यक्ति चरित्र है। उनको भगवान शिव का अवतार कहा गया है। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य कौरवों और पांडवों के गुरु थे। वे सभी विद्याओं में प्रवीण थे, पारलौकिक ब्रह्मविद्या में भी। वे ब्राह्मण थे, और उस समय असली ब्राह्मण उसीको समझा जाता था, जिसे ब्रह्मविद्या आती थी। नाम के ब्राह्मण तो बहुतेरे होते थे। ब्रह्मविद्या कुंडलिनीविद्या का ही पर्याय है, क्योंकि दोनों से ब्रह्मरूप जागृति की प्राप्ति होती है। द्रोणाचार्य के पास सबसे बड़ा युद्धास्त्र माने ब्रह्मास्त्र भी था। ब्रह्मास्त्र में पूरी सृष्टि को जलाने की क्षमता होती है, नाभिकीय हथियार की तरह। द्रोणाचार्य ने वह अतिगुप्त ब्रह्मास्त्रविद्या सिर्फ अपने पुत्र अश्वत्थामा को प्रदान की थी, अपने सर्वप्रिय शिष्य अर्जुन को भी नहीं। जब कौरव हार गए, तब उससे हताश और दुखी दुर्योधन ने अश्वत्थामा से मदद मांगी। वह भी अपने प्रिय मित्र की मांग को ठुकरा नहीं सका। वह रात के अंधेरे में पांडवगृह से पांच सोए हुए पुरुषों को पांडव समझ कर उनके सिर काट कर ले गया। दरअसल वे पांडवों के पांच पुत्र थे। द्रौपदी के विलाप से गुस्से से भरकर अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ रथ पे बैठकर उसका पीछा करने लगे। अश्वत्थामा डरकर भाग गया और उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र अर्थात ब्रह्मशिर अस्त्र चला दिया। उससे सारी सृष्टि को खतरा पैदा हो गया। उसकी तेज चमक से सृष्टि जलने लग पड़ी। उससे सभी दिशाओं में प्रचंड तेज पैदा हो गया। अपने प्राणों पर आई हुई आपत्ति को देखकर अर्जुन दुखी हुए और उनका तेज नष्ट हो गया। श्रीकृष्ण भी उस अस्त्र को नहीं रोक पा रहे थे। उसे रोकने की विद्या अश्वत्थामा ने अपने पिता से नहीं सीखी थी। अश्वत्थामा भी अपनी गलती महसूस कर रहा था, पर कुछ नहीं कर पा रहा था। उसे श्रीकृष्ण समेत सबने बहुत लताड़ा कि जब उसे ब्रह्मास्त्र को रोकना नहीं आता था, तब उसने उसे क्यों चलाया। फिर श्रीकृष्ण की सलाह से अर्जुन ने भगवान शिव का ध्यान करते हुए उनके द्वारा प्रदत्त शैवास्त्र अर्थात पाशुपत अस्त्र को चला कर उसे शान्त किया। उससे होने वाला नुकसान टल गया, हालांकि वह उत्तरा के गर्भ को जलाने की कोशिश कर रहा था पर श्रीकृष्ण ने उसे पाशुपत अस्त्र के प्रयोग तक बचा लिया था।
उपरोक्त कथा का अध्यात्मवैज्ञानिक विश्लेषण
पहली बात, साथ के एक श्लोक में इस ब्रह्मास्त्र को वही ब्रह्मशिर तीर भी कहा गया है, जिसको ऋषि दधिचि के मेरुदंड से बना कर उससे दैत्य वृत्रासुर को मारा गया था। हाल की पुरानी पोस्ट में हमने सिद्ध किया था कि वह जागृत सुषुम्ना रूपी शक्तिरेखा है। दूसरा, अश्वत्थामा एक ज्ञानी ब्राह्मण था, जिसको उसके वेदपारंगत पिता द्रोणाचार्य ने सारी शिक्षादीक्षा दी थी। ब्राह्मण का काम वेदों के अध्ययन व अध्यापन का होता है, अस्त्रशस्त्रों