शिव पार्वती सहस्रार में मिलने के बाद विभिन्न चक्रों पर भ्रमण करते हैं। दरअसल असली शिव तो पूर्ण अद्वैत रूप परब्रह्म परमात्मा हैं। असली पार्वती मानसिक ध्यान चित्र है। जो पुरुष और स्त्री के शरीर प्रणयप्रेम में बंधे हैं, वे मात्र एक माध्यम या सहायक हैं, असली शिव और पार्वती का मिलन कराने के लिए। वे दोनों शरीर पहले एकांत स्थान में जाते हैं, जहां किसी का व्यवधान न हो। शिव और पार्वती उसके लिए एक गुफा में गए जहां एक हजार साल तक प्रणय करते रहे। इस एकांत स्थान को सहस्रार चक्र कह सकते हैं। वहां शिव को जागृति प्राप्त हुई। फिर दोनों विभिन्न स्थानों पर घूमने लगे। दरअसल कोई स्थान किसी चक्र विशेष से जुड़ा होता है तो कोई किसी से। इसीलिए कभी कोई चक्र क्रियाशील होता रहा तो कभी कोई। जो चक्र क्रियाशील होता है, वहां ध्यान चित्र अर्थात असली पार्वती भी केंद्रित हो जाती है, यह योग का नियम है। उससे वहां अद्वैतानंदरूप आत्मा अर्थात असली शिव भी ज्यादा अभिव्यक्त होता है, क्योंकि शिव और पार्वती साथ रहना चाहते हैं। शरीरधारी शिवपार्वती अशरीरी शिवपार्वती के सहयोगी हैं, विरोधी नहीं। इसलिए अगर कोई कहे कि असली जागृति तो मन के भीतर असली शिवपार्वती के मिलन से होती है, शारीरिक रोमांस अर्थात प्रणय का इसमें कोई योगदान नहीं, तो यह युक्तियुक्त नहीं लगता है।
शरीरी शिव के अंदर अशरीरी शिव अद्वैतब्रह्म के रूप में है, और अशरीरी पार्वती मानसिक कुंडलिनीध्यानचित्र के रूप में है। शरीरी शिव के अंदर बसी अशरीरी पार्वती जब अशरीरी शिव से पूर्णतः एकाकार हो जाती है, उसे शरीरी शिव का कुंडलिनी जागरण कहते हैं। इसमें शरीरी शिव की मदद शरीरी पार्वती प्रणय संबंध के जरिए करती है। इससे अशरीरी पार्वती को ज्यादा से ज्यादा अभिव्यक्त होने या स्पष्ट मानसिक चित्र बनने के लिए ज़रूरी यौनऊर्जा मिलती है। जिससे वह सहस्रार चक्र तक ऊपर उठकर अशरीरी शिव से एकरूप होकर जागृत हो जाती है।
अब शरीरी पार्वती का वर्णन करते हैं। शरीरी पार्वती का अशरीरी शिव भी उसी अद्वैतब्रह्म अर्थात निराकार ब्रह्म के रूप में ही है, और अशरीरी पार्वती उसका भी मानसिक ध्यानचित्र ही है। शरीरी पार्वती के अंदर बसी अशरीरी पार्वती जब अशरीरी शिव से पूर्णतः एकाकार हो जाती है, उसे ही शरीरी पार्वती का कुंडलिनी जागरण कहते हैं। इसमें शरीरी पार्वती की मदद शरीरी शिव प्रणय संबंध के जरिए करता है। इससे अशरीरी पार्वती को ज्यादा से ज्यादा अभिव्यक्त होने या स्पष्ट मानसिक चित्र बनने के लिए जरूरी ऊर्जा मिलती है। जिससे वह सहस्रार तक ऊपर उठकर अशरीरी शिव से एकरूप होकर जागृत हो जाती है।