से उनको क्या लेना देना। अगर कोई कहे कि बेशक लड़ना क्षत्रियों का काम था, पर लड़ाई करना सिखाना ब्राह्मणों का काम होता था, तो यह बात कुछ जंचती नहीं। जो खुद ही लड़ना न जाने, वह औरों को क्या लड़ना सिखाएगा। मुझे तो उनके लिए प्रयुक्त यह अस्त्रशस्त्रों की भाषा अलंकारिक लगती है। ऐसा इसलिए भी किया गया होगा ताकि ऐसा न हो कि यौद्धा क्षत्रिय अहंकार में आकर ब्राह्मणों के नियंत्रण में न रहें। वैसे भी बुद्धि को सबसे बड़ा अस्त्र माना गया है, क्योंकि बुद्धिकौशल से बड़े से बड़ा युद्ध भी जीता या टाला जा सकता है, और बुद्धि ब्राह्मण के पास बहुतेरी होती है। महाभारत का युद्ध भी मुझे मानसिक युद्ध लगता है। काफी समय पहले अखबारों और सोशल मीडिया में कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध के रेडियोधर्मी विकिरण होने की खबरें पढ़ी थीं। लिखा था कि फलां वैज्ञानिकों ने जांच की तो टेस्ट पॉजिटिव निकले। पता नहीं मनगढ़ंत बातों को कैसे सच की तरह पेश कर देते हैं, कहां से वैज्ञानिक लाते हैं, और कहां पे जांच करा देते हैं। गहराई से पता करने पर पता चला कि इसकी कोई वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हुई है, और इसे अभी तक माइथोलॉजी ही माना गया है। यह अलग बात है कि इसे पूरी तरह जुठलाया नहीं जा सकता, क्योंकि जो भीतर सूक्ष्म रूप में हो रहा है, वही बाहर भी स्थूल रूप में हो रहा है। ब्रह्मास्ञ मन के सूक्ष्म संसार को नष्ट करता है, और नाभिकीय हथियार बाहर स्थित बिल्कुल उसी रूप वाले स्थूल संसार को। वास्तव में सबकुछ सूक्ष्म ही है। शायद आम आदमी के अंदर अध्यात्म के प्रति जिज्ञासा बढ़ाने के लिए ही ऐसी अर्धसत्य जैसी कथाएं गढ़ी जाती हैं। एक बात और, अगर पुराणों में वर्णित युद्ध असली भौतिक युद्ध होते, तो हिंदु कौम सबसे लड़ाकी कौम होती, पर ऐसा नहीं है, बल्कि इसका बिल्कुल उलटा लगता है। हिंदु तो आज सिमटते दिख रहे हैं। साथ में, सूर्यास्त से सूर्योदय तक युद्ध को बंद रखा जाता था। जीवनयुद्ध में ही ऐसा होता है, जब दिन में लोग काम करते हैं, और रात्रि को सो जाते हैं। इन सबसे यही जाहिर होता है कि वे युद्ध मन के दोषों के खिलाफ कुंडलिनी शक्ति द्वारा शरीर में ही लड़े जाते थे। उन्हें रोचक बनाने के लिए ही उन्हें बाहर और असली की तरह दिखया गया है। यह अलग बात है कि जैसा शरीर के अंदर होता है, उसके बाहर भी वैसा ही होता है। दुर्योधन मतलब मुश्किल से युद्ध में जीता जाने वाला व्यक्ति मुझे अहंकार का प्रतीक प्रतीत होता है। कौरव सौ भाई थे। कहावत भी प्रचलित है कि फलां में सौ दुर्गुण हैं। मैं महाभारत के इतिहासरूप होने से भी इनकार नहीं कर रहा हूं। हो सकता है कि दोनों ही बातें सही हों। इससे भी यही जाहिर होता है कि ब्रह्मास्त्र जागृत सुषुम्ना ही है। अश्वत्थामा ने उसे अर्जुन पर चलाया, मतलब अपनी दृष्टि के शक्तिपात से वह अर्जुन के अंदर कुंडलिनी जागृत करने लगा। वैसे भी अश्वत्थामा जागृत व्यक्ति था। इसका प्रमाण उसके माथे की मणि है। दरअसल वह जागृत आज्ञा चक्र अर्थात खुली हुई तीसरी आंख है। अचानक कुंडलिनी जागृत होने से वैसी ही बेचैनी होगी, जैसी वर्षों तक अंधेरी गुफा में रहने वाले आदमी को एकदम बाहर धूप में निकालकर होती है। उससे सभी दिशाओं में प्रचंड तेज पैदा हो गया, मतलब अर्जुन के मस्तिष्क में चारों ओर चमक छा गई, क्योंकि मस्तिष्क के अंदर ही सारा ब्रह्मांड है। जागृति के समय अजीब सी अनहोनी का डर तो लगता ही है, हालांकि वह सामान्य डर से अलग होता है। वह आनंद, प्रकाश और सुकून से भरा होता है। साथ में नष्ट होते अहंकार मतलब खत्म होते अपने व्यक्तित्व के कारण आसन्न मृत्यु के जैसा आभास भी हो सकता है। यह आभास भी मृत्यु से अलग और प्रकाशपूर्ण व सत्तापूर्ण होता है। आदमी को लग सकता है कि वह किसी शान्त दिव्यलोक या मुक्तिलोक की ओर जा रहा है। इससे अर्जुन दुखी हुए और उनका तेज नष्ट हो गया। दरअसल अहंकार का तेज नष्ट हुआ, ब्रह्मतेज तो बढ़ रहा था। लड़ाई तो अहंकार का तेज करता है, ब्रह्मतेज तो सबकुछ भुलाकर संन्यासी सा बनाता है। समझ लो कि अर्जुन को कुंडलिनी जागरण हुआ या वह उसकी तरफ़ बढ़ा। उससे उसके ऊपर कुंडलिनी जागरण के सहदोष मतलब साईड इफैक्ट पैदा हुए। इन्हीं का अलंकरिक वर्णन हो रहा है। जीवन एक युद्ध ही है। अगर आदमी कुंडलिनी के बोझ से दबेगा, तो जीवनयुद्ध में कैसे लड़ेगा, दुर्योधनरूपी अहंकार को कैसे मारेगा। समस्या यह है कि अश्वत्थामा जैसा शुद्ध और सात्विक ब्राह्मण इतनी ऊर्जा कहां से लाए, जो उन कुंडलिनीदोषों को नष्ट करवा सके। वह उस समय कुंवारा लड़का था, इसलिए गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शक्तिस्रोत तांत्रिक तकनीकें नहीं सिखाई थीं। पर विवाहित अर्जुन ने भगवान शिव से वे वामाचारी तकनीकें पहले ही सीख ली थीं, जिनको शैवास्त्र या पाशुपत अस्त्र का नाम दिया गया है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उनकी याद दिलाई। अश्वत्थामा शिव का अवतार था, क्योंकि वह दुर्गुण रूपी कौरवों का साथ दे रहा था। शिव भी तो बाहर से देखने पर दुर्गुणी तांत्रिक ही लगते हैं। वे हमेशा ही राक्षसों के पक्ष में रहते हैं, पर जब देवता उन्हें मनाते हैं, तो देवताओं के पाले में आ जाते हैं। भोले हैं न। उन्हें हरकोई आसानी से गुमराह भी कर सकता और मना भी सकता है। पांडवों ने कृष्ण के साथ मिलकर सजा के तौर पर उसके माथे से मणि निकाल दी थी। इसका मतलब है कि अगर कोई शैवतंत्र के समुचित ज्ञान के बिना शिव के जैसा बनने की कोशिश करेगा, वह जागृत होकर भी मार्गभ्रष्ट हो जाएगा। यह उसके लिए मृत्युदंड के समान ही है। द्रोणाचार्य ने ब्रह्मास्त्र विद्या अपने शिष्यों को क्यों नहीं सिखाई, और सिर्फ अपने पुत्र अश्वत्थामा को ही क्यों सिखाई। लौकिक