अब जब जागृति हो गई है मतलब अशरीरी शिवपार्वती सहस्रार में पूरी तरह से एकजुट हो गए हैं, तो यह मिलन आगे के चैनल के माध्यम से नीचे उतरता है। यद्यपि निचले चक्रों में वे पूरी तरह से एकजुट नहीं होते हैं, पर ऐसा लगता है जैसे तीव्र ध्यान छवि को गहन आनंद के साथ अनुभव किया जा रहा है। सबसे पहले यह मिलन आज्ञा चक्र तक गिरता है। वहां ध्यान सहस्रार को छोड़कर सभी चक्रों में सबसे मजबूत है। फिर यह कंठ चक्र तक उतरता है। फिर हृदय चक्र, फिर मणिपुर चक्र, फिर स्वाधिष्ठान चक्र और अंत में मूलाधार चक्र। यहां यह मिलन बैक चैनल के माध्यम से सहस्रार चक्र में वापस लौटने के लिए तैयार हो जाता है, हालांकि कई कारणों से लंबे समय तक जागृति दोबारा नहीं होती है। शिवपार्वती का यह मिलन या जोड़ा चक्रों के समान विभिन्न स्थानों पर अस्थायी रूप से स्थित होकर पूरे ग्रह पर घूमता रहता है। आप सहस्रार को शिव लोक या कैलाश पर्वत, आज्ञा चक्र को अलकापुरी और इसी तरह अन्य सभी को अन्य लोक कह सकते हैं। आप सभी बारह चक्रों को द्वादश ज्योतिर्लिंग भी कह सकते हैं, जिनमें काशी भी एक है जो शिव को अत्यंत प्रिय है और वहां शिवपार्वती अक्सर आनंदपूर्वक विचरण करते नजर आते हैं।
पुरुष और स्त्री, दोनों के अंदर अशरीरी शिव और पार्वती समान रूप से स्थित हैं। स्त्रीशरीर को पार्वती या ध्यानचित्र का रूप इसलिए दिया गया है, क्योंकि दोनों के गुण ज्यादा मिलते हैं। पुरुषशरीर को शिव या ब्रह्म का रूप इसलिए दिया गया है क्योंकि दोनों के गुण आपस में ज्यादा मिलते हैं। इसका मतलब है कि सभी लोग कुछ न कुछ हद तक उभयलिंगी होते हैं, क्योंकि दोनों के अंदर अशरीरी शिवपार्वती समान रूप में मौजूद हैं, और दोनों के भौतिक शरीर भी अशरीरी शिवपार्वती से मेल खाते हैं, हालांकि अशरीरी शिव और अशरीरी पार्वती का अनुपात कम या ज्यादा होता रहता है। पर जो इन दोनों लिंगों को निडरता के साथ बाहर प्रकट करता है, उसे हिजड़ा या किन्नर कहकर अपमानित किया जाता है। इसके पीछे शरीरवैज्ञानिक दोष भी हो सकते हैं। प्राचीन भारत में इनका बहुत सम्मान होता था, और इन्हें विशिष्ट माना जाता था। गुलामी के दौर में यह सोच बदल गई थी। अब तो तीसरे लिंग को आधिकारिक और कानूनी दर्जा भी प्राप्त हो गया है। किन्नर यिनयांग अर्थात शिवशक्ति सम्मिलन का अच्छा उदाहरण होते हैं। इनमें कुंडलिनी शक्ति कूटकूट के भरी होती है। जब किसी स्त्री के संपर्क में आने से उसी जैसे परिचित पुरुष के संपर्क का भी अहसास हो तो समझ लो उसमें यिनयांग गठजोड़ बहुत ज्यादा और मजबूती से बंधे हैं। जागृति तक पहुंचने के लिए ऐसी पुरुषस्वभावी स्त्री का बड़ा योगदान होता है। उससे मन में हमेशा ही एक ध्यानचित्र मजबूती से बना रहता है, बिना किसी विशेष आध्यात्मिक प्रयास या योगाभ्यास के, या इनका थोड़ा अनुष्ठान ही काफी है। इससे तो यह भी संभव