विद्या में तो इसका उल्टा होता है, मतलब अध्यापक अपने विद्यार्थियों को तो सबकुछ सिखा सकता है, पर अपने पुत्र को कुछ भी नहीं सिखा पाता, उसके लिए अलग से ट्यूशन रखवानी पड़ती है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि वह पारलौकिक योगविद्या थी। वह किसी के सिखाने से कम समझ आती है, पर अपने वर्तमान परिवार और पूर्वजों की निरंतर संगति और संस्कारों से बिना सिखाए खुद ही सीखने में आ जाती है। एक बात और, भौतिक अस्त्र ऐसा तो नहीं करता कि महिला को नुकसान पहुंचाए बिना उसके गर्भ में पल रहे बच्चे तक पहुंच जाए। हां, नाभिकीय हथियार के विकिरण ऐसा कर सकते हैं। पर उससे तो अनगिनत औरतों के गर्भ को नुकसान पहुंचता है, सिर्फ अकेली चुनी हुई महिला के गर्भ को नहीं। कुंडलिनी को डीएनए प्रभावित करने वाला कहते हैं। क्योंकि वे सभी एक ही परिवार के सदस्य थे, इसलिए सभी के डीएनए आपस में जुड़े थे। क्योंकि गर्भस्थ शिशु सबसे ज्यादा कोमल होता है, इसलिए उसका डीएनए सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि चारों ओर गहरी और जलाने वाली चमक है, जिसे भगवान कृष्ण अपने सुदर्शन चक्र से शांत कर रहे थे। दरअसल जब कुंडलिनी शक्ति मस्तिष्क में पहुंचती है, तो उसके दुष्प्रभावों से बचाने के लिए उसके बीच में खुद ही एक ध्यानचित्र प्रकट हो जाता है। संभवतः उसके रूप में ही श्रीकृष्ण थे। श्रीकृष्ण ही इसलिए क्योंकि वे ही उसके परिवार के सबसे नजदीकी, सबसे प्रिय और सबसे सम्माननीय थे।
महाभारत को पांचवां वेद कहते हैं। वेद में परम तत्त्व का अनुभवात्मक व गूढ़ वर्णन है। उसी को पुराणों और महाभारत में सरल किया गया है, माईथोलोजिकल कथाओं से। उनमें भौतिक विज्ञान का क्या काम। हालांकि स्थूल भौतिक जगत के अंदर भी वही है, जो मन और आत्मा के अंदर है, पर मुख्य फोकस मन, आत्मा और उससे जुड़े शरीर के पहलुओं पर रखा गया है। कृष्ण आत्मा है। पांच पांडव उनके पांच प्राण हैं। यह श्रीकृष्ण ने खुद भी कहा है। अर्जुन मुख्य प्राण है। सैकड़ों किस्म के दुनियावी व पापी विचार सौ कौरव भाई हैं। वे लगातार प्राणों की शक्ति को हरते रहते हैं। वे उन्हें आत्मा से दूर रखना चाहते हैं। कृष्ण का सबसे प्रिय मित्र अर्जुन है। प्राण ही आत्मा से मिलने के लिए ऊपर उठता है। प्राण सांसों को शक्ति देता है। वही आत्मा के सबसे निकट रहता है। इसीलिए जागृति के समय सांस शांत जैसी हो जाती है। सांसों के बल से ही शक्ति ऊपर चढ़ती है। अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र चलाया मतलब योग ने प्राण को जागृति के लिए उकसाया। सात चक्र पांडवों के सात पुत्र हैं। प्राणों से ही चक्र क्रियाशील होते हैं। पांच पुत्रों को अश्वत्थामा ने मार दिया मतलब सैंकड़ों बुराईयों के बीच फंसी हुई योग आदि के रूप वाली अच्छी सांसारिक क्रियाशीलता ने पांच चक्रों का भेदन कर दिया। वैसे भी भौतिक क्रियाशीलता से सबसे अधिक दबाव मूलाधार चक्र पर ही पड़ता है, क्योंकि यह कमर के जोड़ के करीब होता है। योग से यह दबाव ज्यादा हो जाता है, क्योंकि इसमें हम ज्यादा झुकते हैं, ज्यादा समय के लिए झुकते हैं, और सांस रोककर झुकते हैं। पिछले स्वाधिष्ठान चक्र की जो उभरी हुई हिप बोन की हड्डी होती है, के बिल्कुल साथ लगता ऊपर की तरफ़ एक गड्ढा सा होता है, मुझे तो वही असली मूलाधार लगता है, या मूलाधार के साथ उसका सीधा सम्बन्ध होता है। उसमें गहरी मालिश करने से यौनानंद जैसी तेज संवेदना की अनुभूति होती है जो ऊपर की ओर चढ़ती है। पाण्डवों के पुत्रों में अभिमन्यु और घटोत्कच बचे रहे मतलब सबसे ऊपर के दो मुख्य चक्रों का भेदन नहीं हुआ। इसीलिए अर्जुन से कुंडलिनी के लक्षण झेले नहीं गए। अब इसे मनगढ़ंत बनाई हुई कहानी कहो या महाकाव्य लेखक ऋषि के द्वारा बनाई गई असली योग कहानी, पर बनी अच्छी और तथ्यात्मक है।
इस कथा का एक दूसरा पक्ष भी है। द्रौण एक पर्वत का नाम भी है। द्रोणाचार्य मतलब पर्वतों को नियंत्रित करने वाले आचार्य। वैसे भी उन्होंने द्रौण पर्वत पर तपस्या की थी। अस्थियों को पर्वत ही कहा गया है कई स्थानों पर। योग आदि अस्थियों से ही होते हैं। इसीलिए तो अश्वत्थामा योगसाधना को कह रहा हूं। जब योग से चक्रों का भेदन हुआ, तो उनमें दबी हुईं भावनाएं बाहर निकलकर विलुप्त हो गईं, मतलब पूरी तरह मर गईं। इसी से उनकी माता बुद्धि मतलब द्रौपदी दुख से रोने लगी, क्योंकि उसीके कार्यों की बदौलत वे भावनाएं निर्मित हुई थीं। आत्मा कृष्ण के साथ प्राण अर्जुन भी इससे उद्विग्न जैसे हो गए और वे योग को रोकने मतलब अश्वत्थामा को पकड़ने के लिए दौड़े। पर तब तक सुषुम्ना जागृत हो गई थी, मतलब उसने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया था। वैसे भी सहस्रार चक्र को ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं। अश्वत्थामा दुर्योधन की ही मित्रता निभा रहा था, क्योंकि स्वार्थ से भरी दुनियादारी से जब आदमी थक या ऊब जाता है, तब खुद ही योग अपनाता है। प्राण उस जागृत कुंडलिनी के तेज को झेल नहीं पाया, इसलिए उसने उसे माथे को मलते हुए आज्ञाचक्र तक नीचे उतार दिया। फिर वह पता नहीं कहां विलीन हो गई। यही अश्वत्थामा के माथे से मणि निकालना है। जागृति के बाद आदमी बच्चे की तरह बनकर नया जन्म सा महसूस करता है। यही अश्वत्थामा का पूर्ण मुंडन है। अगर ब्रह्मास्त्र भौतिक अस्त्र होता तो उसकी चमक व अन्य प्रभाव सभी को महसूस होते, पर वह सिर्फ अर्जुन को ही महसूस हुआ, क्योंकि वह उसके अंदर था। कृष्ण तो साक्षात आत्मापरमात्मा हैं, उन्हें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे हमेशा जागृत ही हैं। शैवास्त्र तो दुनियादारी वाला आसक्त जैसा मन है। तंत्र के पंचमकार सबसे बड़ी दुनियादारी है। उसका ध्यान या दर्शन करके वह शैवास्त्र चल पड़ा