हो सकता है कि जब किसी पुरुष के संपर्क में होने से उसके जैसे स्वभाव वाली स्त्री के संपर्क का अहसास होने लगे, तो वह भी यिनयांग का भंडार है। पक्का ऐसा होता है, क्योंकि बहुतों का अनुभव भी ऐसा ही बोलता है। वे भी ध्यानसाधना और जागृति में सहयोग करते हैं। हां, एक बात और, समलैंगिक, गे, लेस्बियन आदि लोगों के बारे में अलग से लिखने की जरूरत नहीं लगती मुझे, क्योंकि ये भी मुझे किन्नरों की तरह ही उभयलिंगी या शिवशक्ति जैसे ही लगते हैं, मतलब इनमें पुरुष और स्त्री दोनों नजर आते हैं। दरअसल मूलसिद्धांत के रूप में होता यह है कि किन्नरों के प्रति जो संभोग की भावना पैदा होती है, उसमें संयम ज्यादा होता है किसी पूर्ण स्त्री या पुरुष की अपेक्षा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि स्त्री में पुरुष दिखता रहता है और पुरुष में स्त्री दिखती रहती है। इस विपरीत दर्शन से कामभाव नियंत्रित रूप में हमेशा बना रहता है, मतलब न तो यह आम अवस्था की तरह गायब होता है, और न ही अनियंत्रित रूप से बढ़कर आदमी को यौन अपराध या यौन दुराचार के दलदल में धकेलता है। इससे कामभाव के कारण जो ऊर्जा सहस्रार व अन्य चक्रों से स्वाधिष्ठान व मूलाधार चक्र को जाती है, वह उनसे संबंधित अंगों में क्रियाशीलता पैदा करके बैक चैनल से ऊपर चली जाती है एंप्लीफाय या प्रवर्धित होकर। मतलब वह ऊर्जा संभोग या स्खलन के रूप में बाहर नहीं निकलती। माइक्रोकोस्मिक ऑर्बिट में घूमती हुई ऊर्जा को बेहतरीन समझा जाता है, क्योंकि यह पूरे शरीर को तरोताजा भी करती रहती है, और मूलाधार के प्रभाव से अपने आप को प्रवर्धित भी करती रहती है। अब शायद कोई मुझे किन्नरवैज्ञानिक या किन्नर विशेषज्ञ का दर्जा न दे दे। इसलिए ज्यादा विस्तार में नहीं जाऊंगा। ये दोनों ही किस्म के व्यक्तित्व कुंडलिनी योग और जागृति में बहुत मदद करते हैं। तो क्यों न इसी तर्ज पर किन्नरों को यिनयांग मशीन या कुंडलिनी मशीन की तरह समझा जाए। संभवतः प्राचीन भारत में उनके सम्मान की यही मुख्य वजह थी। इसीलिए भारत में इनकी संख्या काफी है, और यहां इनका अपना पृथक समाज भी है। ये अर्धनारीश्वर की पूजा करते हैं। बाकि तो लोग कहते ही हैं कि उनकी दुआ झूठी नहीं होती, उनकी बोली बात सच साबित होती है आदि, ये सभी कुंडलिनीयोगशक्तिजनित जैसी सिद्धियां ही हैं। अभी हाल ही मैं ताली नाम की बायोपिक वैबसीरीज देखी, जो किन्नर गौरी सावंत के जीवन पर बनी है, जिसने किन्नरों को एक संवैधानिक दर्जा दिलवाने में बड़ी भूमिका निभाई। इसमें दिखाया गया कि कैसे वह अपने उभयलिंगी स्वभाव को प्रकट करने के कारण बचपन से ही ज्यादतियों और नफरत का शिकार बनी रही, और कैसे उसने ऐसे व्यवहार और नजरिए को बदलने में समाज की मदद की।