जिससे ब्रह्मास्त्र शान्त हो गया। हो सकता है कि आसपास कोई स्त्रियों आदि का नाचगाना या समारोह चल रहा हो। उनकी तरफ ध्यान देते ही शैवास्त्र चल पड़ा हो। दरअसल आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र भी क्रियाशील हो जाने चाहिए, तभी कुंडलिनी जागरण अच्छी तरह से झेला जा सकता है। आज्ञाचक्त के क्रियाशील होने से बुद्धि के प्रकट और अप्रकट जटिल विचार भस्मीभूत हो जाते हैं। इसी तरह सहस्रार चक्र के क्रियाशील होने से वहां पर रक्तसंचार बढ़ जाता है, जिससे जागृति का दबाव झेला जा सके। साथ में, क्रियाशील व दबे हुए अनर्गल दृश्य विचार भी भस्म हो जाते हैं।
अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु था और उसका पुत्र परीक्षित था जो उत्तरा के गर्भ में श्रीकृष्ण को देख रहा था। वह बाहर आकर भी सबमें कृष्ण की परीक्षा करता रहता था, इसीलिए उसका नाम परीक्षित पड़ा। अभिमन्यु का शाब्दिक अर्थ है, बहुत क्रोध। दरअसल प्राणों से ही क्रोध अभिव्यक्त होता है। वह क्रोध दुर्योधन जैसी कपटी दुनियादारी की तरफ़ था। पर वह ऊपरऊपर की सोच के अंदर दबा था, गहरी सोच के अंदर नहीं। मतलब अर्जुन उनसे ऊपरऊपर से नफरत करता था, गहराई में नहीं। उत का शाब्दिक अर्थ है ऊपर, और तरा का मतलब तैरने वाली। इससे क्रोध की शक्ति कुंडलिनी ध्यानचित्र के रूप में रूपांतरित हो रही थी। इसी से कृष्णरूप ध्यानचित्र परीक्षितरूपी नवजीव को महसूस हो रहा था। नया जीव इसलिए क्योंकि ध्यानचित्र से जीव रूपांतरित होकर नया सा बन जाता है। फिर वह रूपांतरित व्यक्ति बड़ा होकर भी उसी ध्यानचित्र को हर जगह ढूंढता और परखता रहता था, क्योंकि वह बहुत आनंदकारी और हितैषी होता है। जब वह मन में ही सूक्ष्म रूप में इतना अच्छा है, तब भौतिक रूप में कितना ज्यादा अच्छा होगा। पर भौतिक रूप की अपनी बाध्यताएं होती हैं। इसलिए वह कहीं नहीं मिलता। आदमी हर जगह परीक्षा ही करता रह जाता है। हरेक आदमी खासकर जागृत आदमी परीक्षित है।
एक बात और, जिस चक्रव्यूह में अभिमन्यु घुसा था, उसमें सात तहें थीं। एक तो नाम भी चक्र, और गिनती भी शरीर के चक्रों के बराबर। दोनों ही एक के ऊपर एक परत के रूप में होते हैं। मूलाधार चक्र अपने तक ही सीमित है, स्वाधिष्ठान चक्र उसको भी कवर करता है आदि। इस तरह ऊपर वाला चक्र नीचे वालों को भी समेटता है। सहस्रार सभी चक्रों को कवर करता है। जब आदमी किसी पर क्रोध के कारण चक्रसाधना में घुसता है, तब वह अंदर तो घुस पाता है, पर बाहर नहीं निकल पाता, क्योंकि साधना के प्रभाव से क्रोध खत्म हो जाता है। ध्रुव अपनी सौतेली मां के प्रति क्रोध से भरकर ही भगवान विष्णु को खोजने निकला था, पर जब वे मिल गए, तब उसका क्रोध खत्म हो गया और उसे वही मां बहुत प्रिय लगने लगी। शायद भगवान राम के साथ भी ऐसा ही हुआ, इसीलिए उनका बुरा चाहने वाली सौतेली मां उन्हें सबसे प्रिय लगती थीं।